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रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् दिमान् परिणाम योग तथा उपयोग होते हैं ॥ उनमें उपयोग तो प्रथम (अ. २ सू. १९ में ) कह चुके हैं और योग आगे (अ. ६ सू. १. में) कहेंगे ॥ ४४ ॥ इत्याचार्योपाधिधारिद्विवेदोपनामकठाकुरप्रसादशर्मप्रणीत-भाषाटीकासमलङ्कृते
तत्त्वार्थाधिगमेऽहत्प्रवचनसङ्ग्रहे पञ्चमोऽध्यायः ॥५॥
___ अथ षष्ठोऽध्यायः। अत्राह । उक्ता जीवाजीवाः । अथास्रवः क इत्यास्रवप्रसिद्ध्यर्थमिदं प्रक्रम्यते
अब कहते हैं कि जीव तथा अजीव पदार्थका निरूपण कर चुके । अब उसके पश्चात् क्रमप्राप्त आस्रव पदार्थका निरूपण करना चाहिये, इस प्रयोजनकी प्रसिद्धिके लिये इस सूत्रका आरम्भ करते हैं
कायवाङ्मनःकर्म योगः ॥१॥ सूत्रार्थ-कायिक, वाचिक, तथा मानस जो कर्म है उसको योग कहते हैं । भाष्यम्-कायिकं कर्म वाचिकं कर्म मानसं कर्म इत्येष त्रिविधो योगो भवति । स एकशो द्विविधः । शुभश्चाशुभश्च । तत्राशुभो हिंसास्तयाब्रह्मादीनि कायिकः। सावधानृतपरुष. पिशुनादीनि वाचिकः । अभिध्याव्यापादेासूयादीनि मानसः । अतो विपरीतः शुभ इति ॥
विशेषव्याख्या:-कायिक कर्म, वाचिक कर्म, तथा मानस कर्म यह तीन प्रकारका योग होता है । वह प्रत्येक शुभ और अशुभ भेदसे दो प्रकारका होता है। उनमें से हिंसा चौर्य ( चोरी ) तथा अब्रह्मचर्य (मैथुनसेवन ) इत्यादि कायिक अशुभ कर्म योग है। किसीकी निंदा, मिथ्याभाषण, कठोर वचन, चगुली इत्यादि वाचिक अशुभ कर्म योग है। किसीके धन लेनेकी अभिलाषा, मारनेकी इच्छा, ईर्ष्या (जलन ), असूया (गुणोंमेंभी दोषारोपण) तथा अनिष्टचिंतन आदि मानस अशुभ कर्म योग है । और इनसे विपरीत शुभ है । जैसे-अहिंसा अचौर्य आदि कायिक, प्रशंसा सत्यभाषणादि वाचिक शुभ कर्म योग है । तथा दूसरेकी शुभचिंतनतादि मानस शुभ कर्म है ॥ १॥
स आस्त्रवः॥२॥ सूत्रार्थ-पूर्वोक्त योग आस्रव है।
भाष्यम्-स एष त्रिविधोऽपि योग आस्रवसंज्ञो भवति । शुभाशुभयोः कर्मणोरास्रवणादास्रवः । सरःसलिलावाहिनिर्वाहिस्रोतोवत् ॥
विशेषव्याख्या-कायिक, वाचिक, तथा मानस जो कर्म हैं, यही तीन प्रकारका जो योग वर्णन किया है वही आस्रव है । शुभ तथा अशुभ कर्मोंका आस्रव अर्थात् आगमन होनेसे यह आस्रव कहा जाता है । जैसे-तालाबके जलके ग्रहण तथा निष्कासन करनेवाला प्रवाह है वैसेही वह आस्रव है, अर्थात् उसी मार्गसे कर्मोंका आगमन होता है ॥२॥
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