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जयधवलासहितं
क सा य पा हु डं
भाग ६ (पदेसविहची)
भारतीय दिगम्बर जैन संघ
Jain Education
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___ भा० दि० जैनसंघग्रन्थमालायाः प्रथमपुष्पस्य षष्ठमो दलः
श्रीयतिवृषभाचार्यरचितचूर्णिसूत्रसमन्वितम्
श्रीभगवद्गुणधराचार्यप्रणीतम् क सा य पा हु डं
तयोश्च श्रीवीरसेनाचार्यविरचिता जयधवला टीका
[ पञ्चमोऽधिकारः प्रदेशविभक्तिः]
सम्पादको
पं० फूलचन्द्रः
सिद्धान्तशास्त्री सम्पादक महाबन्ध, सहसम्पादक
पं० कैलाशचन्द्रः सिद्धान्तरत्न, सिद्धान्तशास्त्री, न्यायतीर्थ प्रधानाचार्य स्याद्वाद महाविद्यालय
काशी
धवला
प्रकाशक
मंत्री साहित्य विभाग भा० दि० जैन संघ, चौरासी, मथुरा,
वि० सं० २०१५]
[ई० सं० १९५८
वीरनिर्वाणाब्द २४८४ मूल्यं रूप्यकद्वादशकम्
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भा० दि० जैनसंघ-ग्रन्थमाला
इस ग्रन्थमालाका उद्देश्य प्राकृत संस्कृत आदि भाषा में निबद्ध दि० जैनागम, दर्शन, साहित्य, पुराण आदिको यथासम्भव हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित करना
सञ्चालक
भा० दि० जैनसंघ
ग्रन्थाङ्क १-६
प्राप्तिस्थान
मैनेजर भा० दि. जैन संघ
चौरासी, मथुरा
मुद्रक-कैलाश प्रेस, बी० ७/९२ हाड़ाबाग ( सोनारपुरा ) वाराणसी ।
स्थापनाब्द ]
प्रति ८००
[वी०नि० सं० २४६८
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Sri Dig. Jain Sangha Granthamala No 1-VI KASAYA-PAHUDAM
VI PRADESHAVIBHAKTI
BY GUNADHARACHARYA
WITH
CHURNI SUTRA OF YATIVRASHABHACHARYA
AND THE JAYADHAVALA COMMENTARY OF
VIRASENACHARYA THERE-UPON
EDITED BY Pandit Phulachandra Siddhantashastri
EDITOR MAHABANDHA JOINT EDITOR DHAVALA,
Pandit Kailashachandra Siddhantashastri,
Nyayatirtha, Siddhantaratna, Pradhanadhyapak, Syadvada Digambara Jain
Vidyalaya, Varanasi.
PUBLISAED BY THE SECRETARY PUBLICATION DEPARTMENT. THE ALL-INDIA DIGAMBAR JAIN SANGHA
CHAURA$I, MATHURA.
VIRA-SAMVAT 2484)
( 1958 A. C.
नम्र सूचन इस ग्रन्थ के अभ्यास का कार्य पूर्ण होते ही नियत
समयावधि में शीघ्र वापस करने की कृपा करें. जिससे अन्य वाचकगण इसका उपयोग कर सकें.
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Sri Dig. Jain Sangha Grantha Mala
Foundation year-]
(-Vira Niravan Samvat 2468
Aim of the Series :
Publication of Digambara Jain Siddhanta, Darsana, Purana, Sahitya and other works in Prakrit, Sanskrit etc. possibly with Hindi
Commentary and Translation
DIRECTOR :SRI BHARATAVARSIYA DIGAMBARA JAIN SANGHA
NO. 1. VOL. VI.
To be had from :
THE MANAGER SRI DIG. JAIN SANGHA, CHAURASI. MATHURA,
U. P. (INDIA)
Pripted by
KANHAIYALAL GUPTA At The Kailash Press, Sonarpura Varanasi.
800 Copies,
Price Rs. Twelve only
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प्रकाशक की ओर से
कसा पाहुडके छठे भाग प्रदेशविभक्तिको पाठकोंके हाथों में देते हुए हमें हर्ष होता है । इस भागमें प्रदेशविभक्तिका स्वामित्व अनुयोगद्वारपर्यन्त भाग है । शेष भाग, स्थितिक तथा झीणाझीण अधिकार सातवें भाग में मुद्रित होगा । इस तरह प्रदेशविभक्ति अधिकार दो भागों में समाप्त होगा । सातवां भाग भी छप रहा है और उसके भी शीघ्र ही छपकर तैयार हो जाने की पूर्ण आशा है ।
इस प्रगतिका श्रेय मूलतः दो महानुभावोंको है । कसायपाहुडके सम्पादन प्रकाशन आदिका पूरा व्ययभार डोंगरगढ़ के दानवीर सेठ भागचन्द्रजीने उठाया हुआ है। पिछली बार संघ कुण्डलपुर अधिवेशन के अवसर पर आपने इस सत्कार्य के लिये ग्यारह हजार रुपये प्रदान किये थे और इस वर्ष बामोरा अधिवेशन के अवसर पर पाँच हजार रुपये पुनः प्रदान किये हैं । आपकी दानशीला धर्मपत्नी श्रीमती नर्वदाबाई जी भी सेठ साहबकी तरह ही उदार हैं और इस तरह इस दम्पतीकी उदारता के कारण इस महान् ग्रन्थराजके प्रकाशनका कार्यं निर्वाध गति से चल रहा है ।
सम्पादन और मुद्रणका एक तरहसे पूरा दायित्व पं० फूलचन्द्रजी सिद्धान्तशास्त्रीने वहन किया हुआ है । इस तरह उक्त दोनों महानुभावोंके कारण कसायपाहुडका प्रकाशन कार्य प्रशस्त रूपमें चालू है । इसके लिये मैं सेठ साहब, उनकी धर्मपत्नी तथा पण्डितजीका हृदयसे आभारी हूँ ।
काशी में गङ्गा तट पर स्थित स्व० बाबू छेदीलाल जी के जिन मन्दिरके नीचेके भाग में जयधवला कार्यालय अपने जन्म कालसे ही स्थित है और यह सब स्व० बाबू छेदीलालजी के पुत्र स्वo बाबू गणेशदास जो तथा पौत्र बा सालिगरामजी और बा० ऋषभदासजी के सौजन्य तथा धर्मप्रेमका परिचायक है । अतः मैं उनका भी आभारी हूँ ।
ऐसे महान् ग्रन्थराजका प्रकाशन पुनः होना संभव नहीं है । अतः जिनवाणीके भक्तोंका यह कर्त्तव्य है कि इसकी एक एक प्रति खरीद कर जिनमन्दिरोंके शास्त्र भण्डारोंमें विराजमान करें | जिनबिम्ब और जिनवाणी दोनोंके विराजमान करने में समान पुण्य होता है । अतः जिनबिम्बकी तरह जिनवाणीको भी विराजमान करना चाहिये |
बयधवला कार्यालय
भदैनी, काशी वीरजयन्ती - २८८४
}
कैलाशचन्द्र शास्त्री
मंत्री साहित्य विभाग मा० दि० जैन संघ
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विषय-सूची मङ्गलाचरण
१ उत्कृष्ट परिमाण प्रदेशविभक्ति कहनेकी सूचना
२ जघन्य परिमाण प्रदेशविभक्तिके दो भेद
२ क्षेत्रके दो भेद सूत्रमें आये हुए दो 'च' शब्दोंकी सार्थकता २ रत्कृष्ट क्षेत्र मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्ति २-४९
जघन्य क्षेत्र
स्पर्शनके दो भेद मूलप्रदेशविभक्ति कहनेके बाद उत्तर
उत्कृष्ट स्पर्शन प्रदेशविभक्ति कहनेकी सूचना
जघन्य स्पर्शन पुनः प्रदेशविभक्तिके दो भेदोंका
कालके दो भेद निर्देश करके मूलप्रदेशविभक्तिके २२
'उत्कृष्ट काल अनुयोगद्वारोंके साथ शेष अनुयोगद्वारों
जघन्य काल का नाम निर्देश
अन्तरके दो भेद भागाभागके दो भेदोंका नामनिर्देश
उत्कृष्ट अन्तर जीवभागाभागके दो भेद
जघन्य अन्तर उत्कृष्ट जीवभागाभागका कथन
भाव कथन जघन्य जीवभागाभागका कथन प्रदेशभागाभागके दो भेद
अल्पबहुत्व के दो भेद उत्कृष्ट प्रदेशभागाभागका कथन
उत्कृष्ट अल्पबहुस्व जघन्य प्रदेशभागाभागका कथन
जघन्य अल्पबहुत्व सर्व-नोसर्वप्रदेशविभक्तिका कथन
भुजगार प्रदेशविभक्ति २८उत्कृष्ट-अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका कथन भुजगार विभक्तिके १३ अनुयोगद्वार सादि आदि प्रदेशविभक्ति कथन
समुत्कीर्तना स्वामित्वके दो भेद
स्वामित्व सस्कृष्ट स्वामित्व कथन
काल जघन्य स्वामित्व कथन
अन्तर कालानुगमके दो भेद
नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचय उत्कृष्ट काल कथन
भागाभाग जघन्य काल कथन
परिमाण अन्तरानुगमके दो भेद
क्षेत्र उत्कृष्ट अन्तर कथन
स्पर्शन जघन्य अन्तर कथन
काल नाना जीवोंकी अपेक्षा भङ्गविचयके
अन्तर दो भेद
भाव नाना जीवोंकी अपेक्षा उत्कृष्ट भङ्गविचय १९
अल्पबहुत्व नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य भङ्गविचय २०
पदनिक्षेप
३६परिमाणके दो भेद
पदनिक्षेपके ३ अनुयोगद्वार
mr mr020309 v
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समुत्कीर्तन के दो भेद उत्कृष्ट समुत्कीर्तना जघन्य समुत्कीर्तना स्वामित्वके दो भेद उत्कृष्ट स्वामित्व
जघन्य स्वामित्व
अल्पबहुत्व के दो भेद
उत्कृष्ट अल्पबहुत्व
जघन्य अल्पवहुत्त्र वृद्धिविभक्ति
वृद्धिविभक्तिके १३ अनुयोगद्वार समुत्कीर्तना स्वामित्व
काल
अन्तर
नाना जीवों की अपेक्षा भङ्गविचय
भागाभाग
परिमाण
क्षेत्र
स्पर्शन
काल
अन्तर
भाव
( २ )
जीवभागाभागको स्थगित कर पहले प्रदेशभागाभाग कहनेकी प्रतिज्ञा प्रदेशभागाभाग के दो भेद
३६
३६
३६
३६
३६
४५
४६
४६
४७
४८
४९
अल्पबहुत्व
४९
४९
स्थानप्ररूपणा के कथन करनेकी सूचना उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति ५० - ३९२ उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्तिके २३ अनुयोग- २३ द्वारोंके साथ अन्य अनुयोगद्वारोंकी सूचना ५० भादिके अन्य अनुयोगद्वारोंको छोड़कर चूर्णिसूत्रों में स्वामित्व के कहनेका कारण भागाभाग के दो भेद
४०
४१ चूर्णिसूत्र के अनुसार मिध्यात्वका उत्कृष्ट स्वामित्व
४१
४१
बारह कषाय और छह नोकषायोंका उत्कृष्ट स्वामित्व
४१-४९
४१
४१
४१ नपुंसक वेदका उत्कृष्ट स्वामित्व स्त्रीवेदका उत्कृष्ट स्वामित्व ४१ पुरुषवेदका उत्कृष्ट स्वामित्व
४३
४४
४४
उत्कृष्ट प्रदेशभागाभाग
जघन्य प्रदेशभागाभाग
सर्व नोसर्वप्रदेशविभक्ति
उत्कृष्ट - अनुत्कृष्टि प्रदेशविभक्ति
जघन्य - अजघन्य प्रदेश विभक्ति सादि -आदि प्रदेशविभक्ति
५०
५०
५०
५०
सम्यग्मिध्यात्वका उत्कृष्ट स्वामित्व सम्यक्त्वका उत्कृष्ट स्वामित्व
क्रोधसंज्वलनका उत्कृष्ट स्वामित्व
मान संज्वलनका उत्कृष्ट स्वामित्व माया संज्वलनका उत्कृष्ट स्वामित्व लोभ संज्वलनका उत्कृष्ट स्वामित्व उच्चारणा के अनुसार २८ प्रकृतियोंका
उत्कृष्ट स्वामित्व
चूर्णिसूत्रोंके अनुसार मिथ्यात्वका जधन्य
स्वामित्व
सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्वामित्व सम्यक्त्वका जघन्य स्वामित्व आठ कषायों का जघन्य स्वामित्व अनन्तानुबन्धीका जघन्य स्वामित्व नपुंसकवेदका जघन्य स्वामित्व स्त्रीवेदका जघन्य स्वामित्व पुरुषवेदका जघन्य स्वामित्व क्रोधसंज्वलनका जघन्य स्वामित्व मान-माया संज्वलनका जघन्य स्वमित्व लोभसंज्वलनका जघन्य स्वामित्व छह नोकषायोंका जघन्य स्वामित्व उच्चारणाके अनुसार जघन्य स्वामित्व
५०
६४
७०
७०
७०
७०
७२
७६
८१
८८
९१
९९
१०४
११०
११३
११४
११४
११४
१२४
२०२
२४४
२४९
२५६
२६७
२९१
२९१
३७७
३८२
३८३
३८५
३८६
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कसायपाहुडस्स प दे स वि हत्ती पंचमो अत्याहियारो
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ANSWER
सिरि-जइवसहाइ रियविरइय-चुण्णिसुत्तसमण्णिदं सिरि-भगवंतगुणहरभडारओवइडे क सा य पा हु डं
तस्स सिरि-वीरसेणाइरियविरइया टीका जयधवला
तत्थ पदेसविहत्ती णाम पंचमो अत्थाहियारो )
(णमियूण अणंतजिणं अणंतणाणेण दिवसव्वटुं । कम्मपदेसविहत्तिं वोच्छामि जहागर्म पयदो ॥ १ ॥
अनन्त ज्ञानके द्वारा जिन्होंने सब पदार्थों को जान लिया है उन अनन्तनाथ जिनको नमस्कार करके कर्मप्रदेशविभक्तिको आगमके अनुसार सावधान होकर करता हूँ ॥१॥
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेस विहत्ती ५ ६१. 'पयडीए मोहणिञ्जा ० ' एदिस्से विदियमूलगाहाए पुरिमम्मि णिलीणपयडि-हिदि-अशुभागविहत्तीओ परूविय संपहि तिस्से चैव गाहाए पच्छिमम्मि ' अवदिउकस्समणुक्कसं ति पदेण सूचिदपदेसविहत्तिं भणिस्सामो । एदेण पदेण पदेसविहत्ती कथं सूचिदा ? उच्चदे - उकस्सं ति पदेण उक्कस्सपदेस विहत्ती परूविदा | अस्सं ति पदेण वि अणुक्कस्सविहत्ती जाणाविदा । जेणेदाणि वि दो वि पदाणि देसामासियाणि तेण एत्थ मूलुत्तरपय डिपदेसविहत्तिगन्भा पदेसविहत्ती णिलीणा ति दट्ठव्वं । तत्थ
* पदेसविहत्ती दुविहा- मूलपयडिपदेसविहत्ती च उत्तर पयडिपदेसविहत्ती च ।
२. एवं पदेसविहत्ती दुविहा चेव होदि, तदियादिपदेस विहत्तीणमसंभवादो । एत्थतण 'च' सदो उत्तसमुच्चयट्ठोत्ति दट्ठव्वो । ण विदिओ 'च' सदो अणत्थओ, दुविहयाग्गहमवट्टिदाणं दोन्हं 'च' सद्दाणमेयत्थत्ताभावादो * ।
* तत्थ मूलपयडिपदेसविहत्तीए गदाए ।
$ १. 'पयडीए मोहणिज्जा ० ' इस दूसरी मूल गाथाके पूर्वार्ध में समाविष्ट प्रकृतिविभक्ति, स्थितिविभक्ति और अनुभागविभक्तिका कथन करके अब उसी गाथाके उत्तरार्ध में आये हुए 'उक्कस्समणुक्कस्सं' पदके द्वारा सूचित होनेवाली प्रदेशविभक्तिको कहेंगे ।
शंका- 'उक्कस्समणुक्कस्तं' इस पद से प्रदेशविभक्ति कैसे सूचित हुई !
समाधान- 'उक्करसं' इस पदके द्वारा उत्कृष्ट प्रदेशबिभक्ति कही गई है और 'अणुकरसं ' इस पदके द्वारा अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति कही गई है । यतः ये दोनों पद देशामर्षक हैं अतः यहाँ मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्ति और उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्तिरूप प्रदेशविभक्ति गर्भित है, ऐसा जानना चाहिये । वहाँ
* प्रदेशविभक्ति दो प्रकारकी है— मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्ति और उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति ।
९२. इस प्रकार प्रदेशविभक्ति दो प्रकारकी ही होती है, क्योंकि तीसरी आदि प्रदेशविभक्तियाँ संभव नहीं हैं । यहाँ पर जो 'च' शब्द आया है वह उक्त अर्थका समुच्चय करने के लिये है ऐसा समझना चाहिये । यदि कहा जाय कि उक्तका समुच्चय एक ही 'च' शब्दसे हो जाता है अतः चूर्णिसूत्रमें आया हुआ दूसरा 'च' शब्द व्यर्थ है सो भी कहना ठीक नहीं है, क्योंकि दो 'च' शब्द द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयकी अनुकूलता बतलानेके लिये दिये गये हैं, अतः वे दोनों एकार्थक नहीं हैं ।
* उनमेंसे मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्तिके समाप्त होने पर ।
१. प्रतौ 'पुरिमत्थम्मि' इति पाठः । २. श्रा० प्रतौ 'पच्छिमत्थम्मि' इति पाठः । ३. श्र०प्रतौ ' - पदेसविहत्ती उत्तर -' इति पाठः । ४ ता प्रतौ 'चसद्दाणमेय तत्थाभावादो' इति पाठः ।
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गा० २२]
मुलपयडिपदेसविहत्तीए भागाभागं ६३. मूलपयडिपदेसविहत्तीए परविदाए पच्छा उत्तरपयडिपदेसविहत्ती परूविदव्वा त्ति एदेण वयणेण जाणादिं । तेणेदं देसामासियं सुत्तं । एदस्स विवरणटुं परूविदउच्चारणमेत्थ भणिस्सामो
४. पदेसहित्ती दुविहा--मूलपयडिपदेसविहत्ती उत्तरपडिपदेसविहत्ती चेव । मूलपयडिपदेसविहत्तीए तत्थ इमाणि बाबीस अणिओगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति । तं जहा-भागाभाग १ सव्वपदेसविहत्ती २ णोसव्वपदेसविहत्ती ३ उक्कस्सपदेसविहत्ती ४ अणुक्कस्सपदेसविहत्ती ५ जहण्णपदेसविहत्ती ६ अजहण्णपदेसविहत्ती ७ सादियपदेसविहत्ती ८ अणादियपदेसविहत्ती ९ धुवपदेसविहत्ती १० अर्द्धवपदेसविहत्ती ११ एगजीवेण सामित्तं १२ कालो १३ अंतरं १४ णाणाजीवेहि भंगविचओ १५ परिमाणं १६ खेत्तं १७ पोसणं १८ कालो १९ अंतरं २० भावो २१ अप्पाबहुअं २२ चेदि । पुणो भुजगार-पदणिक्खेव-वडि-हाणाणि त्ति ।
५. संपहि भागाभागं दुविहं—जीवभागाभागं पदेसभागाभागं चेदि । तत्थ जीवभागाभागं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं० । उक्कस्से पयदं। दुविहोणिदेसो-ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह. उकस्सपदेसविहत्तिया' जीवा सव्वजीवाणं केवडिओ भागो ? अणंतिमभागो । अणुक्कस्सपदेस० जीवा सव्वजी० अणंता भागार । एवं तिरिक्खोघं ।
३. मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्तिका कथन करके पीछे उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति कहनी चाहिये यह इस चूर्णिसूत्रके द्वारा जताया गया है। अतः यह सूत्र देशामर्षक है, इसलिए इसका व्याख्यान करनेके लिये कही गई उच्चारणावृत्तिको यहाँ कहते हैं
६४. प्रदेशविभक्ति दो प्रकारकी है-मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्ति और उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्ति । उनमेंसे मूलप्रकृतिप्रदेशविभक्तिमें ये बाईस अनुयोगद्वार जानने योग्य हैं। वे इस प्रकार हैं-भागाभाग १, सर्वप्रदेशविभक्ति २, नोसर्वप्रदेशविभक्ति ३, उत्कृष्टप्रदेशविभक्ति ३, अनुत्कृष्टप्रदेशविभक्ति ५, जघन्यप्रदेशविभक्ति ६, अजघन्यप्रदेशविभक्ति ७, सादिप्रदेशविभक्ति ८, अनादिप्रदेशविभक्ति ९, ध्रवप्रदेशविभक्ति १०, अध्रवप्रदेशविभक्ति ११, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व १२, काल १३, अन्तर १४, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय १५, परिमाण १६, क्षेत्र १७, स्पर्शन १८, काल १९, अन्तर २०, भाव २१ और अल्पबहुत्व २२ । इनके सिवा भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थान ये अनुयोगद्वार और भी हैं।
६५. अब भागाभागको कहते हैं। वह दो प्रकारका है-जीवभागाभाग और प्रदेशभागाभाग। उनमेंसे जीवभागाभाग दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश विभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? अनन्तवें भागप्रमाण हैं। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके अनन्त बहुभागप्रमाण हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्यश्चोंमें जानना चाहिए।
१. आ०प्रतौ 'मोह° उक्कस्सिये पदेविहत्तिया' इति पाठः। २. भाप्रतौ 'अणंता भागं' इति पाठः।
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
$ ६. आदेसेण णिरय० पोरइएस मोह० उक० पदेस० सव्वजी० के० १ असंखे ० भागो । अणुक्क० असंखेज्जा भागा । एवं सव्वणेरइय - सव्वपंचिंदियतिरिक्खमणुस्स- मणुस अपज ० -देव-भवणादि जाव अवराइदो ति । मणुसपज० - मणुसिणी०सव्वडसिद्धि० उक्क० पदेसवि० सव्व० केवडि ० १ संखे ० भागो । अणुक्कस्स० संखेजा भागा । एवं दव्वं जाव अणाहारि ति ।
४
O
७. जहण्णए पयदं । दुविहो णि० – ओघेण आदे० | ओघेण मोह जहण्णाजहण्ण• उक्कस्साकस्स० भंगो । एवं सव्वमग्गणासु णेदव्वं जाव अणाहारिति । $ ८. पदेसभागाभागाणुगमेण दुविहो णि० – ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० भागाभागो णत्थि, मूलपयडिअप्पणाए पदभेदाभावादो' । अधवा मोहणीयसव्यपदेसा सेससंतकम्मपदेसेहिंतो किं सरिसा असरिसा ति संदेहेण विणडिय -
९६. आदेश से नरकगतिमें नारकियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सब नारकी जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण हैं । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले असंख्यात बहुभागप्रमाण हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यन, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यनी और सर्वार्थसिद्धिके देवों में उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
$ ७. जघन्यसे प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकर्मकी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिवालोंका भागाभाग उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवालोंके भागाभाग की तरह होता है । इस प्रकार अनाहारीपर्यन्त सर्व मार्गणाओं में जाना चाहिये ।
विशेषार्थ - जिन जीवोंकी संख्या अनन्त है उनमें अनन्तैकभाग जीव उत्कृष्ट प्रदेश विभक्तिवाले होते हैं और अनन्त बहुभाग जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले होते हैं । जिनकी संख्या असंख्यात है उनमें असंख्यातैकभाग जीव उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले और असंख्यात बहुभाग जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले होते हैं । तथा जिनकी संख्या संख्यात है उनमें संख्यातैकभाग जीव उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले और संख्यातबहुभाग जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले होते हैं । इसी प्रकार जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिवालोंका भागाभाग होता है, क्योंकि उत्कृष्ट प्रदेशसंचय और जघन्य प्रदेशसंचयकी सामग्री सुलभ नहीं है जैसा कि आगे स्वामित्वानुगमसे ज्ञात होगा ।
§ ८. प्रदेशभागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयका भागाभाग नहीं है, क्योंकि मूलप्रकृतिविभक्तिकी अपेक्षा पदभेद नहीं है । अथवा मोहनीय कर्म सब प्रदेश शेष सत्कर्मप्रदेशोंके समान होते हैं अथवा असमान होते हैं इस सन्देहसे व्याकुल शिष्यकी बुद्धिकी व्याकुलताको दूर करने के
१. ता० प्रतौ 'पदेस भेदाभावादो' इति पाठः । २. ता०प्रतौ 'विगडिय' इति पाठः ।
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गा० २२]
मूलपयडिपदेसविहत्तीए भागाभागं सिस्सस्स बुद्धिवाउलविणासणमिमा परूवणा एत्थ असंबद्धा वि कीरदे । तं जहाजोगवसेण कम्मसरूवण परिणदकम्मइयवग्गणक्खंधे पुंजिय पुणो आवलियाए असंखे०भागेण भागं घेत्तूण लद्धं पुध दृविय पुणो सेसदव्वं सरिसअट्ठभागे कादण' एवं ठवेदव्वं-: । पुणो आवलियाए असंखे भागं विरलिय पुव्वमवणिदभागंसमखंडं कादूण दिण्णे तत्थेगखंडं मोत्तूण बहुखंडेसु पढमपुंजे पक्खित्तेसु वेदणीयभागो होदि । पुणो सेसेगरूवधरिदमवद्विदविरलणाए समखंडं करिय दादूण तत्थेगरूवधरिदं मोत्तूण सेससव्वरूवधरिदखंडेसु विदियपुंजे पक्खित्तेसु मोहणीयभागो होदि । पुणो सेसेगरूवधरिदमवहिदविरलणाए समखंड करिय दादूण तत्थेगभागं मोत्तूण सेसबहुभागेसु सरिसतिण्णिभागे करिय मज्झिल्लतिसु पुंजेसु पुध पुध पक्खित्तेसु गाणावरणीय-दंसणावरणीय-अंतराइयाणं भागा होति । पुणो सेसेगुरूवधरिदमवट्टिदविरलणाए समखंड करिय दादूण पुणो तत्थगरूवधरिदं मोत्तण सेससव्वरूवधरिदेसु सरिसवेभागे कादण चउत्थपुंजे पक्खित्तेसु णामा-गोदभागा होति । पुणो सेसेगरूवधरिदे पंचमपुंजे पक्खित्ते आउअभागो होदि । सव्वत्थोवो आउअभागो। णामा-गोदभागा दो वि सरिसा विसेसाहिया। णाण-दसणावरण-अंतराइयाणं भागा तिणि वि सरिसा विसेसाहिया । लिये असम्बद्ध होने पर भी यह कथन यहाँ किया जाता है। जो इस प्रकार हैयोगके वशसे कमरूपसे परिणत हुए कार्मणवर्गणा स्कन्धको एकत्र करके उसमें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देकर जो लब्ध आवे उसे पृथक् स्थापित कर और शेष द्रव्यके समान आठ भाग करके इस प्रकार स्थापित करे-...। फिर आवलिके असंख्यातवें भागका विरलन करके पहले अलग किये गये भागके समान खण्ड करके विरलित राशिपर देनेपर वहाँ एक खण्डको छोड़कर शेष सब खण्डोंको प्रथम पुंजमें मिलाने पर वेदनीयकर्मका भाग होता है। फिर एक विरलन अंकके प्रति प्राप्त शेष द्रव्यको अवस्थित विरलनके ऊपर समान खण्ड करके देनेपर वहाँ एक अंकके प्रति प्राप्त द्रव्यको छोड़कर शेष सब विरलित रूपोंपर दिये गये खण्डोंको दूसरे पुंजमें मिला देनेपर मोहनीयकर्मका भाग होता है। पुनः एक विरलन अंकके प्रति प्राप्त शेष द्रव्यको अवस्थित विरलनके ऊपर समान खण्ड करके देकर उनमेंसे एक भागको छोड़कर शेष बहुभागोंके समान तीन भाग करके मध्यके तीन पुंजोंमेंसे प्रत्येकमें एक एक भागके मिलाने पर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय और अन्तरायकर्मके भाग होते हैं। पुनः एक विरलन अंकके प्रति प्राप्त शेष द्रव्यको अवस्थित विरलनके ऊपर समान खण्ड करके देकर उनमेंसे एक विरलित रूपपर दिये गये खण्डको छोड़कर शेष सब रूपोंपर दिये गये खण्डोंके दो समान भाग करके चौथे पुजमें मिलानेपर नामकर्म और गोत्र कर्मके भाग होते हैं। पुनः शेष बचे एक खण्डको पञ्चम पुजमें मिलानेपर आयुकर्मका भाग होता है । अतः आयुकर्मका भाग सबसे थोड़ा है। नामकर्म और गोत्रकर्मके दोनों भाग समान हैं, किन्तु आयुकर्मके भागसे विशेष अधिक हैं । ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय कर्मके तीनों भाग समान हैं, किन्तु नामकर्म और गोत्र
१. ता०प्रतौ 'अट्ठभागं कादूण' इति पाठः । २. ता०प्रतौ 'तिपुजेसु' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ मोहणीयभागो विसेसाहिओ। वेयणीयभागो विसेसाहिओ । जहा बंधमस्सिदूण अण्णं कम्माणं पदेसभागाभागपरूवणा कदा तहा संतमस्सिदूण वि कायव्वा, विसेसाभावादो। णवरि अट्टण्हं कम्माणं सव्वदव्वस्स असंखे०भागो आउअदव्वं । णाणावरण-दसणावरणमोह-णाम-गोदंतरायाणं दव्वं पादेक सव्वदव्वस्स सत्तमभागो देसूणो। वेयणोयस्स सत्तमभागो सादिरेयो । एवं चदुसु वि गदीसु बंध-संते' अस्सिदूण पदेसभागाभागपरूवणा अट्ठण्हं पि कम्माणं कायव्वा । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि ति । कर्मके भागसे विशेष अधिक हैं। मोहनीयकर्मका भाग उक्त कर्मों के भागसे विशेष अधिक है
और वेदनीयकर्मका भाग मोहनीयकर्मके भागसे विशेष अधिक है। जैसे बंधको लेकर आठों कर्मों के प्रदेशोंके भागाभागका कथन किया है वैसे ही सत्ताकी अपेक्षासे भी करना चाहिये, दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है । इतनी विशेषता है कि आठों कर्मोका जो सब द्रव्य है उसके असंख्यातवें भागप्रमाण आयुकर्मका द्रव्य है। ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय, नाम, गोत्र और अन्तराय कर्मों में से प्रत्येक का द्रव्य सर्व द्रव्यके कुछ कम सातवें भागप्रमाण है
और वेदनीयकर्मका द्रव्य कुछ अधिक सातवें भागप्रमाण है। इस प्रकार चारों ही गतियोंमें बंध और सत्ताकी अपेक्षा आठों कर्मों के प्रदेशोंके भागाभागका कथन करना चाहिये। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
विशेषार्थ-जीव प्रतिसमय एक समयप्रबद्धका बंध करता है। यदि उत्कृष्ट योग आदि उत्कृष्ट प्रदेशबन्धकी सामग्री होती है तो उत्कृष्ट समयप्रबद्ध का बंध करता है अन्यथा अनुत ष्ट समयप्रबद्ध का बंध करता है। इसी प्रकार जघन्य और अजघन्य समयप्रबद्धके बन्धके विषयमें भी जानना चाहिये। बन्ध होते ही वह समयप्रबद्ध आठ भागोंमें विभाजित हो जाता है। उसक विभाजित होनेका जो क्रम मूलमें बतलाया है उसे अंकसंदृष्टिके रूपमें इस प्रकार समझना चाहिए-कल्पना कीजिये कि समयप्रबद्धके परमाणुओंका परिमाण ६५५३६ है और आवलिके असंख्यातवें भागका प्रमाण ४ है। अतः ६५५३६ में ४ से भाग देने पर लब्ध १६३८४ आता है। इस एक भागको जुदा रखकर बहुभाग ६५५३६–१६३८४४९१५२ के आठ समान भाग करने पर प्रत्येक भागका प्रमाण ६१४४ होता है। इसमेंसे प्रत्येक कर्मको एक एक भाग दे दो। फिर आवलिके असंख्यातवें भाग ४ का विरलन करके ११११ और शेष बचे एक भाग १६३८४ के चार समान भाग करके प्रत्येक एक पर दो। आजकलकी रीतिके अनुसार इसी बातको कहना होगा कि ४ का भाग १६३८४ में दो और लब्ध एक भाग ४०९६ को जुदा रखकर शेष बहुभाग १६३८४-४०९६%१२२८८ वेदनीयको दो। जुदे रखे एक भाग ४७९६ में फिर ४ से भाग दो। लब्ध एक भाग १०२४ को जुदा रखकर शेष बहुभाग ४०९६-१०२४%३०७२ मोहनीयको दो। शेष बचे एक भाग १०२४ में फिर ४ से भाग दो। लब्ध एक भाग २५६ को जुदा रखकर शेष बहुभाग १०२४-२५६=७६८ के तीन समान भाग करके ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तरायको दो। शेष एक भाग २५६ में पुनः ४ का भाग देकर लब्ध एक भाग ६४ को जुदा रखो और शेष बहुभाग २५६ - ६४ = १९२ के दो समान भाग करके नाम और गोत्रको एक-एक भाग दो। बाकी बचा एक भाग ६४ आयुकर्मको दो। ऐसा करनेसे प्रत्येक कर्मको इस प्रकार द्रव्य मिला
१. ता०प्रतौ 'बंधे संते' इति पाठः ।
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गा० २२]
मूलपयडिपदेसवित्तीए भागाभागं ६९. जहण्णए पयदं। दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य । ओषेण जहण्णसमयपबद्धमस्सिदण अहणं कम्माणं पदेसवंटणविहाणस्स उकस्ससमयपवद्धवंटणविधाणभंगो। जहण्णसंतमस्सिदण अहण्हं पि कम्माणं पदेसवंटणस्स उक्करससंतकम्मपदेसवंटणभंगो। एवं जाणिदण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
वेदनीय ६१४४ १२२८८ १८४३२
मोहनीय ६१४४ ३०७२
ज्ञानावरण ६१४४ २५६
दर्शनावरण ६१४४ २५६
अन्तराय ६१४४ . २५६
९२१६
६४००
६४००
६४००
आयु
गोत्र ६१४४
६१४४
नाम ६१४४
९६ ६२४०
६२०८
अतः सबसे कम भाग आयुको मिला। उससे अधिक भाग नाम और गोत्रको मिला। नाम और गोत्रसे अधिक भाग ज्ञानावरण आदिको मिला। उनसे अधिक भाग मोहनीयको
और मोहनीयसे अधिक भाग वेदनीयको मिला। यह बटवारा बंधकी अपेक्षासे बतलाया है । पूर्वमें बन्धकी अपेक्षा जो आठों कर्मोंका बटवारा किया है उसी प्रकार सत्त्वकी अपेक्षा भी जानना चाहिये। किन्तु जिस प्रकार सात कर्मोका बन्ध निरन्तर होता है उस प्रकार आयुकर्मका बन्ध निरन्तर नहीं होता। अतः बन्धकी अपेक्षा आठ कर्मों का जो भाग पहले बतलाया है वह सत्त्वकी अपेक्षा नहीं प्राप्त होता। किन्तु आठों कर्मोंका जो समुदित द्रव्य है आयुकर्मका द्रव्य उसके असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है, अतः वेदनीयको छोड़कर शेष छह कौमसे प्रत्येकका द्रव्य कुछ कम सातवें भाग और वेदनीयका द्रव्य साधिक सातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है। इस प्रकार बन्धकी अपेक्षा सत्तामें स्थित द्रव्यमें इतनी विशेषता है । इस विशेषताके अनुसार सब द्रव्यका असंख्यातवाँ भाग सबसे पहले अलग करदे। यह आयकर्मका भाग होगा। शेष असंख्यात बहुभागका सात कोंमें उसी क्रमसे बटवारा कर ले जिस क्रमसे बन्धकी अपेक्षा किया है। तात्पर्य यह है कि सत्त्वकी अपेक्षा बटवारा करते समय आयुके बिना सात कर्मोमें ही 'बहुभागे समभागो' इत्यादि नियमके अनुसार बटवारा करना चाहिये और आयुकर्मको अलग सब संचित द्रव्यका असंख्यातवाँ भाग.दे देना चाहिये । मान लीजिये सब संचित द्रव्यका प्रमाण ६५५३५ है और असंख्यातका प्रमाण ३२ है तो ६५५३६ में ३२ का भाग देने पर २०४८ प्राप्त होते हैं। इस प्रकार सब द्रव्यका यह जो असंख्यातवाँ भाग प्राप्त हुआ वह आयुकर्मका हिस्सा है। अब शेष रहा ६३४८८ सो इसका पूर्वोक्त विधानसे शेष सात कर्मों में बटवारा कर लेना चाहिये।
६९. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे जघन्य समयप्रबद्धकी अपेक्षा आठों कर्मों के प्रदेशोंके बँटवारेका विधान उत्कृष्ट समयप्रबद्धके बँटवारेके विधानकी तरह है। तथा जघन्यप्रदेशत्वकी अपेक्षा आठों ही कर्मों के प्रदेशोंका बँटवारा उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मके बँटवारेके समान होता है। इस प्रकार जानकर अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ १०. सव्वविहत्ति-णोसव्वविहत्तीणं दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसेण य। ओघेण मोह० सव्वपदेसा सव्वविहत्ती। तदूणो णोसव्वविहत्ती। एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
११. उक्कस्स-अणुक्कस्सविहत्ती० दुविहो णि०-ओघे० आदेसे० । ओघेण मोह. सव्वुक्कस्सदव्वं उकस्सविहत्ती । तदू णमणुक्कस्सविहत्ती। एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
१२. जहण्णाजहण्णविहत्ति० दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० सव्वजहणं पदेसग्गं जहण्णविहत्ती। तदुवरि अजहण्णविहत्ती । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । ___६१३. सादि-अणादि-धुव-अद्भुवाणुगमेण दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसे । ओघेण मोह० उक्क० अणुक्क० जहण्ण० किं सादिया किमणादिया किं धुवा किमडुवा ? सादि-अद्धवा । अज० किं सादिया ४ १ अणादिया धुवा अद्धवा वा । आदेसेण सव्वासु गदीसु सव्वपदाणि सादि-अद्भुवाणि । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
१०. सर्वविभक्ति और नोसर्वविभक्तिका निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके सब प्रदेशोंको सर्वविभक्ति कहते हैं और उन से न्यून प्रदेशोंको नोसर्वविभक्ति कहते हैं । अर्थात् यदि सब प्रदेशोंमें से एक भी प्रदेशको कम कर दिया जाय तो वे प्रदेश नोसर्वविभक्ति कहे जाते हैं। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
११. उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयके सर्वोत्कृष्ट द्रव्यको उत्कृष्ट विभक्ति कहते हैं और उससे न्यून द्रव्यको अनुत्कृष्टविभक्ति कहते हैं । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
१२. जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिका निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयके सबसे जघन्य प्रदेशोंको जघन्य प्रदेशविभक्ति कहते हैं और उससे ऊपरके प्रदेशोंको अजघन्य प्रदेशविभक्ति कहते हैं। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
१३. सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव अनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका हैओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेश विभक्ति, अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति और जघन्य प्रदेशविभक्ति क्या सादि है, अनादि है, ध्रव है अथवा अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है । अजघन्य प्रदेशविभक्ति क्या सादि है, अनादि है, ध्रुव है अथवा अध्रुव है ? अनादि, ध्रुव और अध्रुव है। आदेशसे सब गतियोंमें सब पद सादि और अध्रुव होते हैं। इस प्रकार अमाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-मोहनीयकर्मके क्षय होनेके अन्तिम समयमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है और इससे अतिरिक्त सब अजघन्य प्रदेश सत्कर्म है, अतः अजघन्य प्रदेश सत्कर्ममें सादि विकल्प सम्भव नहीं, शेष तीन अनादि, ध्रुव और अध्रव सम्भव हैं। अनादिका खुलाशा तो पहले किया ही है। तथा भव्योंकी अपेक्षा अध्रुव और अभव्योंकी अपेक्षा ध्रुव विकल्प होता है। अब रहे उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशसत्कर्म सो इन तीनोंमें सादि और अध्रुव
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गा० २२]
मूलपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं $ १४. सामित्तं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं च । उ कस्सए पयदं । दुविहो णिओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० उक्कस्सिया पदेसविहत्ती कस्स? जो जीवोबादरपुढविकाइएसु वेहि सागरोवमसहस्सेहि सादिरेएहि ऊणियं कम्महिदिमच्छिदाउओ० एवं वेयणाए वुत्तविहाणेण संसरिदूण अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइएसु तेत्तीसंसागरोवमाउहिदीए सु उववण्णो ? तदो उव्वट्टिदसमाणो पंचिंदिएसु अंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो तेत्तीससागरोवमाउहिदिएसु णेरइएसु उववण्णो । पुणो तत्थ अपच्छिमतेत्तीससागरोवमाउणिरयभवग्गहणअंतोमुहुत्तचरिमसमए वट्टमाणस्स मोहणीयस्स उकस्सपदेसविहत्ती । एत्थ उवसंहारस्स वेदणाभंगो।
ये दो ही विकल्प सम्भव हैं। जघन्य प्रदेशसत्कर्म तो क्षय होनेके अन्तिम समयमें होता है । इसलिये उसमें सादि और अध्रुव ये दो ही विकल्प सम्भव हैं यह स्पष्ट ही है। इसी प्रकार उत्कृष्ट और उसके पश्चात् होनेवाला अनुत्कृष्ट भी कादाचित्क है, इसलिये इनमें भी सादि और अध्रुव ये दो विकल्प ही सम्भव हैं। यह तो ओघसे विचार हुआ। आदेशसे विचार करने पर चारों गतियाँ अलग-अलग जीवोंको अपेक्षा कादाचित्क हैं, इसलिए इनमें उत्कृष्ट आदि चारों पद सादि और अध्रव होते हैं । अन्य मार्गणाओंमें अपनी अपनी विशेषता जानकर उत्कृष्ट आदिके सादि आदि पदोंकी योजना कर लेनी चाहिये।
१४. स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयको उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो जीव बादर पृथिवीकायिकोंमें कुछ अधिक दो हजार सागर कम कर्मस्थितिप्रमाण काल तक रहा । इस प्रकार वेदना अनुयोगद्वारमें कहे गये विधानके अनुसार भ्रमण करके नीचे सातवीं पृथिवीके तेतीस सागरकी आयुवाले नारकियोंमें उत्पन्न हुआ। उसके बाद वहाँसे निकल कर पञ्चेन्द्रियोंमें अन्तर्मुहूर्त काल तक रह कर पुनः तेतीस सागरकी स्थितिवाले नारकियोंमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार तेतीस सागरकी आयुवाले नरकम अन्तिम भव ग्रहण करके उस भवके अन्तिम अन्तर्मुहूर्तमें वर्तमान होता है तो उसके चरिम समयमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। यहाँ उपसंहार वेदनाअनुयोगद्वारके समान जानना चाहिये।
विशेषार्थ-उत्कृष्ट प्रदेश विभक्तिका स्वामी वही जीव हो सकता है जिसके अधिकसे अधिक कर्मप्रदेशोंका संचय हो। ऐसा संचय जिस जीवको हो सकता है उसीका कथन यहाँ किया गया है। खुलासा इस प्रकार है-जो जीव बादर पृथिवीकायिकोंमें त्रस पर्यायकी उत्कृष्ट स्थिति कुछ अधिक दो हजार सागर कम कर्मस्थितिप्रमाण काल तक रहा। वहाँ रहते हुए बहुत बार पर्याप्त हुआ और थोड़ी बार अपर्याप्त हुआ। तथा जब पर्याप्त हुआ तो दीर्घायुवाला ही हुआ और जब अपर्याप्त हुआ तो अल्पायुवाला ही हुआ। ये दोनों बातें बतलानेका कारण यह है कि अपर्याप्तके योगसे पर्याप्तका योग असंख्यातगुणा होता है और योगके असंख्यातगुणा होनेसे पर्याप्तके बहुत प्रदेशबंध होता है। तथा जब जब आयुबंध किया तब तब उसके योग्य जघन्य योगसे किया, जिससे मोहनीयके लिये अधिक द्रव्यका संचय हो सके । तथा बारम्बार उत्कृष्ट योगस्थान हुआ और बारम्बार विशेष संक्लिष्ट परिणाम हुए। इस प्रकार बादर पृथिवीकायिकोंमें भ्रमण करके बादर त्रस पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ। यद्यपि स्थावर पर्यायका निषेध कर देने से ही सूक्ष्मत्वका निषेध हो जाता है क्योंकि स्थावर पर्यायके सिवा अन्यत्र
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ १५. आदेसेण णेरइएसु ओघं । एवं सत्तमाए पुढवीए । णेरइयाणं पढमाए
सूक्ष्मता नहीं पाई जाती । फिर भी विग्रहगतिमें वर्तमान त्रसोंको सूक्ष्म नामकर्मका उदय न होते हुए भी सूक्ष्म माना जाता है, क्योंकि वे अनन्तानन्त विनसोपचयोंसे उपचित औदारिक नोकर्मस्कन्धोंसे विनिर्मित देहसे रहित होते हैं। इसीलिये यहाँ त्रस पर्यायके साथ बादर शब्दका प्रयोग किया है । बादर त्रस पर्याप्तकोंमें भ्रमण करते हुए भी पर्याप्तके भव बहुत धारण करता है और अपर्याप्तके भव कम धारण करता है आदि बातें लगा लेनी चाहिये जैसे कि बादर पृथिवीकायिकोंमें भ्रमण करते हुए बतलाई थीं। इस प्रकार बादर त्रस पर्याप्तकोंमें भ्रमण करके अन्तिम भवमें सातवें नरकके नारकियोंमें उत्पन्न हुआ। नरकमें उत्कृष्ट संक्श होनेसे उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है, इसलिये अन्तिम भवमें नरकमें उत्पन्न कराया है। शायद कहा जाय कि यदि ऐसा है तो बारम्बार नरकमें ही उत्पन्न क्यों नहीं कराया सो इसका उत्तर यह है कि वह जीव नरकमें ही बारम्बार उत्पन्न होता है। किन्तु लगातार नरकमें उत्पन्न होना संभव न होनेसे उसे अन्यत्र उत्पन्न कराया गया है। नरकमें भी उत्पन्न होता हुओ सातवें नरकमें ही बहुत बार उत्पन्न होता है, क्योंकि अन्य नरकोंमें तीव्र संक्लेश और इतनी लम्बी आयु वगैरह नहीं होती । आशय यह है कि बादर त्रसकायकी स्थिति पूर्वकोटि पृथक्त्व अधिक दो हजार सागर है । इतने काल तक बादर त्रसपर्यायमें भ्रमण करते हुए जितनी बार सातवें नरकमें जानेमें समर्थ होता है उतनी बार जाकर जब अन्तिम बार सातवें नरकमें जन्म लेता है तो उस अन्तिम भवके अन्तिम समयमें उस जीवके मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय होता है, अतः वह जीव उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी है। सारांश यह है कि उत्कृष्ट प्रदेशसंचयके लिए छ वस्तुएँ आवश्यक हैं-एक तो लम्बी भवस्थिति, दूसरे लम्बी आय, तीसरे योगको उत्कृष्टता, चौथे उत्कृष्ट संक्लेश, पाँचवें उत्कर्षण और छठा अपकर्षण । लम्बी भवस्थिति और लम्बी आयुके होनेसे विना किसी विच्छेदके बहुत कर्मपुद्गलोंका ग्रहण होता रहता है, अन्यथा निरन्तर उत्पन्न होने और मरने पर बहुतसे कर्मपुद्गलोंकी निर्जरा हो जाती है। तथा उत्कृष्ट योगस्थानके रहने पर बहुत कर्मपरमाणुओंका बन्ध होता है और उत्कृष्ट संक्लेश परिणामके होने पर उत्कृष्ट स्थितिबन्ध होता है जिससे कर्मनिषकोंकी जल्दी निर्जरा नहीं होती। इसी तरह उत्कर्षणके द्वारा नीचेके निषेकोंमें स्थित बहुतसे परमाणुओंकी स्थितिको बढ़ाकर ऊपरके निषेकोंमें उनका निक्षेपण करता है और अपकर्षणके द्वारा ऊपरके निषेकोंमें स्थित थोड़े परमाणुओंको स्थितिको घटाकर नीचेके निषेकोंमें उनका स्थापन करता है । अनुभागविभक्तिमें यह बतला ही आये हैं कि निषेक रचनामें नीचे नीचे परमाणुओंकी संख्या अधिक होती है और ऊपर ऊपर वह कमती होती जाती है। अतः उत्कर्षण अपकर्षणके द्वारा नीचे तो थोड़े परमाणुओंका निक्षेपण होता है, किन्तु ऊपर अधिक परमाणुओंका निक्षेपण करता है और ऐसा होनेसे प्रदेशसंचयमें वृद्धि हो होती है। इन्हीं बातोंको लक्ष्यमें रखकर उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके स्वामीका कथन किया है। बादर पृथिवीकायिकोंमें ही क्यों उत्पन्न कराया गया आदि प्रश्नोंका समाधान आगे उत्तरप्रदेशविभक्तिमें ग्रन्थकार स्वयं करेंगे, अतः यहाँ नहीं लिखा है। इस प्रकार यद्यपि अन्य सब ग्रन्थोंमें अन्तिम समयमें ही उत्कृष्ट प्रदेशसंचय बतलाया गया है, किन्तु आगे जयधवलाकारने यह बतलाया है कि किसी किसी उच्चारणामें नरकसम्बन्धी चरिम समयसे नीचे अन्तर्मुहूर्तकाल उतरकर उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामित्व होता है, क्योंकि आयुके बंधकालमें मोहनीयका क्षय होनेसे बादको जो संचय होता है वह बहुत नहीं होता।
$ १५. आदेशसे नारकियोंमें ओघकी तरह जानना चाहिए। इसी प्रकार सातवीं
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गा० २२]
मूलपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं जाव छडि त्ति मोह० उक्क० पदेस० कस्स ? जो गुणिदकम्मंसिओ सत्तमादो पुढवीदो उव्वट्टिदो तिरिक्खेसु उववण्णो तत्थ संखेजाणि अंतोमुहुत्तियतिरिक्खभवग्गहणाणि भमिदूण लहुमेव अप्पप्पणो णेरइएसु उववण्णो तस्स पढमसमयणेरइयस्स उकस्सपदेसविहत्ती।
१६. तिरिक्खगदीए तिरिक्खचउक्कम्मि मोह० उक्क० पदेस० कस्स ? जो गुणिदकम्मंसिओ सत्तमादो पुढवीदो उव्वट्टिदो संतो अप्पप्पणो तिरिक्खेसु उववण्णो तस्स पढमसमयउववण्णस्स उक्कस्सिया पदेसविहत्ती। पंचिंदियतिरिक्खअपज० मोह० उक्क० पदेस० कस्स ? जो गुणिदकमंसिओ सत्तमादो पुढवीदों उव्वट्टिदो पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्तएसु उववण्णो तत्थ दो-तिण्णिभवग्गहणाणि भमिका पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तएसु उववण्णो तस्स पढमसमयउववण्णस्स उक्कस्सिया पदेसविहत्ती। एवं मणुस्सचउक-देव-भवणादि जाव सहस्सारो त्ति । ____$ १७. आणदादि जाव णवगेवजा ति मोह० उक्क० पदेस० कस्स ? जो गुणिदकम्मंसिओ सत्तमादो पुढवीदो उव्यट्टिदसमाणो दो-तिण्णिभवग्गहणाणि तिरिक्खेसु उववन्जिय मणुस्सेसु उववण्णो सव्वलहुं जोणिणिक्खमणजम्मणेण जादो अवस्सिओ पृथिवीं में जानना चाहिए। पहलीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो गुणितकाशवाला जीव सातवीं पृथिवीसे निकलकर तियञ्चोंमें उत्पन्न हुआ। वहाँ अन्तर्मुहूर्तकी आयुवाले तिर्यश्चोंके संख्यात भव ग्रहण करके जल्दी ही अपने अपने योग्य प्रथमादि नरकोंमें उत्पन्न हुआ। प्रथम समयवर्ती उस नारकीके उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है।
विशेषार्थ-यद्यपि मोहनीयकर्मका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय सातवें नरकके अन्तिम समयमें होता है। किन्तु यहाँ प्रथमादि नरकोंमें उसे प्राप्त करना है, इसलिये सातवें नरकसे तिर्यश्चोंमें उत्पन्न करावे और अन्तर्मुहूर्तके भीतर जितने भव सम्भव हो उतने भव प्राप्त करावे । अनन्तर जिस नरकमें उत्कृष्ट प्रदेशसंचय प्राप्त करना हो उस नरकमें उत्पन्न करावे । इस प्रकार उत्पन्न होनेके पहले समयमें उस उस नरकमें मोहनीयका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय प्राप्त होता है।
१६. तिर्यञ्चगतिमें चार प्रकारके तिर्यञ्चोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? गुणितकाशवाला जो जीव सातवीं पृथिवोसे निकलकर अपने अपने योग्य तियञ्चोंमें उत्पन्न हुआ उसके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? गुणितकर्माशवाला जो जीव सातवीं पृथिवीसे निकलकर पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ
और वहाँ दो तीन भवग्रहण तक भ्रमण करके पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ। उसके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। इसी प्रकार चार प्रकारके मनुष्य, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिये।
१७. आनतसे लेकर नवौवेयक तकके देवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशभक्ति किसके होती है ? गुणितकाशवाला जो जीव सातवीं पृथिवीसे निकलकर दो तीन बार तिर्यञ्चोंमें भवग्रहण करके मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और जल्दीसे जल्दी योनिसे निकलनेरूप जन्मके द्वारा
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ दव्वलिंगी संजादो । तदो तप्पाओग्गपरिणामेण अप्पप्पणो देवेसु आउअं बंधिदूण अंतोमुहुत्तेण कालगेदसमाणो अप्पप्पणो देवेसुववण्णो तस्स पढमसमयउववण्णस्स मोह० उक० पदेसविहत्ती । अणुदिसादि जाव सव्वट्ठसिद्धि ति मोह० उक्क० पदेस० कस्स ? जो जीवो गुणिदकम्मंसिओ सत्तमादो पुढवीदो उव्वट्टिदूण दो-तिण्णिभवग्गहणाणि "तिरिक्खेसु उववजिय मणुस्सेसु उववण्णो सव्वलहुँ जोणिणिक्खमणजम्मणेण जादो अवस्सिओ संजमं पडिवण्णो । अंतोमुहुत्तेण आउअंबंधिदूण कालगदसमाणो अप्पप्पणो देवेसुववण्णो तस्स पढमसमयदेवस्स मोह० उक्कसिया पदेसविहत्ती । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
उत्पन्न होकर आठ वर्षकी अवस्थामें द्रव्यलिंगी हुआ। उसके बाद जिसको जहाँ उत्पन्न होना है उसके योग्य परिणामसे अपने अपने योग्य देवोंकी आयु बाँधकर अन्तर्मुहूर्त पश्चात् मरण करके अपने अपने योग्य देवोंमें उत्पन्न हुआ। उसके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? गुणितकौशवाला जो जीव सातवीं पृथिवीसे निकलकर तिर्यञ्चोंमें दो तीन भवग्रहण करके मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और जल्दीसे जल्दी योनिसे निकलनेरूप जन्मके द्वारा उत्पन्न होकर आठ वर्षको अवस्थामें संयम धारण किया। पश्चात् अन्तर्मुहूर्तके द्वारा आयुबन्ध करके मरकर अपने अपने योग्य देवोंमें उत्पन्न हुआ। उसके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। इसी प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी जैसे ओघसे बतलाया गया है वैसे ही आदेशसे भी जानना चाहिये । जहाँ जहाँ जो विशेषता है वह मूलमें बतला ही दी है। उसका आशय इतना ही है कि उत्कृष्ट प्रदेशसंचयके लिये उक्त प्रक्रियासे बादर पृथिवीकायिकोंमें भ्रमण करके बार बार सातवें नरकमें जन्म लेना जरूरी है। जब सातवें नरकमें अन्तिम बार जन्म लेकर वह जीव अपनी आयुके अन्तिम समयमें वर्तमान होता है तब उसके उत्कृष्ट प्रदेशसंचय होता है। उसीको गुणितकौशवाला कहते हैं। वह गुणितकोशवाला जीव सातवें नरकसे निकलकर पञ्चेन्द्रिय पर्याप्त तिर्यञ्च ही होता है, क्योंकि सातवें नरकवालोंके लिये ऐसा नियम है। इसीलिये तिर्यञ्चगतिमें तो उसकी उत्पत्ति तिर्यश्चोंमें बतलाकर उसीको उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी बतलाया है और अन्य गतियोंमें तियेच पर्यायमेंसे जल्दीसे जल्दी निकालकर अपने अपने योग्य गतियोंमें शास्त्रोक्त क्रमसे उत्पन्न कराके उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी बतलाया है। प्रत्येक इतर गतिमेंसे जो जल्दीसे जल्दी निकाला गया है उसका कारण यह है कि उस गतिमें अधिक काल तक ठहरनेसे संचित उत्कृष्ट प्रदेशकी अधिक निर्जरा होना सम्भव है। इसीलिये तिर्यञ्चगतिमेंसे मनुष्यगतिमें ले जाकर आठ वर्षकी अवस्थामें संयम धारण कराकर और अन्तर्मुहूर्तके बाद ही मरण कराकर अनुदिशादिकमें उत्पन्न कराया है। अतः गणितकर्माश जीव ही जब उस उस गतिमें जल्दीसे जल्दी लेता है तो उसीके प्रथम समयमें उस गतिमें उत्कृष्ट प्रदेशसंचय होता है। गति मार्गणामें जिस प्रकार उत्कृष्ट प्रदेशसंचयका स्वामी बतलाया है उसी प्रकार इन्द्रिय मार्गणासे लेकर अनाहारक मार्गणातक विचारकर उत्कृष्ट प्रदेशसंचयके स्वामीका कथन करना चाहिये। तात्पर्य यह है कि जो मार्गणा गुणित कौशवालेके सातवें नरकके अन्तिम समयमें बन जाय
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गा० २२] मूलपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१३ ६ १८. जहण्णए पयदं । दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० जहण्णपदे० कस्स ? जो जीवो सुहुमणिगोदजीवेसु पलिदो० असंखेजदिभागेणूणियं कम्महिदिमच्छिदो । एवं वेयणाए वुत्तविहाणेण चरिमसमयसकसाई जादो तस्स मोह. जहण्णपदेसविहत्ती । एवं मणुसतियस्स । उसकी अपेक्षा प्रदेशसंचयका स्वामी वहीं जान लेना चाहिये और जो मार्गणा वहाँ घटित न हो उस मार्गणाको शास्त्रोक्त विधिसे अतिशीघ्र प्राप्त कराकर उसके प्रथम समयमें उसकी अपेक्षा उत्कृष्ट प्रदेशसंचय जानना चाहिये। उदाहरणार्थ अनाहारक मार्गणामें उत्कृष्ट प्रदेश संचय जानना है तो सातवें नरकसे निकालकर विग्रहगतिद्वारा अन्य गतिमें ले जाय और इस प्रकार मरणके बाद प्रथम समयमें अनाहारक अवस्था प्राप्त कर ले।
६१८. जघन्यसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी जघन्य प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो जीव सूक्ष्म निगोदिया जीवोंमें पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम कर्मस्थितिप्रमाण काल तक रहा। इस प्रकार वेदनामें कहे गये विधानके अनुसार जो अन्तिम समयमें सकषायी हुआ है उसके मोहनीयकी जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है । इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनीमें जानना चाहिये ।
विशेषार्थ-जो जीव सूक्ष्म निगोदिया जीवोंमें पल्यके असंख्यातवें भागहीन सत्तरकोडीकोड़ी सागर काल तक रहा। वहाँ भ्रमण करते हुए अपर्याप्तके भव बहुत धारण किये और पर्याप्तके भव थोड़े धारण किये। अपर्याप्तका काल अधिक रहा और पर्याप्तका काल थोड़ा रहा। जब जब आयु बंध किया तो उस्कृष्ट योगके द्वारा ही किया। तथा अपकर्षण और उत्कर्षण के द्वारा ऊ परकी स्थितिवाले अधिक निषेकोंका जघन्य स्थितिवाले नीचेके निषेकों में क्षेपण
नीचेकी स्थितिवाले निषेकोंमेंसे थोडे निषेकोंका ऊपरकी स्थितिवाले निषकोंमें क्षेपण किया । अर्थात् उत्कर्षण कमका किया अपकर्षण ज्यादाका किया। तथा अधिकतर जघन्य योग हो रहा और परिणाम भी मंद संक्लेशवाले रहे । सारांश यह है कि गुणितकौशसे बिल्कुल उल्टी हालत रहो, जिससे कर्मसंचय अधिक न हो सके। इस प्रकार सूक्ष्म निगोदिया जीवों में भ्रमण करके बादर पृथिवी पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ। जलकायिक पर्याप्तक आदिसे निकलकर जो जीव मनुष्योंमें उत्पन्न होता है वह जल्दी संयमादि ग्रहण नहीं कर सकता, इसलिथे बादर पृथिवी पर्याप्तकोंमें उत्पन्न कराया है। सबसे छोटे अन्तमुहूर्तकालमें सब पर्याप्तियोंसे पूर्ण हुआ। जो जीव सबसे छोटे अन्तर्मुहूर्तकालमें पर्याप्तियोंको पूर्ण नहीं करता उसके एकान्तानुवृद्धि योगका काल अधिक होता है और ऐसा होनेसे कर्म-. प्रदेशसंचय अधिक होता है । अन्तर्मुहूर्त पश्चात् मरकर एक पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हआ। संयमके द्वारा बहत कालतक संचित व्यकी निर्जराहो सके इसलिये एक पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न कराया है। जल्दीसे जल्दी अर्थात् सातवें माहमें गर्भसे निकला और आठ वर्षका होने पर संयम धारण किया । कुछ कम एक पूर्वकोटि तक संयमका पालन किया । अन्तर्मुहूर्तप्रमाण आयु शेष रहने पर मिथ्यात्वमें चला गया । मिथ्यात्वमें मरण करके दस हजार वर्षकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। सबसे लघु अन्तर्मुहूर्तकालमें पर्याप्त हो गया। अन्तर्मुहूर्त बाद सम्यक्त्वको धारण किया। कुछ कम दस हजार वर्षतक सम्यक्त्वके साथ रहकर अन्तमें मिथ्यादृष्टि हो गया। मिथ्यात्वके साथ मरकर बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ। सबसे छोटे अन्तर्मुहूर्त कालमें पर्याप्त हो गया। अन्तर्मुहूर्त पश्चात् मरकर सूक्ष्म
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ १९. आदेसेण णेरइएसु जो जीवो खविदकमंसिओ अंतोमुहुत्तेण कम्मक्खयं काहदि त्ति विवरीयं गंतूण णेरइएमु उववण्णो तस्स पढमसमयणेरइयस्स मोह० जहण्णपदेसविहत्ती। एवं सत्तसु पुढवीसु सव्वतिरिक्ख-मणुस्सअपज्ज०-सव्वदेवा त्ति । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
२०. कालाणुगमो दुविहो-जहण्णओ उकस्सओ चेदि । उकस्सए पयदं । दुविहो णिद्द सो-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० उक्क० पदेस० केवचिरं कालादो निगोदिया पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ। पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डक घातके द्वारा पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालमें कर्मको हतसमुत्पत्तिक करके फिर भी बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार नाना भव धारण करके बत्तोस बार संयम धारण करके, चार बार कषायोंका उपशम करके, पल्यके असंख्यातवें भाग बार संयम संयमासंयम और सम्यक्त्वका पालन करके अन्तिम भवमें एक पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। सातवें मासमें योनिसे निकला और आठ वर्षका होने पर संयमको धारण किया। कुछ कम एक पूर्वकोटि काल तक संयमका पालन करके जब थोड़ी आयु बाकी रही तो मोहनीयका क्षपण करनेके लिये उद्यत हुआ। इस प्रकार जब वह दसवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें पहुँचता है तो उस जीवके मोहनीयकर्मकी जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है। इसी प्रकार सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें भी उक्त क्षपितकोशवाले जीवके दसवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें मोहनीयको जघन्य प्रदेशविभक्ति जाननी चाहिए।
१९. आदेशसे नारकियोंमें क्षपितकाशवाला जो जीव अन्तर्मुहूर्तके द्वारा कर्मक्षय क रेगा ऐसा वह जीव उलटा जाकर नारकियोंमें उत्पन्न हुआ, उस प्रथम समयवर्ती नारकीके मोहनीयकी जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है। इसी प्रकार सातों नरकों, सब तिर्यञ्च, मनुष्यअपर्याप्त और सब देवोंमें जानना चाहिये । तथा इसी प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-आदेशसे जघन्य प्रदेशसत्कर्मका विचार करते समय ओघसे जो क्षपित काशवालेकी विधि पीछे बतला आये हैं वह सब विधि यहाँ भी जाननी चाहिये । अन्तर केवल इतना है कि ओघसे जहाँ अन्तमुहूर्तमें दसवें गुणस्थानके अन्त समयको प्राप्त होनेवाला था वहाँ अन्तर्मुहूर्त पहले यह उस मार्गणाको प्राप्त कर लेता है जिस मार्गणामें जघन्य प्रदेशसत्कर्म प्राप्त करना है। उदाहरणार्थ कोई ऐसा क्षपितकौशवाला जीव है जो तदनन्तर क्षपकणि पर ही चढ़ता पर इकदम परिणाम बदल जानेसे वही तत्काल मिथ्यात्वमें जाता है और मरकर नरकमें उत्पन्न होनेके पहले समयमें जघन्य प्रदेशसत्कर्मका स्वामी होता है। इसी प्रकार यथायोग्य विचारकर शेष सब मार्गणाओंमें जघन्य प्रदेशसत्कर्मका स्वामी कहना चाहिये जिससे कर्मोका संचय बहुत अधिक न होने पावे । यहाँ मूलमें जो यह कहा है कि जो अन्तर्मुहूर्तमें कर्मोका क्षय करेगा किन्तु वैसा न करके जो लौट जाता है सो यह योग्यताकी अपेक्षा कहा है। अर्थात् क्षपितकर्माशवालेके क्षपकश्रेणिपर चढ़नेके पूर्व समयमें जितना द्रव्य सत्त्वमें रहता है उतना जिसका द्रव्य सत्त्वमें हो गया है। अब यदि उससे कम द्रव्य प्राप्त करना है तो वह क्षपकनेणिमें ही प्राप्त हो सकताहै। ऐसी योग्यतावाला जीव यहाँ विवक्षित है।
६२०. कालानुगम दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है । निर्देश दो कारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति का कितना काल
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गा० २२] मूलपयडिपदेसविहत्तीए कालो
१५ होदि ? जहण्णुक्क० एगस० । अणुक्क० ज० वासपुधत्तं, उक्क० अणंतकालं। आदेसेण णेरइएसु मोह० उक० केवचिरं ? जहण्णुक० एगस० । अणुक्क० ज० अंतोमुहुत्तं, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि । एवं सत्तमाए । पढमादि जाव छट्टि ति मोह० उक्क० ओघ । अणुक्क० जह० जहण्णहिदी समऊणा, उक्क. सगसगुक्कस्सद्विदीओ। तिरिक्ख० उक०
ओघं । अणुक० जहण्ण. खुद्दाभवग्गहणं, उक्क० अणंतकाल । पंचिंदियतिरिक्खतियम्मि उक्क० ओघं । अणुक्क० जहण्णुक्कस्सद्विदीओ । पंचिंदियतिरिक्खअपज० उक०
ओघं । अणुक्क० ज० खुद्दाभवग्गहणं समय॒णं, उक्क० अंतोमु० । एवं मणुसअपज० । मणुसतियम्मि मोह० उक० ओघं । अणुक्क० जह० खुद्दाभ० अंतोमु० समयूणं, उक्क० सगढिदी । देवेसु मोह० उक्क० ओघं । अणुक्क० ज० दसवस्ससहस्साणि समऊणाणि, उक० तेत्तीसं सागरोवमाणि। एवं सव्वदेवाणं । णवरि अणुक० ज० सगसगजहण्णहिदी' समऊणा, उक्क० उक्कस्सहिदी संपुण्णा । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल वर्षपृथक्त्व और उत्कृष्ट काल अनन्तकाल है। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयको उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका कितना काल है ? जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट काल तेतीससागर है। इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिये। पहलीसे लेकर छठी पृथिवी तक मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल
ओघकी तरह जानना चाहिए। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण जानना चाहिए। तिर्यश्चोंमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल ओघकी तरह जानना चाहिए। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अनन्तकाल है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च पर्याप्त और पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी जीवों में उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल ओघकी तरह है और अनत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल जघन्य स्थितिप्रमाण और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल औघकी तरह है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। शेष तीन प्रकारके मनुष्योंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल ओघकी तरह है । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल सामान्य मनुष्योंमें एक समय कम क्षुद्रभवग्रहण प्रमाण और मनुष्य पर्याप्त तथा मनुष्यनियोंमें एक समय कम अन्तमुहर्त है
और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। देवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल ओघकी तरह है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है। इसी प्रकार सब देवोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय कम अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
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१. प्रा०प्रतौ 'ज० एगस० जहण्णट्ठिदी' इति पाठः ।
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___जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ . विशेषार्थ_ओघसे और आदेशसे मोहनीयको उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल सर्वत्र एक समय कहनेका कारण यह है कि सर्वत्र एक समयके लिये ही उत्कृष्ट प्रदेशसंचय होता है। जिसने मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिको प्राप्त करनेके बाद नरकसे निकलकर और अन्तर्मुहूर्तके भीतर तिर्यञ्च पर्यायके दो तीन भव लेकर अनन्तर मनुष्य पर्याय प्राप्त की है वह यदि आठ वर्षका होनेके बाद ही क्षपकश्रेणीपर चढ़कर मोहनीयका नाश कर देता है तो उसके अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका वर्षपृथक्त्व काल पाया जाता है। यह अनुत्कृष्टका सबसे कम काल है, क्योंकि इसका इससे और कम काल नहीं बनता, इसलिये अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल वर्षपृथक्त्व कहा । तथा इसका ओघसे उत्कृष्ट अनन्त काल कहनेका कारण यह है कि अधिकसे अधिक इतने काल तक घूमनेके बाद यह जीव नियमसे उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिको प्राप्त कर लेता है। उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके विषयमें दो मत हैं-एक यह कि गुणितकाशवाले नारकीके अपनी आयुके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है और दूसरा यह कि मरनेके अन्तर्मुहूर्त पहले होती है । प्रथम मतके अनुसार सामान्यसे नरकमें अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति का जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त नहीं प्राप्त होता, क्योंकि उत्कृष्टके बाद अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति प्राप्त होते समय वह जीव अन्य गतिवाला हो जाता है । हाँ दूसरे मतके अनुसार अन्तर्मुहूर्त काल प्राप्त होता है। यही कारण है कि नरकमें अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। तथा उत्कृष्ट काल तेतीस सागर स्पष्ट ही है। यही व्यवस्था सातवें नरकमें है। प्रथमादि नरकोंमें अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल जो अपनी अपनी
न्य स्थितिमेंसे एक एक समय कम कहा है सो इसका कारण यह है कि इन नरकोंमें उत्पन्न होने के पहले समयमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति सम्भव है, अतः एक समय कम किया है। तथा उत्कृष्ट काल जो अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण बतलाया है वह स्पष्ट ही है। तिर्यञ्चोंमें अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल जी खुद्दाभवग्रहणप्रमाण बतलाया है सो इसका कारण यह है कि तिर्यञ्चसामान्यके उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति लब्ध्यपर्याप्त तिर्यश्चके नहीं होती, अतः पराका पूरा खुद्दाभवग्रहणप्रमाण काल अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल बन जाता है । तथा उत्कृष्ट काल जो अनन्तकाल बतलाया है सो स्पष्ट ही है । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चत्रिकके अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल जो अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण बतलाया है सो इसका कारण यह है कि यद्यपि इनके भवके प्रथम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति सम्भव है इसलिये जघन्य आयुमेंसे एक समय कम हो जाना चाहिये पर जो जीव नरकसे निकलता है उसके सबसे जघन्य आयु नहीं पाई जाती, अतः अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल जघन्य आयुप्रमाण कहा और उत्कृष्ट काल उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। यहाँ उत्कृष्टस्थितिसे अपनी अपनो उत्कृष्ट काय स्थिति ले लेनी चाहिये। पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त तिर्यञ्चके जो अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल खुद्दाभवग्रहण से एक समय कम बतलाया है सो यह एक समय उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका है। इसे कम कर देने पर अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्यकाल आ जाता है। तथा पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्त तियञ्चकी उत्कृष्ट कायस्थिति अन्तर्मुहूर्त है, अतः इनके अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त बतलाया है। इसी प्रकार लब्ध्यपर्याप्त मनुष्यके अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल घटित कर लेना चाहिये। शेष तीन प्रकारके मनुष्योंमें सामान्य मनुष्यको जघन्य स्थिति खुद्दाभवग्रहणप्रमाण है और शेष दो की अन्तर्मुहूर्त है । सोमान्य मनुष्यकी तो जो एक समय कम जघन्य स्थिति है वही अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल प्राप्त होता है, क्योंकि इसके इस आयुमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका एक समय सम्मिलित है । तथा शेष दोके जघन्य आयु अन्तर्मुहूर्तमेंसे एक समय कम कर देना चाहिये,
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गा० २२]
मूलपयडिपदेसविहत्तीए कालो
१७
२१. जहणए पदं । दुविहो णि० - ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० जहण्ण० जहण्णुक ० एगस० । अज० अणादिओ अपजवसिदो अणादिओ सपञ्जवसिदो । आदेसे० णेरइएस मोह० ज० जहण्णुक्क० एस० । अज० ज० दसवस्ससहस्त्राणि समऊणाणि, उक्क० तेत्तीसं सागरोवमाणि संपुष्णाणि । पढमादि जाव सत्तमिति ज० ओघं । अज० सगसगजहण्णहिदी समऊणा, उक्क० उसी संपूण्णा । तिरिक्ख पंचयम्मि मोह० ज० ओघं । अज० ज० सगसगजहण्णहिदी समऊणा, उक्क० उक्कस्सट्ठिदी' संपूण्णा । एवं मणुसचउकम्मि । देवाणं णेरइयभंगो । एवं भवणादि जाव सव्वहसिद्धि त्ति । णवरि अज० ज० जहण्णहिदी समयूणा, उक० उस्सट्ठिदी संपुणा । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
क्योंकि यह एक समय उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका है । तथा इन तीनों प्रकारके मनुष्योंके अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जो उत्कृष्ट काल अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण बतलाया है सो यहाँ स्थितिसे अपनी अपनी कायस्थिति लेनी चाहिये। इसी प्रकार देवों में सर्वत्र अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी जघन्य और उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण घटित कर लेना चाहिये । किन्तु जघन्य काल कहते समय जघन्य स्थितिमें से एक समय कम कर देना चाहिये, क्योंकि यह एक समय उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिसम्बन्धी है । आगे अनाहारक मार्गणा तक यही क्रम जानना चाहिये ।
§ २१. जघन्यका प्रकरण है । निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मोहनी की जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य प्रदेशविभक्तिका काल अनादि अनन्त और अनादि सान्त है । आदेशसे नारकियों में मोहनीयकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है । अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समयकम दस हजार वर्ष है और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण तेतीस सागर है । पहलेसे लेकर सातवें नरक तक जघन्य प्रदेशविभक्तिका काल ओघकी तरह है । अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समयकम अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । पाँचों प्रकारके तिर्यों में मोहनीयको जघन्य प्रदेशविभक्तिका काल ओघकी तरह है । अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समयक्रम अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल सम्पूर्ण उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । इसी प्रकार चार प्रकार के मनुष्यों में जानना चाहिए । सामान्य देवोंमें नारकियोंके समान भंग है । इसी प्रकार भवनवासियों से लेकर सर्वार्थसिद्धि तक के देवोंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि अजघन्य विभक्ति का जघन्य काल एक समय कम अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी सम्पूर्ण उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये । विशेषार्थ — ओघसे और आदेश से सर्वत्र मोहनीयकी जघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट काल एक समय है, क्योंकि स्वामित्वानुगमके अनुसार बतलाये हुए क्रमसे सर्वत्र एक समय के लिये ही जघन्य प्रदेशसंचय होता है । ओघसे अजघन्य विभक्तिका काल भव्य की अपेक्षा अनादि-सान्त है और अभव्यकी अपेक्षा अनादि-अनन्त है, क्योंकि अभव्यके कभी जघन्य प्रदेशविभक्ति नहीं होती । आदेशसे सब गतियोंमें अजघन्य प्रदेशविभक्तिका जघन्य
१. श्र०प्रतौ 'समऊणा उक्क० हिदी' इति पाठः ।
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१८
. जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ __$ २२. अंतरं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं चेदि । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०
ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० उक्क० पदेसविहत्तीए अंतरं केवचिरं कालादो होदि ? जहण्णुक० अणंतकालं । अधवा जहण्णेण असंखेजा लोगा, गुणिदपरिणामेहिंतो पुधभूदपरिणामेसु असंखेजलोगमेत्तेसु जहण्णण संचरणकालस्स असंखे लोगपमाणत्तादो। अणुक्क० जहण्णुक्क० एगसमओ। आदेसेण जेरइएसु मोह० उक० णत्थि अंतरं । अणुक० जहण्णुक० एगस० । एवं सत्तमाए । पढमादि जाव छहि ति मोह० उकस्साणुक्क० णत्थि अंतरं । एवं सव्वतिरिक्ख-सव्वमणुस्स-सव्वदेवे त्ति । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । काल एक समय कम अपनी अपनी जघन्य स्थितिप्रमाण है और उत्कृष्ट काल अपनी अपनी सम्पूर्ण उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है।
६२२. अन्तर दो प्रकारका है जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तर काल कितना है ? जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है। अथवा जघन्य अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है, क्योंकि गुणितकाशके कारणभूत परिणामोंसे भिन्न परिणामोंमें संचरण करनेका जघन्य काल असंख्यात लोकप्रमाण है। अनुत्कृष्टविभक्तिको जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है। आदेशसे नारकियोंमें मोहकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तर नहीं है। अनुत्कृष्ट विभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर एक समय है। इसी प्रकार सातवें नरकमें जानना चाहिये । पहलेसे लेकर छठे नरक तक मोहनीयकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट विभक्ति का अन्तर नहीं है। इसी प्रकार सब तिर्यश्च, सब मनुष्य और सब देवोंमें जानना चाहिये । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त जानना चाहिये।
विशेषार्थ-ओघसे उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्तकाल है, क्योंकि उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति गुणितकर्माशिक जीवके होती है और एक बार उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होकर पुनः इसे प्राप्त करने में अनन्तकाल लगता है। अथवा उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल असंख्यात लोक है। कारणका निर्देश मूलमें किया ही है। और उत्कृष्ट अन्तरकाल अनन्त काल है यह स्पष्ट ही है। तथा उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल एक समय है, अतः अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय कहा है, क्योंकि अनुत्कृष्ट विभक्तिके बीचमें एक समयके लिये उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके हो जानेसे एक समयका अन्तर पड़ता है। आदेशसे सामान्य नारकियोंमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तर नहीं है, क्योंकि अन्तर तब हो सकता है जब उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके बाद अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होकर पुनः उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति हो, किन्तु ऐसा किसी भी गतिमें नहीं होता, क्योंकि उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके अन्तरको प्राप्त करनेके लिये विविध गतियोंका आश्रय लेना पड़ता है । अतः किसी भी गतिमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तर काल नहीं है। सामान्य नारकियोंमें अनुत्कष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकाल एक समय है, क्योंकि सातवें नरकमें अन्तिम अन्तर्मुहूर्तके प्रथम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति मानी गई है। किन्तु जिनके मतसे अन्तिम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है उसके अनुसार यह अन्तर नहीं बनता। इसी प्रकार सातवें नरकमें समझना चाहिये। पहलीसे लेकर छठी पृथिवी तक तथा तियञ्च, मनुष्य और देवोंमें सर्वप्रथम जन्म लेनेवाले गुणितकांश जीवके जन्म लेनेके प्रथम समयमें ही उत्कृष्ट
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गा० २२]
मूलपयडिपदेसविहत्तीए भंगविचओ २३. जहण्णए पयदं । दुविहो णि ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० जहण्णाजहण्ण० पदेसविहत्तीणं णत्थि अंतरं । एवं चउगईसु । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
२४. पाणाजोवेहि भंगविचओ दुविहो-जहण्णओ' उक्कस्सओ चेदि । उक्कस्से पयदं । तत्थ अट्ठपदं-जे उक्कस्सपदेसविहत्तिया ते अणुक्कस्सपदेसस्स अविहत्तिया । जे अणुक्कस्सपदेसविहत्तिया ते उक्क०पदेसस्स अविहत्तिया । एदेण अट्ठपदेण दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० उक्कस्सियाए पदेसविहत्तीए सिया सव्वे जीवा अविहत्तिया १ । सिया अविहत्तिया च विहत्तिओ च २। सिया अविहत्तिया च विहत्तिया च ३ । अणुकस्सस्स वि विहत्तिपुव्वा तिण्णि भंगा वत्तव्वा । एवं सव्वणेरइयसव्वतिरिक्ख मणुस्सतिय-सव्वदेवे त्ति । मणुसअपजत्ताणमुक्क० अणुक्क० अट्ठभंगा। एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । विभक्ति होती है, अतः वहाँ न उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तर होता है और न अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका अन्तर होता है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिये।
६२३. अब जघन्यसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल नहीं है। इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
विशेषार्थ—ओघसे क्षपित काशवाले जीवके दसवें गुणस्थानके अन्तमें मोहनीयकी जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है। उसके बाद मोहका सद्भाव नहीं रहता, अतः न जघन्यप्रदेशविभक्तिका अन्तर प्राप्त है और न अजघन्य विभक्तिका अन्तर प्राप्त होता है। आदेश से जिन गतियोंमें क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानकी प्राप्ति सम्भव नहीं है उनमें क्षपित काशवाला जीव मोहका क्षपण न करके उसके पूर्व ही लौटकर जिस जिस गतिमें जन्म लेता है उसके प्रथम समयमें ही जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है। अन्यथा नहीं होती, अतः आदेशसे भी दोनों विभक्तियोंका अन्तर नहीं होता। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणातक जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिका अन्तरकाल क्यों सम्भव नहीं है इस बातको उक्त विधिसे घटित करके जान लेना चाहिए।
२४. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टसे प्रयोजन है। उसमें अर्थपद है-जो उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव हैं वे अनुत्कृष्ट प्रदेशोंकी अविभक्तिवाले होते हैं और जो अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव हैं वे उत्कृष्ट प्रदेशोंकी अविभक्तिवाले होते हैं। इस अर्थपदके अनुसार निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति की अपेक्षा कदाचित् सब जीव अविभक्तिवाले होते हैं १। कदाचित् अनेक जीव अविभक्तिवाले और एक जीव विभक्तिवाला होता है २। कदाचित् अनेक जीव अविभक्तिवाले और अनेक जीव विभक्तिवाले होते हैं ३ । अनुत्कृष्टके भी विभक्तिको पूर्वमें रखकर तीन भंग होते हैं। तात्पर्य यह है अनुत्कृष्ट विभक्तिकी अपेक्षा भंग कहते समय
१. प्रा०प्रतौ 'दुविहो णि० जहण्णो ' इति पाठः ।
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.. जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ २५. जहण्णए पयदं । तं चैव अट्ठपदं कादूण पुणो एदेण अट्ठपदेण उक्कस्सभंगो । एवं सव्वमग्गणासु णेदव्वं । जहाँ अविभक्तिपद रखा है वहाँ अनुत्सृष्टकी अपेक्षा विभक्ति शब्द रखना चाहिये। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यश्च, तीन प्रकारके मनुष्य और सब देवोंमें जानना चाहिये। मनुष्यअपर्याप्तकोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिमेंसे प्रत्येककी अपेक्षा आठ आठ भंग होते हैं। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-जिनके उत्कृष्ट प्रदेशसंचय होता है उनके उस समय अनुत्कृष्ट प्रदेशसंचय नहीं होता और जिनके अनुत्कृष्ट प्रदेशसंचय होता है उनके उस समय उत्कृष्ट प्रदेशसंचय नहीं होता। यह अर्थपद है, इसको आधार बनाकर उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षासे तीन और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षासे तीन कुल प्रत्येककी अपेक्षा तीन तीन भंग मूलमें बतलाये गये हैं। उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव कम होते हैं और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले अधिक होते
तथा ऐसा भी समय होता है जब उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला एक भी जीव नहीं होता । अतः जब सब जीव मोहकी उत्कृष्ट विभक्तिवाले नहीं होते तब सब जीव मोहकी अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले होते हैं। और जब एक जीव मोहकी उत्कृष्ट विभक्तिवाला होता है तब शेष जीव मोहकी अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले होते हैं। तथा जब अनेक जीव मोहकी उत्कृष्ट विभक्तिवाले होते हैं तब अनेक शेष जीव अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले होते हैं, इस प्रकार उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट की विभक्ति और अविभक्तिकी अपेक्षा तीन तीन भंग होते हैं किन्तु मनुष्य अपर्याप्तक चूंकि सान्तरमार्गणा है, अतः उसमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षा आठ और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षा आठ भंग प्राप्त होते हैं। यथा-कदाचित् सब लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य उत्कृष्ट प्रदेशअविभक्तिवाले होते हैं १। कदाचित् सब उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले होते हैं २ । कदाचित् एक उत्कृष्ट प्रदेशअविभक्तिवाला होता है ३। कदाचित् एक उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला होता है ४। ये चार एक संयोगी भंग है। दो संयोगी भंग भी इतने ही होते हैं। इस प्रकार ये स भंग हुए । अनुत्कृष्टकी अपेक्षा भी इतने ही भंग जानने चाहिये। इस प्रकार सान्तर और निरन्तर मार्गणाओंका ख्याल करके जहाँ जो व्यवस्था लागू हो वहाँ उसके अनुसार भंग ले आने चाहिये।
६२५. जघन्यसे प्रयोजन है। उत्कृष्टमें कहे गये पदको ही अर्थपद करके फिर उस अर्थपदके अनुसार जघन्यमें भी उत्कृष्टके समान भंग होते हैं। इस प्रकार सब मार्गणाओंमें ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-जिसके जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है उसके अजघन्य प्रदेशविभक्ति नहीं होती और जिसके अजघन्य प्रदेशविभक्ति होती है उसके जघन्य प्रदेशविभक्ति नहीं होती। यह अर्थपद है। इसको लेकर उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टकी तरह ही भंग योजना कर लेनी चाहिये। अर्थात् कदाचित् सब जीव मोहकी जघन्य प्रदेशविभक्ति वाले नहीं होते १। कदाचित् अनेक जीव अविभक्तिवाले और एक जीव विभक्तिवाला होता है २ । कदाचित् अनेक जीव विभक्तिवाले और अनेक जीव अविभक्तिवाले होते हैं ३ । इसी प्रकार अविभक्तिके स्थानमें विभक्ति करके अजघन्यके भी तीन भंग होते हैं—कदाचित् सब जीव मोहकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले होते हैं १ । कदाचित् अनेक जीव विभक्तिवाले और एक जीव अविभक्तिवाला होता है । कदाचित् अनेक जीव विभक्तिवाले और अनेक जीव अविभक्तिवाले होते हैं ३ । ये तीन तीन भंग
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गा० २२]
मूलपयडिपदेसविहत्तीए परिमाणं $ २६. परिमाणं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं च । उक्कस्से पयदं । दुविहो णि०ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० उकस्सपदेसवि० के० १ असंखेज्जा आवलि० असंखे०भागमेत्ता । अणुक्क० विह० अणंता । एवं तिरिक्खोघं । आदेसेण णेरइएसु मोह० उक्क० अणुक्क० असंखेजा। एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस्स-मणुस्सअपज० देव-भवणादि जाव सहस्सारो त्ति। मणुस्सपज०-मणुसिणी. सव्वट्ठसिद्धिम्हि उक्कस्साणुक० संखेजा । आणदादि जाव अवराइदो ति उक० संखेजा। अणुक्क० असंखेजा । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
___६ २७. जहण्णए पयदं । दुविहो णि०–ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० ज० वि० केत्ति० १ संखेजा । अज० अणंता० । एवं तिरिक्खोघं । आदेसे० णेरइएसु मोह० जह० ओघं । अज. असंखेजा। एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस-मणुससब गतियों में होते हैं । मात्र मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जघन्यकी अपेक्षा आठ और अजघन्यकी अपेक्षा आठ भंग होते हैं। इन भंगोंका नामनिर्देश उत्कृष्टके समान कर लेना चाहिये । इस प्रकार आगे भी निरन्तर और सान्तर मार्गणाओंका ख्याल करके जहाँ जो व्यवस्था सम्भव हो उसे वहाँ लगा लेनी चाहिये।
२६. परिमाण दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति वाले जीव कितने हैं ? असंख्यात हैं, अर्थात् आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले अनन्त हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिये। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले असंख्यात हैं। इस प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर सहस्रार स्वर्ग तकके देवोंमें जानना चाहिये । मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले जीव संख्यात हैं। आनत स्वर्गसे लेकर अपराजित विमान तकके देवोंमें उत्कृष्ट विभक्तिवाले संख्यात हैं और अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले असंख्यात हैं। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ--जो राशियाँ अनन्त हैं उनमें आवलिके असंख्यातवें भाग जीव उत्कृष्ट विभक्तिवाले और शेष अनन्त जीव अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले होते हैं । जो राशियाँ असंख्यात हैं उनमें दोनों विभक्तिवालोंका प्रमाण असंख्यात असंख्यात होता है। किन्तु आनतसे लेकर अपराजित विमान पर्यन्त उत्कृष्ट विभक्तिवालोंको प्रमाण संख्यात और अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंका प्रमाण असंख्यात है, क्योंकि उत्कृष्ट विभक्तिवाले आनतादिकमें पर्याप्त मनुष्य ही जाकर पैदा होते हैं और ये संख्यात हैं। तथा जो राशियाँ संख्यात हैं उनमें दोनों विभक्तिवालोंका प्रमाण संख्यात है।
६२७. जघन्यसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले कितने हैं ? संख्यात हैं। अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले अनन्त हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी जघन्य विभक्तिबाले ओघकी तरह हैं। अजघन्य विभक्तिवाले असंख्यात हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और
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जयवधलास दे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती५ अपज०देव-भवणादि जाव अवराइदो ति। मणुसपञ्ज०मणुसिणी०-सव्वट्ठसिद्धिम्हि जहण्णाजहण्णपदेस० संखेज्जा । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
६२८. खेत्तं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं च । उक्कस्से पयदं । दुविहो जिद्द सोओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० उक्कस्सपदेसवि० केवडि खेत्ते ? लोगस्स असंखे०भागे। अणुक्क० सव्वलोगे । एवं तिरिक्खोघं । सेसमग्गणासु उक्कस्साणुक्क० लोग० असंखे०भागे । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
$ २९. जहण्णए पयदं । जहण्णाजहण्णपदेस० उक्कस्साणुकस्सभंगो।
३०. पोसणं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं च । उक्कस्से पयदं। दुविहो णि०ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० उक्क०-अणुक्क० खेत्तभंगो। एवं तिरिक्खोघं । भवनवासीसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें जानना चाहिये । मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धिमें जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले संख्यात हैं। इस प्रकार अनाहारीपर्यन्त जानना चाहिये।
विशेषार्थ-जघन्य प्रदेशविभक्तिवालोंका प्रमाण ओघसे और आदेशसे भी संख्यात ही होता है, क्योंकि क्षपितकर्माश ऐसे जीवोंका परिमाण संख्यात ही होता है और अजघन्य विभक्तिवालोंका परमाण अपनी अपनी राशिके अनुसार अनन्त, असंख्यात और संख्यात होता है।
२८. क्षेत्र दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले जीवोंका सब लोक क्षेत्र है। इसी प्रकार सामान्य तियश्चोंमें जानना चाहिये । शेष मार्गणाओंमें उत्कृष्ट
और अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले जीवोंका क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
६२९. जघन्यसे प्रयोजन है । जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिवालोंका क्षेत्र उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवालोंके समान है।
विशेषार्थ—ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशधिभक्तिवाले जीव आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण हैं, अतः इनका वर्तमान क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होनेसे वह उक्त प्रमाण कहा है। तथा अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले शेष सब जीव हैं और ये सब लोकमें पाये जाते हैं, इसलिये इनका क्षेत्र सर्वलोक कहा है। सामान्य तिर्यञ्चोंमें इसी प्रकार क्षेत्र घटित कर लेना चाहिये। शेष गतियोंमें क्षेत्र ही लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए उनमें दोनों विभक्तियोंकी अपेक्षा लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र कहा है। तथा आगे एकेन्द्रिय आदि व दूसरी मार्गणाओंमें अपने अपने क्षेत्रको देखकर वह घटित कर लेना चाहिये । जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिवालोंमें भी इसी प्रकार क्षेत्र घटित कर लेना चाहिए।
३०. स्पर्शन दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्रकी तरह है। इसी प्रकार सामान्य तिर्यश्चोंमें जानना चाहिए। आदेशसे नारकियोंमें
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मूलपयडिपदेसविहत्तीए फोसणं आदेसेण० णेरइएसु मोह० उक० खेत्तभंगो। अणुक्क० लोग. असंखे भागो छ चोदस० देसूणा । एवं सत्तमाए । पढमपुढवीए खेत्तं । विदियादि जाव छट्टि त्ति मोह. उक० खेत्तभंगो। अणुक्क० सगपोसणं । सन्त्रपंचिंदियतिरिक्ख-सव्वमणुस्स मोह० उक्क० खेत्तभंगो । अणुक्क० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा । देवेसु मोह० उक्क० खेत्तं । अणुक० लोग० असंखे०भागो अह-णव चोदस० देसूणा । भवणादि जाव अच्चुदा त्ति उक्क० खेत्तभंगो । अणुक्क० सग-सगपोसणं । उवरि उक्कस्साणुक० खेत्तभंगो । एवं णेदव्वं जाव अणाहारो त्ति ।
३१. जहण्णए पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० जहण्णाजहण्णपदेसविह० उकस्साणुक्कस्स०भंगो । एवं सव्वमग्गणासु णेदव्वं जाव अणाहारो त्ति । मोहनीयको उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्रकी तरह है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवालों का स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग और त्रसनालीके कुछ कम छ बटे चौदह भागप्रमाण है। इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिये। पहली पृथिवीमें क्षेत्रके समान स्पर्शन है। दूसरीसे लेकर छठी पृथिवी पर्यन्त मोहकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्रकी तरह है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवालोंका अपना अपना स्पर्शन कहना चाहिये । सब पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च और सब मनुष्योंम मोहनीयकी उत्कृष्ट विभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्रकी तरह है। अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग और सर्वलोक है। देवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट विभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्रकी तरह है। अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंका स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग और त्रसनालीके कुछ कम आठ व कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण है। भवनवासीसे लेकर अच्युत स्वर्ग तकके देवोंमें उत्कृष्ट विभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्र की तरह है। अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंका अपना अपना स्पर्शन है। अच्युत स्वर्गसे ऊपर उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्रकी तरह है। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
३१. जघन्यसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवालोंका स्पर्शन उत्कृष्ट विभक्तिवालोंके स्पर्शनकी तरह है।
और अजघन्य विभक्तिवालोंका स्पर्शन अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवालोंकी बरह है। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त सब मार्गणाओंमें ले जाना चाहिए।
विशेषार्थ-उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका काल एक समय कहा है और वह विभक्ति सातवें नरकमें तो अन्तिम अन्तर्मुहूर्तके अन्तिम समयमें या प्रथम समयमें होती है और अन्यत्र जन्म लेनेके प्रथम समयमें होती है, अतः ओघसे और आदेशसे उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवालोंका जो क्षेत्र है वही स्पर्शन भी है। अर्थात् लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र और स्पर्शन दोनों हैं। किन्तु अनुत्कृष्ट विभक्ति एकेन्द्रियादि सब जीवोंके पाई जाती है अतः ओघसे अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंका स्पर्शन क्षेत्र की ही तरह सर्वलोक है क्योंकि सर्वलोकमें वे पाये जाते हैं। तथा आदेशसे नारकियोंमें वर्तमान कालकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्शन है और अतीतकालकी अपेक्षा स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वथान, वेदना, कषाय और विक्रियाके द्वारा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्शन है । तथा मारणान्तिक और उपपादपदके द्वारा त्रसनालीके
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पदेसविहत्ती ५
कुछ कम छै बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन है। प्रथम नरकमें क्षेत्रकी ही तरह लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्शन है। दूसरे नरकसे लेकर छठे नरक तक वर्तमानकालकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्शन है। तथा अतीतकालकी अपेक्षा स्वस्थानस्वस्थान, विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और विक्रिया पदके द्वारा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्शन है और मारणान्तिक तथा उपपादके द्वारा त्रसनालीकी अपेक्षा दूसरी पृथिवीमें कुछ कम एक बटे चौदह भागप्रमाण, तीसरीमें कुछ कम दो बटे चौदह भागप्रमाण, चौथीमें कुछ कम तीन बटे चौदह भागप्रमाण, पाँचवीमें कुछ कम चार बटे चौदह भागप्रमाण और छठींमें कुछ कम पाँच बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन है। सामान्य देवोंमें वर्तमानकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्शन है और अतीत कालकी अपेक्षा विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और विक्रियापदके द्वारा त्रसनालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन है, क्योंकि तीसरी पृथिवीसे नीचे देव नहीं जा सकते । तथा मारणान्तिकपदके द्वारा त्रसनालीका कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन है, क्योंकि नीचे दो राजू और ऊपर सात राजू इस तरह कुछ कम नौ राजू क्षेत्रको मारणान्तिकसमुद्धात करनेवाले देव स्पृष्ट करते हैं। भवनवासी आदि सब देवोंमें वर्तमानकालकी अपेक्षा लोकका असंख्यातवाँ भाग स्पर्शन है और अतीतकालकी अपेक्षा भवनत्रिकमें विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और विक्रियापदके द्वारा प्रसनालीका कुछ कम साढ़े तीन बटे चौदह भागप्रमाण अथवा कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन है, क्योंकि मन्दरतलसे नीचे दो राजू
