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________________ १९० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् विशेषव्याख्या—नामके कारण, अर्थात् नामरूप हेतुसे पुद्गल बन्धको प्राप्त होते हैं। नाम है प्रत्यय कारण जिनमें उनको नामप्रत्यय कहते हैं। नामनिमित्तक, नामहेतुक, वा नामकारणवाले, यह नामप्रत्यय इसका अर्थ है । सर्वतः अर्थात् तिर्यक् इधर उधर चारोंओरसे, ऊर्ध्वभागसे तथा अधोभागसे सब ओरसे पुद्गल बन्धको प्राप्त होते हैं । किससे बन्धको प्राप्त होते हैं, योगविशेषसे, काय, वाक् और मनोरूप कर्मयोगविशेषसे पुद्गल बन्धको प्राप्त होते हैं । तथा सूक्ष्म पुद्गल बन्धको प्राप्त होते हैं न कि-बादर (स्थूल) तथा एकक्षेत्राऽवगाही पुद्गल बन्धको प्राप्त होते हैं, न-कि अन्य २ क्षेत्रों में स्थित तथा स्थित (स्थितिशील) पुद्गल बन्धको प्राप्त होते हैं न कि गतिमें प्राप्त । तथा सम्पूर्ण प्रकृतिपुद्गल सम्पूर्ण आत्माके प्रदेशोंमें बन्धको प्राप्त होते हैं । क्योंकि-एक २ आत्माका प्रदेश अनन्त कर्मप्रदेशोंसे बद्ध है। तथा अनन्तानन्तप्रदेश (कर्मग्रहणयोग्य) पुद्गल बन्धको प्राप्त होते हैं, न कि संख्येयप्रदेश, असंख्येयप्रदेश तथा अनन्तप्रदेशवाले क्योंकि-उन प्रदेशोंके ग्रहणकी योग्यता नहीं है । इस प्रकार नामप्रत्ययसे सर्व प्रदेशोंमें यथोक्त पुद्गलोंकी बन्धप्राप्ति प्रदेशबन्ध है ॥ २५॥ सर्व चैतदष्टविधं कर्म पुण्यं पापं च । सब यह पूर्वकथित आठ प्रकारका कर्म पुण्य तथा पाप एतदुभयरूप होता है अर्थात् पुण्य और पाप दोनों प्रकारके अर्थ हैं। तत्र उनमेंसेसद्धेद्यसम्यक्त्वहास्यरतिपुरुषवेदशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यम् ॥२६॥ भाष्यम्-सद्वेद्यं भूतव्रत्यनुकम्पादिहेतुकम् सम्यक्त्ववेदनीयं केवलिश्रुतादीनां वर्णवादादिहेतुकम् हास्यवेदनीयं रतिवेदनीयं पुरुषवेदनीयं शुभमायुष्कं मानुषं दैवं च शुभनाम गतिनामादीनां शुभं गोत्रमुच्चैर्गोत्रमित्यर्थः । इत्येतदष्टविधं कर्म पुण्यम् , अतोऽन्यत्पापम् ॥ . इति तत्त्वार्थाधिगमेऽर्हत्प्रवचनसंग्रहेऽष्टमोऽध्यायः समाप्तः ॥ सूत्रार्थ-विशेषव्याख्या-सद्वेद्य अर्थात् प्राणिमात्र और विशेषरूपसे व्रतियोंमें अनुकम्पा आदिसे होनेवाला सद्वेदनीय, केवली, श्रुतआदिके वर्णवादआदि अर्थात् प्रशंसासे होनेवाला सम्यक्त्ववेदनीय, हास्यवेदनीय, रतिवेदनीय, पुरुषवेदनीय तथा शुभआयु, जैसेमानुष और दैव आयुष्क, शुभनाम अर्थात् गतिनामआदिमें शुभनाम और शुभगोत्र, अर्थात् उच्चैर्गोत्र; यह आठ प्रकारका कर्म पुण्य है, और इससे विरुद्ध पाप है। अतः शुभार्थ उद्योग उचित है ॥ २६ ॥ इत्याचार्योपाधिधारिपण्डितठाकुरप्रसादशर्मप्रणीतभाषाटीकासमलतेऽहत्प्र वचनसंग्रहेऽष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥ For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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