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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् संवृत्ता, असंवृत्ता अथवा विवृत्ता, और मिश्र अर्थात् संवृत्तविवृत्ता । उनमें देव तथा नारकी जीवोंकी अचित्तायोनि होती है। गर्भसे जन्म होनेवालोंकी मिश्रा होती है। और इनसे जो शेष रहे, उनकी तीनों प्रकारकी योनि होती है । गर्भसे जन्मवाले जीवोंकी तथा देवोंकी शीतोष्णा है । तेजःकायिकवालोंकी उष्णा योनि है । और अन्य जो शेष हैं उनकी त्रिविध योनि है । नारकजीव, एकेन्द्रियजीव, तथा देव इनकी संवृत्ता योनि है । गर्भसे उत्पन्न होनेवालोंकी मिश्रा अर्थात्, संवृतविवृत्ता योनि है, और इनसे जो अन्य हैं उनकी विवृत्ता है ॥ ३३ ॥
जरायवण्डपोतजानां गर्भः ॥ ३४ ॥ सूत्रार्थ:-जरायुज, अंडज और पोतज इनका गर्भरूप जन्म होता है । भाष्यम्-जरायुजानां मनुष्य-गो-महिषाजाविकाश्व-खरोष्ट्र-मृग चमर-वराह-गवय-सिंहव्याघ्रक्ष-द्वीपि-श्व-शृगाल-मार्जारादीनाम् । अण्डजानां सर्प-गोधा-कृकलाश-गृहकोकिलिकामत्स्य-कूर्म-नक्र-शिशुमारादीनां पक्षिणां च लोमपक्षाणां हंस-चाष-शुक-गृध्र श्येन-पारावतकाक-मयूर-मद्गु-बक-बलाकादीनां । पोतजानां शल्लक-हस्ति-श्वाविल्लापक-शश-शारिका-नकुलमूषिकादीनां पक्षिणां च चर्मपक्षाणां जलूका-वल्गुलि-भारण्ड-पक्षिविरालादीनां गर्भो जन्मेति ॥
विशेषव्याख्याः -जरायु अर्थात् मनुष्य, गो, महिष (भैंस), अजा (बकरी), अविक (भेड़), अश्व (घोड़ा), खर (गधा), ऊंट, मृग, चमर, शूकर, गवय (नीलगाय), सिंह, व्याघ्र, भालू, गेंडा, कुत्ता, श्रगाल, और मार्जार (बिल्ली) आदि । अण्डज अर्थात्, सर्प, गोह, कृकलाश (गिर गिठान व छिपकली) गृहकोकिलिका, मत्स्य, कछुआ, मगर, घड़ियाल आदि जलचर । अनेक प्रकारके पक्षी, लोम पक्षवाले, हंस, नीलकण्ठ, गृध्र (गीध), श्येन (बाज), कबूतर, काक, मोर, टिट्टिम, बक, तथा बलाका आदि । तथा पोतज अर्थात् शाही (सेई), हाथी, श्वाविल्लापक, शश सारिका, नकुल, मूषिक, चर्मपक्षवाले पक्षी, जलूका, बल्गुली, तथा भारण्डपक्षी विडालआदिका भी गर्भ ही जन्म है ॥ ३४ ॥
नारकदेवानामुपपातः॥ ३५॥ सूत्रार्थ:-नारक तथा देवोंके उपपात जन्म है ॥ ३५ ॥ भाष्यम्-नारकाणां देवानां चोपपातो जन्मेति ।
शेषाणां सम्मूछेनम् ॥ ३६॥ सूत्रार्थ:-जरायुज, अंडज, पोतज, नारक तथा देव इनके अतिरिक्त शेष जीवोंका सम्मूर्छन जन्म है।
भाष्यम्-जरायवण्डपोतजनारकदेवेभ्यः शेषाणां सम्मूर्छनं जन्म । उभयावधारणं चात्र भवति । जरायुजादीनामेव गर्भः । गर्भ एव जरायुजादीनाम् । नारकदेवानामेवोपपातः । उपपात एव नारकदेवानाम् । शेषाणामेव सम्मूर्छनम् । सम्मूर्छनमेव शेषाणाम् ॥
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