और ऊपर सौधर्म कल्पके विमानके ध्वजदण्ड तक डेढ़ राजू इस तरह कुछ कम साढ़े तीन राजमें तो स्वयं ही विहार कर सकते हैं और ऊपरके देवोंके ले जानेसे कुछ कम आठ राजू तक विहार कर सकते हैं। तथा मारणान्तिक समुद्धातके द्वारा त्रसनालीका कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण स्पर्शन है, क्योंकि मन्दराचलसे नीचे कुछ कम दो राजू और ऊपर सात राजू इस तरह नौ राज होते हैं। उसमें तीसरी पृथिवीके नीचेका कुछ भाग छूट जाता है जहाँ देव नहीं जाते। सौधर्मसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंने अतीतकालमें विहारवत्स्वस्थान, वेदना, कषाय और विक्रियापदके द्वारा त्रसनालीका कुछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है। मारणान्तिकपदके द्वारा सौधर्म-ईशान कल्पके देवोंने त्रसनालीका कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है और सानत्कुमारसे लेकर सहस्रार कल्पतकके देवोंने त्रसनालीका कछ कम आठ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है। उपपादपदके द्वारा सौधर्म ईशान कल्पके देवोंने बसनालीका कुछ कम डेढ़ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रस्पर्श किया है, क्योंकि सौधर्मकल्प पृथिवीतलसे डेढ़ राजू के भीतर है। तथा उपपादपदके द्वारा सानत्कुमार माहेन्द्र कल्पके देवोंने त्रसनालीका कुछ कम तीन बटे चौदह, ब्रह्म-ब्रह्मोतर कल्पवालोंने कळ कम साढ़े तीन बटे चौदह, लान्तव-कापिष्ठ कल्पवालोंने कुछ कम चार बटे चौदह, शक्र-महाशुक्रवालोंने कुछ कम साढ़े चार बटे चौदह और शतार-सहस्रार कल्पवालोंने कुछ कम
च बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है। स्वस्थानस्वस्थानकी अपेक्षा सर्वत्र लोकका प्रख्यातवाँ भाग स्पर्श किया है। आनतसे लेकर अच्युत कल्प तकके देवोंने अतीतकालमें विहारवस्वस्थान, वेदना, कषाय विक्रिया और मारणान्तिकपदके द्वारा सनालीका कुछ कम छै बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्र स्पर्श किया है, क्योंकि चित्रा पृथिवीके ऊपरके तलसे नीचे इन देवोंका गमन नहीं होता ऐसी आगमग्रन्थोंकी मान्यता है। इस प्रकार सर्वत्र अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवालोंका स्पर्शन जानना चाहिये। अच्युत स्वर्गसे ऊपर अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंका भी स्पर्शन लोकका असंख्यातवाँ भाग ही है। तथा इन सबमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवालोंका स्पर्शन लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है यह स्पष्ट ही है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा
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गा० २२]
मूलपयडिपदेसविहत्तीए कालो ३२. कालो दुविहो-जहण्णओ उक्कस्सओ चेदि । उक्कस्सए पयदं। दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० उक्क० पदेस० जह० एगस०, उक्क० आवलि. असंखे०भागो। अणुक० सव्वद्धा। एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-मणुस्स-देवभवणादि जाव सहस्सारो त्ति । मणुसपज०-मणुसिणीसु मोह० उ० जह० एगसमओ, उक्क० संखेजा समया । अणुक्क० सव्वद्धा । एवमाणदादि जाव सव्वट्ठसिद्धि त्ति । मणुसअपज्ज० मोह० उक्क० ओघं । अणुक० जह. खुद्दाभवग्गहणं समऊणं, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । तक अपने अपने स्पर्शनको जानकर स्पर्शन घटित कर लेना चाहिये । जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिकी अपेक्षा भी इसी प्रकार स्पर्शन जान लेना चाहिये।
६ ३२. काल दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार, सब नारकी, सब तिर्यश्च, सामान्य मनुष्य, सामान्य देव और भवनवासी से लेकर सहस्रार स्वर्गतकके देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार आनतसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीयको उत्कृष्ट विभक्तिवालोंका काल ओघकी तरह है। अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ—पहले एक जीवकी अपेक्षा कालका निरूपण किया है। अब नाना जीवोंकी अपेक्षा काल बतलाते हैं। यदि ओघसे उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव एक समय तक होकर द्वितीयादिक समयोंमें नहीं हुए तो उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय प्राप्त होता है और यदि उपक्रमण काल तक निरन्तर उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव होते रहे तो उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है। तथा ओघसे अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सदा पाये जाते हैं। ऐसा कोई समय नहीं है जब अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले जीव न हों, क्योंकि सभी संसारी जीव मोहसे बद्ध हैं। मूलमें सब नारकी आदि और जितनी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें भी यह ओघव्यवस्था घट जाती है, अतः उनके कथनको ओघके समान कहा । मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनी संख्यात हैं, अतः यहाँ उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल संख्यात समय कहा। सर्वार्थसिद्धिमें भी यही व्यवस्था जाननी चाहिये । आनतादिकमें यद्यपि असंख्यात जीव हैं तो भी यहाँ मनुष्य ही उत्पन्न होते हैं, अतः यहाँ भी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल संख्यात समय प्राप्त होता है। मनुष्य अपर्याप्त सान्तर मार्गणा है और उसका जघन्य काल क्षुद्र भवग्रहण और उत्कृष्ट काल षल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अतः उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले कुछ जीव मनुष्य अपर्याप्तक हए और एक समय तक उत्कृष्ट विभक्तिके साथ रहकर अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले हो गये। तथा क्षुद्र भवग्रहण काल तक रहकर मरकर अन्य पर्यायमें चले गये तो मनुष्य अपर्याप्त उत्कृष्ट विभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय और अनुत्कृष्टविभक्तिवालोंका जघन्य
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ३३. जहण्णए पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० जह० पदेसवि० ज० एगस०, उक्क० संखेजा समया। अज० सव्वद्धा । एवं सव्वमग्गणासु णेदव्वं । णवरि मणुस्सअपज. अज. अणुक०भंगो । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
३४. अंतरं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सं चेदि । उक्कस्से पयदं । दुविहो णिद्देसोओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० उक्क० पदेसवि० अंतरं केव०. कालादो होदि ? जह० एगसमओ, उक्क० अणंतकालं । अणुक्क० णत्थि अंतरं । एवं सव्वमग्गणासु । णवरि मणुस्सअपज० अणुक्क० ज० एगस०, उक्क. पलिदो० असंखे०भागो। एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
काल एक समय कम क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण प्राप्त होता है। तथा उत्कृष्ट काल क्रमशः आवलिके असंख्यातवें भाग और पत्यके असंख्यातवें भाग होता है, क्योंकि मनुष्य अपर्याप्त मार्गणाका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भाग है। उतने काल तक उसमें अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले रहे फिर एक भी जीव उस मार्गणामें नहीं रहा। आगे अनाहारक मार्गणा तक अपनी अपनी मार्गणाकी विशेषता जानकर पूर्वोक्त विधिसे कालका कथन करना चाहिये । जो सान्तर मार्गणाएँ हों उनमें लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंके समान उनके अन्तर कालका विचार कर कथन करना चाहिये और निरन्तर मार्गणाओंमें जहाँ जितना काल सम्भव हो इसका विचार करके कालका कथन करना चाहिये।
६३३. जघन्य से प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी जघन्य प्रदेशविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है। अजघन्य विभक्तिवालोंका काल सर्वदा है। इसी प्रकार सब भार्गणाओंमें ले जाना चाहिये । इतना विशेष है कि मनुष्य अपर्याप्तकोंमें अजघन्य विभक्तिवालोंका काल अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंकी तरह जानना चाहिए । इस प्रकार अनाहोरी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
विशेषार्थ ओघसे और आदेशसे अजघन्य विभक्तिवाले जीव अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंकी तरह सदा पाये जाते हैं और जघन्य प्रदेशविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है, क्योंकि क्षपकश्रेणीके निरन्तर आरोहणका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय ही है। इसी प्रकार निरन्तर सब मार्गणाओंमें यथायोग्य जानना चाहिये। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें अजघन्य विभक्तिवालोंका काल अनुत्कृष्ट विभक्ति वालोंकी ही तरह जघन्यसे एक समय कम क्षुद्र भवग्रहणप्रमाण और उत्कृष्टसे पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है उसका कारण पूर्वमें बतलाया है। इसी प्रकार यथायोग्य अन्य सान्तर मार्गणाओंमें जानना चाहिये।
६३४. अन्तर दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति वालोंका अन्तरकाल कितना है ? जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्त काल है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति वालोंका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार सब मार्गणाओंमें जानना चाहिए। इतना विशेष है कि मनुष्य अपर्याप्तकोंमें अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण है । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
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गा० २२] मूलपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअं
__ २७ ३५. जहण्णए पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० ज० अज० उक्कस्साणुक्कस्सभंगो । एवं सव्वमग्गणासु णेदव्वं ।
३६. भावो सव्वत्थ ओदइओ भावो । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति। F३७. अप्पाबहुगं दुविहं—जहण्णमुक्कस्सं चेदि । उ कस्सए पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० सव्वत्थोवा उक्क०पदेसविहत्तिया जीवा । अणुक्क० पदेसवि० जीवा अणंतगुणा । एवं तिरिक्खोघं । आदेसेण गेरइए सु सव्वत्थोवा मोह० उक्क०पदेसवि० जीवा । अणुक०पदेसवि० जोवा असंखे गुणा । एवं सव्वणेरइयसव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस्स-मणुस्सअपज०-देव-भवणादि जाव अवराइद त्ति । मणुसपज-मणुसिणी-सव्वट्ठसिद्धि० सव्वत्थोवा मोह० उक०पदेसवि० जीवा। अणुक०पदेसवि० जीवा संखेजगुणा । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । एवं जहण्णप्पाबहुभं वत्तव्वं । णवरि जहण्णाजहण्णणिद्देसो कायव्यो।
- एवं बाबीसअणिओगद्दाराणि समत्ताणि । ६ ३५. जघन्यसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयकी जघन्य विभक्तिवालोंका अन्तर उत्कृष्ट विभक्तिवालोंके अन्तरके समान है, और अजघन्य विभक्तिवालोंका अन्तर अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंके अन्तरके समान है। इस प्रकार सत्र मार्गणाओंमें जानना चाहिये।
विशेषार्थ-चूँकि अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले सदा पाये जाते हैं अतः उनके अन्तरका कोई प्रश्न ही नहीं है। किन्तु मनुष्य अपर्याप्त मार्गणा चूँकि सान्तर मार्गणा है और उसका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भाग होता है अतः उसमें अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंका भी जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर उतना ही कहा है। इसी प्रकार अन्य सान्तर मार्गणाओंमें यथायोग्य जानना चाहिये। उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकाल है। अर्थात् यदि उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला एक भी जीव न हो तो कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक अनन्तकाल तक नहीं होता। इसी तरह जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्तिवालोंका भी अन्तर होता है।
३६. भावको अपेक्षा सर्वत्र औदायिक भाव है। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त जानना चाहिये।
$ ३७. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्ट से प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघ से मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सब से थोड़े हैं । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव अनन्तगुणे हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए । आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्यअपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर अपराजितविमान पर्यन्तके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धिके देवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। इसी प्रकार जघन्य अल्पबहुत्व कहना चाहिये। इतना विशेष है कि उत्कृष्ट और अनुत्कृष्टके स्थानमें जघन्य और अजघन्य कहना चाहिये।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ६३८. भुजगारविहत्तीए तत्थ इमाणि तेरस अणिओगद्दाराणि-समुक्त्तिणादि जाव अप्पाबहुए त्ति । तत्थ समुक्कित्तणाणुगमेण दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण अत्थि० मोह. भुज-अप्पदर-अवहिदविहत्तिया जीवा। एवं सव्वमग्गणासु णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
६३९. सामित्ताणु० दुविहो णिद्द सो-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० भुज०अप्प०-अवट्ठिदाणि' कस्स ? मिच्छादिहिस्स सम्मादिहिस्स वा । एवं सव्वणेरइयतिरिक्खचउक्क०-मणुस्सतिय-देव०-भवणादि जाव उवरिमगेवजा त्ति । पंचिंदियतिरिक्खअपज मोह. भुज०-अप्पद०-अवट्टि० कस्स ? अण्णदरस्स मिच्छादिहिस्स । एवं मणुसअपज० । अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठसिद्धि त्ति एवं चेव । णवरि सम्मादिहिस्से
विशेषार्थ ओघसे और आदेशसे उत्कृष्ट विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। जो राशियाँ अनन्त हैं उनमें उत्कृष्ट विभक्तिवालोंसे अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले अनन्तगुणे हैं। जिनकी राशि असंख्यात हैं उनमें उत्कृष्ट विभक्तिवालोंसे अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले असंख्यातगुणे हैं और जिनकी राशि संख्यात हैं उनमें उत्कृष्ट विभक्तिवालोंसे अनुत्कृष्ट विभक्तिवाले संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार जघन्य प्रदेशविभक्तिवाले सबसे कम हैं और उनसे अजघन्य प्रदेशविभक्तिवाले अपनी अपनी राशि अनुसार अनन्तगुणे, असंख्यातगुणे या संख्यातगुणे हैं।
- इस प्रकार बाईस अनुयोगद्वार समाप्त हुए । ६३८. भुजकारविभक्ति का कथन करते हैं। उसमें समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्वपर्यन्त तेरह अनुयोगद्वार होते हैं। उनमें समुत्कीर्तनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ
और आदेश । ओघसे मोहनीयकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित विभक्तिवाले जीव हैं। इसी प्रकार सब मार्गणाओंमें जानना चाहिये । अर्थात् सभी मार्गणाओंमें मोहनीयकी उक्त तीनों विभक्तिवाले जीव पाये जाते हैं।
विशेषार्थ-ओघसे और आदेशसे मोहनीयकर्मकी मूलप्रकृतिमें भुजगार, अल्पतर और अवस्थित ये तीन ही विभक्तियाँ होती हैं, चौथी अवक्तव्य विभक्ति नहीं होती, क्योंकि मोहनीयकी सत्ता न रहकर यदि पुनः उसकी सत्ता हो तो अवक्तव्य विभक्ति हो सकती थी, किन्तु ऐसा संभव नहीं है, क्योंकि दसवें गुणस्थानके अन्तमें मोहनीयकी सत्त्वव्युच्छित्ति करके जीव क्षीणकषाय हो जाता है, फिर वह लौटकर नीचे नहीं आता, अतः अवक्तव्यविभक्ति नहीं होती।
६३९. स्वामित्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित विभक्तियाँ किसके होती हैं ? मिथ्यादृष्टि अथवा सम्यग्दृष्टिके होती हैं। इसी प्रकार सब नारकी, चार प्रकारके तिर्यञ्च, तीन प्रकारके मनुष्य, सामान्य देव, और भवनवासीसे लेकर उपरिम अवेयक तकके देवोंमें जानना चाहिये । पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मोहनीयको भुजगार, अल्पतर और अवस्थित विभक्तियां किसके होती हैं ? किसी भी मिथ्यादृष्टि जीवके होती हैं। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिये । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिये । इतना विशेष है कि
१. प्रा०प्रतौ 'भुज अवहिदाणि' इति पाठः ।
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गा० २२]
मूलपयडिपदेसविहत्तीए कालो त्ति वत्तव्वं । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
४०. कालाणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण । ओघेण मोह० भुज-अप्पद० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। अवहि० ज० एगसमओ, उक्क० संखेजा समया । एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-सव्वमणुस्स-सव्वदेवे त्ति । णवरि पंचिं०तिरि०अपज. मोह० भुज-अप्प० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं मणुसअपज० । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
सम्यग्दृष्टिके कहना चाहिये । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-यह प्रदेशसत्कर्मविभक्तिका प्रकरण है, अतः यहाँ सत्तामें स्थिति मोहनीयके कर्मप्रदेशोंके बढ़ानेको भुजगारविभक्ति कहते हैं, घटानेको अल्पतर विभक्ति कहते हैं
और उतनेके उतने ही रहनेको अवस्थितविभक्ति कहते हैं। ओघसे और आदेशसे ये तीनों ही विभक्तियाँ मिथ्यादृष्टिके भी होती हैं और सम्यग्दृष्टि के भी होती हैं, क्योंकि बन्ध और निर्जरावश दोनों ही के सत्कर्मप्रदेशोंमें वृद्धि भी होती है, हानि भी होती है और वृद्धि-हानिके बिना तदवस्थता भी रहती है। किन्तु पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त तथा मनुष्य अपर्याप्त सम्यग्दृष्टि नहीं होते, अतः उनमें तीनों विभक्तियोंका स्वामी मिथ्यादृष्टि जीव ही होता है। इसी प्रकार अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके सब देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, अतः उनमें सब विभक्तियोंका स्वामी सम्बग्दृष्टि ही होता है। अन्य मार्गणाओंमें इसी प्रकार अपनी अपनी विशेषता जानकर घटित कर लेना चाहिये।
४०. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । इस प्रकार सब नारकी, सब तिर्यश्च, सब मनुष्य और सब देवोंमें जानना चाहिये । इतना विशेष है कि पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मोहनीयकी भुजगार और अल्पतर विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिये । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-ओघसे और आदेशसे भी तीनों विभक्तियोंका जघन्य काल एक समय है, क्योंकि विवक्षित समयमें किसी जीवने भुजगार, अल्पतर या अवस्थित विभक्ति की तो दूसरे समयमें उससे भिन्न दूसरी विभक्ति उसके हो सकती है तथा ओघसे और आदेशसे भुजगार और अल्पतर विभक्तिका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि भुजगार और अल्पतर विभक्तियाँ अधिकसे अधिक पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक पाई जाती हैं आगे नहीं । अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय तो पूर्ववत् ही है । तथा उत्कृष्ट काल जो संख्यात समय कहा है सो अवस्थितके कालको देखकर यह प्ररूपणा की है। नार आदि अन्य मार्गणाओंमें भी यह व्यवस्था बन जाती है, इसलिये इनके कथनको ओघके समान कहा है। पञ्चन्द्रिय तियश्च लब्ध्यपर्याप्त तथा मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त है, अतः इनके भुजगार और अल्पतर प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। अन्य मार्गणाओंमें अपनी अपनी विशेषता जानकर यह काल घटित करना चाहिए।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहन्ती ५
$ ४१. अंतराणु ० दुविहो णि० - ओघेण आदेसेण । ओघेण मोह० भुज ० - अप्प ० अंतरं ज़० एस ०, उक्क० पलिदो ० असंखे ०भागो । अवट्ठि० ज० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । एवं तिरिक्खोघे । आदेसेण णेरइएस भुज ० - अप्पद० अंतरमोघं । अवट्ठिद० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीस सागरो० देसूणाणि । एवं सव्वणेरइयपंचिं० तिरि० तिय- मणुसतिय देव भवणादि जाव सव्वहसिद्धि त्ति । णवरि अवदिस्स सगसगी देणा । पंचिं० तिरि० अपज • मोह० तिन्हं पदाणं ज० एगस०, उक्क० अंतोyo | एवं मणुसअपञ्ज० । एवं दव्वं जाव अणाहारिति ।
३०
$ ४१. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनी की भुजगार और अल्पतर विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यों में जानना चाहिए | आदेशसे नारकियों में भुजगार और अल्पतरविभक्तिका अन्तर ओघकी तरह है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। इसी प्रकार सब नारकी, तीन प्रकारके पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, तीन प्रकार के मनुष्य, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवों में जानना चाहिये । इतना विशेष है कि अवस्थितका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । पचेन्द्रिय तिर्यश्व अपर्याप्तकों में मोहनीयकी तीनों विभक्तियों का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
विशेषार्थ — ओघसे भुजगार और अल्पतर प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है, क्योंकि एक समय तक विवक्षित विभक्ति रहकर दूसरे समय में अन्य विभक्तिके हो जानेसे जघन्य अन्तरकाल एक समय प्राप्त होता है । तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि, भुजगार या अल्पतर प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्टकाल पल्के असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिये उक्तप्रमाण अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है । अवस्थित विभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय पूर्ववत् ही है । तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है, क्योंकि क्षपित कर्मांशरूप परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण हैं, इललिये इतने काल तक अवस्थित प्रदेशविभक्ति न हो यह सम्भव है । समान्य तिर्यों में यह अन्तरकाल बन जाता है, इसलिये इसके कथनको ओघके समान कहा है । नारकियोंमें अवस्थित विभक्तिके उत्कृष्ट अन्तरको छोड़कर शेष सब अन्तरकाल ओघ के समान है, इसलिये यह सब अन्तरकाल ओघके समान कहा है । नरककी ओघस्थिति तेतीस लागर है, इसलिये अवस्थितका उत्कृष्ट अन्तर तेतीस सागरसे कुछ कम प्राप्त होता है, क्योंकि नरकमें उत्पन्न होने के प्रारम्भ में और अन्त में जिसने अवस्थितविभक्ति की और मध्यमें अल्पतर या भुजगार करता रहा उसके अवस्थित प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर बन जाता है । मूलमें जो अन्य मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें भी अवस्थित विभक्ति के उत्कृष्ट अन्तरकालको छोड़कर पूर्वोक्त व्यवस्था बन जाती है । तथा जिस मार्गणाका जितना उत्कृष्ट काल है उसमें से कुछ कम कर देने पर उस उस मार्गणा में अवस्थित विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर काल बन जाता है । पंचेन्द्रिय तिर्यन लब्ध्यपर्याप्त व मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तकी उत्कृष्ट कार्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त है, इसलिये इनमें सब
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गा० २२] मूलपयडिपदेसविहत्तीए णाणाजीवेहि भंगविचओ
४२. णाणाजीवेहि भंगविचयाणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण भुज०-अप्पद०-अवढि० णियमा अस्थि । एवं तिरिक्खोघे । आदेसेण णेरइएसु मोह० भुज०-अप्पद० णियमा अस्थि । सिया एदे च अवहिदविहत्तिओ च १। सिया एदे च अवद्विदविहत्तिया च २। धुवेण' सह तिण्णि ३ । एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसतिय-देव-भवणादि जाव सव्वसिद्धि त्ति । मणुसअपज. मोह० तिण्णि पदा भयणिज्जा । भंगा २६ । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
पदोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय व उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक अपनी अपनी स्थितिका विचार करके तीनों पदोंका अन्तरकाल जान लेना चाहिये।
४२. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय अनुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए । आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी भुजगार और अल्पतर विभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। कदाचित् अनेक जीव भुजगार और अल्पतरविभक्तिवाले हैं
और एक जीव अवस्थित विभक्तिवाला है १ । कदाचित् अनेक जीव भुजगार और अल्पतरविभक्तिवाले हैं और अनेक जीव अवस्थितविभक्तिवाले हैं २ । ध्रुव भंगके मिलानेसे ये तीन भंग होते हैं । इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च, तीन प्रकारके मनुष्य, सामान्य देव
और भवनवासीसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीयके तीनों पद भजनीय हैं। भंग छब्बीस होते हैं। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-ओघसे तीनों विभक्तिवाले नाना जीव सदा पाये जाते हैं, इसलिये अन्य किसी भंगको स्थान ही नहीं है । सामान्य तिर्यश्चोंमें भी तीनों विभक्तिवाले सदा पाये जाते हैं, इसलिये इनकी प्ररूपणा ओघके समान है। नारकियोंमें मोहनीयकी भुजगार और अल्पतर विभक्तिवाले जीव निययसे होते हैं और अवस्थित विभक्तिवाले विकल्पसे होते हैं, अतः मोहनीयकी भुजगार और अल्पतर विभक्तिवाले नियमसे हैं यह एक ध्रुव भंग होता है जो कि सदा रहता है। इसके सिवा दो भंग होते हैं जो मूलमें बतलाये हैं। सब गतियोंमें ये ही तीन भंग होते हैं । केवल मनुष्य अपर्याप्तकोंमें अपवाद है। चूंकि मनुष्य अपर्याप्त सान्तर मार्गणा है अतः उसमें तीनों विभक्तियाँ विकल्पसे होती हैं और इस तरह २६ भंग होते हैं । वे इस प्रकार है-कदाचित भुजकार विभक्तिवाला एक जीव होता है १ । कदाचित् अनेक जीव होते हैं २। कदाचित् अल्पतर विभक्तिवाला एक जीव होता है ३। कदाचित् अनेक जीव होते हैं ४ । कदाचित् अवस्थितविभक्तिवाला एक जीव होता है ५। कदाचित् अनेक जीव होते हैं ६ । कदाचित् भुजगारवाला एक जीव और अल्पतरवाला एक जीव होता है । कदाचित् भुजगारवाले अनेक जीव और अल्पतरवाला एक जीव होता है ८। कदाचित् भुजगारवाला एक जीव और अल्पतरवाले अनेक जीव होते हैं ९। कदाचित् भुजगारवाले अनेक जीव और अल्पतरवाले अनेक जीव होते हैं १० । कदाचित् भुजगारवाला एक जीब और अवस्थितवाला एक जीव होता है ११ । कदाचित् भुजगारवाले अनेक जीव और अवस्थित
१. ता०प्रतौ 'दुवेण' इति पाठः ।
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जयवधलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ४३. भागाभागाणु० दुविहो णि-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह. भुज० संखेजा भागा । अप्प० संखे०भागो। अवट्टि. असंखे०भागो। एवं सव्वणेरइयसव्वतिरिक्ख-मणुस-मणुसअपज०-देव-भवणादि जाव अवर।इद त्ति । मणुसपज०मणुसिणी-सव्वट्ठसिद्धी० एवं चेव । णवरि अवद्विद० संखे भागो । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । वाला एक जीव होता है १२ । कदाचित् भुजगारवाला एक जीव और अवस्थितवाले अनेक जीव होते हैं १३ । कदाचित् भुजगारवाले अनेक जीव और अवस्थितवाले अनेक जीव होते हैं १४ । कदाचित् अल्पतरवाला एक जीव और अवस्थितवाला एक जीव होता है १५ । कदाचित् अल्पतरवाले अनेक जीव और अवस्थितवाला एक जीव होता है १६। कदाचित् अल्पतरवाला एक जीव और अवस्थितवाले अनेक जीव होते हैं १७ । कदाचित् अल्पतरवाले अनेक जीव
और अवस्थितवाले अनेक जीव होते हैं १८ । कदाचित् भुजगारवाला एक जीव, अल्पतरवाला वाला एक जीव और अवस्थित वाला एक जीव होता है १९। कदाचित् भुजगारवाले अनेक जीव, अल्पतरवाला एक जीव और अवस्थितवाला एक जीव होता है २० । कदाचित् भुजगार वाला एक जीव, अल्पतरवाला एक जीव और अवस्थितवाले अनेक जीव होते हैं २१ । कदाचित् भुजगारवाला एक जीव, अल्पतरवाले अनेक जीव और अवस्थितवाला एक जीव होता है २२ । कदाचित् भुजगारवाला एक जीव, अल्पतरवाले अनेक जीव और अवस्थितवाले अनेक जीव होते हैं २३। कदाचित भुजगारवाले अनेक जीव, अल्पतरवाला एक जीव
और अवस्थितवाले अनेक जीव होते हैं २४ । कदाचित् भुजगारवाले अनेक जीव, अल्पतरवाले अनेक जीव और अवस्थितवाला एक जीव होता है २५ । कदाचित् भुजगारवाले अनेक जीव अल्पतरवाले अनेक जीव और अवस्थितवाले अनेक जीव होते हैं २६ । इस प्रकार ६ भंग ऐक संयोगी, १२ भंग द्विसंयोगो और ८ भंग त्रिसंयोगी होते हैं। कुल मिलाकर २६ भंग होते हैं। सान्तर और निरन्तर मार्गणाओंकी अपेक्षा गतिमार्गणामें जो भंगोंकी प्रकिया बतलाई है आगेकी मार्गणाओंमें भी उसी प्रकार यथायोग्य घटित कर लेना चाहिये।
६४३. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी भुजगारविभक्तिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं, अल्पतरविभक्तिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं और अवस्थितविभक्तिवाले जीव असंख्यातवें भागप्रमाण हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर अपराजित विमानतकके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धि के देवोंमें इसी प्रकार जानना चाहिए । इतना विशेष है कि अवस्थित विभक्तिवाले जीव संख्यातवें भागप्रमाण हैं । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ—भागाभागानुगमसे यह बतलाया गया है कि विवक्षित राशिमें अमुक अमुक विभक्तिवाले कितने भागप्रमाण हैं ? और परिमाणानुगमसे उनका परिमाण अर्थात् संख्या बतला दी गई है। जैसे ओघसे मोहनीयकी प्रदेशविभक्तिवाले जीवोंमें संख्यात बहुभाग भुजगारविभक्तिवाले जीव होते हैं, संख्यातैक भागप्रमाण अल्पतर विभक्तिवाले जीव होते हैं और असंख्यातवें भागप्रमाण अवस्थित विभक्तिवाले जीव होते हैं। फिर भी इन तीनों विभक्तिवालोंकी संख्या अनन्त है। मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी, और सर्वार्थसिद्धिवालोंका प्रमाण चूंकि संख्यात है, अतः उनमें अवस्थित विभक्तिवाले भी संख्यातवें भागप्रमाण कहे हैं। शेष कथन स्पष्ट ही है।
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गा० २२ ]
मूलपयडिपदेसविहत्तीए पोसणं
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S ४४. परिमाणाणु० दुविहो णि० - ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० भुज०अप्पद ० - अवडि० दव्व पमाणेण केत्तिया ? अनंता । एवं तिरिक्खोघं । सेसमग्गणासु सव्वपदा असंखेजा । णवरि मणुसपज्ज० मणुसिणी -सव्वट्टसिद्धि० तिण्णि पदा संखेजा । एवं दव्वं जाव अणाहारिति ।
$ ४५. खेत्ताणु ० दुविहो णि० - ओघेण आदेसेण य । ओघेण मोह० भुज०अप्पद ० - अवहि० केवडि खेत्ते ? सव्वलोगे । एवं तिरिक्खोघं । सेसमग्गणासु मोह० तिण्णि पदा० लोग० असंखे ० भागे० । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि ति ।
६ ४६. पोसणाणुगमेण दुविहो णि० - ओघेण आदेसे० । ओघेण० मोह० भुज ०अप्पद ० -अवट्टि • केवडियं खेत्तं पोसिदं । सव्वलोगो । एवं तिरिक्खोघं । आदेसेण
०
रइएस मोह० तिणिपद० लोग० असंखे० भागो छ चोहस० देखणा । पढमपुढवि० खेत्तं । विदियादि जाव सत्तमपुढवि - सव्वपंचिंदिय तिरिक्ख- सव्वमणुस - सव्वदेव मोह ० तिन्हं पदाणं सगसग पोसणं जाणिदूण वत्तव्वं । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि ति
४४. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीव द्रव्यप्रमाणसे कितने हैं ? अनन्त हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्यों में जानना चाहिए। शेष भार्गणाओं में सब पदवाले जीव असंख्यात हैं । इतना विशेष है कि मनुष्य पर्याप्त, मनुष्यिनी और सर्वार्थसिद्धि में तीनों विभक्तिवालोंका परिमाण संख्यात है । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
$ ४५. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनी की भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सर्वलोक क्षेत्र है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चों में जानना चाहिये । शेष मार्गणाओंमें मोहनीयकी तीनों विभक्तिवाले जीवों का क्षेत्र लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
९ ४६. स्पर्शनानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयको भुजगार, अल्पतर और अवस्थित विभक्तिवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सर्वलोकप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यश्नोंमें जानना चाहिये । आदेश से नारकियों में मोहनीयकी तीनों विभक्तिवालोंने लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्रका और त्रसनालीके कुछ कम छै बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है । पहली पृथिवी में क्षेत्रकी तरह स्पर्शन जानना चाहिये । दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी तकके नारकी, सब पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च, सब मनुष्य और सब देवोंमें मोहनीयकी तीनों विभक्तिवालोंका अपना अपना स्पर्शन जानकर कहना चाहिये । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
विशेषार्थ — तीनों विभक्तिवालोंका क्षेत्र और स्पर्शन जैसे पहले मोहनीयकी उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट विभक्तिवालोंका क्षेत्र और स्पर्शन घटित करके बतलाया है वैसे ही जानना चाहिये ।
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहती ५
S ४७, कालानुगमेण दुविहो णि० - ओघेण आदे० । ओघेण मोह० तिण्णिपदवि० केवचिरं ० कालादो होंति ? सव्वद्धा । एवं तिरिक्खोघं आदेसेण णेरइएस मोह० भुज० अप्पद० ओघं । अवट्ठि ० ज० एस ०, उक्क० आवलि० असंखे० भागो । एवं सव्वरइय - सव्वपंचिंदियतिरिक्ख- मणुस्स- देव - भवणादि जाव अवराइदं ति । एवं मणुसपज मणुसिणीसु । गवरि अवट्ठि० ज० एगसमओ, उक्क० संखेज्जा समया । एवं सव्वसिद्धि ० । मणुसअपज० भुज० - अप्प० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । अवट्टि • रइयभंगो । एवं णेदव्वं जाव अणाहारित्ि ४८. अंतराणु० दुविहो णि० - ओघेण आदेसे० |
०
०
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ओघेण मोह० तिन्हं
४७. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश । ओघसे मोहनी की तीनों विभक्तिवाले जीवोंका कितना काल है ? सर्वदा है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यों में जानना चाहिये । आदेशसे नारकियों में मोहनीयकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिवालोंका काल ओघकी तरह है । अवस्थित विभक्तिवालोंका जघन्य काल ऐक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार सब नारको, सब पचेन्द्रिय तिर्यञ्च, सामान्य मनुष्य, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर अपराजित विमानतकके देवों में जानना चाहिये । मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियों में भी इसी प्रकार जानना चाहिये । इतना विशेष है कि अवस्थितविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि में जानना चाहिये मनुष्य अपर्याप्तकों में भुजगार और अल्पतर विभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अवस्थितविभक्तिवालोंका काल नारकियोंकी तरह जानना चाहिये । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
।
विशेषार्थ - मोहनीयकी भुजगार, अल्पतर और अवस्थित प्रदेशविभक्तिको करनेवाले नाना जीव सदा पाये जाते हैं, इसलिये इनका काल सदा कहा । सामान्य तिर्यों में भी यह व्यवस्था घट जाती है इसलिये उनमें भी उक्त विभक्तियोंका काल सदा कहा । नारकियों में यद्यपि भुजगार और अल्पतरका काल सदा है पर अवस्थितके कालमें फरक है । बात यह है कि नाना जीव अवस्थितविभक्तिको एक समय तक करके द्वितीयादि समयों में अन्य विभक्तिको भी प्राप्त हो सकते हैं और तब अवस्थित विभक्तिवाला एक भी जीव नहीं रहता है, इसलिए इसका जघन्य काल एक समय है । अत्र यदि नाना जीव निरन्तर अवस्थित प्रदेशविभक्तिको करते हैं तो उपक्रम कालके अनुसार आवलीके असंख्यातवें भाग प्रमाण काल तक ही कर सकते हैं, इसलिये अवस्थित प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण बतलाया है । मूलमें और जितनी मार्गणाऐं बतलाई हैं उनमें भी इसी प्रकार जानना चाहिये । किन्तु मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनी संख्यात हैं, इसलिये इनमें अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । सर्वार्थसिद्धिमें मनुष्य पर्याप्तकोंके समान काल घटित कर लेना चाहिये । लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्य सान्तर मार्गणा है । इस मार्गणाका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिये इसमें भुजगार और अल्पतरका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। पर अवस्थित विभक्तिका उत्कृष्ट काल पूर्वोक्त विधिसे आवली के असंख्यातवें भागप्रमाण ही प्राप्त होता है ।
४८. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है - ओघ और आदेश | ओघसे
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गा० २२]
मूलपयडिपदेसविहत्तीए अप्पाबहुअं पदाणं विहत्तियाणं णत्थि अंतरं । एवं तिरिक्खोघं । आदेसेण णेरइएसु भुज०-अप्प० णत्थि अंतरं । अवढि० ज० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा। एवं सव्वणेरइयसव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस्सतिय-सव्वदेवा त्ति । मणुसअपज० भुज०-अप्पद० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । अवढि० णेरइयभंगो। एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
४९. भावो सव्वत्थ ओदइओ भावो ।
५०. अप्पाबहुअं दुविहं-ओघेण आदेसे०.। ओघेण मोह० सव्वत्थोवा अवट्ठिदविहत्तिया जोवा । अप्पदरविहत्ति० जीवा असंखे गुणा । भुजविहत्ति० संखेगुणा । एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-मणुस-मणुसअपज०-देव-भवणादि जाव अवराइदो त्ति । मणुसपज.' -मणुसिणी-सव्वट्ठसिद्धि० सव्वत्थोवा मोह० अवढि०मोहनीयकी तीनों पदविभक्तियोंका अन्तर नहीं है। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिये । आदेशसे नारकियोंमें भुजगार और अल्पतर विभक्तिवालोंका अन्तर नहीं है। अवस्थितविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च, तीन प्रकारके मनुष्य और सब देवोंमें जानना चाहिये। मनुष्य अपर्याप्तकों में भुजगार और अल्पतर विभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण है। अबस्थितविभक्तिवालों का अन्तर नारकियों के समान है । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-ओघसे तथा सामान्य तिर्यश्चोंमें तीनों विभक्तिवाले जीव सदा पाये जाते हैं, इसलिये उनका अन्तरकाल नहीं है। आदेशसे भी सामान्य नारकियोंमें भुजगार और अल्पतर विभक्तिवाले जीव सदा पाये जाते हैं, इसलिये उनमें अन्तरकाल नहीं है। हाँ अवस्थितविभक्तिवाले जीव कमसे कम एक समय तक और अधिकसे अधिक आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक पाये जाते हैं अतः उनमें अन्तर होता है और अन्तरका जघन्यप्रमाण एक समय और उत्कृष्ट प्रमाण असंख्यात लोक प्रमाण है । अर्थात् इतने काल तक नारकियोंमें अवस्थितविभक्तिवाले जीव नहीं पाये जावे यह सम्भव है। उसके बाद कोई न कोई जीव अवस्थित विभक्तिवाला अवश्य होता है। सब नारकी आदि अन्य गतियोंमें अन्तरकी यही व्यवस्था है। मात्र मनुष्य अपर्याप्त इसके अपवाद हैं। सो जानकर उनमें अन्तरकाल घटित कर लेना चाहिये।
$ ४९. भावानुगम की अपेक्षा सर्वत्र औदयिकभाव होता है।
६५०. अल्पबहुत्व दो प्रकार का है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी अवस्थित विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । अल्पतर विभक्तिवाले जोव असंख्यातगुणे हैं । भुजगार विभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इस प्रकार सब नारकी, सब तिर्यश्च, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर अपराजित विमान तक के देवोंमें जानना चाहिये । मनुष्यपर्याप्त, मनुष्यनी और सवार्थसिद्धिके देवोंमें मोहनीयकी अवस्थित
१. प्रा०प्रतौ 'मणुसअपज०' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ विहत्ति० जीवा । अप्प०विहत्ति० संखे गुणा । भुज० संखेजगुणा । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । ___५१. पदणिक्खेवे ति तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगद्दाराणि-समुक्त्तिणा सामित्तमप्पाबहुअं चेदि । तत्थ समुक्त्तिणं दुविहं-जह० उक० । उक्क० पय० । दुविहो णि०-ओघेण आदे० । ओघेण मोह० अत्थि उक्क० वड्डी हाणी अवट्ठाणं च । एवं सव्वत्थ गइमग्गणाए । एवं जाव अणाहारे त्ति । एवं जहण्णयं पिणेदव्वं ।
६ ५२. सामित्तं दुविहं-ज० उक्क० । उक्क. पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० उक० वड्डी कस्स? अण्णद० एइंदियस्स हदसमुप्पत्तियकम्मस्स जो सण्णिपंचिंदियपजत्तएसु उववण्णल्लग्गो अंतोमुहुत्तमेगंताणुवड्डीए वड्डियूण तदो परिणामजोगं पदिदो तस्स उकस्सपरिणामजोगे वट्टमाणस्स उक्क० वड्डी । तस्सेव से काले उक्कस्समवट्ठाणं । उक्क० हाणी कस्स ? अण्णदरस्स खवगस्स सुहुमसांपराइयस्स चरिमसमए वट्टमाणयस्स ।
५३. आदेसेण णेरइएसु मोह० उक्क० वड्डी कस्स ? अण्णद० असण्णिस्स हदसमुप्पत्तियकम्मेण णेरइएसु उववण्णल्लग्गस्स अंतोमुहुत्तमेयंताणुवड्डीए वड्डियूण विभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । अल्पतर विभक्तिवाले उनसे संख्यातगुणे हैं और भुजगार विभक्तिवाले जीव उनसे भी संख्यातगुणे हैं । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
विशेषार्थ-ओघसे और आदेशसे अवस्थितविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं । अल्पतर विभक्तिवाले उनसे अधिक होते हैं और भुजगार विभक्तिवाले उनसे भी अधिक होते हैं। कहाँ कितने अधिक होते हैं इसका प्रमाण मूलमें बतलाया ही है।।
६५१. अब पदनिक्षेपका कथन करते हैं। उसमें ये तीन अनुयोगद्वार होते हैंसमुत्कीर्तना, स्वामित्व और अल्पबहुत्व । उसमें में समुत्कीर्तना के दो भेद हैं-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्ट से प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीय की प्रदेशविभक्तिमें उत्कृष्ट वृद्धि, उत्कृष्ट हानि और उत्कृष्ट अवस्थान होते हैं । इसी प्रकार सर्वत्र गतिमार्गणामें जानना चाहिए। इस प्रकार अनाहारकपर्यन्त ले जाना चाहिए । इसी प्रकार जघन्यका भी कथन करके ले जाना चाहिये।
५२. स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्ट से प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकार का है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीय की उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? हतसमुत्पत्तिक कर्मवाला जो एकेन्द्रिय जीव संज्ञी पञ्चन्द्रिय पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ और अन्तमहत पर्यन्त एकान्तानुवृद्धि योगसे वृद्धिको प्राप्त होकर परिणामयोगस्थानको प्राप्त हुआ। उत्कृष्ट परिणाम योगस्थानमें वर्तमान उस जीवके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। उसी जीवके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है । उत्कृष्ट हानि किसके होती है १ सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानके अन्तिम समयमें वर्तमान क्षपकके उत्कृष्ट हानि होती है।
६५३. आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो असंज्ञी पश्चेन्द्रिय जीव हतसमुत्पत्तिक कर्मके साथ नारकियोंमें उत्पन्न हुआ और अन्तर्मुहूर्त
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गा० २२] मूलपयडिपदेसविहत्तीए पदणिक्खेवे सामित्तं परिणामजोगेण पदिदस्स तस्स उक्क० वढी । तस्सेव से काले उक्कस्सयमवट्ठाणं । उक्क० हाणी कस्स ? अण्णदरस्स असंजदसम्माइद्विस्स अणंताणुबंधिविसंजोएंतस्स अंतोमहुत्तं गंतूण विसंजोयणगुणसेढीसीसए उदिण्णे उक्क० हाणी । अधवा कदकरणिजभावेण तत्थुप्पण्णस्स जाधे गुणसेढीसीसयमुदयमागदं ताधे उक्क० हाणी। एवं पढमाए । भवण-वाण एवं चेव । णवरि हाणीए कदकरणिजसामित्तं णत्थि । विदियादि जाव सत्तमा त्ति मोह० उक्क० वही कस्स ? अण्णद० सम्माइहिस्स मिच्छाइ हिस्स वा तप्पाओग्गसंतकम्मादो उवरि वढावेंतस्स । तस्सेव से काले उक्क० अवट्ठाणं । उक्क० हाणी पढमपुढविभंगो । णवरि कदकरणिजसामित्तं णत्थि । एवं जोदिसिएसु ।
$ ५४. तिरिक्खगदीए तिरिक्खाणमुक्कस्सवड्डी अवट्ठाणमोघं । उक० हाणी कस्स ? अण्णद० संजदासंजदस्स अणंताणु विसंजोजयस्स विसंजोयणगुणसेढीसीसए उदिण्णे तस्स उक्क० हाणी । अथवा उक्क. हाणी कदकरणिजस्स कायव्वा । एवं पंचिंदियतिरिक्खतिए । णव रि जोणिणीसु कदकरणिजसंभवो णत्थि । पंचिं०तिरिक्खअपज्ज० मोह० उक्क० वड्डी कस्स ? अण्ण० एइंदियस्स हदसमुप्पत्तियकम्मंसियस्स पर्यन्त एकान्तानुवृद्धि योगसे वृद्धिको प्राप्त होकर परिणाम योगस्थानको प्राप्त हुआ उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है और उसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? अनन्तानुबन्धी की विसंयोजना करनेवाले अन्यतर असंयतसम्यग्दृष्टिके अन्तर्मुहूर्त काल बिताकर विसंयोजनाकी गुणश्रेणिके शीर्षभागकी उदीरणा होनेपर उत्कृष्ट हानि होती है। अथवा जो कृतकृत्य वेदकसम्यग्दृष्टि नरकमें उत्पन्न हुआ उसके जब गुणणिका शोष उदयमें आता है तब उत्कृष्ट हानि होती है। इसी प्रकार प्रथम नरकमें जानना चाहिए । भवनवासी और व्यन्तरोंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिये। इतना विशेष है कि हानिकी अपेक्षा जो कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिको हानिका स्वामी बतलाया है वह भवनवासी और व्यन्तरोंमें नहीं होता। दूसरी से लेकर सातवीं पृथ्वी तक मोहनीयकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? अपने योग्य प्रदेशसत्कर्मको आगे बढ़ानेवाले किसी भी सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि जीवके उत्कृष्ट वृद्धि होती है । तथा उसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी पहली पृथ्वीकी तरह जानना चाहिये । इतना विशेष है कि इनमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिकी अपेक्षा हानिका स्वामित्व नहीं होता। इसी प्रकार ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिये।
६५४. तिर्यञ्चगतिमें सामान्य तिर्यञ्चोंमें उत्कृष्ट वृद्धि और उत्कृष्ट अवस्थानका स्वामी ओघकी तरह जानना चाहिये। उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाले अन्यतर संयतासंयतगुणस्थानवर्ती तिर्यश्चके विसंयोजनाकी गुणश्रेणिके शीषभागकी उदीरणा होनेपर उत्कृष्ट हानि होती है। अथवा तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न होनेवाले कृतकृत्य वेदकसम्यग्दृष्टिके उत्कृष्ट हानि करनी चाहिये। इसी प्रकार तीनों प्रकारके पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिये । इतना विशेष है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च योनिनियोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि उत्पन्न नहीं होता अतः उनमें कृतकृत्यकी अपेक्षा उत्कृष्ट हानि नहीं कहना चाहिये। पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट वृद्धि किसके होती है ? जो हतसमुत्पत्तिक कर्मकी सत्तावाला अन्यतर एकेन्द्रिय जीव पंचेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ पंचिं०तिरि०अपज० उववजिय अंतोमुहुत्तमेयंताणुवड्डीए वड्डिदूण परिणामजोगे पदिदस्स तस्स उक्क० वड्डी। तस्सेव से काले उक्क ० अवट्ठाणं । उक्क० हाणी कस्स ? अण्णद० जो संजमासंजम-संजमगुणसेढीओ कादूण मिच्छत्तं गदो अविणट्ठासु गुणसेढीसु पंचिंतिरिक्खअपज० उववण्णो तस्स जाधे गुणसेढीसीसयाणि उदयमागदाणि ताघे मोह० उक्क. हाणी। एवं मणुसअपज०। मणुस०मणुसपज-मणुसिणीसु' ओघं । सोहम्मादि जाव उवरिमगेवजा त्ति विदियपुढविभंगो । णवरि उक्क० हाणी उवसामयपच्छायदस्स कायव्वा । अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठा ति मोह० उक्क० वड्डी० कस्स ? अण्णद० सम्माइट्ठिस्स तप्पाओग्गसंतकम्मादो उवरि वड्ढावेतस्स तस्स उक्क. वहीं। तस्सेव से काले उक्क० अवट्ठाणं । उक्क० हाणी सोहम्मभंगो। एवं जाव अणाहारि त्ति । होकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त एकान्तानुवृद्धि योगके द्वारा वृद्धिको प्राप्त होकर परिणाम योगस्थानको प्राप्त होता है उसके उत्कृष्ट बृद्धि होती है। तथा उसीके अनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। उत्कृष्ट हानि किसके होती है ? जो जीव संयमासंयम और संयमकी गुणश्रेणि रचनाको करके मिथ्यात्वमें गिरकर गुणश्रेणिके नष्ट न होते हुए ही पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ है उस जीवके जब गुणश्रेणिका शीर्षभाग उदयमें आता है तब मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशहानि होती है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिये । मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें ओघकी तरह जानना चाहिये । सौधर्म स्वर्गसे लेकर उपरिम प्रैवेयक तकके देवोंमें दूसरी पृथिवीकी तरह भंग है। इतना विशेष है कि जो उपशामक देवपर्यायमें आकर उत्पन्न होता है उसके उत्कृष्ट हानि कहनी चाहिये। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मोहनीयकी उत्कृष्ट प्रदेशवृद्धि किसके होती है ? जो अन्यतर सम्यग्दृष्टि अपने योग्य सत्तामें स्थित प्रदेशसत्कर्मको ऊपर बढ़ाता है उसके उत्कृष्ट वृद्धि होती है। तथा उसीके तदनन्तर समयमें उत्कृष्ट अवस्थान होता है। उत्कृष्ट हानिका स्वामी सौधर्मकी तरह जानना चाहिये । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ--कर्मप्रदेशोंकी सत्तावाला जीव जब अधिकसे अधिक प्रदेशोंकी वृद्धि करता है तब उत्कृष्ट वृद्धि होती है और जब कोई जोव अधिकसे अधिक कर्मप्रदेशोंकी निर्जरा करता है तब उत्कृष्ट हानि होती है। इन्हीं दोनों बातोंको लक्ष्यमें रखकर मूलमें ओघसे और आदेशसे उत्कृष्ट वृद्धि और उत्कृष्ट हानिका स्वामित्व बतलाया गया है। कोई एकेन्द्रिय जीव पहले सत्तामें स्थिति कर्मप्रदेशोंका घात करके थोड़े कर्मप्रदेशवाला होकर पीछे संज्ञी पश्चेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें जन्म ले। वहाँ अपर्याप्त कालमें उसके एकान्तानुवृद्धि योगस्थान होता है जो कि क्रमशः बढ़ता हुआ होता है। एक अन्तर्मुहूर्तकाल तक इस योगके साथ रहकर पर्याप्त होने पर परिणाम योगस्थानवाला हुआ। पीछे जब वह उत्कृष्ट परिमाणयोगस्थानमें वर्तमान रहता है तब वह जीव उत्कृष्ट वृद्धि का स्वामी होता है। योगस्थानके अनुसार ही कर्मप्रदेशोंका प्रदेशबन्ध होता है और संझी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकके ही सर्वोत्कृष्ट योगस्थान होता है अतः एकेन्द्रिय जीवको हतसमुत्पत्तिककर्मवाला करके पीछे संज्ञी पञ्चेन्द्रिय पर्याप्तकमें उत्पन्न
१. आ० प्रतौ 'मणुसपज०मणुसिणीसु' इति पाठः ।
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गा०२२]
मूलपयडिपदेसविहत्तीए पदणिक्खेवे सामित्तं
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कराया है और वहाँ उसके उत्कृष्ट योगस्थान बतलाया है ताकि कर्मप्रदेशोंका अधिकसे अधिक बन्ध होनेसे पूर्व सत्त्वसे सबसे अधिक वृद्धिको लिये हुए सत्त्व हो। इसी प्रकार दसवें गुणस्थानवर्ती क्षपकके दसवें गुणस्थानके अन्तिम समयमें मोहनीयके अवशिष्ट बचे सब निषेकोंकी सत्त्वव्युच्छित्ति हो जानेसे उत्कृष्ट हानि होती है। यह तो हुआ ओघसे। आदेशसे सामान्य नारकियोंमें, प्रथम नरकमें, भवनवासी और व्यन्तर देवोंमें जब हतसमुत्पत्तिककर्मवाला असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीव जन्म लेता है तब उसके उत्कृष्ट वृद्धि बतलाई है, जो ओघके समान ही है। केवल एकेन्द्रियके स्थानमें असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय कर दिया है, क्योंकि एकेन्द्रिय जीव उक्त स्थानोंमें जन्म नहीं ले सकता। इन स्थानोंमें उत्कृष्ट हानिका स्वामी अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाले असंयतसम्यग्दृष्टिको उस समय बतलाया है जब अनन्तानुबन्धीकी गुणश्रेणी रचनाका शीर्ष भाग निर्जीर्ण होता है। आशय यह है कि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना के लिये अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये तीन करण जीव करता है। इनमेंसे अपूर्वकरणके प्रथम समयसे ही स्थितिघात, अनुभागघात, गुणश्रेणी और गुणतक्रम ये चार कार्य होने लगते हैं। स्थितिघातके द्वारा स्थितिसत्कर्मका घात करता है। अनुभागघातके द्वारा अनुभागसत्कर्मका घात करता है। तथा गुणश्रेणी करता है जिसका क्रम इस प्रकार है-अनन्तानुबन्धीके सर्वनिषेक सम्बन्धी सब कर्मपरमाणुओंमें अपकर्षण भागहारका भाग देकर एक भागप्रमाण द्रव्यका निक्षेपण उदयावलिमें करता है और अवशेष बहुभागप्रमाण कर्म परमाणुओंका निक्षेपण उदयावलीसे बाहर करता है। विवक्षित वर्तमान समयसे लेकर आवलीमात्र समयसम्बन्धी निषेकोंको उदयावली कहते हैं। उनमें जो एक भागप्रमाण द्रव्य दिया जाता है सो प्रत्येक निषेकमें एक एक चय घटते क्रमसे दिया जाता है। तथा उदयावलीसे ऊपरके अन्तर्मुहूर्तके समय प्रमाण जो निषेक होते हैं उन्हें गुणश्रेणी निक्षेप कहते हैं, इस गुणश्रेणी निक्षेपमें उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे द्रव्यका निक्षेपण करता है, अर्थात् उदयावलीसे बाहरकी अनन्तरवर्ती स्थितिमें असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण द्रव्यका निक्षेपण करता है । उससे ऊपरकी स्थितिमें उससे भी असख्यातगुणे द्रव्यका निक्षेपण करता है। इस प्रकार गुणश्रेणी आयाम शीर्षपर्यन्त असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे निषेकोंका निक्षेपण करता है। इस गणश्रेणी आयामके अन्तिम निषेकोंको गणश्रेणी शीर्ष कहते हैंअर्थात् गुणश्रेणि रचनाका सिरो भाग गुणश्रेणि शीर्ष कहलाता है। यह गुणश्रेणिशीर्ष जब निर्जीर्ण होता है तो उत्कृष्ट हानि होती है। अथवा जैसे अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके समय अधःकरण आदि तीन परिणाम होते हैं वैसे ही दर्शनमोहकी क्षपणाके समय भी ये तीनों परिणाम और उनमें होनेवाला स्थितिघात, अनुभागघात और गुणश्रेणि आदि कार्य होता है। विशेष बात यह है कि अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनामें जो गुणश्रेणि रचना होती है उससे दर्शनमोहकी क्षपणामें होनेवाली गुणश्रेणिका काल थोड़ा है तथा निक्षिप्यमाण द्रव्य उससे असंख्यातगुणा असंख्यातगुणा है, अतः अनन्तानुबन्धीके गुणश्रेणिशीर्षके द्रव्यसे दर्शनमोहके गुणश्रेणिशीर्षका द्रव्य असंख्यातगुणा है, अतः कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि मनुष्य मरकर यदि नरकमें उत्पन्न होता है तो उस जीवके गुणश्रेणिशीर्षका उदय होता है तब भी उत्कृष्ट हानि होती है। किन्तु यतः ऐसा मनुष्य यदि नरकमें उत्पन्न हो तो पहलेमें ही उत्पन्न होता है, न द्वितीयादि नरकोंमें उत्पन्न होता है और न भवनत्रिकमें ही उत्पन्न होता है, अतः प्रथम नरकमें उसीके उत्कृष्ट हानि होती है और शेष नरकोंमें तथा भवनत्रिकमें विसंयोजनावालेके गुणश्रेणिशीर्षकी निर्जरा होने पर उत्कृष्ट हानि होती है। तिर्यश्चगतिमें तिर्यश्चोंमें उत्कृष्ट वृद्धि तो ओघकी तरह हतसमुत्पत्तिककर्म करनेवाले एकेन्द्रिय जीवके संज्ञी पञ्चेन्द्रिय
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ५५. जहण्णए पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदे। ओघेण मोह० जह० वड्डी हाणी अवट्ठाणं च कस्स ? अण्णद० जो संतकम्मादो जहण्णाविरोहिणा असंखे०भागेण वड्डिदो तस्स जह० वड्डी हाइदे हाणी एगदरत्थावट्ठाणं । एवं सव्वणेरइयसवतिरिक्ख-सव्वमणुस्स-सव्वदेवा त्ति । एवं जाव अणाहारि त्ति ।। पर्याप्तकोंमें जन्म लेने पर और वहाँ पहले कहे गये क्रमसे उत्कृष्ट परिणामयोगस्थानमें वर्तमान होने पर होती है तथा उत्कृष्ट हानि भोगभूमिकी अपेक्षा तो उत्कृष्ट भोमभूमिमें जन्म लेनेवाले कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टिके जब दर्शनमोहके गुणश्रेणिशीर्षका उदय होता है तब होती है और कर्मभूमिया संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यश्चके जब यह पञ्चमगुणस्थानमें वर्तमान होते हुए भी अनन्तानुबन्धीकी पूर्वोक्त क्रमसे विसंयोजना करता हुआ अनन्तानुबन्धीकी गुणश्रेणि रचना करके उसके गुणश्रेणिशीर्षकी निर्जरा करता है तब उत्कृष्ट हानि होती है। यहाँ सम्यग्दृष्टिके न बताकर संयतासंयतके बतलानेका कारण यह है कि अविरतसम्यग्दृष्टिसे संयतासंयतके असंख्यातगुणी निर्जरा बतलाई है और गुणश्रेणिका काल थोड़ा बतलाया है, अतः अविरतसम्यग्दृष्टिके गुणश्रेणिशीर्षके द्रव्यसे संयतासंयतके गुणश्रेणिशीर्षके द्रव्यका प्रमाण असंख्यातगुणा होनेसे हानिका परिणाम भी अधिक होता है। पञ्चन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें इतनी विशेषता है कि वहाँ उत्कृष्ट वृद्धिके लिये हतसमुत्पत्तिक एकेन्द्रिय जीवको संज्ञो पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न कराना चाहिये । तथा उत्कृष्ट हानिके लिये संयमासंयम अथवा संयम धारण करके और गुणश्रेणि रचनाको करके मिथ्यात्वमें गिरकर तिर्यश्चायुका बन्ध करके पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकोंमें जन्म लेनेवाले जीवके जब संयमासंयम अथवा संयम धारण कालमें की हुई गुणश्रेणिका शीर्ष भाग उदयमें आता है तब उत्कृष्ट हानि होती है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिये। शेष मनुष्योंमें ओघकी तरह समझना चाहिये । सौधर्म आदिके देवों में जो सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टि देव सत्तामें स्थित कर्मप्रदेशोंको अधिक बढ़ाता है उसीके उत्कृष्ट वृद्धि होती है और मनुष्यपर्यायमें जो जीव उपशमश्रेणि पर चढ़कर गुणश्रेणि रचना करके मरकर सौधर्मादिकमें जन्म लेता है उसके जब गुणश्रेणिका शीर्ष उदयमें आता है तो उत्कृष्ट हानि होती है। सर्वत्र अवस्थानका विचार मूलमें बतलाई गई विधिके अनुसार जानना चाहिये।
६५५. जघन्यसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान किसके होता है ? जो सत्ता में स्थित कर्मप्रदेशोंको जघन्यके अविरोधी असंख्यातवें भाग रूपमें बढ़ाता है उसके जघन्य वृद्धि होती है तथा उतनी ही हानि होने पर जघन्य हानि होती है और दोनोंमेंसे किसी एकके जघन्य अवस्थान होता है। इसी प्रकार सब नारकी, सब तियश्च, सब मनुष्य और सब देवोंमें जानना चाहिये । इस प्रकार अनाहारो पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थी-जो जीव सत्तामें स्थित कर्मप्रदेशोंको असंख्यातवें भागप्रमाण घटाता है उसके जघन्य हानि होती है। जो असंख्यातवें भागप्रमाण बढ़ाता है उसके जघन्य वृद्धि होती है। किन्तु यह घटाया हुआ व बढ़ाया हुआ असंख्यातवाँ भाग ऐसा होना चाहिये जिसे जघन्य कहने में कोई विरोध न आ सके। ओघसे व आदेशसे जघन्य हानिमें सर्वत्र असंख्यातभागहानि होती है तथा जघन्य वृद्धिमें सर्वत्र असंख्यातभागवृद्धि होती है, अतः शेष सब मार्गणाओंका कथन ओघके समान कहा । तथा जघन्य वृद्धि या हानिके बाद जो अवस्थान होता है वह सर्वत्र जघन्य अवस्थान है यह कहा । इसके सिवा अवस्थान और किसी भी प्रकारसे जघन्य बन नहीं सकता।
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गा० २२] मूलपयडिपदेसविहत्तीए वड्ढीए सामित्तं
५६. अप्पाबहुअं दुविहं-जह० उक्क० । उक्क० पयदं। दुविहो णि०आपेण आदेसे० । ओघेण सव्वत्थोवा मोह० उक० वढी अवट्ठाणं च । हाणी असंखे०गुणा । एवं सव्वगइमग्गणासु । एवं जाव अणाहारि त्ति ।
___ ५७. जह० पयदं । दुविहो णि०-ओपेण आदेसे० । ओघेण मोह० जह० वही हाणी अवट्ठाणं च तिण्णि वि सरिसाणि । एवं जाव अणाहारि त्ति ।
५८. वड्डिविहत्तीए तत्थ इमाणिं तेरस अणियोगद्दाराणि-समुक्कित्तणा जाव अप्पाबहुए त्ति । समुकित्तणाणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० अत्थि असंखे भागवड्डी हाणी अवडिदाणि । एवं सव्वत्थ णेदव्वं । ___६५९. सामित्ताणु० दुविहो णि०-ओघेण आदे० । ओघेण मोह० असंखे०भागवडि-हाणि-अवट्ठिदाणि कस्स ? अण्णदरस्स सम्माइडिस्स मिच्छाइट्ठिस्स वा । एवं सव्वणेरइय-तिरिक्ख-पंचिंतिरि०तिय-मणुस्सतिय-देवा भवणादि जाव उवरिमगेवजा त्ति । पंचिं०तिरि०अपज.'-मणुसअपज०-अणुद्दिसादि जाव सव्वट्ठा त्ति असंखेजभागववि-हाणि-अवढि विह० को होइ ? अण्ण० । एवं जाव अणाहारित्ति।
६०. कालाणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० असंखे०
६५६. अल्पबहुत्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी उत्कृष्ट वृद्धि और उत्कृष्ट अवस्थान सबसे थोड़े हैं और उत्कृष्ट हानि असंख्यातगुणी है । इस प्रकार सब गति मार्गणाओंमें जानना चाहिए । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
६५७. जघन्यसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयकी जघन्य वृद्धि, जघन्य हानि और जघन्य अवस्थान तीनों ही समान हैं। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त जानना चाहिए।
६५८. अब वृद्धिविभक्तिका कथन करते हैं। उसमें समुत्कीर्तनासे लेकर अल्पबहुत्व पर्यन्त तेरह अनुयोगद्वार होते हैं। समुत्कीर्तनानुगम दो प्रकारका है-ओघ और आदेश।
ओघसे मोहनीयमें असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थान होते हैं। इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिये।
६५९. स्वामित्वानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थान किसके होते हैं ? किसी भी सम्यग्दृष्टि या मिथ्यादृष्टि जीवके होते हैं । इस प्रकार सब नारकी, सामान्य तिर्यञ्च, तीन प्रकारके पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च, तीन प्रकारके मनुष्य, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर उपरिम
वेयक तकके देवोंमें जानना चाहिए । पञ्चन्दिय तिर्यश्च अपर्याप्त, मनुष्य अपर्याप्त और अनदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें असंख्यातभागबृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थित विभक्तिका स्वामी कौन होता है ? उक्त अपर्याप्तों में कोई भी मिथ्यादृष्टि और उक्त देवीमें कोई भी सम्यग्दृष्टि जीव स्वामी होता है। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त जानना चाहिये।
६६०. कालानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयकी १. आ०प्रतौ 'पंचिंतिरि-अप्पद०' इति पाठः ।
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५ भागवडि- हाणि ० [० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे ० भागो । अवट्टि० जह० एगस०, उक्क० सत्तट्ठसमया । अधवा अंतोमुहुत्तं सव्वोवसामणाए । एवं मणुसतिए । एवं चैव सव्वणेरइय-तिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खतिय० देवगदी० देवा जाव सव्वढसिद्धित्ति । णवरि अवहि • अंतोमु० णत्थि, तत्थ सव्वोवसमाभावादो । पंचिं० तिरि०अपज० असंखे० भागवड्डि-हाणि० जह० हगस०, उक्क० अंतोमु० । अवट्ठि० जह० एगस०, उक्क० सत्तट्ठस० । एवं मणुसअपज्ज० । एवं जाव अणाहारि चि ।
०
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असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात-आठ समय है । अथवा सर्वोपशमना की अपेक्षा अन्तर्मुहूर्त है । तीन प्रकारके मनुष्यों में भी इसी प्रकार जानना चाहिए । सब नारकी, सामान्य तिर्यञ्च, तीन प्रकारके पचेन्द्रिय तिर्यञ्च, देवगति में सामान्य देव और सर्वार्थसिद्धितकके प्रत्येक देवों में इसी प्रकार जानना चाहिए । इतना विशेष है कि इन नारकी आदिमें अवस्थितविभक्तिका अन्तर्मुहूर्त काल नहीं होता, क्योंकि उनमें मोहनीयकी सर्वोपशमना नहीं होती । पञ्चेन्द्रिय तिर्यच अपर्याप्तोंमें असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात्तभागहानिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल सात आठ समय है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकों में जानना चाहिए । इसी प्रकार अनाहारी पर्यन्त जानना चाहिये ।
विशेषार्थ — पहले वृद्धि और हानिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्के असंख्यातवें भागप्रमाण घटित करके बतला आये है, असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात भागहानिका भी उतना ही काल प्राप्त होता है, अतः इनका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल पल्के असंख्यातवें भागप्रमाण कहा । भुजगारविभक्ति में अवस्थितका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात समय घटित करके बतला आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी जानना चाहिये । विशेष बात इतनी है कि वहाँ संख्यात समयका प्रमाण नहीं खोला है किन्तु यहाँ उसका खुलासा कर दिया है। मालूम होता है एक परिणाम योगस्थानका उत्कृष्ट काल सात आठ समय है इसीलिये यहाँ अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल सात आठ समय कहा है । अथवा उपशमश्र णिमें मोहनीयका सर्वोपशम करके जीव जब उपशान्तमोह गुणस्थानमें जाता है तो वहाँ अन्तर्मुहूर्तकाल तक एक भी परमाणु निर्जीर्ण नहीं होता और वहाँ न नये कर्मका बन्ध ही होता है । इस तरह वहाँ वृद्धि और हानि न होकर अन्तर्मुहूर्त काल तक अवस्थान ही रहता है । यही कारण है कि सर्वोपशामनाकी अपेक्षा अवस्थितप्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा। सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनी इनके उक्त व्यवस्था अविकल बन जाती है, इसलिये उनमें सब कथन ओघके समान कहा। आगे सब नारकी आदि कुछ और मार्गणाएँ भी गिनाई हैं जिनमें अवस्थित - विभक्तिके अन्तर्मुहूर्त कालको छोड़कर शेष सब व्यवस्था बन जाती है, इसलिये वहाँ भी इसके कथनको छोड़कर शेष सब कथन ओघके समान कहा । परन्तु इन मार्गणाओंमें उपशमश्रेणिपर आरोहण नहीं होता, अतः सर्वोपशमना न बनने से अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्टकाल अन्तर्मुहूर्त नहीं प्राप्त होता, अतः इसका निषेध किया । पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च लब्ध्यपर्याप्त के और मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त के असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यात भागहानिका उत्कृष्ट काल जो अन्तर्मुहूर्त बतलाया सो इसका कारण यह है कि इस मार्गणावाले एक जीवका
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गा० २२]
मूलपयडिपदेसविहत्तीए वड्ढोए अंतरं ६६१. अंतराणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० असंखेभागवडि-हाणि० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । अवट्ठि० ज० एगस०, उक्क० असंखेजा लोगा। आदेसेण णेरइएसु मोह० असंखे०भागवड्डि-हाणि० ओघं । अवट्टि० जह० एगस०, उक्क० तेत्तीसं सागरो० देसूणाणि । एवं सव्वणेरइय० । णवरि अवडि० उक्क० सगहिदी देसूणा । तिरिक्खेसु मोह० असंखे०भागवहि-हाणिअवहि० ओघभंगो । एवं पंचिंतिरिक्खतिए । णवरि अवहि० जह० एगस०, उक्क० सगद्विदी देसूणा । एवं मणुसतिए । पंचिंदियतिरिक्खअपज. मोह० असंखे०भागवड्डिहाणि-अवहि० जह० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं मणुसअपज । देवगदीए देवेसु मोह० असंखे०भागवड्डि-हाणि-अवडि० णेरइयभंगो । एवं भवणादि जाव सव्वहा त्ति । णवरि अवढि० जह० एगस०, उक्क० सगहिदी देसूणा । एवं जाव अणाहारि ति ।
उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। शेष कथन सुगम है। आगे अनाहारक मार्गणा तक भी यथायोग्य बिचार कर यह काल जानना चाहिये ।
६६१. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयको असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी असंख्यात भागवृद्धि और असंख्यातभागहानिका अन्तर ओघकी तरह है । अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। इसीप्रकार सब नारकियोंमें जानना चाहिए । इतना विशेष है कि अवस्थितका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितिप्रमाण है। तिर्यञ्चोंमें मोहनीयकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका अन्तर ओघकी तरह है । इसी प्रकार तीन प्रकारके पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्चोंमें जानना चाहिए । इतना विशेष है कि अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी स्थितिप्रमाण है। इसी प्रकार तीन प्रकारके मनुष्योंमें जानना चाहिए । पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकों में मोहनीयकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। देवगतिमें देवोंमें मोहनीयकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका अन्तर नारकियोंके समान है। इसी प्रकार भवनवासीसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त जानना चाहिये । इतना विशेष है कि अवस्थितका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त जानना चाहिये।
विशेषार्थ-भुजगार प्रदेशविभक्तिका कथन करते समय भुजगार , अल्पतर और अवस्थितप्रदेशविभक्तिका जिस प्रकार एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल बतला आये हैं उसी प्रकार यहाँ भी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितप्रदेशविभक्तिका ओष व आदेशसे एक जीवकी अपेक्षा अन्तरकाल जानना चाहिये । उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है, इसलिये यहाँ पृथक् पृथक् घटित करके नहीं लिखा।
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____जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ६६२. णाणाजीवेहि भंगविचयाणु० दुविहो णिद्देसो-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह. असंखे भागवहि-हा०-अवढि० णियमा अत्थि । एवं तिरिक्खा० । आदेसे० णेरइय० मोह० असंखे०भागवड्डि-हा० णियमा अस्थि । सिया एदे च अवद्विदोच। सिया एदे च अवट्टिदा च । एवं सव्वणिरय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसतिय-देवा भवणादि जाव सव्वहा त्ति । मणुसअपज. मोह० सव्वपदा भयणिज्जा । एवं जाव अणाहारि त्ति ।
६६३ भागाभागाणुगमेण' दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० अवट्टि० सव्वजी० केवडिओ भागो १ असंखे०भागो। असंखे०भागवड्डि. सव्वजी० के. ? संखे०भागो। असंखे०भागहा० सव्वजी० केव० भागो ? संखेजा भागा । अधवा
६६२. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचयानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयको असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीव नियमसे पाये जाते हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यश्चोंमें जानना चाहिए। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवाले जीव नियमसे होते हैं । कदाचित् अनेक जीव हानि और वृद्धिवाले और एक जीव अवस्थितविभक्तिवाला होता है। कदाचित् अनेक जीव हानि और वृद्धिवाले और अनेक जीव अवस्थितविभक्तिवाले होते हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, तीन प्रकारके मनुष्य, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें उक्त सब पद विकल्पसे होते हैं। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त जानना चाहिये।
विशेषार्थ-ओघसे तीनों प्रदेशविभक्तिवाडे नाना जीव सदा हैं, अतः असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं यह कहा। सामान्य तिर्यश्चोंमें भी ओघ प्ररूपणा अविकल बन जाती है, इसलिये उनके कथनको ओघके समान कहा। नारकियोंमें असंख्यातभागवद्धि और असंख्यातभागहानि नियमसे हैं । केवल अवस्थित विभक्तिवाले जीव कभी नहीं होते, कभी एक होता है और कभी अनेक होते हैं, इसलिये तीन भंग हो जाते हैं। आगे और भी मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें भी यह व्यवस्था बन जाती है, इसलिये उनमें भी सामान्य नारकियोंके समान तीन भंग कहे हैं। मनुष्य लब्ध्यपर्याप्त यह सान्तर मार्गणा है, अतः इसमें तीनों पद भजनीय हैं । इनके कुल भंग २६ होते हैं। खुलासा अनेक बार किया है उसी प्रकार यहाँ भी कर लेना चाहिये । इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक अपने अपने पदोंके अनुसार और सान्तर निरन्तर मार्गणाओंके अनुसार जहाँ जितने भंग संभव हों घटित करके जान लेना चाहिये।
६ ६३. भागाभागानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी अवस्थितविभक्तिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? असंख्यातवें भागप्रमाण है । असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण है ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं। असंख्यातभागहानिवाले जीब सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । अथवा असंख्यातभागहानिवाले जीव कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं और
१. ता०आ०प्रत्योः 'भागाभागभंगविचयाणुगमेण' इति पाठः ।
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गा० २२ ]
मूलप डिपदेस वित्तीए वड्ढीए परिमाणाणुगमो
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असंखे ० भागहाणि ० के ० १ संखे ० भागो । असंखे ० भागवड्डि० संखेजा भागा ( एसो मूलच्चारणापाढो 'एदेसिं दोन्हं पाढाणमविरोहो' जाणिय घडावेयव्वो । एवं सव्वत्थ । एवं सव्वणेरइय- सव्वतिरिक्ख- मणुस - मणुसअपज० -देवा भवणादि जाव अवराजिदा ति । मणुसपज० मणुसिणीसु मोह० असंखे० भागहाणि - अवद्वि० सव्वजी० के० ९ संखे ० भागो । असंखे ० भागवड्डि० सव्वजी० के० : संखेज्जा भागा । वहि-हाणीणं विवज्जासो वि । एवं सव्व । एवं जाव अणाहारि ति । $ ६४. परिमाणाणु० दुविहो णि० - ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० असंखे०असंख्यातभागवृद्धिवाले संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । यह मूल उच्चारणाका पाठ है । इन दोनों पाठोंमें जानकर अविरोधको घटित कर लेना चाहिये । इसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिए । इस प्रकार सब नारकी, सब तिर्यच, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर अपराजिततकके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्य पर्यास और मनुष्यिनियों में मोहनीयुकी असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीव सर्व जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यातवें भागप्रमाण हैं । असंख्यात भागवृद्धिवाले जीव सब जीवोंके कितने भागप्रमाण हैं ? संख्यात बहुभागप्रमाण हैं । वृद्धि और हानिमें विपर्यास भी है अर्थात् दूसरे पाठके अनुसार असंख्यात भागहानिवाले जीव संख्यात बहुभागप्रमाण हैं और असंख्यात भागवृद्धिवाले जीव संख्यातवें · भागप्रमाण हैं । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिए । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त जानना चाहिये ।
विशेषार्थ – राशियाँ तीन हैं असंख्यात भागवृद्धि प्रदेशविभक्तिवाले, असंख्यात भागहानि प्रदेशविभक्तिवाले और अवस्थितप्रदेशविभक्तिवाले । इनमें से कौन कितने भागप्रमाण हैं इसमें मतभेद है । एक उच्चारणके अनुसार तो असंख्यात भागवृद्धिवाले जीव थोड़े हैं और असंख्यातभागहानिवाले जीव अधिक हैं और मूल उच्चारणाके अनुसार असंख्यात भागहानि वाले जीव थोड़े हैं और असंख्यात भागवृद्धिवाले जीव बहुत हैं । वीरसेन स्वामी कहते हैं कि जिससे इन दोनों पाठों में विरोध न रहे इस प्रकार इसकी संगति बिठानी चाहिये । हमारा ख्याल है कि कभी क्षपितकर्मांशवाले जीव अधिक हो जाते होंगे और कभी गुणित कर्माशवाले जीव थोड़े रह जाते होंगे । तथा कभी इससे उलटी स्थिति भी हो जाती होगी । मालूम होता है कि इसी कारणसे दो उच्चारणाओं में दो पाठ हो गये होंगे । वास्तव में देखा जाय तो वे दोनों पाठ एक दूसरेके पूरक ही हैं । परन्तु इन दोनों दृष्टियोंसे कथन करते समय अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंके कथनमें अन्तर नहीं पड़ता । वे दोनों अवस्थाओं में एकसे रहते हैं। आगे सब नारकी आदि जो और मार्गणाऐं गिनाई हैं उनमें भी इसी प्रकार जानना चाहिये, इसलिये उनके कथनको ओघ के समान कहा है । परन्तु मनुष्य पर्याप्त, मनुष्य और सर्वार्थसिद्धिके देव संख्यात हैं, इसलिये वहाँ अवस्थितविभक्तिवाले भी सब जीवोंके संख्यातवें भागप्रमाण कहे हैं। शेष कथन पूर्ववत् है । इसी प्रकार आगेकी मार्गणाओंमें भी यथायोग्य व्यवस्था जानकर भागाभाग कहना चाहिये ।
६४. परिमाणानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओघसे मोहनी की असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीव कितने
१. ता० प्रतौ ' - पाठो' इति पाठः । २. ता०प्रसौ 'पाठाणमविरोहो' इति पाठः ।
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
भागवड - हाणि अवद्वि० केत्तिया १ अनंता । एवं तिरिक्खा ० । आदेसेण णेरइएस मोह० असंखे० भागवड्डि-हाणि अवधि ० के ति० ? असंखेजा । एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिदियतिरिक्ख माणुस - मणुसअपज ० -देवा भवणादि जाव अवराइदा त्ति । मणुसपजत्त मणुसिणीसु मोह० असंखे ० भागवड्डि- हा० - अवट्ठि केत्ति ० १ संखेजा । एवं सव्वट्ठे । एवं जाव अणाहारिति ।
S ६५. खेत्ताणु ० दुविहो णि० - ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० असंखे० भागवड्डि- हा० - अवडि० के० खेत्ते ? सव्वलोगे । एवं तिरिक्खा ० । आदेसेण णेरइए० मोह ० असंखे०भागवड्डि-हाणि- अवहि० केव० खेते ? लोग० असंखे ० भागे । एवं सव्वणेरइयसव्वपंचिं ० ति रिक्ख - सव्वमणुस - सव्वदेवा ति । एवं जाव अणाहारि ति ।
६ ६६. पोंसणाणु • दुविहो णि० - ओघेण आदेसे ० । ओघेण मोह० असंखे ० भागड्ड हा० - अवट्टि ० विह० के० खेत्तं पोसिदं १ सव्वलोगो । एवं तिरिक्खा० । आदेसेण इए • मोह० असंखे ० भागवड्डि- हाणि-अवट्ठि० केव० खेत्तं ० १ लोगस्स असंखे० भागो
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हैं ? अनन्त हैं । इसी प्रकार सामान्य तिर्यों में जानना चाहिए । आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी असंख्यात भागवृद्धि, असं ख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीव कितने हैं ? अस ंख्यात हैं । इसी प्रकार सब नारकी, सब पचेन्द्रिय तिर्यन, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर अपराजित तकके देवों में जानना चाहिए । मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियों में मोहनीयकी असख्यात भागवृद्धि, असं ख्यात भागहानि और अवस्थित विभक्तिवाले जीव कितने हैं ? संख्यात हैं । इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धि में जानना चाहिए । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त जानना चाहिये ।
विशेषार्थ — परिमाणानुगममें ज्ञातव्य बात इतनी ही है कि ओघसे तो तीनों विभक्तिवाले अनन्त हैं । यही बात सामान्य तिर्यञ्चोंकी है। आदेशसे जिस गतिकी जितनी संख्या है उसी हिसाब से वहाँ तीनों विभक्तिवाले जीव हैं
६ ६५. क्षेत्रानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है— ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? सर्व लोक क्षेत्र है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यश्र्चों में जानना चाहिए । आदेशसे नारकियों में मोहनीयकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्तिवाले जीवोंका कितना क्षेत्र है ? लोकके असंख्यातवें भागप्रमाण क्षेत्र है। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, सब मनुष्य और सब देवोंमें जानना चाहिए । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये ।
६६. स्पर्शानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश | ओघसे मोहनीयकी असंख्यात भाग वृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्तिवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? सर्वलोक क्षेत्रका स्पर्शन किया है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यश्वों में जानना चाहिये । आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यात भागहानि और अवस्थितविभक्तिवालोंने कितने क्षेत्रका स्पर्शन किया है ? लोकके असंख्यातवें भाग और
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गा० २२] मूलपयडिपदेसविहत्तीए वड्ढीए कालाणुगमो छ चोदसभागा देसूणा । पढमाए खेत्तं । विदियादि जाव सत्तमा त्ति असंखे०भागवड्डि-हा०अवहि० सगपोसणं कायव्वं । सव्वपंचिदियतिरिक्ख-सव्वमणुस० असंखे०भागवड्डि-हाणिअवहि० लोग० असंखे०भागो सव्वलोगो वा। देवेसु असंखे०भागवड्डि-हाणि-अवहिदाणि लोग० असंखे०भागो अह णव चोहसभागा देसूणा । एवं सोहम्मीसाण० । भवणवाण-०-जोदिसि० असंखे०भागवड्डि-हाणि-अवट्ठि. लोग० असंखे०भागो अद्भुट्ठा वा अट्ठ णव चो०भागा। उवरि सगपोसणं णेदव्वं । एवं जाव अणाहारि ति।
६६७. णाणाजीवेहि कालाणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० असंखे०भागवडि-हा०-अवढि० केवचिरं ? सव्वद्धा । एवं तिरिक्खा० । आदेसेण णेरइय० मोह० असंखे०भागवड्डि-हाणि केव० १ सव्वद्धा । अवहि० केव० १जह० एगस०, उक्क. आवलि०असंखे० भागो। एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुस-देवा भवणादि जाव अवराइदा त्ति । मणुसपज्जत्त- मणुसिणीसु असंखे०भागवड्डि-हा० सव्वद्धा । अवहि० वसनालीके कुछ कम छ बटे चौदह भागप्रमाण क्षेत्रका स्पर्शन किया है। पहली पृथिवीमें स्पर्शन क्षेत्रकी तरह है। दूसरीसे लेकर सातवीं पृथिवी पर्यन्त असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवालोंका अपना अपना स्पर्शन करना चाहिये। सब पञ्चेन्द्रिय तियश्च और सब मनुष्योंमें असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवालोंका स्पर्शन लोकका असंख्यातवां भाग और सर्वलोक है। देवोंमें असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवालोंका स्पर्शन लोकका असंख्यातवां भाग और
सनालीके कुछ कम आठ तथा कुछ कम नौ बटे चौदह भागप्रमाण है। इसी प्रकार सौधर्म, ईशान स्वर्गके देवोंमें जानना चाहिए। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें असंख्यात भागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवालोंका स्पर्शन लोकका असंख्यातवां भाग और चौदह राजुओं में से कुछ कम साढ़े तीन भाग, कुछ कम आठ भाग और कुछ कम नौ भाग है । ऊपरके देवोंमें अपना अपना स्पर्शन कहना चाहिये । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-ओघ और आदेशसे जिनका जितना क्षेत्र है तीनों विभक्तिवालोंका वहाँ उतना ही क्षेत्र है यह पूर्वोक्त कथनका तात्पर्य है। सो ही बात स्पर्शनानुगमकी समझनी चाहिये। ओघसे जो स्पर्शन है वह यहाँ तीनों विभक्तिवालोंका ओघसे स्पर्शन प्राप्त होता है और प्रत्येक मार्गणाका जो स्पर्शन है वह यहाँ उस उस मार्गणामें तीनों विभक्तिवालोंका प्राप्त होता है, इसलिये अलग-अलग प्रत्येकका खुलासा नहीं किया।
६ ६७. नाना जीवोंकी अपेक्षा कालानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मोहनीयकी असंख्यातभागवृद्धि,असंख्यातभागहानिऔर अवस्थितविभक्तिवालोंका कितना काल है ? सर्वदा है। इसी प्रकार तिर्यश्चोंमें जानना चाहिए । आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवाले जीवोंका कितना काल है ? सर्वदा है। अवस्थितविभक्तिवालोंका कितना काल है ? जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च, सामान्य मनुष्य, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर अपराजित विमानतकके देवोंमें जानना चाहिए । मनुष्यपर्याप्त और मनुष्यिनियोंमें असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवालोंका काल
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ जह० एगस०, उक्क० संखेजा समया । अधवा मणुसतिए अवढि० उक्क० अंतोमु० । एवं सव्वट्ठ। णवरि अवढि० अंतोमुहुत्तं णत्थि । मणुसअपज० असंखे०भागवड्वि-हा० जह० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो । अवट्टि. जह० एगस०, उक० आवलि. असंखे०भागो। एवं जाव अणाहारि त्ति ।
६८. अंतराणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० असंखे०भागवड्डि-हाणि-अवढि० णत्थि अंतरं । एवं तिरिक्खा० । आदेसेण णेरइय० मोह० असंखे०भागवड्डि-हा० णत्थि अंतरं । अवढि० ज० एगस०, उक्क० असंखेजा लोगा। एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिं०तिरिक्ख-मणुसतिय-सव्वदेवा त्ति । णवरि मणसतिए अवट्टि उक्क० वासपुधत्तं । मणुसअपज्ज० असंख०भागवड्डि-हा० जह० एगस०, उक० पलिदो० असंखे०भागो। अवडि० जह० एगस०, उक्क० असंखेजा लोगा। एवं जाव अणाहारि त्ति । सर्वदा है। अवस्थितविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । अथवा तीन प्रकारके मनुष्योंमें अवस्थितविभक्तिवालोंका उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें जानना चाहिये । इतना विशेष है कि सर्वार्थसिद्धिमें अवस्थितविभक्तिवालोंका अन्तर्मुहूर्त काल नहीं है । मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीयको असंख्यातभागवृद्धि
और असंख्यातभागहानिवालोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अवस्थितविभक्तिवालोंका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-भुजगारविभक्तिमें ओघ और आदेशसे भुजगार, अल्पतर और अवस्थित का नाना जीवोंकी अपेक्षा जो काल घटित करके बतलो आये हैं वही यहाँ क्रमसे असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितका काल ओघ और आदेशसे घटित कर लेना चाहिये। उससे इसमें कोई अन्तर नहीं है, अतः यहाँ पुनः नहीं लिखा। केवल यहाँ सामान्य मनुष्य, मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंके अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट काल विकल्पसे जो अन्तर्मुहूर्त बतलाया है सो यह सर्वोपशमनाकी अपेक्षा बतलाया है और भुजगारविभक्तिमें इसके कथनकी विवक्षा नहीं की गई है वैसे यह काल वहाँ भी बन जाता है।
६८. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी असंख्यातभागवृद्धि, असंख्यातभागहानि और अवस्थितविभक्तिवालोंका अन्तर नहीं है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिये। आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवालोंका अन्तर नहीं है। अवस्थितविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च, तीन प्रकारके मनुष्य और सब देवोंमें जानना चाहिये । इतना विशेष है कि तीन प्रकारके मनुष्योंमें अवस्थितविभक्तिवालोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें असंख्यातभागवृद्धि और असंख्यातभागहानिवालोंका जघन्य अन्तर ऐक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। अवस्थितविभक्तिवालोंका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त जानना चाहिये।
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गा० २२] मूलपयडिपदेसविहत्तीए हाणपरूवणा
४९ ६ ६९. भावाणु० सव्वत्थ ओदइओ भावो।।
६७०. अप्पाबहुआणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसे०। ओघेण मोह. सव्वत्थोवा अवढि० । असंखे०भागवड्डी० असंखे गुणा । असंखे०भागहाणो संखेगुणा। अधवा हाणीए उवरि वढी संखे गुणा । एवं सव्वणेरइय०-सव्वतिरिक्ख-मणुस०मणुसअपज०-देवा भवणादि० अवराजिदा त्ति । मणुसपज्जत्त-मणुसिणीसु सव्वत्थोवा अवढि० । असंखे०भागवड्डी० संखे गुणा । असंखे०भागहाणी संखे०गुणा । वहिहाणीणं विवज्जासो वा । एवं सव्वट्ठ । एवं जाव अणाहारि त्ति ।
वड्डी समत्ता। ७१. एत्तो हाणपरूवणा जाणिय वत्तव्वा ।
एवमेदेसु पदणिक्खेव-वड्डि-ठाणेसु परूविदेसु
मूलपयडिपदेसविहत्ती समत्ता होदि । विशेषार्थ-पहले कालानुगमके विषयमें जो लिख आये हैं वही अन्तरानुगमके विषयमें जानना चाहिये । अर्थात् भुजगारविभक्तिमें नाना जीवोंकी अपेक्षा तीनों पदोंका जो अन्तर काल बतलाया है वही यहाँ भी तीनों पदोंकी अपेक्षा सर्वत्र जानना चाहिये । खुलासा वहाँ कर आये हैं इसलिये यहाँ नहीं किया है। केवल यहाँ मनुष्यत्रिकमें अवस्थितविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर जो वर्षप्रथक्त्व बतलाया है सो यह उपशमश्रेणिके उत्कृष्ट अन्तरकालकी अपेक्षा कहा है। भुजगारविभक्तिमें भी अवस्थितविभक्तिका यह अन्तर काल सम्भव है पर वहाँ इसकी विवक्षा नहीं की गई है, वैसे यह अन्तरकाल वहाँ भी बन जाता है।
६९. भावानुगमकी अपेक्षा सर्वत्र औदायिक भाव होता है।
६७०. अल्पबहुत्वानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे अवस्थितप्रदेशविभक्तिवाले जीव सबसे थोड़े हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धिप्रदेशविभक्ति वाले जीव असंख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिप्रदेशविभक्तिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। अथवा हानिसे वृद्धि संख्यातगुणी है। अर्थात् अवस्थितविभक्तिवालोंसे असंख्यातभाग। हानिवाले जीव असंख्यातगुणे हैं और इनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सब नारकी, सब तियंच, सामान्य मनुष्य, मनुष्य अपर्याप्त, देव और भवनवासियोंसे लेकर अपराजित तकके देवोंमें जानना चाहिये। मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यनियोंमें अवस्थितविभक्तिवाले सबसे थोड़े हैं। इनसे असंख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इनसे असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। अथवा वृद्धि और हानियोंका विपयर्य भी है। अर्थात् अवस्थितविभक्ति वालोंसे असंख्यातभागहानिवाले जीव संख्यातगुणे हैं और इनसे संख्यातभागवृद्धिवाले जीव संख्यातगुणे हैं। इसी प्रकार सर्वार्थसिद्धिमें है। तथा इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिये।
इस प्रकार वृद्धि अनुयोगद्वार समाप्त हुआ। ६७१. इसके पश्चात् स्थानोंका कथन जानकर करना चाहिये। ___ इस प्रकार इन पदनिक्षेप वृद्धि और स्थानोंका कथनकर चुकनेपर
मूलप्रकृति प्रदेशविभक्ति समाप्त होती है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ * उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए एगजीवेण सामित्तं ।
६ ७२. संपहि एत्थ उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भागाभागो सव्वपदेसविहत्ती णोसव्वपदेसविहत्ती उकस्सपदेसवि० अणुकस्सपदेसवि० जहण्णपदेसवि० अजहण्णपदेसवि० सादियपदेसवि० अणादियपदेसवि० धुवपदेसवि० अद्धृवपदेसवि० एगजीवेण सामित्तं कालो अंतरं णाणाजीवेहि भंगविचओ परिमाणं खेत्तं पोसणं कालो अंतरं सण्णियासो भावो अप्पाबहुअं चेदि तेवीस अणियोगद्दाराणि । पुणो भुजगारो पदणिक्खेवो वड्डी टाणाणि त्ति अण्णाणि चत्तारि अणियोगद्दाराणि । एत्थ आदिल्लाणि एक्कारस अणियोगद्दाराणि मोत्तण पढम सामित्ताणिओगद्दारं चैव किमट्ठ परूविदं ? ण, तेसिमेकारसण्हमेत्थेववलंभादो।
६ ७३. संपहि एदेण सामित्तसुत्तेण सूचिदाणमेकारसहमणिओगद्दाराणं ताव परूवणं कस्सामो । तं जहा-एत्थ भागाभागो दुविहो-जीवभागाभागरे पदेसभागाभागो चेदि । तत्थ जीवभागाभागमुवरि कस्सामो, णाणाजीवविसयस्स तस्स एगजीवेण सामित्तादिसु अपरू विदेसु परूवणोवायाभावादो। तदो थप्पमेदं कादण उत्तरपयडिपदेसभागाभागं ताव वत्तइस्सामो, तस्स सव्वाणियोगद्दाराणं जोणीभूदस्स पुव्वपरूवणाजोगत्तादो । तं जहा–उत्तरपयडिपदेसभागा० दुविहो-जह० उक्क । उक० पयदं । दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । तत्थ ओघेण मोह० सव्वपदेसपिंडं गुणिदकम्मंसिय
8 उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्तिमें एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्वको कहते हैं।
६७२. अब यहाँ उत्तरप्रकृतिप्रदेशविभक्तिमें भागाभाग, सर्वप्रदेशविभक्ति, नोसर्वप्रदेशविभक्ति, उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति, जघन्य प्रदेशविभक्ति, अजघन्य प्रदेशविभक्ति, सादि प्रदेशविभक्ति, अनादि प्रदेशविभक्ति, ध्रुव प्रदेशविभक्ति, अध्रुव प्रदेशविभक्ति, एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व, काल, अन्तर, नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय, परिमाण, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, सन्निकर्ष, भाव, और अल्पबहुत्व ये तेईस अनुयोगद्वार होते हैं। इनके सिवा भुजगार, पदनिक्षेप, वृद्धि और स्थान ये चार अनुयोगद्वार और होते हैं।
शंका-यहाँ आदिके ग्यारह अनुयोगद्वारोंको छोड़कर पहले स्वामित्वानुयोगद्वार हो क्यों कहा ?
