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________________ सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्रम् । अशुभतरवेदना-नरकोंमें वेदना अर्थात् पीड़ा भी अधो २ भागमें अशुभतर होती जाती है । जैसे; तृतीयभूमि पर्यन्त उष्णवेदना तीव्र, तीव्रतर तथा तीव्रतम होती हैं । और चतुर्थ भूमिमें उष्ण तथा शीत दोनों वेदना होती हैं । पंचमी भूमिमें शीतोष्ण वेदना होती हैं । और आगेकी दो भूमियोंमें अर्थात् षष्ठी और सप्तमीभूमिमें शीत और शीततर वेदना होती हैं । प्रथम शरत्कालमें अथवा अन्तिम निदाघ (ग्रीष्म ) में पित्तकी व्याधिके प्रकोपसे ग्रसित शरीर, तथा चारों ओरसे प्रदीप्त अग्निकी राशिसे वेष्टित तथा मेघरहित आकाशमें मध्यान्हके समयमें आतप (धूप) के निवारणसे शून्य अर्थात् छायाशून्य निरावरण स्थानमें प्राप्त जीवको उष्णतासे उत्पन्न जैसा दुःख होता है, उससे अनन्तगुण अधिक कष्ट उष्णवेदनायुक्त नरकोंमें होता है । तथा पौष और माघके मासोंमें तुषार ( वर्फ ) से लिप्त शरीरवाले, और रात्रिमें हृदय, हस्त, चरण, अधर ओष्ट और दांतोंके खटखटानेवाले प्रतिक्षण शीतकालके पवनके बढनेपर अग्निके आश्रय तथा वस्त्रसे रहित मनुष्यको शीतसे उत्पन्न दुःख जैसा अशुभ होता है, उससे भी अनन्त गुण कष्ट शीतवेदनासहित नरकोंमें होता है । तथा नरककी उष्णतामें इतना कष्ट होता है कि, यदि उष्णवेदनावाले नरकसे नारक जीवको निकालकर अति प्रदीप्त बड़ी भारी अङ्गारकी राशिमें फेंक दें, तो वह मन्द पवनसे अति शीतल छायामें प्राप्तके समान अनुपम सुखको अनुभवन करेगा और निद्रायुक्त भी हो जावेगा । इस प्रकारकी उष्णता नरककी वर्णन की जाती है । ऐसे ही यदि शीतवेदनावाले नरकसे नारकजीवको निकालकर कोई रात्रिके समय माघ मासमें आकाशमें तुषारकी राशिपर फेंक दें, तो यद्यपि वह तुषार राशि दांतोंको खटखटानेवाली तथा शरीरकम्पा आदिका हेतु है; तथापि वहां पर वह नारकजीव सुखको अनुभवन करैगा और अनुपनिद्राको भी प्राप्त होगा। इसप्रकार अति कष्टदायक नरकके शीतजनित दुःखको वर्णन करते हैं । अशुभतरविक्रियाः । अशुभतराश्च विक्रिया नरकेषु नारकाणां भवन्ति । शुभं करिष्याम इत्यशुभतरमेव विकुर्वते । दुःखाभिभूतमनसश्च दुःखप्रतीकारं चिकीर्षवो गरीयस एव ते दुःखहेतून्विकुर्वत इति ॥ __ अशुभतरविक्रिया-नरकोंमें नारकजीवोंकी विक्रिया अशुभतर होती है । शुभकरेंगे ऐसे विचारयुक्त होने पर भी अशुभतर ही विकारको प्राप्त होते हैं । तथा दुःखोंसे अति ग्रस्तचित्त होकर दुःखोंके प्रतीकार अर्थात् मेटनेके उपाय करनेकी इच्छा करते हुए भी महान् दुःखोंहीको उत्पन्न करते हैं ॥ ३ ॥ परस्परोदीरितदुःखाः ॥४॥ सूत्रार्थः-नरकके जीव परस्पर एक दूसरेको दुःख उत्पन्न करते हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004021
Book TitleSabhashya Tattvarthadhigam Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorThakurprasad Sharma
PublisherParamshrut Prabhavak Mandal
Publication Year
Total Pages276
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size6 MB
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