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सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् ।
२१७ उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानम् ॥ २७ ॥ भाष्यम्-उत्तमसंहननं वर्षभमर्धवजनाराचं च । तद्युक्तस्यैकाग्रचिन्तानिरोधश्च ध्यानम् ॥
सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-वज्र, ऋषभ, अर्द्धवज्र तथा नाराच यह उत्तम संहनन है । उस उत्तम संहनन (शरीर-अवयव-संस्थानविशेष ) करके युक्त जो प्राणी है उसका एकाग्र रूपसे जो चिन्ताका निरोध अर्थात् सांसारिक चिन्ताओंका त्याग है उसको ध्यानरूप षष्ठ अभ्यन्तर तप समझना चाहिये ॥ २७ ॥
आमुहूतात् ॥२८॥ भाष्यम्-तद्ध्यानमामुहूर्ताद्भवति परतो न भवति दुनित्वात् ॥
सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-वह ध्यान मुहूर्तकालके अभ्यन्तरमें ही होता है न कि परे, क्योंकि मुहूर्तसे परे दुर्ध्यान ( दुष्टध्यान ) होजाता है ॥ २८ ॥
आतेरौद्रधर्मशुक्लानि ॥२९॥ भाष्यम्-तच्चतुर्विधं भवति । तद्यथा । आत रौद्रं धर्म शुक्लमिति तेषाम् ॥
सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-वह ध्यान चार ४ प्रकारका होता है । जैसे-आर्तध्यान रौद्रध्यान, धर्मध्यान, तथा शुक्लध्यान, इन भेदोंसे चार प्रकारका है ॥ २९ ॥ सो अब इनमेंसे यह व्यवस्था है
परे मोक्षहेतू ॥३०॥ भाष्यम्-तेषां चतुर्णा ध्यानानां परे धर्मशुक्ले मोक्षहेतू भवतः । पूर्वे त्वार्तरौद्रे संसारहेतू इति ॥
सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-इन पूर्वोक्त चार प्रकारके ध्यानोंमेंसे परके जो दो ध्यान हैं अर्थात् धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान वे मोक्षके कारण होते हैं । और पूर्वके जो आर्तध्यान तथा रौद्रध्यान हैं वे संसारके कारण हैं ॥ ३०॥ __ अत्राह । किमेषां लक्षणमिति । अत्रोच्यते
अब यहांपर कहते हैं कि इन चार प्रकारके ध्यानोंका क्या लक्षण है? इस विषयको आगेके सूत्रोंसे कहते हैं:
आर्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः ॥३१॥ __ भाष्यम्-अमनोज्ञानां विषयाणां संप्रयोगे तेषां विप्रयोगार्थ यः स्मृतिसमन्वाहारो भवति तदातध्यानमित्याचक्षते । किं चान्यत् ॥
सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-अमनोज्ञ अप्रिय वा अनिष्ट अथवा अरमणीय विषयोंके सम्प्रयोग अर्थात् संयोग होनेपर ( अनिष्ट वा अप्रिय विषयोंके मिल जानेपर.) उन विषयोंके वियोग होनेके अर्थ जो स्मृतिका समन्वाहार अर्थात् चिन्ताका निरोध करके ध्यान है वह आर्तध्यान है ॥ ३१ ॥ और यह भी है किः
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