समाधान नहीं, क्योंकि वे ग्यारह अनुयोगद्वार इसी स्वामित्वानुयोगद्वारमें गर्भित पाये जाते हैं, इसलिए पहले स्वामित्वानुयोगद्वारका ही कथन किया है।
६७३. अब इस स्वामित्वका कथन करनेवाले सूत्रसे सूचित होनेवाले ग्यारह अनुयोगद्वारोंका कथन करते हैं । वह इस प्रकार है-यहाँ भागाभाग दो प्रकारका है-जीव भागाभाग और प्रदेशभागाभाग। उनमें जीव भागाभागको आगे कहेंगे, क्योंकि जीव भागाभाग नाना जीवविषयक है, अतः एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्व आदिका कथन किये बिना उसके कथन करनेका कोई उपाय नहीं है। अतः उसे रोककर उत्तरप्रकृतिप्रदेशविषयक भागाभागको कहते हैं, क्योंकि वह सब अनियोगद्वारोंका उत्पत्तिस्थान होनेसे पहले कहे जानेके योग्य है। उसका कथन इसप्रकार है-उत्तरप्रकृतिप्रदेशभागाभाग दो प्रकारका हैजघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टसे प्रयोजन है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश उनमें ।
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भागाभागो
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विसय कम्म ट्ठिदिसंचिदणाणासमयपबद्ध प्पयं घेत्तूण बुद्धीए पुंजं काढूण ठविय पुणो ए दमणंतखंड कादूणेयखंडं सव्वघादिभागो त्ति पुध दुविय सेसबहुभागदव्वमावलि ० असंखे॰भागेण खंडेऊणेयखंडं पि पुध डुविय सेसदव्वं सरिसवेभागे काऊण पुणो पुव्वमवणिय पुध विदमावलि ० असंखे० भागेण खंडेदूणेयखंडमेतदव्वमाणेयूण सरिसीकदवेभागेसु तत्थ पढमभागे पक्खित्ते कसायभागो होदि । इदरो वि णोकसायभागो । संपहि णोकसायभागं घेत्तूणेदमावलि० असंखे ० भागेण खंडिदूणेयखंडमवणिय पुध दुवेयव्वं । पुणो सेसदव्वं पंचसमभागे काढूण पुणो आवलि० असंखे० भागं विरलिय पुत्रमवणिय पुध विददव्वं समखंडे करिय दादूण तत्थेयखंडं मोत्तूण सेससव्वखंडसमूहं घेत्तूण पढमपुंजे पक्खित्ते वेदभागो होदि । तिन्हं वेदाणमव्वोगाढसरूवेण विवयत्तदो । पुणो सेसेगखंडमेदिस्से चैव विरलणाए उवरिमसमखंड काढूण तत्थेगखंड परिहारेण सेससव्वखंडे घेत्तूण विदियपुंजे पक्खिते रदि- अरदीणमव्वोगादभागो होदि । पुणो सेसेग रूवधरिदमवद्विदविरलणाए समखंडं काढूण तत्थेगरूवधरिदं मोत्तूण सेससव्वरूवधरिदाणि घेत्तूण तदियपुंजे पक्खित्ते हस्स-सोगभागो होदि । पुणो सेसेगरूवधरिदमवट्ठिदविरलणाए समपविभागेण दादूण तत्थेयखंडं परिवज्जणेण सेस
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से ओघसे गुणितकर्माशको विषय करनेवाली कर्मस्थितिके भीतर संचित हुए नाना समयप्रबद्धात्मक समस्त प्रदेशपिंडको लेकर बुद्धिके द्वारा उसका एक पुंज करके स्थापित करो । पुनः उसके अनन्त खण्ड करो । उनमेंसे एक खण्ड सर्वघाति प्रकृतियों का भाग है । उसे पृथक स्थापित करो। शेष बहु भाग द्रव्यको आवलिके असंख्यातवें भागसे भाजित करके एक भागको भी पृथक् स्थापित करो। शेष द्रव्यके समान दो भाग करके पुनः पहले निकालकर पृथक् स्थापित किये गये एक भाग में आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देकर एक भाग प्रमाण द्रव्यको अलग करके शेष सब द्रव्यको समान दो भागोंमेंसे प्रथम भागमें मिलाने पर कषायों का भाग होता है । तथा इतर भाग भी नोकषायोंका भाग होता है । अब नोऋषयोंके भागको लेकर उसमें आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग दो और एक भागको अलग करके पृथक् स्थापित करो। फिर शेष द्रव्यको समान पांच भागों में विभाजित करके पुनः आवलिके असंख्यातवें भागको विरलन करके, पहले घटा करके पृथक् स्थापित किये गये द्रव्यके समान खण्ड करके विरलित राशि पर दो । उनमें से एक खण्डको छोड़कर शेष सब खण्डोंके समूहको लेकर प्रथम पुजमें जोड़ देनेपर वेदका भाग होता है, क्योंकि यहां पर तीनों वेदोंकी अभेद रूपसे विवक्षा है । पुनः शेष बचे एक खण्डको आवलिके असंख्यातवें भाग रूप विरलन राशिके ऊपर समान खण्ड करके दो । उनमें से एक खण्डको छोड़कर शेष सब खण्डों को लेकर दूसरे पुंजमें जोड़ देनेपर रति और अरतिका मिला हुआ भाग होता है । पुनः शेष एक विरलन अकके प्रति प्राप्त हुए द्रव्यको अवस्थित विरलनके ऊपर समान खण्ड करके दो । उनमें से एक विरलन अक पर दिये गये एक खण्डको छोड़कर शेष सब विरलित रूपों पर दिये गये खण्डों को लेकर तीसरे पुंजमें जोड़ देने पर हास्य और शोकका भाग होता है । फिर शेष एक विरलन अकके प्रति प्राप्त हुए द्रव्यको अवस्थित विरलन के ऊपर समान भाग करके दो । उनमें से एक खण्डको छोड़कर शेष बचे हुए बहुत खण्डों को
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जयधवलासहिचे फसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ बहुखंडेसु चउत्थपुंजे पक्खित्तेसु भयभागो होदि । पुणो सेसेगरूवधरिदे पंचमपुंजे पक्खित्ते दुगुंछाभागो होइ। तदो एत्थेसो आलावो कायव्वो-सव्वत्थोवो दुगुंछाभागो। भयभागो विसेसाहिओ । हस्स-सोगभागो विसे० । रदि-अरदिभागो विसे० । वेदभागो विसेसाहिओ ति।
___ ७४. अधवा णोकसायसयलदव्वं घेत्तूण पंचसमपुंजे कादूण पुणो पढमपुजम्मि आवलि ० असंखे भागेण खंडेदूणेयखंडमवणिय पुध द्ववेयव्वं । पुणो एदं चेव भागहारं जहाकम विसेसाहियं कादूण विदिय-तदिय-चउत्थपुंजेसु भागं घेत्तूण पुणो एवं गहिदसब्वदव्वे पंचमपुंजे' पक्खित्ते वेदभागो होदि । हेट्ठिमा च जहाकम दुगुंछा-भय-हस्ससोग-रदि-अरदीणं भागा होति त्ति वत्तव्वं । एत्थ वि सो चेवालावो कायव्वो, विसेसाभावादो। चौथे पुंजमें जोड़ देने पर भयनोकषायका भाग होता है। फिर शेष एक विरलन कके प्रति प्राप्त हुए द्रव्यको पाँचवें पुंजमें जोड़ देने पर जुगुप्साका भाग होता है। अतः यहां ऐसा आलाप करना चाहिए-जुगुप्साका भाग सबसे थोड़ा है। उससे भयका भाग विशेष अधिक है। उससे हास्य-शोकका भाग विशेष अधिक है। उससे रति-अरतिका भाग विशेष अधिक है और उससे वेदका भाग विशेष अधिक है।
६७४. अथवा, नोकषायके समस्त द्रव्यको लेकर उसके पांच समान पुञ्ज करो। फिर पहले पुजमें अवलिके असंख्यातवें भागसे भाग देकर एक खण्डको घटाकर पृथक् स्थापित करो। पुनः इसी भागहारको क्रमानुसार विशेष अधिक विशेष अधिक करके उससे दूसरे, तीसरे और चौथे पुजमें भाग देकर इस प्रकार गृहीत सब द्रव्यको पांचवें पुजमें जोड़ देने पर वेद का भाग होता है और नीचेके भाग क्रमशः जुगुप्सा, भय, हास्य-शोक और रति-अरतिके भाग होते हैं ऐसा कहना चाहिये। यहां पर भी वही आलाप कहना चाहिये, क्योंकि दोनों में कोई भेद नहीं है।
विशेषार्थ-मोहनीयकी उत्तरप्रकृतियों में भागाभागके दो भेद करके पहले प्रदेश भागोभागका कथन किया है। प्रदेशभागाभागके द्वारा यह बतलाया जाता है कि उत्तर प्रकृतियोंमें किस प्रकृतिको कितना द्रव्य मिलता है । अर्थात् प्रति समय बंधनेवाले समय प्रबद्धमेंसे मोहनीयको जो भाग मिलता है वह उसकी उत्तरप्रकृतियोंमें तत्काल विभाजित हो जाता है । इस प्रकार संचित होते होते मोहनीयकी उत्तर प्रकृतियोंमें जिस क्रमसे संचित द्रव्य रहता है उसका विभागक्रम यहाँ बतलाया है। चूंकि इस ग्रन्थमें प्रकृति आदि सभी विभक्तियोंका कथन सत्तामें स्थित द्रव्यको लेकर ही किया है, अन्यथा बध्यमान समयप्रबद्धका विभाग तो तत्काल हो जाता है जैसा कि पहले हमने लिखा है । विभागका जो क्रम बतलाया है उसका खुलासा इस प्रकार है-मोहनीयकर्मका जो संचित द्रव्य है उसमें अनन्तका भाग दो। एक भागप्रमाण सर्वघाति द्रव्य होता है और शेष बहुभागप्रमाण द्रव्य देशघाती होता है। एक भागप्रमाण सर्वघाति द्रव्यको अलग रख दो, उसका बँटवारा बादको करेंगे। पहले बहुभागप्रमाण देशघाती द्रव्य लो। उसमें आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग दो। लब्ध एक भागको जुदा रखकर शेष बहभागके दो समान भाग करो। उन दो भागोंमेंसे एक भागमें अलग रखे आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देकर बहुभागको मिला दो। यह भाग कषायका होता है,
१. ता प्रतौ 'गहिदसव्वपुजे पंचपुजे' इति पाठः ।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भागाभागो
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और शेष एक भाग सहित दूसरा भाग नोकषायका होता है। जैसे यदि मोहनीय कर्मके संचित मव्यका प्रमाण ६५५३६ कल्पित किया जावे और अनन्तका प्रमाण १६ कल्पित किया जावे तो ६५५३६ में १६ का भाग देनेसे लब्ध एक भाग ४०९६ आता है। यह सर्वघाती द्रव्य शेष ६५५३६-४०९६%६१४४० देशघाती द्रव्य है। देशघाती द्रव्यका बटवारा देशघाती प्रकृतियोंमें ही होता है। अतः इस देशघाती द्रव्य ६१४४० में आवलिके असंख्यातवें भागके कल्पित प्रमाण ४ से भाग देने पर लब्ध एक भाग १५३६० आता है। इस एक भागको जुदा रखनेसे शेष बहुभाग ६१४४०-१५३६० = ४६०८० रहता है। इस बहुभागके दो समान भाग करनेसे प्रत्येक भागका प्रमाण २३०४० होता है। इसमें जुदा रखे हुए एक भाग १५३६० के बहुभाग ११५२० मिला देनेसे २३०४०+११५२०=३४५६. संज्वलन कषायका द्रव्य होता है और बचे हुए एक भाग ३८४० सहित दूसरा समान भाग २३०४० अर्थात् २३०४० + ३८४०% २६८८० नोकषायका द्रव्य होता है। नोकषाय नौ हैं, किन्तु उनमेंसे एक समयमें पाँचका हो बन्ध होता है-तीनों वेदोंमेंसे एक वेद, रति-अरतिमेंसे एक, हास्य शोकमेंसे एक और भय तथा मुगुप्सा । अतः तीनों वेदों, रति-अरति और हास्थ-शोकमें अभेद विवक्षा करके द्रव्यका बटवारा भी उसी रूपसे बतलाया है। इसलिये नोकषायको जो द्रव्य मिलता है वह पाँच जगह विभाजित हो जाता है। उसके विभागका क्रम इस प्रकार है-नोकषायके द्रव्यमें आबलिके असंख्यातवें भागका भाग देकर लब्ध एक भागको जुदा रखो और शेष बहुभागके पाँच समान भाग करो। फिर जुदे रखे हुए एक भागमें आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग दो । लब्ध एक भागको जुदा रखकर शेष बहुभागको पाँच समान भागोंमेंसे पहले भागमें जोड़ देनेसे जो द्रव्य होता है वह द्रव्य वेदका होता है। फिर जुदे रखे हुए एक भागमें आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग देकर लब्ध एक भागको जुदा रख शेष बहुभागको पाँच समान भागोंमेंसे दूसरे भागमें जोड़ देनेसे रति-अरतिका द्रव्य होता है। इसी प्रकार जुदे रखे एक भागमें
आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग देकर और एक भागको फिर जुदा रख शेष बहुभागको तीसरे भागमें जोड़नेसे हास्य-शोकका भाग होता है। फिर जुदे रखे एक भागमें आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग देकर बहभाग चौथेमें मिलानेपर भयका भाग होता है। फिर शेष बचे एक भाग
गको पाँचवें समान भागमें जोड़ देनेसे जगप्साका भाग होता है। जैसे नोकषायका द्रव्य २६८८० है। उसमें आवलिके असंख्यातवें भागके कल्पित प्रमाण ४ का भाग देनेसे लब्ध एक भाग ६७२० आता है । उसे अलग रखनेसे शेष २६८८०-६७२० =२०१६० बचता है। उसके पाँच समान भाग करनेसे प्रत्येक भागका प्रमाण ४०३२ होता है । जुदे रखे हुए एक भाग ६७२० में ४ का भाग देनेसे लब्ध एक भाग १६८० आता है । इसे अलग रखकर शेष बहुभाग ६७२०१६८०%=५०४० को पहले समान भाग ४०३२ में जोड़नेसे वेदका द्रव्य ९०७२ होता है। फिर जुदे रखे एक भाग १६८० में ४ का भाग देनेसे लब्ध एक भाग ४६० आता है। इसे जुदा रखकर शेष बहुभाग १६८०-४२०=१२६० को दूसरे समान भागमें जोड़नेसे ४०३२+१२६०-५२९२ रति-अरतिका द्रव्य होता है । इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिये । यहाँ एक बात समझ लेना आवश्यक है कि मूलमें एक भागमे आवालके असंख्यातवभागका भाग न देकर यह लिखा। कि आवलिके असंख्यातवें भागका विरलन करो और प्रत्येक विरलित रूपपर जुदे रखे हुए एक भागके समान भाग करके दे दो। किन्तु ऐसा करने का मतलब ही जुदे रखे हुए भागमें आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग देना होता है। जैसे १६ में ४ का भाग देनेसे चार आता है यह एक भाग है, वैसे ही चारका विरलन करके और प्रत्येक विरलित रूपपर १६ को ४ समान भागोंमें करके रखने पर एक भागका प्रमाण ४ ही आता है। यथा-४४
प्रमाण ४ा जाता है। चया११११। अतः
४४४४। अतः
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ ७५. संपहि कसायभागमावलि० असंखे०भागेण भागं घेत्तूणेगखंडं पुध दृविय सेसदव्वं चत्तारि सरिसपुंजे कादू ण तदो आवलि. असंखे०भागमवद्विदविरलणं कादृण
दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है। आगे भी जहाँ जहाँ आवलिके असंख्यातवें भागका विरलन करके उसके ऊपर जुदे रखे द्रव्यके समान भाग करके एक एक रूपपर एक एक भाग रखनेका कथन किया है वहाँ उसका मतलब जुदे रखे हुए द्रव्यमें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देना ही समझना चाहिये । मूलमें अथवा करके विभागका दूसरा क्रम भी बतलाया है। उस क्रमके अनुसार नोकषायको जो द्रव्य मिला है उसके पाँच समान भाग करो। फिर पहले भागमें आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग दो और लब्ध एक भागप्रमाण द्रव्यको अलग रख दो। फिर दूसरे भागर्म कुछ अधिक आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग दो और लब्ध एक भागप्रमाण द्रव्यको अलग स्थापित कर दो। फिर तीसरे भागमें उससे भी कुछ अधिक आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग दो और लब्ध एक भागप्रमाण द्रव्यको पृथक् स्थापित करो। फिर चौथे भागमें उससे भी और अधिक आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग दो और लब्ध एक भागप्रमाण द्रव्यको पृथक् स्थापित करो । भाग दे दे करके पृथक् स्थापित किये हुए इन चारों भागोंको पाँचवें समान भागमें जोड़ देनेसे वेदका द्रव्य होता है। और पहले, दूसरे, तीसरे
और चौथे समान भोगमें भाग देकर जो पृथक् द्रव्य स्थापित किये थे उन द्रव्योंके सिवाय पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे समान भागमेंसे जो द्रव्य शेष बचता है वह क्रमानुसार जुगुप्सा, भय, हास्य-शोक और रति अरतिका भाग होता है। जैसे नोकषायके द्रव्यका प्रमाण २६८८० है। इसके पाँच समान भाग करनेसे प्रत्येक भागका प्रमाण ५३७६ होता है । पहले ५३७६ में आवलि के असंख्यातवें भाग ४से भाग देने से लब्ध एक भाग १३४४ आता है, इसे पृथक स्थापित करनेसे शेष द्रव्य ५३७६-१३४४ =४०३२ बचता है। दूसरे समान भाग ५३७६ में कुछ अधिक आवलिके असंख्यातवें भाग ६ से भाग देने से लब्ध एक भाग ८९६ आता है। इसे पृथक् स्थापित करनेसे शेष द्रव्य ५३७६ -८९६४४८० बचता है। तीसरे ५३७६ में उससे भी कुछ अधिक आवलिके असंख्यातवें भाग ८ का भाग देनेसे लब्ध एक भाग ६७२ आता है । इसे पृथक स्थापित करनेसे शेष द्रव्य ५३७६-६७२ = ४७०४ बचता है। चौथे ५३७६ में उससे भी कुछ अधिक आवलिके असंख्यातवें भाग १२से भाग देनेसे लब्ध एक भाग ४४८ आता है। उसे पृथक स्थापित करनेसे शेष द्रव्य ५३७६-४४८ = ४९२८ बचता है। इस प्रकार भाग दे दे करके पृथक् स्थापित किये गये एक एक भागको १३४४ + ८९६+ ६७२ + ४४८=३३६० पाँचवे समान भाग ५३७६ में मिला देनेसे वेदका द्रव्य ८७३६ होता है और बाकी बचे द्रव्योंमें से क्रमशः ४०३२ द्रव्य जुगुप्साका, ४४८० द्रव्य भयका, ४७०४ द्रव्य हास्य-शोकका और ४९२८ द्रव्य रति-अरतिका होता है। इस क्रमसे विभाग करने में भी बटवारेका परिमाण वही आता है जो पहले प्रकारसे करनेसे आता है। हमारे उदाहरणमें जो अन्तर पड़ गया है उसका कारण यह है कि भागहार आवलिके असंख्यातवें भागको हमने भाग देनेकी सहूलियतके लिये अधिक बढ़ा लिया है। अर्थात् उसका प्रमाण ४ कल्पित करके आगे कुछ अधिक कुछ अधिकके स्थानमें ६,८ और १२ कर लिया है। यदि वह ठीक परिमाण में हो तो द्रव्यका परिमाण पहले प्रकारके अनुसार ही निकलेगा।
६७५ अब कषायको जो भाग मिला था उसमें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देकर एक भागको पृथक् स्थापित करो। शेष द्रव्यके चार समान पुज करो। उसके बाद आवलिके असंख्यातवें भागका अवस्थित विरलन करके उसके ऊपर पहले घटाये हुए
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भागाभागो तस्सुवरि पुव्वमवणिदभाग समपविभागण दादूण तत्थेगरूवधरिदं मोत्तूण सेससव्वरूवधरिदाणि घेत्तूण पढमपुंजे पक्खित्ते लोभसंजल०भागो होदि । सेसेगरूवधरिदमवद्विदविरलणाए उवरि पुणो वि समखंडं करिय दादूण तत्थेगरूवधरिदपरिच्चागेण सेससव्वरूवधरिदाणि घेत्तूण विदियपुंजे पक्खित्ते मायासंज०भागो होदि। पुणो सेसेगरूवधरिदमव हिदविरलणाए पुव्वविहाणेण दादूण तेणेव कमेण घेत्तूण तदियपुंजे पक्खित्ते कोहसंजलणभागो होदि। सेसेगरूवधरिदं घेत्तूण चउत्थपुंजे पक्खित्ते माणसंजल भागो होदि। एत्थालावो भण्णदे—माणभागो थोवो । कोहभागो विसेसाहिओ । मायामागो विसे० । लोभभागो विसे । अधवा कसायसव्वदव्वं सरिसचत्तारि भागेकादण पुव्वविहाणेणावलि० असंखे०भागं परिवाडीए विसेसाहियं करिय पढम-विदिय-तदियपुंजेसु भागं घेत्तण चउत्थपुंजे तम्मि भागलद्धे पक्खित्ते लोभसंजल भागो होदि। हेट्ठिमा वि विलोमकमेण माया-कोह-माणसंजलणाणं भागा होति । एत्थ वि सो चेवालावो कायव्वो। एदं च सत्थाणगुणिदकमंसियमस्सिऊण भणिदं, खवगसेढीए अक्कमेण संजलणाणमुक्कस्सदव्वाणुवलंभादो। किं कारणं । ख वगसेढीए णोकसायसव्वदव्वे कोहसंजलणम्मि पक्खित्ते एक भागके समान विभाग करके स्थापित करो। उनमेंसे एक विरलित रूप पर स्थापित किये हुए भागको छोड़कर बाकीके विरलित रूपों पर स्थापित किये हुए सब भागोंको एकत्र करके पहले पुजमें मिला देने पर संज्वलन लोभका भाग होता है । शेष एक विरलनके प्रति प्राप्त द्रव्य को फिर भी अवस्थित विरलनके ऊपर समान खण्ड करके दो। उनमें से एक विरलित रूप पर दिये गये भागको छोड़कर शेष सब विरलित रूपों पर दिये गये भागोंको एकत्र करके दूसरे पजमें मिला देने पर संज्वलन मायाका भाग होता है। पनः शेष एक विरलन अकके प्रति प्राप्त द्रव्यको अवस्थित विरलन राशिके ऊपर पहले कहे गये विधानके अनुसार देकर उसी क्रमसे एक भागको छोड़ कर और शेष बचे सब भागोंको एकत्र करके तीसरे पुजमें मिला देने पर संज्वलन क्रोधका भाग होता है। शेष एक विरलन अंकके प्रति प्राप्त हुए द्रव्यको लेकर चौथे पुजमें मिला देनेपर संज्वलन मानका भाग होता है । यहाँ आलाप कहते हैं। मानका भाग थोड़ा है। उससे क्रोधका भाग विशेष अधिक है। उससे मायाका भाग विशेष अधिक है। उससे लोभका भाग विशेष अधिक है। अथवा कषायके सब द्रव्यके समान चार भाग करके पूर्व विधानके अनुसार आवलिके असंख्यातवें भागको क्रमानुसार विशेष अधिक करके पहले, दूसरे और तीसरे पुजमें भाग देकर उस लब्ध भागको चौथे पुंजमें मिला देने पर संज्वलन लोभका भाग होता है। नीचेके भी भाग विलोमक्रमसे संज्वलन माया, संज्वलन क्रोध और संज्वलन मानके भाग होते हैं । यहाँ पर भी वही आलाप करना चाहिये । यह विभाग स्वस्थान गुणितकर्मा शिकको लेकर कहा है, क्योंकि क्षपकश्रेणीमें एक साथ संज्वलन कषायोंका उत्कृष्ट द्रव्य नहीं पाया जाता है।
शंक-क्षपक श्रेणीमें संज्वलन कषायोंका उत्कृष्ट द्रव्य एक साथ क्यों नहीं पाया
जाता ?
समाधान-क्षपकश्रेणीमें नोकषायके सब द्रव्यका संज्वलन क्रोधमें प्रक्षेप कर देने पर संज्वलन क्रोधका द्रव्य होता है। क्रोध संज्वलनके द्रव्यका मान संज्वलनमें प्रक्षेपकर देने
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पदेस
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ कोहसंजल०दव्वं होदि। कोहसंज०दव्वे माणसंजलणम्मि पक्खित्ते माणसंज०दव्वं होदि । माणसंज०दव्वे मायासंज० पक्खित्ते मायासंज०दव्वं होदि। मायासंजदव्वे लोभसंजलणम्मि पक्खित्ते लोहसंजलणदव्वं होदि त्ति एदेण कारणेण णत्थि तत्थ भागाभागो, जुगवमसंभवंताणं भागाभागविहाणोवायाभावादो। अधवा जुगवमसंभवंताणं पि सव्वदव्वाणं बुद्धीए समाहारं कादूण एसो भागाभागो कायव्वो। पर मान संज्वलनका द्रव्य होता है। मान संज्वलनके द्रव्यको माया संज्वलनके द्रव्यमें मिला देनेपर माया संज्वलनका द्रव्य होता है। और माया संज्वलनके द्रव्यको लोभसंज्वलनके द्रव्यमें . मिला देनेपर लोभसंज्वलनका द्रव्य होता है। इस कारणसे क्षपकनेणीमें भागाभाग नहीं है, क्योंकि इनका एकसाथ पाया जाना सम्भव न होनेसे वहाँ भागाभागके विधान करनेका कोई उपाय नहीं है।
__अथवा प्रकृतियोंके एक साथ असंभवित भी सब द्रव्यका बुद्धिके द्वारा समूह करके यह भागाभाग करना चाहिये।
विशेषार्थ-देशघाती द्रव्यका जो भाग संज्वलन कषायको मिला है उसका बटवारा उक्त दोनों क्रमानुसार चार भागोंमें होता है। जैसे कषायके भागका परिमाण ३४५६० है। उसमें आवलिके असंख्यातवें भागके कल्पित प्रमाण ४ से भाग देनेसे लब्ध ८६४० आता है। इस एक भागको जुदा रख शेष बहुभाग ३४५६०-८६४० = २५९२० के चार समान भाग करो। फिर जुदे रखे एक भाग ८६४० में ४ का भाग देकर लब्ध एक भाग २१६० को अलग रखकर शेष बहुभाग ८६४०-२१६०%६४८० को प्रथम समान भाग ६४८० में जोड़ देनेसे ६४८०+ ६४८०=१२९६० संज्वलन लोभका भाग होता है। फिर जुदे रखे एक भाग २१६० में फिर ४ का भाग देनेसे लब्ध एक भाग ५४० को जुदा रखकर शेष बहुभाग २१६०-५४०=१६२० को दसरे समान भाग ६४८० में जोड़नेसे संज्वलन मायाका भाग ६४८०+१६२०%3D८१०० होता है। जुदे रखे भाग ५४० में फिर ४ का भाग देकर लब्ध एक भाग १३५ को जुदा रखकर शेष बहुभाग ५४०-१३५-४०५ को तीसरे समान भागमें जोड़नेसे संज्वलन क्रोधका भाग ६४८०+ ४०५= ६८८५ होता है। शेष बचे एक भाग १३५ को चौथे समान भागमें मिलानेसे संज्वलन मानका भाग ६४८०+ १३५६६१५ होता है। दूसरे क्रमके अनुसार कषायके सर्व द्रव्य ३४५६० के चार समान भाग करके पहले, दूसरे और तीसरे समान भागमें क्रमसे आवलिके असंख्यातवें भागसे, कुछ अधिक आवलिके असंख्यातवें भागसे और उससे भी कुछ अधिक आवलिके असंख्योतवें भागसे भाग देकर लब्ध तीनों एक एक भागोंको जोड़कर चौथे समान भागमें मिलानेसे संज्वलन लोभका भाग होता है और पहले, दूसरे और तीसरे समान भागमेंसे अपने अपने लब्ध एक एक भागको घटानेसे जो द्रव्य शेष बचता है वह क्रमसे संज्वलन मान, संज्वलन क्रोध और संज्वलन मायाका द्रव्य होता है। जैसा कि प्रारम्भमें ही कह आये हैं। गुणितकर्माश जीवके प्रदेश सत्कर्मको लेकर ही यह विभाग किया गया है। क्षपकश्रेणीमें यद्यपि संज्वलनचतुष्कका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है किन्तु वह एक साथ चारों कषायोंका नहीं होता, किन्तु जब पुरुषवेद और नोकषायोंके प्रदेशोंका प्रक्षेप संज्वलन क्रोधमें हो जाता है तब संज्वलनक्रोधका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है। जब यही क्रोध मानमें प्रक्षिप्त हो जाता है तब मानका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है। इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिए। अतः क्षपक श्रणिमें भागाभाग नहीं होता । फिर भी यदि वहाँ भागाभाग करना ही हो तो उनके सब द्रव्यका समाहार करके कर लेना चाहिये।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए भागाभागो ६७६. संपहि मोह० दव्वमणंतखंड कादण पुव्वमवणिदेयखंडं दव्वं सव्वधादिपडिबद्धं घेत्तण तम्मि आवलि . असंखे०भागेण खंडिदेयखंडं पुध हविय सेसदव्वं सरिसतेरहजे कादण पुणो आवलि० असंखे०भागं विरलिय पुव्वमवणिददव्वपमाणमाणेयूण समखंडं करिय दादण तत्थेयखंडमुच्चा सेसबहुखंडाणि घेत्तूण पढमपुजे पक्खित्ते मिच्छत्तभागो होदि । एवं सेसपजेसु वि सव्वकिरियं जाणिऊण भागाभागे कीरमाणे अणंताणु०लोभ-माया-कोह-माण-पच्चक्खाणलोह-माया-कोह-माण-अपच्चक्खाणलोभ-माया-कोह-माणभागा जहाकम होति । एत्थालावे भण्णमाणे अपञ्चक्खाणमाणमादिं कादण जाव मिच्छत्तं ताव विसेसाहियकमेण णेदव्वं । अहवा एदं चेव सव्वधादिपडिबद्धसव्वदव्वं घेत्तण सरिसतेरहपुजे कादूण पुणो आवलि० असंखे०भागेण पढमपुजम्मि भागं घेत्तूण पुध द्वविय तदो एवं चेव' भागहारं परिवाडीए विसेसाहियं कादण जहाकम सेसेकारसपुजेसु वि भागं घेत्तण भागलद्धसव्वदव्वमेगापिंडं करिय तेरसजे पक्खित्ते मिच्छत्तभागो होदि । सेसा वि जहाकममणंताणु लोभादीणं भागा पच्छाणुपव्वीए होंति त्ति घेत्तव्वं । एत्थ सव्वत्थ वि भागहारस्स विसेसाहियभावकरणे रासिपरिहाणिमुहेण सिस्साणं पडिवोहो समुप्पाएयव्यो । एत्थ वि पुव्वुत्तो
६७६. अब मोहनीयके द्रव्यके अनन्त खण्ड करके पहले घटाये हुए सर्वघातिप्रतिबद्ध एक खण्डप्रमाण द्रव्यको लेकर उसमें आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग दो। एक भागको पृथक् स्थापित करके शेष द्रव्यके समान तेरह पुंज करो। फिर आवलिके असंख्यातवें भागका विरलन करके पहले अलग स्थापित किये गये द्रव्यके समान खण्ड करके विरलित राशिपर दो। उन खंडोंमेंसे एक खण्डको छोड़कर शेष सब खण्डोंको लेकर पहले जमें मिला देनेपर मिथ्यात्वका भाग होता है। इस प्रकार शेष पुजोंमें भी सब क्रियाको जानकर भागाभाग करने पर क्रमशः अनन्तानुबन्धी लोभ, अनन्तानुबन्धी माया, अनन्तानुबन्धी क्रोध, अनन्तानुबन्धी मान, प्रत्याख्यानावरण लोभ, प्रत्याख्यानावरण माया, प्रत्याख्यानावरण क्रोध, प्रत्याख्यानावरण मान, अप्रत्याख्यानावरण लोभ, अप्रत्याख्यानावरण माया, अप्रत्याख्यानावरण क्रोध और अप्रत्याख्यानावरण मानके भाग होते हैं। यहाँ आलापका कथन करनेपर अप्रत्याख्यानावरण मानसे लेकर मिथ्यात्व पर्यन्त विशेष अधिक विशेष अधिक क्रमसे ले जाना चाहिए। अथवा इसी सर्वघातीसे प्रतिबद्ध सब द्रव्यको लेकर समान तेरह पुंज करके फिर आवलिके असंख्यातवें भागसे प्रथम पुजमें भाग देकर एक भागको पृथक् स्थापित करो। फिर इसी आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण भागहारको क्रमसे विशेष अधिक विशेष अधिक करके क्रमानुसार शेष ग्यारह पुजोंमें भी भाग दे देकर भाग देनेसे लब्ध सत्र द्रव्यका एक पिण्ड करके तेरहवें पुजमें मिला देनेपर मिथ्यात्वका भाग होता है। शेष भाग भी क्रमानुसार पश्चादानुपूर्वी क्रमसे अनन्तानुबन्धी लोभ आदिके होते हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिये। यहाँ सर्वत्र ही भागहार आवलिके असंख्यातवें भागके विशेष अधिक करनेपर जो राशिकी उत्तरोत्तर हानि होती है उसी द्वारा शिष्योंको बोध उत्पन्न कराना चाहिये । यहाँ पर भी पूर्वोक्त ही आलाप करना चाहिये,
१. श्रा-प्रतौ 'एवं चेव' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ चेवालावो कायन्वो, विसेसाभावादो।
$ ७७. संपहि दंसणतियस्स सत्थाणभागाभागे कीरमाणे मिच्छत्तभागं तिप्पडिरासिय तत्थ पढमपुजं मोत्तूण विदियपुंजे पलिदो० असंखे०भागेण भागं घेत्तूण भागलद्धे अवणिदे सम्मत्तभागो होदि । पुणो गुणसंकमभागहारं किंचूणीकरिय तदियक्योंकि जो पहले कहा है उससे कोई अन्तर नहीं है।
विशेषार्थ-देशघाती द्रव्यका बँटवारा बतलाकर अब सर्वघाती द्रव्यके भागाभागका क्रम बतलाते हैं जो बिल्कुल पूर्ववत् ही है। सर्वघाती द्रव्यका यह विभाग मोहनीयकी केवल तेरह प्रकृतियोंमें ही होता है एक मिथ्यात्व और बारह कषाय । जब अनादि मिथ्यादृष्टि जीवको प्रथमोपशम सम्यक्त्व होता है तो मिथ्यात्वका ही द्रव्य शुभ परिणामोंसे प्रक्षालित होकर सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वरूप परिणत होता है, अतः उन्हें पृथक् द्रव्य नहीं दिया जाता। यहाँ भी सर्वघाती द्रव्यमें आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग देकर लब्ध एक भागको जुदा रख शेष बहुभाग द्रव्यके तेरह समान भाग करने चाहिये । लब्ध एक भागमें पुनः आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग देकर एक भागको जुदा रख शेष बहुभाग पहले भागमें मिलानेसे मिथ्यात्वका द्रव्य होता है। जुदे रखे एक भागमें पुनः आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग देकर एक भागको जुदा रख बहुभाग दूसरे समान भागमें मिलानेसे अनन्तानुबन्धी लोभका भाग होता है। इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिये। दूसरे क्रमके अनुसार सर्वघाती द्रव्यके तेरह समान भाग करके बारह भागोंमेंसे पहले भागमें आवलिके असंख्यातवें भागसे और शेष ग्यारह भागोंमें कुछ कुछ अधिक आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग देकर लब्ध एक एक भागोंको जोड़कर तेरहवें भागमें मिलानेसे मिथ्यात्वका द्रव्य होता है और बारह समान भागोंमें अपने अपने लब्ध एक भागको घटानेसे जो जो द्रव्य बचता है वह क्रमसे अप्रत्याख्यानावरण मान, क्रोध, माया, लोभ, प्रत्याख्यानावरण मान, क्रोध, माया, लोभ और अनन्तानुबन्धी मान, क्रोध, माया और लोभका भाग होता है । यहाँ अन्तमें ग्रन्थकारने कहा है कि दूसरे क्रममें जो भागहार आवलिके असंख्यातवें भागको कुछ अधिक किया है सो कितना अधिक करना चाहिये यह बात गणितकी प्रक्रिया द्वारा शिष्योंको बतला देना चाहिये । यहाँ एक बात खास तौरसे ध्यान देने योग्य यह है कि गोमट्टसार कर्मकाण्डमें सर्वघाती द्रव्यका बटवारा देशघाती प्रकृतियोंमें भी करनेका विधान किया है और इसलिये तेरहमें संज्वलनचतुष्कको मिलाकर मोहनीयके सर्वघाती द्रव्यका विभाग सत्रह प्रकृतियोंमें किया है। जैसा कि कर्मकाण्डकी गाथा नं० १९९ और २०२ से स्पष्ट है। श्वेताम्बर ग्रन्थ कर्मप्रकृतिके अनुसार सर्वघाती द्रव्यके दो भाग होकर आधा भाग दर्शनमोहनीयको और आधा भाग चारित्रमोहनीयको मिलता है। तथा देशघाती द्रव्यका आधा भाग कषायमोहनीयको और आधा भाग नोकषायमोहनीयको मिलता है। दर्शनमोहनीयको जो आधा भाग मिलता है वह सब मिथ्यात्वप्रकृतिका होता है और चारित्रमोहनीयको जो भाग मिलता है वह बारह कषायोंका होता है तथा उसका आलाप वही होता है जो कि यहाँ मूलग्रन्थमें बतलाया है।
६७७. अब दर्शनत्रिकके स्वस्थानकी अपेक्षा भागाभाग करने पर मिथ्यात्वको जो भाग मिला उसकी तीन राशियाँ करो। उनमेंसे पहले पुंजको छोड़ दो। दूसरे पुंजमें पल्यके असंख्यातवें भागसे भाग देकर लब्ध एक भागको उसी पुञ्जमेंसे घटा देनेपर जो शेष बचे वह सम्यक्त्वका भाग होता है । फिर गुणसंक्रमभागहारका जो प्रमाण कहा है उसमें से कुछ कम करके उससे
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेस विहत्तीए भागाभागो
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पुंजे भागे हिदे भागलद्धे तम्मि चैवावणिदे सम्मामि० भागो होदि । पढमपुंजो वि अखंडो मिच्छत्त भागो होदि । अधवा सम्मत्त - मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुक्कस्सदव्वं बुड्डी एगपुंजं काढूण पुणो तिष्णि सरिसभागे करिय तत्थ पढमभागे पलिदो० असंखे०भागेण भागं घेत्तूण भागलद्धदव्वस्स किंचूणमद्धं विदियपुंजे पक्खिविय सेसदव्वम्मि तदियपुंजे पक्खित्ते जहाकमं सम्मामिच्छत्त-सम्मत्त-मिच्छत्तभागा होंति । एत्थ सम्मामि० भागो थोवो । सम्म० भागो विसे० । मिच्छ० भागो विसे० ।
S ७८. संपहि सव्वसमासालावे एत्थ भण्णमाणे अपच्चक्खाणमाणभागो थोवो । कोधे विसेसाहिओ । मायाए विसे० । लोभे विसे० । पच्चक्खाणमाणे विसे० । कोहे विसे० । मायाए विसे० । लोभे विसे० । अनंताणु० माणे विसे० । कोहे विसे० । माया विसे० । लोभे विसेसाहिओ । सम्मामि० विसे० । सम्मत्तभागो विसेसा० । मिच्छत्तभागो विसे० । दुगु छाभागो अनंतगुणो । भयभागो विसे० । हस्स - सोगभागो विसे० । रदि-अरदिभागो विसे० । वेदभागो विसे० । माणसंज० भागो विसे० । कोहसंज० भागो विसे० । मायासंज० भागो विसे० । लोभसंज० विसे० । एवं मणुसतिए । तीसरे पुंजमें भाग दो । लब्ध भागको उसी पुंजमेंसे घटा देनेपर जो शेष बचता है वह सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिका भाग होता है । और पहला पूरा पुञ्ज मिध्यात्वका भाग होता है अथवा सम्यक्त्व, मिध्यात्व और सम्यग्मिध्यात्वके उत्कृष्ट द्रव्यका बुद्धिके द्वारा एक पुंज करके पुनः उसके तीन समान भाग करो। उसमें से पहले भाग में पल्यके असंख्यातव भागसे भाग देकर भाग देनेसे जो द्रव्य प्राप्त हुआ उसके कुछ कम आधे भागको दूसरे पुजमें मिला दो और शेष द्रव्यको तीसरे पुञ्ज में मिला दो । ऐसा करने पर क्रमशः सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और मिथ्यात्वके भाग होते हैं । यहाँ सम्यग्मिथ्यात्वका भाग थोड़ा है । सम्यक्त्वका भाग उससे विशेष अधिक है और मिध्यात्वका भाग उससे विशेष अधिक है ।
९ ७८. अब यहाँ सब आलापोंको संक्षेपमें कहते हैं-अप्रत्याख्यानावरण मानका भाग थोड़ा है | क्रोधका भाग उससे विशेष अधिक है । मायाका भाग उससे विशेष अधिक है । लोभका भाग उससे विशेष अधिक है । प्रत्याख्यानावरण मानका भाग उससे विशेष अधिक है । क्रोधका भाग उससे विशेष अधिक है । मायाका भाग उससे विशेष अधिक है । लोभका भाग उससे विशेष अधिक है । अनन्तानुबन्धी मानका भाग उससे विशेष अधिक है । क्रोधका भाग उससे विशेष अधिक है । मायाका भाग उससे विशेष अधिक है । लोभका भाग उससे विशेष अधिक है । सम्यग्मिथ्यात्वका भाग उससे विशेष अधिक है । सम्यक्त्वका भाग उससे विशेष अधिक है । मिध्यात्वका भाग उससे विशेष अधिक है । जुगुप्साका भाग उससे अनन्तगुणा है । भयका भाग उससे विशेष अधिक है । हास्य- शोकका भाग उससे विशेष अधिक है | रति-अरतिका भाग उससे विशेष अधिक है । वेदका भाग उससे विशेष अधिक है । मानसंज्वलनका भाग उससे विशेष अधिक है । क्रोध संज्वलनका भाग उससे विशेष अधिक है । माया संज्वलनका भाग उससे विशेष अधिक है और लोभ संज्वलनका भाग उससे अधिक है । इसी प्रकार तीन प्रकारके मनुष्यों में जानना चाहिए ।
विशेषार्थ — पहले लिख आये हैं कि सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका बन्ध नहीं होता, इसलिए बन्धकाल में दर्शनमोहनीयका जो द्रव्य मिलता है वह सबका सब
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ ६ ७९. आदेसेण णेरइ० उक्कस्ससंतकम्माणि घेत्तूणेवं चेव भागाभागो कायव्यो । णवरि मिच्छत्तभागमसंखे०खंडाणि कादण तत्थेयखंडमेत्तो सम्मामि भागो होइ । कारणं सुगमं । अण्णं च णोकसायुक्कस्ससंतकम्ममस्सियूण भागाभागे कोरमाणे णोकसायमिथ्यात्व प्रकृतिको मिल जाता है। जब अनादि मिथ्यादृष्टि या सादि मिथ्यादृष्टि जीवको
सम्यक्त्वकी प्राप्ति होती है तो सम्यक्त्व प्राप्त होनेके प्रथम समयमें ही सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व रूप कर्माशोंकी उत्पत्ति हो जाती है। जैसे चाकीमें दले जानेसे धान्य तीन रूप हो जाता है-चावलरूप, छिलके रूप और चावलके कण तथा छिलके मिले हुए रूप उसी तरह अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंके द्वारा दला जाकर दर्शनमोहनीयकर्म भी मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वरूप हो जाता है। उपशमसम्यक्त्व प्राप्त होनेके प्रथम समयसे ही मिथ्यात्वके प्रदेश गुणसंक्रमभागहारके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वरूपमें परिणमित होने प्रारम्भ हो जाते हैं। यहाँ गुणसंक्रम भागहारका प्रमाण पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है। किन्तु सम्यग्मिथ्यात्वमें प्रदेशोंको लानेके लिए जो गुणसंक्रमभागहार है उससे सम्यक्त्व प्रकृतिमें प्रदेशोंको लानेमें निमित्त गुणसंक्रम भागहार असंख्यातगुणा है। इस भागहारके द्वारा उपशमसम्यग्दृष्टि जीव पहले समयमें सम्यग्मिथ्यात्वमें बहुत प्रदेश देता है, सम्यक्त्वमें उससे असंख्यातगुणे होन प्रदेश देता है। किन्तु प्रथम समयमें सम्यग्मिथ्यात्वमें जितना द्रव्य देता है उससे असंख्यातगुणा द्रव्य दूसरे समयमें सम्यक्त्वमें देता है और उससे असंख्यातगुणा द्रव्य उसी दूसरे समयमें सम्यग्मिथ्यात्वमें देता है। तीसरे समयमें सम्यग्मिथ्यात्वसे असंख्यातगुणा द्रव्य सम्यक्त्वमें और उससे असंख्यातगुणा द्रव्य सम्यग्मिथ्यात्वमें देता है। इस प्रकार अन्तर्मुहूर्तपर्यन्त गुणसंक्रम भागहार होता है। उपशमसम्यक्त्वके द्वितीय समयसे लेकर जब तक मिथ्यात्वका गुणसंक्रम होता है तब तक सम्यग्मिथ्यात्वका भी गुणसंक्रम होता है। अङ्गुलके असंख्यातवें भागरूप प्रतिभागसे भाजित होकर सम्यग्मिथ्यात्वका द्रव्य प्रति समय सम्यक्त्र प्रकृतिमें संक्रमित होता है। अतः इन तीनों प्रकृतियोंके प्रदेशसत्कर्मका भागाभाग जाननेके लिये मिथ्यात्वके भागके तीन भाग करो। पहला भाग मिथ्यात्वका द्रव्य है । दूसरे भागमें पल्यके असंख्यातवें भागसे भाग देकर जो लब्ध आवे उसे उसी भागमेंसे घटा देने पर जो द्रव्य शेष रहे वह सम्यक्त्वका द्रव्य है। तीसरे भागमें कुछ कम पल्यके असंख्यातवें भागसे भाग देकर जो लब्ध आवे उसे उसी भागमेंसे घटानेसे जो शेष बचता है वह सम्यग्मिथ्यात्वका द्रव्य होता है। ऐसे ही दूसरा प्रकार भी समझना चाहिये। ऐसा करनेसे सबसे कम द्रव्य सम्यग्भिथ्यात्वका होता है । उससे अधिक द्रव्य सम्यक्त्वका होता है और उससे भी अधिक मिथ्यात्वका द्रव्य होता है। आलापोंके संक्षेप अर्थात् अल्पबहुत्वमें अनन्तानुबन्धी लोभसे सम्यमिथ्यात्व का द्रव्य जो विशेष अधिक कहा है उसका कारण यह है कि यहाँ पर सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट द्रव्य ग्रहण किया है और उसका स्वामी दर्शनामोहकी क्षपणा करनेवाला जीव जब मिथ्यात्वका सब द्रव्य सम्यग्मिथ्यात्वमें क्षेपण कर देता है तब होता है। इसी प्रकार सम्यक्त्व प्रकृतिके विषयमें भी जानना चाहिये । शेष कथन स्पष्ट ही है।
६७९. आदेशसे नारकियोंमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मको लेकर इसी प्रकार भागाभाग करना चाहिए। इतना विशेष है कि मिथ्यात्वके भागके असंख्यात खण्ड करके उनमेंसे ऐक खण्डप्रमाण सम्यग्मिथ्यात्वका भाग होता है। इसका कारण सुगम है। तथा नोकषायके उत्कृष्ट सत्कर्मको लेकर भागाभाग करने पर नोकषायके सब द्रव्यका एक पुञ्ज करो। फिर उसमें
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेविहत्तीए भागाभागो सव्वदव्वमेगपुंजं कादूण पुणो तम्मि तप्पाओग्गसंखेजस्वेहि खंडिदे तत्थेयखंडमेतं हस्स-रदिदव्वं होदि त्ति तमवणिय पुध टवेयव्वं । पुणो सेसदव्वादो तप्पाओग्गसंखेजरूवेहि खंडिदेयखंडं पुध द्वविय सेसदव्वमावलि० असंखे०भागेण खंडेयणेगखंडं पि अवणिय पुध हविय अवणिदसेसं सरिससत्तपुंजे कादूण तत्थ विदियवारमवणिदसंखेजभागं तिण्णि समभागे कादण पढम-विदिय-तदियपुंजेसु पक्खिविय पुणो आवलि. असंखे०भागमवट्टिद विरलणं कादूण पुव्वमवणिदअसंखे०भागमेत्तदव्वमावलि. असंखे०भागपडिभागियं समखंडं करिय दादण तत्थेयखंडपरिवजणेण सेससव्वखंडाणि घेत्तूण पढमपुंजे पक्खित्ते पुरिसवेदभागो होदि। पुणो सेसेगखंडं पुत्वविहाणेण दादण तत्थेयखंडमवसेसिय सेसासेसखंडाणि घेत्तूण विदियपुंजे पविखत्ते भयभागो होदि । एदं सेसेयखंडमवद्विदविरलणाए उवरि समपविभागेण दादूण तत्थेगेगखंडं परिचागेण सेसबहुखंडाणं संछहणविहाणे कीरमाणे दुगुछा-णqसय-अरदि-सोग-इत्थिवेदभागा जहाकम विसेसहीणा भवंति । णवरि णqसयवेद-अरदि-सोगभागेसु बंधगद्धापडिभागण संखे०भागमेत्तदव्वपक्खेवो जाणिय कायव्वो। संपहि हस्स-रदिदव्वं घेत्तणावलि० असंखे०भागण खंडेयणेयखंडमवणिय सेसदव्वं सरिसवेपुंजे कादृण तत्थेगजम्मि
तत्प्रायोग्य संख्यात रूपोंसे भाग देने पर वहाँ एक खण्डप्रमाण द्रव्य हास्य-रतिका होता है, इसलिये उसे घटाकर अलग रखना चाहिये। फिर शेष द्रव्यको उसके योग्य संख्यातरूपोंसे खण्डित करके उनमेंसे एक खण्डको पृथक् रखो। फिर शेष द्रव्यको आवलिके असंख्यातवें भागसे भाजित करके लब्ध एक भागको घटाकर पृथक् स्थापित करो। बाकी बचे द्रव्यके समान सात भाग करो। तथा दूसरी बार घटाये हुए संख्यातवें भागके तीन समभाग करके पहले, दूसरे और तीसरे समान भागोंमें मिला दो। फिर आवलिके असंख्यातवें भागका अवस्थित विरलन करके पहले घटाये हुए असंख्यातवें भागमात्र द्रव्यके आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण खण्ड करके विरलित राशि पर दे दो। उनमेंसे एक खण्डको छोड़कर शेष सब खण्डोंको लेकर पहले भागमें मिलाने पर पुरुषवेदका भाग होता है। फिर शेष बचे एक खण्डको पूर्व विधानके अनुसार देकर अर्थात् आवलिके असंख्यातवे भागका विरलन करके उसके ऊपर शेष बचे एक खण्डके आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण खण्ड करके दे दो। उनमेंसे एक खण्डको छोड़कर वाकी बचे सब खण्डोंको लेकर दूसरे भाग में मिलानेसे भयका भाग होता है । उस बाकी बचे एक खण्डको अवस्थित विरलनराशिके ऊपर समान खण्ड करके दो । उनमेंसे एक एक खण्डको छोड़कर उत्तरोत्तर शेष बहुत खण्डोंको तीसरे आदि भागमें क्रमसे मिलाने पर जुगुप्सा, नपुंसकवेद, अरति, शोक और स्त्रीवेदके भाग होते हैं जो क्रमसे विशेष हीन विशेष हीन होते हैं। इतना विशेष है कि नपुंसकवेद, अरति और शोकके भागोंमें बन्धकालके प्रतिभागके अनुसार संख्यात भागमात्र द्रव्यका प्रक्षेप जानकर करना चाहिये। अर्थात् इनमेंसे जिस प्रकृतिका जितना बन्धककाल है उसके प्रतिभागके अनुसार संख्यातवें भागमात्र द्रव्यको जानकर उसका प्रक्षेप उस उस अपने द्रव्यमें करना चाहिए। अब हास्य-रतिके द्रव्यको लेकर आवलिके असंख्यातवें भागसे उसे भाजित करके लब्ध एक भागको उसमेंसे घटाकर शेष द्रव्यके दो समान
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जयधवलाप्सहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ पुव्वमवणिददव्वमाणेदूण पक्खित्ते रदिभागो होदि । इयरो वि हस्सभागो होदि । एत्थ हस्समादि कादूण जाव पुरिसवेदो त्ति ताव सत्थाणभागाभागालावं भणियूण तदो सव्वसमासालावं वत्तइस्सामो। तं जहा-सम्मामि भागो थोवो। अपञ्चक्खाणमाणभागो असंखे०गुणो। कोधभागो विसेसाहिओ। मायामागो विसे० । लोभभागो विसे० । पञ्चक्खाणमाणभागो विसे० । कोधभागो विसे० । मायाभागो विसे० । लोभ भागो विसे० । अणंताणु०माणभागो विसे० । कोधभागो विसे० । मायाभागो विसे० । लोभभागो विसे० । सम्मत्तभागो विसे० । मिच्छत्तभागो विसे० । हस्सभागो अणंतगुणो। रदिभागो विसे० । इत्थिवेदभागो संखे०गुणो। सोगभागो विसे० । अरदिभागो विसे० । णqसयवेदभागो विसे० । दुगुंछाभागो विसे० । भयभागो विसे० । पुरिसवेदभागो विसे० । माणसंजलणभागो विसे० । कोधसंज०भागो विसे । मायासंज०भागो विसे० । लोभसंज०भागो विसे० । एत्थ भागाभागपरूवणावसरे अप्पाबहुआलावो असंबद्धो त्ति णाणादरणिज्जो, भागाभागविसयणिण्णयजणणट्टमेव परूविजमाणस्स तदालावस्स सुसंबद्धत्तदंसणादो। एवं पढमपुढवि०-तिरिक्खतिय-देवा सोहम्मादि जाव सव्वट्ठा त्ति । एवं विदियादिछपढवि-पंचिंतिरि०जोणिणी-पंचि०तिरि०अपज०-मणुसभाग करो । उनमेंसे एक भागमें पहले घटाये हुए एक भाग द्रव्यको लेकर जोड़ने पर रतिका भाग होता है और दूसरा भाग हास्यका होता है। यहाँ हास्यसे लेकर पुरुषवेद पर्यन्त स्वस्थान भागाभागका अलाप कहकर अब संक्षेपसे सब अलापोंको कहेंगे। वह इस प्रकार है-सम्यग्मिथ्यात्वका भाग थोड़ा है । उससे अप्रत्याख्यानावरणमानका भाग असंख्यातगुणा है। उससे क्रोधका भाग विशेष अधिक है। उससे मायाका भाग विशेष अधिक है। उससे लोभका भाग विशेष अधिक है। उससे प्रत्याख्यानावरणमोनका भाग विशेष अधिक है। उससे क्रोधका भाग विशेष अधिक है। उससे मायाका भाग विशेष अधिक है। उससे लोभका भाग विशेष अधिक है। उससे अनन्तानुबन्धीमानका भाग विशेष अधिक है। उससे क्रोधका भाग विशेष अधिक है। उससे मायाका भाग विशेष अधिक है। उससे लोभका भाग विशेष अधिक है। उससे सम्यक्त्वका भाग विशेष अधिक है। उससे मिथ्यात्वका भाग विशेष अधिक है। उससे हास्यका भाग अनन्तगुणा है। उससे रतिका भाग विशेष अधिक है। उससे स्त्रीवेदका भाग संख्यातगुणा है। उससे शोकका भाग विशेष अधिक है। उससे अरतिका भाग विशेष अधिक है। उससे नपुंसकवेदका भाग विशेष अधिक है। उससे जुगुप्साका भाग विशेष अधिक है। उससे भयका भाग विशेष अधिक है। उससे पुरुषवेदका भाग विशेष अधिक है। उससे मानसंज्वलनका भाग विशेष अधिक है। उससे क्रोधसंज्वलनका भाग विशेष अधिक है। उससे माया संज्वलनका भाग विशेष अधिक है। उससे लोभ संज्वलनका भाग विशेष अधिक है। इस भागाभागके कथनके अवसर पर अल्प बहत्वका कथन करना असम्बद्ध है यह मानकर उसका अनादर नहीं करना चाहिये, क्योंकि भागाभागविषयक निर्णयके करनेके लिए ही अल्पबहुत्वविषयक आलाप कहा गया है, अतः वह सुसम्बद्ध है। इसी प्रकार पहली पृथिवी, सामान्य तिर्यश्च, पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च, पञ्चेन्द्रियतियश्चपर्याप्त, सामान्य देव और सौधर्म स्वर्ग से लेकर सवर्थिसिद्धि तकके देवोंमें जानना चाहिए। इसी प्रकार दूसरी से लेकर छ पृथिवियोंमें पञ्चेन्द्रियतियश्चयोनिनी, पञ्चेन्द्रियतिर्यश्चअपर्याप्त,
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गा० २२]
उचरपवडिपदेसविहत्तीए भागाभागो अपज०-भवण-वाण जोदिसिया ति । णवरि दंसणतियदव्वमसंखे० खंडेदृण तत्थ बहुखंडा मिच्छत्तभागो होदि । सेसमसंखे०खंडं कादण तत्थ बहुखंडा सम्मामि०भागो होदि । सेसेगभागो सम्मत्तदव्वं होदि । एत्थालावे भण्णमाणे सम्मत्तभागो थोवो । सम्मामि०भागो असंखे०गुणो । अपञ्चक्खाणमाणभागो असंखे०गुणो। कोहभागो विसे० । मायामागो विसे० । उवरि पुव्वविहाणेण णेदव्वं जाव लोभसंजलणभागो त्ति । एवं जाव अणाहारि ति । मनुष्य अपर्याप्त, भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषियों में जानना चाहिए। इतना विशेष है कि दर्शनमोहनीयकी तीनों प्रकृतियोंके द्रव्यके असंख्यात खण्ड करके उनमेंसे बहुत खण्ड तो मिथ्यात्वके भाग होते हैं। शेष बचे खण्डोंके असंख्यात खण्ड करो। उनमेंसे बहुखण्ड प्रमाण द्रव्य सम्यग्मिथ्यात्वका भाग होता है। शेष एक भाग सम्यक्त्वका द्रव्य होता है। यहाँ आलाप कहते हैं-सम्यक्त्वका भाग थोडा होता है। सम्यग्मिध्यात्वका भाग असंख्यात अप्रत्याख्यानावरण मानका भाग असंख्यातगुणा होता है। क्रोधका भाग विशेष अधिक होता है। मायाका भाग विशेष अधिक होता है। आगे संज्वलन लोभके भाग पर्यन्त पहले कही हुई रीतिके अनुसार आलाप कहना चाहिये। अर्थात् जैसा पहले कह आये हैं वैसा ही कहना चाहिये । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
विशेषार्थ-आदेशसे नारकियोंमें भी मोहनीयके प्रदेशसत्कर्मका भागाभाग ओघकी ही तरह होता है । अन्तर केवल इतना है कि एक तो यहाँ सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका भागाभाग सबसे थोड़ा है। दूसरे नोकषायोंके विभागमें कुछ अन्तर है जो कि मूलमें बतलाया ही है। उसका खुलासा इस प्रकार है-नोकषायके सब द्रव्यका एक पुंज बनाकर उसमें उसके योग्य संख्यातसे भाग दो । लब्ध एक भाग प्रमाण द्रव्य हास्य और रतिका होता है अतः उसे अलग स्थापित कर दो। शेष द्रव्यमें फिर संख्यातसे भाग दो और लब्ध एक भाग प्रमाण द्रव्यको अलग स्थापित कर दो। शेष द्रव्यमें फिर आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग दो और लब्ध एक भागप्रमाण द्रव्यको अलग स्थापित कर दो। बाकी बचे द्रव्यके सात समान भाग करो । दूसरी बार संख्यातका भाग देकर जो द्रव्य अलग स्थापित किया था उसके तीन समान भाग करके सात समान भागोंमें से पहले, दूसरे और तीसरे भागमें एक एक भागको मिला दो। फिर आवलि के असंख्यातवें भागसे भाग देकर जो एक भाग द्रव्यको पृथक स्थापित किया था उसमें आवलि के असंख्यातवें भागसे भाग देकर एक भागको छोड़कर शेष सब द्रव्यको पहले समान भागमें मिलानेसे पुरुषवेदका भाग होता है जो नोकषायोंमें सबसे अधिक भाग है। छोड़े हुए एक भागमें आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग देकर एक भागको छोड़कर बाकी बचे शेष द्रव्यको दूसरे पुंजमें मिला देने पर भयका भाग होता है। शेष एक भागमें आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग देकर एक भागको छोड़कर बाकी बचे द्रव्यको तीसरे भागमें मिलाने पर जगप्साका भाग होता है। इसी प्रकार आगे भी बाकी बचे एक भागमें आवलिके असंख्यातवें भागका भाग देता जाय और बहुभागको चौथे आदि जमें मिलाता जाय । ऐसा करनेसे क्रमशः नपुंसक वेद, अरति, शोक और स्त्रीवेदका भाग उत्पन्न होता है। किन्तु नपुंसकवेद, अरति और शोकके सम्बन्धमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि इन तीनोंका द्रव्य लाते समय आवलीके असंख्यातवें भागको प्रतिभाग न मान कर इनके बन्धकालको प्रतिभाग मानना चाहिये और इस प्रकार जो उत्तरोत्तर संख्यात भाग द्रव्य प्राप्त हो उसे समान पुंजमें
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ ८०. जहण्णए पयदं। दुविहो णि०-ओघेण आदे० । ओघेण मोह० २८ पयडीणं सव्वजहण्णदव्वं घेत्तूण बुद्धीए एगपुंजं करिय तदो एदमणंतखंडं कादूण एगखंडं पुध द्वविय सेसमणंताभागमेत्तदव्वं घेत्तूण तं संखे०खंडं कादूण तत्थेयखंडं पि पुध दृविय सेससंखेजाभागमेत्तदव्वादो पुणरवि संखेजखंडाणि कादूणेयखंडमवणिय सेसबहुभागदव्वमावलि० असंखे०भागेण खंडियण तत्थेयखंडमवणिय सेसदव्वं सरिसपंचपुजे कादूण तत्थ विदियवारमवणिदसंखे०भागमेत्तदव्वं सरिसतिण्णिभागे काउणेगेगभागं पढम-विदिय-तदियपुंजेसु पक्खिविय पुणो आवलि० असंखे भागं विरलिय पुव्वमवणिदमसंखे०भागमेत्तदव्वं समपविभागेण दादूण तत्थ बहुभागे घेत्तूण पढमपुजे पक्खित्ते लोभसंज०भागो होदि। पुणो सेसेगरूवधरिदं पुव्वविहाणेण दादण तत्थेगरूवधरिदं मोत्तूण सेससव्वरूवधरिदाणि घेत्तृण विदियपुंजे पक्खित्ते भयभागो होदि । पुणो वि सेसेगखंडं पुव्वविहाणेण दादूण तत्थेगरूवधरिदपरिवजणेण सेस
मिलाकर इनका भाग प्राप्त करना चाहिये । हस्य और रतिका द्रव्य जो अलग स्थापित कर आये थे उसका बटवारा भी मूलमें बतलाई गई विधिके अनुसार कर लेना चाहिये । इस प्रकार भागाभाग करने पर नौ नोकषायोंमें किस क्रमसे भागाभाग प्राप्त होता है तथा मोहनीयकी सब प्रकृतियों में किस क्रमसे भागाभाग प्राप्त होता है इसका उल्लेख मूलमें किया ही है। इस प्रकार सामान्य नारकियोंमें प्रत्येक प्रकृतिको जिस क्रमसे द्रव्य प्राप्त होता है वह क्रम प्रथम पृथिवी आदि कुछ मार्गणाओंमें अविकल घट जाता है। दूसरीसे लेकर छठी पृथिवी तकके नारकी अदि कछ मार्गणाएँ हैं जिनमें यह क्रम अविकल बन जाता है पर कुछ विशेषता है जिसका उल्लेख मूलमें किया ही है। इसी प्रकार अनाहारक मागेणा तक जहाँ जो प्रक्रिया सम्भव हो उसके अनुसार भागाभाग जान लेना चाहिये ।
६८०. अब जघन्यसे प्रयोजन है । निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीय कर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब जघन्य द्रव्यको लेकर बुद्धिके द्वारा उस द्रव्यका एक पुंज करो। पुनः उसके अनन्त खण्ड करके उनमें से एक खण्डको पृथक् स्थापित करो और शेष अनन्त खण्डोंके द्रव्यको लेकर उस द्रव्यके संख्यात खण्ड करो । उनमसे एक खण्डको पृथक स्थापित करके बाकी बचे संख्यात खण्डोंके द्रव्यके फिर संख्यात खण्ड करो और एक खण्डको उसमेंसे घटाकर शेष बहुभाग द्रव्यमें आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग दो। लब्ध एक भागप्रमाण द्रव्यको उसमंसे घटाकर शंष द्रव्यक समान पांच भाग करो। दूसरी बार अलग स्थापित किये गये संख्यातवें भागप्रमाण द्रव्यके तीन समान भाग करके पांच समान भागोंमें से पहले, दूसरे और तीसरे भाग में एक एक भांगको मिला दो। फिर आवलिके असंख्यातवें भागका विरलन करके पहले घटाकर अलग स्थापित किये हुए असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्यक समान भाग करके उस पर दे दो। उन भागोंमेंसे बहु भाग द्रव्यको लेकर पाँच भागोंमें से पहले भागमें जोड़ने पर लोभ संज्वलनका भाग होता है। शेष बचे एक भागके समान भाग करके पूर्व कहे विधानके अनुसार विरलित राशि पर एक एक भागको दो। उनमेंसे भी एक भागको छोड़कर शेष सब भागोंको लेकर पाँच भागोंमेंसे दूसरे भागमें जोड़ देने पर भयका भाग होता है। बाकी बचे एक भागके समान भाग करके पूर्व विधान के अनुसार विरलित राशि पर एक एक भाग दो । उनमेंसे एक भागको छोड़कर शेष सब भागोंको एकत्र करके पाँच भागोंमेंसे तीसरे
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहसीए भागाभागो सव्वरूवधरिदाणि संपिडिय तदियपुजे पक्खित्ते दुगुंछाभागो होदि । पुणो वि सेसेगावधरिदं तहेव दादूण तत्थ बहुखंडाणं चउत्थपुंज पि पक्खेवे कदे अरदिभागो होदि । सेसेगखंडे वि पंचमपुंजे पक्खित्ते सोगभागो होदि । एत्थ दुगुंछा-भय-लोभपुंजाणं संखेजभागब्भहियत्तकारणं धुवबंधी होणेदे हस्स-रदिबंधकाले वि अहिपदव्यसंचयं लहंति त्ति वत्तव्वं । अरदि-सोगाणं पुण तण्णत्थि त्ति । पुणो पढमवारमवणिदसंखे०भागमेत्तदव्वं पलिदो० असंखे भागमेत्तं खंडं कादूण तत्थेयखंडं पुध हविय सेससम्बखंडदव्वमावलि० असंखे०भागेण खंडेयूणेयखंड पुध हविय सेससव्वदव्वं सरिसवेपुंजे करिय तत्थ पढमपुंजम्मि पुध दुविददव्वे पक्खित्ते रदिभागो होदि । इयरो वि हस्सभागो होइ । पुणो पुव्वमवणिदअसंखे भागमेत्तदव्वं पलिदोवमस्स असंखे भागेण खंडिय तत्थेयखंडं पुध दुविय पुणो सेसअसंखेजाखंडाणि घेत्तूण पुणो वि पलिदो. असंखे०भागमेत्तखंडाणि करिय तत्थेगखंडं घेत्तूण सेससव्वदव्वं सरिसवपुंजे करिय तत्थ पढमपुंजे तम्मि पक्खित्ते इथिवेदभागो होदि । विदियपुंजो वि णqसयभागो होदि । एत्थ कारणं सुगमं । पुणो पुव्वमवणिदअसंखे भागम्मि समयाविरोहेण भागाभागे कदे कोहसंजल भागो थोवो ६ । माणसंजल भागो विसे० ८। केत्तिय
भागमें मिला देने पर जुगुप्साका भाग होता है। फिर बाकी बचे एक भागको उसी प्रकार विरलित राशि पर देकर उसके भागोंमें से बहु भागको पाँच भागोंमें से चौथे भागमें मिलाने पर अरतिका भाग होता है। बाकी बचे एक भागको पाँचवें भागमें मिलाने पर शोकका भाग होता है। यहाँ जुगुप्सा, भय और लोभका द्रव्य अरति और शोकसे संख्यातवें भाग अधिक कहना चाहिये । अधिक होनेका कारण यह है कि ये प्रकृतियाँ ध्रुवबन्धी हैं अतः हास्य और रतिके बन्धकालमें भी अधिक द्रव्य संचयको प्राप्त करती हैं। किन्तु अरति और शोक ध्रुववन्धी नहीं हैं अतः, इनका द्रव्य भयादिकसे हीन होता है। फिर पहली बार घटाकर अलग रखे हुए संख्यातवें भागमात्र द्रव्यके पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र खण्ड करो। उनमेंसे एक खण्ड को पृथक् स्थापित करके शेष सब खण्डोंके द्रव्यमें आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग दो । लब्ध एक खण्डको पृथक् स्थापित करके शेष सब द्रव्यके दो समान भाग करो। उनमें से पहले भागमें पृथक् स्थापित किये गये द्रव्यको मिलाने पर रतिका भाग होता है और दूसरा भाग हास्यका होता है । फिर पहले घटाये हुए असंख्यातवें भागप्रमाण द्रव्यको पल्यके असंख्यातवें भागसे भाजित करके उसमेंसे लब्ध एक भागप्रमाण द्रव्यको पृथक् स्थापित करो। फिर बाकी बचे असंख्यात
गोंको लेकर फिर भी उनके पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण खण्ड करो। उनमेंसे एक खण्डको लेकर शेष सब द्रव्यके दो समान भाग करो। उन भागोंमें से पहले भागमें उस एक खण्डको मिलाने पर स्त्रीवेदका भाग होता है और दूसरा भाग नपुंसकवेदका होता है। स्त्रीवेदसे नपुंसकवेदका भाग कम होनेका कारण सुगम है। फिर पहले घटाये हुए असंख्यातवें भागमें आगमके अविरुद्ध भागाभाग करने पर क्रोधसंज्वलनका भाग थोड़ा होता है और मान संज्वलनका भाग विशेष अधिक होता है। कितना अधिक होता है ? तीसरे भाग मात्र अधिक होता है। जैसे यदि क्रोध संज्वलनका द्रव्य ६ है तो मान संज्वलनका भव ८ होता है। पुरुषवेदका
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ मेत्तेण ? तिभागमेत्तेण । पुरिसवेदभागो विसेसाहिओ १२ । के०मेत्तेण ? दुभागमेत्तेण । मायासंजल भागो विसे० पयडि विसेसमेत्तेण ।
६८१. पुणो पुव्वमवणिदअणंतिमभागमेत्तसव्वघादिदव्वं पलिदो० असंखे०भागेण खंडेयूण तत्थेयखंडं पुध दृविय सेससव्वखंडाणि घेत्तणावलि० असंखे भागेण खंडेयूण तत्थेयखंड पि पुध दृविय सेससव्वदव्वमट्ठसरिसपुंजे कादूण पुणो आवलि० असंखे भागमवट्ठिदविरलणं कादूण तदो आवलि० असंखे०भागपडिभागेण पुव्वमवणिदेयखंडमेदिस्से विरलणाए समपविभागेण दादूण तत्थेयखंडं मोत्तूण सेससव्वरूवधरिदखंडाणि घेत्तण पढमपुंजम्मि पक्खित्ते पञ्चक्खाणलोभभागो होदि । एवं पुणो पुणो पुव्वविहाणं जाणियण कीरमाणे माया-कोध-माण-अपञ्चक्खाणलोभ-माया-कोध-माणभागा जहाकममुप्पजंति ।
६८२. पुणो पुव्वमवणिदअसंखे०भागमेत्तदव्वंप लिदोवमासंखे०भागपडिभागियं घेत्तूण तस्स पलिदो० असंखे भागमेत्तखंडाणि कादूण तत्थेयखंडपरिहारेण सेससव्वखंडेसु गहिदेसु मिच्छत्तभागो होदि । पुणो सेसमसंखे भागं घेत्तूण तत्थ पलिदोवमस्स असंखे०भागेण खंडेयणेयखंडं पुध दृविय सेससव्वखंडाणि घेत्तूणावलि. असंखे० भाग विशेष अधिक है। कितना अधिक है ? दो भाग मात्र अधिक है। अर्थात् यदि मान संज्वलनका द्रव्य ८ है तो पुरुषवेदुका द्रव्य १२ होता है । माया संज्वलनका भाग विशेष अधिक है। विशेषका प्रमाण प्रकृतिमात्र है।
६८१. देशघाती द्रव्यका भागाभाग कहकर अब सर्वघाती द्रव्यका भागाभाग कहते हैं। पहले सब द्रव्यमें अनन्तका भाग देकर जो अनन्तवें भागप्रमाण सर्वघाती द्रव्य अलग स्थापित किया था उसको पल्यके असंख्यातवें भागसे भाजित करके उसमेंसे एक भागको पृथक् स्थापित करो। शेष सब भागोंको लेकर आवलिके असंख्यातवें भागसे भाजित करके उसमेंसे भी एक भागको पृथक् स्थापित करो। शेष सब द्रव्यके आठ समान भाग करो। फिर आवलिके असंख्यातवें भागको अवस्थित विरलन करके पहले आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग देकर जो एक भाग घटाकर अलग स्थापित किया था उसके समान विभाग करके इस विरलित राशि पर दे दो। उन भागोंमेंसे एक भागको छोड़कर शेष सब विरलितरूपों पर दिये गये भागोंको एकत्र करके आठ भागोंमेंसे प्रथम भोगमें मिलाने पर प्रत्याख्यान लोभका भाग होता है। इस प्रकार पुनः पुनः पहले कहे गये विधानको जानकर उसके अनुसार करने पर अर्थात् बाकी बचे एक एक भागके इसी प्रकार विरलित राशिप्रमाण खण्ड कर करके
और विरलित राशिपर उन्हें दे देकर तथा एक भागको छोड़ शेष सब भागोंको एकत्र कर करके बाकी बचे सात समान भागोंमें क्रम क्रमसे मिलाने पर प्रत्याख्यानावरण माया, क्रोध, मान और अप्रत्याख्यानावरण लोभ, माया, क्रोध तथा मानके भाग क्रमशः उत्पन्न होते हैं।
६८२. पुनः पहले पल्योपमके असंख्यातवें भागसे भाग देकर घटाये हुए असंख्यातवें भागमात्र द्रव्यको लेकर उसके पल्यके असंख्यातवें भागमात्र खण्ड करके उनमेंसे एक खण्डको छोड़कर शेष सब खण्डोंके मिलाने पर मिथ्यात्वका भाग होता है। पनः बाकी बचे असंख्यातवें भागको लेकर उसके पल्यके असंख्यातवें भाग खण्ड करके उनमेंसे एक खण्डको पृथक् स्थापित करके शेष सब खण्डोंको लेकर उनमें आवलिके असंख्यातवें भागसे भाग दो
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेविहत्तीए भागाभागो
६७ भागेण भागलद्धं तत्तो पुध दृविय सेससव्वदव्वं चत्तारि समपुजे कादूण तदो आवलि. असंखे०भागं विरलिय पुध ढविददव्वमेदिस्से विरलणाए उवरि समखंडं करिय दादण तत्थेयखंडपरिच्चारण सेसबहुखंडेसु पढमपुंजे पक्खित्तेसु अणंताणु०लोभमागो होदि । एवं पुणो पुणो वि कीरमाणे माय-कोध-माणभागा जहाकमं भवंति । पुणो पव्वमवणिदसंखे भागमेत्तदव्वं पलिदो० असंखे०भागमेत्तखंडाणि कादूण तत्थेयखंडमेत्तो सम्मत्तभागो होदि । सेससव्वखंडाणि घेत्तूण सम्मामि०भागो होदि ।
६८३. संपहि एत्थालावे भण्णमाणे सम्मत्तभागो थोवो । सम्मामि०भागो असंखे गुणो। अणंताणु०माणभागो असंखे गुणो। कोधभागो विसेसाहिओ। मायाभागो विसे० । लोभभागो विसे० । मिच्छत्तभागो असंखे गुणो । अपच्चक्खाणमाणभागो असंखे०गुणो । कोधभागो विसे० । मायाभागो विसे० । लोभभागो विसे० । पञ्चक्खाणमाणभागो विसे । कोधभागो विसे । मायाभागो विसे०। लोभमागो विसे०। कोहसंजल०भागो अणंतगुणो। माणसंजल भागो विसेसा० । परिस०भागो विसे । मायासंजल०भागो विसे० । णउंस०भागो असंखे गुणो। इत्थिवेदभागो विसे० । हस्सभागो असंखे०गुणो । रदिभागो विसेसा० । सोगभागो संखे गुणो। अरदिभागो विसे० । दुगुंछभागो विसे० । भयभागो विसे० । लोभसंज. विसे० । एवं मणुसा । लब्ध एक भागको पृथक् स्थापित करके शेष सब द्रव्यके चार समान भाग करो। फिर आवलिके असंख्यातवें भागका विरलन करके पृथक् स्थापित किये गये द्रव्यको समभाग करके विरलन राशि पर दो। उनमेंसे एक भागको छोड़कर शेष सब भागोंको चार समान भागोंमेंसे पहले भागमें मिला देने पर अनन्तानुबन्धी लोभका भाग होता है। इसी प्रकार पुनः पुनः करने पर माया, क्रोध और मानके भाग यथाक्रमसे होते हैं। उसके बाद पहले घटाये हुए असंख्यातवें भागमात्र द्रव्यके पल्यके असंख्यातवें भागमात्र खण्ड करके उनमेंसे एक खण्ड मात्र द्रव्य सम्यक्त्वका भोग होता है। शेष सब खण्डोंको लेकर सम्यग्मिथ्यात्वका भाग होता है।
६८३. अब यहां आलापको कहते हैं-सम्यक्त्वका भाग थोड़ा है। सम्यग्मिथ्यात्वका भाग असंख्यातगुणा है। अनन्तानुबन्धी मानका भाग असंख्यातगुणा है। क्रोधका भाग विशेष अधिक है। मायाका भाग विशेष अधिक है। लोभका भाग विशेष अधिक है। मिथ्यात्वका भाग असंख्यातगुणा है। अप्रत्याख्यानावरण मानका भाग असंख्यातगुणा है। क्रोधका भाग विशेष अधिक है। मायाका भाग विशेष अधिक है। लोभका भाग विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मानका भाग विशेष अधिक है। क्रोधका भाग विशेष अधिक है। मायाका भाग विशेष अधिक है। लोभका भाग विशेष अधिक है। क्रोधसंज्वलनका भाग अनन्तगुणा है। मानसंज्वलनका भाग विशेष अधिक है। पुरुषवेदका भाग विशेष अधिक है। मायासंज्वलनका भाग विशेष अधिक है। नपुसकवेदका भाग असंख्यातगुणा है । स्त्रीवेदका भाग विशेष अधिक है। हास्यका भाग असंख्यातगुणा है। रतिका भाग विशेष अधिक है। शोकका भाग संख्यातगुणा है। अरति का भाग विशेष अधिक है। जुगुप्साका भाग विशेष अधिक है। भयका भाग विशेष अधिक है
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ मणुसपज्जत्ता एवं चेव । णवरि णवूस भागस्सुवरि इत्थिवेदभागो असंखे गुणो कायव्वो। मणुसिणीसु सम्मत्तमादि कादण पुव्वविहाणेण भणिदण तदो कोहसंज०भागस्सुवरि माणसंज०भागो विसे० । मायासंज०भागो विसे० । इत्थिवेदभागो असंखे गुणो । णस०भागो असंखे०गुणो । पुरिस०भागो असंखे गुणो। हस्सभागो संखे०गुणो । उवरि णस्थि विसेसो।
८४. आदेसेण णेरइय० मोह. २८ पयडीणं सव्वजह० पदेसपिंडं घेत्तूण एवमणंतखंडं कादूण तत्थेयखंडमेत्तसव्वघाइदव्वस्स भागाभागे कीरमाणे ओधभंगो। पुणो सेसबहुभागमेत्तदेसघादिदव्वं घेत्तूण एवं संखे०खंड कादूण तत्थेयखंडं पुध दृविय पुणो संखेज्जाभागमेत्तसेसदव्व म्मि समयाविरोहेण भागाभागे कदे सोगभागो थोवो । अरदिभागो विसे० पयडिवि० । दुगुंछाभागो विसे० रदिबंधगद्धासंचिददव्वमेत्तेण । भयभागो विसे० पयडि विसे । माणसंज०भागो विसे० चउब्भागमेत्तेण । कोहसंज०भागो विसे० पयडि विसे०। मायासंज०भागो विसे० पयडिविसे० । लोभसंज०भागो विसे० पयडिविसे० ।
६ ८५. संपहि पव्वमवणिदसंखे०भागमेत्तं पणो वि संखे०खंडं कादण तत्थेयखंडं पुध हविय सेससंखेजे भागे घेत्तूणावलि० असंखे भागेण खंडेयूणेगखंडं घेत्तूण सेससव्वऔर लोभसंज्वलनका भाग विशेष अधिक है । इसी प्रकार सामान्य मनुष्यों में जानना चाहिये । मनुष्य पर्याप्तकोंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिये। इतना विशेष है कि इनमें नपुंसकवेदके आगे स्त्रीवेदका भाग असंख्यातगुणा करना चाहिये । मनुष्यिनियोंमें सम्यक्त्वसे लेकर पूर्वोक्त विधानके अनुसार कहकर उसके बाद इस प्रकार कहना चाहिये-क्रोधसंज्वलनके भागसे आगे मान संज्वलनका भाग विशेष अधिक है । माया संज्वलनका भाग विशष अधिक है। स्त्रीवेदका भाग असंख्यातगुणा है। नपुंसकवेदका भाग असंख्यातगुणा है । पुरुषवेदका भाग असंख्यातगुणा है। हास्यका भाग संख्यातगुणा है। इसके आगे कोई अन्तर नहीं है।
८४. आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी २८ प्रकृतियोंके सबसे जघन्य प्रदेशसमूहको लेकर उसके अनन्त खण्ड करो। उनमेंसे एक खंण्डप्रमाण सर्वघाती द्रव्य है । उसका भागाभाग ओघके समान जानना चाहिए। शेष बहुभागमात्र देशघाती द्रव्य है। उसे लेकर उसके संख्यात खण्ड करो । उनमेंसे एक खण्डको पृथक स्थापित करके शेष बचे संख्यात खण्डप्रमाण द्रव्यमें आगमसे विरोध न आये इस तरह भागाभाग करने पर शोकका भाग थोड़ा होता है। अरतिका भाग विशेष अधिक होता है। विशेषका प्रमाण प्रकृतिमात्र है । जुगुप्साका भाग विशेष अधिक है । विशेषका प्रमाण रतिके बन्धक कालमें संचित हुआ द्रव्यमात्र है । भयका भाग विशेष अधिक है। विशेषका प्रमाण प्रकृतिमात्र है। मानसंज्वलनका भाग विशेष अधिक है। विशेषका प्रमाण चतर्थभागमात्र है। क्रोधसंज्वलनका भाग विशेष अधिक है। का प्रमाण प्रकृतिमात्र है । मायासंज्वलनका भाग विशेष अधिक है। विशेषका प्रमाण प्रकृतिमात्र है। लोभ संज्वलनका भाग विशेष अधिक है । विशेषका प्रमाण प्रकृतिमात्र है।
६८५. अब पहले घटाये हुए संख्यातवें भागमात्र द्रव्यके फिर भी संख्यात खण्ड करो। उनमेंसे एक खण्डको पृथक् स्थापित करके शेष संख्यात खण्डोंको लेकर उनमें आवलीके
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गा० २२] उत्तरपयडि पदेसविहत्तीए भागाभागो दव्वं सरिसवेपुंजे कादूण तत्थेगपुंजम्मि अणंतरगहिददव्वे पक्खित्ते रदिभागो होदि । इयरो वि हस्सभागो। पणो पव्वमवणिदसंखे०भागमेत्तदव्वमसंखे० खंडे कादण तत्थ बहुखंडेसु गहिदेसु पुरिस भागो होदि । पुणो सेसेगमागमेत्तदव्वं संखे०खंडं कादूण तत्थ बहुखंडा णवूस भागो होदि । इदरेगभागो वि इत्थिवेदस्स होदि ।
___$८६. संपहि एत्थ सव्वसमासालावे भण्णमाणे सम्मत्तभागो थोवो । सम्मामि० भागा असंखे गुणा । अणंताणु०माणभा० असंखेगुणा । कोहभा० विसे० । मायामा० विसे० । लोभभा० विसे० । मिच्छत्तभा० असंखे गुणा । अपञ्चक्खाणमाणभा० असंखे०गुणा । कोधभा० विसे० । मायामा० विसे० । लोभभा० विसे० । पच्चक्खाणमाणभा० विसे । कोधभा० विसे । मायाभा० विसे० । लोभमा० विसे० ! इत्थिवेदभा० अणंतगुणा । णqसभा० संखे गुणा । पुरिसभा० असंखे गुणा । हस्सभा० संखेगुणा । रदिभा० विसे० । सोगमा० असंखे गुणा । अरदिभा० विसे । दुगुंछामा० विसे । भयभा० विसे० । माणसंज०भागा विसे । कोहसंज०भागा विसे । मायासंजभागा विसे । लोभसंज०भागा विसे । एवं पढमादि जाव सत्तमपुढवि-सव्वतिरिक्ख-मणुसअपज. देवा भवणादि जाव सव्वट्ठा त्ति । एवं जाव अणाहारि त्ति ।
एवमुत्तरपयडिपदेसभागाभागो समत्तो। असंख्यातवें भागसे भाग देकर लब्ध एक भाग प्रमाण द्रव्यको लेकर शेष सब द्रव्यके दो समान पुंज करो। उनमेंसे एक पुंज में पहले घटाकर ग्रहण किये गये एक भागप्रमाण द्रव्यको जोड़ दो तो रतिका भाग होता है और दूसरा पुंज हास्यका भाग होता है । फिर पहले घटाये हुए संख्यातवें भागमात्र द्रव्यके असंख्यात खण्ड करो। उनमें से बहुत खण्डोंको लो। यह पुरुषवेदका भाग होता है। फिर बाकी बचे एक भागमात्र द्रव्यके संख्यात खण्ड करो। उनमें से बहुखण्डप्रमाण द्रव्य नपुंसकवेदका भाग होता है। बाकी बचा एक भागमात्र द्रव्य स्त्रीवेदका होता है।
