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________________ ११२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् यथासंख्य है। जैसे-दो अर्थात् सौधर्म तथा ऐशानकल्पके देवोंमें तो पीतलेश्या है, और शेष अर्थात् लान्तकसे आदिलेकर सर्वार्थसिद्धपर्यन्त शुक्रलेश्याही है । और समानलेश्याओमभी ऊपर २ के देवोंकी लेश्या अधिक विशुद्ध है. यह विषय कह चुके हैं। अत्राह । उक्तं भवता द्विविधा वैमानिका देवाः कल्पोपपन्नाः कल्पातीताश्चेति । तत् के कल्पा इति । अत्रोच्यते अब यहांपर कहतें हैं कि वैमानिक देवोंके आपने दो भेद कहे हैं, एक कल्पोपपन्न और दूसरा कल्पातीत । सो उनमें कौन कल्पोपपन्न हैं और कौन कल्पातीत हैं ? । इसपर यह अग्रिम सूत्र कहते हैं प्राग्वेयकेभ्यः कल्पाः ॥ २४ ॥ सूत्रार्थ-अवेयकसे पूर्व कल्प हैं, और उनसे परे कल्पातीत हैं। भाष्यम्-प्राग्वेयकेभ्यः कल्पा भवन्ति सौधर्मादय आरणाच्युतपर्यन्ता इत्यर्थः । अतोऽन्ये कल्पातीताः ॥ विशेषव्याख्या सौधर्मसे आदि लेकर ग्रैवेयकके पूर्व अर्थात् आरणाच्युतपर्यन्त कल्प हैं और उन कल्पोंमे जो निवास करते हैं वे कल्पोपपन्न हैं । और शेष आगेके कल्पातीत हैं। अत्राह । किं देवाः सर्व एव सम्यग्दृष्टयो यद्भगवतां परमर्षीणामहतां जन्मादिषु प्रमुदिता भवन्ति इति । अत्रोच्यते । न सर्वे सम्यग्दृष्टयः किं तु सम्यग्दृष्टयः सद्धर्मबहुमानादेव तत्र प्रमुदिता भवन्त्यभिगच्छन्ति च । मिथ्यादृष्टयोऽपि च लोकचित्तानुरोधादिन्द्रानुवृत्त्या परस्परदर्शनात् पूर्वानुचरितमिति च प्रमोदं भजन्तेऽभिगच्छन्ति च । लोकान्तिकास्तु सर्व एव विशुद्धभावाः सद्धर्मबहुमानात्संसारदुःखात्तानां च सत्त्वानामनुकम्पया भगवतां परमर्षीणामहतां जन्मादिषु विशेषतः प्रमुदिता भवन्ति । अभिनिःक्रमणाय च कृतसंकल्पान्भगवतोऽभिगम्य प्रहृष्टमनसः स्तुवन्ति सभाजयन्ति चेति ॥ । अब यहांपर कहते हैं क्या सब देव सम्यग्दृष्टि होते हैं, जो भगवान् परमर्षि अर्हतोंके जन्म अभिषेक आदिमें प्रसन्न होते हैं ? अब इसका उत्तर कहते हैं कि सब देवता तो सम्यग्दृष्टि नहीं होते किन्तु जो सम्यग्दृष्टि हैं वे सद्धर्मके बहुमान (अति आदर )सेही अतिप्रसन्न होते हैं और जन्मादिके स्थानोंपर जातेभी हैं । और मिथ्यादृष्टि देवभी लोकोंके चित्तके अनुरोधसे तथा इन्द्रकी अनुकूलतासे, और परस्परके आनन्ददर्शनसे, तथा १ जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणरचित बृहत्संग्रहणिकी निजटीकामें मलयगिरि कहते हैं कि हरिभद्रसूरि तत्त्वार्थटीकाकार लिखते हैं "भावलेश्या" छहों प्रति निकायमें देवोंको होती हैं। और वही आचार्य अपनी प्रज्ञापनासूत्र (कलकत्तासंस्करण पृ. ३६५) की टीकामें कहता है । जैसे यह विषय प्रमाणबाधित है वैसा तत्त्वार्थटीकामें निर्धारित किया है उसीसे जानलेना । इस कथनसे निश्चित होता है कि मलयगिरिनेभी तत्त्वार्थसूत्रकी टीका की है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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