८६. अब यहां पर सबका जोड़ करके आलापको संक्षेपसे कहते हैं-सम्यक्त्वका भाग थोड़ा है। सम्यग्मिथ्यात्वका भाग असंख्यातगुणा है। अनन्तानुबन्धीमानका भाग असंख्यातगुणा है । क्रोधका भाग विशेष अधिक है। मायाका भाग विशेष अधिक है। लोभका भाग विशेष अधिक है। मिथ्यात्वका भाग असंख्यातगुणा है । अप्रत्याख्यानावरण मानका भाग असंख्यातगणा है। क्रोधका भाग विशेष अधिक है। मायाका भाग विशेष अधिक है। लोभका भाग विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मानका भाग विशेष अधिक है। क्रोधका भाग विशेष अधिक है । मायाका भाग विशेष अधिक है । लोभका भाग विशेष अधिक है। स्त्रीवेदका भाग अनन्तगुणा है । नपुंसकवेदका भाग संख्यातगुणा है। पुरुषवेदका भाग असंख्टातगुणा है । हास्यका भाग संख्यातगुणा है। रतिका भाग विशेष अधिक है। शोकका भाग संख्यातगुणा है। अरतिका भाग विशेष अधिक है । जुगुप्साका भाग विशेष अधिक है । भयका भाग विशेष अधिक है। मानसंज्वलनका भाग विशेष अधिक है। क्रोध संज्वलनका भाग विशेष अधिक है। माया संज्वलनका भाग विशेष अधिक है और लोभ संज्वलनका भाग विशेष अधिक है। इसप्रकार पहली से लेकर सातवीं पृथिवीमें सब तिर्यश्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासी से लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जानना चाहिए। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना च
इस प्रकार उत्तर प्रकृतिप्रदेशविभक्तिमें भागाभाग समाप्त हुआ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ६८७. सव्वपदेसविहत्ति-णोसव्वपदेसविहत्तियाणुगमेण दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । तत्थ ओघेण मोह० अट्ठावीसपयडीणं सव्वपदेसग्गं' सव्वविहत्ती । तदूर्ण णोसव्वविहत्ती। एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
८८. उकस्साणुक्कस्सपदेसवि० दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण मोह० अहावीसं पयडीणं सव्वुकस्सपदेसग्गं उक्कस्सविहत्ती। तदूणमणुक्कस्सविहत्ती । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
६ ८९. जहण्णाजहणाणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसे०। ओघेण मोह० अट्ठावीसं पयडीणं सव्वजहण्णपदेसग्गं जहण्णविहत्ती। तदुवरि अजहण्णवि० । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
९०. सादिय-अणादिय-धुव-अद्भुवाणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसे 1 मिच्छत्तअट्ठक०-अहणोक० उक्क० अणुक० ज० किं सादि० ४ १ सादि-अद्धवं । अज० किं सादि० ४ ? अणादि० धुवमद्धवं वा । पुरिस०-चदुसंज० उक० जह० कि० सा०२४ सादि-अद्ध्वं । अज० किं० सादि० ४ १ अणादि० धुवमद्धवं वा । अणुक्क० किं सादि०
६८७. सर्वप्रदेशविभक्ति और नोसर्वप्रदेशविभक्ति अनुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । उनमेंसे ओघसे मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियोंके सब प्रदेशसमूहक सर्वविभक्ति कहते है और इससे कमको नोसर्वविभक्ति कहते हैं। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
६८८. उत्कृष्टानुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति अनुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियोंके सबसे उत्कृष्ट प्रदेड और उससे कमको अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति कहते हैं। इस प्रकार अनाहारीपर्यन्त ले जाना चाहिये।
६८९. जघन्य-अजघन्य अनुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी अट्ठाईस प्रकृतियोंके सबसे जघन्य प्रदेशसमूहको जघन्यविभक्ति कहते हैं और उससे अधिक प्रदेशसमूहको अजघन्य प्रदेशविभक्ति कहते हैं । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये।
९०. सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुवानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्व, आठ कषाय और आठ नोकषायोंकी उत्कृष्ट अनुत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशविभक्ति क्या सादि है, अनादि है, ध्रुव है अथवा अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। अजघन्य प्रदेशविभक्ति क्या सादि है, अनादि है, ध्रव है अथवा अध्रव है ? अनादि, ध्रुव और अध्रव है । पुरुषवेद और चारों संज्वलन कषायोंकी उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशविभक्ति क्या सादि है, अनादि है, ध्रुव है अथवा अध्रव है ? सादि और अध्रुव है। अजघन्य प्रदेशविभक्ति क्या सादि है, अनादि है, ध्रुव है अथवा अध्रुव है ? अनादि, ध्रुव और अध्रुव है। अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति क्या सादि है, अनादि है, ध्रुव है अथवा अध्रुव है ? सादि, अनादि, ध्रुव और
ओपन
समहको उत्कृ
कहतह
१. श्रा०प्रती 'सवजहण्णपदेसग्गं' इति पाठः । २. ता.आ. प्रत्योः 'उक्क० किं० सा०' इति पाठः।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सादिआदिपरूवणा ४१ सादि० अणादि० धुव० अद्धवं वा । णवरि' लोभ संजल० अजह० अणुक्कस्सभंगो। सम्म०-सम्मामि० चत्तारि पदा कि सादि० ४ १ सादि० अद्भुवं वा । अणंताणु०४ उक्क० अणुक० जह० किं सादि० ४ ? सादि० अद्धवं वा । अजह० किं सादि० ४ १ सादि० अणादि० धुव० अद्धवा० । ___६९१. आदेसेण णेरइय० मोह० अट्ठावीसं पय० उक्क० अणुक्क० जह० अजह० पदेसविह० कि सादि० ४ ? सादि० अद्धवा० । एवं चदुगदीसु । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । अध्रुव है । इतना विशेष है कि लोभ संज्वलनकी अजघन्य प्रदेशविभक्तिमें अनुत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिके समान भंग होते हैं । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिमें चारों बिभक्तियाँ क्या सादि है, अनादि हैं, ध्रुव हैं अथवा अध्रुव हैं ? सादि और अध्रुव हैं। अनन्तानुबन्धिचतुष्कमें उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशविभक्ति क्या सादि है, अनादि है, ध्रुव है अथवा अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। अजघन्य प्रदेशविभक्ति क्या सादि है, अनादि है, ध्रुव है अथवा अध्रुव है ? सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव है।
६९१. आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी अट्ठाईस प्रतियोंकी उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट, जघन्य और अजघन्य प्रदेशविभक्ति क्या सादि है, अनादि है, ध्रुव है अथवा अध्रुव है ? सादि और अध्रुव है। इसी प्रकार चारों गतियोंमें जानना चाहिए। इस प्रकार अनाहारीपर्यन्त ले जाना चाहिए।
विशेषार्थ-मिथ्यात्व, मध्यकी आठ कषाय और पुरुष वेदके सिवा आठ नोकषाय इनका उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट सत्त्व कादाचित्क है तथा इनका जघन्य प्रदेशसत्कर्म क्षपणाके अन्तिम समयमें होता है, अतः उक्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट, अनुत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशसत्कर्म सादि और अध्रुव है । किन्तु इन प्रकृतियोंका अजघन्य प्रदेशसत्कर्म अनादि, ध्रुव और अध्रुव है । क्षपणाके अन्तिम समयमें जघन्य प्रदेशसत्कर्मके प्राप्त होनेके पूर्व तक अनादिसे अजघन्य प्रदेशसत्कर्म रहता है इसलिये तो अनादि है। तथा अभव्योंकी अपेक्षा ध्रुव और भव्योंकी अपेक्षा अध्रुव है। पुरुषवेदके उदयसे क्षपकश्रेणी पर चढ़ा हुआ गुणितकाशवाला जो जीव जब स्त्रीवेदकी अन्तिम फालिको पुरुष वेदमें संक्रमित करता है तब एक समयके लिये पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। यही जीव जब पुरुषवेद और छह नोकषायोंके द्रव्यको संज्वलन क्रोधमें संक्रमित करता है तब संज्वलन क्रोधकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। यही जीव जब संज्वलन क्रोधके द्रव्यको संज्वलन मानमें संक्रमित करता है तब संज्वलन मानकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। यही जीव जब संज्वलन मानके द्रव्यको संज्वलन मायामें संक्रमित करता है तब संज्वलन मायाकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है । तथा जब यही जीव संज्वलन मायाके द्रव्यको संज्वलन लोभमें संक्रमित करता है तब संज्वलन लोभकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। तथा इन पाँचोंका जघन्य प्रदेशसत्कर्म अपनी अपनी क्षपणाके अन्तिम समयमें होता है। चूंकि ये उत्कृष्ट और जघन्य प्रदेशसत्कर्म एक समयके लिए होते हैं, इसलिये सादि और अध्रुव हैं। तथा इन पांचों प्रकृतियोंकी अजघन्य प्रदेशविभक्ति अनादि, ध्रुव और अध्रुव है। क्षपणाके अन्तिम समयमें जघन्य प्रदेशसत्कर्मके प्राप्त होनेके पूर्व तक अनादिसे
१ ता० आ० प्रत्योः 'अडवाणु णवरि' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पदेसविहत्ती ५ ९२. एवं सामित्तसुत्तेण सूचिदअणियोगद्दाराणं परूवणं कादूण संपहि मिच्छत्तस्स सामित्तपरूवणमुत्तरसुत्तं भणदि
मिच्छत्तस्स उकस्सपदेसविहत्ती कस्स ? ६ ९३. किं णेरइयस्स तिरिक्खस्स मणुसस्स देवस्स वा त्ति एदेण पुच्छा कदा। एवंविहस्स संदेहस्स विणासणट्टमुत्तरसुत्तं भणदि
___बादरपुढविजीवेसु कम्महिदिमच्छिदाउओ तदो उवट्टिदो तसकाए वेसागरोवमसहस्साणि सादिरेयाणि अच्छिदाउओ अपच्छिमाणि तेत्तीसं अजघन्य प्रदेशसत्कर्म रहता है इसलिये तो वह अनादि है। तथा अभव्योंकी अपेक्षा ध्रुव और भव्योंकी अपेक्षा अध्रुव है। यहाँ इतनी विशेषता है कि संज्वलनलोभका जघन्य प्रदेशसत्कर्म क्षपितकाशके अधःप्रवृतकरणके अन्तिम समयमें होता है, अतः इसके अजघन्य प्रदेशसत्कर्मका उक्त तीनोंके साथ सादि विकल्प भी बन जाता है। तथा इन पाँचों प्रकृतियोंका अनुत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव चारों प्रकारका है। इन प्रकृतियोंके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मके स्वामीका उल्लेख पहले किया ही है उसके पहले अनुत्कृष्ट अनादि है और उत्कृष्टके बाद सादि है, अभव्योंकी अपेक्षा ध्रुव है और भव्योंकी अपेक्षा अध्रुव है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता सादि और सान्त है इसलिये इनके चारों पद सादि और अध्रुव हैं। अनन्तानुबन्धीके उत्कृष्ट और अनुत्कृष्ट कदाचित्क हैं तथा जघन्य क्षपणाके अन्तिम समयमें होता है इसलिये ये तीनों पद सादि और अध्रुव हैं। किन्तु अजधन्य पदमें सादि, अनादि, ध्रुव और अध्रुव ये चारों विकल्प बन जाते हैं । अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना होनेके पूर्व तक अजघन्यपद अनादि है और विसंयोजनाके बाद अनन्तानुबन्धीसे पुनः संयुक्त होने पर सादि है। तथा अभव्योंकी अपेक्षा ध्रुव और भव्योंकी अपेक्षा अध्रुव है। यह तो ओघसे विचार हुआ। आदेशसे विचार करने पर नरकगति आदि जो मार्गणाएँ अनित्य हैं अर्थात् एक जीवके बदलती रहती हैं उन मार्गणाओंमें उत्कृष्ट आदि चारों पद सादि और अध्रव हैं। किन्तु अचक्षुदर्शन और भव्य मार्गणामें ओघके समान व्यवस्था वन जाती है। हाँ इतनी विशेषता है कि भव्यके ध्रुवपद नहीं होता। यद्यपि अभव्यमार्गणा नित्य है किन्तु उसके आदेश उत्कृष्ट आदि पद कादाचित्क हैं, इसलिये वहाँ चारों पदोंके सादि और अध्रुव ये दो पद ही बनते हैं।
६९२. इस प्रकार एक जीवकी अपेक्षा स्वामित्वका निर्देश करनेवाले चूर्णिसूत्रके द्वारा सूचित अनुयोगद्वारोंका कथन करके अब मिथ्यात्वके स्वामीको बतलानेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? क्या नारकीके होती है, तिर्यश्च के होती है, मनुष्यक होती है अथवा देवके होती है ?
६९३. इस सूत्रके द्वारा प्रश्न किया गया है। इस प्रकारके सन्देहका विनाश करनेके लिए आगेका सूत्र कहते हैं
जो बादर पृथिवीकायिक जीवों में कर्मस्थितिप्रमाण काल तक रहा । उसके बाद वहांसे निकला और त्रसकायमें कुछ अधिक दो हजार सागर तक रहा। वहां अन्तिम
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहतीए सामित्तं सागरोवमाणि दोभवग्गहणाणि तत्थ अपच्छिमे तेतीसं सागरोषमिए णेरइयभवग्गहणे चरिमसमयणेरइयस्स तस्स मिच्छत्तस्स उक्कल्सयं पदेससंतकम्म।
६९४. बादरपुढविजीवेसु कम्मट्टिदिमच्छिदाउओ त्ति उत्ते तसहिदीए ऊणकम्मढिदिमच्छिदो त्ति घेत्तव्वं । तसहिदियणकम्मट्टिदीए कुदो कम्मट्टिदिववएसो ? दवट्ठियणयणिबंधणउवयारादो । बादरपुढविजीवेसु चेव किमहं हिंडाविदो ? अइबहुअजोगेण बहुपदेसगहणहं । सेसेइंदियाणं जोगेहितो बादरपुढविजीवजोगो असंखे०गुणो त्ति कुदो णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो । तत्थ तिव्वसंकिलेसेण बहुदव्युक्कड्डणहमिदि किमटुं ण वुच्चदे ? तदटुं पि होदु, विरोहाभावादो । बादरणिद्देसो सुहुमपडिसेहफलो । किमटुं तप्पडिसेहो कीरदे ? ण, बादरजोगादो सुहुमजोगेण असंखेगुणहीणेण पदेसग्गहणे संते गुणिदकमंसियत्ताणुववत्तीदो। किं च सेसेइंदियआउआदो बादरपुढविजीवाणनरकसम्बन्धी तेतीस सागरकी स्थितिको लेकर दो भव ग्रहण किये । उन दो भवोंमेंसे जब वह जीव तेतीस सागरकी स्थितिवाले नरकसम्बन्धी अन्तिम भवको ग्रहण करके अन्तिम समयवर्ती नारकी होता है तब उसकेमिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है।
६ ९४. 'बादर पृथियोकायिक जीवोंमें कर्मस्थिति पर्यन्त रहा' ऐसा कहनेसे त्रसोंकी कायस्थितिसे हीन कमस्थिति काल तक रहा ऐसा ग्रहण करना चाहिए।
शंका-त्रसकायकी स्थितिसे हीन कर्मस्थितिको 'कर्मस्थिति' क्यों कहा है ? समाधान—द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा उपचारसे कर्मस्थिति कहा है। शंका—बादर पृथिवीकायिक जीवोंमें ही क्यों भ्रमण कराया है ?
समाधान—अत्यन्त बहुत योगके द्वारा बहुत प्रदेशोंका ग्रहण करनेके लिये बादर पृथिवीकायिक जीवोंमें भ्रमण कराया है।
शंका-शेष एकेन्द्रिय जीवोंके योगसे बादर पृथिवीकायिक जीवोंका योग असंख्यातगुणा होता है, यह किस प्रमाणसे जाना ?
समाधान—इसी सूत्रसे जाना । अर्थात् यदि ऐसा न होता तो उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मके ग्रहण करनेके लिये शेष एकेन्द्रियोंको छोड़कर बादर पृथिवीकायिकोंमें ही भ्रमण न कराते । इसीसे स्पष्ट है कि उनसे इनका योग असंख्यातगुणा होता है।
शंका-बादर पृथिवीकायिकोंमें तीव्र संक्लेशके द्वारा बहुत द्रव्यका उत्कर्षण करानेके लिये उनमें भ्रमण कराया है ऐसा क्यों नहीं कहते हो ?
समाधान—इसके लिये भी होओ, क्योंकि इसमें कोई विरोध नहीं है। सूक्ष्मकायका प्रतिषेध करनेके लिए बादरपदका निर्देश किया है। शं -सूक्ष्मका निषेध किसलिए किया जाता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि बादरकायिक जीवोंके योगसे सूक्ष्मकायिक जीवोंका योग असंख्यातगुणा हीन होता है, अतः उसके द्वारा प्रदेशोंका ग्रहण होने पर जीव गुणितकर्माशवाला नहीं हो सकता ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ माउ पाएण संखेजगुणमिदि वा बादरपुढविजीवेसु अपञ्जत्तजोगपरिहरणटुं हिंडाविदो। पढविकाइयजोगादो असंखे०गुणेण जोगेण तप्पज्जत्तद्धादो संखेजासंखेजगुणाए पज्जतद्धाए कम्मपदेससंचयटुं संकिलेसेण तदुक्कड्डिजमाणदव्वादो असंखेजगुणदव्वुक्कड्डणडं च वेसागरोवमसहस्साणि सादिरेयाणि तसकाइएसु हिंडाविदो । जदि एवं तो तसकाइएसु चेव कम्महिदिमेत्तं कालं किण्णभमाविदो ? ण, तसद्विदीए कम्महिदिमेत्ताए अभावादो। बहुवारं तसहिदि किण्ण भमाविदो ? ण, तसहिदिं समाणिय एइंदियत्तं गदस्स पुणो कम्महिदिकालभंतरे तसहिदिसमाणणं पडि संभवाभावेण पुणो एइंदिएसु पविहस्स कम्मडिदिअभंतरे णिग्गमाभावेण च बहुदव्वसंचयाभावप्पसंगादो। तेत्तीसं सागरोवमाउटिदिएसु णेरइएसु णिरंतरं जदि उप्पजदि तो दो चेव भवग्गहणाणि उप्पजदि त्ति जाणावणटुं 'अपच्छिमाणि तेत्तीसं सागरोवमाणि दोभवग्गहणाणि' त्ति
दूसरे, शेष एकेन्द्रिय जीवोंकी आयुसे बादर पृथिवीकायिक जीवोंकी आयु प्रायः संख्यातगुणी होती है, इसलिये भी अपर्याप्त योगका परिहार करनेके लिये बादर पृथिवीकायिक जीवोंमें भ्रमण कराया है। प्रथिवीकायिक जीवोंके योगसे त्रसकायिक असंख्यातगुणा होता है तथा उनके पर्याप्त कालसे त्रसजीवोंका पर्याप्त काल संख्यातगुणा और असंख्यातगुणा होता है। इसके सिवा बादर पृथिवीकायिक जीवोंके संक्लेश परिणामसे जितने द्रव्यका उत्कर्षण होता है, उससे असंख्यातगुणे द्रव्यका उत्कर्षण त्रसकायिक जीवोंमें होता है, अतः असंख्यातगुणे योगके द्वारा संख्यातगणे और असंख्यातगुणे पर्याप्तकालमें कमप्रदेशका संचय करानेके लिये और संक्लेश परिणामके द्वारा बादर पृथिवीकायिक जीवोंकी अपेक्षा असंख्यागुणे द्रव्यका उत्कर्षण करानेके लिये सातिरेक दो हजार सागर तक त्रसकायिक जीवोंमें भ्रमण कराया है।
शंका-यदि बादर पृथिवीकायिक जीवोंकी अपेक्षा त्रसकायिक जीवोंका योग असंख्यातगुणा होता है और पर्याप्तकाल भी संख्यातगणा और असंख्यातगुणा होता है तथा उत्कर्षण द्रव्य भी असंख्यातगुणा होता है तो गुणितकाशवाले जीवको त्रसकायिक जीवोंमें ही कर्मस्थितिप्रमाण काल तक क्यों नहीं भ्रमण कराया ?
समाधान नहीं, क्योंकि सपर्यायकी कायस्थिति कर्मस्थिति प्रमाण नहीं है, इसलिए कर्मस्थिति काल तक त्रसकायिकोंमें भ्रमण नहीं कराया है।
शंका—तो त्रसोंकी कायस्थितिमें अनेक बार भ्रमण क्यों नहीं कराया ?
समाधान नहीं, क्योंकि कायस्थितिको समाप्त करके जो जीव एकेन्द्रियपनेको प्राप्त हुआ है वह जीव कर्मस्थितिकालके भीतर पुनः त्रसकायस्थितिको समाप्त नहीं कर सकता है, अतः उसे पुनः एकेन्द्रियोंमें प्रवेश करना होगा और ऐसा होनेसे कर्मस्थितिकालके अन्दर वह जीव एकेन्द्रियपर्यायसे निकल नहीं सकेगा और एकेन्द्रिय पर्यायसे न निकल सकनेसे उसके बहुत द्रव्यके संचयके अभावका प्रसङ्ग प्राप्त होगा। इसलिए त्रसोंकी कायस्थितिमें अनेक बार नहीं भ्रमण कराया है।
तेतीस सागरकी स्थितिवाले नारकियोंमें यदि यह जीव निरन्तर उत्पन्न हो तो दो बार ही उत्पन्न होता है यह बतलानेके लिये अन्तिम नरकसम्बन्धी तेतीस सागरकी
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं भणिदं । एवं जेणेदं देसामासियवयणं तेण तसट्ठिदिकालभंतरे बहुवारं तेत्तीससागरोवमिएसु णेरइएसु उप्पन्जिय तदसंभवे छट्ठीए तत्थ वि असंभवे पंचमादिसु उप्पण्णो ति दहव्वं । णेरइएसु चेव बहुवारं किमट्ठमुप्पाइदो ? तिव्वसंकिलेसेण बहुदव्वुक्कड्डणटुं। चरिमसमयणेरइयं मोत्तण असंखेपद्धाए अणंतरहेद्विमसमए उक्कस्ससामित्तं दादव्वमुवरि आउए बज्झमाणे जहण्णाउअबंधगद्धामेत्ताणं मिच्छत्तसमयपबद्धाणं संखेजदिभागस्स खयप्पसंगादो त्ति ? ण, आउअबंधगद्धादो संखेज गुणाए उवरिमविस्समणद्धाए संचिददव्वस्स णट्ठदव्वादो संखेजगुणत्तुवलंभादो। आउअबंधगद्धादो जहण्णविस्समणद्धा संखेजगुणा त्ति कत्तो णव्वदे ? णेरइयचरिमसमए सामित्तपरूवणण्णहाणुववत्तीदो । एत्थ उपसंहारो जहा वेयणाए परूविदो तहा परूवेयव्वो।
स्थितिको लेकर दो भव ग्रहण करता है, ऐसा कहा है। यतः यह वाक्य देशामर्षक है अतः उसका ऐसा अर्थ लेना चाहिए कि त्रसकायस्थितिकालके भीतर बहुत बार तेतीस सागरकी स्थितिवाले नारकियोंमें उत्पन्न हआ। वहाँ उत्पन्न होना संभव न होने पर छठे नरकमें उत्पन्न हुअ । छठेमें भी उत्पन्न होना संभव न होने पर पाँचवें आदि नरकोंमें उत्पन्न हुआ।
शंका–नारकियों में ही बहुत बार क्यों उत्पन्न कराया है ?
समाधान-तीब्र संक्लेशके द्वारा बहुत द्रव्यका उत्कर्षण करनेके लिये बहुत बार नारकियोंमें उत्पन्न कराया है।
शंका—अन्तिम समयवर्ती नारकीको छोड़कर आयुबन्धके योग्य अतिसंक्षेप कालके पूर्व अनन्तरवर्ती अधस्तन समयमें मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मका स्वामित्व देना चाहिये, क्योंकि तदनन्तर आयुका बन्ध होने पर आयुबन्धके जघन्य कालप्रमाण मिथ्यात्वके समयप्रबद्धोंके संख्यातवें भागके क्षयका प्रसङ्ग आता है।
समाधान-नहीं, क्योंकि आयुबन्धके कालसे सख्यातगुणे ऊपरके विश्राम कालमें सश्चित होनेवाला द्रव्य नष्ट हुए द्रव्यसे सख्यातगुणा पाया जाता है।
शंका-आयुबन्धके कालसे जघन्य विश्रामकोल संख्यातगुणा है यह किस प्रमाणसे जाना ?
समाधान- यदि ऐसा न होता तो नारकीके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशके स्वामित्वका कथन न करते।
जैसा वेदनाखण्डमें उपसंहार कहा है वैसा ही यहाँ कहना चाहिये।
विशेषार्थ—उत्कृष्ट प्रदेशसंचयके लिये छह बातें आवश्यक बतलाई हैं-भवाद्धा, आयु, योग, संक्लेश, उत्कर्षण और अपकर्षण । इन्हीं छह आवश्यक कारणोंको ध्यानमें रखकर उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मके स्वामित्वका कथन किया है और बतलाया है कि क्यों बादर पृथिवीकायिक जीवोंमें उत्पन्न कराकर त्रसकायमें उत्पन्न कराया है। त्रसोंमें नरकगतिमें संक्रश
परिणाम अधिक होते हैं अतः बार बार जहाँ तक शक्य हो वहाँ तक नरकमें उत्पन्न कराया है। सातवें नरकमें लगातार दो बार ही जीव जन्म ले सकता है अतः दूसरी वार सातवें नरकमें तेतीस सागरको स्थिति लेकर उत्पन्न हुए उस जोवके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मका
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ * एवं बारसकसाय छण्णोकसायाण ।
६९५. जहा मिच्छत्तस्स उक्कस्ससामित्तं परविदं तहा एदेसिमद्वारसकम्माणं परूवेदव्वं, विसेसाभावादो । एदेसि कम्माणं मिच्छत्तस्सेव सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिद्विदीए विणा कधं मिच्छत्तसंचयविहाणमेदेसि जुञ्जदे ? ण, कम्मट्ठिदि मोत्तूण अण्णेहिं पयारेहिं' सरिसत्तं पेक्खिय एवं 'बारसकसाय-छण्णोकसायाणं' इदि णिद्दिट्टतादो । तेण मिच्छत्तस्स गुणिदकिरियापारद्धपढमसमयादो उवरि तीसंसागरोवमकोडाकोडीओ गंतूण बारसक०-छण्णोकसायाणं गुणिदकिरियाए पारंभो होदि। जदि उकड्डिदृण कम्मक्खंधा धरिज्जंति, तो कम्मट्टिदीए विणा बहुअंकालं किण्ण धरिज्जति ?
स्वामित्व बतलाया है । किन्तु किसी किसी उच्चारणामें उक्त अन्तिम समयसे नीचे अन्तर्मुहूर्त काल उतरकर उत्कृष्ट स्वामित्व बतलाया है । उसका कहना है कि जिस कालमें आयुका वंध होता है उस कालमें मोहनीयकर्मके बहतसे निषेकोंका क्षय हो जाता है। इसीको लेकर शंकाकारने शंका की है कि अन्तिम समयके बदलेमें आयुबन्ध कालके नीचेके समयमें उत्कृष्ट स्वामित्व क्यों नहीं कहा ? इस शंका का समाधान यह किया गया है कि यद्यपि आयुबन्धकालमें मोहनीयके बहुतसे समयप्रबद्धोंका नाश हो जाता है फिर भी उससे ऊपरके विश्राम कालमें उसके अधिक समयप्रबद्धोंका संचय हो जाता है, क्योंकि आयुबन्धकाल से विश्रामकाल संख्यातगुणा है, अतः अन्तिम समयवर्ती नारकोके ही उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है यह उक्त कथनका अभिप्राय है।
इसी प्रकार बारह कषाय और छ नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मका स्वामित्व होता है।
६९५. जिस प्रकार मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन किया है उसी प्रकार इन अठारह कर्मोंका भी कहना चाहिये, दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है।
__ शंका-मिथ्यात्वकी तरह इन अठारह कर्मोकी सत्तर कोड़ाकोडि सागरप्रमाण स्थिति नहीं है, अतः उसके बिना मिथ्यात्वकर्मके सञ्चयका विधान इन कर्मोको कैसे युक्त हो सकता है?
समाधान नहीं, क्योंकि कर्मस्थितिके सिवाय अन्य बातोंमें समानता देखकर 'बारह कषाय और छ नोकषायों के उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मका स्वामित्व मिथ्यात्वकी तरह होता है' ऐसा कहा है।
श्रतः मिथ्यात्वको गुणितक्रियाके प्रारम्भ होनेके समयसे लेकर तीस कोड़ाकोड़ी सागर बीत जाने पर बारह कषाय और छ नोकषायोंकी गुणितक्रियाका प्रारम्भ होता है। . शंका-यदि उत्कर्षण करके कर्मस्कन्धोंको रोका जा सकता है तो कर्मस्थितिके बिना बहुत काल तक उनको क्यों नहीं रोका जा सकता है ?
१. ता०प्रतौ 'अण्णेसिं(हिं) पयारेहि' आ०प्रतौ 'अण्णे िपयारेहि' इति पाठः । २. प्रा०प्रतौ 'छण्णोकसायाणं व गुणिदकिरिथाए' इति पाठः ।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं ण, वत्तिट्ठिदीदो अहियसत्तिद्विदीए अभावादो । सत्ति-वत्तिद्विदीओ दो वि समाणाओ त्ति कत्तो णव्वदे ? 'बादरपुढविजीवेसु कम्मट्ठिदिमच्छिदो ति सुत्तादो । बारसकसायाणं व छण्णोकसायाणं चालीससागरोवमकोडाकोडिसंचओ णत्थि, तेसिं उक्कस्स बंधहिदीए चालीससागरोवमकोडाकोडिपमाणत्ताभावादो त्ति ? ण, कसाएहिंतो णोकसाएसु संकंतकम्मक्खंधाणं चालीससागरोवमकोडाकोडिमेत्तवत्तिहिदीणं उक्कड्डणाए सगवत्तिहिदि मेत्तावट्ठाणाणं तत्थुवलंभादो। अकम्मबंधढिदिअणुसारिणी चेव सत्तिकम्मद्विदी कम्मढिदिबंधाणुसारिणी ण होदि त्ति ण वोत्तुं जुत्तं, वत्तिकम्महिदित्तं पडि दोण्हं द्विदिबंधाणं भेदाभावादो । अधवा कसायकम्मट्ठिदि मोत्तूण णोकसायकम्महिदीए एत्थ गहणं कायव्वं, अप्पप्पणो कम्महिदीए इहाहियारादो।
समाधान नहीं, क्योंकि व्यक्तिस्थितिसे शक्तिस्थिति अधिक नहीं होती।
शंका-शक्तिस्थिति और व्यक्तिस्थिति दोनों समान होती हैं यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान--'बादर पृथिवीकायिक जीवोंमें कर्मस्थिति काल तक रहा' इस सूत्रसे जाना जाता है।
शंका-बारह कषायोंकी तरह छ नोकषायोंका संचय चालीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि उनकी उत्कृष्ट बन्धस्थिति चालीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण नहीं है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि कषायोंसे नोकषायों में जिन कर्मस्कन्धोंका संक्रमण होता है उनकी व्यक्तिस्थिनि चालीस कोड़ाकोड़ी सागरप्रमोण होती है, अतः उत्कर्षणके द्वारा छह नोकषायोंमें चालीस कोडाकोड़ी सागर स्थितिप्रमाण काल तक उनका अवस्थान पाया जाता है।
शंका-अकर्मरूपसे स्थित कर्मपरमाणुओंका बन्ध होने पर जो स्थितिबन्ध होता है शक्तिकर्मस्थिति उसके अनुसार ही होती है, किन्तु संक्रमसे जो स्थितिबन्ध प्राप्त होता है उसके अनुसार नहीं होती ?
समाधान-ऐसा कहना ठीक नहीं है, क्योंकि, व्यक्तिकर्मस्थितिके प्रति दोनों स्थितिबन्धोंमें कोई भेद नहीं है।
अथवा कषायोंकी कर्मस्थितिको छोड़कर नोकषायोंकी कर्मस्थितिका यहाँ ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि यहाँ अपनी अपनी कर्मस्थितिका अधिकार है।
विशेषार्थ-बारह कषाय और छह नोकषायों की उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी भी मिथ्यात्वकी तरह ही बतलाया है किन्तु मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थिति सत्तर कोड़ाकोड़ीसागरके समान उक्त कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति न हो कर चालीस कोड़ाकोड़ी सागर होती है, इसलिये इन कौंका उत्कृष्ट सश्चय मिथ्यात्वके उत्कृष्ट संचयके समान नहीं हो सकता, यह एक प्रश्न है जिसका टीकामें यह समाधान किया है कि स्थितिको छोड़कर अन्य बातमें समानता है, अतः मिथ्यात्वका उत्कृष्ट संचय जबसे प्रारम्भ होता है तबसे तीस कोड़ाकोड़ी सागर काल बिताकर कषायों और नोकषायोंके उत्कृष्ट सचयका प्रारम्भ जानना चाहिये, क्योंकि मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिसे इन अठारह कर्मोंकी उत्कृष्ट स्थिति तीस कोड़ाकोड़ी सागर कम है। यहाँ यह शंका हो सकती है कि सर्वत्र
१. आ०प्रतौ 'उक्कडणाए सिटिदि' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पदेसविहत्ती १
उत्कृष्ट सचयके लिये अपनी-अपनो उत्कृष्ट स्थिति ही क्यों ली जाती है जब कि उत्कर्षणके द्वारा कर्मस्थितिके बाहर भी कर्मोंका सचय प्राप्त किया जा सकता है ? इस शंकाका वीरसेन स्वामीने जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि कर्मों में दो प्रकारकी स्थिति होती है एक शक्तिस्थिति और दूसरी व्यक्तिस्थिति । व्यक्तिस्थिति प्रकट स्थितिका नाम है और शक्तिस्थिति अप्रकट स्थितिका नाम है। जिस कर्मकी जितनी उत्कृष्ट स्थिति है बन्ध के समय यदि वह पूरी प्राप्त हो जाय तो वह सब की सब व्यक्तिस्थिति कहलायगी और यदि कम प्राप्त हो तो जितनी स्थिति कम होगी उतनी व्यक्तिस्थिति कही जायगी। अब यदि इस कर्मका उत्कर्षण हो तो जितनी व्यक्तिस्थिति है वहीं तक उत्कर्षण हो सकता है अधिक नहीं। इससे यह फलित होता है कि शक्तिस्थिति व्यक्तिस्थितिसे अधिक नहीं होती, किन्तु दोनों समान होती हैं। इस पर यह शंका होती है कि शक्तिस्थिति और व्यक्तिस्थिति समान होती हैं यह किस प्रमाण से जाना जाता है ? वीरसेन स्वामीने इसका यह समाधान किया है कि सूत्रमें जो यह कहा है कि 'बादर पृथिवीकायिकोंमें कर्मस्थिति काल तक रहा' सो यह कहना तभी बन सकता है जब यह मान लिया जाय कि अपनी व्यक्तिस्थिति प्रमाण ही उस कर्मकी शक्तिस्थिति होती है। यदि ऐसा न माना जाय तो 'कर्मस्थिति काल तक रहा' इस पद के देनेकी कोई सार्थकता ही नहीं रहती । इससे मालूम होता है कि जिस कर्मकी बन्धसे प्राप्त होनेवाली जितनी उत्कृष्ट स्थिति होती है उतने काल तक ही उसका अवस्थान हो सकता है। उत्कर्षणसे उसकी और स्थिति नहीं बढ़ाई जा सकती। इस प्रकार इतने विवेचनसे यह तो निश्चित हो गया कि उत्कृष्ट संचय प्राप्त करनेके लिये अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थिति लेनी चाहिये । किन्तु तब भी यह प्रश्न खड़ा ही रहता है कि छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट बन्धस्थिति चालीस कोड़ाकोड़ी सागर नहीं होती किन्तु अरति, शोक, भय और जुगुप्साकी उत्कृष्ट बन्ध स्थिति बीस कोड़ाकोड़ी सागर तथा हास्य और रतिकी दस कोड़ाकोड़ी सागर उत्कृष्ट बन्धस्थिति होती है। अतः इन छह कर्मोंका उत्कृष्ट संचय काल कषायोंके समान चालीस कोडाकोड़ी सागर नहीं प्राप्त होता ? इस शंकाका वीरसेनस्वामीने जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि एक तो जो कर्मस्कन्ध कषायों में से नोकषायोंमें संक्रमित होते हैं उनकी व्यक्तिस्थिति चालीस कोड़ाकोड़ो सागर बन जाती है और दूसरे जिन कर्मस्कन्धोंकी स्थिति घट गई है उनका उत्कषण होकर व्यक्तिस्थितिके काल तक अवस्थान बन जाता है, इसलिये छः नोकषायोंका उत्कृष्ट संचयकाल चालीस कोड़ाकोड़ी सागर माननेमें कोई आपत्ति नहीं है । इसपर फिर यह शंका उठी कि शक्तिस्थिति बन्धसे प्राप्त होनेवाली स्थितिके अनुसार होती है संक्रमणसे होनेवाली स्थितिके अनुसार नहीं होती, अतः जिन कर्मोंका स्थितिबन्ध कम है उनका उत्कर्षण होकर संक्रमणसे प्राप्त होनेवाली स्थितिके काल तक अवस्थान नहीं बन सकता ? इस शंकाका वीरसेन स्वामीने जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि यद्यपि बन्ध और संक्रमण इन दोनों प्रकारोंसे स्थिति प्राप्त होती है पर इससे व्यक्ति कर्मस्थितिमें कोई भेद नहीं पड़ता। अर्थात ये दोनों ही स्थितियाँ व्यक्तिकर्म स्थिति हो सकती हैं और तब शक्तिस्थितिको इतना मान लेने में कोई अपत्ति नहीं आती । अर्थात् संक्रमणसे जितनी स्थिति प्राप्त होती है वहां तक कर्मो का उत्कर्षण हो सकता है। यद्यपि यह सिद्धान्तपक्ष है. तब भी वीरसेन स्वामी एक दूसरा विकल्प सुझाते हुए लिखते हैं कि यहाँ अपनी अपनी कर्मस्थितिका अधिकार है, अतः यहाँ नोकषायोंकी बन्धस्थिति ही लेनी चाहिये । मालूम होता है कि इस समाधानमें वीरसेन स्वामीकी यह दृष्टि रही है कि उत्कृष्ट संचयके लिये वन्धस्थितिका काल ही प्रधान है, क्योंकि उत्कृष्ट संचय उसके भीतर ही प्राप्त हो सकता है।
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
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९६. हस्स-रह- अरह - सोगाणं णिरंतरबंधेण विणा कथं कम्मट्ठिदिसंचओ लब्भदे ? ण, पडिवक्खपयडीए बद्धदव्वस्स वि अप्पिदपयडीए बज्झमाणियाए उवरि संकंतिदंसणादो | हस्स-रदि-भय- दुगुंछाणं णेरइयचरिमसमयं मोत्तूण आवलियअपुव्वखवगम्मि उक्कस्तसामित्तं होदि, उदए गलमाणदव्वं पेक्खिदूण वोच्छिण्णबंधमोहपयडीहिंतो गुणसंकमेण दुक्कमाणदव्वस्स असंखेजगुणत्तुवलंभादो त्ति । ण, सम्मत्तप्पायणे संजमे अणंताणुबंधिचउक्कविसंजोयणाए दंसणमोहणीयक्खवणाए गुणसेटिकमेण गलिददव्वस्स आवलियकालब्भंतरे गुणसंकमेण संकंतदव्वदो असंखेज्ज गुणत्तुवलंभादो । तदसंखेजगुणत्तं कत्तो उवलब्भदे ? रइ यचरिमसमए उकस्ससामित्त परूवणण्णहाणुववत्तीदो । गुणसंकमभागहारादो ओकड्डणभागहारो असंखे० गुणो । ओकडिददव्वस्स वि असंखे० भागो गुणसेढीए णिसिंचदि तेण गलिददव्वादो गुणसंकमेण दुक्कमाणदव्वमसंखेजगुणं ति ? ण, ओकड्डणभागहारादो सव्वे गुणसंकमभागहारा असंखें ० गुणहीणा त्ति नियमाभावेण
९ ९६. शंका — हास्य, रति, अरति और शोक प्रकृतियाँ निरन्तर बन्धी नहीं हैं । अतः निरन्तर बन्धके बिना इनका कर्मस्थितिप्रमाण साय कैसे हो सकता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि प्रतिपक्ष प्रकृतिके बद्ध द्रव्यका भी विवक्षित प्रकृतिका बन्ध होते समय उसमें सक्रमण देखा जाता है ?
शंका- हास्य, रति, भय और जुगुप्साका उत्कृष्ट स्वामित्व नारकी के अन्तिम समयमें न होकर क्षपक अपूर्वकरणकी आवलिमें होता है, क्योंकि क्षपक अपूर्वकरण में उक्त प्रकृतियोंका उदयके द्वारा जितना द्रव्य गलता है, उससे बन्धसे विच्छिन्न होनेवाली मोहकर्मकी प्रकृतियों का गुणसंक्रमके द्वारा जो द्रव्य इन प्रकृतियोंमें आकर मिलता है, वह द्रव्य असं ख्यातगुणा होता है ?
समाधान — नहीं, क्योंकि सम्यक्त्वकी उत्पत्तिके समय, संयम में, अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विस' योजना में और दर्शनमोहकी क्षपणामें गुणश्रेणिके क्रमसे जो द्रव्य गलता है वह द्रव्य, एक आवलिकालके अन्दर गुणस क्रमके द्वारा संक्रान्त होनेवाले द्रव्यसे असंख्यातगुणा पाया जाता है । अर्थात् स ंक्रान्त द्रव्यसे निर्जराको प्राप्त होनेवाला द्रव्य असं ख्यातगुणा होता है । अतः क्षपक अपूर्वकरणमें हास्यादिकका उत्कृष्ट संचय नहीं बन सकता ।
शंका-संक्रान्त द्रव्यसे गलित द्रव्य असं ख्यातगुणा है यह किस प्रमाणसे मालूम होता है ?
समाधान-यदि ऐसा न होता तो नारकीके अन्तिम समय में उत्कृष्ट स्वामित्वको न बतलाते ।
शंका — गुणसक्रम भागहार से अपकर्षण भागहार अस' ख्यातगुणा है, क्योंकि अपकर्षित द्रव्यके भी असंख्यातवें भागका गुणश्रेणिमें निक्षेप होता है । अतः क्षपक अपूर्वकरणमें गलनेवाले द्रव्यसे गणस क्रमके द्वारा प्राप्त होनेवाला द्रव्य असं ख्यातगुणा होता है ?
समाधान — नहीं, क्योंकि अपकर्षण भागहारसे सब गुणस क्रम भागहार अख्यातगुणे
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जयधबलासहिदेकसायपाहुडे
[पदेसविहत्ती ५ अपुव्वकरणद्धाए आवलियमेत्तगुणसंकमभागहाराणमोकडणभागहारं पेक्खिदूण असंखे गुणत्तसिद्धीदो।
बंधेण होदि उदओ अहिमो उदएण संकमो अहिओ।
गुणसेढी असंखेज्जा च पदेसग्गेण बोद्धव्वा ॥१॥ त्ति गाहासुत्तादो अपुव्वकरणस्स बज्झमाणसमयपबद्धो थोवो । उदओ असंखे०गुणो । संकामिजमाणदव्वमसंखेजगुणं ति णव्वदे । एसो वि उदओ हेट्टिमासेसउदरहितो असंखेजगुणो तेण णवदे जहा गलिदासेसदव्वं गुणसंकमणसंकंतदव्वस्स असंखेजदिभागं ति । अपुवस्स उदए गलमाणदव्वं हेट्ठिमासेमगलिददव्वादो असंखेजगुणं ति ण जुजदे, संजमगुणसेढीदो दंसणमोहणीयगुणक्खवणसेढीए असंखे०गुणत्तवलंभादो । एसा गाहा अस्सकण्णकरणद्धाए पठिदा त्ति तत्थतणबंधोदयसंकमाणमप्पाबहुअं परूवेदि ण ताए गाहाए अपुव्वकरणवंधोदयसंकमाणमप्पाबहुअं वोत्तुं जुत्तं, भिण्णजादित्तादो । तम्हा गेरइयचरिमसमए चेव उकस्ससामित्तं दादव्वमिदि।।
हीन होते हैं ऐसा नियम नहीं है, अतः अपूर्वकरणके कालमें अपकर्षण भागहारको देखते हुए आवलिप्रमाण गुणसक्रम भागहार असख्यातगुणे हैं यह सिद्ध है।
शंका-प्रदेशोंकी अपेक्षा बन्धसे उदय अधिक होता है और उदयसे सक्रम अधिक होता है। इनकी उत्तरोत्तर गुणश्रेणि असख्यागुणी जाननी चाहिये ॥१॥
इस गाथासूत्रसे जाना जाता है कि अपूर्वकरणमें बँधनेवाले समयप्रबद्धका प्रमाण थोड़ा है, उदयका प्रमाण उससे असख्यातगुणा है और सक्रान्त होनेवाले द्रव्यका प्रमाण उससे भी असंख्यातगुणा है । तथा यहाँ जो उदय है वह भी नीचेके सव उदयोंसे असख्यातगणा है। इससे जाना जाता है कि गलित होनेवाला अशेष द्रव्य गणसक्रम भागहारके द्वारा सक्रान्त होनेवाले द्रव्यके असख्यातवें भागप्रमाण है।
समाधान-अपूर्व करणमें उदयके द्वारा गलनेवाला द्रव्य नीचे गलित होनेवाले सब द्रव्यसे असंख्यातगुणा है ऐसा कहना युक्त नहीं है। क्योंकि सयम गणश्रोणिसे दर्शनमोहनीयकी क्षपणामें होनेवाली गुणश्रेणि असंख्यातगणी पाई जाती है। तथा पहले जो गाथा उद्धृत की है वह गाथा अश्वकर्णकरण कालमें कही गई है, इसलिए वह अश्वकर्णकरण कालमें होनेवाले बन्ध, उदय और सक्रमके अल्पबहुत्वको बतलाती है, अतः उस गाथाके द्वारा अपूर्वकरणमें होनेवाले बन्ध, उदय और सौंकमणका अल्पबहुत्व कहना युक्त नहीं है, क्योंकि अश्वकर्णकरणकालमें होनेवाले बन्धादिकसे अपूर्वकरणमें होनेवाला बन्धादिक भिन्नजातीय है। अतः हास्य और रति आदिका उत्कृष्ट स्वामित्व नारकीके अन्तिम समयमें ही कहना चाहिये।
विशेषार्थ शंकाकारका कहना है कि हास्य, रति, भय और जुगुप्साका उत्कृष्ट प्रदेश सश्चय नरकमें अन्तिम समयमें न बतलाकर क्षपकश्रेणीके अपूर्वकरण गुणस्थानमें बतलाना चाहिये, क्योंकि यद्यपि क्षपक अपूर्वकरणमें गुणश्रेणिनिर्जरा होती है किन्तु चारित्रमोहनीयकी जिन प्रकृतियोंकी पहले बन्ध व्युच्छित्ति हो चुकी है उनमेंसे प्रति समय असख्यातगुणे परमाणु हास्यादिकमें सक्रान्त होते हैं, अतः निरित द्रव्यसे सक्रान्त होनेवाला द्रव्य असख्यात
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गा० २२] उत्तरपयउिपदेसविहत्तीए सामित्तं
® सम्मामिच्छत्तस्स उकस्सपदेसविहत्तमो को होवि ? ६९७. सुगममेदं।
8 गुणिदकम्म सिमो दसणमोहणीयक्खवप्रो जम्मि मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्ते पक्खित्तं तम्मि सम्मामिच्छत्तस्स उकस्सपदेसविहत्तिो।
६ ९८. सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सपदेसविहत्तिओ को होदि त्ति जादसंदेहसिस्साणं संदेहविणासणटुं 'दसणमोहणीयक्खवओ' ति मणिदं होदि । खविदकम्मंसियगुणा होनेसे उत्कृष्ट सञ्चय बन जाता है । इसका उत्तर यह दिया गया कि सम्यक्त्व आदिमें गुणश्रेणिनिर्जरा बतलाई है और वहाँ गुणसक्रमके द्वारा एक आवलिकालमें जितना द्रव्य अन्य प्रकृतियोंसे संक्रान्त होता है उससे कहीं असंख्यातगुणे द्रव्यकी निर्जरा हो जाती है, अतः सक्रान्त द्रव्यसे निर्जराको प्राप्त होनेवाला द्रव्य असख्यातगणा होता है, इसलिये क्षपक अपूर्वकरणमें उक्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट संचय नहीं बनता। इस पर शंकाकारने कहा कि गुणसंक्रम भागहारसे अपकर्षण भागहार बड़ा बतलाया है। अपकर्षण भागहारके द्वारा ही अपकृष्ट हुए कर्मपरमाणुओंकी गुणश्रेणिरचना की जाती है और गुणश्रेणि रचना होनेसे ही गुणश्रेणिनिर्जरा होती है, अतः अपकर्षण भागहारके असंख्यातगुणा होनेसे जो परमाणु अपकृष्ट होंगे उनका परिमाण कम होगा और गुणसंक्रम भागहारके उससे असंख्यातगुणाहीन होनेसे उसके द्वारा जो परमाणु संक्रान्त होंगे उनका परिमाण अपकृष्ट द्रव्यसे असंख्यात
योंकि भागहारके बड़ा होनेसे भजनफल कम आता है और भागहारके छोटा होनेसे भजनफल अधिक आता है, अतः निर्जराको प्राप्त द्रव्यसे संक्रमणको प्राप्त होनेवाले द्रव्यका परिमाण अधिक होनेसे क्षपक अपूर्वकरणमें ही उत्कृष्ट स्वामित्व बतलाना चाहिये। इसका उत्तर यह दिया गया कि ऐसा कोई नियम नहीं है कि अपकर्षण भागहारमे सब गुणसंक्रम भागहार असंख्यातगुणे हीन ही होते हैं । अपूर्वकरणमें जो अपकर्षण भागहार है उससे गुणसंक्रम भागहार असंख्यातगुणा अधिक है, अतः वहाँ संक्रान्त द्रव्यका प्रमाण निर्जरा को प्राप्त द्रव्यसे असंख्यातगुणा नहीं हो सकता। इस पर शंकाकारने कसायपाहुडकी एक गाथाका प्रमाण देकर यह सिद्ध करना चाहा कि उदयागत द्रव्यसे संक्रान्त द्रव्य अधिक होता है। इसका यह उत्तर दिया गया कि नौवें गुणस्थानमें अपगतवेदी होकर क्रोधसंज्वलनके क्षपणका आरम्भ करता हुआ जीव 'अश्वकर्णकरण' नामके करणको करता है, उस प्रकरणमें उक्त गाथा कही गई है, अतः उस गाथाके आधारसे अपूर्वकरणमें होनेवाले बंध, उदय और संक्रमका अल्पबहुत्व नहीं कहा जा सकता। अतः उक्त नोकषायोंका भी उत्कृष्ट स्वामी चरम समयवर्ती नारकी जीव ही होता है यह सिद्ध होता है।
* सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला कौन जीव होता है ? ६ ९७. यह सूत्र सुगम है।
* गुणितकर्मा शवाला जो जीव दर्शनमोहनीयका क्षपण करता है वह जब मिथ्यात्वको सम्यग्मिथ्यात्वमें प्रक्षिप्त करता है तब सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला होता है।
६ ९८. सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिवाला कौन होता है, इस प्रकार जिस शिष्यको सन्देह हुआ है उसका सन्देह दूर करनेके लिये 'दर्शनमोहनीयका क्षपक होता
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ खविदगुणिदघोलमाणदंसणमोहणीयक्खवयपडिसेहटुं 'गुणिदकम्मंसिओ' त्ति भणिदं । दंसणमोहणीयक्खवणद्धाए अंतोमुहुत्तमेत्ताए वट्टमाणस्स सव्वत्थ उक्स्ससामित्ते पत्ते तप्पदेसजाणावणटुं 'जम्मि मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्ते पक्खित्तं तम्मि सम्मामिच्छत्तस्स उकस्सपदेसविहत्तिओ' ति भणिदं । मिच्छादिट्ठी सत्तमाए पुढवीए णेरइयचरिमसमए मिच्छत्तस्स कदउक्कस्सपदेससंतकम्मो तत्तो णिप्पिडिदृण तिरिक्खेसु दो-तिण्णिभवग्गहणाणि परिभमिय पुणो मणुस्सेसु उववण्णो । तदो गन्मादिअहवस्साणमुवरि उवसमसम्मत्ताभिमुहो जहाकमेण अधापवत्त-अपुव्व-अणियट्टिकरणाणि करेदि । तत्थ अपुव्वकरणकालम्मि द्विदिखंडय-गुणसेढीकिरियाओ करेमाणओ जहण्णपरिणामेहि चेव करावेयव्वो, अण्णहा अधडिदिगलणेण बहुदव्वविणासप्पसंगादो। अणियट्टिकरणे पुण अघट्टिदिगलणेण गलमाणदव्वं ण रक्खिदुं सकिञ्जदे, तत्थ जहण्णुकस्सपरिणामविसेसाभावादो। - ९९. संपहि अपुव्व-अणियट्टिकरणद्धासु कीरमाणकिरियाओ विसेसिदण भणिस्सामो। तं जहा-अपुवकरणपढमसमए जहण्णपरिणामेण अपव्वकरणद्धादो अणियट्टिकरणद्धादो च विसेसाहियं गुणसेटिं करेमाणो उदयावलियबाहिरहिदिं पडि द्विदमिच्छत्तपदेसग्गं ओकडकड्डणभागहारेण समयाविरोहेण खंडिय तत्थ लद्धेगखंड पुणो असंखेज्जलोगभागहारेण खंडेदूणेगखंडं घेत्तूण उदयावलियाए णिसिंचमाणो है' ऐसा कहा है । क्षपित कर्मा शवाले और क्षपित गुणित घोलमान कर्मा शवाले दर्शनमोहनीय क्षपकका प्रतिषेध करनेके लिये 'गुणितकाश' कहा । दर्शनमोहनीयके क्षपणका काल अन्तर्मुहूर्त मात्र है । उस काळमें वर्तमान जीवके सर्वदा उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त हुआ, अतः उसका स्थान बतलानेके लिये 'जिस समय मिथ्यात्वका सम्यग्मिथ्यात्वमें निक्षेपण करता है उस समय सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामी होता है। ऐसा कहा है। सातवें नरकमें नरकसम्बन्धी भवके अन्तिम समयमें मिथ्यात्व कर्मका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय करनेवाला मिथ्यादृष्टि जीव वहाँसे निकलकर तिर्यश्चोंमें दो तीन भवग्रहणतक भ्रमण करके पुनः मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। गर्भसे लेकर आठ वर्षके बाद उपशमसम्यक्त्वके अभिमुख होकर वह जीव क्रमसे अधः प्रवृत्त करण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणको करता है। अपूर्वकरणके काल में स्थितिकाण्डक और गुणश्रेणि क्रियाएँ करते हुए जघन्य परिणामोंसे ही करानी चाहिये, अन्यथा अधःस्थिति गलनाके द्वारा बहत द्रव्यके विनाशका प्रसंग प्राप्त होता है। किन्त अनिवृत्तिकरणमें अधःस्थितिगलनाके द्वारा गलनेवाले द्रव्यको रक्षा नहीं की जा सकती, क्योंकि वहाँ जघन्य और उत्कृष्ट परिणामोंका भेद नहीं है।
६९९. अब अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके कालमें की जानेवाली क्रियाओंको विस्तारसे कहते हैं । यथा-अपूर्वकरणके प्रथम समयमें जघन्य परिणामसे अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके कालसे कुछ अधिक गुणश्रेणिको करता है । ऐसा करते हुए उदयावलिसे बाहरकी स्थिति में विद्यमान मिथ्यात्वके प्रदेशोंको आगमानुसार अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे भाजित करके लब्ध एक भागको फिर भी असंख्यात लोकप्रमाण भागहारसे भाजित करके जो एक भाग लब्ध
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं उदए पदेसग्गं बहुअं देदि । तदो उवरि सव्वत्थ विसेसहीणं देदि जावु दयावलियचरिमसमओ त्ति । पुणो सेसअसंखेज्जे भागे उदयावलियबाहिरे णिसिंचमाणो उदयावलियबाहिराणंतरहिदीए पुव्वणिसित्तादो असंखेज्जगुणं देदि । पुणो तदणंतरउरिमद्विदीए असंखे गुणं देदि । एवमुवरिम-उवरिमडिदीसु असंखेजगुणमसंखे गुणं देदि जाव गुणसेढिसीसए त्ति । पुणो गुणसेढिसीसयादो उवरिमाणंतरहिदीए असंखे०गुणहीणं देदि । तत्तो उवरिमसव्वद्विदीसु अइच्छावणावलियवजासु विसेसहीणं देदि । एवं समयं पडि असंखे०गुणं दव्वमोकडिदूण गुणसेटिं करेमाणो अपुव्वकरणद्धं गमेदि । पुणो अणियट्टिकरणं पविट्ठस्स वि एसा चेव विही होदि जाव अणियट्टिकरणद्धाए संखेजा भागा गदा त्ति । पुणो तदद्धाए संखे०भागे सेसे अंतरकरणं काऊण चरिमसमए मिच्छाइट्ठी जादो । तत्थ मिच्छत्तस्स बंधोदयाणं वोच्छेदं कादूण तदणंतरउवरिमसमए अंतरं पविसिय पढमसमयउवसमसम्माइट्ठी जादो। तम्हि चेव समए विदियहिदीए द्विदमिच्छत्तस्स पदेसग्गं मिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तसरूवेण परिणमदि। पुणो अंतोमुहुत्तकालं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि गुणसंकमेण पूरेमाणो जहण्णपरिणामेहि चेव पूरेदि । तं जहा-गुणसंकमपढमसमए मिच्छत्तादो जं सम्मत्ते संकमदि पदेसग्गं तं थोवं । तम्मि चेव समए सम्मामिच्छत्ते संकंतपदेसग्गमसंखे०गुणं । पढमसमयम्मि आता है उसका उदयावलिमें निक्षेपण करता हुआ उदयमें बहुत प्रदेशोंका निक्षेपण करता है और उससे ऊपरके निषेकोंमें एक एक चयहीन प्रदेशोंका निक्षेपण करता है। यह निक्षेपण उदयावलिके अन्तिम समय पर्यन्त करता है। फिर शेष बचे असंख्यात बहुभाग द्रव्य का उदयावलिसे बाहरके निषेकोंमें निक्षेपण करता है। ऐसा करते हुए उदयावलिसे बाहरके अनन्तरवर्ती निषेकमें ( उस निषेकमें जो उदयावलीके अन्तिम समयवर्ती निषेकसे ऊपरका निषेक है) पहले निक्षिप्त द्रव्यसे असंख्यातगुणा द्रव्य देता है। फिर उससे अनन्तरवर्ती ऊपर के निषेकमें उससे असंख्यातगुणा द्रव्य देता है। इस प्रकार ऊपर ऊपरकी स्थितियोंमें असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे द्रव्यको देता है। इस प्रकार गुणश्रेणिके शीर्ष पर्यन्त देता है। फिर गुणश्रेणिके शीर्षसे ऊपरके अनन्तरवर्ती निषेकमें असंख्यात गुणहीन द्रव्य देता है। आगे उससे ऊपरकी सब स्थितियांमें अतिस्थापनावलीसम्बन्धी निषेकोंको छोड़कर चयहीन चयहीन द्रव्यको देता है। इस प्रकार प्रति समय असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे द्रव्यका अपकर्षण करके, गणिको करता हुआ अपूर्वकरणके कालको बिता देता है। फिर अनिवृत्तिकरणमें प्रवेश करता है। वहाँ भी अनिवृत्तिकरण कालके संख्यात बहुभाग बीतने तक यही विधि होती है। जब संख्यातवें भाग प्रमाण काल शेष रहता है तो अन्तरकरण करके अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि हो जाता है और वहाँ मिथ्यात्वके बन्ध और उदयकी व्युच्छित्ति करके उसके अनन्तरवर्ती ऊपरके समयमें अन्तरमें प्रवेश करके प्रथम समयवर्ती उपशमसम्यग्दृष्टी हो जाता है। उसी समयमें जिस समय कि वह उपशमसम्यग्दृष्टी हुआ दूसरी स्थितिमें स्थित मिथ्यात्वके प्रदेश समूहको मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व रूपसे परिणमाता है। पुनः अन्तमुहूर्त कालतक गुणसंक्रमके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिको पूरता हुआ जघन्य परिणामोंके द्वारा
परता है। यथा-गुणसंक्रमके प्रथम समयमें मिथ्यात्वका जो प्रदेशसमूह सम्यक्त्व प्रकृतिमें संक्रमण करता है वह थोड़ा है। उसी समयमें सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रान्त होनेवाला मिथ्यात्वका
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ सम्मामिच्छत्तसरूवेण परिणदपदेसपिंडादो विदियसमए सम्मत्त सरूवेण संकंतपदेसग्गमसंखे०गुणं । तम्मि चेव समए सम्मामिच्छत्ते संकंतपदेसग्गमसंखे०गुणं । एवं सव्विस्से गुणसंकमद्धाए सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पूरणकमो वत्तव्यो । प्रदेशसमूह उससे असंख्यातगुणा है। प्रथम समयमें सम्यग्मिथ्यात्वरूपसे परिणमन करनेवाले प्रदेशसमूहसे दूसरे समयमें सम्यक्त्वरूपसे संक्रमण करनेवाला प्रदेशसमूह असंख्यातगुणा है । उससे उसी दूसरे समयमें सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रान्त होनेवाला प्रदेशसमूह असंख्यातगुणा है। इसी प्रकार गुणसंक्रमके सब कालमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके पूरनेका क्रम कहना चाहिये।
विशेषार्थ-सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका उत्कृष्ट संचय उस जीवके बतलाया है जो मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय करके सातवें नरकसे निकलकर तिर्यश्चोंके दो तीन भव धारण करके मनुष्योंमें जन्म लेकर गर्भसे लेकर आठ वर्षकी उम्रमें सम्यक्त्वको प्राप्त करके फिर दर्शनमोहका क्षपण करता हुआ जब मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिको सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रान्त करता है तब उसके सम्यग्मिध्यात्वका उत्कृष्ट संचय होता है। जब जीव उपशम सम्यक्त्वके अभिमुख होता है तो उसके अधःकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामके तीन करण अर्थात् परिणाम विशेष होते हैं। इनमेंसे अधःकरणके होने पर तो जीवके प्रतिसमय अनन्तगुणीअनन्तगुणी विशुद्धिमात्र होती है, जिससे अप्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभागबन्धमें प्रतिसमय हीनता होती जाती है और प्रशस्त प्रकृतियोंके अनुभागबन्धमें प्रतिसमय वृद्धि होती जाती है। किन्तु अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणमें चार कार्य होते हैं-स्थितिखण्डन, अनुभागखण्डन, गुणणि और गुणसंक्रम। पहले बँधे हुए सत्तामें स्थित कर्मोकी स्थितिके घटानेको स्थितिखण्डन कहते हैं। पहले बँधे हुए सत्तामें स्थित अप्रशस्त कोंके अनुभागके घटानेको अनुभागखण्डन कहते हैं। पहले बँधे हुए सत्तामें स्थित कोका जो द्रव्य गुणश्रोणिके कालमें प्रतिसमय असंख्यातगुणा असंख्यातगुणा स्थापित किया जाता है उसे गुणणि कहते हैं। तथा प्रतिसमय उत्तरोत्तर गुणितक्रमसे विवक्षित प्रकृतिके परमाणुओंका अन्य प्रकृतिरूप होना गुणसंक्रम कहाता है। गुणश्रेणिका विधान इस प्रकार जानना-विवक्षित कर्मके सर्व निषेकसम्बन्धी सब परमाणुओंमें अपकर्षण भागहारका भाग देनेसे जो परमाणु लब्धरूपसे आये उन्हें अपकृष्ट द्रव्य कहते हैं। उस अपकृष्ट द्रव्यमेंसे कुछ परमाणु तो उदयवाली प्रकृतिकी उदयावलीमें मिलाता है, कुछ परमाणु गुणश्रेणिआयाममें मिलाता है और बाकी बचे परमाणुओंको ऊपरको स्थितिमें मिलाता है। वर्तमान समयसे लेकर आवली मात्र काल सम्बन्धी निषेकोंको उदयावली कहते हैं। उस उदयावलीमें जो द्रव्य मिलाया जाता है वह सके प्रत्येक निषेकमें एक एक चय घटता हआ होता है। उस उदयावलीके निषेकोंसे ऊपरके अन्तर्मुहूर्त समय सम्बन्धी जो निषेक हैं उनको गुणश्रेणि आयम कहते हैं। उसमें जो द्रव्य दिया जाता है वह प्रत्येक निकमें उत्तरोत्तर असंख्यातगुणा असंख्यातगणा दिया जाता है। गणश्रेणिआयामसे ऊपरके सब निषेकोंको ऊपरकी स्थिति कहते हैं। उस ऊपरकी स्थितिके अन्तके जिन आवळीमात्र निषकोंमें द्रव्य नहीं मिलाया जाता उनको अतिस्थापनावली कहते हैं। बाकीके निषकोंमें जो द्रव्य मिलाया जाता है वह प्रत्येक निषेकमें उत्तरोत्तर घटता हुआ मिलाया जाता है। जैसे-विवक्षित कर्मकी स्थिति ४८ समय है। उसके निषेक भी ४८ हैं। उन निषेकोंके सब परमाणु २५ हजार हैं। उनमें अपकर्षण भागहारका कल्पित प्रमाण ५ से भाग देनेसे पाँच हजार लब्ध आया, अतः २५हजारमेंसे ५ हजार परमाणु लेकर उनमें से
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं ६१००. एवं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि जहण्णगुणसंकमपरिणामेहि तजहण्णकालेण समावूरिय पुणो अंतोमुहुत्तं गंतूण उवसमसम्मत्तकालभंतरे चेव अणंताणुबंधिचउक २५० परमाणु तो उदयावलीमें दिये । ४८ • निषेकोंमेंसे प्रारम्भके ४ निषेक उदयावलीके हैं। उनमें उत्तरोत्तर घटते हुए परमाणु दिये। एक हजार परमाणु गणश्रेणि आयाममें दिये। सो पाँचसे लेकर बारह तक आठ निषेक गुणणि आयामके हैं। इनमें उत्तरोत्तर असंख्यातगुणे असंख्यातगुणे परमाणु मिलाये । बाकीके ३७५० परमाण ऊपरकी स्थितिमें दिये । सो शेष ३६ निषेक रहे। उनमेंसे अन्तके ४ निषेक अतिस्थापनारूप हैं। उन्हें छोड़ बाकी १३ से लेकर ४४ पर्यन्त ३२ निषेकोंमें उत्तरोत्तर चयघाट परमाणु मिलाये । यहाँ गुणश्रेणिआयामका प्रमाण अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके कालसे कुछ अधिक होता है। इस गुणश्रेणिआयामके अन्तके निषेकोंको गुणणिशीर्ष कहते हैं, क्योंकि शीर्ष अर्थात् सिर ऊपरके अंगका नाम है। इस प्रकार प्रतिसमय मिथ्यात्वप्रकृतिके संचित द्रव्यका अपकर्षण करके गुणणि करता है। जब अनिवृत्तिकरणके कालमेंसे संख्यातवाँ भाग काल बाकी रहता है तो मिथ्यात्वका अन्तरकरण करता है। विवक्षित कर्मकी नीचे और ऊपरकी स्थितिको छोड़कर मध्यकी अन्तर्मुहूर्तमात्र स्थितिके निषेकोंके अभाव करनेको अन्तरकरण कहते हैं। ऊपर अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके कालसे जो कुछ अधिक गुणश्रेणि आयाम कहा था सो यहाँ वह कुछ अधिक भाग ही गुणश्रेणिशीर्ष है। उस गुणश्रेणिशीर्षके सब निषेकों और उससे संख्यातगुणे गुणश्रेणिशीर्षसे ऊपरके ऊपरकी स्थितिसम्बन्धी निषेकोंको मिलानेसे अन्तरायाम अर्थात् अन्तरका काल होता है जो अन्तर्मुहूर्त मात्र है । इतने निषेकोंको बीचसे उठाकर ऊपरकी अथवा नीचेकी स्थितिमें स्थापित करके उनका अभाव कर देता है। यहाँ अन्तरकरण करनेके कालके प्रथम समयसे लेकर अनिवृत्तिकरणका जो संख्यातवाँ भाग-काल शेष रहा था उसके भी संख्यातवें भाग काल पर्यन्त तो अन्तरकरण करनेका काल है और उससे ऊपर बाकी बचा हुआ बहुभागमात्र काल प्रथम स्थिति सम्बन्धी काल है और उससे ऊपर जिन निषेकौंका अभाव किया सो अन्तर्मुहूर्त मात्र अन्तरायाम अर्थात् अन्तरका काल है। प्रथम स्थितिमें आवलिमात्र काल शेष रहने पर मिथ्यात्वकी स्थिति और अनुभागका उदीरणारूपसे घात नहीं होता। किन्तु स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात प्रथम स्थितिके अन्तिम समय पर्यन्त होता है। इस प्रकार मिथ्यात्वकी प्रथम स्थितिका क्रमसे वेदन करता हुआ वह जीव चरमसमयवर्ती मिथ्यादृष्टि होता है। उसके अनन्तरवर्ती समयमें मिथ्यात्वकी सम्पूर्ण प्रथम स्थितिको समाप्त करके उपशमसम्यक्त्वको उत्पन्न करता है। अर्थात् अन्तरायाममें प्रवेश करनेके प्रथम समयमें ही दर्शनमोहनीयका उपशम करके उपशमसम्यग्दृष्टि हो जाता है और उसी प्रथम समयमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतियोंकी उत्पत्ति होती है। जैसे चाकीमें दले जानेसे धान्यके तीन रूप हो जाते हैं उसी तरह अनिवशिकरणरूप परिणामोंसे एक दर्शनमोहनीय कर्म तीन रूप हो जाता है। यहाँ दर्शनमोहका सर्वोपशमन नहीं होता, अतः उपशम हो जाने पर भी संक्रमकरण और अपकर्षणकरण पाये जाते हैं। इसीलिए एक अन्तर्मुहूर्त काल तक गुणसंक्रमके द्वारा मिथ्यात्वके प्रदेशसंचयका सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमण होता है । जिसका क्रम पूर्वमें बतलाया है।
१००. इस प्रकार जघन्य गुणसंक्रमके कारण परिणामोंसे और उसके जघन्य कालके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको पूरित करके अनन्तर अन्तर्मुहूर्तको बिताकर उपशम सम्यक्त्व कालके भीतर ही अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करता है। फिर उपशम
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ विसंजोइय उवसमसम्मत्तकालं समाणिय वेदगसम्मत्तं पडिवजिय तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय दसणमोहक्खवणमाढवेमाणो तिण्णि वि करणाणि करेदि । तत्थ अधापवत्तकरणं कादण पच्छा अपुव्वकरणं करेमाणो जहण्णपरिणामेहि चेव गुणसेटिं करेदि थोवदव्वणिजरणटुं । सम्मत्तस्स उदयावलियम्भंतरे असंखेजलोगपडिभागियं दव्वं घेत्तण गोवुच्छायारेण संछुहदि, सोदयत्तादो। सेसमोक्कड्डिददव्वमुदयावलियबाहिरे गुणसेढिआगारेण णिसिंचदि । मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पुण ओकड्डिददव्वमुदयावलियबाहिरे चेव गुणसेढिआगारेण णिसिंचदि, तेसिमुदयाभावादो। सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणमुवरि गुणसंकमेण समयं पडि मिच्छत्तं संकामेदि । तदो अपुव्वकरणद्धं गमिय अणियट्टिकरणद्धाए संखेजेसु भागेसु गदेसु दूरावकिट्टीसण्णिदष्टिदीए समुप्पत्ती होदि । तदोप्पहुडि दूरावकिट्टिद्विदिमसंखेज्जे खंडे कादूण तत्थ बहुखंडाणि अंतोमुहुत्तेण धादिदे जाव मिच्छत्तदुचरिमद्विदिकंडए त्ति । तदो मिच्छत्तचरिमट्ठिदिखंडयमागाएंतो उदयावलियबाहिरे आगाएदूण चरिमट्ठिदिखंडयफालीओ सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं सरूवेण संकामेदि। एवं संकामेमाणेण जाधे' मिच्छत्तचरिमखंडयस्स चरिमफाली सम्मामिच्छत्तस्सुवरि संकामिदा सम्यक्त्वके कालको समाप्त करके वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके उसमें अन्तर्मुहूर्त कालतक ठहर कर दर्शनमोहके क्षपणका प्रारम्भ करता हुआ तीनों करणोंको करता है। ऐसा करता हुआ वहाँ अधःप्रवृत्तकरणको करके पीछे अपूर्वकरणको करता हुआ जघन्य परिणामोंसे। गुणश्रेणिको करता है जिससे थोड़े द्रव्यकी निर्जरा हो । तथा सम्यक्त्व प्रकृतिके अपकर्षित द्रव्यमें असंख्यात लोकका भाग देकर लब्ध एक भागप्रमाण द्रव्यको उदयावली के अन्दर गोपुच्छके आकार रूपसे निक्षेपण करता है, क्योंकि उस प्रकृतिका उदय है । अर्थात् जैसे गौकी पूंछ क्रमसे घटती हुई होती है वैसे ही एक एक चय घटता क्रमसे निषेकोंकी रचना उदयावलीमें करता है और बाकी वचे अपकृष्ट द्रव्यको उदयावलोसे बाहर गुणश्रेणिके आकार रूपसे स्थापित करता है। अर्थात् ऊपर ऊपरके निषेकोंमें असंख्यातगुणे असंख्यातगणे द्रव्यका निक्षेपण करता है। यह तो उदय प्राप्त सम्यक्त्व प्रकृतिकी गणणि रचनाका क्रम हुआ। परन्तु मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वके अपकृष्ट द्रव्यको उदयावलीके बाहर ही गुणश्रेणिके आकार रूपसे निक्षेपण करता है, क्योंकि उनका उदय नहीं है । अर्थात् उदय प्राप्त प्रकृतिके अपकृष्ट द्रव्यका निक्षेपण उदयावलीमें करता है किन्तु जिसका उदय नहीं है उसके अपकृष्ट द्रव्यका निक्षेपण उदयावलीसे बाहर करता है तथा गुणसंक्रमके द्वारा प्रति समय मिथ्यात्वको सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिमें संक्रान्त करता है । इस प्रकार अपूर्वकरणके कालको बिताकर अनिवृत्तिकरण कालके संख्यात बहुभाग बीतनेपर दूरापकृष्टि नामकी स्थितिकी उत्पत्ति होती है, इसलिए वहाँसे लेकर दुरापकृष्टि स्थितिके अप्तंख्यात खण्ड करके उनमेंसे बहुतसे खण्डोंको मिथ्यात्वके द्विचरम स्थितिकाण्डकके प्राप्त होनेतक अन्तर्मुहूर्तके द्वारा घातता है। उसके बाद मिथ्यात्वके अन्तिम स्थितिकाण्डकको ग्रहण करता हुआ उदयावलीके बाहर ही ग्रहण करके अन्तिम स्थितिकाण्डककी फालियोंको सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वरूपसे संक्रमित करता है। इस प्रकार संक्रमण करते हुए जब मिथ्यात्वके अन्तिम काण्डककी अन्तिम फाली सग्मिथ्यात्वमें संकान्त होती है तब
१. ता०प्रतौ 'जादे (धे ) आप्रतौ 'जादे' इति पाठः ।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं ताधे सम्मामिच्छत्तउकस्सपदेसविहत्ती, सगअसंखे०भागेणूणमिच्छत्तुक्कस्सदव्वस्स सम्मामिच्छत्तसरूवेण परिणयस्सुवलंभादो। सम्मत्तसरूवेण संकेतदव्वमोकहिदूण गुणसेढीए गालिददव्वं च मिच्छत्तुक्कस्सदव्वस्स असंखे०भागो त्ति कत्तो णव्वदे ? उवरि भण्णमाणपदेसप्पाबहुगसुत्तादो। एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो । सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है, क्योंकि उस समय अपना असंख्यातवाँ भाग कम मिथ्यात्वका उत्कृष्ट द्रव्य सम्यग्मिथ्यात्वरूपसे परिणमित हुआ पाया जाता है। अर्थात् चूंकि मिथ्यात्वके उत्कृष्ट द्रव्यका असंख्यातवाँ भाग तो सम्यक्त्वरूप हो जाता है और गुणश्रेणीके द्वारा निर्जीर्ण हो जाता है, शेष बहुभाग द्रव्य सम्मग्मिथ्यात्व रूप हो जाता है अतः उस समय सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय होनेसे उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है।
का-मिथ्यात्वका जो द्रव्य सम्यक्त्व रूपसे संक्रान्त होता है तथा जो द्रव्य अपकृष्ट होकर गणरणिके द्वारा गल जाता है वह सब द्रव्य मिथ्यात्वके उत्कृष्ट द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है।
समाधान-आगे कहे जानेवाले प्रदेशविषयक अल्पबहुत्वको बतलानेवाले सूत्रसे जाना जाता है।
यह उक्त सूत्रका भावार्थ है।
विशेषार्थ—सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय गुणितकर्माशवाले दर्शनमोहके क्षपकके बतलाया है। अतः गुणितकांशवाले मिथ्यादृष्टिके उपशम सम्यक्त्व उत्पन्न कराकर क्षापोपशमिक सम्यक्त्व उत्पन्न कराया है और फिर दर्शनमोहका क्षपण कराया है। दर्शनमोहके क्षपणके लिये भी पूर्वोक्त तीन करण होते हैं और वहाँ भी अपर्वकरण और अनिवृत्तिकरणमें गुणश्रेणि आदि कार्य होते हैं। उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करनेके समय और यहाँ पर भी यह गुणश्रेणि जघन्य परिणामोंसे ही कराना चाहिये, क्योंकि यदि पहले उत्कृष्ट आदि परिणामोंसे गुणश्रेणि कराई जायेगी तो मिथ्यात्वका संचित बहुत द्रव्य गुणश्रेणिनिर्जराके द्वारा निर्जीर्ण हो जायेगा और ऐसी स्थितिमें सम्यग्मिथ्यात्वमें अधिक द्रव्यका संक्रमण न हो सकनेसे उसका उत्कृष्ट संचय नहीं बन सकेगा, तथा यहाँ पर भी उत्कृष्ट परिणामोंसे गुणश्रेणि कराने पर तीनों प्रकृतियोंका बहुत द्रव्य निर्जीर्ण हो जायेगा। उपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति कराते हुए यह कहा था कि मिथ्यात्वके अपकृष्ट द्रव्यका निक्षेप उदयावलीसे अतिस्थापनावलीके पूर्व तक होता है। किन्तु यहाँ पर सम्यक्त्व प्रकृतिके अपकृष्ट द्रव्यका निक्षेप तो उदयावलीसे ही होता है किन्तु मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वक अपकृष्ट द्रव्यका निक्षेप उदयावलीमें न होकर उससे बाहर गुणश्रेणि और द्वितीय स्थितिमें ही होता है । इसका कारण यह है कि जिस प्रकृतिका उदय होता है उसके अपकृष्ट द्रव्यका निक्षेप उदयालिसे किया जाता है और जिस प्रकृतिका उदय नहीं होता है उसके अपकष्ट द्रव्यका निक्षेप उदयावलीमें न होकर उससे बाहर ही होता है। क्षायोपशमिक सम्यग्दृष्टिके केवल सम्यक्त्वप्रकृतिका ही उदय होता है सम्यग्मिथ्यात्व और मिथ्यात्वका उदय नहीं होता, अतः उनके अपकृष्ट द्रव्यके निक्षेपणमें अन्तर है। इस प्रकार अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणमें गुणश्रेणि रचनाको करके अनिवृत्तिकरणके कालमेंसे संख्यात बहुभागप्रमाण कालके बीत जाने पर दूरापकष्टि नामकी स्थिति उत्पन्न होती है। स्थितिकाण्डकघातके द्वारा जिस स्थितिसत्कर्मका घात करते करते पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिसत्कर्म शेष रहता है उस सबसे अन्तिम पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिसत्कर्मको दूरापकृष्टि कहते हैं।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्तो५ * सम्मत्तस्स वि तेणेव जम्मि सम्मामिच्छत्तसम्म पक्लित्त तस्स सम्मत्तस्स उक्कस्सपदेससंतकम्मं ।
__१०१. तेणे त्ति वुत्ते सम्मामिच्छत्तकस्सपदेससंतकम्मिएण जीवेणे ति वुत्तं होदि । सम्मामिच्छत्तुक्कस्सपदेससंतकम्मिओ सगुदयावलियबाहिरासेसपदेसग्गं ण सम्मत्ते संकामेदि, अंतोमुहुत्तेण विणा तस्संकमणाणुववत्तीदो । जम्हि उद्देसे उदयावलियबाहिरासेससम्मामिच्छत्तदव्वं सम्मत्ते संकामेदि ण तत्थ सम्मामिच्छत्तस्स पदेसग्गमुक्कस्सं, गालिदअंतोमुहुत्तमेत्तगुणसेढीगोवुच्छत्तादो । तम्हा तेणेवे ति ण घडदे १ ण एस दोसो, जीवदुवारेण दोण्हं डाणाणमेयत्तं पडि विरोहाभावेण तदुववत्तीदो । सम्मामिच्छत्तुक्कस्सपदेससंतकम्मं काऊण पुणो अंतोमुहुत्तकालं संखेजडिदिखंडयसहस्सेहि गमिय सम्मामिच्छत्तस्स उदयावलियबाहिरासेसदव्वे सम्मत्तस्सुवरि संकामिदे सम्मत्तुक्कस्सदव्वं होदि ति भावत्थो। इसके बाद दूरापकृष्टि नामकी स्थितिके असंख्यात खण्ड करके उनमेंसे बहुतसे स्थिति खण्डोंका घात अन्तर्मुहुर्तमें करता है तब तक मिथ्यात्वका द्विचरिमस्थितिकाण्डक हो जाता है। इसके बाद मिथ्यात्वके अन्तिम स्थितिकाण्डकका आगाल करते हुए अर्थात् उसके ऊपरकी स्थितिमें स्थित निषेकोंको प्रथम स्थितिमें स्थापित करते हुए उदयावलिसे बाहर ही स्थापित करता है और ऐसा करके अन्तिम स्थितिकाण्डककी फालियोंका सम्यक्त्व और सभ्यग्मिथ्यात्व रूपसे संक्रमण करता है। ऐसा करते हुए जब मिथ्यात्वके उस अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फाली सम्यग्मिथ्यात्वरूपसे हो जाती है तब सम्यग्मिथ्यात्वको उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिहोती है।
वही जीव जब सम्यग्मिथ्यात्वको सम्यक्त्वमें प्रक्षिप्त कर देता है तो उसके सम्यक्त्वप्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है।
६ १०१. 'वही जीव' ऐसा कहनेसे सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मवाले जीवका ग्रहण होता है।
शंका-सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मवाला जीव अपने उदयाचली बाह्य समस्त प्रदेशसमूहको सम्यक्त्व प्रकृतिमें संक्रान्त नहीं करता, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त कालके विना उसका संक्रमण नहीं बन सकता । और जब उदयावली बाह्य सम्यग्मिथ्यात्वके सब द्रव्यको सम्यक्त्वमें संक्रान्त करता है तब उसके सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म नहीं रहता, क्योंकि उस समय अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण गुणश्रेणी और गोपुच्छका गलन हो जाता है, अतः सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मवाले जीवके ही सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है यह बात घटित नहीं होती ?
समाधानयह दोष ठीक नहीं है, क्योंकि एक जीवकी अपेक्षा दोनों स्थानोंके एक होनेमें कोई विरोध नहीं है, अतः उक्त कथन बन जाता है। भावार्थ यह है कि सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मको करके फिर संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंके द्वारा अन्तर्मुहूर्त कालको बिताकर जब सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयावली बाह्य समस्त द्रव्यको सम्यक्त्व प्रकृतिमें संक्रमित करता है तब सम्यक्त्वका उत्कृष्ट द्रव्य होता है।
१. आ.प्रती 'दोण्हमवट्ठाणमेयत्तं' इति पाठः ।
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- नहीं
गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं ६१०२ एदं पिसम्मत्तुक्कस्सपदेसग्गं मिच्छत्तुक्कस्सपदेसग्गादोअसंखेजदिभागहोणं, गुणसेडीए गलिदासेसदव्वस्स तदसंखे०भागत्तादो। एगसमयपबद्धं ठविय दिवड्डगुणहाणीए गुणिदे मिच्छत्तुक्कस्सदव्वं होदि । तम्हि तप्पाओग्गोकडकड्डणभागहारेण तप्पाओग्गासंखेजरूवगुणिदेण भागे हिदे सम्मत्तादो एगसमएण गुणसेढीए गलिदुक्कस्सदव्वं होदि । एदस्स असंखे०भागो हेट्ठा गट्ठासेसदव्वं, एत्थोकड्डिददव्वस्स पहाणत्तुवलंभादो । जेणेदं णट्ठदव्वस्स पमाणं तेण सेसासेसमिच्छत्तदव्वं सम्मत्तसरूवेण अस्थि त्ति घेत्तव्वं । एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो । णवरि सम्मामिच्छत्तकस्सदव्वादो सम्मत्तकस्सदव्वं विसेसाहियं, गुणसेढीए उदएण गलिददव्वं पेक्खिय गुणसंकमेण सम्मत्तागारेण परिणयदव्वस्स असंखे०गुणत्तादो। तदसंखे गुणतं कत्तो णव्वदे ? उवरि भण्णमाणपदेसप्पा बहुअसुत्तादो।
विशेषार्थ-सूत्र में कहा गया है कि सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मवाले जीवके ही सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है । इस पर शंकाकारका कहना है कि यह बात नहीं बन सकती, क्योंकि जब उस जीवके सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट द्रव्य रहता है तब सम्यक्त्वका उत्कृष्ट द्रव्य नहीं प्राप्त होता । और जब सम्यग्मिथ्यात्वका उदयावलिके बिना शेष सब द्रव्य सम्यक्त्वमें संक्रान्त होता है तब वह सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म रहता, क्योंकि तब तक सम्यग्मिथ्यात्वके गुणश्रेणी और गोपुच्छाकी निर्जरा हो लेती है । इसका यह समाधान किया गया है कि उक्त कथन एक जीवकी अपेक्षासे किया है। अर्थात् जो जीव सम्यग्मिमिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मवाला होता है वही जीव सम्यक्त्वका भी उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मवाला होता है। इसका यह मतलब नहीं है कि एक ही समयमें दोनों कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होते हैं किन्तु कालभेदसे सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मवाला जीव ही सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मका भी स्वामी होता है।
१०२. सम्यक्त्वका यह उत्कृष्ट प्रदेशसंचय भी मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंचयसे असंख्यातवें भागप्रमाण हीन होता है, क्योंकि गुणश्रेणिके द्वारा जो द्रव्य निर्जीर्ण हो जाता है वह सब द्रव्य मिथ्यात्वके उत्कृष्ट संचयके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है। एक समयप्रबद्धकी स्थापना करके डेढ़ गुणहानिसे गुणा करने पर मिथ्यात्वका उत्कृष्ट द्रव्य होता है। उस उत्कृष्ट द्रव्यमें उसके योग्य असंख्यातगुणे तत्प्रायोग्य उत्कर्षण-अपकर्षण भागहारके द्वारा भाग देने पर जो लब्ध आवे वह सम्यक्त्व प्रकृतिका एक समयमें गणश्रेणिके द्वारा गलनेवाला उत्कृष्ट दव है और उसके असंख्यातवें भागप्रमाण नीचे नष्ट हुए कुल द्रव्यका प्रमाण है, क्योंकि यहाँ अपकर्षित द्रव्यकी प्रधानता पाई जाती है। यतः नष्ट द्रव्यका प्रमाण इतना है अतः बाकीका सब मिथ्यात्वका द्रव्य सम्यक्त्वरूपसे अवस्थित रहता है ऐसा इस सूत्रका भावार्थ लेना चाहिये । किन्तु सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट द्रव्यसे सम्यक्त्वका उत्कृष्ट द्रव्य विशेष अधिक है, क्योंकि गुणश्रेणिके उदयसे निर्जीर्ण होनेवाले द्रव्यकी अपेक्षा गुणसंक्रमके द्वारा सम्यक्त्वरूपसे परिणत हुआ द्रव्य असंख्यातगुणा होता है।
शंका-वह द्रव्य असंख्यातगुणा है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-आगे कहे जानेवाले प्रदेशविषयक अल्पबहुत्वका कथन करनेवाले सूत्रसे जाना जाता है।
१२
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पदेसविहत्ती ५
विशेषार्थ-क्रम यह है कि जिस समय मिथ्यात्वका पूरा संक्रमण होता है उस समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी बची हुई स्थितिके बहुभागका घात करता है और इस प्रकार संख्यात स्थितिकाण्डकोंका पतन करके जब सम्यग्मिथ्यात्वका सम्यक्त्वमें संक्रमण करता है तब सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है। इससे एक बात तो यह ज्ञात होती है कि जिस समय मिथ्यात्वका सम्यग्मिथ्यात्वमें पूरा संक्रमण होता है उससे सम्यग्मिथ्यात्वका सम्यक्त्वमें संक्रमण होनेके लिये अन्तर्मुहूर्त काल और लगता है, इसलिये सूत्रमें आये हुए 'तेणेव' पदका अर्थ 'सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मवालेके ही सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है' ऐसा न करके जो यह सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मवाला जीव है वही आगे चलकर सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मवाला होता है ऐसा करना चाहिये। अब इस योग्यतावाला आगे चलकर कब होता है इसका खुलासा मूल सूत्रमें ही किया है कि जब सम्यग्मिथ्यात्वका सम्यक्त्वमें पूरा संक्रमण करता है तब इस योग्यतावाला होता है। इतने कालके भीतर यद्यपि इस जीवके सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तर्मुहूर्त कालवाली गुणश्रेणीका और (उदयावलिप्रमाण) गोपुच्छाका गलन हो जानेसे सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेश नहीं रहते तब भी उस समय सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होने में कोई बाधा नहीं आती, क्योंकि उक्त गलित द्रव्यको छोड़कर सम्यग्मिथ्यात्वका शेष सब द्रव्य तब तक सम्यक्त्वको मिल जाता है, इसलिये उसका प्रदेशसत्कर्म बहुत अधिक बढ़ जाता है। यही कारण है कि गुणित कर्माशवाले जीवके जब सम्यग्मिथ्यात्वका सम्यक्त्वमें पूरा संक्रमण होता है तब सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म कहा है। यद्यपि इस प्रकार सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म प्राप्त होता है तो भी उसका प्रमाण कितना है यह एक प्रश्न है जिसका खलासा करते हए वीरसेन स्वामीने दो बातें कहीं हैं। प्रथम तो यह कि सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे असंख्यातवां भाग कम है और दूसरी यह कि सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे विशेष अधिक है। पहली बातके समर्थनमें वीरसेन स्वामीने यह हेतु दिया है कि गुणश्रेणीके द्वारा जितना द्रव्य गल जाता है वही अकेला मिथ्यात्वके प्रदेशसत्कर्मके असंख्यातवें भाग है और अधस्तन गलनाके द्वारा जो और द्रव्य गला है वह अतिरिक्त है। इससे स्पष्ट है कि मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म असंख्यातवां भाग कम होता है। विशेष खुलासा इस प्रकार है कि मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म गुणितकर्मा शवाले जीवके सातवें नरकके अन्तिम समयमें होता है। तब इसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता नहीं पाई जाती । अब यही जीव : वहाँसे निकलकर और तिर्यश्चके दो तीन भव लेकर मनुष्य होता है और आठ वर्षका होकर अन्तर्मुहूर्तमें उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके मिथ्यात्वके तीन टुकड़े कर देता है और इस प्रकार मिथ्यात्व तीन भागोंमें बट जाता है। अनन्तर अन्तर्मुहूर्तमें दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करता है और तब मिथ्यात्वको सम्यग्मिथ्यात्वमें और सम्यग्मिथ्यात्वको सम्यक्त्वमें संक्रमित करता है और इस प्रकार सम्यक्त्वका उत्कृष्ट द्रव्य प्राप्त किया जाता है। अब यहाँ विचारणीय बात यह है कि एक मिथ्यात्वका द्रव्य ही जो कि सातवें नरकके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट था वही आगे चलकर तीन भागोंमें बटता है, सम्यक्त्व प्राप्तिके समय मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व
और सम्यक्त्वकी गुणश्रेणी निर्जरा उसीमेंसे होती है और अन्तमें वही गलितसे शेष बचकर सबका सब सम्यक्त्वरूप परिणमता है तो वह मिथ्यात्वके उत्कृष्ट द्रव्यसे कम होना ही चाहिए। अब कितना कम है सो इस प्रश्नका यह खुलासा किया कि अ
कि अपकषण-उत्कषण भागहारके द्वारा सब द्रव्यका असंख्यातवा भाग ही गुणश्रेणी में प्राप्त होता है अतः इतना कम
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं 8 णवू सयवेदस्स उकस्सयं पदेससंतकम्मं कस्स ? ६१०३. सुगमं।
83 गुणिदकम्मंसिओ ईसाणं गदो तस्स चरिमसमयदेवस्स उकस्सयं पदेससंतकम्म।
१०४. गुणिदकम्मंसिओ किमट्ठमीसाणदेवेसु उप्पाइदो ? तसबंधगद्धादो संखेजगुणथावरबंधगद्धाए पुरिसित्थिवेदबंधसंभवविरहिदाए णqसयवेदस्स बहुदव्वसंचयह । ण च सत्तमपुढवीए थावरबंधगद्धा अस्थि जेण तत्थ णवूसयवेदस्स उकस्सपदेससंतकम्भं होज्ज । तसबंधगद्धादो थावरचंधगद्धा संखेजगुणा त्ति कुदो णव्वदे ? 'सव्वत्थोवा तसबंधगद्धा । थावरबंधगद्धा संखेजगुणा' ति एदम्हादो महाबंधसुत्तादो णव्वदे। सत्तमाए है। यहां अधःस्थिति गलनाके द्वारा जितना द्रव्य गल गया उसकी विवक्षा नहीं की, क्योंकि वह गुणश्रेणिके द्रव्यके भी असंख्यातवें भागप्रमाण है। यहाँ अकर्षण-उत्कर्षण भागहारको जो असंख्यातसे गुणित किया गया और फिर उसका जो मिथ्यात्वके उत्कृष्ट द्रव्यमें भाग दिया गया सो इसका कारण यह है कि अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारकी क्रिया बहुत काल तक चलती रहती है जिसका प्रमाण असंख्यात समय होता है। तथा दूसरी बातके समर्थनमें यह हेतु दिया है कि सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट द्रव्य प्राप्त होने पर उसमेंसे गुणश्रेणिको जितना द्रव्य मिलता है उससे भी असंख्यातगुणा द्रव्य सम्यक्त्वको मिलता है और इस प्रकार सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मके समय उसका कुल संचित द्रव्य सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट संचयसे अधिक हो जाता है । तात्पर्य यह है कि सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट संचयके समय सम्यक्त्वका जितना संचय है वह गुणश्रेणिरूपसे सम्यग्मिथ्यात्वके गलनेवाले द्रव्यसे बहुत अधिक है और फिर इसमें गुणश्रेणीके द्वारा जितना द्रव्य गलता है उसके सिवा सम्यग्मिथ्यात्वका शेष सब द्रव्य आ मिलता है । अब यदि सम्यक्त्वके इन दोनों द्रव्योंको जोड़ा जाता है तो उसका सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट द्रव्यसे विशेष अधिक होना स्वाभाविक है। यही कारण है कि वीरसेन स्वामीने सम्यक्त्वके उत्कृष्ट द्रव्यको सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट द्रव्यसे विशेष अधिक बतलाया।
* नपुंसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? ६ १०३. यह सूत्र सुगम है। .
* गुणितकर्माशवाला जो जीव ईशान स्वर्गमें उत्पन्न हुआ उसके देवपर्यायके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है।
१०. शंका-गुणितकाशवाले जीवको ईशान स्वर्गके देवोंमें क्यों उत्पन्न कराया है ?
समाधान-त्रसबन्धकके कालसे स्थावरबन्धकका काल संख्यातगुणा है और उस स्थावरबन्धक कालमें पुरुषवेद और स्त्रोवेदका बन्ध संभव नहीं है, अतः नपुसकवेदका बहत द्रव्य संचय करने के लिये ईशान स्वर्गके देवोंमें उत्पन्न कराया है। और सातवें नरकमें स्थावरबन्धक काल है नहीं, जिससे वहाँ नपुंसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म हो।
शंका-सबन्धकके कालसे स्थावरबन्धकका काल संख्यागुणा है यह किस प्रमाणसे जाना ?
समाधान-त्रसबन्धकका काल सबसे थोड़ा है । स्थावरबन्धकका काल उससे संख्यातगुणा है' इस महाबन्धके सूत्रसे जाना।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ पुढवीए तेत्तीससागरोवमाणि संखेजखंडाणि कादूण तत्थ बहुभागा णqसयवेदबंधकालो होदि, 'प्रक्षेपकसंक्षेपेण' एदम्हादो सुत्तादो तदुवलद्धीए । ईसाणदेवेसु पुण सगसंखे०भागेणूणवेसागरोवममेत्तो चेव णव॒सयवेदसंचयकालो लब्भदि तेण सत्तमपुढवीए चेव उकस्ससामित्तं दिजदि ति ? ण, सव्वतसहिदि णेरइएसु बहुसंकिलेसेसु गमिय तसहिदीए ईसाणदेवाउअमेत्ताए सेसाए ईसाणदेवेसुप्पण्णस्स लाहुवलंभादो। अथवा एसो णqसयवेदगुणिदकम्मंसओ एईदिए हिंतो णिप्पिडिदण तसेसु हिंडमाणो बहुवारमीसाणदेवेसु चेव उप्पाएदव्यो त्ति एसो सुत्ताहिप्पाओ, तसहिदि संखेजखंडाणि कादूण तत्थ बहुखंडीभूदथावरबंधगद्धं तसबंधगद्धाए संखेजे' भागे च णqसयवेदस्सुवलंभादो। ईसाणसद्दो जेण देसामासिओ तेण तसथावरबंधपाओग्गासेसतसेसु जहासंभवमुप्पाएदव्वो त्ति भावत्थो। णेरइएसु व णत्थि उक्कड्डणा, अइतिव्वसंकिलेसाभावादो। तदो एत्थ ण उप्पादेदव्यो त्ति ण पञ्चवडेयं, बंधगद्धालाहस्सेव उक्कड्डणालाहस्स पहाणत्ताभावादो।
शंका-सातवें नरककी तेतीस सागरकी स्थितिके संख्यात खण्ड करके उनमें से बहुभाग नपुंसकवेदके बन्धका काल होता है। यह बात "प्रक्षेपकसंक्षेपेण" इस सूत्रसे उपलब्ध होती है। किन्तु ईशान स्वर्गके देवामें अपने संख्यातवें भाग कम दो सागरप्रमाण ही नपुंसकवेदका संचयकाल पाया जाता है , अतः नपुंसकवेदके उत्कृष्ट संचयका स्वामित्व सातवें नरकमें ही देना चाहिये।
समाधान नहीं, क्योंकि त्रसपर्यायकी सब स्थितिको बहुत संक्लेशवाले नारकियोंमें बिताकर ईशान स्वर्गकी देवायुप्रमाण त्रसस्थितिके शेष रहने पर ईशान स्वर्गके देवोंमें उत्पन्न होने वाले जीवके लाभ अर्थात् उत्कृष्ट संचय अधिक पाया जाता है।
___ अथवा नपुसकवेदका गुणितकाशवाला यह जीव एकेन्द्रियोंमेंसे निकलकर जब त्रसोंमें भ्रमण करे तो उसे बहुत बार ईशानस्वर्गके देवोंमें ही उत्पन्न कराना चाहिये, ऐसा उक्त चूणिसूत्रका अभिप्राय है, क्योंकि त्रसस्थितिके संख्यात खण्ड करके उनमेंसे बहुत खण्डप्रमाण स्थावरबन्धककालमें और संख्यातवें भागप्रमाण त्रसबन्धककालमें नपुंसकवेदका बन्ध पाया जाता है। यतः ईशान शब्द देशामर्षक है, अतः त्रस और स्थावरके बन्धयोग सब त्रसोंमें यथासंभव उत्पन्न कराना चाहिये यह उस सूत्रका भावार्थ है।
शंका-ईशान स्वर्गके देवोंमें नारकियोंकी तरह उत्कर्षण नहीं होता, क्योंकि देवोंमें अति तीन संक्लेशका अभाव है। अतः ईशानमें उत्पन्न नहीं कराना चाहिये।
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये; क्योंकि बन्धककालके लाभकी तरह उत्कर्षणके लाभकी प्रधानता नहीं है। अर्थात् उत्कृष्ट संचयके लिये बन्धककाल जितना आवश्यक है उतना उत्कर्षण आवश्यक नहीं है।
विशेषार्थ-नपुंसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसत्त्व गुणितकाशवाले ईशान स्वर्गके देवके बतलाया है । इसका कारण बतलाते हुए वीरसेन स्वामी लिखते हैं कि ईशान स्वर्गमें त्रसबन्धककाल और स्थावर बन्धककाल दोनों होते हैं। उसमें भी स्थावरबन्धककाल सबन्धककालसे
१. आप्रतौ '-यावरबंधगद्धाए संखेजे' इति पाठः ।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
संख्यातगुणा है और इसमें स्त्रीवेद और परुषवेदका बन्ध नहीं होता। इस प्रकार ईशान स्वर्गमें केवल नपसकवेदके बन्धकी अधिक काल तक संभावना होनेसे उसके द्रव्यका अधिक संचय हो जाता है इसलिये नपुसकवेदके अधिक संचयके लिये गुणितकाशवाले जीवको ईशान स्वर्गमें उत्पन्न कराया है। इस पर यह शंका हुई कि सातवें नरककी उत्कृष्ट आयु तेतीस सागर है और ईशान स्वर्गकी उत्कृष्ट आयु साधिक दो सागर है। अब यदि इन दोनों स्थलोंमें नपुसकवेदका बन्धकाल प्राप्त किया जाता है तो वह ईशान स्वर्गसे सातवें नरकमें नियमसे अधिक प्राप्त होता है, क्योंकि ऐसा नियम है कि पुरुषवेदका बन्धकाल सबसे थोड़ा है, इससे स्त्रीवेदका बन्धकाल संख्यातगुणा है और इससे नपुसकवेदका बन्धकाल संख्यातगुणा है। इस नियमके अनुसार तेतीस सागरके संख्यात खण्ड करने पर उनमेंसे बहुभाग खण्ड नपुसकवेदके बन्धकालके प्राप्त होते हैं। तथा ईशान स्वर्गमें नपुसकवेदका उत्कृष्ट बन्धकाल अपना संख्यातवाँ भाग कम दो सागर प्राप्त होता है। सो भी यह इतना अधिक काल तब प्राप्त होता है जब ईशान स्वर्गमें त्रसबन्धकालसे स्थावरबन्धकाल संख्यातगुणा स्वीकार कर लिया जाता है । तो भी सातवें नरकमें नपुसकवेदके बन्धकालसे ईशान स्वर्गमें नपुसकवेदका वन्धकाल बहुत थोड़ा प्राप्त होता है, इसलिये नपसकवेदका उत्कृष्ट संचय सातवें नरकमें बतलाना च
। वीरसे शंकाका दो प्रकारसे समाधान किया है। एक तो यह कि संपूर्ण त्रसस्थितिको बहुत संक्लेशसे युक्त नारकियोंमें व्यतीत कराया जाय और जब उस स्थितिमें ईशान स्वर्गके देवकी आयुप्रमाण काल शेष रहे तब उसे ईशान स्वर्गमें उत्पन्न कराया जाय तो इससे नपसकवेदका अधिक संचय संभव है। यही कारण है कि अन्तमें ईशान स्वर्गमें उत्पन्न कराया है। पर मालम होता है कि वीरसेन स्वामीको इस उत्तर पर स्वयं संतोष नहीं हुआ। उसका कारण यह है कि पूर्व में मिलान करते हुए जो ईशान स्वर्गसे सातवें नरकमें नपुसकवेदका अधिक बन्धकाल बतलाया है सो यह तेतीस सागरसे साधिक दो सागरका मिलान करके प्राप्त किया गया है। अब यदि दोनों स्थलों पर समान कालके भीतर नपुसकवेदका बन्धकाल प्राप्त किया जाय तो वह सातवें नरकसे ईशान स्वर्गमें बहुत अधिक प्राप्त होता है, क्योंकि सातवें नरकमें केवल सबन्धकाल है स्थावर बन्धकाल नहीं और ईशानस्वर्गमें स्थावर बन्धकाल भी है जिससे यहाँ नपुसकवेदका बन्धकाल अधिक प्राप्त हो जाता है। वीरसेन स्वामीने पहले उत्तरमें इस दोषका अनुभव किया और तब वे अथवा करके दूसरा उत्तर देते हैं। उसका भाब यह है कि त्रसस्थिति साधिक दो हजार सागर कालके भीतर गणितकर्माशवाले इस एकेन्द्रिय जीवको त्रसोंमें उत्पन्न कराते हए ईशान स्वगेके देवोंमें बहुत बार
र उत्पन्न करावे। इससे नपसकवेदका बन्धकाल अधिक प्राप्त हो जानेसे उसका संचय भी अधिक प्राप्त होगा। इस पर यह शंका हो सकती है कि क्या यह संभव है कि यह जीव सदा ईशान स्वर्गके देवोंमें उत्पन्न होता रहे। अतः इस शंकाको ध्यानमें रखकर वीरसेन स्वामी आगे लिखते हैं कि सूत्र में जो ईशान शब्द आया है सो वह देशामर्षक है। उसका भाव यह है कि इस जीवको त्रस और स्थावरके बन्धयोग्य यथासंभव सब त्रसोंमें उत्पन्न कराया जाय। उसमें इतना ध्यान अवश्य रखे कि अधिकसे अधिक जितनी बार ईशान स्वर्गके देवोंमें उत्पन्न कराया जा सके कराया जाय । इतनेके बाद भी यह शंका की गई कि माना कि ईशान स्वर्गमें नपुसकवेदका बन्धकाल अधिक है पर वहाँ अधिक संकेश परिणाम सम्भव न होनेसे नरकके समान अधिक उत्कर्षण नहीं हो सकता, अतः नप सकवेदके संचयके लिये नरकमें ही उत्पन्न कराना ठीक है। इस शंकाका वीर
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ६१०५. संपहि एत्थ णqसयवेदुक्कस्सदव्वस्स उपसंहारे भण्णमाणे संचयाणुगमो भागहारपमाणाणुगमो लद्धपमाणाणुगमो चेदि तिण्णि अणियोगदाराणि होति । तत्थ संचयाणुगमो वुच्चदे । तं जहा-कम्मट्टिदिपढमसमयप्पहुडि जाव अंतोमुहुत्तकालं ताव तत्थ पबद्धणqसयवेददव्वमत्थि । पुणो तदुवरि अंतोमुहुत्तमेत्तकालसंचिददव्वं णत्थि, तत्थाणप्पिदवेदेसु बज्झमाणेसु णqसयवेदस्स बंधाभावादो। पुणो वि उवरि अंतोमुहुत्तमेत्तकालसंचओ अत्थि, तत्थ णवंसयवेदस्स बंधुवलंभादो। तदुवरिमअंतोमुहुत्तमेत्तकालसंचओ णत्थि, तत्थ पडिवक्खपयडिबंधसंभवादो। एवं णेदव्वं जाव कम्मद्विदिचरिमसमओ त्ति । णवरि एत्थ कम्मद्विदिकालभंतरे पडिवक्खपयडिबंध
सेन स्वामीने जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि उत्कर्षणसे जितना संचय होगा उससे बन्धकी अपेक्षा होनेवाला संचय ज्यादह लाभकर है, अतः ऐसे जीवको अधिकतर ईशान स्वर्गके देवोंमें ही उत्पन्न कराना चाहिये । यहाँ पर प्रकरणवश एक करणगाथांश उद्धृत किया गया है जो पूरी इस प्रकार है
प्रपेक्षकसंक्षेपेण विभक्त यद्धनं समुपलब्धम् ।
प्रक्षेपास्तेन गुणाः प्रक्षेपसमानि खण्डानि ।। इसलिए नपुंसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय ईशान स्वर्गमें उत्पन्न होनेवाले गुणितकर्माश जीवके देवपर्यायके अन्तिम समयमें बतलाया है, क्योंकि ईशान स्वर्गका देव मरकर एकेन्द्रिय हो जाता है, अतः वहाँ स्थावर प्रकृतियोंका बन्धकाल संभव है और स्थावर प्रकृतियोंके बन्धके समय केवल नपुसकवेदका ही बन्ध होता है, क्योंकि स्थावर नपुंसक ही होते हैं, अतः ईशान स्वर्गके देवके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट संचय संभव है। सातवें नरककी स्थिति यद्यपि तेतीस सागर है, किन्तु वहाँ स्थावर पर्यायका बन्धकाल नहीं है, क्योंकि सातवें नरकसे निकलकर जीव संज्ञी पञ्चन्द्रिय पर्याप्तक तियश्च ही होता है। अतः गणितकर्माश जीवके सातवें नरकके अन्तमें नपुंप्तकवेदका उत्कृष्ट संचय नहीं बतलाया । 'अथवा' करके आगे जो भावार्थ बतलाया है वह स्पष्ट ही है। तथा यद्यपि सातवें नरकमें अतितीव्रसंक्लेश परिणाम होनेसे उत्कर्षण अर्थात् स्थिति और अनुभागमें वृद्धि होनेकी अधिक संभावना है किन्तु किसी प्रकृतिके उत्कृष्ट द्रव्य संचयके लिये उत्कर्षणकी अपेक्षा उस प्रकृतिका बन्ध होना अधिक लाभकारी है, क्योंकि बन्ध होनेसे अधिक प्रदेशों का संचय होता है।
६१०५. अब यहाँ नपुंसकवेदके उत्कृष्ट द्रव्यके उपसंहारका कथन करने पर संचयानुगम, भागहारप्रमाणानुगम और लब्धप्रमाणानुगम ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं। उनमें से संचयानुगमको कहते हैं। वह इस प्रकार है-कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त बन्धको प्राप्त नपुसकवेदका द्रव्य है। उसके बादके अन्तर्मुहूर्त कालमें नपुसकवेदका संचित होनेवाला द्रव्य नहीं है। अर्थात् उस अन्तमुहूर्तमें नपुंसकवेदका संचय नहीं होता, क्योंकि उसमें अविवक्षित स्त्रीवेद और पुरुषवेदका बन्ध होनेसे नपुसकवेदके बन्धका अभाव है। उससे ऊपरके अन्तर्मुहूर्त कालमें भी नपुसकवेदका संचय होता है, क्योंकि उसमें नपुसक वेदका बन्ध पाया जाता है। उससे ऊपरके अन्तर्मुहूर्त कालमें नपुंसकवेदका संचय नहीं होता, क्योंकि उसमें नपुसकवेदके प्रतिपक्षी स्त्रीवेद और पुरुषवेदका बन्ध सम्भव है। इसी प्रकार कर्मस्थितिके अन्तिम समय पर्यन्त ले जाना चाहिये । किन्तु इतना विशेष है कि इस
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
गाओ तब्बंध परियणवारा च सव्वत्थोवा कायव्वा, अण्णहा णवुंसयवेदस्सुकस्सदव्वसंचयाणुववत्तीदो । णिरंतरबंधीणं कसायाणं दव्वे णवुंसयवेदम्मि णिरंतरं संकते
वुंसयवेदस्स कम्मट्ठदिमेत्तकालसंचओ किण्ण लब्भदि १ ण, बंधुवरमे संते अंतोमुहुतमेतका कसा हिंतो णवुंसयवेदस्स कम्मपदेसागमाभाबादो । एदं कत्तो गव्वदे ! 'बंधे उकडुदि' ति सुत्तादो । मा होदु उकडणा, संकमेण पुण होदव्वं, तस्स पडिसेहाभावादति । संकमो वि णत्थि, बंधाभावेणापडिग्गहे णत्थि संकमो ति सुत्ताविरुद्धाहरियणादो । किं च एत्थ बज्झमाणदव्वं पहाणं ण संकमिददव्वं, तत्थायाणुसारिवयसादो । जदि बज्झमाणपयडी चेव पडिग्गहो तो मिच्छत्तदव्वं सम्मत्तपयडी ण पडिच्छदि, बंधाभावादो ति १ ण एस दोसो, बंधपयडीओ अस्सिदूण एदस्स लक्खणस्स पत्तदो । ण च अण्णत्थ पउत्तं लक्खणमण्णत्थ पयहृदि, विरोहादो । एवं संचयाणुगमो गदो ।
$ १०६. संपहि भागहारपमाणाणुगमो कीरदे । तं जहा — कम्मट्ठिदिपढमसमए जं बद्धं दव्वं तस्स अंगुलस्स असंखे ० भागो भागहारो । विदियसमए बद्धस्स किंचूर्ण कर्मस्थिति कालके अन्दर प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका काल और उनके बन्धके बदलनेके बार सबसे थोड़े करने चाहिये अन्यथा नपुंसक वेदका उत्कृष्ट संचय नहीं बन सकता ।
शंका — निरन्तर बंधनेवालीं कषायोंके द्रव्यका नपुंसक वेदमें निरन्तर संक्रमण होने पर नपुंसक वेदका संचय कर्मस्थिति कालप्रमाण क्यों नहीं पाया जाता ?
समाधान
नहीं, क्योंकि नपुंसकवेदका बन्ध रुक जानेपर अन्तर्मुहूर्त कालतक कषायों
मेंसे नपुंसक वेद में कर्मप्रदेशोंका आगमन नहीं होता ।
शंका- यह किस प्रमाणसे जाना ?
९५
समाधान —' बन्धके समय उत्कर्षण होता है' इति सूत्र से जाना ।
शंका-बन्ध के न होने पर यदि उत्कर्षण नहीं होता तो न होवे, संक्रमण तो होना चाहिए, क्योंकि उसका निषेध नहीं है ?
समाधान-बन्धके अभाव में संक्रम भी नहीं होता, क्योंकि 'बन्धका अभाव होने से अपतदुग्रह प्रकृति में संक्रमण नहीं होता' इस प्रकार सूत्रके अविरुद्ध आचार्य वचन हैं । दूसरे, यहाँ बँधने वाले द्रव्यकी प्रधानता है, संक्रमित द्रव्यकी नहीं, क्योंकि संक्रमित द्रव्यमें आयके अनुसार व्यय देखा जाता है ।
शंका- यदि बध्यमान प्रकृति ही पतद्ग्रह है तो मिथ्यात्वके द्रव्यको सम्यक्त्वप्रकृति नहीं ग्रहण कर सकती, क्योंकि उसका बन्ध नहीं होता ?
समाधान- यह दोष ठीक नहीं है, क्योंकि यह लक्षण बन्ध प्रकृतियोंकी अपेक्षा से ही लागू होता है । जो लक्षण अन्यत्र लागू होता है वह उससे भिन्न स्थलमें लागू नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा होने में विरोध आता है ।
इस प्रकार संचयानुगम समाप्त हुआ ।
$ १०६. अब भागहारके प्रमाणका अनुगम करते हैं । वह इस प्रकार है - कर्मस्थिति के प्रथम समयमें जो द्रव्य बांधा उसका भागहार अंगुळका असंख्यातवां भाग है । दूसरे समय में
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ पुव्वभागहारद्धं भागहारो । एवं किंचूणतिभाग-चदु०भागादिकमेण णेदव्वं जाव णqसयवेदवंधगद्धाचरिमसमओ त्ति। तदद्धाचरिमसमए णqसयवेदबंधगद्धोवट्टिदअंगुलस्स असंखे भागो किंचूणो भागहारो होदि । पुणो इत्थि-पुरिसबंधगद्धाओ वोलाविय उवरिमसमए बद्धणqसयवेददव्वस्स तिवेदद्धाहि ओवट्टिदअंगुलस्स असंखे भागो किंचूणो भागहारो होदि । एदम्हादो उवरि रूवाहियकमेण अंगुलस्स असंखे०भागभूदभागहारस्स भागहारो वड्डमाणो गच्छदि जाव अंतोमुत्तमेत्तविदियबंधगद्धाचरिमसमओ त्ति । पुणो दुगुणिदतिवेदबंधगद्धाहि ओवट्टिदअंगुलस्स असंखे०भागो किंचूणो भागहारो होदि । एवं जाणिदण णेदव्वं जावीसाणदेवचरिमसमयआउ ति ।
६१०७. संपहि समयपबद्धपमाणाणुगमो बुच्चदे। तं जहा—कम्मट्ठिदिअभंतरे तस-थावरबंधगद्धासु जदि दिवढगुणहाणिमेत्ता समयपबद्धा तिण्हं वेदाणं लब्भंति, तो थावरबंधगद्धाए किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए दिवडगुणहाणिं संखेजखंडाणि कादण तत्थ बहुखंडमेत्ता समयपबद्धा लभंति, तसवधं पेक्खिदूण थावरबंधगद्धाए संखे गुणत्तादो । एदे सव्वे वि समयपबद्ध गर्बुसयवेदो' चेव लहइ, थावरबंधकाले इत्थिपुरिसवेदाणं बंधाभावादो। एदं दव्वं पुध दृविय पुणो जो द्रव्य बाँधा उसका भागहार पूर्व भागहारके आधेसे कुछ कम है। इस प्रकार नपुंसकवेदके बन्धककालके अन्तिम समय पर्यन्त तीसरे आदि समयोंमें बँधनेवाले द्रव्यका भागहार पूर्व भागहारसे कुछ कम तिहाई, कुछ कम चौथाई आदि क्रमसे जानना चाहिये । नपुंसकवेदके बन्धककालके अन्तिम समयमें भागहारका प्रमाण अंगुलके असंख्यातवें भागमें नपुंसकवेदके बन्धकालका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उससे कुछ कम है। पुनः स्त्रीवेद और पुरुषवेदके बन्धककालको बिताकर उससे ऊपरके समयमें बंधनेवाले नपुंसकवेदके द्रव्यका भागहार अंगुलके असंख्यातवें भागमें तीनों वेदोंके कालका भाग देने पर जो लब्ध आवे उससे कुछ कम होता है। इससे ऊपर नपुंसकवेदके अन्तर्मुहूर्त काल प्रमाण द्वितीय बन्धक कालके अन्तिम समय पयन्त अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण भागहारका भागहार रूपाधिक क्रमसे बढ़ता जाता है। इसके बाद पुनः स्त्रीवेद और पुरुषवेदके बन्धककालको बिताकर उससे ऊपरके समयमें बंधनेवाले नपुंसकवेदके द्रव्यका भागहार अंगुलके असंख्यातवें भागमें द्विगुणित तीनों वेदोंके बन्धकालका भाग देनेसे जो लब्ध आवे उससे कुछ कम होता है। इस प्रकार भागहारको जानकर ईशान स्वर्गके देवकी आयुके अन्तिम समय पर्यन्त ले जाना चाहिये।
६१०७. अब समयप्रबद्धोंके प्रमाणका अनुगम करते हैं। वह इस प्रकार है-कर्मस्थिति कालके अन्दर त्रस और स्थावर प्रकृतियोंके बन्धककालोंमें यदि तीनों वेदोंके समयप्रबद्ध डेढ़ गुणहानिप्रमाण पाये जाते हैं तो स्थावरबन्धककालमें कितने समयप्रबद्ध प्राप्त होते हैं इस प्रकार राशिक करके फलराशिसे इच्छाराशिको गुणा करके उसमें प्रमाणराशिका भाग देनेसे डेढ़ गुणहानिक संख्यात खण्ड करके उनमेंसे बहुखण्डप्रमाण समयप्रबद्ध प्राप्त होते हैं, क्योंकि त्रसबन्धककालकी अपेक्षा स्थावर बन्धककाल संख्यातगणा है । ये सब समयप्रबद्ध नपुंसकत्रेदके ही होते हैं, क्योंकि स्थावर बन्धकालमें स्त्रीवेद और पुरुषवेदके बन्धका अभाव है। इस
१. ता०प्रतौ ‘णqसयवेदा' इति पाठः ।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं तस-थावरबंधगद्धाहि ओवट्टिददिवड्डगुणहाणिमेत्तसमयपबद्धेसु तसबंधगद्धाए गुणिदेसु कम्मष्टिदिअभंतरे तसबंधगद्धाए संचिदतिवेददव्वं होदि । सव्वत्थोवा तसबंधगद्धभतरपुरिसवेदबंधगद्धा। इत्थिवेदबंधगद्धा संखेगुणा । तत्थेव fqसयवेदबंधगद्धा संखे०गुणा । एदासिं तिण्हमद्धाणं समासस्स जदि दिवड्डगुणहाणीए' संखे०भागमेत्ता समयपबद्धा कम्मट्ठिदिअभंतरतसबंधगद्धाए लब्भंति तो णवंसयवेदबंधगद्धाए किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए दिवड्गुणहाणिमेत्तसमयपबद्धाणं संखे०भागं संखेजखंडाणि कादूण तत्थ बहुखंडमेत्ता समयपबद्धा कम्महिदिअभंतरतसबंधगद्धाए णवंसयवेदेण लद्धा। एदेसु समयपबद्धेसु पुव्विल्लथावरबंधगद्धासंचिदसमयपबद्धेसु पक्खित्तेसु कम्मट्ठिदिअभंतरे णवूस वेदेण संचिददव्वं होदि । होतं पि दिवडगुणहाणिमेत्तसमयपबद्धेसु संखेजस्वेहि खंडिदेसु तत्थ बहुखंडदव्वमेत्तं होदि । द्रव्यको पृथक् स्थापित करके पुनः डेढ़ गुणहानि प्रमाण समयप्रबद्धोंमें त्रस-स्थावर बन्धक कालसे भाग देकर जो लब्ध आये उसे सबन्धक कालसे गुणा करनेपर कर्मस्थितिकालके अन्दर जो सबन्धक काल है उसमें संचित हुए तीनों वेदोंका द्रव्य होता है। त्रसबन्धक कालके अन्दर पुरुषवेदका बन्धककाल सबसे थोड़ा है। स्त्रीवेदका बन्धककाल उससे संख्यातगुणा है और नपुंसकवेदका बन्धककाल उससे संख्यातगणा है। यदि कर्मस्थितिकालके अभ्यन्तरवर्ती त्रसबन्धककालमें इन तीनों वेदोंके कालोंमें संचित हुए समयप्रबद्ध डेढ़ गुणहानिके संख्यातवें भागमात्र पाये जाते हैं तो नपुंसकवेदके बन्धक कालमें संचित हुए समयप्रबद्ध कितने प्राप्त होते हैं ? इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे इच्छाराशिको गुणा करके प्रमाणराशिसे उसमें भाग देने पर डेढ़ गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्धोंके संख्यातवें भागके संख्यात खण्ड करके उनमेंसे बहुत खण्ड प्रमाण समयप्रबद्ध कर्मस्थिति कालके अभ्यन्तरवर्ती त्रसबन्धक कालमें नपुंसकवेदके होते हैं। इन समयप्रबद्धोंको पूर्वोक्त स्थावर बन्धककालमें संचित हुए समयप्रबद्धोंमें मिला देनेपर कर्मस्थितिकालके अन्दर नपुंसकवेदका संचित द्रव्य होता है। ऐसा होते हुए भी यह द्रव्य डेढ़ गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्धोंके संख्यात खण्ड करने पर उनमेंसे बहुखण्डप्रमाण होता है।
विशेषार्थ-कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय पर्यन्त कर्मस्थितिकालमें बंधनेवाले समयप्रवद्धोंके प्रमाणकी परीक्षा करनेको उपसंहार कहते हैं। नपुंसकवेदका उत्कृष्ट द्रव्य गुणितकर्मा'शवाले जीवके बतलाया है और गुणितकर्मा श होनेके लिये पहले जो विधि बतलाई है उसमें गुणितकर्मा शवाले जीवको कर्मस्थितिकाल तक पहले स्थावरोंमें और पीछे त्रसोंमें भ्रमण कराया है। इस कर्मस्थितिकालमें भ्रमण करता हुआ जीव कभी स्थावर पर्यायके योग्य कर्मोंका बन्ध करता है और कभी त्रसपर्यायके योग्य कर्मोंका बन्ध करता है। किन्त त्रसबन्धककालसे स्थावरबन्धककाल संख्यातगुणा है। जब जब स्थावरपर्यायके योग्य कर्मोका बन्ध करता है तब तब तीनों वेदोंमेसे नपुंसकवेदका ही बन्ध करता है, क्योंकि सब स्थावर नपुंसक ही होते हैं। तथा जब सपर्यायके योग्य प्रकृतियोंका बन्ध करता है तब तीनोंमेंसे किसी भी वेदका बन्ध करता है, क्योंकि त्रसोंमें तीनों वेदोंका उदय पाया जाता है। इस प्रकार सबन्धककालमें यद्यपि तीनों वेदोंका बन्ध
१. प्रा०प्रतौ 'जदि वि दिवगुणहाणीए' इति पाठः ।
१३
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पदेसविहत्ती ५
सम्भव है तथापि उसमें नपुंसकवेदका बन्धकाल शेष दोनों वेदोंके बन्धकालसे संख्यात गुणा है। ऐसी स्थितिमें इन दोनों कालोंमें नपुंसकवेदके संचित हुए समयप्रवद्धोंका प्रमाण कितना है यह इस प्रकरणमें बतलाया गया है। जिसका खुलासा इस प्रकार है-कर्मस्थितिकाल के अन्दर तीनों वेदोंके संचित द्रव्यका प्रमाण डेढ़ गुणहानिमात्र है। यहां डेढ़ गुणहानिसे डेड गुणहानिगुणित समयप्रबद्ध लेना चाहिये और वह काल सबन्धक और स्थावरबन्धक दोनोंका है, अतः कर्मस्थितिकालका भाग डेढ़ गुणहानिगुणित समयप्रबद्धमें देकर जो लब्ध आये उसे स्थावर बन्धककालसे गुणा करने पर स्थावर बन्धककालमें संचित वेदके द्रव्यका प्रमाण होता है। यह सब केवल नपुंसकवेदका ही है। अब रहा त्रसबन्धक काळमें संचित वेदोंका द्रव्य । चूंकि वह द्रव्य तीनों वेदोंका है, अतः उसमेंसे काल प्रतिभागके अनुसार नपुंसकवेदका द्रव्य निकाल लेना चाहिये। उस द्रव्यको स्थावर बन्धककालके द्रव्यमें मिला देनेसे नपुंसकवेदका संचित द्रव्य होता है। यहाँ पर यह शंका होती है कि त्रसबन्धककालमेंसे नपुंसकवेदके द्रव्यके संचयके लिये केवल नपुंसकवेद बन्धककाल ही क्यों लिया है, स्त्रीवेद और पुरुषवेदका बन्धककाल भी ले लेना चाहिये जिससे नपुंसक वेदके संचयके लिये पूरा कर्मस्थितिप्रमाण काल प्राप्त हो जाय, क्यों कि पुरुषवेद और स्त्रीवेद बन्धककालके भीतर भी संक्रमणद्वारा नपुंसकवेदका संचय सम्भव है ? इस पर वीरसेन
मीने यह समाधान किया कि जब नपंसकवेदका बन्ध रुक जाता है तब स्त्रीवेद और पुरुषवेदके बन्धकालमें कषायोंका द्रव्य नपुंसकवेदरूपसे संक्रमित नहीं होता। इसकी पुष्टिमें प्रमाणरूपसे वीरसेनस्वामीने 'बंधे उक्कडुदि' यह गाथांश प्रस्तुत किया है। इसका भाव यह है कि बन्धके समय ही उत्कर्षण होता है। यद्यपि यहां प्रकरण संक्रमणका है उत्कर्षणका नहीं। तब भी संक्रमण चार प्रकारका है-प्रकृतिसंक्रमण, स्थितिसंक्रमण, अनुभागसंक्रमण और प्रदेशसंक्रमण । इनमेंसे स्थितिसंक्रमण और अनुभागसंक्रमणके ही अपर नाम उत्कर्षण और अपकर्षण हैं। सम्भवतः इस परसे वीरसेनस्वामीने यह निष्कर्ष निकाला कि उत्कर्षणके लिये जो नियम है, वही प्रकृतिसंक्रमण और प्रदेशसंक्रमके लिये भी नियम है, अतः 'बंधे उक्कडुदि' यह गाथांश देशामर्षक होनेसे इस द्वारा प्रकृति और प्रदेशसंक्रमणका भी समर्थन हो जाता है। इसपर फिर यह शंका हुई कि संक्रमणके लिये यह कोई ऐकान्तिक नियम नहीं है कि बन्धके समय ही उसमें अन्य सजातीय प्रकृतिका संक्रमण हो, क्योंकि बन्धके अतिरिक्त समयमें भी उसमें अन्य सजातीय प्रकृतिका संक्रमण देखा जाता है। यथा नपुंसकवेदका बन्ध पहले गुणस्थानमें ही होता है तब भी जो जीव नपुंसकवेदके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ता है उसके वहां नपुंसकत्रेदमें स्त्रीवेदका संक्रमण होता है ? इस शंकाका वीरसेनस्वामीने जो समाधान किया उसका भाव यह है कि संसारी जीवोंके आम व्यवस्था यह है कि उत्कर्षणके समान बन्धके अभावमें संक्रमण भी नहीं होता है, क्योंकि संक्रमणके कारणभूत संक्लिष्ट परिणामोंसे जो संक्रमण होता है वह बंधनेवाली प्रकृतिमें ही अन्य सजातीय प्रकृतिका होता है। उसमें ही बदल कर पड़नेवाले अन्य प्रकृतिके परमाणुभोंको ग्रहण करने की योग्यता पाई जाती है। दूसरे यहां संक्रमित होनेवाले द्रव्यकी प्रधानता नहीं है किन्तु बंधनेवाले द्रव्यकी प्रधानता है। यहां संक्रमित द्रव्यको प्रधानता इसलिये नहीं है, क्योंकि इसका आय और व्यय समान है। इससे स्पष्ट है कि त्रसस्थितिमेंसे स्त्रीवेद और पुरुषवेदके बन्धककालको छोड़कर अन्यत्र ही नपुंसकवेदके द्रव्यका संचय होता है।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं ॐ इथिवेदस्स उकस्सयं पदेससंतकम्म कस्स ? . १०८. सुगमं ।
गुणिदकम्मंसिओ असंखे०वस्साउए गदो तम्मि पलिदोवमस्स असंखेजदिभागेण जम्हि पूरिवो तस्स इत्थिवेदस्स उकस्सयं पदेससंतकम्म ।
६१०९. गुणिदकम्मंसिओ ति भणिदे जो जीवो वेसागरोवमसहस्सेहि सादिरेगेहि ऊणियं कम्महिदि गुणिदकम्मंसियलक्खणेण अच्छिदो। पुणो तसकाइएसु उप्पजिय पलिदोवमस्स असंखे०भागेणूणतसहिदिमच्छिदो तस्स गहणं कायव्वं । कुदो ? अण्णहागुणिदकम्मंसियत्ताणुववत्तीदो। दीहासु इथिवेदबंधगद्धासु उक्कस्सजोगसंकिलेससहगदासु जहणियासु पुरिस-णqसयवेदबंधगद्धासु जहण्णजोगसंकिलेससहगदासु परिभमिदो त्ति भणिदं होदि । पदेससंचओ भुजगारकाले चेव अप्पदरकाले समयं पडि दुकमाणकम्मक्खंधेहिंतो अधहिदीए परपयडिसंकमेण च ओसरंतकम्मक्खंधाणं बहुत्तुवलंभादो। तम्हा कम्मट्ठिदिमेत्तकालहिंडावणे ण किं पि फलं पेच्छामो। ण च कम्महिदिमेत्तो भुजगारकालो अस्थि, तस्स उकस्सस्स वि पलिदो० असंखे०भागपमाणत्तादो त्ति ? ण, सुत्ताहिप्पायाणवगमादो । गुणिदकम्मंसियम्मि अप्पदरकालादो जेण भुजगारकालो बहुओ तेण भुजगारकालसंचिददव्वस्स अप्पदरकालब्भंतरे ण णिम्मलप्फलओ त्ति
* स्त्रीवेदका उत्कुष्ट प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? ६ १०८. यह सूत्र सुगम है।
जो गुणितकर्मा शवाला जीव असंख्यात वर्षकी आयु वालोंमें उत्पन्न हुआ, वहाँ जिसने पल्यके असंख्यातवें भागमात्र आयु को लेकर स्त्रीवेदको पूरा किया उसके स्त्रीवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है।
६१०९. 'गुणित कर्मा शवाला' कहनेसे जो जीव कुछ अधिक दो हजार सागर कम कर्मस्थिति कालतक गुणितकर्मा शवाले जोवका जो लक्षण है उससे युक्त रहा अर्थात् गुणित काशकी सामग्रीसे सहित रहा । फिर त्रसकायिकोंमें उत्पन्न होकर वहाँ पल्योपमके असंख्यातवें भाग कम त्रसस्थिति काल तक रहा, उसका ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि अन्यथा उसके गुणितकर्मा शपना नहीं बन सकता । इसका यह मतलब हुआ कि उत्कृष्ट योग और उत्कृष्ट संक्लेशके साथ स्त्रीवेदके सुदीर्घ बन्धककालमें घूमा और जघन्य योग और जघन्य संक्लेशके साथ पुरुषवेद और नपुसकवेदके जघन्य बन्धकालमें घूमा।
शंका-कर्मप्रदेशोंका संचय भुजगारकालमें ही होता है, क्योंकि अल्पतरकालमें प्रति समय आनेवाले कर्मस्कन्धोंसे अधःस्थितिगलनाके द्वारा तथा अन्य प्रकृतिरूप संक्रमणके द्वारा जानेवाले कर्मस्कन्ध अधिक पाये जाते हैं, अतः कर्मस्थिति कालतक भ्रमण कराने में हम कोई भी लाभ नहीं देखते । शायद कहा जाय कि भुजगारका काल कर्मस्थितिप्रमाण है। किन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि भुजगारका उत्कृष्ट काल भी पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है।
समाधान-यह शंका उचित नहीं है, क्योंकि आपने सूत्रका अभिप्राय नहीं समझा। गुणितकर्मा शमें यतः अल्पतरके कालसे भुजगारका काल बहुत है, अतः भुजगार कालमें संचित
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१००
'जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ काऊण कम्महिदिमेत्तकालहिंडावणं ण णिप्फलं ति दहव्वं । एत्थतणअप्पदरकालादो भुजगारकालो बहुओ त्ति कुदो णव्वदे ? एदस्स सुत्तस्स आरंभण्णहाणुववत्तीदो। पलिदो० असंखे०भागमेत्तभुजगारकालं परिभमिदस्स वि गुणिदकम्मंसियत्तं घडदि त्ति णासंकणिजं, मिच्छत्तसामित्तमुत्तेण सह विरोहादो। असंखेजवस्साउए गदो त्ति किमटुं वुच्चदे ? णव॒सयवेदस्स बंधवोच्छेदं करिय तदद्धाए संखेजेसु भागेसु इत्थिवेदबंधावणटुं । तसकाइएसु बंधमाणे बहुवारमसंखेजवस्साउअतिरिक्ख-मणुस्सेसु उप्पाइदो त्ति सुत्ताहिप्पाओ । जम्हि असंखेजवस्माउए जीवे आउअं पलिदो० असंखे०भागो तम्हि पलिदो० असंखे०भागेण कालेण पूरिदो। असंखे०वस्साउएसु तिरिक्ख-मणुस्सेसु उप्पज्जमाणो वि पलिदो० असंखे०भागमेत्ताउएसु चेव बहुबारमुप्पण्णो ति एदेण जाणाविदं । किमट्ठमेत्थ चेव बहुवारमुप्पाइजदे' ? उवरिमआउआणमित्थिवेदबंधगद्धादो बहुयराए पलिदो० असंखे०भागाउआणमित्थिवेदबंधगद्धाए वहुदव्वसंगलणडं। उवरिमहुए द्रव्यका अल्पतरकाळके अन्दर निर्मूल विनाश नहीं होता, अतः कर्मस्थिति कालतक भ्रमण कराना निष्फल नहीं है ऐसा जानना चाहिये ।
शंका-यहाँ के अल्पतर कालसे भुजगारका काल बहुत है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है।
समाधान-यदि ऐसा न होता तो स्त्रीवेदके उत्कृष्ट संचयको बतलानेवाले उक्त चूर्णिसूत्रकी रचना ही न होती।
भुजगारका काल पल्यके असंख्यातवें भाग कहा है। उतने कालतक भ्रमण करनेवाले जीवके भी गुणितकर्मा शिकपना बन जाता है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि ऐसा होनेसे पहले कहे गये मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंचयको बतलानेवाले सूत्रके साथ विरोध आता है।
शंका-असंख्यात वर्षकी आयुवालोंमें उत्पन्न हुआ ऐसा किसलिए कहा ?
समाधान—नपुंसकवेदके बन्धकी व्युच्छित्ति करके उसके कालके संख्यात बहुभागोंमें स्त्रीवेदका बन्ध करानेके लिये असंख्यात वर्षकी आयुवालोंमें उत्पन्न हुआ यह कहा।
यहाँ त्रसकायिकोंमें स्त्रीवेदका बन्ध करते हुए बहुत बार असंख्यात वर्षकी आयुवाले तिर्यञ्च और मनुष्योंमें उत्पन्न कराना चाहिये ऐसा सूत्रका अभिप्राय है।
जिस असंख्यात वर्षकी आयुवाले जीवकी आयु पल्यके असंख्यातवें भाग है वह पल्यके असंख्यातवें भाग कालके द्वारा उसे पूरा करे । इससे यह बतलाया कि असंख्यात वर्षकी आयुवाले तिर्यञ्च और मनुष्योंमें उत्पन्न होते हुए भी पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण आयुवालों में ही बहुत बार उत्पन्न हुआ।
शंका-इन्हींमें बहुत बार क्यों उत्पन्न कराया है ?
समाधान-ऊपरकी आयुवाले जीवोंके स्त्रीवेदके बन्धककालसे पल्यके असंख्यातवें भाग आयुवाले जीवोंका स्त्रीवेदका बन्धककाल बहुत अधिक है। अतः बहुत द्रव्यके संचयके लिये पल्यके असंख्यातवें भाग आयुवालोंमें बहुत बार उत्पन्न कराया है।
१. ताप्रती 'बहुवारादो उप्पाइजदे' इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१०१ आउआणमित्थिवेदबंधगद्धाहिंतो एत्थतणित्थिवेदबंधगद्धाओ दीहाओ त्ति कुदो णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो। अथवा जुत्तीदो णव्वदे । तं जहा-पुरिसवेदं पेक्खिदूण इत्थिवेदो अप्पसत्थो, कारीसग्गिसमाणत्तादो। तेण इत्थिवेदो संकिलेसेण बज्झइ । विसोहीए पुरिसवेदो। पलिदो० असंखे०भागाउएसु जो संकिलेसकालो सो उवरिमआउअसंकिलेसद्धाहिंतो दीहो, दीहाउएसु पुरिसवेदबंधगद्धाए सविसोहिमंदसंकिलेसपडिबद्धाए पहाणत्तादो त्ति । पलिदो० असंखे०भागाउएसु संकिलेसो बहुओ त्ति कुदो णव्वदे ? सव्वत्थोवो तिपलिदोवमाउअसंकिलेसो। दुपलिदोवमाउअसंकिलेसो अणंतगुणो। एगपलिदोवमाउटिदियाणं संकिलेसो अणंतगुणो। पलिदो० असंखे०भागमेत्ताउढिदियाणं संकिलेसो अणंतगुणो त्ति एदम्हादो अप्पाबहुअसुत्तादो। तेण तिपलिदोवमाउट्ठिदिएसु इत्थिवेदबंधगद्धा थोवा । दुपलिदोवमाउढिदिएसु इत्थिवेदबंधगद्धा संखे०गुणा। एगपलिदोवमाउडिदिएसु इत्थिवेदबंधगद्धा संखेजगुणा । पलिदो० असंखे०भागमेत्ताउडिदिएसु इत्थिवेदबंधगद्धा संखेजगुणा त्ति सिद्धं । अद्धाओ विसेसाहियाओ त्ति किण्ण घेप्पदे ? ण, विसयपडिभागेण अद्धागुणगारुप्पत्तीदो। तस्स
शंका-ऊपरकी आयुवाले जीवोंके स्त्रीवेदके बन्धककालसे पल्यके असंख्यातवें भाग आयुवाले जीवोंका स्त्रीवेदका बन्धककाल अधिक है, यह किस प्रमाणसे जाना ?
समाधान—इसी चूर्णिसूत्रसे जाना । अथवा युक्तिसे जाना। वह युक्ति इस प्रकार हैपुरुषवेदकी अपेक्षा स्त्रीवेद अप्रशस्त है, क्योंकि वह कण्डेकी आगके समान होता है। अतः स्त्रीवेद संक्लेश परिणामसे बँधता है और पुरुषवेद विशुद्ध भावोंसे बंधता है। पल्यके असंख्यातवें भाग आयुवालोंमें जो संक्लेशका काल है वह ऊपरकी आयुवाले जीवोंके संक्लेशसे सम्बन्ध रखनेवाले कालसे अधिक है, क्योंकि दीर्घ आयुवाले जीवोंमें विशुद्धि सहित मंद संक्लेशसे सम्बन्ध रखनेवाले पुरुषवेदके बन्धककालकी प्रधानता होती है।
शंका-पल्यके असंख्यातवें भाग आयुवालों में संक्लेश बहुत है यह किस प्रमाणसे जाना ?
समाधान—तीन पल्यकी आयुवाले जीवोंमें संक्लेश सबसे कम है। उससे दो पल्यकी आयुवाले जीवोंमें अनन्तगुणा संक्लेश है। उससे एक पल्यको आयुवाले जीवोंमें अनन्तगुणा संक्लेश है। उससे पल्यके असंख्यातवें भाग आयुवाले जीवोंमें संक्लेश अनन्तगुणा है। इस अल्पबहुत्वको बतलानेवाले सूत्रसे जाना।
अतः तीन पल्यकी आयुवाले जीवोंमें स्त्रीवेदका बन्धककाल सबसे थोड़ा है। दो पल्यकी आयुवाले जीवोंमें स्त्रीवेदका बन्धककाल संख्यातगुणा है । एक पल्यकी आयुवाले जीवों में स्त्रीवेदका बन्धककाल संख्यातगुणा है और पल्यके असंख्यातवें भागमात्र स्थितिवाले जीवोंमें स्त्रीवेदका बन्धककाल उससे भी संख्यातगुणा है, यह सिद्ध हुआ।
शंका-यहाँ वेदके बन्धककाल विशेष अधिक हैं एसा क्यों नहीं स्वीकार करते ?
समाधान नहीं, क्योंकि विषयके प्रतिभागके अनुसार ही कालका गुणकार उत्पन्न होता है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ एवंविहअसंखेजवस्साउअस्स चरिमसमए इत्थिवेदस्स उक्कस्सयं पदेससंतकम्मं ।
११०. संपहि एत्थ संचयाणुगम-भागहारपमाणाणुगमाणं णबुंसयवेदस्सेव परूवणा कायव्वा । णवरि तसहिदि भमंतो जत्थ जत्थ असंखेजवस्साउएसु उववण्णो तत्थ तत्थ णqसयवेदस्स पत्थि बंधो, देवगईए सह तब्बंधविरोहादो। णवुसयवेदबंधगद्धाए संखेजे भागे इत्थिवेदो लहइ, पुरिसित्थिवेदबंधगद्धाणं पक्खेवभूदाणं पडिभागेण 'प्रक्षेपकसंक्षेपेण' एदम्हादो करणसुत्तादो भागुवलंभादो। असंखेजवासाउएसु इत्थिवेदस्स संचयकालो असंखेजगुणहाणिमेत्तो। एदं कुदो णव्वदे ? इत्थिवेदउक्कस्सदव्वादो सोगस्स उक्कस्सदव्वं विसेसाहियमिदि उवरि भण्णमाणअप्पाबहुगसुत्तादो । असंखेजवस्साउआणमित्थिवेदबंधगद्धादो सोगबंधगद्धाओ विसेसाहियाओ त्ति जदि वि इत्थिवेदसंचयकालो संखेजगुणहाणिमेत्तो एगगुणहाणिमेत्तो वा होदि तो वि पुव्विल्लमप्पाबहुअं घडदि ति णेदमप्पाबहुअं तल्लिगमिदि चे चो क्खहि उक्कस्सदव्वण्णहाणुववत्तीदो असंखेजगुणहाणिमेत्तो त्ति घेतव्यो । ण च एसो कालो दुल्लहो, संखेजावलियमेत्तमंतरिय असंखेजबारमसंखे०वासाउप्पण्णम्मि तदुवलंभादो। तेणेत्थ संचिददव्वं
इस प्रकार असंख्यात वर्षकी आयुवाले उस जीवके अन्तिम समयमें स्त्रीवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है।
६ ११०. अब यहाँपर संचयानुगम और भागहारप्रमाणानुगमका कथन नपुंसकवेदके समान ही करना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि त्रसकाय स्थितिमें भ्रमण करते हुए जहाँ जहाँ असंख्यात वर्षकी आयुवालोंमें उत्पन्न हुआ वहाँ वहाँ नपुंसकवेदका बन्ध नहीं होता, क्योंकि देवगतिके बन्धके साथ नपुसकवेदके बन्धका विरोध है। तथा नपुसकवेदके बन्धककालके संख्यात बहुभागको स्त्रीवेद प्राप्त करता है, क्योंकि प्रक्षेपभूत पुरुषवेद और स्त्रीवेदके बन्धक कालोंके प्रतिभागानुसार प्रक्षेपकसंक्षेपेण' इस करणसूत्र के अनुसार अपना अपना भाग उपलब्ध हो जाता है।
शंका असंख्यात वर्षकी आयुवालोंमें स्त्रीवेदका संचयकाल असंख्यात गुणहानिप्रमाण है यह कैसे जाना ?
समाधान–'स्त्रीवेदके उत्कृष्ट द्रव्यसे शोकका उत्कृष्ट द्रव्य विशेष अधिक है' आगे कहे जानेवाले इस अल्पबहुत्वविषयक सूत्रसे जाना।
शंका-असंख्यातवर्षकी आयुवाले जीवोंमें स्त्रीवेदके बन्धककालसे शोकका बन्धककाल विशेष अधिक है। अतः यदि स्त्रीवेदका संचयकाल संख्यातगुणहानिप्रमाण हो या एक गुणहानिप्रमाण हो तो भी पूर्वोक्त अल्पबहुत्व बन जाता है, इसलिए इस अल्पबहुत्वसे यह नहीं जाना जा सकता कि असंख्यातबर्षकी आयुवालोंमें स्त्रीवेदका संचयकाल असंख्या गुणहानिप्रमाण है ?
समाधान-तो फिर ऐसा लेना चाहिये कि यदि असंख्यातवर्षकी आयुवालोंमें स्त्रीवेदका संचयकाल असंख्यातगुणहानि प्रमाण न हो तो उसका उत्कृष्ट द्रव्य नहीं बन सकता, अतः स्त्रीवेदका संचयकाल असंख्यातगुणहानिप्रमाण है ऐसा ग्रहण करना चाहिए । तथा यह काल दुर्लभ भी नहीं है क्योंकि संख्यात आवलीका अन्तर दे देकर असंख्यात बार असंख्यातवर्षकी आयु लेकर उत्पन्न होनेवाले जीवके ऐसा काळ पाया जाता है । अतः इस कालमें संचित हुआ द्रव्य संख्यातवें
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीएं सामित्तं
१०३ संखे०भागेणूणदिवडगुणहाणिमेत्तपंचिंदियसमयपबद्ध मेत्तं । किमढे दिवद्वगुणहाणीए संखे०भागो अवणिजदे ? पुरिसवेददव्वावणयणटुं। तद्दव्वभागो दिवड्डगुणहाणीए संखे०भागो ति कुदो णव्वदे ? पुरिसवेदबंधगद्धादो इत्थिवेदबंधगद्धाए संखे० गुणत्तादो। ___१११. एत्थ ताव दोण्हं वेददव्वाणं वंटणविहाणं वुच्चदे । तंजहा–दोवेददव्वाणं जदि दिवड्गुणहाणिमेत्ता पंचिंदियसमयपबद्धा लभंति तो पुध पुध इत्थि-पुरिसवेदबंधगद्धाणं किं लाभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए इत्थिवेदस्स दिवडगुणहाणीए संखेजभागमेत्ता पुरिसवेदस्स दिवड्डगुणहाणीए संखे भागमेत्ता समयपबद्धा लब्भंति ।
___११२. एत्थ इत्थिवेदुक्कस्सदव्वसामिचरिमसमए अप्पाबहुअं उच्चदे। तं जहा-सव्वत्थोवं णqसयवेददव्वं, दिवड्वगुणहाणीए असंखे०भागमेत्तपंचिंदियसमयपबद्धपमाणत्तादो । पुरिसवेददव्वमसंखे०गुणं, दिवड्डगुणहाणीए संखे०भागमेत्तपंचिंदियसमयपबद्ध पमाणत्तादो । इत्थिवेददव्वं संखे०गुणं, किंचूणदिवडगुणहाणिमेत्तपंचिंदियसमयपबद्धपमाणत्तादो।
६ ११३. इत्थिवेदुक्कस्सदव्वपमाणपसाहणट्ठमसंखेजवस्साउएसु अद्धाणप्पाबहुअं भाग कम डेढ़ गुणहानिमात्र पञ्चेन्द्रिय जीवके समयप्रबद्धप्रमाण होता है।
शंका-डेढ़गुणहानिमें संख्याता भाग क्यों कम किया है ? समाधान-पुरुषवेदसम्बन्धी द्रव्यको उसमेंसे घटानेके लिये कम किया है।
शंका-पुरुषवेदसम्बन्धी द्रव्यका भाग डेढ़ गुणहानिके संख्यातवें भागप्रमाण है यह कैसे जाना ?
समाधान-क्योंकि पुरुषवेदके बन्धककालसे स्त्रीवेदका बन्धककाल संख्यातगुणा है।
६१११. अब यहां दोनों वेदोंके द्रव्यके बटवारेका विधान कहते हैं जो इस प्रकार है-यदि दोनों वेदसम्बन्धी द्रव्यके डेढ़गुणहानि प्रमाण पञ्चेन्द्रियसम्बन्धी समयप्रबद्ध होते हैं तो पृथक् पृथक् स्त्रीवेद और पुरुषवेदके बन्धककालमें कितने कितने समयप्रबद्ध प्राप्त होते हैं। इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे इच्छाराशिको गुणित करके प्रमाणराशिसे उसमें भाग देने पर स्त्रीवेदके डेढ़गुणहानिके संख्यात बहुभागप्रमाण और पुरुषवेदके डेढ़गुणहानिके संख्यातवें भागप्रमाण समयप्रबद्ध प्राप्त होते हैं।
६११२. अब यहां स्त्रीवेदके उत्कृष्ट द्रव्यके स्वामीके अन्तिम समयसम्बन्धी अल्पबहुत्वको कहते हैं। जो इस प्रकार है-नपुसकवेदका द्रव्य सबसे थोड़ा है, क्योंकि वह डेदगुणहानिके असंख्यातवें भागमात्र पञ्चेन्द्रियसम्बन्धी समयप्रबद्धप्रमाण है। उससे पुरुषवेदका द्रव्य असंख्यातगुणा है, क्योंकि वह डेढ़गुणहानिके संख्यातवें भागमात्र पञ्चेन्द्रियसम्बन्धी समयप्रबद्धप्रमाण है। उससे स्त्रीवेदका द्रव्य संख्यातगुणा है, क्योंकि वह कुछ कम डेदगुणहानिमात्र पश्चेन्द्रियसम्बन्धी समयप्रबद्धप्रमाण है।
६ ११३. अब स्त्रीवेदके उत्कृष्ट द्रव्यका प्रमाण सिद्ध करनेके लिये भसंख्यातवर्षकी थायुवालोंमें कालका अल्पबहुत्व बतलाते हैं। यथा-हास्य और रतिका बन्धककाल सबसे
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ उच्चदे । तं जहा-सव्वत्थोवा हस्स-रदिबंधगद्धा । पुरिसवेदबंधगद्धा विसेसाहिया । इत्थिवेदबंधगद्धा संखेगुणा । अरदि-सोगबंधगद्धा विसेसा०।
* पुरिसवेदस्स उकस्सयं पदेससंतकम्मं कस्स ? ६११४. सुगमं।
* गुणिदकम्मंसिओ ईसाणेसु एव॑सयवेदं पूरेदूण तदो कमेण असंखेजवस्साउएसु उववरणो। तत्थ पलिदोवमस्स असंखेजदिमागेण इत्थिवेदो पूरिदो। तदो सम्मत्तं लम्भिदूण मदो पलिदोवमहिदीमो देवो जादो। तत्थ तेणेव पुरिसवेदो पूरिदो। तदो चुदो मणुसो जादो सव्वलहुँ कसाए खवेदि । तदोणव॑सयवेदं पक्खिविदूण जम्हि इत्थिवेदो पक्वित्तो तस्समए पुरिसवेदस्स उकस्सयं पदेससंतकम्मं ।
___ ११५. गुणिदकम्मंसिओ त्ति वुत्ते वेहि सागरोवमसहस्सेहि सादिरेगेहि यूणियं कसायकम्मट्ठिदि गुणिदकिरियाए बोदरपुढविकाइएसु जो अच्छिदो तस्स गहणं कायव्वं । ईसाणं गदो त्ति किमटुं वुच्चदे ? णवंसयवेददव्वावूरणहूँ । तिण्हं वेदाणं दव्वमेग8 कादूण पुरिसवेदस्स उकस्सदव्वं भण्णमाणे पादेक्कं वेदावूरणमणत्थयं, वेदसामण्णे थोड़ा है। उससे पुरुषवेदका बन्धककाल विशेष अधिक है। उससे स्त्रीवेदका बन्धककाल संख्यातगुणा है । उससे अरति और शोकका बन्धककाल विशेष अधिक है।
ॐ पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? ६११४. यह सूत्र सुगम है।
* गुणितकर्मा शवाला जीव ईशान स्वर्गमें नपुंसकवेदकी पूर्ति करके फिर क्रमसे असंख्यातवर्षकी आयुवालोंमें उत्पन्न हुआ। वहां पल्यके असंख्यातवें भागमात्र कालके द्वारा उसने स्त्रीवेदकी पूर्ति की। फिर सम्यक्त्वको प्राप्त करके मरा और पल्योपमकी स्थितिवाला देव हुआ। वहाँ उसने पुरुषवेदकी पूर्ति की। फिर मरकर मनुष्य हुआ और सबसे कम कालके द्वारा कषायोंका क्षपण किया । फिर नपुंसक वेदका प्रक्षेप करके जिस समय स्त्रीवेदको प्रक्षिप्त किया है उस समय उसके पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है।
६११५. गणितकांशवाला कहनेसे कुछ अधिक दो हजार सागर कम कषायकी कर्मस्थितिप्रमाण जो जीव बादर पृथिवीकायिकोंमें उत्कृष्ट संचयकी सामग्रीके साथ रहा उसका ग्रहण करना चाहिये।
शंका-ईशान स्वर्गमें गया ऐसा क्यों कहते हो ?
समाधान-नपुंसकवेदके द्रव्यको पूरा करनेके लिये उसे ईशान स्वर्गमें उत्पन्न कराया है।
शंका–तीनों वेदोंके द्रव्यको एकत्र करके पुरुषवेदका उत्कृष्ट द्रव्य कहनेके लिये प्रत्येक वेदकी पूर्ति कराना व्यर्थ है, क्योंकि वेद सामान्यके विवक्षित रहने पर ध्रुवबन्धीपनेको
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१०५ णिरुद्ध पत्तधुवबंधभावस्स वेदस्स समयपबद्धाणं पयडिअंतरगमणाभावादो । तम्हा पादेक वेदावूरणं मोत्तूण जहा कसायाणं सत्तमपढवीए उक्कस्ससामित्तं दिणं तहा वेदसामण्णस्स उक्कस्ससामित्तं दादूण मणुस्सेसुप्पाइय सव्वलहुँ खवगसेढिं चढाविय तिवेददव्वं पुरिसवेदसरूवेण काऊण पुरिसवेदस्स उकस्ससामित्तं दादव्वमिदि। किं च सोहम्मकप्पम्मि पुरिसवेदे पूरिजमाणे सम्मत्तं पडिवजावेदव्यो, अण्णहा पुरिसवेदस्स धुवबंधित्ताणुववत्तीदो। एवं संते गुणसेढीए तिवेददव्वं णस्सदि ति ण भल्लयमिदं सामित्तं । ण बंधगद्धाणं माहप्पेण दव्वबहुत्तमुवलब्भइ, वेदसामण्णे णिरुद्धे बंधगद्धाजणिदविसेसस्स अणुवलंभादो त्ति । एत्थ परिहारो उच्चदे-ण कसायाणं व सत्तमपुढवीए तिवेदावूरणं जुत्तं, तत्थ तेसिं बहुदव्वुक्कड्डणाभावादो। णqसयवेदो ईसाणदेवेसु चेव इत्थिवेदो असंखेजवासाउएसु चेव पुरिसवेदो सोहम्मदेवेसु चेव बहुओ उक्कडिजदि उवसामणा-णिधत्त-णिकाचणाभावेण परिणामिजदि, खेत्त-भव-भावावटुंभवलेण कम्मक्खंधाणं परिणामंतरावत्तिं पडि विरोहाभावादो । एदेसिमेदे भावा एत्थेव बहुवा होति ण अण्णत्थे त्ति कुदो णव्वदे ? एदम्हादो चेव जिणवयणविणिग्गयसुत्तादो। उक्कडणाए
प्राप्त वेदके समयप्रबद्ध अन्य प्रकृति रूप नहीं हो सकते। अतः प्रत्येक वेदकी पूर्ति न कराकर जैसे सातवें नरकमें कषायोंका उत्कृष्ट स्वामित्व दिया है वैसे ही वेदसामान्यका उत्कृष्ट स्वामित्व देकर उसे मनुष्योंमें उत्पन्न कराकर, जल्दीसे जल्दी क्षपक श्रेणीपर चढ़ाकर और तीनों वेदोंके द्रव्यको पुरुषवेदरूपसे करके पुरुषवेदका उत्कृष्ट स्वामित्व देना चाहिए। दूसरे, सौधर्मकल्पमें पुरुषवेदका संचय करानेपर उस जीवको सम्यक्त्व प्राप्त कराना चाहिये, अन्यथा पुरुषवेद ध्रुवबन्धी नहीं हो सकता और ऐसा होनेपर गुणश्रेणी निर्जराके द्वारा तीनों वेदोंका द्रव्य नाशको प्राप्त होगा, अतः यहाँ जो स्वामित्व बतलाया गया है वह भला नहीं है। यदि कहा जाय कि बन्धक कालके बड़ा होनेसे पुरुषवेदका बहुत द्रव्य प्राप्त हो जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि वेद सामान्यकी विवक्षा होनेपर बन्धक कालसे उत्पन्न हुई विशेषता नहीं पाई जाती है, अर्थात् बन्धककालकी यही विशेषता है कि उस कालमें उसी वेदका बन्ध होता है जिसका वह बन्धककाल है, किन्तु जब किसी न किसी वेदका बन्ध बराबर होता है और वह सब आगे जाकर पुरुषवेद रूपसे संक्रान्त हो जाता है तो बन्धककालसे भी कोई लाभ नहीं है ?
समाधानयहाँ इस शंकाका समाधान कहते हैं-कषायोंकी तरह सातवें नरकमें तीनों वेदोंका संचय कराना युक्त नहीं है, क्योंकि वहाँ उनके बहुत द्रव्यका उत्कर्षण नहीं होता। नपुसकवेदका ईशान देवोंमें ही, स्त्रीवेदका असंख्यात वर्षकी आयुवाले मनुष्य और तिर्यश्चोंमें ही तथा पुरुषवेदका सौधर्म स्वर्गके देवोंमें ही बहुत द्रव्य उत्कर्षणको प्राप्त होता है तथा उपशामना, निधत्ति और निकाचनारूपसे परिणमित होता है, क्योंकि क्षेत्र, भव और भावके आश्रयका बल पाकर कर्मस्कन्धोंके पर्यायान्तरको प्राप्त होने में कोई विरोध नहीं है।
शंका-इन वेदोंके ये भाव इन्हीं स्थानों में अधिक होते हैं, अन्यत्र नहीं होते यह कैसे जाना?
समाधान-जिन भगवानके मुखसे निकले हुए इसी चूर्णिसूत्रसे जाना १४
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ कसायबहुत्त कारणं । ण च सत्तमपुढवीदो असंखेञ्जवासाउआ देवा वा कसाउकडा तम्हा तत्थ उक्कड्डणा णत्थि त्ति णासंकणिजं, कसायो चेव उक्कड्डणाए णिमित्तमिदि अवहारणाभावेण खेत्त-भवाणं पि तण्णिमित्तत्ते विरोहाभावादो। पढमसम्मत्ते पडिवजमाणे गुणसेढिणिज्जराए पदेसहाणी होदि त्ति जं भणिदं तं पि ण दोसाय, तिस्से णिरयगईदो आगंतूण मणुस्सेसु उप्पन्जिय पढमसम्मत्तं गेण्हमाणे वि उवलंभादो । तम्हा उवसंत-णिधत्त-णिकाचणाकरणेहि बहुदव्वणिजरापडिसेहहं तिण्हं वेदाणं उत्तपदेसेसु आवरणा कायव्वा त्ति ।
११६. तदो कमेण असंखे०वासाउएसु उववण्णो त्ति किमढे उच्चदे ? असंखेजवासाउएसु दीहबंधगद्धाए बंधित्थिवेदपदेसग्गस्स उवसंत णिधत्त-णिकाचणाकरणविहाणटुं । इत्थिवेदस्स असंखेजवासाउएसु चेव एदाणि तिण्णि करणाणि पाएण होति ति कत्तो णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो। असंखेजवासाउएसु बंधाभावेण अणायस्स णqसयवेदपदेसग्गस्स अघट्ठिदिगलणाए असंखेजासु गुणहाणीसु गलिदासु ईसाणकप्पे णqसयवेदावूरणं णिप्फलमिदि चे ण, णिधत्त-णिकाचणाभावमुवगयाणं
शंका–उत्कर्षणके लिये कषायकी अधिकता कारण है और सातवें नरककी अपेक्षा असंख्यात वर्षकी आयुवाले मनुष्य और तिर्यञ्च तथा देव उत्कृष्ट कषायवाले नहीं होते । अतः उनमें उत्कर्षण नहीं बनता ?
समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये; क्योंकि कषाय ही उत्कर्षण का निमित है ऐसा कोई नियम नहीं है, अतः क्षेत्र और भवके भी उत्कर्षणमें निमित्त होनेमें कोई बिरोध नहीं आता।
प्रथम सम्यक्त्वके प्राप्त होनेपर गुणश्रेणी निर्जराके द्वारा वेदोंके द्रव्यकी हानि होगी ऐसा जो कहा वह भी दोषके लिये नहीं है, क्योंकि नरकगतिसे आकर मनुष्योंमें उत्पन्न होकर प्रथम सम्यक्त्वके ग्रहण करनेपर भी प्रदेशहानि पाई जाती है। अतः उपशम, निधत्ति और निकाचना करणोंके द्वारा बहुत द्रव्यकी निर्जराको रोकनेके लिये तीनों वेदोंका उक्त स्थानोंमें संचय कराना चाहिये।
६ ११६. शंका-फिर क्रमसे असंख्यात वर्षकी आयुवालोंमें उत्पन्न हुआ यह क्यों कहा ?
समाधान-असंख्यात वर्षकी आयुवालोंमें सुदीर्घ बन्धककालमें बन्धको प्राप्त हुए स्त्रीवेदके प्रदेशसमूहका उपशमकरण, निधत्तिकरण और निकाचनाकरण करनेके लिये ऐसा कहा ।
शंका असंख्यात वर्षकी आयुवालोंमें ही स्त्रीवेदके ये तीनों करण प्रायः करके होते हैं यह कहाँसे जाना ?
समाधान-इसी सूत्रसे जाना।
शंका—असंख्यात वर्षकी आयुवालोंमें नपुंसकवेदका बन्ध न होनेसे उसमें आय तो होती नहीं उल्टे अधःस्थितिगलनाके द्वारा उसके प्रदेश समूहकी असंख्यात गुणहानियाँ निर्जराको प्राप्त हो जाती हैं । ऐसी स्थितिमें ईशानकल्पमें नपुंसकवेदका संचय करना व्यर्थ है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि निधत्ति और निकाचनापनेको प्राप्त हुए नपुंसकवेदके प्रदेशाग्र
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं उदय-परपयडिसंकमाभावेण गलणाभावादो। उक्कड्डणाए दूरमुक्खिविय पक्खित्ताणं सामित्तसमयादो उवरिमद्विदोसु उवसामणा-णिवत्त-णिकाचणाभावमुवगयाणं णत्थि परिसदणं ति भणिदं होदि । एदेसिं तिण्हं करणाणं कालो केत्तिओ ? जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण संखेजाणि सागरोवमाणि, सत्तिविहीदो अहियकालमवट्ठाणाभारादो । णिवत्त-णिकाचणभावमुवगयपदेसा उक्कस्सेण सव्वपदेसाणं केवडिओ भागो ? जइवसहगणिंदुवएसेण असंखे०भागो, उच्चारणाइरियाणमुवदेसेण असंखेजा भागा। तत्थ पलिदो० असंखे०भागेण इत्थिवेदो पूरिदो त्ति एदेण असंखेजवासाउएसु एगभवपरिमाणं परूविदं ण तसहिदिअभंतरे तत्थच्छिदासेसकालसमासो, तस्स संखेजसागरोवमपमाणत्तादो। तदो सम्मत्तं लब्भिदण मदो पलिदोवमद्विदीओ देवो जादो त्ति किमटुं वुच्चदे ? पुरिसवेदावूरणह। जदि एवं तो दिवड्डपलिदोवमाउटिदिएसु वेदे किण्ण उप्पाइदो ? ण, दिवडपलिदोवमाउ हिदीए चेव एत्थ पलिदोवमाउद्विदि त्ति विवक्खियत्तादो। तं पि कुदो ? जाव सागरोवमं ण पूरेदि न तो उदयको प्राप्त हो सकते हैं और न अन्य प्रकृतिरूपसे संक्रमणको प्राप्त हो सकते हैं, अतः उनकी निर्जरा नहीं होती। तात्पर्य यह है कि उत्कर्षणके द्वारा उठाकर दूर स्वामित्वके कालसे उपरिम स्थितिमें फेके गये, अतएव उपशामना, निधत्ति और निकाचनाभावको प्राप्त हुए नपुंसकवेदके प्रदेशोंकी निर्जरा नहीं होती।
शंका-इन तीनों करणोंका काल कितना है ?
समाधान-जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल संख्यात सागर प्रमाण है। क्यों कि शक्तिस्थितिसे अधिक काल तक उनका ठहरना नहीं हो सकता।
शंका-निधत्ति और निकाचनापनेको प्राप्त हुए प्रदेश उत्कृष्टसे सब प्रदेशोंके कितने भागप्रमाण होते हैं ?
समाधान-आचार्य यतिवृषभके उपदेशसे असंख्यातवें भाग प्रमाण होते हैं और, उच्चारणाचार्यके उपदेशसे असंख्यात बहुभागप्रमाण होते हैं।
___ 'वहाँ पल्यके असंख्यातवें भाग कालके द्वारा स्त्रीवेदकी पूर्ति की इस वाक्यके द्वारा असंख्यात वर्षकी आयुवालोंमें एक भवका परिमाण बतलाया है, कुल त्रस कायस्थितिके अन्दर वहाँ रहनेके सब कालका जोड़ नहीं, क्योंकि वह तो संख्यात सागरप्रमाण है।
शंका-फिर सम्यक्त्वको प्राप्त करके मरा और पल्यकी स्थितिवाला देव हुआ ऐसा क्यों कहा?
समाधान-पुरुषवेदकी पूर्ति करनेके लिये। शंका-यदि ऐसा है तो डेढ़ पल्यकी स्थितिवाले देवोंमें क्यों नहीं उत्पन्न कराया ?
समाधान—क्योंकि डेढ़ पल्यकी स्थितिकी ही यहां पल्योपमकी स्थिति ऐसी विवक्षा की है।
शंका-ऐसी विवक्षा क्यों की ? समाधान-जब तक सागर पूरा नहीं होता तब तककी स्थितिको ‘पल्योपमस्थिति
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ताव पलिदोवमहिदि ति आगमरूढीदो। एसा एगा परिवाडी देसामासियभावेण सुत्ते ण' परूविदा तेण संखेजवारमेदेणेव कमेण तसद्रिदीए अभंतरे तिण्हं वेदाणमावूरणं कादव्वं । तदो अपच्छिमे भवग्गहणे खवगसेढिं किमटुं चडाविदो ? इत्थिणqसयवेदपदेसग्गस्स पुरिसवेदसरूवेण परिणमावण । पुरिसवेदपदेसग्गादो इत्थिणव॒सयवेदपदेसग्गमसंखे०भागो, गलिदासंखेजगुणहाणित्तादो। गुणसेढिणिजरादो खवगसेढीए गलिददव्वं पि पुरिसवेददव्वस्स असंखे०भागो किं तु इत्थि-णवुसयवेददव्वादो असंखे०गुणं, ओकड्डकड्डणभागहारादो पलिदोवमभंतरणाणागुणहाणिसलागाणमसंखेजगुणत्तुवलंभादो। ण चेदमसिद्धं, सव्वत्थोवो गुणसंकमभागहारो। ओकड्डुकड्डणभागहारो असंखे गुणो । अधापवत्तसंकमभागहारो असंखेजगुणो । जोगगुणगारो असंखे गुणो। णाणागुणहाणिसलागाओ असंखेगुणाओ। पलिदोवमद्धच्छेदणाओ विसेसाहिओ त्ति अप्पाबहुअबलेण तस्सिद्धीए । तेण खवगसेढीए आयादो वओ बहुओ त्ति पलिदोवमाउडिदिदेवचरिमसमए उक्स्ससामित्तं दादव्वं । एत्थ परिहारो वुच्चदेखवगसेढीए गुणसेढिकमेण गलिददव्वादो इत्थि-णवु सयवेददव्वमसंखेजगुणं, ओकड्डकहनेकी आगममें रूढ़ि है।
यह एक क्रम है। इसी प्रकार अनेक बार यही क्रम जानना चाहिये, परन्तु अनेक बार उत्पन्न होनेका वह क्रम देशामर्षक होनेसे सूत्रमें नहीं कहा, अतः त्रसस्थितिके अन्दर संख्यात बार तीनों वेदोंकी पूर्ति कराना चाहिये । अर्थात् संख्यात बार ईशानस्वर्गमें गया, संख्यात बार असंख्यात वर्षकी आयुवालोंमें उत्पन्न हुआ और संख्यात बार सौधर्मकल्पमें उत्पन्न हुआ।
शंका-फिर अन्तके भवमें क्षपकश्रेणिपर क्यों चढ़ाया है ?
समाधान-स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके प्रदेशसमूहको पुरुषवेदरूपसे परिणमानेके लिये अन्तके भक्में क्षपकश्रेणी पर चढ़ाया है।
शंका-स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका प्रदेशसमूह पुरुषवेदके प्रदेशसमूहसे असंख्यातवें भाग बचता है, क्योंकि पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय प्राप्त होने तक उनकी असंख्यात गुणहानियाँ गल चुकी हैं। तथा गुणश्रेणिनिर्जराके द्वारा क्षपकश्रेणिमें गलित द्रव्य भी पुरुषवेदके द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, किन्तु वही स्त्रीवेद और नपुसकवेदके द्रव्यसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि उत्कर्षण-अपकर्षण भागहारसे पल्योपमके अन्दर की नानागुणहानिशलाकाएं असंख्यातगुणी पाई जाती हैं और यह बात असिद्ध नहीं है, क्योंकि गुणसंक्रम भागहार सबसे थोड़ा है। उत्कर्षण-अपकर्षण भागहार उससे असंख्यातगुणा है। अधःप्रवृत्तसंक्रम भागहार उससे असंख्यातगुणा है। योगोंका गुणकार उससे असंख्यातगुणा है। नानागुणहानिशलाकाएँ उससे असंख्यातगुणी हैं और पल्योपमके अर्द्धछेद उससे विशेष अधिक है । इस अल्पबहुत्वके बलसे उसकी सिद्धि होती है। अतः क्षपकश्रेणिमें आयसे व्यय बहुत है, इसलिये पल्यकी आयुवाले देवके अन्तिम समयमें पुरुषवेदका उत्कृष्ट स्वामित्व देना चाहिये ?
समाधान-अब इस शंकाका समाधान करते हैं-क्षपकश्रेणिमें गुणश्रेणिके क्रमसे निर्जराको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका द्रव्य असंख्यातगुणा है, क्योंकि
१. तापतौ 'सुत्तेण' इति पाठः । २. आप्रतौ 'ण चेवमसिद्धं' इति पाठः ।
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गा० २२] . उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१०९ कड्डणभागहारादो असंखेजगुणहीणेण भागहारेण खंडिदे तत्थ एयखंडपमाणत्तादो। पढमगुणहाणिप्पहुडि सव्वगुणहाणिदव्वेसु सगअणंतरहेट्ठिमगुणहाणिदव्वं पेक्खिदूण दुगुणहीणकमेण अवट्ठिदेसु इत्थि-णसयवेददव्वाणमण्णोण्णब्भत्थरासी कधं ण भागहारो जायदे ? ण, अहियारहिदीदो हेट्टिमट्टिदीणं दव्वमसंखेजखंडं कादूण तत्थ बहुखंडे तत्थेव ठविय उवरि पक्खित्तदव्वभागहारस्स ओकडकड्डणभागहारादो असंखे०गुणहोणत्तवलंभादो। ण च बंधं मोत्तण संतस्स गोवच्छागारेणावट्ठाणणियमो अत्थि,
ओकड्डुक्कड्डणवसेण अणुलोम-विलोमेणावट्टिदगोवुच्छाणं तदुभएण विणा अवद्विदाणं च उवलंभादो । एदं कुदो णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो। तम्हा खवगसेढीए चेव उक्कस्ससामित्तं दादव्वमिदि ।
६११७. थोवपदेसग्गालणट्ठमित्थि-णqसयवेदोदएण खवगसेढिं चढावेदव्बो त्ति के वि भणंति, तण्ण घडदे, थोवबहुअदव्वेहिंतो गुणसेढिसरूवेण णिक्खिप्पमाणपदेसाणं परिणामसमाणतणेण समाणत्तादो। ण च पुरिसवेदपगदिगोवुच्छाहिंतो इत्थि-णqसयवेदाणं पगदिगोवुच्छाओ सण्णाओ, पच्चग्गुक्कड्डिदपुरिसवेदगोवुच्छाहिंतो उक्कड्डणाए विणा बहुकालमच्छिदइत्थि-णqसयवेदपगदिगोवुच्छाणं थोवत्तविरोहादो। किं च, ण वह उत्कर्षण-अपकर्षण भागहारकी अपेक्षा असंख्यातगुणे हीन भागहारसे भाग देनेपर लब्ध एक भागप्रमाण है।
शंका-जब प्रथम गुणहानिसे लेकर सब गुणहानियोंका द्रव्य अपने अनन्तरवर्ती नीचेकी गुणहानिके द्रव्यसे दुगुणा हीन दुगुणा हीन होता है तो स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके द्रव्यकी अन्यायोभ्यस्त राशि ही यहाँ भागहार क्या न
समाधान-नहीं, क्योंकि विवक्षित स्थितिसे नीचेकी स्थितिके द्रव्यके असंख्यात खण्ड करके उनमेंसे बहुतसे खण्डोंको वहीं स्थापित करके ऊपर प्रक्षिप्त द्रव्यका भागहार उत्कर्षणअपकर्षण भागहारसे असंख्यातगुणा हीन पाया जाता है। तथा बन्धको छोड़ कर सत्तामें स्थित द्रव्यके गोपुच्छाकर रूपसे रहनेका नियम नहीं है, क्योंकि उत्कर्षण अपकर्षणके निमित्तसे अनुलोम और विलोमरूपसे स्थित गोपुच्छोंका और उन दोनोंके बिना स्थित गोपुच्छोंका अवस्थान पाया जाता है।
शंका-यह कहाँसे जाना। समाधान-इसी सूत्रसे जाना। अतः क्षपकश्रेणिमें ही पुरुषवेदका उत्कृष्ट स्वामित्व देना चाहिए ।
६ ११७. थोड़े प्रदेशोंकी निर्जरा करानेके लिए स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़ाना चाहिए ऐसा कुछ आचार्य कहते हैं। किन्तु वह कहना नहीं बनता, क्योंकि पुरुषवेद और इतरवेदके उदयसे श्रेणिपर चढ़नेवाले जीवोंके परिणाम समान होनेसे थोड़े या बहुत द्रव्यमेंसे जो प्रदेश गुणश्रेणिरूपसे स्थापित किये जाते हैं वे समान होते हैं । शायद कहा जाय कि पुरुषवेदकी प्रकृति गोपुच्छाओंसे स्त्रीवेद और नपुसकवेदकी प्रकृति गोपुच्छाएँ सूक्ष्म हैं सो भी नहीं है, क्योंकि नवीन उत्कर्ष प्राप्त पुरुषवेदकी गोपुच्छाओंसे उत्कर्षणके बिना बहुत कालतक स्थित स्त्रीवेद और नपुसकवेदकी प्रकृति गोपुच्छाओंके
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ इत्थि-णqसयवेदोदएण खवगसेढिचढावणं जुत्तं, मिच्छत्तं गदस्स इत्थि-णqसयवेदाणं विज्झादेण विणा अधापवत्तभागहारेण संकमप्पसंगादो । तत्थ वयाणुसारी आओ अत्थि त्ति णेदं दोसाए त्ति चे तो क्ख हि एवं घेत्तव्वं-ण मिच्छत्तं णिजदि, मिच्छत्तगुणेण णिकाचिजमाणपदेसग्गेहिंतो सम्मत्तगुणेण णिकाचिजमाणपदेसग्गाणमसंखेजगुणत्तादो। एदं कुदो णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो। तम्हा पुरिसवेदोदएण चेव खवगसेटिं चढावेदव्यो।
___११८. एत्थ संचयाणुगमो वुच्चदे । तं जहा-चरिमसमयदेवपुरिसवेददव्वस्स असंखे०भागो चेव गट्ठो, सामित्तसमयपुरिसवेदउदयगदगुणसेढिगोवुच्छाए असंखे०भागस्सेव हेट्ठा णत्तादो । सव्वसंकमभागहारेण संकामिदइत्थि-णQसयवेददव्वाणमसंखे०भागस्सेव कसायसरूवेण गुणसंकमभागहारेण संकंतत्तादो। तेण किंचूणदिवड्डगुणहाणिमेत्ता पंचिंदियसमयपबद्धा उक्स्सेण पुरिसवेदे होति त्ति घेत्तव्यं ।
ॐ तेणेव जाधे पुरिसवेद-छएणोकसायाणं पदेसग्गं कोधसंजलणे थोड़े होने में विरोध आता है। दूसरे, ऐसे जीवको स्त्रीवेद और नपुसकवेदके उदयसे क्षपक श्रेणिपर चढ़ाना युक्त नहीं है, क्योंकि इसे स्त्रीवेद और नपुसकवेदी मनुष्य होनेके लिये मिथ्यात्वमें जाना पड़ेगा और तब इसके स्त्रीवेद और नपुसकवेदका विध्यातसंक्रमणके बिना अधःप्रवृत्तभागहारसे ही संक्रमणका प्रसंग प्राप्त होगा।
शंका-मिथ्यात्वमें व्ययके अनुसार ही आय होती है, अतः इससे कोई दोष नहीं है ?
समाधान—तो फिर ऐसा लेना चाहिये कि ऐसा जीव मिथ्यात्वको प्राप्त नहीं होता, क्योंकि मिथ्यात्वगुणके द्वारा निकाचितपनेको प्राप्त होनेवाले प्रदेशोंसे सम्यक्त्वगुणके द्वारा निकाचितपनेको प्राप्त होनेवाले प्रदेश असंख्यातगुणे होते हैं ।
शंका—यह किस प्रमाणसे जाना ? समाधान-इसी सूत्रसे जाना। अतः पुरुषवेदके उदयसे ही क्षपकश्रोणिपर चढ़ाना चाहिए।
६ ११८. अब संचयानुगम कहते हैं। वह इस प्रकार है-चरिम समयवर्ती देव पुरुषवेदका जो द्रव्य है, वहाँसे लेकर पुरुषवेदका उत्कृष्ट स्वामित्व प्राप्त होने तक उसका असंख्यातवाँ भार
वाँ भाग ही नष्ट हुआ है, क्योंकि पुरुषवेदके उत्कृष्ट स्वामित्वके समय में पुरुषवेदकी जो गुणश्रेणि गोपुच्छा उदयमें आती है उसका असंख्यातवाँ भाग ही नीचे अर्थात देव पर्यायके अन्तिम समयसे लेकर उत्कृष्ट स्वामित्व कालके उपान्त्य समय तक नष्ट हुआ है। तथा सर्वसंक्रम भागहारके द्वारा स्त्रीवेद और नपुसकवेदका जो द्रव्य पुरुषवेदरूपसे संक्रान्त हुआ है उसका असंख्यातवाँ भाग ही गुणसंक्रम भागहारके द्वारा कषायरूपसे संक्रान्त हुआ है, अतः कुछ कम डेढ़ गुणहानिमात्र पञ्चन्द्रियके समयप्रबद्ध प्रमाण उत्कृष्ट द्रव्य पुरुषवेदका होता है ऐसा मानना चाहिये।
* वही जीव जब पुरुषवेद और छ नोकषायोंके द्रव्यको क्रोधसंज्वलनमें प्रक्षिप्त
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१११ पक्खि ताधे कोधस जलणस्स उक्कस्सयं पदेससंतकम्मं ।
११९. तेणेवे ति णिद्देसो किमटुं कदो ? उक्कस्सीकदपुरिसवेदेणेव पुरिसवेदछण्णोकसाएसु कोधसंजलणम्मि संकामिदेसु कोधसंजलणपदेसग्गमुक्कस्सं होदि त्ति जाणावणटुं । वेसागरोवमसहस्सेहि ऊणियं कम्महिदि बादरपुढविकाइएसु परिभमिय तदो तसद्विदिसव्वं गेरइएसु समयाविरोहेण परिभमिय कोधसंजलण-छण्णोकसायाणं तत्थ पदेसग्गमुक्कस्सं करिय थोवावसेसाए तसद्विदीए ईसाणदेवेसुप्पन्जिय तत्थ णवंसयवेदपदेसग्गमुक्कस्सं करिय पुणो समयाविरोहेण असंखेजवासाउएसु उप्पञ्जिय पलिदो० असंखे०भागमेत्तकालेण इत्थिवेदमावूरिय पुणो पढमसम्मत्तं पडिवज्जिय पलिदोवमहिदिएसु देवेसुप्पन्जिय पुरिसवेदपदेसग्गमुक्कस्सं करिय मणुसेसु उववण्णो । तत्थ सव्वलहुमट्ठवस्साणमुवरि खवगसेढिपाओग्गो होदूण अपुव्वगुणट्ठाणं पविसिय पुणो तत्थ इत्थि-णqसयवेददव्वं पुरिस-हस्स-रदि-भय-दुगुंछ-चदुसंजलणाणमुवरि गुणसंकमेण संकामेदि । पुरिसवेददव्वं बज्झमाणकसायाणमुवरि अधापवत्तसंकमेण संकामेदि । कसाय-णोकसायदव्वं पि परिसवेदस्सुवरि तेणेव भागहारेण संछुहदि । एवमेदेण कमेण अपुव्वकरणं वोलाविय अणियट्टिअद्धाए संखेज सु भागेसु गदेसु तेरसहं कम्माणमंतरं करिय तदो णबुंसवेदक्खवणं पारभिय पुणो पुरिसवेदस्सुवरि णवुसयवेदं गुणसंकमेण कर देता है तब क्रोधसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है।
६ ११९. शंका—'वही जीव' ऐसा निर्देश क्यों किया ?
समाधान-पुरुषवेदके उत्कृष्ट प्रदेश सत्कर्मवाले जीवके द्वारा पुरुषवेद और छह नोकषायोंके क्रोध-संज्वलनमें संक्रान्त कर देने पर क्रोध संज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है यह बतलानेके लिये किया है।
दो हजार सागर कम कमस्थितिकाल तक बादर पृथिवीकायिकोंमें भ्रमण करके, फिर आगमानुसार पूरे त्रसस्थितिकाल तक नारकियों में भ्रमण करके वहाँ क्रोधसंज्वलन और छह नोकषायोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय करके, त्रसस्थितिकालके थोड़ा शेष रहने पर ईशान स्वर्गके देवोंमें उत्पन्न होकर, वहाँ नपसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसञ्चय करके फिर आगमानुसार असंख्यात वर्षकी आयुवाले मनुष्य और तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न होकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा स्त्रींवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसञ्चय करके, फिर प्रथम सम्यक्त्वको प्राप्त करके पल्यकी स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न होकर पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसञ्चय करके मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। वहाँ सबसे लघु काल आठ वर्षके बाद क्षपकश्रेणिपर चढ़नेके योग्य होकर अपूर्वकरण गुणस्थानमें प्रवेश करके वहाँ स्त्रीवेद और नपसकवेदके द्रव्यको गणसंक्रमभागहारके द्वारा पुरुषवेद, हास्य, रति, भय, जुगुप्सा और चार संज्वलनकषायोंमें संक्रान्त करता है। पुरुषवेदके द्रव्यको अधःप्रवृत्त संक्रमके द्वारा बध्यमान कषायोंमें संक्रान्त करता है। कषाय और नोकषाय के द्रव्यका भी उसो अधःप्रवृत्तसंक्रम भागहारके द्वारा पुरुषवेदमें संक्रमण करता है। इस प्रकार इस क्रमसे अपूर्वकरणको बिताकर अनिवृत्तिकरणकालके संख्यात बहुमाग बीतने पर तेरह कषायोंका अन्तरकरण करके फिर नपुसकवेदके क्षपणका प्रारम्भ करता है। पुनः उसका प्रारम्भ करते हुए गुणसंक्रमके द्वारा नपुसकवेदको पुरुषवेदमें संक्रान्त करता है । चूंकि
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ संकमाविय पारद्धाणुपुव्वीसंकमत्तादो सेसकसायाणमुवरि णवंसगित्थिवेदाणं संकममोसारिय णवंसयवेदं खवेमाणो ताव गच्छदि जाव तस्सेव दुचरिमफालि त्ति । तदो चरिमफालिं पुरिसवेदस्सुवरि संछुहिय पुणो इत्थिवेदक्खवणं पारमिय तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण तक्खवणद्धाए चरिमसमए इत्थिवेदचरिमफालीए पुरिसवेदस्सुवरि संकंताए पुरिसवेदस्सुकस्सयं पदेसग्गं । एदेणेव पुरिसवेदेण सह छण्णोकसाएसु सव्वसंकमेण कोधसंजलणस्सुवरि संकामिदेसु कोधसंजलणस्स उक्कस्सयं पदेसग्गं होदि त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो । सत्तमपढवीए कोधसंजलणस्स पदेसग्गमुक्कस्सं कादण तत्तो णिप्पिडिय ईसाणादिदेवेसु तिवेदावूरणे कीरमाणे संजलणदव्वक्खओ बहुओ होदि, तत्थ बहुसंकिलेसाभावेण बहुगीए उक्कड्डणाए अभावादो सम्मत्तमुवर्णयतस्स दुविहकरणपरिणामेहि गुणसेढीए कम्मक्खंधाणं खयदंसणादो च। तेण पव्वं तिवेदावरणं करिय पच्छा सत्तमपुढविम्हि संजलणपदेसग्गमुक्कस्सं करिय मणुस्सेसुप्पाइय खवगसेढिं चडाविय कोधसंजलणस्स उक्कस्ससामित्तं दिजदि त्ति ? ण, पुव्वं तत्थ हिंडाविजमाणे वि तद्दोसाणइवुत्तीए गुणिदकम्मंसियकालभंतरे सव्वत्थ णवणोकसाएहि सह कोधसंजलणपदेसग्गं रक्खणिज्जं । तदो तेणेवे ति सुत्तणिदेसण्णहाणुववत्तीदो पुविल्लवुत्तकमेणेव उक्कस्ससामित्तं दादव्वं । ण च तत्थ आयदो वओ बहुओ चेवे ति णियमो सामित्तद्विदीदो नौवें गुणस्थानमें अन्तरकरणके बाद जो संक्रमण होता है वह आनुपूर्वीक्रमसे होता है, अतः शेष कषायोंमें नपुसकवेद और स्त्रीवेदका संक्रमण न करके नपुसकवेदका क्षपण करता हुआ नपुसकवेदकी द्विचरिमफालीके प्राप्त होने तक जाता है, उसके बाद अन्तिम फालीको पुरुषवेदमें संक्रमण कर नष्ट कर देता है। फिर स्त्रीवेदके क्षपणका प्रारम्भ करके अन्तर्मुहूर्त कालको बिताकर उसके क्षपणाकालके अन्तिम समयमें स्त्रीवेदकी आन्तम फालीके पुरुषवेदमें संक्रान्त होनेपर पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय होता है । पुनः इसी पुरुषवेदके साथ छह नोकषायोंके सर्वसंक्रमणके द्वारा क्रोधसंज्वलनमें संक्रान्त होनेपर क्रोधसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय होता है यह इस सूत्र का भावार्थ है।।
__ शंका-सातवें नरकमें क्रोधसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय करके वहाँसे निकलकर ईशान आदिके देवोंमें तीनों वेदोंका प्रदेशसंचय करते समय संज्वलन कषायका बहुत द्रव्य क्षय हो जाता है, क्योंकि वहाँ बहुत संक्लेशके न होनेसे बहुत उत्कर्षण भी नहीं होता । तथा सम्यक्त्वको प्राप्त करते समय अपूर्बकरण और अनिवृत्तिकरण परिणामोंके द्वारा गुणश्रोणिरूपसे कर्मस्कम्धोंका क्षय भी देखा जाता है । अतः पहले तीनों वेदोंका संचय करके और पीछे सातवें नरकमें संज्वलनकषायका उत्कृष्ट प्रदेश संचय करके मनुष्योंमें उत्पन्न कराकर क्षपकणिपर चढ़ाकर क्रोधसंज्वलनका उत्कृष्ट स्वामीपना कहना चाहिये।
समाधान--उक्त कथन ठीक नहीं है, क्योंकि पहले ईशानादिकमें भ्रमण कराने पर भी वह दोष बना ही रहेगा, अतः सर्वत्र गुणितकर्मा शके कालके अन्दर ही नव नोकषार्योके साथ क्रोधसंज्वलनके प्रदेशसमूहकी रक्षा करनी चाहिये । यतः सूत्रमें 'वही जीव' ऐसा निर्देश अन्यथा बन नहीं सकता अतः पहले कहे हुए क्रमके अनुसार ही संज्वलनक्रोधका उत्कृष्ट स्वामित्व कहना चाहिये।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहीए सामित्तं
११३ हेट्टिमासेसट्ठिदिपदेसग्गं घेत्तूण अप्पिदह्रिदीए उवरि पक्खिविय ईसाणादिसु थोवीभूदगोवच्छागालणण तिणि वि वेदे आवरेंतस्स आयदो गुणिदकम्मंसियम्मि थोवव्वओवलंभादो। किं च जदि वि गुणिदकम्मंसियलक्खणेण तिण्णि वि वेदे ईसाणादिसु आवरंतस्स कोधसंजलण-छण्णोकसायाणं सत्तमपुढविलाहादो थोवो लाहो तो वि तिण्णिवेदेहितो णिकाचणादिवसेण उवलद्धलाहो तत्तो बहुओ, तेणेवे त्ति सुत्तणिद्देसण्णहाणुववत्तीदो। तेण पुचिल्लत्थो चेत्र भद्दओ त्ति दट्टव्वो । णवरि कोधसंजलणपदेसग्गस्स उक्कस्ससामित्ते भण्णमाणे माणादिउदएण खवगसेटिं चढाव दव्वो पढमहिदिपदेसग्गणिजरापरिरक्खणहूँ। अधवा तेणेवे ति वयणेण सामण्णगुणिदकम्मंसियलक्षणमेवावहारेयां, बिरोहाभावादो। ___एसेव कोधो जाधे माणे पक्खित्तो ताधे माणस्स उकस्सयं पदेससंतकम्म।
__$ १२०. एदस्स सुत्तस्स अत्थो सुगमो । णवरि माया-लोहोदएहि खवगसेटिं चढाव दव्यो । ण च तेणेव त्ति वयणेण सह विरोहो वि, तस्स पूरिदकोहसंजलणावहारणे वावदस्स माणोदयावहारणे वावाराभावादो । ण च माणोदए णेव चडिदस्स कोधमुक्कस्सं
ईशानादिकमें आयसे व्यय बहुत हो है ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि स्वामित्वकी स्थितिसे नीचेकी स्थितिके सब प्रदेशोंको लेकर उनको विवक्षित स्थितिसे ऊपर स्थापित करके ईशानादिकमें स्तोक गोपुच्छकी निर्जरा होनेसे तीनों ही वेदोंका संचय करते हुए गुणितकर्मा शवाले जीवमें आयसे व्यय थोड़ा पाया जाता है। दूसरे, यद्यपि गुणितकर्माशकी विधिके साथ ईशानादिकमें तीनों वेदोंकी पूर्ति करनेवाले जीवके क्रोधसंज्वलन और छह नोकषायोंका सातवें नरकमें जो लाभ होता है उसकी अपेक्षा थोड़ो लाभ होता है, फिर भी निकाचना आदिके द्वारा तीनों वेदोंमेंसे जो लाभ प्राप्त होता है वह उस क्रोधसंज्वलनके लाभ की अपेक्षासे बहुत है, क्योंकि यदि ऐसा न होता तो सूत्र में वही जीव' ऐसा निर्देश नहीं हो सकता था, इसलिये पहले कहा हुआ अर्थ ही ठीक है ऐसा जानना चाहिये । इतना विशेष है कि क्रोध संज्वलनके प्रदेशसमूहके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करते हुए मान आदि कषायके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़ाना चाहिये, जिससे प्रथम स्थितिके प्रदेशसमूहकी निर्जरासे रक्षा हो सके। अथवा 'वही जीव' ऐसा कहनेसे गुणितकर्मा शका जो सामान्य लक्षण कहा है वही लेना चाहिये, उसमें कोई विरोध नहीं है।
* वही जीव जब क्रोधको मानमें प्रक्षिप्त करता है तब मानका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है।
६१२०. इस सूत्रका अर्थ सुगम है। इतना विशेष है कि माया या लोभ कषायके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ाना चाहिये । शायद कहा जाय कि ऐसा होनेसे 'वही जीव' इस वचनके साथ विरोध आता है, सो भी नहीं है, क्योंकि यहां पर 'तेणेव'का अर्थ है जिसने क्रोध संज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय किया है वह जीव, अतः उसका अर्थ मान कषायके उद्यवाला जीव नहीं हो सकता। तथा मान कषायके उदयसे ही क्षपकश्रेणिपर चढ़नेवाले जीवके क्रोधका उत्कृष्ट संचय होता है ऐसी भी बात नहीं है क्योंकि माया और लोभ कषायके
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ होदि, माय-लोहोदएणावि चडिदस्स उ कस्सभावावत्तिं पडि विरोहाभावादो।
एसेव माणो जाधे मायाए पकिसत्तो ताध मायासंजलणस्स उकस्सयं पदेससंतकम्मं ।
१२१. सुगममेदं । णवरि लोहोदएण खवगसेढिं चडिदस्स उक्कस्सं पदेससंतकम्मं वत्तव्वं ।
एसेव माया जाधे लोभसंजलणे पक्खित्ता ताधे लोभस जलणस्स उपस्सयं पदेससंतकम्मं ।
$ १२२. सुगममेदं । णवरि लोभसंजलणस्स माणोदएण खवगसेढिं चढावेदव्वो, लोभगोवुच्छाओ आवलियाए असंखे० भागेण खंडेदूण तत्थ एयखंडमेत्तेण माणगोवुच्छाणं लोभगोवुच्छाहितो ऊणत्तुवलंभादो। एवं चुण्णिसुत्तपरूवणं काऊण संपहि उच्चारणा वुच्चदे।
१२३सामित्तं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सयं च । उकस्से पयदं। दुविहो जिद्द सोओघेण आदेसे० । ओघेण मिच्छत्त-बारसक०-छण्णोक० उक्क० पदेस० कस्स? अण्णदरस्स बादरपुढविकाइएसु वेहि' सागरोवमसहस्सेहि सदिरेगेहि ऊणियं कम्मद्विदिमच्छिदो। एवं गंतूण तेत्तीसं सागरोवमिएसु णेरइएमु उववण्णो तस्स णेरइयस्स चरिमसमए उकस्सयं पदेसग्गं । कार विर उच्चारणाए णेरइयचरिमसमयादो हेट्ठा उदयसे भी चढ़नेवाले जीवके उत्कृष्ट संचय होनेमें कोई विरोध नहीं है।
ॐ वही जीव जब मानको माया संज्वलनमें प्रक्षिप्त करता है तब माया संज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है।
६१२१. यह सूत्र सुगम है। इतना विशेष है कि लोभ कषायके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़नेवाले जीवके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म कहना चाहिये।
ॐ वही जीव जब मायाको लोभ संज्वलनमें प्रक्षिप्त करता है तब लोभ संज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है।
.६ १२२ यह सूत्र सुगम है। इतना विशेष है कि लोभ संज्वलनका उत्कृष्ट संचय प्राप्त करनेके लिये मान कषायके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ाना चाहिये, क्योंकि लोभकी गोपुच्छाओंको आवलिके असंख्यातवें भागसे भाजित करके लब्ध एक भागप्रमाण मानकी गोपुच्छाएँ लोभकी गोपुच्छाओंसे कम पाई जाती हैं। इस प्रकार चूर्णिसूत्रों का कथन करके अब उच्चारणाकोकहते हैं
१२३. स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और छ नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो बादर पृथिवीकायिकोंमें कुछ अधिक दो हजार सागर कम कर्मस्थिति काल तक रहा। और अन्तमें जाकर पहले कही हुई विधिके अनुसार तेतीस सागरकी स्थितिवाले नारकियोंमें उत्पन्न हुआ। उस नारकीके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है। किसी उच्चारणामें नारकीके अन्तिम समयसे नीचे अन्तर्मुहूर्त काल उतरकर
१. आ०प्रती 'विह' इति पाठः । २. आ०प्रतौ 'कम वि' इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
११५ अंतोमुहुत्तमोसरिय उक्कस्ससामित्तं दिणं, आउअबंधकाले जादमोहणीयक्खयादो उवरिमविस्समणद्धाए जादसंचयस्स बहुत्ताभावादो। सम्मामि० उक्क० पदेसवि० कस्स ? जो अण्णदरो गुणिदकम्मंसिओ सत्तमादो पुढवीदो ओवट्टिदूण सव्वलहुँ दंसणमोहक्खवगो जादो तेण जाधे मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्ते पक्खित्तं तस्स सम्मामिच्छत्तस्स उक्कस्सयं पदेसग्गं । सम्मत्तस्स तेणेव जाधे सम्मामिच्छत्तं सम्मत्ते पक्खित्तं ताधे तस्स सम्मत्तस्स उक्कस्सिया पदेसविहत्ती । णवूस० उक्क० पदेसविहत्ती कस्स ? अण्णद० गुणिदकम्मंसियस्स ईसाणं गदस्त चरिमसमयदेवस्स तस्स णवूसयवेदस्स उक्कस्सिया पदेसविहत्ती। इत्थिवेद० उक० पदेसवि० कस्स ? अण्णद० गुणिदकम्म० असंखे०वस्साउएसु उप्पन्जिय पलिदो० असंखे भागकालेण पूरिदइत्थिवेदस्स तस्स उक्क० इत्थिवेदपदेसवि०। पुरिस० उक्क० पदेसवि० कस्स ? अण्णद० गुणिदकम्मंसियस्स ईसाणदेवेसु णqसयवेदं पूरिदूण असंखेजवासाउएसु उववजिय तत्थ पलिदो० असंखे०भागेण कालेण इत्थिवेदं पूरिय तदो सम्मत्तं लभिदूण पलिदोवमट्ठिदिएसु देवेसु उववन्जिय तत्थ पुरिसवेदं पूरेदूण तदो चुदो मणुस्सेसु उवजिय सव्वलहुं खवगसेढिमारुहिय णqसयवेदं पुरिसवेदम्मि पक्विविय जम्मि इत्थिवेदो पुरिसवेदम्मि पक्खित्तो तम्मि पुरिसवेदस्स उक्कस्सयं पदेससंतकम्मं । कोधसंजलणस्स उकस्सिया पदेसविहत्ती कस्स ? जाधे पुरिसवेदस्स उकस्सपदेससंतकम्मं कोधसंजलणे उत्कृष्ट सामित्व दिया है, क्योंकि आयुबंधके कालमें भोहनीयका जो क्षय होता है उससे आयुबन्धके पश्चात्के विश्राम कालमें होनेवाला संचय बहुत नहीं होता। सम्यग्मिथ्थात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो गुणितकर्मा शवाला जीव सातवें नरकेसे निकलकर सबसे कम कालमें दर्शनमोहका क्षपक हुआ। वह जब मिथ्यात्वको सम्यग्मिथ्यात्वमें प्रक्षिप्त कर देता है तब सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है। वही जीव जब सम्य ग्मिथ्यात्वको सम्यक्त्व प्रक्षित करता है तो उसके सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। नपुसंकवेदको उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो गुणितकर्मा शवाला जीव ईशान स्वर्गमें जाकर जब देवपर्यायके अन्तिम समयमें स्थित होता है तब उसके नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट विभक्ति किसके होती है ? जो गुणित काशवाला जीव असंख्यात वर्षकी आयुवाले मनुष्य-तियञ्चोंमें उत्पन्न होकर पल्यके असंख्यातवें भाग कालके द्वारा स्त्रीवेदका संचय करता है उसके खोवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो गुणितकर्माशवाला जीव ईशान स्वर्गके देवोंमें उत्पन्न होकर नपुंसकवेदको पूरता है फिर असंख्यात वर्षकी आयुवाले मनुष्य तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न होकर पल्यके असंख्यातवें भाग कालके द्वारा स्त्रीवेदको पूरता है। फिर सम्यक्त्वको प्राप्त करके पल्यकी स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न होकर वहां पुरुषवेदको पूरण करके च्युत होकर मनुष्योंमें उत्पन्न होकर सबसे लधु कालके द्वारा क्षपकश्रेणिपर चढ़कर नपुंसकवेदको पुरुषवेदमें प्रक्षिप्त करके जब स्त्रोवेदका पुरुषवेदमें क्षेपण करता है तब पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है। क्रोध संज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जब पुरुषवेदके
1. आप्रतौ 'उक्क०, पदेसवि० इथिवेदधिः' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ पक्खित्तं ताधे तस्स उकस्सयं पदेससंतकम्मं । माणसंजलणस्स उक्क० पदेस० कस्स ? अण्णद० जाधे कोधसंज० उक्क० पदेससंतकम्म माणे पक्खित्तं ताधे माणस्स उक्क० पदेससंतकम्मं । मायासंजलणस्स उक्क० पदेसवि० कस्स ? अण्णद० जाधे माणस्स उक्क० पदेससंतकामं मायाए पक्खित्तं ताधे तस्स उक्क० पदेसविहत्ती । लोभसंजल. उक्क० पदेस० कस्स ? अण्णद० जाधे उकस्समायासंजल पदेसग्गं लोभे पक्खित्तं ताधे तस्स उकस्सयं पदेससंतकम्म ।
६१२४. आदेसेण णिरयगईए णेरइएसु मिच्छत्त-सोलसक०-छण्णोक० उक्क० पदेसवि० कस्स ? जो गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सत्तमाए पुढवीए तेत्तीससागरोवमाउद्विदीओ होदण उववण्णो तस्स चरिमसमयणेरइयस्स अंतोमुहुत्तचरिमसमयणेरइयस्स वा उक्क० पदेसविहत्ती। सम्भामि० उक्क० पदेसवि० कस्स ? सत्तमपुढविणेरइयस्स अंतोमुहुत्तेण मिच्छत्तपदेससंतकम्ममुक्कस्सं होहिदि त्ति विवरीदं गंतूण सम्मत्तं पडिवज्जिय उक्कस्सगुणसंकमकालेण आवरिय तिण्हं कम्माणमेगदरस्स उदओ होहिदि त्ति अहोदूण द्विदउवसमसम्मादिहिस्स उक्कस्सिया पदेसविहत्ती । सम्मत्तस्त उक०पदेसवि० कस्स ? जो गुणिदकम्मंसिओ सत्तमादो पुढवीदो उव्यट्टिदसमाणो संखेन्जाणि तिरियभवग्गहणाणि भमिग मगुस्सो जादो सव्वलहुएण कालेण दंसणमोहक्खवणमाढविय कदकरणिजो होदूण सम्मत्तहिदीए अंतोमुहुत्तावउत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मको क्रोध संज्वलनमें प्रक्षिप्त कर देता है तब क्रोधका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है। मानसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? जब क्रोध संज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म मानमें प्रक्षिप्त कर देता है तब मानका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है। माया संज्वलनकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जब मानका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म मायामें प्रक्षिप्त कर देता है तब मायाकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। लोभ संज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? जब उत्कृष्ट माया संज्वलनके प्रदेशसमूहको लोभमें प्रक्षिप्त कर देता है तब लोभका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है।
६ १२४. आदेशसे नरकगतिमें नारकियोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो गुणितकर्मा शके लक्षणके साथ आकर सातवें नरकमें तेतीस सागरकी आयु लेकर उत्पन्न हुआ उस अन्तिम समयवर्ती नारकीके अथवा चरिम समयसे अन्तमुहत नीचे उतरकर स्थित नारकोके उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है? सातवें नरकके जिस नारकीके अन्तर्महर्तके बाद मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होगा वह विपरीत जाकर सम्यक्त्वको प्राप्तकर गुणसंक्रमके उत्कृष्ट कालके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वका संचयकर दर्शनमोहकी तीनों प्रकृतियोंमेंसे एकका उदय होगा किन्तु ऐसा न होकर स्थित हुए उपशमसम्यग्दृष्टिके उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। सम्यक्त्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो गुणितकर्मा श वाला जीव सातवीं पृथिवीसे निकल कर तिर्यञ्चके संख्यात भवोंमें भ्रमण करके मनुष्य हुआ।
और सबसे लघु कालके द्वारा दर्शनमोहके क्षपणका आरम्भ करके कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि होकर सम्यक्त्व प्रकृतिकी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण स्थिति शेष रहने पर नरकायुके बंधके वशसे
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
सेस आउ अबंधवसेण णेरइएस उववण्णो तस्स पढमसमयउववण्णस्स उक्कस्सिया पदेविती । ति वेदागमुक० पदेसवि० कस्स ? जो पूरिदगुणिदकम्मं सिओ रइएस उववण्णो तस्स पढमसमय उववण्णणेरइयस्स उक्कस्सिया पदेसविहत्ती । एवं सत्तमार पुढवीए | गवरि सम्मत्तस्स सम्मामिच्छत्तेण सह उकस्ससामित्तं भाणिदव्वं ।
११७
$ १२५. पढमादि जाव छट्टि तिमिच्छत्त- सोलसक० - छण्णोक० उक्क० पदेसवि० कस्स ? जो गुणिदकम्मंसिओ सत्तमादो पुढवीदो उव्वट्टिदसमाणो संखेजाणि तिरिक्खभवरगहणाणि जीविदूण पुणो अप्पप्पणो णेरइएस उववण्णो तस्स पढमसमयउववण्णणेरइयस्स उक्कस्सिया पदेसविहती । सम्मत्त सम्मामि० उक्क० पदेस वि० कस्स १ सो चैव जीवो तोमुहुत्तेण सम्मत्तं पडिवण्णी तदो सव्बउक्कस्सेण पूरणकालेण सव्वजहणेण गुणसंकमभागहारेण सम्मत्त - सम्मामिच्छत्ताणि पूरेण तदो तिण्हमे गदर कम्मस्स उदए. पडिच्छदित्ति तस्स उवसम सम्मादिट्ठिस्स चरिमसमए वट्टमाणस्स उकस्सिया पसविहत्ती । तिन्हं वेदाणं णिरओघभंगो । पढमाए सम्मत्तस्स वि freओघभंगो ।
६ १२६. तिरिक्खेसु मिच्छत्त- सोलसक० छण्णोक० उक्क० पदेसवि० कस्स १ जो गुणिक मंसिओ रहओ सत्तामदो पुढवीदो उव्वट्टिदो तिरिक्खेसु उववण्णो तस्स
नारकियोंमें उत्पन्न हुआ उसके उत्पन्न होनेके प्रथम समय में सम्यक्त्व प्रकृतिको उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है । तीनों वेदोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो गुणितकर्मा शवाला जीव वेदोंका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय करके नारकियोंमें उत्पन्न हुआ उसके उत्पन्न होने के प्रथम समयमें वेदोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है । इसीप्रकार सातवें नरक में जानना चाहिए, किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्व प्रकृतिका उत्कृष्ट स्वामित्व सम्यग्मिथ्यात्व के साथ कहना चाहिये | अर्थात् जिस तरहसे जिस जीवके नरकमें सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट स्वामित्व कहा है उसी प्रकार उसी जीवके सम्यक्त्व प्रकृतिका उत्कृष्ट स्वमित्व सातवें नरकमें कहना चाहिए ।
$ १२५. पहलेसे लेकर छठे नरक तक मिध्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो गुणितकर्मा शवाळा जीव सातवें नरक से निकलकर संख्यात भव तिर्यञ्चके धारण करके फिर अपने योग्य नरकमें उत्पन्न हुआ उसके नरक में उत्पन्न होने के प्रथम समय में उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व की उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? वही जीव अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त करे, फिर पूरण करनेके सबसे उत्कृष्ट कालमें सबसे जघन्य गुणसंक्रम भागहारके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको प्रदेशोंसे पूर दे। उसके बाद तीनों प्रकृतियों में से किसी एकका उदय होगा इस प्रकार उस उपशमसम्यग्दृ ष्टके अन्तिम समय में उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है । तीनों वेदोंके उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिका स्वामित्व सामान्य नारकियोंकी तरह होता है । पहले नरक में सम्यक्त्व प्रकृतिका भी उत्कृष्ट स्वामित्व सामान्य नारकियोंकी तरह होता है।
६१२६. तिर्यञ्चों में मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो गुणितकर्मा शवाला नारकी सातवें नरकसे निकलकर तिर्यों में
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ पढमसमयउववण्णस्स उक्कस्सयं पदेससंतकम्मं । सम्मामि० उक्क० पदेसवि० कस्स ? जो गुणदिकम्मंसिओ सत्तमादो पुढवीदो ओवट्टिदृण संखेजाणि तिरियभवग्गहणाणि अणुपालेदूण सव्वलहुं सम्मत्तं पडिवण्णो सव्वुक्कस्सेण पूरणकालेण सम्मामिच्छत्तं पूरेदूण उवसमसम्मत्तचरिमसमए वट्टमाणस्स उक्क० पदेसविहत्ती । सम्मत्तस्स रइयभंगो। इथिवेदस्त ओधभंगो । पुरिस०-णवंस० उक्क० पदेसवि० कस्स ? जो पूरिदकम्मंसिओ तिरिक्खेसु उववण्णो तस्स पढमसमयउववण्णस्स उक्क० पदेसविहत्ती । एवं पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंतिरिक्खपजत्ताणं । जोणिणीणमेवं चेव । णवरि सम्मत्त० सम्मामिच्छत्तभंगो। पंचिंदियतिरिक्खअपज० मिच्छत्त०-सोलसक०-छण्णोक० उक्क० पदेसवि० कस्स ? जो गुणिदकम्मंसिओ सत्तमादो पुढवीदो उव्यट्टिदूण संखेजतिरियभवग्गहणाणि जीविदण पुणो पंचिंतिरिक्खअपजत्तएसु उववण्णो तस्स पढयसमयउववण्णस्स उक्कस्सयं पदेससंतकम्मं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तीणमेवं चेव संखेजतिरिक्खभवग्गहणाणि गमेदूण सव्वलहुँ सम्मत्तं पडिवजिय पुगो मिच्छत्तं गंतूण अविणद्वगुणसेढीहि पंचिंदियतिरिक्खअपजत्तएसु उववण्णो तस्स पढमसमयउववण्णस्स उक्क० पदेसवि० । तिण्हं वेदाणमुक्क० कस्स ? जो पूरिदकम्मंसिओ सव्वलहुं पंचिं०तिरिक्खअपजत्तएसु
उत्पन्न हुआ उसके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है। सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो गुणितकर्मा शवाला जीव सातवें नरकसे निकलकर तिर्यश्चके संख्यात भव धारण करके जल्दीसे जल्दी सम्यक्त्वको प्राप्त करे और सबसे उत्कृष्ट पूरण कालके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वको प्रदेशोंसे पूर दे। उपशम सम्यक्त्वके अन्तिम समयमें वर्तमान उस जीवके उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। सम्यक्त्व प्रकृतिका उत्कृष्ट स्वामित्व नारकियोंके समान जानना चाहिए। स्त्रीवेदका उत्कृष्ट स्वामित्व ओघकी तरह है। पुरुषवेद और नपुंसकवेदको उत्कृष्ट प्रदेश विभक्ति किसके होती है ? जो गुणित कर्मा शवाला जीव दोनों वेदोंको प्रदेशोंसे पूरकर तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न हुआ उसके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। इसीप्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च और पश्चेन्द्रिय तियश्च पर्याप्तकोंमें जानना चाहिए । योनिनी तिर्यञ्चोंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिए । विशेष इतना है कि सम्यक्त्व प्रकृतिका उत्कृष्ट स्वामित्व सम्यग्मिथ्यात्वके समान होता है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो गुणितकर्मा शवाला जीव सातवें नरकसे निकलकर तियञ्चोंके संख्यात भव धारण करके फिर पञ्चन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तोंमें उत्पन्न हुआ उसके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म भी इसी प्रकार जानना चाहिये । अर्थात् गुणितकर्मा शवाला जीव तिर्यञ्चके संख्यात भव बिताकर सबसे लघु कालके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त करके फिर मिथ्यात्व में जाकर नाशको नहीं प्राप्त हुई गुणश्रेणियों के साथ पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तोंमें उत्पन्न हुआ उसके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। तीनों वेदोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो तीनों वेदोंका उत्कृष्ट संचय करके जल्दासे जल्दी पञ्चेन्द्रिय तियञ्च अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं उववण्णो तस्स पढमसमयउववण्णस्स उक्क० पदेसवि० । एवं मणुसअपजत्ताणं ।।
१२७. मणुस्सेसु मिच्छत्त-बारसक०-छण्णोक० पंचिंदियतिरिक्खअपजत्तभंगो। णवरि मणुस्सेतु उववण्णो त्ति वत्तव्वं । सम्मत्त-सम्मामि०-चदुसंजल-पुरिसवेद०
ओघं । इत्थि०-णवंस० उक्क० पदेस० कस्स ? जो पूरिदकम्मंसिओ मणुस्सेसु उववण्णो तस्स पढमसमयउववण्णस्स उक्क० पदेससंतकम्मं । एवं मणुसपजत्तमणुसिणीणं ।
६ १२८. देवेसु मिच्छ०-सोलसक०-छण्णोक० उक्क० पदेसवि० कस्स ? जो गुणिद. कम्मंसिओ अधो सत्तमादो पुढवीदो उव्वट्टिदसमाणो संखेजाणि तिरियभवग्गहणाणि अणुपालेदृण देवेसु उववण्णो तस्स पढमसमय उववण्णस्स उक्क० पदेसवि० । सम्मामि० उक्क० पदेसवि० कस्स ? सो चेव जीवो सम्मत्तं पडिवण्णो अंतोमुहुत्तं सव्वुक्कस्सियाए पूरणद्धाए पूरेदण तदो तिण्हमेक्कदरस्स कम्मस्स उदए पडिहिदि ति तस्स उक्क० पदेसवि० । सम्मत्त० णेरइयभंगो। इत्थि० उक्क० पदेसवि० कस्स ? जो पूरिदकम्मंसिओ देवेसु उववण्णो तस्स पढमसमयउववण्णस्स उक० पदेसवि० । पुरिसवेदवि० ओघं। णवरि पलिदोवमद्विदिएसु देवेसु उप्पजिदूण पुरिसवेदमावूरिदचरिमउसके उत्पन्न होनेके प्रथमसमयमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिये।
६१२७. सामान्य मनुष्योंमें मिथ्यात्व, बारह कषाय और छह नोकषायोंको उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंके समान होती है । इतना विशेष है कि पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तके स्थानमें 'मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ' ऐसा कहना चाहिये। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, चार संज्वलन कषाय और पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति ओघकी तरह जानना चाहिये। स्त्रीवेद और नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका उत्कृष्ट संचय करके मनुष्योमें उत्पन्न हुआ उसके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है । इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्त और मनुष्यिनियोंके जानना चाहिये।
६१२८. देवोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो गुणितकर्मा शवाला जीव नीचे सातवें नरकसे निकल कर और तिर्यश्चके संख्यात भव धारण करके देवोंमें उत्पन्न हुआ, उसके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें उत्कल प्रदेशविभक्ति होती है। सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? वही देवोमें उत्पन्न हुआ जीव जब सम्यक्त्वको प्राप्त करके अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त सबसे उत्कृष्ट पूरण कालके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वको प्रदेशोंसे पूर देता है और उसके बाद दर्शनमोहकी तीनों प्रकृतियोंमेंसे किसी एक प्रकृतिके उदयको प्राप्त होगा उसके उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। सम्यक्त्व प्रकृतिका भंग नारकियोंकी तरह जानना चाहिये। स्त्रीवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो स्त्रीवेदको पूर कर देवोंमें उत्पन्न हुआ उसके उत्पन्न होनेके प्रथम समय में उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। पुरुषवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति ओघकी तरह जानना चाहिए। इतना विशेष है कि पल्यकी स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न होकर पुरुषवेदका उत्कृष्ट संचय करने
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ समयदेवस्स उक्क० पदेसवि० । णवूस० ओधं । एवं भवण-वाण॰जोदिसियाणं । णवरि सम्मत्तस्स सम्मामिच्छत्तभंगो। तिण्हं वेदाणमुक्क० पदेसवि० कस्स ? जो गुणिदकमेण पूरिदकम्मंसिओ अप्पप्पणो देवेसु उववण्णो तस्स पढमसमयदेवस्स उक्क० पदेसवि० । सोहम्मीसाणेसु देवोघं । सणक्कुमारादि जाव सहस्सारे त्ति देवोघं । णवरि तिण्हं वेदाणं भवणवासियभंगो।
१२९. आणदादि जाव णवगेवजा त्ति मिच्छत्त-सोलसक०छण्णोक० उक्क० पदेसवि० कस्स ? जो गुणिदकम्मंसिओ सत्तमादो पुढवीदो उव्वट्टिदसमाणो संखेजाणि तिरियभवग्गहणाणि अणुपालेदूण पुणो वासपुधत्ताउओ होदूण मणुस्सेसु उववण्णो सव्वलहुएण कालेण दवलिंगमुवणमिय अंतोमुहुत्तमच्छिय कालगदसमाणो अप्पप्पणो देवेसु उववण्णो। तस्स पढमसमयउववण्णस्स उक० पदेसविहत्ती । सम्मामि० उक्क० पदेसवि० कस्स ? एसो जीवो चेव अंतोमुहुत्तेण जो सम्मत्तं पडिवण्णो सव्वुकस्सेण पूरणकालेणावूरिदसम्मामिच्छत्तो तिण्हमेक्कदरस्स उदए अवरिदचरिमसमए द्विदस्स तस्स सम्मामि० उक्क० पदेसवि० । सम्मत्तस्स सणक्कुमारभंगो। एवं तिण्हं वेदाणं । णवरि दवलिंगि ति भाणिदव्वं । अणुद्दिसादि जाव सव्वह सिद्धि त्ति मिच्छ०-सम्मामि०-सोलसक०-छण्णोक० उक० पदेस० कस्स ? वाले देवके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। नपुंसकवेदकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति ओघकी तरह है। इसी प्रकार भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें जानना चाहिये। इतना विशेष है कि सम्यक्त्व प्रकृतिकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति सम्यग्मिथ्यात्वकी तरह जानना चाहिये। तीनों वेदोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो गुणितकर्मा शके क्रमानुसार तीनों वेदोंका उत्कृष्ट संचय करके अपने अपने देवोंमें उत्पन्न हुआ उसके प्रथम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। सौधर्म और ईशान स्वर्गके देवोंमें सामान्य देवोंकी तरह जानना चाहिये । सनत्कुमारसे लेकर सहस्रार स्वर्ग पर्यन्त भी सामान्य देवोंकी तरह जानना चाहिये । इतना विशेष है कि तीनों वेदोंका भङ्ग भवनवासियोंकी तरह होता है।
६१२९. आनतसे लेकर नव ग्रैवेयकपर्यन्त मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो गुणितकर्मा शवाला जीव सातवें नरकसे निकलकर तिर्यश्चके संख्यात भव धारण करके फिर वर्ष पृथक्त्वकी आयु लेकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। सबसे जघन्य कालके द्वारा द्रव्यलिंगको धारण करके अन्तर्मुहूर्त तक ठहरकर फिर मरण करके अपने अपने देवोंमें उत्पन्न हुआ उसके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? इन्हीं जीवोंमेंसे जो अन्तर्मुहुर्तमें सम्यक्त्वको प्राप्त करके सबसे उत्कृष्ट पूरणकालके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिको प्रदेशोंसे पूर देता है, तीनों प्रकृतियोंमेंसे किसी एकके उदयमें आनेके पूर्व अवशिष्ट अन्तिम समयमें स्थित उस जीवके सम्यग्मिथ्यात्वकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। सम्यक्त्व प्रकृतिका भंग सानत्कुमार स्वर्गकी तरह होता है। इसी प्रकार तीनों वेदोंका जानना चाहिए। किन्तु द्रव्यलिंगीके कहना चाहिए । अर्थात् उक्त प्रकारसे जो द्रव्यलिंगी मरकर आनतादिकमें उत्पन्न हुआ उसके उक्त विधिके द्वारा वेदोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि पर्यन्त मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सोलह
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१२१ जो गुणिदकम्मंसिओ अधो सत्तमादो पुढवीदो उव्वट्टिदसमाणो संखेजाणि तिरियभवग्गहणाणि जोविदूण पुणो वासपुधत्ताउअमणुस्सेसु उववञ्जिय तत्थ सव्वलहुएण कालेण संजमं पडिवजिय अंतोमुहुत्तकालेण कालं' करिय अप्पप्पणो देवेसु उववण्णो तस्स पढमसमयउप्पण्णदेवस्स उक्क० पदेसविहत्ती। सम्मत्त ० देवोघं । तिण्हं वेदाणमुक्क० पदेस० कस्स ? जो पूरिदकम्मंसिओ मणुस्सेसु उववजिय सव्वलहुं संजमं पडिवजिदण अंतोमुहुत्तेण कालगदसमाणो अप्पप्पणो देवेसु उववण्णो तस्स पढमसमयउववण्णस्स उक्कस्सिया पदेसविहत्ती । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति ।
एवमुक्कस्ससामित्तं गदं। कषाय और छह नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो गुणितकर्मा शवाला जीव नीचेकी सातवीं पृथिवीसे निकलकर और तिर्यश्चोंके संख्यात भव तक जीवित रहकर पुनः वर्षपृथक्त्वकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न होकर वह अति शीघ्र कालके द्वारा संयमको प्राप्त होकर अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर मरकर अपने अपने देवोंमें उत्पन्न हुआ उस देवके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है । सम्यक्व प्रकृतिका भंग सामान्य देवोंके समान है। तीन वेदोंको उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो कमांशको पूरकर और मनुष्योंमें उत्पन्न होकर अतिशीघ्र संयमको प्राप्त करके अन्तमुहूर्तके भीतर मरकर अपने अपने देवोंमें उत्पन्न हआ, उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें उसके तीन वेदोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है। इस प्रकार जानकर अनाहारक मार्गणा तक ले जाना चाहिए।
विशेषार्थ-यहाँ एक साथ क्रमसे चारों गतियोंमें उत्कृष्ट स्वामित्वका खुलासा करते हैं। यथा-ओघमें बतलाया है कि जो जीव गुणित काशकी विधिसे आकर कर्मस्थिति कालके भीतर अन्तिम बार तेतीस सागरकी आयु लेकर सातवें नरकमें उत्पन्न हुआ है उस नारकीके भवके अन्तिम समयमें मिथ्यात्व और संज्वलन चारके बिना बारह कषाय और छह नोकषाय की उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति होती है । ओघसे बतलाई गई यह विधि सामान्य नारकियोंके भी बन जाती है, अतः यहां भी उक्त कमों के स्वामित्वका कथन उक्त प्रकारसे किया। यहाँ शेष कर्मों के उत्कृष्ट स्वामित्वके कथनमें ओघसे कुछ विशेषता है। बात यह है कि ओघसे चार संज्वलनका उत्कृष्ट स्वामित्व क्षपकणिमें प्राप्त होता है और क्षपकणि नरकमें सम्भव नहीं, इसलिए इन चारों कषायोंका उत्कृष्ट स्वामित्व भी मिथ्यात्व आदि प्रकृतियोंके समान बतलाया है। यहाँ इतना विशेष जानना कि किसी उच्चारणामें मिथ्यात्वादि प्रकृतियोंका उत्कृष्ट स्वामित्व आयु बन्धके पूर्व बतलाया है, अतः इस मतके अनुसार यहाँ भी उसी प्रकार समझना ।
ओघसे सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म क्षायिक सम्यक्वको प्राप्त करनेवाले गुणितकर्माश जीवके बतलाया है किन्तु नरकमें क्षायिक सम्यक्षकी प्राप्तिका प्रारम्भ नहीं होता, अतः यहाँ मूलमें जो विधि बतलाई है उस विधिसे ही सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेश सत्कम प्राप्त होता है। कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि मरकर नरकमें उत्पन्न होता है. अत गुणितकाशवालो जीवको नरकसे निकालकर और तियचोंमें भ्रमाकर वर्षपृथक्त्वकी आयुके साथ मनुष्यों में उत्पन्न कराना चाहिए और वहाँ सम्यक्व प्राप्तिको योग्यतो आते ही सम्यक्त्वको प्राप्त कराकर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ कराना चाहिये और जैसे
१. आ०प्रतौ० 'मुहुत्ता कालं' इति पाठः ।
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[पदेसविहत्ती ५
ही यह जीव कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि हो वैसे हो इसे अतिशीघ्र नरकमें उत्पन्न कराना चाहिए। ऐसा करानेसे नरककी अपेक्षा सम्यक्व प्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म प्राप्त होता है। यहाँ इतना विशेष जानना कि सम्यक्त्वप्राप्तिके पूर्व नरकायुका बन्ध करा देना चाहिए, क्योंकि सम्यक्त्व प्राप्ति के बाद नरकायुका बन्ध नहीं होता । स्त्रीवेदका उत्कृष्ट संचय असंख्यात वर्षकी आयुवाले तिर्यच या मनुष्यके होता है, नपुंसकवेदका उत्कृष्ट संचय ईशान स्वर्गके देवके होता है और पुरुषवेदका उत्कृष्ट संचय डेढ़ पल्यको आयुवालले देवके होता है । इन जीवोंको यथासम्भव शीघ्रसे शीघ्र नरकमें ले जाय तो वहाँ उत्पन्न होनेके पहले समयमें नरककी अपेक्षा उत्कृष्ट संचय प्राप्त हो जाता है। इस प्रकार नरकगतिमें ओघसे सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट संचयका विचार किया। अलग अलग प्रत्येक नरकका विचार करने पर सातवें नरकमें सम्यक्त्व प्रकृतिके उत्कृष्ट संचय को छोड़कर और सब क्रम सामान्य नारकियोंके समान बन जाता है, इसलिए सातवें नरकमें सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट संचय सामान्य नारकियोंके समान कहा । किन्तु कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव सातवें नरकमें नहीं उत्पन्न होता, इसलिये सातवें नरकमें सम्यक्त्व प्रकृतिका उत्कृष्ट संचय सम्यग्मिथ्यात्वके समान कहा । अर्थात् सातवें नरकमें सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंचयका जो स्वामी बतलाया है वही जब सम्यक्त्वको प्रदेशोंसे पूर लोता है तो उसके सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय होता है। प्रथमादि नरकों में उर को प्राप्त करनेके लिये प्रत्येक प्रकृतिके उत्कृष्ट संचयवाले जीबको उस उस नरकमें ले जाना चाहिये । यही कारण है कि प्रथमादि नरकोंमें सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट संचय उत्पन्न होनेके पहलले समयमें कहा । यहाँ इतना विशेष जानना कि पहलो मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायोंका उत्कृष्ट संचय सांतवें नरकमें प्राप्त करावे, स्त्रीवेद का उत्कृष्ट संचय भोगभमिमें प्राप्त करावे, पुरुषवेदका उत्कृष्ट संचय डेढ़ पल्यकी आयवाले देवोंमें उत्पन्न करावे और नपुंसकवेदका उत्कृष्ट संचय ईशानस्वर्गमें उत्पन्न करावे और पश्चात् यथाविधि उस उस नरकमें ले जाय जहाँका उत्कृष्ट संचय ज्ञातव्य हो । किन्तु सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट संचय प्राप्त करनेमें कुछ विशेषता है। बात यह है कि पहले सातवें नरकमें मिथ्यात्वका उत्कृष्ट संचय प्राप्त करावे। बादमें उसे तिर्यञ्चोंमें भ्रमाता हुआ अतिशीघ्र उस उस नरकमें ले जाय और उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त बाद सम्यक्त्वको प्राप्त कराके सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वका उत्कृष्ट संचय प्राप्त कर ले। किन्तु पहले नरकमें कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टि भी उत्पन्न होता है, अतः यहां सम्यक्त्वका उत्कृष्ट संचय कृतकृत्यवेदकसम्यग्दृष्टिके कहना चाहिये। अब तिर्यश्चगतिमें उसका विचार करते हैं। गुणितकर्मा शवाले जीवके सातवें नरकमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायका उत्कृष्ट संचय होता है। अब यह जीव तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न हआ तो तिर्यञ्चोंके इनका उत्कृष्ट संचय पाया जाता है पर यह उत्कृष्ट संचय पहले समय में ही सम्भव है, अतः तिर्यश्चके इन कर्माका उत्कृष्ट संचय उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें कहा है। इसी प्रकार पुरुषवेद और नपुंसकवेदका उत्कृष्ट संचय भी तियश्चके उत्पन्न होने के प्रथम समय में घटित कर लेना चाहिये । यहाँ स्त्रीवेदका उत्कृष्ट संचय ओधके समान कहनेका कारण यह है कि ओघसे भोगभूमिमें तिर्यश्च या मनुष्यके स्त्रीवेदका उत्कृष्ट संचय होता है। अतः तिर्यश्चके स्त्रीवेदका उत्कृष्ट संचय ओघके समान बन जाता है। अब रही सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति सो कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव भी तियचोंमें उत्पन्न होता है, अतः ऐसे तियचके उत्पन्न होनेके पहले समयमें सम्यक्त्वका उत्कृष्ट संचय कहा। तथा सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट संचय उस तिर्यचके होता है जो सातवें नरकमें मिथ्यात्वका यथासंभव उत्कृष्ट संचय करके तियचोंमें उत्पन्न हुआ। परन्तु ऐसा जीव
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उत्तरपयडिपदेस हत्तीए सामित्तं
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सम्यक्त्वको नहीं प्राप्त होता, अतः उसने तिर्यञ्चके संख्यात भवग्रहण किये और ऐसी अवस्थाको प्राप्त हुआ जिस पर्यायमें सम्यक्त्वको प्राप्त करने की योग्यता आ गई। तब उस पर्यायमें सम्यक्त्वको प्राप्त करके सम्यग्मिथ्यात्वका संचय किया। इस प्रकार तिर्यश्चके सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट संचय प्राप्त हो जाता है । पंचेन्द्रिय तिर्यश्च और पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्तके उक्त स्वामित्व अविकल बन जाता है, इसलिये इनमें सब प्रकृतियोंके उत्कृष्ट संचयके स्वामित्वको सामान्य तिर्यश्चोंके समान कहा । यह व्यवस्था योनिमती तिर्यंचोंमें भी बन जाती है परन्तु यहाँ सम्यक्त्व प्रकृतिका अपवाद है। बात यह है कि योनिमती तिर्यश्चोंमें कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होता, अतः यहाँ सम्यक्त्वका उत्कृष्ट संचय सम्यग्मिथ्यात्वके समान कहा। सातवें नरकसे निकला हुआ जीव सीधा लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यश्च नहीं हो सकता, किन्तु इस पर्यायको प्राप्त करनेके लिए ऐसे जीवको तिर्यश्चके संख्यात भव लेना पड़ते हैं। यही कारण है कि उच्चारणामें सातवें नरकसे निकलकर तिर्यञ्चोंके संख्यात भव धारण करनेके बाद लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यञ्चके उत्पन्न होनेके पहले समयमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषायोंका उत्कृष्ट संचय बतलाया है। सम्यक्त्र और सम्याग्मथ्यात्वका उत्कृष्ट संचय प्राप्त करनेके लिए लब्ध्य पर्याप्त पर्यायके पहले पूर्व पर्यायमें सम्यक्त्वको प्राप्त कराना चाहिये और अतिशीघ्र मिथ्यात्वमे ले जाकर गुणश्रेणियोंकी निर्जरा होनेके पहलो ही लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यश्चोंमें उत्पन्न करा देना चाहिये। इस प्रकार लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यश्च के उत्पन्न होनेके पहले समयमें सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट संचय प्राप्त हो जाता है। पहले गुणितकर्माशवाले जीवके स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेदका उत्कृष्ट संचय क्रमसे भोगभूमिमें, डेढ पल्यकी आयुवाले देवोंमें और ईशान स्वर्गमें करावे। बादमें उसे यथाविधि अतिशीघ्र लब्ध्यपर्याप्तक तियश्चमें उत्पन्न करावे । इस प्रकार लब्ध्यपर्याप्तक तिर्यश्चके अपने उत्पन्न होनेके पहले समयमें उत्कृष्ट संचय प्राप्त होता है। लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्यके यह व्यवस्था अविकल बन जाती है, इसलिए इनके सब कर्मों के उत्कृष्ट संचयको लब्ध्यपर्याप्तक तियश्चोंके समान कहा । अब मनुष्यगतिमें विचार करते हैं । सातवें नरकसे िकला हुआ जीव सीधा मनुष्य नहीं हो सकता। उसे बीचमें तियञ्चोंकी संख्यात पर्याय लेना पड़ती हैं। इसी कारण सामान्य मनुष्यके मिथ्यात्व, बारह कषाय और छह नोकषायका उत्कृष्ट संचय लब्ध्यपर्याप्त तिर्यश्चके समान कहा। ओघसे सम्यक्त्व, चार संज्वलन और पुरुषवेदका उत्कृष्ट संचय दर्शनमोहनीयकी क्षपणा और चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके समय प्राप्त होता है । यह अवस्था मनुष्यके ही होती है, अतः मनुष्यके उक्त प्रकृतियोंका उत्कृष्ट संचय ओघके समान कहा। तथा स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका उत्कृष्ट संचय क्रमशः भोगभूमि और ईशानस्वर्गमें बतलाया है। इसके वहाँसे च्युत होकर मनुष्योंमें उत्पन्न होने पर मनुष्यके उक्त कर्मोंका उत्कृष्ट प्रदेश संचय होता है। इसीसे स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका उत्कृष्ट संचय प्राप्त करके अनन्तर मरकर मनुष्योंमें उत्पन्न होने पर उत्पन्न होनेके पहले समयमें इन प्रकृतियोंका उत्कृष्ट संचय कहा । सामान्य मनुष्योंके जो व्यवस्था कही है वह मनुष्य पर्याप्त
और मनुष्यिनीके भी अविकल बन जाती है, अतः इनमें सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट संचय सामान्य मनुष्यके समान कहा। अब देवगतिमें विचार करते हैं। मिथ्यात्व, सोलह कषाय और छह नोकषाय इनका उत्कृष्ट संचय गुणित कौशवाले जीवके सातवें नरकके अन्तिम समयमें होता है। अब इन कर्मोका सामान्य देवोंमें उत्कृष्ट संचय प्राप्त करना है, इसलिये ऐसे जीवको देवपर्यायमें उत्पन्न कराना चाहिए। पर यह सीधा देव नहीं हो सकता, अतः बीचमें तियश्च पर्यायके संख्यात भव ग्रहण कराए हैं। यही देव अन्तर्मुहूर्तमें जब सम्यक्त्वको प्राप्त होता है तो इसके सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म प्राप्त हो जाता है। कृतकृत्यवेदक सम्यग्दृष्टि
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ * मिच्छत्तस्स जहएणपदेससंतकम्मिो को होदि ?
१३०. सुगमं। 8 सुहमणिगोदेसु कम्मढिदिमच्छिदाउमो तत्थ सव्वषहुआणि अपजत्तभवग्गहणाणि दीहाओ अपज्जत्तद्धामो तप्पामोग्गजहणणयाणि जोगहाणाणि अभिक्खं गदो। तदो तप्पाओग्गजहणियाए वड्डीए वडिदो। जीव देव हो सकता है। नरकमें भी यह व्यवस्था घटित करके बतला आये हैं। अतः देवसामान्यके सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय नारकीके समान कहा। स्त्रीवेदका उत्कृष्ट संचय भोगभूमिया तिर्यञ्चके होता है। अब इसे देवमें प्राप्त करना है अतः यहाँसे देव पर्यायमें ले जाना चाहिये । इसीलिये देवपर्यायके प्रथम समयमें स्त्रीवेदका उत्कृष्ट संचय कहा। पहले देवोंके पुरुषवेदका उत्कृष्ट संचय ओघके समान बतलाया है। पर यह व्यवस्था अविकल नहीं बनती । बात यह है कि ओघसे पुरुषवेदका उत्कृष्ट संचय क्षपकश्रेणीमें होता है और देवोंके क्षपकणि सम्भव नहीं। सामान्यतः डेढ़ पल्यकी आयुवाले देवके पुरुषवेदका उत्कृष्ट संचय अन्तिम समयमें होता है, अतः यहाँ देवके अन्तिम समयमें पुरुषवेदका उत्कृष्ट संचय कहा । देवके नपुंसकवेदका उत्कृष्ट संचय जो ओघके समान बतलाया है सो यह स्पष्ट ही है। कुछ मौके उत्कृष्ट संचयको छोड़कर यह सब व्यवस्था भवनत्रिकके भी बन जाती है, इसलिये इनके सम्यक्त्व और तीन वेदोंके सिवा शेष प्रकृतियोंका उत्कृष्ट संचय सामान्य देवोंके समान कहा । यहाँ कृतकृत्य वेदकसम्यग्दृष्टि जीव नहीं उत्पन्न होता, इसलिये भवनत्रिकके सम्यक्त्व का भंग सम्यग्मिथ्यात्वके समान कहा। तथा अपने-अपने स्थानमें स्त्रीवेद आदिका उत्कृष्ट संचय प्राप्त करके और वहाँ से च्युत होकर जब भवनत्रिकमें उत्पन्न होते हैं तब भवनत्रिकमें इनका उत्कृष्ट संचय प्राप्त होता है, इसलिये भवनत्रिकके उत्पन्न होनेके पहले समयमें तीन वेदोंका उत्कृष्ट संचय कहा। सामान्य देवोंके जो व्यवस्था बतलाई है वह सौधर्म और ऐशान स्वर्गमें अविकल बन जाती है, इसलिये इन स्थानोंमें सब प्रकृतियोंका उत्कृष्ट संचय सामान्य देवोंके समान कहा। सनत्कुमारसे लेकर सहस्रारतक भी यही जानना । किन्तु तीन वेदोंका कथन भवनत्रिकके समान है। बात यह है कि तीन वेदोंका उत्कृष्ट संचय सनत्कुमारादिमें तो होता नहीं, अतः अपने-अपने स्थानमें इनका उत्कृष्ट संचय प्राप्त कराके क्रमसे सनत्कुमारादिकमें उत्पन्न कराना चाहिये तब सनत्कुमारादिकमें तीन वेदोंका उत्कृष्ट संचय प्राप्त होगा। इसी प्रकार भवनत्रिकमें तीन वेदोंका उत्कृष्ट संचय प्राप्त होता है इसलिये सनत्कुमारादिकमें तीन वेदोंका भंग भवनत्रिकके समान कहा है। ओनतादिकमें मनुष्य ही उत्पन्न होता है। इसमें भी नौ ग्रैवेयक तक द्रव्यलिंगी मुनि भी पैदा हो सकता है। और यहाँ उत्कृष्ट संचय प्राप्त कराना है, अतः आनतादिकमें द्रव्यलिंगी मुनी उत्पन्न कराया गया है। शेष कथन सुगम है। किन्तु अनुदिश आदिमें भावलिंगी ही उत्पन्न होता है, किन्तु अधिक निर्जरा न हो जाय इसलिए वर्षपृथक्वकी आयुवाले मनुष्यको ही वहाँ उत्पन्न कराना चाहिए।
ॐ मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशसत्कर्मवाला कौन होता है ? ६ १३०. यह सूत्र सुगम है।
जो जीव सूक्ष्मनिगोदियोंमें कर्मस्थिति काल तक रहा । वहां उसने अपर्यासकके भव सबसे अधिक ग्रहण किये और अपर्याप्तकका काल दीर्घ रहा । तथा निरन्तर अपर्याप्तकके योग्य जघन्य योगस्थानोंसे युक्त रहा। उसके बाद तत्प्रायोग्य जघन्य
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गा० २२ ]
उत्तरपयडपदेसविहत्तीए सामित्तं
जदा जदा आउअं बंधदि तदा तदा तप्पा ओग्गउक्कस्सएस जोगट्ठाणेसु वदृदि । हे डिल्लीणं द्विदीणं णिसेयस्स उक्कस्सपदेसतप्पा ओग्गं उक्कस्सविसोहिमभिक्खं गदो । जाधे अभवसिद्धियपाओग्गं जहणणंगं कम्मं कदं तदो तसे आगदो । संजमासंजमं संजमं सम्मत्तं च बहुसो लद्धो । चत्तारि वारे कसाए उवसामित्ता तदो वेलावद्विसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालिदूग तदो दंसणमोहणीयं खवेदि । पच्छिमट्ठि दिखंडयमवणिज्जमाण्यमवणिदमुदयावलियाए जं तं गलमाणं तं गलिदं । जाधे एकिस्से द्विदीए समयकाल हिदिगं सेसं ताचे मिच्छुत्तस्स जहणयं पदेससंतकम्म ।
S १३१. सुहुमणिगोदेसु कम्मट्ठिदिमच्छिदो ति णिसो बादरणिगोदादिसु तद्वद्वाणपडिसेहफलो | ण सुहुमणिगोदेसु कम्मडिदिअवट्ठाणं फलविरहियं, बादरादिजोगेहिंतो असंनेज्जगुणहीणसुहुमणिगोदजोगेण थोवपदेसेसु आगच्छमाणेसु खविदकम्मंसियत्तफलोवलंभादो । तत्थ सव्वबहुआणि अपजत्तभवग्गहणाणि दीहाओ अपजत्तद्धाओ त्ति वयणेण कम्मट्ठिदिं हिंडमाणसुहुमणिगोदस्स भवावासेण सह अद्धावास परुविदो । किमहमद्धावासो परूविजदे ? पजत्तजोगेहिंतो असंखे०गुणहीण
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वृद्धि बढ़ा | जब जब आयुका बंध किया तब तब तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट योगस्थानों में ही बंध किया । नीचे की स्थिति निषेकोंको उत्कृष्ट प्रदेशवाला और निरन्तर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त हुआ । 'जब अभव्यके योग्य जघन्य प्रदेशसत्कर्म हुआ तब सोंमें आगया । वहाँ संयम संयम, संयम और सम्यक्त्वको अनेकवार प्राप्त किया । चार बार कषायों का उपशम करके फिर एकसौ बत्तीस सागर तक सम्यक्त्वको पालकर उसके बाद दर्शनमोहनीयका क्षपण करता है । क्षपण करनेके योग्य अन्तिम स्थितिकाण्डका क्षपण करके उदयावलीमें जो द्रव्य गल रहा है उसको गलाकर जब एक निषेककी दो समय प्रमाण स्थिति शेष रहे तब उसके मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है ।
§ १३१. 'सूक्ष्मनिगोदियों में कर्मस्थितिकाल तक रहा' यह निर्देश बादर निगोदिया जीवोंमें उस जीवके रहनेका प्रतिषेध करता है । तथा सूक्ष्मनिगोदियों में कर्मस्थिति काल तक रहना निष्फत नहीं है, क्योंकि बादर आदि जीवोंके योग्य योगसे असंख्यातगुणा हीन सूक्ष्म निगोदिया जीवके योग द्वारा थोड़े कर्मप्रदेशोंका आगमन होनेसे क्षपित कर्माश रूप फल पाया जाता है 'वहाँ उसने अपर्याप्तकके भव सबसे अधिक ग्रहण किए और अपर्याप्तकका काल दीर्घ रहा' ऐसा कहनेसे कर्मस्थिति काल तक भ्रमण करनेवाले सूक्ष्मनिगोदिया जीवके भवावास के भवरूप आवश्यकके साथ-साथ अद्धावास - कालरूप आवश्यक बतलाया है । शंका- अद्धावास क्यों बतलाया ?
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१२६ . जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
पदेसविहत्ती ५ अपज्जत्तजोगेहिं थोवकम्पपोग्गलग्गहणहं । तप्पाओग्गजहण्णयाणि जोगहाणाणि अभिक्खं गदो त्ति किमटुं बुचदे ? दीहासु अपजत्तद्धासु उक्कस्साणि जोगहाणाणि परिहरिय तप्पाओग्गजहण्णजोगट्ठाणेसु चेव परिभमिदो त्ति जाणावणहं । अपज्जत्तद्धाए एगंताणुवड्डिजोगेहि वड्डमाणस्स गुणगारो जहण्णओ उकस्सओ वि अस्थि । तत्थ अणप्पिदगुणगारपडिसेहटुं तप्पाओग्गजहणियाए वड्डीए वड्डिदो त्ति भणिदं । एदेण जोगावासो परूविदो। बहुअं मोहणीयदव्वमाउअस्स संचारणह जदा जदा आउअं बंधदि तदा तदा तप्पाओग्गउक्कस्सएसु जोगेसु वदि' त्ति भणिदं । एदेण आउआवासो परूविदो । खविदकम्मंसिए सगोकड्डिदद्विदीदो हेट्ठा णिसिंचमाणदव्वं चेव बहुअमिदि जाणावणट्ट हेडिल्लीणं द्विदीणं णिसेयस्स उक्कस्सपदमिदि भणिदं । हेहा बहुकम्मक्खंधाणं णिसेगो किमट्ठ कीरदे ? उदएण बहुपोग्गलणिज्जरण? । एवं संते कमवड्डीए गोवुच्छाणमवट्ठाणं फिट्टिदूण पदेसरयणाए अड्ड-वियड्डत्तं पसजदि त्ति चे होदु, इच्छिन्जमाणत्तादो । एदेण ओकड्डुक्कड्डणावासो परूविदो । तप्पाओग्गमुक्कस्सविसोहिमभिक्खं गदो ति किम वुच्चदे ? कम्मपदेसाणमुवसामणा-णिकाचणा-णिधत्तिकरणाणं
समाधान-पर्याप्तके योगोंसे अपर्याप्तके योग असंख्यातगुणे हीन होते हैं अतः उनके द्वारा थोड़े कर्मपुद्गलोंका ग्रहण करनेके लिए अद्धावासको बतलाया है ?
शंका-अपर्याप्तकके योग्य जघन्य योगस्थानोंसे निरन्तर युक्त रहा ऐसा क्यों कहा ?
समाधान-दीर्घ अपर्याप्तकालोंमें उत्कृष्ट योगस्थानोंको छोड़कर तत्प्रायोग्य जघन्य में ही भ्रमण किया यह बतलानेके लिए कहा है।
___ अपर्याप्तकालमें एकान्तानुवृद्धि नामक योगोंके द्वारा वर्धमान जीवका गुणकार जघन्य होता है और उत्कृष्ट भी होता है। उनमेंसे अविवक्षित गुणकारका निषेध करनेके लिए 'तत्प्रायोग्य जघन्य वृद्धिसे बढ़ा' ऐसा कहा है। इससे योगावास बतलाया । मोहनीयको प्राप्त हो सकनेवाले बहुत द्रव्य आयुकर्मको प्राप्त करानेके लिए 'जब जब आयुका बन्ध किया तब तक तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट योगस्थानों में ही बन्ध किया' ऐसा कहा। इससे आयुरूप आवास बतलाया। 'क्षपितकाशवाले जीवमें अपनी उत्कर्षित स्थितिको अपेक्षा नीचे की स्थिति में स्थापित द्रव्य ही अधिक है' यह बतलानेके लिये 'नीचे की स्थितिके निषेकोंको उत्कृष्ट प्रदेशवाला किया ऐसा कहा 1
शंका-नीचे बहुत कर्मस्कन्धोंका निक्षेप किस लिए किया जाता है ? समाधान-उदयके द्वारा बहुत कर्मपुद्गलोंकी निर्जरा करानेके लिए किया जाता है।
शंका-ऐसा होने पर अर्थात् यदि नीचे नीचे बहुत कर्मस्कन्धोंका निक्षेप किया जाता है तो क्रमवृद्धिके द्वारा जो प्रदेशरचनाका गोपुच्छरूपसे अवस्थान बतलाया है वह नहीं रहकर प्रदेशरचनाके अस्त व्यस्त होनेका प्रसंग प्राप्त होता है ?
समाधान--प्राप्त होता है नो होओ, वह इष्ट ही है। इससे अपकर्षण-उत्कर्षणरूप आवास बतला दिया। शंका-'निरन्तर तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त हुआ' ऐसा क्यों कहा ?
१. आतौ 'वदि' इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१२७ विसोहीए विणासपदुप्पायण । एदेण संकिलेसावासो परूविदो । जाधे अभवसिद्धियपाओग्गं जहण्णयं कम्मं कदं तसेसु आगदो त्ति एदेण वयणेण भवियाणमभवियाणं च एदं खविदकम्मंसियलक्खणं साहारणमिदि जाणाविदं । एदिस्से भव्वाभव्वसाहारणखविदकिरियाए कालो कम्महिदिमेत्तो चेव, कम्मढिदिपढमसमयपबद्धस्स सत्तिहिदीदो उवरि अवठ्ठाणाभावादो। सुहुमणिगोदेसु कम्महि दिमच्छिदो ति सुत्तणिद्देसादो वा । संपहि सुहुमेइंदिसु कम्मणिजरा एत्तिया चेव वड्डिमा णत्थि त्ति सम्मत्तादिगुणेण कम्मणिज्जरणटुं तसेसु उप्पाइदो। सुहुमणिगोदेसु कम्महिदिमेत्तकालं ण भमादेदव्वो पलिदो० असंखे०भागमेत्तअप्पदरकाले चेव कम्मक्खंधक्खयदंसणादो। ण चाप्पदरकालो कम्महिदिमेत्तो, तप्परूवयसुत्तवक्खाणाणमणुवलंभादो ति ? ण एस दोसो, खविदकम्मंसियम्मि अप्पदरकालादो भुजगारकालस्स संखेजगुणहीणतणेण मिच्छादिद्विक्खविदकम्मंसियकिरियाए कम्मट्टिदिकालपमाणत्तं पडि विरोहाभावादो। संजमासंजमं संजमं सम्मत्तं च बहुसो लद्धो त्ति किमटुं वुच्चदे ? गुणसेढीए बहुकम्मणिजरणहूं। लद्धो सम्मत्तं संजमं संजमासंजमं च बहुसो पडिवण्णो त्ति दडव्वं ।
समाधान-विशुद्धिके द्वारा कर्मप्रदेशोंके उपशामनाकरण, निकाचनाकरण और निधत्तिकरणका विनाश करानेके लिए कहा।
इससे संक्लेशरूप आवास बतलाया। 'जब अभव्यके योग्य जघन्य प्रदेश सत्कर्म हुआ तब सोमें आगया' ऐसा कहनेसे 'क्षपितकाशका यह लक्षण भव्य और अभव्य जीवोंके एकसा है, यह बतलाया। भव्य और अभव्य दोनों प्रकारके जीवोंके समान रूपसे होनेवाली इस क्षपित क्रियाका काल कर्मस्थितिमात्र ही है, क्योंकि कर्मस्थितिका प्रथम समयप्रबद्ध सत्तर कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण शक्तिरूप स्थितिसे अधिक काल तक नहीं ठहर सकता, अथवा सूक्ष्म निगादिया जीवोंमें कर्मस्थिति काल तक रहा ऐसा सूत्र में निर्देश है इससे भी सिद्ध है कि क्षपित क्रियाका काल कर्मस्थितिमात्र है।
सूक्ष्म एकेन्द्रियों में इतनी ही कर्मनिर्जरा होती है उसमें वृद्धि नहीं है, इसलिये सम्यक्त्व आदि गुणों के द्वारा कर्मों की निर्जरा कराने के लिए त्रसोंमें उत्पन्न कराया है।
शंका-सूक्ष्मनिगोदिया जीवोंमें कर्मस्थितकाल तक भ्रमण नहीं करना चाहिये, क्योंकि पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण अल्पतरके कालमें ही कर्मस्कन्धोंका क्षय देखा जाता है। शायद कहा जाय कि अल्पतरकाल कमस्थिति प्रमाण है, सो भी नहीं है क्योंकि अल्पतर कालको कर्मस्थितिप्रमाण बतलानेवाला न तो कोई सूत्र ही पाया जाता है और न कोई व्याख्यान ही पाया जाता है ?
समाधान—यह दोष ठीक नहीं है, क्योंकि क्षपितकाशमें अल्पतरके कालसे भुजगारका काल संख्यातगुणा हीन होनेसे, मिथ्यादृष्टि जीवमें क्षपितकर्मा शकी क्रियाके कर्मस्थिति काल प्रमाण होने में कोई विरोध नहीं है।
शंका-संयमासंयम, संयम और सम्यक्त्वको अनेक बार प्राप्त किया ऐसा क्यों कहा ?
समाधान-गुणश्रेणीके द्वारा बहुत कर्मोंकी निर्जरा कराने के लिये ऐसा कहा। यहाँ लब्ध शब्दका अर्थ सम्यक्त्व, संयम और संयमसंयमको अनेक बार प्राप्त किया ऐसा
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जयधवासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ बहुसो त्ति बुत्ते संखेजासंखेजाणं गहणं कायव्वं गाणंतस्स, सम्मत्त-संजम-संजमासंजमगहणवाराणमाणंतियाभावादो। सम्मत्त-संजमासंजमगहणवाराणं पमाणं पलिदो० असंखे भागो। संजमग्गहणवाराणं पमाणं बत्तीसं । अणंताणुबंधिविसंजोयणवारा वि असंखेजा चेव । तेण बहुसो त्ति वुत्ते संखेजासंखेजाणं चेव गहणं कायव्वं । वेयणाए व एत्तिया चेव होंति त्ति परिच्छेदो किण्ण कदो ? ण, संपुण्णेसु सम्मत्त-संजमसंजमासंजमकंडएसु भमिदेसु मोक्खगमणं मोत्तूण सम्मत्तगुणेण वेछावट्ठिसागरोवमेसु परिभमणाणुववत्तीदो। तेणेत्थ केत्तिएण वि ऊणत्तजाणावणटुं बहुसो त्ति जिद्द सो कदो। चत्तारि वारे कसाए उवसामित्ता त्ति किमट्ठ परिच्छेदं कादूण वुच्चदे ? चदुक्खुत्तो उवसमसेढिमारुहिय उवसामिदकसाओ वि असंजमं गंतूणं वेछावहिसागरोवमाणि परिभमदि ति जाणावणटुं । एत्थुवजंतीओ गाहाओ
सम्मत्तुत्पत्ती वि य सावयविरदे अणंतकम्मसे ।
दसणमोहक्खवए कसायउवसामए य उवसंते ।। २ ।। लेना चाहिये।
यहाँ 'अनेकबार' इस पदसे संख्यात और असंख्यातका ही ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयमको ग्रहण करनेके बार अनन्त नहीं होते । सम्यक्त्व और संयमासंयमको ग्रहण करनेके बारोंका प्रमाण पल्यके असंख्यातवें भाग है, संयमको ग्रहण करनेके बारों का प्रमाण बत्तीस है और अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन करने के बार भी असंख्यात ही हैं । अर्थात् एक जीव मोक्ष जाने तक अधिकसे अधिक इतनेबार ही सम्यक्त्वादिका धारण और अनन्तानुबन्धीका विसंयोजन कर सकता है। अतः अनेक बार इस पदसे संख्यात और असंख्यातका ही ग्रहण करना चाहिये ।।
शंका-वेदनाखण्डकी तरह यहां भी इतने बार ही सम्यक्त्वादिक होते हैं ऐसा नियर्ण क्यों नहीं कर दिया ?
समाधान नहीं, क्योंकि सम्पूर्ण सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयम काण्डकोंमें भ्रमण कर चुकनेपर मोक्ष गमनको छोड़कर सम्यक्त्व गुणके साथ एक सौ बत्तीस सागर तक परिभ्रमण नहीं बन सकता । अतः यहाँ कुछ कम बतलानेके लिये अनेक बार ऐसा कहा ।
शंका-चार बार कषायोंका उपशमन करे इस प्रकार निर्णयपूर्वक कथन क्यों किया ? अर्थात् जैसे सम्यक्त्वादिके लिये कोई परिमाण न बतलाकर अनेक बार कह दिया है वैसे यहाँ न कहकर चार बार ही क्यों बतलाया ?
समाधान-चार बार उपशमणिपर चढ़कर कपायोंका उपशम कर देनेवाला असंयमी होकर एक सौ बत्तीस सागर तक परिभ्रमण करता है यह बतलानेके लिये कहा है। इस सम्बन्धमें उपयोगी गाथा
सम्यक्त्वकी उत्पत्ति, श्रावक, संयमी, अनन्तानुबन्धीकषायका विसंयोजक, दर्शनमोह क्षपक, कषायोंका उपशामक, उपशान्तमोही, क्षपकश्रेणिवाला, क्षीणमोही और जिन इनके
१. ता प्रतौ 'णिजारण। [लदो] सम्मत्तं' इति पाठः ।
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गा० २२] • उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१२९ खवगे य खीणमोहे जिणे य णियमा भवे असंखेजा ।
तव्विवरीदो कालो . संखेजगुणाए सेढीए ।। ३ ॥ ६ १३२. एदेण पयारेण तिरिक्ख-मणुस्सेसु गुणसेढिं करिय पुणो दसवासनियमसे उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी निर्जरा होती है किन्तु काल उससे विपरीत है। अर्थात् जिनसे लगाकर सम्यक्त्वकी उत्पत्तितक उत्तरोत्तर संख्यांतगुणा संख्यातगुणा है ।। २-३ ।।
विशेषार्थ-प्रथमोपशम सम्यक्त्वके कारण तीन करणोंके अन्तिम समयमें स्थित मिध्यादृष्टि जीवके कर्मो की जो गुणश्रेणिनिर्जराका द्रव्य है उससे देशसंयतके गुणश्रोणि निर्जराका द्रव्य असंख्यातगुणा है। उससे सकलसंयमीके गुणश्रणिनिर्जराका द्रब्य असंख्यातगुणा है। इसी प्रकार उससे अनन्तानुबन्धीकषायका विसंयोजन करनेवालेके, उससे दर्शनमोहका क्षय करनेवालेके, उससे कषायका उपशम करनेवाले आठवें, नौवं और दसवें गुण स्थानवर्तीके, उससे उपशान्तकषाय गुणस्थानवर्तीके, उससे क्षपकरणिके आठवें, नौवें और दसवें गुणस्थानवर्तीके, उससे क्षीणकषाय गुणस्थानवर्तीके और उससे स्वस्थान केवली जिन और समुद्भातकेवली जिनके गुणश्रेणिनिर्जराका जो द्रव्य है वह असंख्योतगुणा असंख्यातगुणा है। गुणश्रेणिनिर्जराका कथन पहले कर आये हैं । अर्थात् डेढ़ गुणहानि प्रमाण संचित द्रव्यमें अपकर्षण भागहारसे भाग देकर लव्ध एक भाग प्रमाण द्रव्यमें पल्यके असंख्यातवें भागका भाग देकर बहुभाग ऊपरको स्थितिमें दो । बाकी बचे एक भागमें असंख्यात लोकका भाग देकर बहुभागको गुणश्रेणि आयाममें दो और अवशेष एक भागको उदयावली में दो। जो द्रव्य उदयावलिमें दिया गया वह वर्तमान समयसे लगाकर एक आवली कालमें जो उदयावलीके निषेक थे उनके साथ खिर जाता है। उदयावलीके ऊपर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण गुणश्रेणि होती है। उसमें दिया हुआ द्रव्य अन्तर्मुहूर्त कालके प्रथमादि समयमें जो निषेक पहलेसे मौजूद थे उनके साथ क्रमसे असंख्यातगुणा असंख्यातगुणा होता हुआ खिरता है। अर्थात् ऊपर गुणश्रोणि निर्जराका द्रव्य असंख्यात लोकका भाग देनेसे जो बहुभाग आया तत्प्रमाण कहा है। सो पूर्वमें कहे हुये ग्यारह स्थानोंमें गुणश्रेणिका जो अन्तमुहूर्तप्रमाण काल है उसके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम समय पर्यन्त उस द्रव्यकी प्रतिसमय असंख्यातगुणी असंख्यातगुणी निषेकरचना की जाती है। इस प्रकार जिस जिस समयमें जितना जितना द्रव्य स्थापित किया जाता है उतना उतना द्रव्य उस उस समयमें निर्जराको प्राप्त होता है। इस तरह गुणश्रेणिके कालमें दिया हुआ द्रव्य प्रति समय असंख्यातगुणा असंख्यातगुणा होकर . निर्जीर्ण होता है। यह गुणणि निर्जराका द्रव्य पूर्वमें कहे गये ग्यारह स्थानोंमें असंख्यातगुणा असंख्यातगुणा है। इसका कारण यह है कि इन स्थानोंमें विशुद्धता अधिक अधिक है। अतः पूर्वस्थानमें जो अपकर्षण भागहारका प्रमाण होता है उससे आगेके स्थानमें अपकर्षण भागहार असंख्यातवें भाग असंख्यातवें भाग होता जाता है। सो जितना भागहार घटता है उतना ही लब्ध राशिका प्रमाण अधिक अधिक होता जाता है। उसके अधिक होनेसे गुणश्रोणिका द्रव्य भी क्रमसे असंख्यातगुणा होता जाता है । किन्तु उत्तरोत्तर गुणश्रणिका काल विपरीत है। अथात् समुद्भातगत जिनके गुणश्रेणिके कालसे स्वस्थान जिनकी गुणश्रेणिका काल संख्यातगुणा है । उससे क्षीणमोहका संख्यातगुणा है। इसी प्रकार क्रमसे पीछेकी ओर संख्यातगुणा संख्यातगुणा जानना। किन्तु सामान्यसे सबकी गुणश्रेणिका काल अन्तर्मुहूर्त ही है।
६ १३२. इस प्रकारसे तिर्यश्च और मनुष्यों में गुणश्रेणीको करके फिर दस हजार वर्षकी
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ सहस्सियदेवेसुप्पन्जिय पुणो समयाविरोहेण सुहुमईदिएसुप्पन्जिय तत्थ पलिदो० असंखे०भागमेतं कालं गमिय पुणो समयाविरोहेण मणुस्सेसु उप्पाएदव्वो। एवं पलिदो० असंखे० नागमेत्तासु परिब्भमणसलागासु अदिक्कंतासु पच्छा वेछावहिसागरोवमाणि भमादेदव्यो आएण विणा वेछावद्विसागरोवममभंतरविदीसु हिदगोवुच्छाणमधहिदिगलणाए णिजरणटुं। तदो दसणमोहणीयं खवेदि ति किमटुं वुच्चदे ? मिच्छत्तस्स देसणमोहणीयक्खवणाए विणा अपच्छिमहिदिखंडयं णावणिजदि त्ति जाणावणटुं । उदयावलियाए जं तं गलमाणं तं गलिदं ति णिसो किमटुं वुच्चदे ? उदयावलियभंतरे पविठ्ठपदेसाणं गालणटुं । जाधे एक्किस्से द्विदीए दुसमयं कालद्विदिगं सेसं ताधे मिच्छत्तस्स जहण्णयं पदेससंतकम्म ।
आयुवाले देवोंमें उत्पन्न होकर, फिर आगमानुसार सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर वहाँ पल्यके असंख्यातवें भाग कालको बिताकर फिर आगमानुसार उसे मनुष्योंमें उत्पन्न कराना चाहिए। इस प्रकार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण परिभ्रमण शलाकाओंके बीतने पर पीछे उसे आयके बिना स्थितिमें अधःस्थितिगलनाके द्वारा गोपुच्छोंकी निर्जरा करानेके लिए दो छयासठ सागर तक परिभ्रमण कराना चाहिए।
शंका-'उसके बाद दर्शनमोहनीयका क्षपण करता है' ऐसा क्यों कहा ?
समाधान-दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके बिना मिथ्यात्वका अन्तिम स्थितिकाण्डक नहीं नष्ट होता यह बतलानेके लिये कहा।
शंका—'उदयावलीमें जो द्रव्य गल रहा है उसे गलाकर' ऐसा क्यों कहा ? समाधान-उदयावलीके अन्दर प्रविष्ट हुए कर्मप्रदेशोंको गलानेके लिये ऐसा कहा।
इस तरह जब एक निषेककी दो समयप्रमाण स्थिति शेष रहती है तब मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है।
विशेषार्थ-पहले गुणितकर्मा शकी विधि बतला आये हैं। क्षपितकर्मा शकी विधि उसके ठीक विपरीत है। वहाँ गुणितकाशके लिये कर्मस्थितिप्रमाण काल तक बादर पृथिवीकायिकोंमें उत्पन्न कराया था। यहाँ क्षपितकर्माशके लिये कर्मस्थितिप्रमाण काल तक सूक्ष्मनिगोदियों में उत्पन्न कराया है, क्योंकि अन्य जीवोंके योगसे इनका योग असंख्यातगुणा हीन होता है। इससे इनके अधिक कर्मोंका संचय नहीं होता। सूक्ष्मनिगोदियोंमें उत्पन्न होता हुआ भी यह क्षपितकर्मा शवाला जीव अन्य गुणितकर्मा शवाले आदि जीवोंकी अपेक्षा अपर्याप्तकोंमें बहुत बार उत्पन्न होता है और पर्याप्तकोंमें कम बार उत्पन्न होता है। यहां इस क्षपितकर्मा शवाले जीवको जो अन्य जीवोंकी अपेक्षा अपर्याप्तकोंमें बहुत बार उत्पन्न कराया गया है सो अपने स्वयंके पर्याप्त भवोंकी अपेक्षा नहीं, क्योंकि स्वयं के पर्याप्त भवोंकी अपेक्षा अपर्याप्त भव थोड़े होते हैं। खुलासा इस प्रकार है-दोइन्द्रिय यदि अपर्याप्तकोंमें निरन्तर उन्पन्न होता है तो अधिकसे अधिक अस्सी बार उत्पन्न होता है । तेइन्द्रिय साठ बार, चौइन्द्रिय चालीस बार और पश्चेन्द्रिय चौबीस वार निरन्तर अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होता है। किन्तु दोइन्द्रिय पर्याप्त की उत्कृष्ट स्थिति बारह वर्ष, तेइन्द्रिय पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति उनचास दिन, चौइन्द्रिय पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति छह महीना और पश्चेन्द्रिय पर्याप्तककी उत्कृष्ट स्थिति
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गा २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१३१
तेतीस सागर बतलाई है। अब यदि दोइन्द्रिय पर्याप्तकोंके निरन्तर उत्पन्न होनेके बार अस्सी लिये जाते हैं तो कुल ९६० वर्ष प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार तेइन्द्रिय पर्याप्त कके लगातार उत्पन्न होनेके कुल भव साठ लिये जाते हैं तो कुल आठ वर्ष दो माह प्राप्त होते हैं और चौइन्द्रिय पर्याप्तकके लगातार उत्पन्न होनेके कुल भव चालीस लिये जाते हैं तो कुल बीस वर्ष प्राप्त होते हैं परन्तु कालानुयोगदारमें एक जीवकी अपेक्षा इनकी उत्कृष्ट काय स्थिति संख्यात हजार वर्षे कही है। इससे स्पष्ट है कि विकलत्रयके पर्याप्त भवोंकी अपेक्षा अपर्याप्त भव कम होते हैं। इस प्रकार जो बात विकलत्रयकी है वही बात अन्य जीवोंकी भी जानना। इससे स्पष्ट है कि यहाँ क्षपित कर्मा शवाले निगोदिया जीवके अपने पर्याप्त भवोंकी अपेक्षा अपर्याप्तक भव अधिक नहीं लिये हैं किन्तु गुणितको शवाले आदि जीवोंके जितने अपर्याप्त भव होते हैं उनकी अपेक्षा यहां अपर्याप्त भव अधिक लिये हैं। तथा इस क्षपितकर्मा शवाले जीवके अपर्याप्त काल अधिक होता है और पर्याप्त काल थोड़ा। इसका यह तात्पर्य है कि गुणितकर्माश आदि वाले जीवको जितना अपर्याप्त काल प्राप्त होता है उससे इसका अपर्याप्त काल काल बड़ा होता है और उनके पर्याप्त कालसे इसका पर्याप्त छोटा होता है। इसका अपर्याप्त काल बड़ा बतलानेका कारण यह है कि पर्याप्त कालके योगसे अपर्याप्त कालका योग असंख्यातगुणा हीन होता है
और इससे अधिक कर्मोंका संचय नहीं होता। सूक्ष्म निगोदिया जीवके जघन्य योगस्थान भी होता है और उत्कृष्ट योगस्थान भी होता है। यतः यह क्षपितकर्मा शवाला जीव है अतः इसे निरन्तर यथासम्भव जघन्य स्थान प्राप्त कराया है। इसका यह तात्पर्य है कि जब जघन्य योगस्थानोंको प्राप्त करनेके बार पूरे हो जाते हैं तब यथासम्भव उत्कृष्ट योगस्थानको भी प्राप्त होता है। इसका भी फल कोका कम संचय कराना है। इसके योगस्थानोंकी जघन्य
और उत्कृष्ट दोनों वृद्धियां सम्भव हैं, अतः उत्कृष्ट वृद्धि का निषेध करनेके लिये जघन्य वृद्धिका विधान किया है । इस क्षपितकर्मा शवाले जीवके मोहनीयको कम कर्मपरमाणु प्राप्त हों इसलिये इसके सदा आयुबन्ध उत्कृष्ट योगसे कराया। क्षपितकर्मा शवाला जीव गुणितकर्मा शवाले जीवकी अपेक्षा अपकर्षण अधिक कर्मोंका करता है जिससे निरन्तर अधिक कर्मोकी निर्जरा होती रहती है यह बतलानेके लिये नीचेकी स्थितियोंको अधिक प्रदेशवाला कराया है। अधिकतर बहुतसे कर्म संक्लेशकी अधिकतासे उपशम, निधत्ति और निकाचनारूप रहे आते हैं । यतः यह क्षपितकर्माश जीव है अतः इसके इन भावोंका निषेध करनेके लिये सदा विशुद्ध परिणामोंकी बहुलता बतलाई है। इस प्रकार पूर्वोक्त छह आवश्यकोंके द्वारा सूक्ष्म निगोदियोंमें कर्मस्थिति काल तक परिभ्रमण कराने पर जब इसका अभव्योंके योग्य जघन्य प्रदेशसत्कर्म हो जाता है तब सम्यक्त्वादि गुणोंके द्वारा कर्मोंकी और निर्जरा करानेके लिये इसे त्रसोंमें उत्पन्न कराना चाहिये। वेदनाखण्डमें इसे पहले बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तकोंमें उत्पन्न कराया है। वहां यह प्रश्न किया गया है कि सूक्ष्मनिगोदसे निकालकर इसे सीधा मनुष्यों में क्यों नहीं उत्पन्न कराया है? तो वीरसेन स्वामीने वहां इस प्रश्नका यह समाधान किया है कि यदि सूक्ष्म निगोदसे निकालकर सीधा मनुष्योंमें उत्पन्न कराया जाता है तो वह केवल सम्यक्त्व और संयमासंयमको ही ग्रहण कर सकता है तब भी इनको अतिशीघ्र ग्रहण न करके ऐसे जीवको इनके ग्रहण करने में अधिक काल लगता है, इसलिये इसे पहले बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तकोंमें उत्पन्न कराया है। इस पर पुनः प्रश्न उठा कि तो केवल बादर पृथिवीकायिकोंमें ही क्यों उत्पन्न कराया गया है तो इसका वीरसेन स्वामीने यह समाधान किया है कि जलकायिक आदिसे जो मनुष्य में उत्पन्न होता है वह अतिशीघ्र संयम आदिको नहीं ग्रहण कर सकता, अतः सर्व प्रथम बादर पृथिवीकायिक पर्याप्तकों में ही उत्पन्न
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
कराया है ।
।
इस प्रकार जब यह जीव त्रसोंमें उत्पन्न हो जाय तो वहाँ संयमासंयम, संयम और सम्यक्त्वको अनेक बार प्राप्त करावे और बार बार कषायका उपशम करावे | यह नियम है कि एक जीव पल्यके असंख्यातवें भाग बार संयमासंयम और सम्यक्त्वको प्राप्त हो सकता है और बत्तीस बार संयमको प्राप्त हो सकता है । पर यहाँ इस प्रकारकी संख्याका निर्देश नहीं किया जब कि वेदनाखण्ड में इसी प्रकरणमें इस प्रकारकी संख्याका स्पष्ट निर्देश किया है ? यहां संख्याका निर्देश न करनेका कारण यह है कि आगे चलकर इस जीवको सम्यक्त्व के साथ एक सौ बत्तीस सागर काल तक परिभ्रमण और कराया है अब यदि यह जीव सम्यक्त्व आदिको अधिक से अधिक जितनी बार प्राप्त करना चाहिये उतनी बार प्राप्त करले तो फिर इसका एक सौ बत्तीस सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ और परिभ्रमण करना सम्भव नहीं हो सकता। यही कारण है कि यहां स्पष्टतः संख्याका निर्देश नहीं किया है । किन्तु वेदनाखण्ड में ऐसे जीवको अलग से सम्यक्त्वके साथ एक सौ बत्तीस सागर काल तक परिभ्रमण नहीं कराया है, इसलिये वहाँ संख्याका निर्देश स्पष्टतः कर दिया है। इस प्रकार उक्त क्रिया कर लेनेके बाद एक सौ बत्तीस सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ परिभ्रमण करावे यह चूर्णिसूत्र में बतलाया है पर वीरसेन स्वामीं इसकी टीका करते हुए लिखते हैं कि इन दोनों के बोचमें पहले इसे दस हजार वर्षकी आयु वाले देवोंमें उत्पन्न करावे । अनन्तर यथाविधि सूक्ष्म एकेन्द्रियों में उत्पन्न करावे । यहाँ यथाविधि या समयाविरोधसे लिखनेका कारण यह है कि देव मर कर सीधा सूक्ष्म एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होता, अतः पहले उसे अन्यत्र उत्पन्न कराना चाहिये और बादमें सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न करावे | यहां रहकर यह पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डकों का घात करता है । एक स्थितिकाण्डक घात के लिये अन्तर्मुहूर्त काल लगता है, इसलिये पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डकोंका घात करनेके लिये भी पल्यका असंख्यातवां भागप्रमाण काल लगेगा, क्योंकि पल्यके असंख्यातवें भागको एक अन्तर्मुहूर्तसे गुणित करने पर भी पल्यका असंख्यातवां भाग ही प्राप्त होता है। इसके बाद इस सूक्ष्म एकेन्द्रियको यथाविधि मनुष्यों में उत्पन्न करावे और पश्चात् एक सौ बत्तीस सागर कालतक सम्यक्त्वके साथ परिभ्रमण करावे । तदनन्तर दर्शनमोनीयका क्षय कराते हुए मिध्यात्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म प्राप्त करे | वेदनाखण्ड में पल्यका असंख्यातवां भागक्रम कर्मस्थितिप्रमाण कालतक सूक्ष्म एकेन्द्रियों में उत्पन्न कराने के बाद क्रमशः बादर पृथिवीकायिकों में, मनुष्योंमें, दस हजार वर्षकी आयुवाले देवोंमें, बादर पर्याप्त पृथिविकायिकों में उत्पन्न कराया है । यहाँ मनुष्यों और देवोंमें क्रम से संयम और सम्यक्त्व को भी प्राप्त कराया है। अनन्तर सूक्ष्स पर्याप्त निगोदियों में उत्पन्न कराकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितिकाण्डकों का घात करनेके लिये पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक वहीं रहने दिया है । अनन्तर बादर पृथिवीकायिकों में उत्पन्न कराकर फिर सोंमें उत्पन्न कराया है और यहां पल्यके असंख्यातवें भागवार संयमासंयमको इतने ही बार सम्यक्त्वको, बत्तीस बार संयमको और चार बार उपशमश्रेणिको प्राप्त कराया है । फिर अन्त में एक पूर्वकोटि की आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न कराकर और अतिशीघ्र संयमको प्राप्त कराकर जीवन भर संयम के साथ रखा है और जब अन्तर्मुहूर्त काल शेष रहा तब दर्शनमोहनीयका क्षय कराते हुए मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म प्राप्त किया गया है । इस प्रकार वेदनाखण्डके कथनको और चूर्णिसूत्रके कथनको मिलाकर पढ़ने पर जो विशेषता ज्ञात होती है उसका कोष्टक इस प्रकार है
[ पदेसविहत्ती ५
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गा २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१३३ ६ १३३. एत्थ सामित्तहिदीए कम्मटिदिपढमसमयप्पहुडि पलिदो० असंखे०भागेणब्भहियवेछावट्ठिसागरोवमेसु बद्धदव्वस्स एगो वि परमाणू णत्थिः कम्महि दिबाहिरे पलिदो० असंखे०भागेणब्भहियवेछावहिसागरोवमकालं परिभमियत्तादो। तत्तो बाहिं परिभमिदो त्ति कुदो णव्वदे ? अभवसिद्धियपाओग्गं जहण्णयं कम्मं कदो तदो तसेसु आगदो ति सुत्तादो । ण च सुहुमेइंदिएसु खविदकम्मंसियलक्खणेण कम्मट्ठिदिमणच्छिदभवसिद्धियजीवस्स संतकम्ममभवसिद्धियजहण्णसंतकम्मेण समाणं होदि, चूर्णिसूत्र
वेदनाखण्ड स्वामी
काल
स्वामी । काल सूक्ष्कएकेन्द्रिय कर्म स्थितिप्रमाण सूक्ष्म एकेन्द्रिय | पल्यका असंख्यातवाँ
भाग कम कर्मस्थितिप्र० त्रस
संयमासंयम, संयम बादर पृथिवी पर्याप्त और सम्यक्त्वको
मनुष्य
पूर्व कोटि अनेक बार प्राप्त किया चार बार कषायका
उपशम किया। देव दस हजार वर्ष
दस हजार वर्ष बादर पृथिवी कायिक
बादर पृथिवी पर्याप्त पर्याप्त सूक्ष्म एकेन्द्रिय पल्यका असंख्यातवाँ। सभा एकेन्दिय पल्यका असंख्यातों
भाग बादर पृथिवी कायिक
बादर पृथिवी पर्याप्त पर्याप्त मनुष्य ___ आठ वर्ष अन्तर्मुहूर्त
| पल्यके असंख्यातवें भाग बार संयमासंयम और सम्यक्त्व, ३२ बार संयम और चार
बार कषायका उपशम सम्यक्त्वके साथ । १३२ सागर ।
एक पूर्वकोटि ६ १३३. स्वामित्वविषयक इस निषेकमें कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर पल्यके असंख्यातवें भाग अधिक दो छथासठ सागरमें बाँधे गये द्रव्यका एक भी परमाणु नहीं है। क्योंकि वह जीव कर्मस्थिति कालसे बाहर अर्थात् उससे अतिरिक्त पल्यके असंख्यातवें भाग अधिक दो छयासठ सागर काल तक घूमा है।
शंका-वह जीव कर्मस्थिति कालसे बाहर भी घूमा है। यह कैसे जाना ?
समाधान-अभव्यके योग्य जघन्य प्रदेशसत्कर्म करके फिर सोंमें आगया इस सूत्रसे जाना।
तथा जो भव्य जीव सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें क्षपितकाशकी विधिके साथ कर्मस्थितिकाल तक नहीं रहा उसका सत्कर्म अभव्य जीवके जघन्य सत्कर्मके समान नहीं होता, क्योंकि उसके
भाग
त्रस
मनुष्य
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसहित ५
कम्मट्टि दिपढमसमय पहुडि पलिदो० असंखे ० भागमेत्तसमयपबद्धाणं कम्मक्खंधेहि अन्भहियस्स समाणत्तविरोहादो । णिल्लेवणद्वाणमेत्तसमयपवद्धा वि णियमा अत्थि; तदसंभवपक्खग्गहणेण विणा जहण्णदव्वत्ताणुववत्तोदो । तेण अवसेसकम्मद्विदीए बद्धासेससमयपबद्धाणं परमाणू जहण्णदव्वम्मि अस्थि त्ति सिद्धं । घडदि एदं सव्वं पिजदि कम्महदिमे तो अप्पदरकालो खविदकम्मंसियम्मि होज ? ण च एवं, तस्स पलिदोवस्त असंखे ० भागपमाणत्तादो । ण च भुजगारकाले खविदकम्मंसिओ संभवह, समयं पडि वढमाणकम् मक्खंधस्स खविदकम्मं सियत्त विरोहादो । तम्हा सामित्त समए अप्पदरकालमेत्तसमयपबद्धाणं चैव पदेसेहि होदव्वमिदि ? ण एस दोसो, खविदकम्मं सियकालब्भंतरे भुजगारपदरकालाणं दोन्हं पि संभवेण खविदकम्मं सियकालस्स कम्मट्ठदिपमाणत्तं पडि विरोहाभावादो । ण च भुजगारकालेण खविदकम्मं सिय भावस्स विरोहो; भुजगारकालसंचिददव्वादो तत्तो संखेजगुणअप्पदरकालेण संचयादो असंखेजगुणं दव्वं णिज्जतस्स विरोहाभावा दो ।
$ १३४. वेयणाए पलिदो० असंखे० भागेणूणियं कम्मट्ठदिं सुहुमईदिए सु हिंडाविय तसकाइएस उप्पादो । एत्थ पुण कम्मट्ठिदिं संपुष्णं भमाडिय तसत्तं णीदो,
कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण समयप्रबद्धों के कर्मस्कन्ध अधिक होते हैं, अतः उन्हें अभव्यों के समान माननेमें विरोध आता है । तथा उसके निर्लेपनस्थानप्रमाण समयबद्ध भी नियमसे हैं, क्योंकि उसके असम्भवरूप पक्षको ग्रहण किये बिना जघन्य द्रव्यपना नहीं बन सकता, अतः बाकी बची कर्मस्थितिमें बाँधे गये सब समय प्रबद्धों के परमाणु जघन्य द्रव्यमें हैं यह सिद्ध हुआ ।
शंका -- यदि क्षपितकर्माशमें अल्पतरका काल कर्मस्थितिप्रमाण होता यह सब घट सकता था । किन्तु ऐसा नहीं है; क्योंकि उसका प्रमाण पल्यके असंख्यातवें भाग है और भुजगार के काल में क्षपितकर्माश होना संभव नहीं है; क्योंकि भुजगारके कालके भीतर प्रति समय कर्मस्कन्ध बढ़ता रहता है, अतः उसके क्षपितकर्माशरूप होने में विरोध आता है । अतः स्वामित्वकालमें अल्पतर कालप्रमाण समयप्रबद्धोंके ही प्रदेश होने चाहिये ?
समाधान -- यह कोई दोष नहीं है; क्योंकि क्षपितकर्माशके कालके भीतर भुजगार और अल्पतर दोनों ही काल संभव होनेसे क्षपितकर्माशके कालके कर्मस्थितिप्रमाण होने में कोई विरोध नहीं आता । शायद कहा जाय कि क्षपितकर्माशरूप भावका भुजगार कालके साथ विरोध है सो भी बात नहीं है; क्योंकि भुजगारके कालसे अल्पतरका काल संख्यातगुणा है, अतः भुजगार के कालमें जितने द्रव्यका संचय होता है उससे असंख्यातगुणे द्रव्यकी अल्पतरके कालमें निर्जरा हो जाती है । अतः क्षपित्तकर्माशपनेका भुजगारके कालके साथ विरोध नहीं है ।
$ १३४. वेदनाखण्ड में पल्यके असंख्यातवें भाग कम कर्मस्थितिप्रमाण कालतक सूक्ष्म एकेन्द्रियों में भ्रमण कराकर फिर सकायिकों में उत्पन्न कराया है और यहाँ सम्पूर्ण कर्मस्थिति काल तक भ्रमण कराकर सपर्यायको प्राप्त कराया है, अतः दोनों सूत्रोंमें जिस रीति से
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गा २२ ] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१३५ तदो दोहं सुत्ताणं जहाविरोहो तहा' वत्तव्वमिदि। जइवमहाइरिओवएसेण खविदकम्मंसियकालो कम्महिदिमेत्तो सुहुमणिगोदेसु कम्मद्विदिमच्छिदाउओ त्ति सुत्तणिद्देसण्णहाणुवक्त्तीदो। भूदबलिआइरियोवएसेण पुण खविदकम्मंसियकालो पलिदोवमस्स असंखे०भागेणणकम्मट्ठिदिमत्तो। एदेसिं दोण्हमुवदेसाणं मज्झे सच्चेणेकेणेव होदव्वं । तत्थ सच्चत्तणेगदरणिण्णओ णत्थि त्ति दोण्हं पि संगहो कायव्वो।
$ १३५. संपहि एदस्स सुत्तस्स भावत्थो वुच्चदे।तं जहा--खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण असण्णिपंचिंदिएसु देवेसु च उप्पन्जिय तत्थ देवेसु उवसमसम्मत्तं पडिवजमाणकाले उक्कस्सअपुव्वकरणपरिणामेहि गुणसेढिणिजरं काऊण तदो अणियट्टिपरिणामेहि मि असंखेजगुणाए' सेढीए कम्मणिञ्जरं काऊण पढमसम्मत्तं पडिवन्जिय उवसमसम्मत्तद्धाए उक्कस्सगुणसंकमकालेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि आवूरिय वेदगसम्मत्तं घेत्तूण पुणो अणंताणुबंधिचउक्कं विसंजोजिय वेछावद्विसागरोवमाणि भमिय पुणो दंसणमोहक्खवणद्धाए जहण्णअपुव्वपरिणामेहि गुणसेडिं काऊण उदयावलियबाहिरमिच्छत्तचरिमफालिं सम्मामिच्छत्तस्सुवरि संकुहिय दुसमयूणावलियमेत्तगुणसेडिगोवुच्छाओ गालिय पुणो दुसमयकालपमाणाए एयणिसेयट्ठिदीए सेसाए मिच्छत्तस्स जहण्णयं पदेससंतकम्मं । कुदो ? कम्मट्ठिदिआदिसमयप्पहुडि पलिदो० असंखे०विरोध न आवे उस रीतिसे कथन करना चाहिये । आचार्य यतिवृषभके उपदेशके अनुसार क्षपितकर्माशका काल कर्मस्थितिप्रमाण है, क्योंकि सूत्रमें सूक्ष्म निगोदियों में कर्मस्थिति काल तक रहा ऐसा निर्देश अन्यथा बन नहीं सकता और भूतबलि आचार्यके उपदेशके अनुसार क्षपितकाशका काल पल्यका असंख्यातवाँ भाग कम कर्मस्थितिप्रमाण है। इन दोनों उपदेशोंमें से एक ही उपदेश सत्य होना चाहिए। किन्तु उनमेंसे एक कौन सत्य है यह निश्चय नहीं है, अतः दोनों ही उपदेशोंका संग्रह करना चाहिये।
६ १३५. अब इस चूर्णिसूत्रका भावार्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है-क्षपितकर्माश विधिसे आकर असंज्ञी पञ्चेन्द्रियों और देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहाँ देवोंमें उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होनेके कालमें उत्कृष्ट अपूर्वकरणरूप परिणामोंके द्वारा गुणश्रेणिनिर्जराको करके फिर अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंके द्वारा भी असंख्यातगुणी श्रेणिके द्वारा कर्मोंकी निर्जरा करके प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पुनः उपशमसम्यक्त्वके कालमें गुणसंक्रमके उत्कृष्ट कालके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको पूरकर फिर वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण किया। फिर अनन्तानुबन्धीचतुष्कका विसंयोजन करके दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण किया। फिर दर्शनमोहके क्षपणकालमें जघन्य अपूर्वकरणरूप परिणामोंके द्वारा गुणश्रेणीको करके उदयावलीके बाहरकी मिथ्यात्वकी अन्तिम फालीको सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमण कर तथा दो समय कम आवलि प्रमाण गुणश्रेणिगोपुच्छाओंका गालन कर जब दो समय कालवालो एक निषेकस्थिति शेष रहती है तब मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है, क्योंकि जघन्य प्रदेशसत्कर्मके स्वामित्वके अन्तिम समयमें कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर पल्योपमके असंख्यातवें भाग
१. आ०प्रतौ 'जहाविरोहा तहा' इति पाठः । २. श्रा०प्रतौ 'भागेणूणं कम्महिदिमेत्तो' इति पाठः । ३. ता०प्रतौ 'अणियहिपरिणामेहि [म्मि] असखेजगुणाए' डा०प्रतौ 'अणियट्टिपरिणामेहिम्मि असंखेजगुणाए' इति पाठः।
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
एगपरमाणुस्स
भागेणब्भहिय वेछावट्ठि सागरोवममेत्तसमयपबद्धाणं सामित्तचरिमसमए fa अभावादो अप्पिद गणिसेगट्टिदिं मोत्तूण सेस णिसेग हिदीसु डिदमिच्छत्त सव्वपदेसाणं परपयडिसकमेण अधहिदिगलणेण च विणडत्तादो च ।
१३६. संपहि एदम्मि जहण्णदव्वे पयडिगोवुच्छाए पमाणाणुगमं कस्सामो । तंजहा - एगम्मि एइंदियसमयपबद्धे दिवड्डगुणहाणीए गुणिदे एइंदिए सु संचिददव्वं होदि । तम्मि अंतोत्तोवट्टिदओकड्डुकड्डणभागहारेण ओबट्टिदे उकडिददव्यमाणं होदि । उक्कडिददव्वेण विणा एइंदिएस संचिददव्वेण सह वेछावट्टिसागरोवमाणि किण्ण भमाडिजदे ? ण, मिच्छत्तपरमाणूणं देसूणसागरोवममेत्त हिदीणं वेछावहि सागरोवममेकाला हाण विरोहादो। पुणो अंतोकोडा कोडिअमंतरणाणागुणहाणि सलागासु चिरलिय विगुणिय अण्णोष्णगुणिदासु जा समुप्पण्णरासी ताए रूवूणाए वेछावहिसागरोवमृणअंतोकोडाकोडीए अन्यंतरणाणागुहाणिसलागासु विरलिय विगुणिय अण्णोष्ण गुणिय रूवूणीकदासु उप्पण्णरासिणा ओवट्टिदाए जं लद्धं तेण उकडिददव्वे ओट्टिदे
१३६
अधिक दो छयासठ सागर प्रमाण समयप्रबद्धोंका एक भी परमाणु नहीं पाया जाता तथा विवक्षित एक निषेक की स्थितिको छोड़कर शेष निषेकोंकी स्थितियों में स्थित मिथ्यात्व के सब प्रदेशोंका परप्रकृतिरूप संक्रमणके द्वारा व अधः स्थितिगलनाके द्वारा विनाश हो जाता है ।
विशेषार्थ — पहले उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मको बतलाते हुए गुणितकर्मा शकी सामग्री और प्रकार बतला आये हैं अब जघन्य प्रदेशसत्कर्मको बतलाते हुए क्षपितकर्मा शका प्रकार बतलाया है कि किस तरह कोई जीव कर्मोंका क्षपण करके मिध्यात्वके जघन्य प्रदेशसत्कर्मका स्वामी हो सकता है । उत्कृष्ट संचयकी पहले जो सामग्री कही है उससे बिल्कुल विपरीत जघन्य प्रदेशशतकर्मकी सामग्री है। उसमें यही ध्यान रखा गया हैं कि किस प्रकार कर्मोंका अधिक संचय नहीं होने पावे | इसलिये सूक्ष्म एकेन्द्रियों में उत्पन्न कराकर वहां अपर्याप्त के भव अधिक Taal हैं और योगस्थान भी जघन्य ही बतलाया है । तथा आयुबन्ध उत्कृष्ट योगके द्वारा बतलाया है । इसी प्रकार आगे भी समझना ।
$ १३६. अब इस जघन्य द्रव्यमें प्रकृति गोपुच्छाका प्रमाण बतलाते हैं । वह इस प्रकार है - एकेन्द्रियसम्बन्धी एक समयप्रबद्धको डेढ़ गुणहानिसे गुणा करने पर एकेन्द्रियों में संचित हुए द्रव्यका प्रमाण होता है । उस संचित द्रव्यमें अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्षण- उत्कर्षण भागहार से भाग देने पर उत्कर्षित द्रव्यका प्रमाण होता है ।
शंका- उत्कर्षित द्रव्यके बिना एकेन्द्रियोंमें संचित हुए द्रव्यके साथ दो छयासठ सागर तक भ्रमण क्यों नहीं कराया जाता ?
-
समाधान — नहीं, क्योंकि कुछ कम एक सागर प्रमाण स्थितिवाले मिथ्यात्व के परमाणुओं के दो छयासठ सागर तक ठहरनेमें विरोध आता है । फिर अन्तःकोड़ाकोड़ी के भीतर जो नाना गुणहानि शलाकाएँ हैं उनका विरलन करके और उन विरलन अंकोंको द्विगुणित करके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसमें एक कम करो। और दो छयासठ सागर कम अन्तः कोड़ाकोड़ी सागरके भीतर जो नानागुणहानिशलाकाएँ हों उनके विरलन अंकों को द्विगणित करके परस्पर गुणा करनेसे जो जो राशि उत्पन्न हो एक कम करके उस
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१३७ वेछावद्विसागरोवमेसु गलिदसेसदव्वं होदि । पुणो दिवड्डगुणहाणिणा तम्मि ओवट्टिदे पयडिगोवुच्छा आगच्छदि ।
राशिसे पूर्वोत्पन्न राशिमें भाग देने पर जो लब्ध आवे उससे उत्पकर्षित द्रव्यमें भाग देने पर दो छयासठ सागरमें गलितसे बाकी बचे द्रव्यका प्रमाण होता है। फिर उस द्रव्यमें डेढ़ गुणहानिसे भाग देने पर प्रकृतिगोपुच्छा आती है।
विशेषार्थ—पहले जो मिथ्यात्वका जघन्य द्रव्य बतला आए हैं उसमें प्रकृतिगोपुच्छा और विकृतिगोपुच्छा इस तरह दोनों प्रकारकी गोपुच्छाएँ पाई जाती हैं। गोपुच्छाका अर्थ गायको पूँछ है। जैसे गायकी पूँछ उत्तरोत्तर पतली होती जाती है वैसे ही कर्मनिषेक एक एक गुणहाणिके प्रति उत्तरोत्तर एक एक चय कम होनेसे उनकी रचनाका आकार भी गायकी पूंछके समान हो जाता है। जो निषेक रचना स्वाभाविक होती है उसे प्रकृति गोपुच्छा कहते हैं। स्वाभाविकका अर्थ है बन्धके समय जो निषेक रचना हुई है प्रायः वह । अपकर्षण या उत्कर्षण द्वारा जो कर्मपरमाणु नीचे ऊपर होते रहते हैं या संक्रमण द्वारा जो कर्म परप्रतिरूप होते हैं उनसे प्रकृतिगोपुच्छाकी हानि नहीं मानी गई है, क्योंकि उनके ऐसा होनेका कोई क्रम है या वे ऐसे किसी हद तक ही होते हैं, अतः इससे प्रकृतिगोपुच्छामें उल्लेखनीय विकृति नहीं पैदा होती । तथा जो निषेकरचना क्रमहानि और क्रमवृद्धिरूप न रहकर व्यतिक्रमको प्राप्त हो जाती है उसे विकृतिगोपुच्छा कहते हैं। यह विकृतिगोपुच्छा स्थितिकाण्डक घातसे प्राप्त होती है। अब प्रकृतमें यह देखना है कि प्रकृतिगोपुच्छाका प्रमाण कितना है ? यहाँ जघन्य प्रदेशसत्कर्मका प्रकरण है, इसलिए जो जीव सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें कर्मस्थितिप्रमाण काल तक घूम लिया है उस एकेन्द्रियका कर्मस्थितिके अन्तिम समयमें प्राप्त होनेवाला द्रव्य लो और इसमें अन्तमुहूर्तसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षणभागहारका भाग दो। इससे एकेन्द्रियके संचित द्रव्यमेंसे उत्कर्षित द्रव्यका प्रमाण आ जाता है। उत्कर्षित द्रव्यका प्रमाण इसीलिए लाया गया है कि जघन्य स्वामित्वके समयमें जो प्रकृति गोपुच्छा रहती है वह इस उत्कर्षित द्रव्यमेंसे ही शेष रहती है, संचित द्रव्यमेंसे नहीं, क्योंकि सूक्ष्म एकेन्द्रियके मिथ्यात्वका स्थितिबन्ध कुछ कम एक सागर प्रमाण होता है और यहाँ गोपुच्छा कर्मस्थितिके अन्तिम समयसे लेकर साधिक १३२ सागरके बादकी प्राप्त करना है, परन्तु इतने काल तक एकेन्द्रियसम्बन्धी बन्धसे प्राप्त स्थितिवाले निषेक रह नहीं सकते, अतः संचित द्रव्यको छोड़कर यहाँ भपने आप उत्कर्षित द्रव्यकी प्रधानता प्राप्त हो जाती है। अतः यह सूक्ष्म एकेन्द्रिय जीव कर्मस्थितिप्रमाण कालको समाप्त करके साधिक १३२ सागर काल तक त्रसोंमें घूमता है तब कहीं जघन्य द्रव्य प्राप्त होता है और त्रसोंमें संज्ञी त्रसोंमें श्रोणिको छोड़कर अन्यत्र अन्तः कोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितिबन्ध होता है, अतः अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरके भीतर प्राप्त होनेवाली नाना गुणहानिशलाकाओंकी जो अन्योन्याभ्यस्तराशि प्राप्त हो, एक कम उसमें एक सौ बत्तीस सागर कम अन्तःकोड़ाकोड़ीके भीतर प्राप्त होनेवाली नाना गुणहानिशलाकाओंकी एक कम अन्योन्याभ्यस्तराशिका भाग दो और इस प्रकार जो राशि प्राप्त हो उसका भाग पूर्वोक्त उत्कर्षणसे प्राप्त हुए द्रव्यमें देने पर उस उत्कर्षित द्रव्यमेंसे एकसौ बत्तीस सागरके भीतर जितना द्रव्य गल जाता है उससे बाकी बचे हुए द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है। यतः संचित द्रव्यको प्राप्त करनेके लिये एक समयप्रबद्धको डेढ़गुणहानिसे गुणित करना पड़ता है, अतः यहाँ प्रकृतिगोपुच्छाको प्राप्त करनेके लिए गल कर शेष बचे हुए द्रव्यमें डेढ़ गुणहानिका भाग दो। इस प्रकार इतनी क्रियाके करनेपर प्रकृतिगोपुच्छा प्राप्त होती है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ १३७. कुदो एदिस्से पगदिगोवुच्छत्तं ? हिदिकंडयदव्वेण विणा उक्कड्डणाए जहाणिसित्तपदेसग्गहणादो। ण णिसेगहिदीए जहाणिसेगसरूवेणावहाणं, ओकड्डणाए तिस्से वयदंसणादो ? ण एस दोसो, तत्थतणआय-व्वयाणं सरिसत्तणेण तिस्से विगिदित्ताभावादो। आय-व्वयाणं सरिसत्तं कुदो णव्वदे १ जुत्तीदो। तं जहादिवड्डगुणहाणिगुणिदेगसमयपबद्धे पगदिगोवुच्छाभागहारेण ओकड्डुक्कड्डणभागहारगुणिदेण ओवट्टिदे पयडिगोवुच्छाए वओ होदि । पुणो दिवड्डगुणहाणिगुणिदेगसमयपबद्धे वेछावहिसागरोवमकालगलिदसेसदव्वभागहारेण दिवड्डगुणहाणिगुणिदओकडुकड्डणभागहारगुणिदेण ओवट्टिदे तिस्से आओ । एदे बे वि आय-व्वया सरिसा । कुदो ? उभयस्थ अवहिरिजमाणे समाणे संते वेओकड्डक्कड्डणभागहारगुणिदवेछावट्ठिणाणागुण. हाणिसलागण्णोण्णन्भत्थरासीए पदुप्पायिददिवडगुणहाणिभागहारस्स सरिसत्तुवलंभादो त्ति ।
६ १३७. शंका-इसे प्रकृतिगोपुच्छा क्यों कहते हैं ?
समाधान-क्योंकि इसमें स्थितिकाण्डकके द्रव्यके विना उत्कर्षणके द्वारा यथा निक्षिप्त प्रदेशोंका ही ग्रहण होता है, अतः इसे प्रकृतिगोपुच्छा कहते हैं।
शंका-निषेक स्थितिमें जिस क्रमसे निषेकोंकी रचना होती है उस क्रमसे अवस्थान नहीं रहता, क्योंकि अपकर्षणके द्वारा उसका विनाश देखा जाता है ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि निषेकस्थितिमें आय और व्ययके समान होनेसे वह विकृतिगोपुच्छा नहीं हो सकती।
शंका-वहां आय और व्यय समान होते हैं यह किस प्रमाणसे जाना ?
समाधान—युक्तिसे जाना। वह युक्ति इस प्रकार है-डेढ़ गुणहानिगुणित एक समयप्रबद्ध में अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे गुणित प्रकृतिगोपुच्छाके भागहारसे भाग देने पर प्रकृति गोपुच्छाका व्यय प्राप्त होता है। तथा डेढ़ गुणहानिसे गुणित जो अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार है उससे गुणित जो दो छयासठ सागर कालसे गलितसे बाकी बचे द्रव्यका भागहार उससे डेढ़ गुणहानि गुणित एक समयप्रबद्धमें भाग देने पर प्रकृतिगोपुच्छाकी आय आती है। ये दोनों आय और व्यय समान हैं; क्योंकि दोनों जगह भाज्यराशिके समान होते हुए दो अपकर्षणउत्कर्षण भागहारसे गुणित दो छयासठ सागरकी नाना गुगहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे उत्पन्न हुआ डेढ़ गुणहानिका भागहार समान पाया जाता है।
विशेषार्थ-शंकाकारका कहना है कि उत्कर्षणके होने पर जिस क्रमसे निषेक स्थापित रहते हैं उसी क्रमसे नहीं रहते; क्योंकि स्थिति और अनुभागके बढ़ानेको उत्कर्षण कहते हैं और उनके घटानेको अपकर्षण कहते हैं। जिन प्रदेशोंमें स्थिति अनुभाग बढ़ाया जाता है उन्हें नीचेकी स्थितिसे उठाकर ऊपर की स्थितिमें डाल दिया जाता है और जिन प्रदेशोंमें स्थिति अनुभाग घटाया जाता है उन्हें ऊपरकी स्थितिसे उठाकर नीचेकी स्थितिमें फेक दिया जाता है। इसका उत्तर दिया गया कि आय और व्ययके समान होनेसे निषेकोंका स्वरूप ज्योंका
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१३९ ३ १३८. ण एसो परिहारो घडंतओ। तं जहा-पयडिगोवुच्छादो ओकड्डुकड्डणाए हेट्ठा णिवदमाणदव्वेण सव्वकालमायादो सरिसेणेव होदव्वमिदि णियमो पत्थि; समाणपरिणामखविदकम्मंसिएसु वि ओकडुक्कड्डणवसेण एगसमयपबद्धस्स पड्डिहाणिदंसणादो । एदेण समाणपरिणामत्तादो एत्थ आय-व्वया सरिसा त्ति एदमवणिदं । एत्थ पुण वयादोजहासंभवमाएण थोवेणेव होदव्वं, अण्णहा पयदगोवुच्छाए थोवत्ताणुववत्तीदो। गोवुच्छागारेण हिदासेसणिसेगदव्वमोकड्डक्कड्डणभागहारेण खंडिय तत्थ एगखंडं घेत्तूण पूणो तेणेव गोवुच्छागारेण तत्थेव णिसिंचमाणे आय-व्वयाणं ण विसरिसत्तमिदि ण वोतं जुत्तं, आवलियमेतहिदीओ हेडा ओसरिय णिक्दमाणाणं सरिसत्ताणुववत्तीदो। ण चावलियमेत्तं चेव णियमेण ओसरिय हेट्ठा णिवदंति ति णियमो अस्थि, संखेजाणं पि पलिदोवमाणं हेट्ठा ओसरणं पडि संभवुवलंभादो। तम्हा आय-व्वया सरिसा त्ति
त्यों बना रहता है। आय और व्यय दोनों में भाज्यराशि तो डेढ़ गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्धों की संख्या है और भाजकराशि व्ययमें तो अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे गुणित प्रकृति गोपुच्छा का भागहार है और आयमें डेढ़ गुणहानि और अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे गुणित-एक सौ बत्तीस सागरके कालमें गलितसे वाकी बचे द्रव्यका भागहार है। ये दोनों समान हैं, क्योंकि दोनों जगह गुणकारमें अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार है। तथा इधर आयमें डेढ़ गुणहानिसे एक सौ बत्तीस सागरके कालमें गलितसे बाकी बचे द्रव्यके भागहारको गुणा किया गया है और उधर व्ययमें उत्कर्षित द्रव्योंमेंसे गलित शेष द्रव्यको लाकर उसमें डेढ़ गुणहानिका भाग देनेसे प्रकृति गोपुच्छा आती है जो कि भागहारस्वरूप है । सारांश यह है कि आयमें डेढ़ गुणहानिसे गुणित गलित शेष द्रव्यका भागहार भाजकराशि है और व्ययमें प्रकृति गोपुच्छाका भागहार भाजकराशि है। ये दोनों राशियां समान हैं, अतः आय और व्ययकी भाज्यराशि और भाजकराशि समान होनेसे दोनोंका प्रमाण समान होता है। अतः जितने प्रदेश जाते हैं उतने ही आ जाते हैं, इसलिये उत्कर्षणके द्वारा प्रदेशोंका व्यतिक्रम नहीं होता।
६ १३८. शंका-यह परिहार नहीं घटता । खुलासा इस प्रकार है-प्रकृतिगोपुच्छासे अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारके द्वारा जो द्रव्य नीचे निक्षिप्त किया जाता है वह सदा आयके समान ही होना चाहिये ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि समान परिणामवाले क्षपितकर्माश सत्कर्मवाले जीवोंमें भी अपकर्षण-उत्कर्षणकी बजहसे एक समयप्रबद्धकी वृद्धि या हानि देखी जाती है। इससे समान परिणाम होनेसे यहाँ आय और व्यय समान होते हैं यह बात नहीं रही। प्रत्युत यहां तो व्ययसे आय यथासम्भव थोड़ी ही होनी चाहिये, अन्यथा प्रकृति गोपुच्छामें स्तोकपना नहीं बन सकता। शायद कहा जाय कि गोपुच्छाकाररूपसे स्थित समस्त निषेकोंके द्रव्यको अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे भाजित करके, उसमेंसे एक भाग लेकर उस भागको उसी गोपुच्छाकाररूपसे उसी में प्रक्षिप्त कर देने पर आय और व्ययमें असमानता नहीं रहती सो ऐसा कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि एक आवलीप्रमाण स्थितियाँ नीचे उतरकर निक्षिप्त किये जानेवाले प्रदेशों में समानता नहीं बन सकती । तथा नियमसे एक आवली प्रमाण उतरकर ही प्रदेश नीचे निक्षिप्त किये जाते हैं ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि संख्यात पल्योपमप्रमाण नीचे उतरना भी संभव है । अतः आय और व्यय समान हैं ऐसा जो तुमने
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ जं तुब्भेहि भणिदं तं ण घडदे । किं च पयडिगोवुच्छा विज्झादभागहारेण वेछावट्ठिमेत्तकालं सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेसु पडिसमयं संकेता। एदेण विकारणेण पयदिगोवुच्छाए जहाणिसित्तसरूवेण जावट्ठाणमिदि ? तोक्खहिं एवं घेत्तव्यं-ओकड्डक्कड्डणाहि जणिदआय-व्वएहि परपयडिसंकमजणिदवयेण च ण पयडिगोवुच्छत्तं फिट्टदि, विगिदिगोवुच्छदव्वादो गुणसेढिदव्वादो च वदिरित्तासेसदव्वस्स पगडिगोवुच्छा त्ति गहणादो। कहा है वह घटित नहीं होता। दूसरे, विध्यातभागहारके द्वारा दो छयासठ सागर तक प्रकृतिगोपुच्छाका प्रति समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमण होता रहता है, इसलिये इस कारणसे भी प्रकृतिगोपुच्छाका यथानिक्षिप्तरूपसे अवस्थान नहीं बनता ? ।
समाधान-तो फिर ऐसा लेना चाहिये-अपकर्षण-उत्कर्षणके द्वारा जो आय-व्यय होता है और परप्रकृतिरूप संक्रमणके द्वारा जो व्यय होता है उनसे प्रकृतिगोपुच्छपना नष्ट नहीं होता, क्योंकि विकृतिगोपुच्छाके द्रव्यसे और गुणश्रेणिके द्रव्यसे भिन्न जो वाकीका द्रव्य है उसे प्रकृतिगोपुच्छा रूपसे माना गया है।
विशेषार्थ—पहले प्रकृतिगोपुच्छाका प्रमाण बतला आये हैं उसपर शंकाकारका यह कहना है कि इसे प्रकृतिगोपुच्छा क्यों माना जाय। तब इसका यह समाधान किया कि इसमें स्थितिकाण्डकघातसे प्राप्त द्रव्यका ग्रहण नहीं किया है किन्तु केवल उत्कर्षणसे प्राप्त होने वाले द्रव्यकी जो यथाविधि रचना होती है उसीका ग्रहण किया है, इसलिये इसे प्रकृतिगोपुच्छा मानने में कोई आपत्ति नहीं। इस पर फिर यह शंका की गई कि निषेकस्थितिके निषेकोंकी जिस क्रमसे रचना होती है उत्कर्षणके द्वारा वह नष्ट भ्रष्ट हो जाती है, अतः उसे प्रकृतिगोपुच्छा मानना ठीक नहीं है। इसपर आय और व्ययकी समानता दिखला कर यह सिद्ध किया गया कि इससे प्रकृतिगोपुच्छा जैसीकी तैसी बनी रहती है। इस पर फिर शंका हुई कि अपकर्षण और उत्कर्षण द्वारा सदा आय और व्यय समान ही होता है ऐसा कोई ऐकान्तिक नियम नहीं है। उदाहरणार्थ समान परिणामवाले दो क्षपितकर्माश जीव लीजिये। उनमें से एकके अपकर्कण द्वारा एक समयप्रबद्धकी हानि और दसरेके उत्कर्षण द्वारा। समयप्रबद्धकी वृद्धि देखी जाती है, अतः यह नियम तो रहा नहीं कि समान परिणाम होनेसे आय और व्यय समान ही होता है। दूसरे अपकर्षित होनेवाले द्रव्यका सब निषेकोंमें निक्षेप न होकर एक आवलिप्रमाण या कभी कभी संख्यात पल्यप्रमाण निषेकोंको छोड़कर निक्षेप होता है, इसलिये भी सब निषेकोंमें आय और व्यय समान ही होता है यह कहना नहीं बनता। तीसरे त्रसपर्यायमें परिभ्रमण करते हुए जब यह जीव १३२ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ रहता है तब इसके मिथ्यात्वकी प्रकृतिगोपुच्छा प्रति समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रमित होती रहती है, इससे भी स्पष्ट है कि प्रकृतिगोपुच्छाकी जिस प्रकार रचना होती है उस प्रकार वह नहीं रहती। तब इस शंकाका समाधान करते हुए यह बतलाया है कि इस प्रकार अपकर्षण या उत्कर्षणसे जो न्यूनाधिक आय-व्यय होता है या सजातीय अन्य प्रकृतिमें संक्रमण होनेसे जो व्यय होता है उससे प्रकृतिगोपुच्छामें भले ही थोड़ी बहुत न्यूनाधिकता हो जाय पर इससे प्रकृतिगोपुच्छाका विनाश नहीं होता। तात्पर्य यह है कि विकृतिगोपुच्छाके द्रव्यके और गुणश्रेणिके द्रव्यके सिवा शेष सब द्रव्य प्रकृतिगोपुच्छाका द्रव्य माना गया है।
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गा० २२ ]
उत्तरपय डिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१४१
$ १३९. संपहि विगिदिगो वुच्छपमाणाणुगमं कस्सामो । तं जहा - दिवडगुणहाणिगुणिदेगसमयपबद्धे ओकडकड्डणभागहारेण गुणिदवे छावद्विअण्णोष्णन्भत्थरासिणा' ओट्टिदे अधडिदिगलणाए परपयडिसंकमेण च फिट्टावसेसदव्वं होदि । पुणो एदमि चरिमफालीए खंडिदे विगिदिगोवुच्छदव्वं होदि । का विगि दिगोवुच्छा ? अपुव्यअणियकिरणे कीरमाणेसु जाणि हिदिखंडयाणि पदिदाणि तेसिं चरिमफालीसु णिवदमाणासु जं सामित्तसमए पदिददव्वं सा विगिदिगोबुच्छा | दुचरिमा दिफालीसु पदमाणासु अहिकयगोवुच्छाए पदिददव्वं विगिदिगोवु च्छा किण्ण होदि ? ण, तस्स भागहारेण आगदत्तेण पयडिगोबुच्छाए पवेसादो ।
$ १३९. अब विकृति गोपुच्छाका प्रमाण कहते हैं । वह इस प्रकार है - डेढ़ गुणहानि गुणित एक समयप्रबद्ध में अपकर्षण उत्कर्षण भागहारसे गुणित दो छयासठ सागरकी अन्योन्याभ्यस्त राशिका भाग देने पर अधःस्थितिगलनाके द्वारा और परप्रकृतिरूप संक्रमणके द्वारा नष्ट होकर शेष बचे सब द्रव्यका प्रमाण होता है । फिर इसमें अन्तिम फालिका भाग देने पर विकृतिगोपुच्छाका द्रव्य होता है ।
1
शंका — विकृतिगोपुच्छा किसे कहते हैं ।
समाधान - अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके करने पर जिन स्थितिकाण्डकों का पतन हुआ उनकी अन्तिम फलियों का पतन होने पर स्वामित्वके समय में जो द्रव्य पतित हुआ उसे विकृतिगोपुच्छा कहते हैं ।
शंका- द्विचरम आदि फालियों का पतन होते समय विवक्षित गोपुच्छा में जो द्रव्य पतित होता है वह विकृतिगोपुच्छा क्यों नहीं होती ?
समाधान — नहीं, क्योंकि अपकर्षण भागहार के द्वारा आया हुआ होने के कारण उसका अन्तर्भाव प्रकृतिगोपुच्छा में ही हो जाता है ।
विशेषार्थ — पहले हम विकृतिगोपुच्छाका उल्लेख कर आये हैं पर वहां उसका विशेषरूपसे विचार नहीं किया है, इसलिये यहां उसके स्वरूप और प्रमाण पर विशेष प्रकाश डाला जाता है। विकृतिका अर्थ है विकारयुक्त और गोपुच्छाका अर्थ है, गायकी पूंछ । तात्पर्य यह है कि गायकी पूंछ उत्तरोत्तर पतली होती हुई एकसी चली जाती है पर रोगादिक अन्य कारणोंसे बीच में या अन्यत्र वह मोटी हो जाय तो वह गोपुच्छा विकार युक्त कही जाती है । इसी प्रकार प्रकृत में जो निषेक रचना होती है वह गायकी पूंछके समान होनेसे उसे प्रकृतिगोपुच्छा कहते हैं । अब यदि किसी कारणसे उसमें विकार पैदा होकर उसका वह क्रम न रहे तो जितना उसमें विकारका भाग है वह विकृतिगः पुच्छा कहलाती है। मुख्यतः यह विकृतिगोपुच्छा स्थितिकाण्डकघात के होने पर अन्तिम फालिके पतनसे बनती है, इसलिये यहां विकृतिगोपुच्छाका लक्षण लिखते हुए यह बतलाया है कि अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणरूप परिणामों से स्थितिकाण्डकोंका घात होते हुए उनकी अन्तिम फालियोंका जितना द्रव्य जघन्य सत्कर्मके स्वामित्व के समय में प्राप्त होता है उसे विकृतिगोपुच्छा कहते हैं । यहां यह भी प्रश्न किया गया कि द्विचरम आदि फालियों के द्रव्यका पतन होने पर उसमें जो द्रव्य
१. ० प्रतौ 'अण्णोष्ण भत्थरासिणो' इति पाठः । २. भा०प्रतौ 'विगिदिगोपुच्छं दव्वं' इति पाठः । ३. ता०प्रतौ ' पढमासु' इति पाठः । ४. ता० आ० प्रत्योः 'ण च तस्स' इतिपाठः । ५. आ० प्रतौपदेसादो' इतिपाठः ।
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१४२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ । ____ १४०. संपहि एसा विगिदिगोवुच्छा पगदिगोवुच्छादो असंखे०गुणा । कुदो एदं णव्वदे ? तंतजुत्तीदो। तं जहा-वेछावहीओ हिंडिदण दंसणमोहक्खवणमाढविय जहाकमेण अधापवत्तकरणं गमिय अपुवकरणपारंभपढमसमए मिच्छत्तदव्वं गुणसंकमेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेसु संकामेदि । कुदो? साभावियादो। तक्काले पयडिगोवुच्छाए गुणसंकमभागहारेण खंडिदाए तत्थेयखंडं परपयडिसरूवेण गच्छदि । एवं जाव अपुव्वकरणपढमहिदिखंडयस्स दुचरिमफालि त्ति गुणसंकमेण पयडिगोवुच्छाए वओ चेव, ओकड्डणाए पदिददव्वस्स संकामिजमाणदव्वादो असंखेगुणहीणत्तणेण पहाणत्ताभावादो। असंखेजगुणहीणत्तं कुदो णव्वदे ? गुणसंकमभागहारादो ओकड्डुक्कड्डणभाग
जघन्य सत्कर्मके स्वामित्व समयमें प्राप्त होता है उसे विकृतिगोपुच्छा क्यों नहीं कहा जाता ? सो इसका यह समाधान किया है कि वह द्रव्य अपकर्षण भागहारसे प्राप्त होता है और पहले यह बतला आये हैं कि अपकर्षण भागहारसे प्राप्त हुए द्रव्यके कारण विकृति नहीं आती, अतः इसका अन्तर्भाव प्रकृतिगोपुच्छामैं ही हो जाता है। इस प्रकार विकृतिगोपुच्छाके स्वरूपका विचार करके अब इसके प्रमाणका विचार करते हैं। संचित द्रव्य डेढ़ गुणहानि गुणित समयप्रबद्धप्रमाण है। अब यह देखना है कि १३२ सागर कालके भीतर इसमेंसे अधःस्थिति गलनाके द्वारा और पर प्रकृति संक्रमणके द्वारा नष्ट होनेके बाद कितना द्रव्य बचता
ढगणहानि गणित समयप्रबद्धमें अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारका भाग दो और जो शेष आवे उसमें १३२ सागरके भीतर प्राप्त होनेवाली नाना गुणनानियोंकी अन्योन्याभ्यस्तराशिका भाग दो। ऐसा करनेसे जो लब्ध आवे वह शेष द्रव्यका प्रमाण होता है। पर यह विकृतिगोपुच्छाका प्रमाण नहीं है, इसलिये उसे प्राप्त करनेके लिये इस शेष बचे हुए द्रव्यमें अन्तिम फालिका भाग दिया जाय। ऐसा करनेसे विकृतिगोपच्छाका प्रमाण आ जाता है। यहां इतना विशेष समझना कि विकृतिगोपुच्छाका यह स्वरूप और प्रमाण जघन्य सत्कर्मकी अपेक्षासे कहा है।
$ १४०. यह विकृतिगोपुच्छा प्रकृतिगोपुच्छासे असंख्यातगुणी है। शंका-यह किस प्रमाणसे जाना ।
समाधान-शास्त्रानुकूल युक्तिसे । उसका खुलासा इस प्रकार है-दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके दर्शनमोहके क्षपणको प्रारम्भ करके क्रमसे अधःप्रवृत्तकरणको बिताकर, अपूर्वकरणको प्रारम्भ करनेके प्रथम समयमें मिथ्यात्वके द्रव्यको गुणसंक्रमणके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रान्त करता है, क्योंकि ऐसा करना स्वाभाविक है। उस समय गुणसंक्रम भागहारके द्वारा प्रकृतिगोपुच्छामें भाग देनेपर लब्ध एक भागप्रमाण द्रव्य परप्रकृतिरूपसे संक्रान्त होता है । इस प्रकार अपूर्वकरणके प्रथम स्थितिकाण्डककी द्विचरम फाली पर्यन्त गणसंक्रमके द्वारा प्रकृतिगोपुच्छाका व्यय ही होता है, क्योंकि अपकर्षणके द्वारा पतनको प्राप्त होनेवाला द्रव्य संक्रमणको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे असंख्यातगुणा हीन होता है, इसलिये यहां उसकी प्रधानता नहीं है।
शंका--संक्रमणको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे अपकर्षणके द्वारा पतनको प्राप्त हुआ द्रव्य असंख्यातगुणा हीन होता है यह किस प्रमाणसे जाना ?
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१४३ हारस्स असंखे० गुणत्तणेण । णचेदमसिद्ध, उबरि भण्णमाणअप्पाबहुगादो तदसंखेजगुणत्तसिद्धीए। ____६ १४१. संपहि पढमट्ठिदिकंडयचरिमफालीए णिवदमाणाए अहियारगोवुच्छाए पदिददव्वं विगिदिगोवुच्छा णाम, ओकड्ड क्कड्डणाए विणा हिदिकंडएड आगददव्वस्सेव गहणादो। तस्स पमाणाणुगम कस्सामो। तं जहा-एगमेइंदियसमयपबद्ध दिवड्डगुणहाणिपदुप्पण्णं दृविदं । एदस्स' हेढा वेछावद्विअब्भंतरणाणागुणहाणिसलागासु विरलिय विगुणिय अण्णोण्णगुणिदासु समुप्पण्णरासिमंतोमुहुत्तोवट्टिदओकड्डुक्कड्डणभागहारगुणिदं ठविय पुणो उवरिमअंतोकोडाकोडीअभंतरणाणागुणहाणिसलागासु विरलिय दुगुणिय अण्णोण्णपदुप्पण्णासु पदुप्पण्णरासिम्हि रूवूणम्हि पलिदो० संखे०भागमेत्तद्विदिकंडयभंतरणाणागुणहाणिसलागाणं रूवणण्णोण्णब्भत्थरासिणा ओवट्टिदम्हि जं लद्धं तेण दिवढगुणहाणिं गुणिय एदम्मि पुव्वं ठविदभागहारस्स पासे कदे पढमद्विदिकंडयादो समुप्पण्णविगिदिगोवुच्छा समुप्पजदि । एसा जहण्णविगिदिगोवुच्छा पगदिगोवुच्छादो गुणसंकमेण परपयडिं गच्छमाणदव्वस्स असंखे०भागो । कुदो ? गुणसंकमभागहारादो अण्णोण्णब्भासजणिदरासीए असंखेजगुणत्तादो ।
समाधान- क्योंकि गुणसंक्रमके भागहारसे अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार असंख्यातगुणा है। और यह असिद्ध नहीं है, क्योंकि आगे कहे जानेवाले अल्पबहुत्वसे अपकर्षण उत्कर्णण भागहारका असंख्यातगुणापना सिद्ध है।
६१४१. यहां प्रथमस्थितिकाण्डकी अन्तिम फालीका पतन होते समय अधिकृत गोपुच्छामें जो द्रव्य पतित होता है उसे विकृतिगोपुच्छा कहते हैं, क्योंकि अपकर्षण-उत्कर्षणके बिना स्थितिकाण्डकके द्वारा आये हुए द्रव्यका ही यहां ग्रहण किया गया है। उस विकृतिगोपच्छाका प्रमाणानुगम करते हैं । वह इस प्रकार है-एकेन्द्रियसम्बन्धी एक समयप्रबद्धको डेढ़ गुणहानिसे गुणा करके स्थापित करो। उसके नीचे दो छयासठ सागरके भीतरकी नाना गुणहानिशलाकाओंका विरलन करके और उन विरलिन अंकोंको द्विगुणित करके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसे अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्णण-उत्कर्षण भागहारसे गुणा करके स्थापित करो। फिर ऊपरकी अन्तःकोडाकोडीके अन्दरकी नानागुणहानिशलाकाओंका विरलन करके और उस विरलित राशिको द्विगुणित करके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो एक कम उसमें पल्यके संख्यातवें भागमात्र स्थितिकाण्डकोंके भीतरकी नाना गणहानिशलाकाओंकी एक कम अन्योन्याभ्यस्तराशिसे भाग दो जो लब्ध आवे उससे डेढ़ गुणहानिको गुणा करके पूर्वमें स्थापित भागहारके समीपमें इसको स्थापित करने पर प्रथम स्थितिकाण्डकसे उत्पन्न हुई विकृतिगोपुच्छा होती है। यह जघन्य विकृतगोपुच्छा प्रकृतिगोपच्छासे गणसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिरूपसे संक्रमण करनेवाले द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि गणसंक्रमण भागहारसे अन्योन्यान्याससे उत्पन्न हई राशि असंख्यातगणी होती है। अब दूसरे स्थितिकाण्डकका पतन होते समय जो विकृतिगोपुच्छा उत्सन्न होती है
१. प्रा०प्रतौ 'इविदएदस्स' इति पाठः।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ संपहि विदिए हिदिखंडए णिवदमाणे विगिदिगोवच्छा समुप्पजदि । तिस्से पमाणे आणिजमाणे पुव्वं व अवहारवहिरिजमाणाणं ढवणा कायव्वा । णवरि अंतोकोडाकोडीअभंतरणाणागुणहाणिसलागासु पादेकं दुगुणिय अण्णोण्णेण गुणिदासु समुप्पण्णरासीए रूवूणाए दोण्हं द्विदिखंडयाणमन्भंतरणाणागुणहाणिसलागासु विरलिय पादेकं दुगुणिय अण्णोण्णागुणिदासु समुप्पण्णरासी रूवूणा, भागहारो ठवेदव्यो । एवमेदेण कमेण तिण्णि चत्तारि-पंच-छ-सत्तादि जाव संखेजसहस्सद्विदिखंडएसु अपुव्वकरणद्धाए णिवदमाणासु विगिदिगोवुच्छा समुप्पादेदव्वा ।
$ १४२. पुणो अषुव्वकरणं समाणिय अणियट्टिकरणमाढविय तदन्भंतरे संखेजसहस्सद्विदिखंडएसु पदिदेसु द्विदिसंतकम्ममसण्णिद्विदिवंधकम्मेण' सरिसं होदि । कुदो? साभावियादो। एक मेदेण कमेण संखेजसहस्सट्ठिदिखंडयाणि गंतूण द्विदिसंतकम्म चदु-ते-बे-एइंदियाणं डिदिबंधेण समाणं होदि । पुणो तत्तो उवरि संखेजट्ठिदिखंडयसहस्सेसु पदिदेसु पच्छा पलिदोवमट्टिदिसंतकम्मं होदि । संपहि एत्थतणविगिदिगोवुच्छापमाणे आणिजमाणे भजभागहाराणं ठवणकमो पुव्वं व होदि । णवरि अंतोकोडाकोडिअभंतरणाणागुणहाणिसलागासु विरलिय पादेकं दुगुणिय अण्णोण्णेण गुणिदासु समुप्पण्णरासीए रूबूणाए पलिदोवमेणणअंतोकोडाकोडिअभंतरणाणागुणहाणिसलागाणं
उसका प्रमाण लानेके लिये पहलेकी ही तरह भाज्य-भाजक राशियोंकी स्थापना करना चाहिये। इतना विशेष है कि अन्तःकोडाकोडिके भीतरकी नानागुणहानि शलाकाओंमेंसे प्रत्येकको दूना करके परस्परमें गुणा करने पर जो राशि उत्पन्न हो उसमें एक कम करके जो राशि आवे उससे दो स्थितिकाण्डकोंके भीतरकी नानागुणहानि शलाकाओंका विरलन करके और उनमेंसे प्रत्येकको दुना करके परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसमेंसे एक कम राशिको भागहार स्थापित करना चाहिए। इस प्रकार इस क्रमसे तीन, चार, पांच, छह, सात आदि संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंका अपूर्वकरणकालमें पतन होने पर विकृतिगोपुच्छा उत्पन्न कर लेनी चाहिए।
$ १४२. फिर अपूर्वकरणको समाप्त करके अनिवृत्तिकरणका प्रारम्भ करने पर उसके अन्दर संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंका पतन होने पर स्थितिसत्कर्म असंज्ञी जीवके स्थिति बन्ध के समान होता है। क्योंकि ऐसा होना स्वाभाविक है। इस प्रकार इस क्रमसे संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंके जाने पर स्थितिसत्कर्म चौइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, दोइन्द्रिय, और एकेन्दियके स्थितिबन्धके समान होता है। फिर उससे आगे संख्यात हजार स्थितिकाण्ड पतन होने पर बादमें पल्योपम प्रमाण स्थितिसत्कर्म होता है। अब यहां को विकृतिगोपुच्छाका प्रमाण लाने पर भाज्य और भागहारकी स्थापनाका क्रम पहलेकी ही तरह होता है। इतना विशेष है कि अन्तःकोडाकोडीके अन्दरकी नानागुणहानि शलाकाओंका विरलन करके प्रत्येकको दूना करके परस्परमें गुणा करने पर जो राशि उत्पन्न हो, एक कम उसके भागहाररूपसे पल्योपम कम अन्तःकोडाकोडीके अन्दरको नानागुणहानि शलाकाओंको दूना करके परस्परमें
ताप्रा०प्रत्योः 'मसण्णिाडिदिसंतकम्मेण' इति पाठः ।
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उत्तरपय डिपदेसविहत्तीए सामित्तं
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दुगुणिदाणमण्णोण्णन्भासजणिदरासी रुवूणा भागहारो ठवेदव्वो । एवं ठविदे तदित्थविगि दिगोकुच्छा आगच्छदि । एसा वि गुणसंकमेण परपयडिं गच्छमाणदव्वस्स असंखेजदिभागो । कुदो ? गुणसंकम भागहारं पेक्खिदूण पलिदोवमन्यंतरणाणागुणहाणिसला गाणमण्णोष्णन्भत्थरासीए असंखेजगुणत्तादो ।
गा २२ ]
$ १४३. संपहि पलिदोवममेत्ते ट्ठिदिसंतकम्मे सेसे तदो डिदिखंडयमागाएंतो
संखेजे भागे आगाएदि । किं कारणं १ साहावियादो । एवं सेस - सेसट्ठिदीए संखेजे भागे आगाएंतो ताव गच्छदि जाव दूरावाकिट्टिद्विदिसंतकम्मं चेट्टिदं त्ति । एत्थ विगिदिगोवुच्छपमाणाणयणं पुव्वं व कायव्वं । णवरि अंतोकोडा कोडिअब्भंतरगाणागुणहाणि सलागाण मण्णोण्णव्भत्थरासीए रुवूणाए दूराव किट्टीए परिहीणअंतोकोडाकोडिअब्भंतरणाणागुणहाणि सलागाण मण्णोष्णन्भत्थरासी रूवूणा भागहारो ठवेयव्वो । एवं विदे तदित्थविगिदिगोबुच्छा होदि । एसा वि पयडिगोवुच्छादो गुणसंकमभागहारेण परपयडिं गच्छमाणदव्वस्स असंखे० भागो । कुदो १ गुणसंकमभागहारादो पलिदो ० संखे ० भागमेतदूराव किट्टिट्ठदीए अब्भंतरणाणागुणहाणि सलागाणमण्णोष्णब्भत्थरासीए असंखेञ्जगुणत्तादो । एदस्स असंखेजगुणत्तं कत्तो णव्वदे ? सम्मत्तुव्वेल्लणकालाब्भंतरणाणागुणहाणि सलागाण मण्णोष्णव्भत्थरासी अधापवत्तभागहारादो असंखेज
गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो उसमें एक कम भागहारराशि करनी चाहिये । ऐसा स्थापित करने पर उस स्थानकी विकृतिगोपच्छा आती है। यह विकृतिगोपुच्छा भी गुणसंक्रमके द्वारा परप्रकृतिरूप से संक्रमण करनेवाले द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होती है, क्योंकि गुणसंक्रमभागहारकी अपेक्षा पल्योपमके भीतर की नानागुणहानिशलाकाओं की अन्योन्याभ्यस्त - राशि असंख्यातगुणी है ।
§ १४३. अब पल्योपमप्रमाण स्थितिसत्कर्मके शेष रहने पर उसमेंसे स्थितिकाण्डको ग्रहण करते हुए स्थितिकाण्डकके लिये उस स्थितिके संख्यात बहुभागको ग्रहण करता है, क्योंकि ऐसा होना स्वाभाविक है। इस प्रकर शेष शेष स्थिति के संख्यात बहुभागको ग्रहण करता हुआ दूरापकृष्टि स्थितिसत्कर्मके प्राप्त होने तक जाता है । यहाँ पर भी पहलेकी तरह ही विकृति गोपुच्छाका प्रमाण लाना चाहिए। इतना विशेष है कि अन्तःकोडाकोडीके अभ्यन्तरवर्ती नाना गुणहानिशलाकाओं की रूपोन अन्योन्याभ्यस्तरा शिकी भागहाररूपसे दूरापकृष्टिसे हीन अन्तः कोडाकोडीके अभ्यन्तरवर्ती नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशिमें एक कम राशिकी स्थापना करनी चाहिए । इस प्रकार स्थापित करने पर उस स्थानकी विकृतिगोपुच्छा होती है । यह विकृतिगोपुच्छा भी प्रकृतिगोपुच्छासे गुणसंक्रम भागहारके द्वारा परप्रकृतिरूपसे संक्रमण करनेवाले द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है; क्योंकि गुणसंक्रमभागहारसे पल्योपमके संख्यातवें भागप्रमाण दूरापकृष्टि स्थिति के अभ्यन्तरवर्ती नानागुणहा निशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि असंख्यातगुणी है ।
शंका- यह राशि गुणसंक्रम भागहारसे असंख्यातगुणी है यह किस प्रमाणसे जाना ? समाधान - सम्यक्त्व प्रकृतिके उद्वेलनाकालके अन्दरकी नानागुणहानिशलाकाओंकी १९
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ गुणा त्ति भणंतसुत्तादो । तं जहा–सम्मत्तस्स उक्कस्सपदेससंकमो कस्स ? गुणिदकम्मंसियलक्खणेण गंतूण सत्तमपुढवीए अंतोमुहुत्तेण मिच्छत्तदव्वमुक्कस्सं होहदि त्ति विवरीयं गंतूण उवसमसम्मत्तं पडिवजिय उक्कस्सगुणसंकमकालम्मि सव्वत्थोवगुणसंकमभागहारेण सम्मत्तमावूरिय पुणो मिच्छत्तं पडिवण्णपढमसमए अधापवत्त संकमेण संकममाणस्स उक्कस्सपदेससंकमो। एवं सुत्तं अधापवत्तभागहारादो सम्मत्तुव्वेलणकालस्स णाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासीए असंखेजगुणत्तं जाणावेदि, सम्मत्तुकस्सुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय सव्वसंकमेण संकामिजमाणदव्वस्स' एदम्हादो थोवत्तं जाणाविय अवढिदत्तादो। ण च सव्वसंकमदव्वे बहुए संते अधापवत्तसंकमेण पदेससंकमस्स सुत्तमुक्कस्ससामित्तं भणदि, विष्पडिसेहादो। एदेण सुत्तेण अधापवत्तभागहारादो दूरावकिट्टिहिदीए णाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासीए असंखेजगुणत्तं सिज्झउ णाम, ण आयादो वयस्स असंखेजगुणत्तं, गुणसंकमभागहारादो दूरावकिट्टिहिदिणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णभत्थरासीए थोवबहुत्तविसयावगमाभावादो ? ण, गुणसंकमभागहारादो असंखेजगुणअधापवत्तभागहारं पेक्खिदृण असंखे०गुणत्तण्णहाणुववत्तीदो। तदो' दुरावकिट्टिणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासीए असंखेजगुण त्तसिद्धीदो। अन्योन्याभ्यस्त राशि अधःप्रवृत्तभागहारसे असंख्यातगुणी है ऐसा कथन करनेवाले सूत्रसे जाना । इसका खुलासा इस प्रकार है-सम्यक्त्व प्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम किसके होता है ? गुणितकाशके लक्षणके साथ सातवें नरकमें जाकर जब मिथ्यात्वका उत्कृष्ट द्रव्य होने में अन्तर्मुहूर्त काल बाकी रहे तब मिथ्यात्वसे सम्यक्त्वकी ओर जाकर, उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करके उत्कृष्ट गुणसंक्रमकालमें सबसे छोटे गुणसंक्रम भागहारके द्वारा सम्यक्त्व प्रकृतिको पूरकर, पुनः मिथ्यात्वको प्राप्त करनेके प्रथम समयमें अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा संक्रमण करनेवाले उस जीवके सम्यक्त्व प्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशसंक्रम होता है। यह सूत्र अधः वृत्तभागहारसे सम्यक्त्वप्रकृतिके उद्वेलन कालकी नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशिको असंख्यातगुणा बतलाता है, क्योंकि यह सूत्र सम्यक्त्व प्रकृतिके उत्कृष्ट उद्वेलनाकालके द्वारा उद्वेलना कराके सर्व संक्रमणके द्वारा संक्रमणको प्राप्त होनेवाले द्रव्यको इससे थोड़ा बतलाते हुए अवस्थित है। यदि सर्वसंक्रमणका द्रव्य बहुत होता तो अधःप्रवृत्तसंक्रमके द्वारा प्रदेशसंक्रमका प्रतिपादन करनेवाला सूत्र उत्कृष्ट स्वामित्व न कहता; क्योंकि ऐसा होना निषिद्ध है।
शंका-इस सूत्रसे अधःप्रवृत्त भागहारसे दूरापकृष्टि स्थितिकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि भले ही असंख्यातगुणी सिद्ध होवे तो भी आयसे अर्थात् विकृति गोपुच्छाको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे व्यय अर्थात् गणसंक्रमणके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त होनेवाला द्रव्य असंख्यातगुणा नहीं हो सकता, क्योंकि गुणसंक्रम भागहारसे दूरापकृष्टि स्थितिकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशिके स्तोकपने अथवा बहुतपनेका ज्ञान नहीं होता।
समाधान नहीं; क्योंकि यदि ऐसा न होता तो गुणसंक्रमभागहारसे असंख्यातगुणे अधःप्रवृत्तभागहारसे उक्त अन्योन्याभ्यस्तराशि असंख्यातगुणी न होती। अतः गुणसंक्रम भागहारसे दूरापकृष्टि स्थितिकी नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशिका असंख्यात
१. श्रा०प्रतौ 'सवरांकामिजमाणदध्वस' इति पाठः । २. ता० प्रतौ 'तत्तो' इति पाठः ।
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१४७
ण च
गुणसंकम भागहारादो अधापवत्तभागहारस्स असंखे अगुण तमसिद्ध, सव्वत्थोवो सव्वसंकमभागहारो । गुणसंकमभागहारो असंखे० गुणो । ओकडकड्डणभागहारो असंखेजगुणो । अधापवत्तभागहारो असंखे० गुणो । उव्वेल्लण कालभंतरे णाणागुणहाणिस लागाण मण्णोणन्भत्थरासी असंखेअगुणा । दूरावकि विद्धि दिअन्यंतरणाणागुणहाणि सलागाण मण्णोष्णन्भत्थरासी असंखे० गुणा त्ति सुत्ताविरुद्धवक्खाणप्पाब हुएण तस्स सिद्धीदो । संपहि दूराव किट्टिडिदिसंतकम्मे अच्छिदे द्विदीए असंखेज्जभागे आगाएदि । अवसेस हिदी पलिदोवमस्स असंखे ० भागमेत्ता । तत्थ जदि जहण्णपरित्तासंखेजअद्धच्छेदणय सलागाहि अब्भहियगुणसंकमभागहारद्धच्छेदणय सलागमेत्ताओ णाणागुणहाणि सलागाओ होंति तो वि आयादो वओ असंखेज्जगुणो, जहण्णपरित्तासंखेजमत्तगुणगारुवलं भादो । अह जह तत्थ संपहि उत्तणाणागुणहाणिसलागाओ रूवूणाओ हों तो वि विगिदिगो वुच्छादो वओ संखेञ्जगुणो होदि, जहण्णपरित्तासंखे जस्स अद्धमेत्तगुणगारुवलंभादो । एवं संखेञ्जगुणवड्डी उवरि वि जाणिदूण वत्तव्वा । जदि सहिदी गुणसंकमभागहारस्स अद्धच्छेदणयमेत्ताओ णाणागुणहाणिसलागाओ होंति तो वएण विगिदिगोवुच्छा सरिसी होदि, उभयत्थ भज-भागहाराणं सरिसत्तुवलंभादो । सोथो । हुमहिदीए पुण णिहालिअमाणे एत्थ वि आयादो वओ विसेसाहिओ,
गुणाना सिद्ध है । शायद कहा जाय कि गुणसंक्रमभागहारसे अधःप्रवृत्तभागहारका असंख्यातगुणा होना असिद्ध है । सो भी बात नहीं है, क्योंकि सर्वसंक्रमभागहार सबसे थोड़ा है । गुणसंक्रमभागहार उससे असंख्यातगुणा है । अपकर्षण - उत्कर्षणभागहार उससे असंख्यातगुणा है । अधःप्रवृत्त भगिहार उससे असंख्यातगुणा है । उद्वेलनकालके अन्दरकी नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि उससे असंख्यातगुणी है । दूरापकृष्टिस्थितिके अन्दरकी नानागुणहानिशलाकाओं की अन्योन्याभ्यस्तराशि उससे असंख्यातगुणी है इस सूत्राविरुद्ध व्याख्यानमें कहे गये अल्पबहुत्वके आधारसे गुणसंक्रमभागहार से अधःप्रवृत्तभागहारका असंख्यातगुणापना सिद्ध है ।
दूरापकृष्टि स्थितिसत्कर्मके रहते हुए स्थितिकाण्डकके लिए स्थितिके असंख्यात बहुभागको ग्रहण करता है और बाकी स्थिति पल्यके असंख्यातवें भाग रहती है । उसमें यदि जघन्य परीतासंख्यातकी अद्धच्छेदशलाका ओंसे अधिक गुणसंक्रमभागहारके अर्द्धच्छेदों की शलाका प्रमाण नाना गुणहानिशलाकाएँ होती हैं, तो भी आयसे अर्थात् विकृतिगोपुच्छाके द्रव्यसे व्यय अर्थात् गुणसंक्रमके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त होनेवाला द्रव्य असंख्यातगुणा हुआ, क्योंकि व्ययका गुणकार जघन्यपरीतासंख्यात प्रमाण पाया जाता है। और यदि उसमें उक्त नाना गुणMaraम होती हैं तो भी विकृतिगोपुच्छासे व्यय संख्यातगुणा प्राप्त होता है, क्योंकि तब व्ययका गुणकार जघन्य परीतासंख्यातसे आधा पाया जाता है । इसी प्रकार आगे भी संख्यातगुणवृद्धिको जानकर कहना चाहिए । यदि शेष स्थिति में गुणसंक्रमभागहारके अर्द्धच्छेदप्रमाण नानागुणहानि शलाकाएँ होती हैं तो विकृतिगोपुच्छा व्ययके समान होती है; क्योंकि दोनों जगह भाज्य और भागहार समान पाये जाते हैं । यह तो हुआ स्थूल अर्थ । किन्तु सूक्ष्म स्थितिको देखने पर यहाँ भी आयसे व्यय विशेष अधिक है; क्योंकि अतिक्रान्त
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१४८
जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५ अदिकं तविगिदिगोकुच्छाए सह पयडिगोवुच्छं गुणसंकमभागहारेण खंडिय तत्थ एयखंडस्स परसरूवेण गमणुवलंभादो । अह जइ तत्थ गुणसंकमभागहारस रूवूणछेदणयमेत्ताओ णाणागुणहाणिसलागाओ होंति तो वयादो विगिदिगोवुच्छा किंचूणदुगुणमेत्ता होदि । एत्तो पहुडि उवरि सव्वत्थ वयादो विगिदिगोवुच्छा अहिया चैव ।
$ १४४. एवं संखेजगुणकमेण गच्छंती विगिदिगोबुच्छा कत्थ वयादो असंखेजगुणा होदितित्ते वच्चदे - विदिखंडए पदिदे संते जाए अवसेसहिदीए जहण्णपरित्तासंखेजयस्स अद्धच्छेदणयसलागाहि यूणगुण' संकमभागहारद्धच्छेदणयमेत्ताओ गुणहाणीओ होंति तत्थ असंखेञ्जगुणा होदि, किंचूणजहण्णपरित्तासंखेज्ज मेत्तगुणगारुवलंभादो । एतो पहुड उवरि सव्वत्थ वयादो विगिदिगोकुच्छा असंखेजगुणा चैव होद्ण गच्छदि, हिदी ज्झीयमाणाए विगिदिगोवच्छावडिदंसणादो । वरि पगदिगोबुच्छादो विगिदिगोच्छा अजवि असंखे ०गुणहीणा, पगदिगोकुच्छा भागहारं पेक्खिदूण बिगिदिगोवुच्छाभागहारस्स असंखेजगुणत्तुवलंभादो । संपहि पगदिगोव च्छादो विगिदिगो वुच्छा असंखे० गुणहीणा होण गच्छंती काए हिदीए सेसाए असंखे० गुणहाणीए पञ्जवसाणं पावदिति वुत्ते वच्चदे – जाए से सहिदीए जहण्णपरित्तासंखेज्जयस्स अद्धच्छेदणयमेत्ताओ गाणागुणहाणि सलागाओ अत्थि तत्थ पजवसाणं । कुदो ? पयदिगोवच्छं जहण्णपरित्ता
विकृतिगोपुच्छा के साथ प्रकृतिगोपुच्छाको गुणसंक्रमभागहार से भाजित करके उसमें से एक भाग का पररूपसे गमन पाया जाता है। अब यदि वहाँ पर गुणसंक्रमभागहार के रूपोन अर्द्धच्छेद प्रमाण नानागुणहानिशलाकाएँ होती हैं तो व्यय से विकृतिगोपुच्छा कुछ कम दुगुनी होती है । यहाँ से लेकर आगे सर्वत्र विकृतगोपुच्छा व्ययसे अधिक ही है ।
१४४. इस तरह संख्यात गुणितक्रमसे जानेवाली विकृतिगोपुच्छा व्ययसे अर्थात् गुणसंक्रमके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे असंख्यातगुणी कहां होती है ऐसा पूछने पर कहते हैं -- स्थितिकाण्डका पतन होने पर जिस बाकीको स्थिति में जधन्यपरीतासंख्यातकी अर्द्धच्छेदशलाकाआं से न्यून गुणसंक्रमभागहार के अर्द्धच्छेदप्रमाण गुणहानियाँ होती हैं वहाँ विकृतिगोपुच्छा असंख्यातगुणी होती है; क्योंकि वहाँ कुछ कम जघन्यपरीतासंख्यातप्रमाण गुणकार पाया जाता है । यहाँसे लेकर आगे सर्वत्र विकृतिगोपुच्छा व्ययसे असंख्यातगुणी ही होती हुई जाती है; क्योंकि उत्तरोत्तर स्थितिका क्षय होने पर विकृतिगोपुच्छा में वृद्धि देखी जाती है। किन्तु प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा अब भी असंख्यात - गुणहीन है; क्योंकि प्रकृतिगोपुच्छा के भागहारसे विकृतिगोपुच्छाका भागहार असंख्यातगुणा पाया जाता है ।
शंका- प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा उत्तरोत्तर असंख्यातगुणी हीन होती हुई किस स्थितिके शेष रहने पर असंख्यातगुणहानिके अन्तको प्राप्त होती है ?
समाधान - शेष बची हुई जिस स्थितिकी जघन्य परीतासंख्यातके अर्द्धच्छेदप्रमाण नानागुणहानि शलाकाएँ होती हैं वहाँ अन्त होता है; क्योंकि प्रकृतिगोपुच्छाको जघन्य १ आ० प्रतौ 'सल्लागाहियाण गुण' इति पाठः ।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं संखेजेण खंडिदेणेयखंडमेत्ताए विगिदिगोवुच्छाए तत्थुवलंभादो। (एत्थ दोण्हं गोवुच्छाणं पमाणं कण्णभूमीए' ठविय सोदाराणं पडिबोहो कायव्यो, अण्णहा वायणाए विहलत्तप्पसंगादो । अत्रोपयोगी श्लोक :- .
अप्रतिबुद्धे श्रोतरि वक्तृत्वमनर्थकं भवति पुसाम् ।
नेत्रविहीने भर्तरि विलासलावण्यवत्स्त्रीणाम् ॥४॥ १४५. संपहि पयडिगोवुच्छादो विगिदिगोवुच्छा कत्थ संखेजगुणहीणा ? जाए गहिदावसेसहिदीए णाणागुणहाणिसलागाओ रूवूणजहण्णपरित्तासंखेजअद्धच्छेदणयमेत्तीओ होति ताए । एत्थ बालजणउप्पायणहर भागहारपरूवणं कस्सामो । तं जहा-दिवद्वगुणहाणिगुणिदसमग्रपबद्ध दिवड्डगुणहाणिमेत्तअंतोमुहुत्तोवट्टिदओकड्डकड्डणभागहारेणगुणिदवेछावहिअण्णोण्णब्भत्थरासीए ओवडिदे पयडिगोवुच्छा आगच्छदि। पयडिगोवुच्छाभागहारेण जहण्णपरित्तासंखेजद्धपदुप्पण्णेण दिवड्डगुणहाणिगुणिदसमयपबद्धे भागे हिदे विगिदिगोवुच्छा आगच्छदि । एवं दो वि गोवुच्छाओ आणिय ओवट्टणं करिय गुणगारो साहेयव्यो। णवरि गुणगारेसु भागहारेसु च सव्वत्थ सेसो अत्थि सो जाणिय सिस्साणं परूवेदव्यो । एवं पगदिगोवुच्छादो विगिदिगोवुच्छा परीतासंख्यातसे भाजित कर जो एक भाग आता है उतनी विकृतिगोपुच्छा वहाँ पाई जाती है।
यहाँ दोनों गोपुच्छाओंका प्रमाण कर्णभूमिमें स्थापित करके श्रोताओंको प्रतिबोध कराना चाहिए, अन्यथा इस व्याख्यानकी विफलताका प्रसंग प्राप्त होता है। इस विषयमें उपयोगी श्लोक देते हैं
श्रोता के न समझने पर मनुष्योंका वक्तृत्व व्यर्थ है, जैसे कि पतिके नेत्रहित होने पर स्त्रियोंका हाव-भाव और श्रृंगार ।।४।।
$ १४५. शंका-प्रकृतिगोपच्छासे विकृतिगोपुच्छा संख्यातगुणी हीन कहाँ होती है ?
समाधान-स्थितिकाण्डकघातरूपसे ग्रहण करके शेष बची जिस स्थितिकी नाना गुणहानिशलाकाएँ रूपोन जघन्य परीतासंख्यातकी अर्द्धच्छेदप्रमाण होती हैं वहाँ विकृतिगोपच्छा। प्रकृतिगोपुच्छासे संख्यातगुणी हीन होती है।
यहाँ बालजनोंको समझानेके लिए भागहारका कथन करते हैं। यथा-डेढ़ गुणहानिसे गुणित समयबद्ध में डेढ़ गुणहानिमात्र अन्तर्मुहूर्तसे भाजित जो अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार उससे गणित दो छयासठ सागरकी अन्योन्याभ्यस्तराशिसे भाग देने पर प्रकृतिगोपच्छा आती है। और जघन्य परीतासंख्यातके आधेसे गणित प्रकृतिगोपच्छाके भागहारके द्वारा डेढ़ गणहानिसे गुणित समयप्रबद्धमें भाग देने पर विकृतिगोपच्छा आती है। इस प्रकार दोनों ही गोपुच्छाओंको लाकर और विकृतिगोपुच्छाका प्रकृतिगोपुच्छामें भाग देकर गणकारको साधना चाहिए । मात्र सर्वत्र गुणकारों और भागहारोंमें कुछ शेष रहता है सो जानकर शिष्योंको कहना चाहिये।
शंका-इस प्रकार प्रकृतिगोपुच्छासे संख्यातगुणहीन क्रमसे जाती हुई विकृतिगोपुच्छा 1. ता० प्रा०प्रत्योः 'कम्मभूमिए' इति पाठः । २. ता:प्रवौ 'बालजणमु (पायण" इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे पदेसविहत्ती ५ संखे०गुणहीणकमेण' गच्छती कत्थ पगदिगोवुच्छाए समाणा होदि त्ति वुत्ते वुच्चदेजाए द्विदीए धादिदावसेसाए एगा चेव गुणहाणो अत्थि तत्थ सरिसा; पढमगुणहाणिं मोत्तूण सेसगुणहाणिदव्वे पढमगुणहाणीए पदिदे विगिदिगोवुच्छाए' पगदिगोवुच्छाए सह सरिसत्तुवलंभादो । ण चेदमसिद्धं, सव्वदव्वहे गुणहाणिचदुब्भागेणोवट्टिदे' पयडिगोवुच्छपमाणुवलंभादो । एसो थूलत्थो।
$ १४६. सुहुमाए हिदीए णिहालिजमाणे विगिदिगोवुच्छा पगदिगोवुच्छाए सह ण सरिसा; पढमगुणहाणिदव्वं पेक्खिदूण विदियादिगुणहाणिदव्वस्स कम्मट्ठिदिचरिमगुणहाणिदव्वेण ऊणत्तुवलंभादो।
६१४७ संपहि पढमगुणहाणीए उत्ररिमतिभागेण सह सेसासेसगुणहाणीसु घादिदासु पगदिगोवुच्छादो विगिदिगोवुच्छा किंचूणदुगुणमेत्ता होदि, दोसु गुणहाणितिभागखंडेसु उड्डपंतियागारेण समयाविरोहेण रइदेसु एगपगदिगोवुच्छपमाणुवलंभादो। कहाँपर प्रकृतिगोपुच्छाके समान होती है ?
समाधान-घातनेसे शेष बची जिस स्थितिमें एक ही गुणहानि होती है वहाँ विकृतिगोपच्छा प्रकृतिगोपुच्छाके समान होती है, क्योंकि प्रथम गुणहानिको छोड़कर शेष गुणहानिके द्रव्यके प्रथम गुणहानिमें मिल जाने पर विकृतिगोपुच्छाकी प्रकृतिगोपच्छाके साथ समानता पाई जाती है और यह बात असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि सर्व द्रव्यमें गुणहानिके एक चौथाईसे भाग देने पर प्रकृतिगोपुच्छाका प्रमाण पाया जाता है। यह स्थूल अर्थ हुआ। उदाहरण-सब द्रव्य ६३००, गुणहानिका चौथा भाग २,
६३००+२=३२०० प्रकृतिगोपुच्छा ६१४६. सूक्ष्म स्थितिके देखने पर विकृतिगोपुच्छा प्रकृतिगोपुच्छाके समान नहीं है; क्योंकि प्रथम गुणहानिके द्रव्यसे दूसरी आदि गणहानियोंका द्रव्य कर्मस्थितिकी अन्तिम गुणहानिका जितना द्रव्य है उतना कम पाया जाता है।
उदाहरण-सब द्रव्य ६३००, गुणहानिका प्रमाण ८, ६३००४% ६३००x४%D३२०० प्रकृतिगोपुच्छा।
यहाँ यद्यपि विकृतिगोपुच्छाको इस प्रकृतिगोपुच्छाके बराबर बतलाया है तब भी द्वितीयादि शेष गुणहानियोंका द्रव्य प्रथम गुणहानिसे न्यून है। न्यूनका प्रमाण अन्तिम गुणहानिका द्रव्य है।
६१४७. अब प्रथम गुणहानिके उपरिम त्रिभागके साथ बाकीकी सब गुणहानियोंके (स्थितिकाण्डकघातके द्वारा) घाते जाने पर प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपच्छा कुछ कम दूनी होती है, क्योंकि गुणहानिके दो त्रिभागोंके आगमानुसार ऊर्ध्वपंक्तिरूपसे रचे जाने पर एक प्रकृतिगोपुच्छाका प्रमाण पाया जाता है।
१. ताःप्रतौ 'हीणा कमेण' इति पाठः । २. ता०पा प्रत्योः 'विगिदिपढमगोपुच्छाएं' इति पाठः। ३. ता०आ० प्रत्योः गुणहाणितिण्णिचदुब्भागेणोवहिदें इति पाठः ।
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गा २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१५१ कुदो देसूणत्तं ? गुणहाणीए दो-तदियतिभागगोवुच्छाहि पढम-विदियतिभागाणं पमाणुप्पत्तीदो।
१४८. पढमगुणहाणीए अद्धण सह उवरिमासेसगुणहाणीसु णिवदिदासु पगदिगोवुच्छादो विगिदिगोवुच्छा किंचूणतिगुणा होदि, गुणहाणिअद्धमेत्तगोवुच्छासु एगपगदिगोवुच्छवलंभादो । एत्थ वि पुव्वं व किंचूणत्तं परूवेदव्वं ।
६१४९ पढमगुणहाणिआयाम पंच-खंडाणि करिय तत्थ उवरिमतीहि खंडेहि सह विदियादिसेसगुणहाणीसु घादिदासु पगदिगोवच्छादो विगिदिगोवच्छा किंचूणचदुग्गुणमेत्ता होदि, गुणहाणिए वेपंचभागमेत्तगोवुच्छासु एगपगदिगोवुच्छुवलंभादो । एवं जत्तिय-जत्तियमेत्तं गुणगारमिच्छदि तेण गुणगारेण रूवाहिएण गुणिहाणिं खंडिय तत्थ दो खंडे मोत्तूण सेसखंडेहि सह विदियादिगुणहाणीओ धादिय इच्छिद-इच्छिदगुणगारो साहेयव्वो।
शंका-यहाँ विकृतिगोपुच्छा दूनेसे कुछ कम क्यों है ?
समाधान-क्योंकि गुणहानिके तीसरे त्रिभागरूप गोपुच्छाओंको दो बार लेने पर प्रथम और द्वितीय विभागोंका प्रमाण उत्पन्न होता है।
विशेषार्थ-प्रथम गुणहानिका प्रमाण ३२०० है। इसका तीसरा भाग १०६६ होता है। इसे द्वितीयादि शेष पांच गुणहानियोंके द्रव्यमें मिला देने पर कुल द्रव्य ४१६६ हुआ। यह द्रव्य प्रथम गुणहानिके दो बटे तीन भागोंसे कुछ कम दूना है। इससे स्पष्ट है कि स्थितिकाण्डकघातके द्वारा प्रथम गुणहानिके ऊपरके तीसरे भागके साथ शेष गुणहानियोंके द्रव्यके मिल जाने पर प्रकृतिगोपुच्छा २१३४ से विकृतिगोपुच्छा ४१६६ कुछ कम दूनी होती है।।
.. आधी प्रथमगणहानिके साथ ऊपरकी सब गुणहानियोंका पतन होने पर प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा कुछ कम तिगुनी होती है, क्योंकि यहाँ आधी गुणहानिप्रमाण गोपुच्छाओंमें एक प्रकृतिगोपुच्छा पाई जाती है। यहां पर भी विकृतिगोपुच्छाके तिगुनेसे कुछ कमका कथन पहलेके समान करना चाहिये ।
विशेषार्थ-प्रथम गुणहानिका आधा द्रव्य १६०० हुआ । इसमें शेष गुणहानियोंका द्रव्य मिला देने पर ४७०० होते हैं। यह प्रथमगुणहानिके आधे द्रव्यसे कुछ कम तिगुना है। इससे स्पष्ट है कि यदि स्थितिकाण्डक घातके द्वारा प्रथम गुणहानिके ऊपरके आधे द्रव्यके साथ शेष गुणहानियोंका द्रव्य घाता जाता है तो प्रकृतिगोपुच्छा १६०० से विकृतिगोपुच्छा ४७०० कुछ कम तिगुनी होती है।
$ १४९. प्रथम गुणहानि आयामके पाँच खण्ड करके उनमेंसे ऊपरके तीन खण्डोंके साथ दूसरी आदि शेष गुणहानियोंका घात करने पर प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा कुछ कम चौगुनी होती है, क्योंकि यहां पर पहली गुणहानिके दो बटे पाँच भागमात्र गोपुच्छाओंमें एक प्रकृतिगोपुच्छा पाई जाती है। इस प्रकार जितने जिवने मात्र गुणकारकी इच्छा हो अर्थात् प्रकृतिगोपुच्छासे जितनी गुणी विकृतिगोपुच्छा लानी हो, रूपाधिक उस गुणकारके द्वारा प्रथम गुणहानिके खण्ड करके उनमेंसे दो खण्डोंको छोड़कर शेष खण्डोंके साथ दूसरी आदि गुणहानियोंका घात करके इच्छित इच्छित गुणकार साधना चाहिए ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे पदेसविहत्ती ५ १५०. एवं गंतूण जहण्णपरित्तासंखेज्जेण पढमगुणहाणीए खंडिदाए तत्थ दोखंडे मोत्तूण सेसखंडेहि सह विदियादिगुणहाणीसु धादिदासु पगदिगोवुच्छादो विगिदिगोवुच्छा किंचूणुक्कस्ससंखे गुणा। कुदो ? विगिदिगोवुच्छाए संबंधिदोदोखंडेहि . एगपयडिगोवुच्छाए समुप्पत्तिदंसणादो। संपहि पयडिगोवुच्छादो विगिदिगोवुच्छा कत्थ असंखे०गुणा ? पढमगुणहाणिआयामे . रूवाहियजहण्णपरित्तासंखेजेण तत्थ दोखंडे मोत्तूण सेसखंडेहि सह विदियादिगुणहाणीसु घादिदासु होदि, दोदोखंडेहि एग पगदिगोवुच्छाए समुप्पत्तिदंसणादो। एत्तो प्पहुडि उवरि सव्वत्थ पगदिगोवृच्छादो विगिदिगोवुच्छा असंखेजगुणा चेव । असंखेजगुणत्तस्स कारणं पुवं परूविदमिदि णेह परूविजदे, परूविय
विशेषार्थ-प्रथम गुणहानिके ३२०० प्रमाण द्रव्यके पाँच हिस्से करने पर प्रत्येक हिस्सा ६४० होता है। ऐसे तीन हिस्सों १९२० को शेष गुणहानियोंके ३१०० द्रव्यमें मिला देने पर कुल प्रमाण ५०२० होता है। यह प्रथम गुणहानिके दो बटे पाँच १२८० प्रमाण द्रव्यसे कुछ कम चौगुना है। इससे स्पष्ट है कि यदि स्थितिकाण्डकघातके द्वारा प्रथम गुणहानिके पांच हिस्सोंमेंसे ऊपरके तीन हिस्सोंके साथ शेष गणहानियोंका द्रव्य घाता जाता है तो प्रकृतिगोपुच्छा १२८० से विकृतिगोपुच्छा ५०२० कुछ कम चौगुनी होती है। इसी प्रकार आगे प्रकृतिगोपुच्छासे कुछ कम जितनी गुणी विकृतिगोपुच्छा लानी हो वहाँ गुणकारके प्रमाणमें एक मिला दो और जो लब्ध आवे, प्रथम गुणहानिके उतने हिस्से करो। बादमें नीचेके दो हिस्से छोड़कर शेष हिस्सोंके साथ उपरिम गुणहानियोंका घात कराओ तो विवक्षित विकृतिगोपुच्छा आ जाती है। उदाहरणार्थ-प्रकृतिगोपुच्छासे कुछ कम सात गनी विक्रतिगोपच्छा लानी है, इसलिए प्रथम गणहानिके दव्यके आठ हिस्से करो। प्रत्येक हिस्से का प्रमाण ४०० हुआ। अब नीचेके दो हिस्से ८०० को छोड़कर शेष द्रव्य २४०० के साथ शेष गुणहानियोंके द्रव्य ३१०० का घात कराओ तो विकृतिगोपच्छाका प्रमाण ५५०० आता है। यहाँ प्रकृति गोपुच्छाका प्रमाण ८०० है । इस प्रकार यहाँ प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपच्छा कुछ कम सातगुनी प्राप्त हुई।
६१५०. इस प्रकार जाकर जघन्य परीतासंख्यातके द्वारा प्रथम गुणहानिको भाजित करके उनमें से दो भागोंको छोड़कर शेष भागोंके साथ दूसरी आदि गुणहानियोंका घात करने पर प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपच्छा कुछ कम उत्कृष्ट संख्यातगुणी होती है; क्योंकि विकृतिगोपुच्छासम्बन्धी दो दो भागोंसे एक प्रकृतिगोपुच्छा की उत्पत्ति देखी जाती है । अब प्रकृति गोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा असंख्यातगुणी कहाँ होती है यह बतलाते हैं-प्रथम गुणहानिके आयाममें रूपाधिक जघन्य परीतासंख्यातसे भाग देने पर उनमेंसे दो भागोंको छोड़कर शेष भागोंके साथ दूसरी आदि गुणहानियोंके घाते जाने पर प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा असंख्यातगणी होती है, क्योंकि सर्वत्र दो दो खण्डोंसे एक प्रकृतिगोपुच्छाकी उत्पत्ति देखी जाती है। यहाँसे लेकर आगे सर्वत्र प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा असंख्यातगुणी ही होती है। असंख्यातगुणी होनेका कारण पहले कह आये हैं , इसलिये यहाँ नहीं
१. आप्रप्रतौ ' संखेनेण तस्थ' इति पाठः ।
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गा०२२]
उत्तरपयडिपदेसमिहत्तीए सामित्तं परूवणाए फलाभावादो । ण विस्सरणालु असीससंभालणफला, अणंतरं चेव परूवियूण गदत्रामणवहारयंतस्स अज्झप्पसुणणे अहियाराभावादो। ण तस्स वक्खाणेयव्वं पि, तव्वक्खाणाए अज्झप्पविजवोच्छेदहेदुत्तादो। ण चावगयअन्झप्पविजो करण-चरणविसुद्ध-विणीद-मेहाविसोदारेसुसंतेसुरागेण भएण मोहेणालसेण वाअवरेसु वक्खाणतो सम्माइट्ठी, तिरयणसंताणविणासयस्स तदणुववत्तीए।
१५१. संपहि असंखेजगुणवहीए चरिमवियप्पो वुच्चदे । तं जहा–चरिमफालीअद्धेणोवट्टिदगुणहाणीए पढमगुणहाणीए खंडिदाए तत्थ दोखंडे मोत्तण सेसखंडेहि सह विदियादिगुणहाणीसु घादिदासु पगदिगोवुच्छादो असंखेजगुणा अपच्छिमविगिदिगोवुच्छा उप्पजदि । को गुणगारो ? गुणहाणिभागहारो रूवेणो। अथवा चरिमफालीए कहा; क्योंकि कहे हुएको कहने में कुछ फल नहीं है। शायद कहा जाय कि विस्मरणशील शिष्यको सँभालना हो उसका फल है, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि अनन्तर ही कहे हुए अर्थको स्मरण रखनेमें जो असमर्थ है उसको अध्यात्मशास्त्रके सुननेका अधिकार नहीं है। ऐसे शिष्यके लिए व्याख्यान भी नहीं करना चाहिये; क्योंकि उसे व्याख्यान करने पर वह अध्यात्मविद्याके बिनाशका कारण होता है। तथा अध्यात्मविद्याको जानकर जो परिणाम और चारित्रसे शुद्ध, बिनयी और मेधावी श्रोताओंके रहते हुए रागसे, भयसे, मोहसे या आलस्यसे अन्य लोगोंको व्याख्यान करता है वह सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता, क्योंकि उससे रत्नत्रयकी परंपराका विनाश होना संभव है।
विशेषार्थ-यदि जघन्य परीतासंख्यातका प्रमाण १६ मान लिया जाय और उत्कृष्ट संख्यातका प्रमाण १५ तो प्रथम गुणहानिके द्रव्य ३२०० के १६ खण्ड करने पर उनमेंसे नीचेके दो खण्डप्रमाण ४०० द्रव्यको छोड़कर शेष खण्डोंके द्रव्य २८०० के साथ शेष सब गुणहानियों के द्रव्य ६१०० के घाते जाने पर प्रकृतिगोपुच्छा ४०० से विकृतिगोपुच्छा ५९०० कुछ कम उत्कृष्ठ संख्यातगणी प्राप्त होती है। यहां विकृतिगोपच्छाका पन्द्रहवाँ भाग कुछ कम चार सौ है और प्रकृतिगोपुच्छाका प्रमाण पूरा चार सौ है जो कि प्रथम गुणहानिके सोलह खण्डोंमें से दो खण्डोंके बराबर है। इससे स्पष्ट है कि प्रकृतिगोपच्छासे विकृतिगोपच्छा कुछ कम पन्द्रहगुणी अथात् उत्कृष्ट संख्यातगणीहै। अब यदि प्रथम गणहानिके जघन्य परीतासंख्यात १६ से एक अधिक १७ खण्ड किये जाते हैं और उनमेंसे नीचेके दो खण्डोंको छोड़कर शेष खण्डोंके द्रव्य २८२४ के साथ शेष गुणहानियोंके द्रव्य ३१०० का स्थितिकाण्डक घात होता है तो प्रकृतिगोपुच्छाके द्रव्य ३७६ से विकृतिगोपुच्छाका द्रव्य ५९२४ कुछ कम सोलहगणा अर्थात् कुछ कम जघन्य परीतासंख्यातगुणा प्राप्त होता है। कारणका निर्देश पहले किया ही है। इसके आगे सर्वत्र विकृतिगोपुच्छा असंख्यातगुणी ही प्राप्त होती है यह स्पष्ट ही है।
१५१ ६ अय असंख्यात गुणवृद्धिका अन्तिम विकल्प कहते हैं। यथा-अन्तिम फालीके आधेसे भाजित गुणहानिके द्वारा प्रथम गुणहानिके खण्ड करके उनमेंसे दो खण्डोंको छोड़कर शेष खण्डोंके साथ दूसरी आदि गुणहानियोंके घाते जानेपर प्रकृतिगोपुच्छासे असंख्यातगणी अन्तिम विकृतिगोपुच्छा उत्पन्न होती है। यहां गुणकारका प्रमाण कितना है ? गुणहानिका रूपोन भागहार गुणकार है। अथवा अन्तिम फालीसे
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ओवहिददिवड्डगुणहाणी गुणगारो । एत्थ कारणं चिंतिय वत्तव्वं । एदेण कारणेण पथडिगोवुच्छादो विगिदिगोवुच्छा असंखेजगुणा त्ति सिद्धं ।
एवं विगिदिगोवुच्छाए परूवणा कदा । भाजित डेढ़ गुणहानिरूप गणकार है। यहाँ कारण विचार कर कहना चाहिये । इस कारण से प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा असंख्यातगणी है यह सिद्ध हुआ।
विशेषार्थ-जिस समय जघन्य प्रदेशसत्कर्म प्राप्त होता है उस समय प्रकृतिगोपुच्छा और विकृतिगोपुच्छा दोनों प्रकारकी गोपुच्छाएं रहती हैं। इस सम्बन्धमें पहले यह बतलाया गया है कि प्रकृतमें प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा असंख्यातगुणी होती है। आगे यही घटित करके बतलाया गया है कि यह बात कैसे बनती है। एक क्षपित काशवाला जीव है जिसने कर्मस्थितिप्रमाण काल तक एकेन्द्रियोंमें परिभ्रमण किया और वहाँसे निकल कर त्रसों में उत्पन्न हआ। तदनन्तर यथायोग्य एकसौ बत्तीस सागर कालको सम्यक्त्वके साथ बिता कर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ किया। अधःप्रवृत्तकरणके कालमें स्थितिकाण्डकघात नहीं होता इसलिये उसे विताकर अपूर्वकरणको प्राप्त हुआ। इसके प्रथम समयसे ही स्थितिकाण्डक घातका प्रारम्भ हो जाता है। तब भी यहां प्रति समय गुणसंक्रमभागहारके द्वारा जितना द्रव्य पर प्रकृतिरूपसे संकमित होता है उसका असंख्यातवां भाग ही प्रति समय अपकर्षणउत्कर्षण भागहारके द्वारा उपरितन स्थितिगत निषेकोंमेंसे अधस्तन स्थितिगत निषेकोंमें निक्षिप्त होता है, क्योंकि गुणसंक्रमभागहारके प्रमाणसे अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारका प्रमाण असंख्यातगुणा है। इस प्रकार यहां प्रति समय जो द्रव्य अधस्तन स्थितिगत निषेकोंमें निक्षिप्त होता है उससे विकृतिगोपुच्छाका निर्माण नहीं होता, क्योंकि उसका समावेश प्रकृतिगोपुच्छा में ही हो जाता है। किन्तु स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिके पतनसे जो द्रव्य प्राप्त होता है उससे विकृतिगोपुच्छाका निर्माण होता है। इसी प्रकार आगे भी जानना चाहिये । अर्थात् दूसरे, तीसरे और चौथे आदि स्थितिकाण्डकोंको अन्तिम फालियोंका पतन होनेसे जो द्रव्य प्राप्त होता है उससे विकृतिगोपुच्छाओंका निर्माण होता है। अब विचारणीय बात यह है कि इनमेंसे किस विकृतिगोपुच्छाका प्रमाण कितना है ? क्या सभी विकृतिगोपुच्छाएं प्रकृतिगोपुच्छाओंसे असंख्यातगुणी हैं या इनके प्रमाणमें कुछ अन्तर है ? अब आगे इस प्रश्नका समाधान करते हैं-अपूर्वकरणरूप परिणामोंके समय सर्व प्रथम स्थितिकाण्डक घातसे जो विकृतिगोपुच्छाका निर्माण होता है वह प्रकृतिगोपुच्छामेंसे गुणसंक्रम भागहारके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त होनेवाले द्रव्यके असंख्यातवें भाग है, क्योंकि यहां प्रकृति गोपुच्छामें पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण गुणसंक्रमभागहारका भाग देनेसे जो एक भागप्रमाण द्रव्य प्राप्त होता है वह प्रति समय पर प्रकृतिरूप परिणमता है तथा अन्तः कोडाकोडीके अन्दरकी नाना गुणहानिशलाकाओंका विरलन करके और उस विरलित राशि के प्रत्येक एक पर दोके अंक रख कर परस्परमें गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो, एक कम उसमें पल्यके संख्यातवें भागमात्र स्थितिकाण्डकोंके अन्तरवर्ती नाना गुणहानिशालाकाओं की रूपोन अन्योन्याभ्यस्तराशिसे भाग दो, जो लब्ध आवे उससे डेढ़ गुणाहानिको गुणा करो। इस प्रकार जो भागहार प्राप्त हो इसका उस समय संचित हुए द्रव्यमें भाग देने पर विकृतिगोपुच्छा प्राप्त होती है। इस प्रकार इन दोनों भागहारोंको देखनेसे ज्ञात होता है कि प्रारम्भमें विकृतिगोपुच्छाका प्रमाण प्रकृतिगोपुच्छाके असंख्योतवें भागप्रमाण होता है, क्यों कि यहां परप्रकृतिरूप परिणमन करनेवाले द्रव्यके भागहारसे विकृतिगोपुच्छाका
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
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भागहार असंख्यातगुणा है, अतः जब कि विकृतिगोपुच्छाका द्रव्य परप्रकृतिरूप परिणमन करनेवाले द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है तो वह विकृतिगोपुच्छाका द्रव्य प्रकृतिगोपुच्छाके द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण होना ही चाहिये, क्योंकि पर प्रकृतिको प्राप्त होनेवाला द्रव्य प्रकृतिगोपुच्छाका असंख्यातवां भाग है और जब विकृति गोपुच्छाका द्रव्य इसके असंख्यातवें भाग है तो वह प्रकृतिगोपुच्छाके असंख्यातवें भाग प्रमाण होगा ही। इसी प्रकार दूसरी आदि गोपुच्छाएं भी प्रकृतिगोपुच्छाओंके असं यातवें भागप्रमाण प्राप्त होती हैं। केवल वहाँ दूसरी आदि विकृतिगोपुच्छाओंका भागाहार उत्तरोत्तर न्यून होता जाता है और इसलिये दूसरी आदि विकृतिगोपुच्छाओंका द्रव्य भी उत्तरोत्तर वृद्धिंगत होता जाता है। इस प्रकार हजारों स्थितिकाण्डकोंका पतन होने पर अपूर्वकरण समाप्त होता है। तथा आगे अनिवृत्तिकरणमें भी यही क्रम चालू रहता है। फिर क्रमशः मिथ्यात्वका स्थितिसत्कर्म असंझियोंके स्थितिबन्धके समान प्राप्त होता है । आगे भी संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंका पतन होने पर स्थितिसत्कर्म क्रमशः चौइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, द्वीन्द्रिय और एकेन्द्रियके स्थितिबन्धके समान प्राप्त होता है। यहां सर्वत्र विकृतिगोपुच्छाका द्रव्य वृद्धिंगत होता जाता है और भागहारका प्रमाण घटता जाता है। फिर संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंका पतन होने पर सत्कर्मकी स्थिति एक पल्य प्राप्त होती है । यहाँ सत्कर्म की स्थिति अन्तःकोडाकोडी नहीं रही किन्तु एक पल्य रह गई है, इसलिये यहां अन्तःकोडाकोडीकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशिको पल्यकम अन्तःकोड़ाकोड़ी की नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशिका भाग दे देना चाहिये । तात्पर्य यह है कि पहले भागाहारमें जो अन्तःकोड़ाकोड़ीकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि थी वह क्रमसे घटकर अब एक पल्यके अन्दर प्राप्त होनेवाली नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि भागहार है। इस प्रकार यहां जो विकृतिगोपुच्छा उत्पन्न होती है वह गुणसंक्रमभागहारके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त होनेवाले द्रव्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि यहां भी गुणसंक्रमभागहारसे एक पल्यके भीतर प्राप्त होनेवाली नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि असंख्यातगुणी है । इसके बाद स्थितिकाण्डकघात होता हुआ क्रमसे दूरापकृष्टि स्थितिसत्कर्म प्राप्त होता है। इसके पूर्व तक अब भी पल्यके संख्यातवें भागप्रमाण स्थितिसत्कर्म शेष है, इसलिये यहां भी विकृतिगोपुच्छा परप्रकृतिको प्राप्त होनेवाले द्रव्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है। इसके आगे यदि स्थितिके असंख्यात बहुभागप्रमाण स्थितिकाण्डकका घात करके जो स्थिति शेष रहती है उसमें नाना गुणहानियाँ यदि गुणसंक्रमभागहारकी अर्धच्छेद शलाकाओं और जघन्य परीतासंख्यातकी अर्धच्छेद शलाकाओंके जोड़प्रमाण होती हैं तो भी यहां विकृतिगोपच्छाका द्रव्य पर प्रकृतिको प्राप्त होनेवाले द्रव्य के असंख्यातवें भागप्रमाण प्राप्त होता है। इस प्रकार उत्तरोत्तर आगे भागहार घटता जाता है और विकृतिगोपच्छाका द्रव्य बढ़ता जाता है। इस क्रमके चालू रहते हुए जब स्थितिकाण्डकघातसे शेष रही स्थितिकी नानागुणहानिशलाकाएं गुणसंक्रम भागहारकी अर्धच्छेदशलाकाप्रमाण होती हैं तब विकृतिगोपुच्छाका द्रव्य पर प्रकृतिको प्राप्त होनेवाले द्रव्यके समान होता है क्योंकि यहां दोनोंकी भाजक और भाज्य राशियां समान हैं। अब इसके आगे स्थितिकाण्डकका घात होने पर उत्तरोत्तर विकृतिगोपुच्छाका प्रमाण बढ़ने लगता है और पर प्रकृतिको प्राप्त होनेवाला द्रव्यका प्रमाण विकृतिगोपुच्छाके प्रमाणसे उत्तरोत्तर घटने लगता है। यदि शेष रही स्थितिकी नाना गुणहानिशलाकाएं गुणसंक्रमभागहारकी एक कम अर्धच्छेदशलाकाप्रमाण होती हैं तो विकृतिगोपुच्छाका द्रव्य पर प्रकृतिको प्राप्त
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पसविहत्ती ५
$ १५२, पयडिगोवुच्छं तत्तो असंखेजगुणं विगिदिगोबुच्छ तत्तो असंखेज्जगुणं अपुव्यगुणसे ढोगोबुछं तत्तो असंखेजगुणं' अणियट्टिगुणसेढी गोबुच्छ च घेतूण जहण्णदव्वं जादमिदि घेत्तव्वं ।
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* तदो पदेसुत्तरं दुपदेसुत्तरमेवमताणि द्वाणाणि तम्मि द्विदिविसेसे ।
$ १५३. सामित्त परूवणाए कादुमाढत्ताए तत्थेव किमहं द्वाणपरुवणा कीरदे ? ण, एत्तो उवरि पुत्रं व द्वाणपरूवणाए कीरमाणार विस्सरिदजहण्णदव्वसरूवस्त अणवगयतस्सरूवस्स वा अंतेवासिस्स द्वाणविसयावबोहो सुहेण उप्पाइ सक्किजदिति
होनेवाले द्रव्यसे कुछ कम दूना हो जाता है । इसी प्रकार आगे जाकर जब शेप रही स्थिति गुणसंक्रमभागहारकी जघन्य परीतासंख्यात कम अर्धच्छेदशलाकाप्रमाण शेष रही स्थितिकी नाना गुणहाणिशलाकाएं होती हैं तब विकृतिगोपुच्छाका द्रव्य पर प्रकृतिको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे कुछ कम असंख्यातगुणा प्राप्त होता है । इस प्रकार यद्यपि यहां पर परप्रकृतिको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे विकृतिगोपुच्छाका द्रव्य असंख्यातगुणा हो गया है तो भी अब भी विकृतिगोपुच्छा प्रकृतिगोपुच्छा के असंख्यातवें भागप्रमाण ही है, क्योंकि यहां पर अब भी प्रकृतिगोपुच्छाके भागहारसे विकृतिगोपुच्छाका भागहार असंख्यातगुणा पाया जाता है । इसके आगे जब शेष स्थितिकी नाना गुणहाणिशलाकाएं जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदप्रमाण प्राप्त होती हैं तब प्रकृतिगोपुच्छाका विकृतिगोपुच्छासे असंख्यातगुणापना समाप्त होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर प्रकृतिगोपुच्छा घटती जाती है और विकृतिगोपुच्छा वृद्धिंगत होती जाती है । यह क्रम चालू रहते हुए जब जाकर स्थितिकाण्डकघात होकर इतनी स्थिति शेष रहती है जिसमें एक गुणहानि प्राप्त होती है तब जाकर विकृतिगोपुच्छा प्रकृतिगोपुच्छाके समान होती है, क्योंकि यहां प्रथमगुणहानिके सिवा शेष गुणहानियोंका द्रव्य स्थितिकाण्डक घातके द्वारा प्रथम गुणहानिमें पतित हो जाता है, अतः यहां विकृतिगोपुच्छा प्रकृतिगोपुच्छा के समान पाई जाती है। इसके आगे उत्तरोत्तर स्थितिकाण्डकघात के कारण विकृतिगोपुच्छाका प्रमाण बढ़ता जाता है और प्रकृतिगोपुच्छाका प्रमाण घटता जाता है । इस प्रकार अन्त में जाकर प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा असंख्यातगुणी प्राप्त होती है, इसलिये स्वामित्वकालमें प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छाको असंख्यातगुणा बतलाया है ।
इस प्रकार विकृतिगोपुछाका कथन किया ।
$ १५२. प्रकृतिगोपुच्छा, उससे असंख्यातगुणी विकृतिगोपुच्छा, उससे असंख्यात गुणी अपूर्वकरणकी गुणश्रेणिकी गोपुच्छा और उससे असंख्यातगुणी अनिवृत्तिकरणकी गुणश्रेणि की गोपुच्छा इस प्रकार इन सबके मिलने पर जघन्य द्रव्य हुआ है यह अर्थ यहाँ लेना चाहिये । * जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थानसे एक परमाणू अधिक होने पर दूसरा प्रदेश स्थान होता है, दो परमाणु अधिक होने पर तीसरा प्रदेशस्थान होता है । इस प्रकार उस स्थिति विकल्पमें अनन्त प्रदेशसत्कर्मस्थान होते हैं ।
$ १५३. शंका - स्वामित्वका कथन प्रारम्भ करके वहीं स्थानोंका कथन क्यों किया ? समाधान — नहीं, क्योंकि यहाँसे आगे पहलेकी तरह स्थान प्ररूपणा के करने पर जघन्य व्यके स्वरूपको भूल जानेवाले या उसके स्वरूपको नहीं जाननेवाले शिष्यको स्थानोंका ज्ञान
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१. ता० ना० प्रत्योः 'असंखेजगुणा' इति पाठः ।
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदे सवि हत्तीए सामित्तं
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एत्थेव तप्परूवणा कोरदे | अधवा जहण्णु कस्सहाणाणं सामित्तं परूपिदं । संपहि सटाणाणं सामित्त परूवणट्टमिदमुवकमदे 'तदो' जहण्णपदेसहाणादो त्ति भणिदं होदि । 'पदेसुत्तरं ' पदेसो परमाणू तेण उत्तरमहियं दव्वं विदियं पदेसहाणं होदि, ओकडकड्डणवसेण एगपदेसु तरहाणुवलंभादो । दुपदेसुत्तरमण्णं हाणं । तिपदेसुत्तरमण्णं हाणं । एवमताणि पदेस संतकम्माणाणि तम्मि हिदिविसेसे होंति त्ति पदसंबंधो कादव्वो ।
को कारण |
S १५४. खविदकम्मंसिया किरियाए खग्गधारासरिसीए खलगेण विणा परिसक्किदजीवस्स ण द्वाणभेदो, कारणाभावादी । ण हि कारणे एगसरूवे संते कजाणं णाणतं, विरोहादो चि पच्चवाणसुत्तमेदं । एवं पच्चवदिस्स सिस्सस्स खविदकम्मंसियत्तं पडि भेदाभावे वि तक्कजभेदपदुष्पायणहमुत्तरमुत्तं भणादि ।
* जं तं जहाक्खयागदं तदो उक्कस्यं पि समयपवद्धमेत्तं ।
$ १५५. 'जं जहाक्यागर्द ' खविदकम्मंसियलक्खण किरियापरिवाडीए जं खयमागदं ति भणिदं होदि । 'तदो उक्कस्यं पि' तत्तो उवरि खविदकम्मंसियविसए वट्टमाणं जं जहाक्खयागदं दव्वसुक्कस्तं तं पि एगसमयपबद्धमेत्तं । जदि एसो खविदकम्मं सिय
सुखपूर्वक कराना शक्य नहीं है, इसलिये यही उनका कथन करते हैं । अथवा जघन्य और उत्कृष्ट स्थानोंके स्वामित्वको कह दिया । अब शेष स्थानोंके स्वामित्वका कथन करनेके लिये यह उपक्रम है । सूत्रमें आये हुए 'तदो' पदसे जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थान से लिया गया हैं । 'पदेसत्तरं ' इसमें आये हुए प्रदेशका अर्थ परमाणु है । उससे उत्तर अर्थात् अधिक द्रव्य दूसरा प्रदेशस्थान होता है, क्योंकि अपकर्षण- उत्कर्षण के कारण एक प्रदेश अधिकवाला स्थान पाया जाता है। दो परमाणु अधिकवाला दूसरा स्थान होता है, तीन परमाणु अधिकवाला तीसरा स्थान होता है । इस प्रकार अनन्त प्रदेशसत्कर्म उस स्थितिविकल्पमें होते हैं, ऐसा पदका सम्बन्ध करना चाहिये ।
किस कारण से १
१५४ | क्षपितकर्मा की क्रिया तलवार की धारके समान है, उसका स्खलन हुए बिना भ्रमण करनेवाले जीवके स्थान भेद नहीं हो सकता, क्योंकि उसका कोई कारण नहीं है ? और कारण के एकरूप होते हुए कार्यों में भेद नहीं हो सकता; क्योंकि ऐसा होने में विरोध है । इस तरह यह सूत्र शंका रूप है । इस प्रकार शंकित शिष्य को क्षतिकर्माश पने में भेद न होने पर भी उसका कार्यभेद बतलाने के लिये आगे का सूत्र कहते हैं
* क्षपित कर्माशविधिसे जो क्षयको प्राप्त हुआ है, उत्कृष्ट द्रव्य भी उससे एक सममप्र बद्ध ही अधिक होता है ।
$ १५५. 'जं जह|क्खयाद' इसका तात्पर्य है कि 'क्षपितकर्माश रूप क्रियाकी परंपरा के द्वारा क्षयको प्राप्त हुआ है ।' 'तदो उकस्सयं पि' अर्थात् उससे ऊपर क्षपितकर्मांशके विषय में वर्तमान, जिस रूपसे जो क्षयसे आया हुआ उत्कृष्ट द्रव्य है वह भी एक समय
१. आ०प्रतौ 'तिपदेसुत्तरमणंवरमण्णं' इति पाठः ।
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहन्ती ५
लक्खणेणेवागदो तो एगसमयपवद्धमेत्ता परमाणू अन्भहिया ण होंति त्तिणासंकणिज, ओकडकडणपरिणामेसु जोगपरिणामेसु च सरिसेसु संतेसु वि एगसमयपबद्धमेत्ताणं कम्मक्खंधाणं हीणाहियत्तं होदि चेव, एगपरिणामेण ओकडकड्डिज माणपरमाणूणं समाणत्तं पडि नियमाभावादो । किण्णिमित्तो अणियमो ? उवसामणा-णिकाचणा-णिधत्तीकरणणिमत्तो । ण च तीहि करणेहि उप्पादकम्म परमाणुगय विसरिसत्तं खविदकम्मंसियलक्खणं विणासेदि, छसु आवासएसु अणूणाहिएस संतेसु तल्लक्खणविणासविरोहादो । जदि एवं तो एगसमयपबद्धं मोत्तूण बहुआ समयपबद्धा अहिया किण्ण होंति ? ण, सुत्तम्मि तहा अणुवद्वत्तादो | ण च परमाणुसारीणं तदणणुसारितं जुतं, विरोहादो ।
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प्रबद्धमात्र होता है ।
शंका- यदि यह क्षपितकर्माशके लक्षणके द्वारा ही आया है तो एक समयप्रबद्ध मात्र परमाणु अधिक नहीं हो सकते ?
समाधान — ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए; क्योंकि अपकर्षण- उत्कर्षणरूप और योगरूप परिणामों के समान होने पर भी एक समयप्रबद्धप्रमाण कर्मस्कन्धोंकी हीनाधिकता होती ही है, क्योंकि एक परिणामके द्वारा अपकर्षण अथवा उत्कर्षणको प्राप्त होनेवाले परमाणुओं के समान होनेका नियम नहीं है ।
शंका-अनियम होने का क्या निमित्त है ?
समाधान - उपशामना, निघत्ती और निकाचनाकरण निमित्त है । शायद कहा जाय कि इन तीन करणोंके द्वारा कर्मपरमाणुओंमें जो हीनाधिकता आती है वह क्षपितकर्मा शरूप लक्षणको नष्ट कर देगी अर्थात् तब वह जीव क्षपितकर्माश नहीं रहेगा, किन्तु ऐसा कहना ठीक नहीं है; क्योंकि क्षपितकर्माशके लिए कारणरूप छह आवश्यकों के न न्यून और न अधिक रहते हुए क्षपितकर्माशरूप लक्षणका विनाश होने में विरोध आता है ।
शंका- यदि इन तीन करणोंके द्वारा अधिक परमाणु भी हो सकते हैं तो क्षपितकर्माश जीवके एकसमयप्रबद्ध को छोड़कर बहुत समयप्रबद्ध अधिक क्यों नहीं होते ?
समाधान --- नहीं, क्योंकि चूर्णिसूत्रमें ऐसा नहीं कहा है। और जो आगमप्रमाणका अनुसरण करते हैं उनके लिए उसका अनुसरण करना युक्त नहीं है, क्योंकि ऐसा करने में विरोध आता है ।
विशेषार्थ — अब तक मिध्यात्वके दो समय कालवाली एक स्थितिगत उत्कृष्ट सत्कर्मके स्वामी और जघन्य सत्कर्मके स्वामीका विवेचन किया। अब उसी स्थिति में कुल सत्कर्म स्थान कितने होते हैं और वे सान्तर क्रमसे हैं या निरन्तर क्रमसे हैं इसका खुलासा किया है । यद्यपि यह स्वामित्वका प्रकरण है, इसलिये यहां स्थानोंका कथन नहीं करना चाहिये तब भी इससे स्वामीका बोध हो ही जाता है, इसलिये इस प्रकरण में स्थानोंका कथन करनेमें कोई बाधा नहीं है । जघन्य प्रदेशसत्कर्मका उल्लेख पहले किया ही है वह पहला सत्कर्मस्थान है । इसमें एक प्रदेशकी वृद्धि होने पर दूसरा सत्कर्मस्थान होता है और दो प्रदेशों की वृद्धि होने पर तीसरा सत्कर्म स्थान होता है । इस प्रकार उत्तरोत्तर एक एक स्थानके प्रति एक एक प्रदेश बढ़ाते जाना चाहिये । यह वृद्धिका क्रम एक समयप्रबद्धप्रमाण प्रदेशों के
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं * जो पुण तम्मि एक्कम्मि द्विदिविसेसे उकस्सगस्स विसेसो असंखेजा समयपषद्धा।
. १५६. पुव्वं तिस्से एक्किस्से हिदीए खविदकम्मंसियलक्खणेण आगदस्स एगसमयपबद्धमत्ता परमाणू अहिया होति त्ति परूविदं । एदेण' पुण सुत्तेण गुणिदकम्मंसियलक्खणेण आगंतूण वेछावडीओभमिय मिच्छत्तंखविय एकिस्से हिदीए मिच्छत्तपदेसं काऊण डिदस्स उक्कस्सदव्वादो जहण्णदव्वे सोहिदे जं सेसंतमुक्कस्सगस्स विसेसोणाम । तम्मि विसेसे असंखेजा समयपबद्धा होति । कुदो ? खविदकम्मंसियपगदि-विगिदिगोवुच्छाहिंतो गुणिदकम्मंसियस्स पगदि-विगिदिगोवुच्छाओ असंखेजगुणाओ, उक्कस्सजोगेण बढ़ाने तक ही चालू रहता है आगे नहीं, क्योंकि क्षपितकर्मा शके इससे और अधिक प्रदेशोंकी वृद्धि नहीं होती। इस प्रकार क्षपितकाशके दो समय कालवाली एक स्थितिमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म स्थानसे लेकर उत्तरोत्तर एक एक प्रदेशकी वृद्धि होते हुए एक समयप्रबद्धप्रमाण प्रदेशोंकी वृद्धि होती है । अब प्रश्न यह है कि सबके क्षपितकाशकी विधि के समान रहते हुए किसीके जघन्य सत्कर्मस्थान, किसीके एक प्रदेश अधिक जघन्य सत्कर्मस्थान, किसीके दो प्रदेश अधिक जघन्य सत्कर्मस्थान और अन्तमें जाकर किसीके एकसमयप्रबद्ध अधिक जघन्य सत्कर्मस्थान क्यों पाया जाता है ? वीरसेन स्वामी ने इस शंकाका जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि यद्यपि क्षपिकाशकी विधि सबके
। भले ही पाई जाती है तब भी उपशामनाकरण, निधत्तिकरण और निकाचनाकरणके कारण अपकर्षण और उत्कर्षणको प्राप्त होनेवाले परमाणुओंमें समानता नहीं रहती, इसलिये किसीके जघन्य सत्कर्मस्थान, किसी के एक परमाणु अधिक जघन्य सत्कर्मस्थान, किसीके दो परमाणु अधिक जघन्य सत्कर्मस्थान और अन्तमें जाकर किसीके एक समयप्रबद्ध अधिक जघन्य सत्कर्मस्थान बन जाता है। यदि कहा जाय कि इससे क्षपितकाशकी विधिमें अन्तर पड़ जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि क्षपितकाशकी विधिके लिये जो छह आवश्यक बतलाये हैं वे सबके एक समान पाये जाते हैं, अतएव क्षपितकाशकी विधिमें कोई अन्तर नहीं पड़ता। इस प्रकार क्षपितकर्माशके दो समयवाली एक स्थितिमें जघन्य सत्कर्मस्थानसे लेकर निरन्तर क्रमसे एक एक परमाणुकी वृद्धि होते हुए अधिक से अधिक एक समयप्रबद्धको वृद्धि होती है यह इस प्रकरण का तात्पर्य है।
8 किन्तु उस एक स्थितिविकल्पमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मको प्राप्त हुए द्रव्यका जो विशेष प्राप्त होता है वह असंख्यात समयप्रवद्धरूप है।
$ १५६. पूर्वसूत्र में उस एक स्थितिमें क्षपितकर्मा शके लक्षणके साथ आये हुए जीवके एक समयप्रबद्धप्रमाण परमाणु अधिक होते हैं ऐसा कथन किया है । परन्तु इस सूत्रके अनुसार
गतकर्मा शके लक्षणके साथ आकर एक सौ बत्तीस सागर तक भ्रमण करके और मिथ्यात्वका क्षपण करके मिथ्यात्वके परमाणुओंको एक स्थितिमें करके जो स्थित है उसके उत्कृष्ट द्रव्यमें से जघन्य द्रव्यको घटाने पर जो शेष रहता है उस उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मको प्राप्त हुए द्रव्यका विशेष कहते हैं। उस विशेषमें असंख्यात समयप्रबद्ध होते हैं। क्योंकि क्षपितकाशकी प्रकृति और विकृतिगोपुच्छाओंसे गुणितकाशकी प्रकृति और विकृतिगोपुच्छाएँ असंख्यातगुणी होती हैं, क्योंकि उनका
१. श्रा०प्रतौ 'परूवदब्बं । एदेण' इति पाठः ।
समान भी
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ संचिदत्तादो। खविदकम्मंसियअपुव्वगुणसेडिगोवुच्छादो गुणिदकम्मंसियअपुव्वगुण- . सेडिगोवुच्छा असंखे०गुणा । कुदो ? अपुबकरणे उक्कस्सपरिणामेहि कयगुणसेडिणिसेयदंसणादो। अणियट्टिगुणसेडिगोवुच्छा पुण उभयत्थ सरिसा, तत्थ परिणामाणुसारिगुणसेडिणिसेयदसणादो तिकालगोयरासेसअणियट्टीणं समाणसमयाणं भिण्णपरिणामाभावादो। तेण उकस्सविसेसे असंखेजा समयपबद्धा होति ति णव्वदे । खविदकम्मंसियपगदिगोवुच्छादो गुणिदकम्मंसियपगदिगोवुच्छा जदि वि असंखेजगुणा तो वि एगसमयपबद्धस्स असंखे०भागमेत्ता चेव, जोगगुणगारादो देछावट्ठिअभंतरणाणागुणहाणिसलागुप्पणकिंचूणण्णोण्णाथरासीए असंखे०गुणत्तललंभादो। अणियट्टिगुणसेडिगोवुच्छाओ पुछ उभयस्थ दो चि सरिसाओ। खविदकम्मंसियअपुब्वगुणसेडिगोवुच्छादो गुणिदकम्मंसियअपुव्वगुणसेडिगोवुच्छा जदि वि असंखे०गुणा तो वि विसेसे असंखेजाणं समयपबद्धाणमत्थित् ण णव्वदे, खविदकम्मंसियअपुव्वगुणसेडिगोवुच्छाए पमाणाणवगगादो ति ? एत्थ परिहारो वुच्चदे-खविदकम्मंसियम्मि अपुव्वगुणसेडिगोवुच्छासामित्तसमयविदा जदि वि जहण्णपरिणामेहि कदत्तादो जहण्णा तो वि असंखेजसमयपबद्धमत्ता। कुदो ? गुणसेडीए एगहिदीए णिक्खित्तजहण्णदव्वम्मि वि असंखेजाणं समयपबद्धाणमुवलंभादो। एदम्हादो तिस्से चेव हिदीए अपुव्वकरणपरिणामेहि
संचय उत्कृष्ट योगके द्वारा होता है। इसी तरह क्षपितकर्मा शकी अपूर्वकरणसम्बन्धी गुणश्रोणिगोपुच्छासे गुणितकर्मा शकी अपूर्वकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिगोपुच्छा असंख्यातगुणी होती है। क्योंकि अपूर्वकरणमें उत्कृष्ट परिणामोंसे की गई गुणश्रेणिके निषेक देखे जाते हैं। किन्तु अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिको गोपुच्छाएँ क्षपित और गणित दोनों में समान हैं; क्योंकि वहाँ परिणामों के अनुसार गुणश्रेणिके निषेक देखे जाते हैं और समान कालवाले त्रिकालवर्ती जितने भी अनिवृत्तिकरण हैं उनके भिन्न भिन्न परिणाम नहीं होते । इससे जाना जाता है कि उत्कृष्टको प्राप्त हुए द्रव्यके विशेषमें असंख्यात समयप्रबद्ध होते हैं।
शंका-क्षपितकर्मा शकी प्रकृतिगोपुच्छासे गुणितकर्मा शकी प्रकृतिगोपुच्छा यद्यपि असंख्यातगुणी है तो भी वह एक समयप्रबद्धके असंख्यातवें भागमात्र ही है। क्योंकि योगके गुणकारसे एक सौ बत्तीस सागरके अन्दरकी नाना गुणहानिशलाकाओंसे उत्पन्न हुई कुछ कम अन्योन्याभ्यस्तराशि असंख्यातगुणी पाई जाती है। किन्तु अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिकी दोनों ही गोपुच्छाएँ दोनों जगह समान हैं। हां क्षपितकर्मा शकी अपूर्वकरणसम्बन्धी गणश्रेणिकी गोपुच्छासे गुणितकर्मा शकी अपूर्वकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिकी गोपुच्छा यद्यपि असंख्यात गुणी है तो भी उत्कृष्ट विशेषमें असंख्यात समयप्रबद्धोंका अस्तित्व प्रतीत नहीं होता; क्योंकि क्षपितकाशकी अपूर्वकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिकी गोपुच्छाका प्रमाण ज्ञात नहीं है।
समाधान-इस शंकाका परिहार करते हैं-क्षपितसत्कर्मवाले जीवमें रहनेवाली स्वामित्व कालमें अपूर्वकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिकी गोपुच्छा यद्यपि जघन्य परिणामोंसे की हुई होनेके कारण जघन्य है तो भी वह असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण है; क्योंकि गुणश्रेणिकी एक स्थितिमें निक्षिप्त जघन्य द्रव्यमें भी असंख्यात समयप्रबद्ध पाये जाते हैं। और इससे उसी स्थितिमें अपूर्वकरण परिणामोंके द्वारा उत्कृष्ट रूपसे संचित द्रव्य असंख्यातगुणा है, इस
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१६१ उक्कस्सेण संचिददव्वमसंखे०गुणं ति रूवूणगुणागारेण अपुवकरणजहण्णगुणसेडिदव्वे एगहिदिहिदे गुणिदे जेण असंखेजा समयपबद्धा होति तेणुकस्सविसेसो असंखेजसमयपबद्धमेत्तो त्ति परिच्छिज्जदे। किं च विगिदिगोवच्छ पि अस्सिदण असंखेज्जा समयपबद्धा उवलब्भंति । का विगिदिगोवुच्छा णाम ? अंतोकोडाकोडिमेत्तहिदीसु एगेगहिदिम्मि हिदपदेसग्गं पगदिगोवुच्छा। हिदिखंडयघादे कीरमाणे चरिमद्विदिखंडयस्स एगेगहिदीए अपुव्वपदेसलाहो विगिदिगोवुच्छा णाम । तिस्से पमाणं केत्तियं ? अंतोमुहुत्तोवट्टिदओकड्डक्कड्ड णभागहारपदुप्पण्णचरिमफालिगुणिदवेछावडिअण्णोण्णब्भत्थरासिणोवट्टिददिवढगुणहाणिसमयपबद्धमत्तं । एसा जहण्णविगिदिगोबुच्छा। उक्कस्सिया पुण एत्तो असंखेज्जगुणा, खविदकम्मंसियजोगादो गुणिदकम्मंसियजोगस्स असंखे०गुणत्तुवलंभादो। तेणुकस्सविसेसो असंखेज्जसमयपबद्ध मेत्तो त्ति सिद्धं । एदिस्से एगणिसेगहिदीए असंखे०समयपबद्धमेतपदेसहाणाणि णिरंतरमुप्पण्णाणि त्ति पदुप्पायणफला एसा परूवणा।
लिए रूपोन गुणकारके द्वारा एक स्थितिमें स्थित अपूर्वकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिके जघन्य द्रव्यको गुणा करने पर यतः असंख्यात समयप्रबद्ध होते हैं अतः उत्कृष्ट विशेष असंख्यातसमयप्रबद्धप्रमाण होता है यह जाना जाता है। दूसरे, विकृतिगोपुच्छाकी अपेक्षा भी असंख्यात समयप्रबद्ध पाये जाते हैं।
शंका-विकृतिगोपुच्छा किसे कहते हैं ?
समाधान-अन्तःकोडाकोडीमात्र स्थितिमें से एक एक स्थितिमें स्थित जो प्रदेश समूह है उसे प्रकृतिगोपुच्छा कहते हैं और स्थितिकाण्डकघातके किये जाने पर अन्तिम स्थितिकाण्डकके द्रव्यका एक एक स्थितिमें जो अपूर्व प्रदेशोंका लाभ होता है उसे विकृतिगोपुच्छा कहते हैं।
शंका–उस विकृतिगोपुच्छाका प्रमाण कितना है ?
समाधान–अन्तर्मुहूर्तसे भाजित जो अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार, उससे गुणित जो अन्तिम फाली, उससे गुणित दो छयासठ सागरकी अन्योन्याभ्यस्त राशि उसका भाग डेढ़ गुणहानिगुणित समयप्रबद्धोंमें देनेसे जो लब्ध आवे उतना है । यह जघन्य विकृतिगोपुच्छा है। उत्कृष्ट विकृतिगोपुच्छा इससे असंख्यातगुणी है, क्योंकि क्षपितकर्मा शके योगसे गुणितकर्माशका योग असंख्यातगुणा पाया जाता है, इसलिये उत्कृष्ट विशेष असंख्यात समयप्रवद्धमात्र है यह सिद्ध हुभा। इस एक निषेकस्थितिके असंख्यात समयवद्धप्रमाण प्रदेशस्थान निरन्तर उत्पन्न होते हैं यह कथन करना ही इस प्ररूपणाका फल है।
विशेषार्थ-अब तक यह तो बतलाया कि क्षपितकाशके दो समय कालवाली एक स्थितिके रहते हुए जघन्य सत्कर्मस्थानसे उसीका उत्कृष्ट सत्कर्मस्थान एक समयप्रबद्धप्रमाण अधिक होता है। अब गणित कमी शके उत्कृष्ट गत विशेषताका खुलासा करते हैं। दो समय कालवाली एक स्थितिके रहते हुए क्षपितकर्मा शके जघन्य सत्कर्मस्थानसे गुणितकर्मा शका उत्कृष्ट सत्कर्मस्थान असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण अधिक होता है। तात्पर्य यह है कि क्षपितकोशके दो समय कालवाली एक स्थितिके रहते हुए जो जघन्य सस्कर्मस्थान होता
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
$ १५७. एसो उक्क सविसेसो जहण्णसंतकम्मादो थोवो चि जाणावणढमुत्तर सुतं भणदि
* तस्स पुणे जहरणयस्स संतकम्मस्स
संभागो ।
$ १५८. एसो एगहिदिविसेसदिउकस्सविसेसो असंखेजसमयपबद्ध मेतो होतो वि जहण्णसंतकम्मस्स असंखे० भागमेत्तो । तं जहा – एयं पयडिगोपुच्छ अण्णेगं विगि दिगो पुच्छम पुथ्वगुणसे डिगोपुच्छमणिय ट्टिगुणसेडिगोपुच्छ च घेसूण जहण्णदव्वं
है उसमें अपकर्षण और उत्कर्षणके कारण एक समयप्रबद्धप्रमाण प्रदेशों तक वृद्धि क्षपितकर्माशिक के ही देखी जाती है । इसके आगे गुणितकर्माशके उसी स्थिति के रहते हुए एक एक परमाणुकी वृद्धि होने लगती है और इस प्रकार वृद्धिको प्राप्त हुए कुल परमाणुओंका जोड़ असंख्यात समयप्रत्रद्धप्रमाण होता है । मतलब यह है कि दो समयवाली एक स्थितिके जघन्य सत्कर्मस्थान से उत्कृष्ट सत्कर्मस्थान में असंख्यात समयप्रबद्धोंका अन्तर रहता है और नाना जीवों की अपेक्षा इतने स्थान पाये जाना सम्भव है । इनमें से एकसमयप्रबद्धप्रमाण वृद्धि होने तकके स्थान क्षपितकर्मांशके पाये जाते हैं और आगे के सब स्थान गुणितकर्माशके ही पाये जाते हैं । बात यह है कि चाहे क्षपितकर्माश जीव हो या गुणितकर्माश उनमें से प्रत्येकके दो समय कालबाली एक स्थितिमें चार गोपुच्छाएं पाई जाती हैं- प्रकृतिगोपुच्छा, विकृतिगोपुच्छा, अपूर्वकरणकी गुणश्रेणिगोपुच्छा और अनिवृत्तिकरणकी गुणश्रेणिगोपुच्छा । इनमें से दोनों के अनिवृत्तिकरणकी गुणश्रेणिगोपुच्छाएं तो समान होती हैं; क्योंकि अनिवृत्तिकरणमें दोनों के एकसे परिणाम होते हैं । अब रहीं शेष गोपुच्छाएं सो उनमें क्षपितकर्मा शकी तीनों गोपुच्छाओं से गुणितकर्मा की तीनों गोपुच्छाएँ असंख्यातगुणी होती हैं। इससे ज्ञात होता है कि जघन्य सत्कर्मस्थानसे उत्कृष्टगत विशेष असंख्यात समयप्रबद्ध अधिक पाया जाता है । यहां इतना विशेष जानना चाहिए कि क्षपितकर्माश और गुणितकर्माश इन दोनोंके अनिवृत्तिकरण की गुणश्रेणीगोपुच्छा तो समान होती है, इसलिये इसके कारण तो क्षपितकर्मा से गुणितकर्माशके असंख्यात समयबद्ध अधिक सत्त्व पाया नहीं जा सकता। अब यदि प्रकृतिगोपुच्छाकी अपेक्षा विचार करते हैं तो यद्यपि क्षपितकर्मा शकी प्रकृतिगोपुच्छासे गुणितकर्मा की प्रकृतिगोपुच्छा असंख्यातगुणी होती है तो भी गुणितकर्मा' शकी प्रकृतिगोपुच्छा एक समयप्रबद्ध के असंख्यातवें भागप्रमाण हो पाई जाती है, इसलिये इसकी अपेक्षा भी क्षपितकर्माशसे गुणितकर्मा शके असंख्यात समयप्रबद्ध अधिक सत्त्व नहीं पाया जा सकता । अब रही शेष दोगोपुच्छाएं सो इनकी अपेक्षा ही यह वृद्धि सम्भव है और इसी अपेक्षासे प्रकृत में क्षपितकर्मा शके जघन्य द्रव्यसे गुणितकर्मा शका उत्कृष्ट द्रव्य असंख्यात समयप्रबद्ध अधिक कहा है ।
$ १५७ यह उत्कृष्ट विशेष जघन्य सत्कर्म से थोड़ा है यह बतलाने के लिये आगे का सूत्र कहते हैं
किन्तु यह उत्कृष्ट द्रव्यका विशेष उस जघन्य सत्कर्मके असंख्यातवें भागप्रमाण है ।
१५८ एक स्थिति विशेष में स्थित यह उत्कृष्ट विशेष असंख्यात समयप्रवद्धप्रमाण होता हुआ भी जघन्य सत्कर्मके असंख्यातवें भागमात्र है । उसका खुलासा इस प्रकार हैएक प्रकृतिगोच्छा, एक विकृतिगोपुच्छा, अपूर्वकरणसम्बन्धी गुणश्रोणिकी गोपुच्छा और अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिकी गोपुच्छाको लेकर जघन्य द्रव्य होता है। इन चारों गोपुच्छाओं में
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१६३ होदि । एदासु चदुसु गोपुच्छासु अणियट्टिगुणसेडिगोपुच्छा पहाणा, सेसतिण्हं गोपुच्छाणमेदिस्से असंखे०भागत्तादो एदेसिं तिण्डं गोपुच्छाणं जो उक्कस्सविसेसोसो वि एदासिं पदेसेहिंतो पदेसग्गेण ण असंखेलगुणो किं तु तस्स विसेसस्स पदेसग्गमणियट्टिगुणसेडिगोपुच्छपदेसग्गादो असंखेजगुणहीणं । एदं कुदो णव्वदे ? 'तस्स पुण जहण्णयस्स संतकम्मस्स असंखेजदिभगो' त्ति सुत्तणिद्देसण्णहाशुववत्तीदो। किंफला एसा परूवणा। जहण्णढाणस्स असंखे०भागमेत्ताणि चेव एत्थ पदेससंतकम्मट्ठाणाणि लब्भंति ति पदुप्पायणफला।।
* एदेण कारणेण एग फड्डयं । ६ १५९. जेण उक्कस्सविसेसपदेसग्गमणियट्टिगुणसेडिपदेसग्गस्स असंखे०भागो तेण पदेसुत्तरकमेण णिरंतरवड्डी ण विरुज्झदि त्ति एयं फद्दयं । जदि पुण विसेसो अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिकी गोपुच्छा प्रधान है, क्योंकि शेष तीन गोपुच्छाएँ इसके असंख्यातवें भागमात्र हैं। इन तीन गोपुच्छाओंका जो उत्कृष्ट विशेष है वह भी इनके प्रदेशोंसे प्रदेशांकी अपेक्षा असंख्यातगुणा नहीं है, किन्तु उस विशेषका जो प्रदेशसमूह है वह अनिवृत्तिकरण सम्बन्धी गुणश्रोणिकी गोपुच्छाके प्रदेशसमूहसे असंख्यातगुणा हीन है।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना ?
समाधान-यदि ऐसा नहीं होता तो 'उस जघन्य सत्कर्मके असंख्यावें भाग प्रमाण है' ऐसा सूत्रका कथन नहीं होता ।
शंका-इस कथनका क्या प्रयोजन है ?
समाधान-जघन्य प्रदेशस्थानके असंख्यातवें भागमात्र ही यहां प्रदेशसत्कर्मस्थान पाये जाते हैं यह ज्ञान कराना ही इस कथनका प्रयोजन है।
विशेषार्थ-पहले उत्कृष्ट विशेष असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण सिद्ध कर आए हैं। इतने कथनमात्रसे यह ज्ञात नहीं होता कि यह उत्कृष्ट विशेष जघन्य सत्कर्मके प्रमाणसे कितना अधिक है, अतः इस बातका ज्ञान करानेके लिए यहां चूर्णिसूत्रके आधारसे यह सिद्ध करके बतलाया गया है कि यह उत्कृष्ट विशेष जघन्य सत्कर्मके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसकी सिद्धिमें वीरसेन स्वामीने जो युक्ति दी है उसका भाव यह है कि जघन्य द्रव्यमें चार गोपुच्छाएं होती हैं। उनमें अनिवृत्तिकरणको गुणश्रेणि गोपुच्छा मुख्य है, क्योंकि शेष तीन गोपुच्छाएं उसके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं । तात्पर्य यह है कि जिस अनिवृत्तिकरणकी गोपुच्छाके कारण बहुत अन्तर पड़ सकता है वह तो जघन्य प्रदेशसत्कर्म और उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म दोनों जगह समान है। विषमता केवल तीन गोपुच्छाओंके कारण सम्भव है पर वे तीनों मिलकर भी अनिवृत्तिकरण गुणश्रेणीगोपुच्छासे असंख्यातगुणी हीन हैं। अतः उत्कृष्ट विशेष जघन्य सत्कमके असख्यातवें भागप्रमाण है यह सिद्ध होता है ।
ॐ इस कारणसे एक ही स्पर्धक होता है।
६ १५९ यतः उत्कृष्ट विशेषका प्रदेशसमूह अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी गुणश्रोणिके प्रदेशसमूहके असंख्यातवें भागप्रमाण है अतः प्रदेशोत्तर क्रमसे निरन्तर वृद्धिके हानेमें कोई विरोध नहीं आता, इसलिये एक स्पर्धक होता है। किन्तु यदि वह विशेष अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ पदेस विहत्ती ५
अणियट्टिगुणसेडिगोच्छादो संखे० गुणो असंखेज गुणो वा होज तो निरंतरबड्डीए अभावादो एग फद्दयं पि ण होज, पगदि - विगिदि - अपुव्वगुणसे डिगोवुच्छासु उकस्सेण वडिददव्वे अणियट्टि गुणसेढीए असंखे० भागमेत्तपरमाणुत्तरकमेण वड्ढिदे पुणो सेसपदेसाणं णिरंतरकमेण वड्डावणोवायाभावादो । तम्हा एदिस्से हिदीए पदेसग्गस्स एगं चेत्र फइयं त्ति दट्ठव्वं ।
* दोसु द्विदिविसेसेसु विदियं फय ।
$ १६०. गुणिदकम्मं सियलक्खलेणागदएग हि दिदुसमयकालउक्कस्सदव्वे खविदकम्मंसियलक्खणेणागदस्स दोडिदितिसमयका लजहण्णदव्वमि सोहिदे सुद्ध से सम्मि एगपरमाणुस अणुवलंभादो । ण च एगं मोत्तूण बहुसु परमाणुसु अकमेण वड्ढिदेसु एगं फद्दयं होदि, कमवड्डि-हाणीणं फद्दयववएसादो । सुद्ध सेसम्म एगपरमाणु' मोत्तूण बहुआ' परमाणू थक्क तित्ति कुदो णव्वदे ? जुत्तीदो । तं जहा — खविदकम्मं सियचरिमगुणश्र ेणिक्की गोपुच्छासे संख्यातगुणा अथवा भसंख्यातगुणा होता तो निरन्तर वृद्धिका अभाव होनेसे एक स्पर्धक भी नहीं होता; क्योंकि प्रकृतिगोपुच्छा, विकृतिगोपुच्छा और अपूर्वकरणकी गुणश्र ेणिगोपुच्छा इनमें उत्कृष्ट रूपसे वृद्धिको प्राप्त हुआ द्रव्य अनिवृत्तिकरणकी गुणश्रणिके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है जो प्रदेशोत्तरक्रमसे बढ़ा है किन्तु इसके अतिरिक्त शेष प्रदेशोंका निरन्तरक्रमसे बढ़ानेका कोई उपाय नहीं पाया जाता, इसलिये इस स्थिति के प्रदेशोंका एक ही स्पर्धक होता है ऐसा जानना चाहिये ।
विशेषार्थ — पहले उत्कृष्ट विशेषको जघन्य प्रदेशसत्कर्मके असंख्यातवें भागप्रमाण बतला आये हैं और वहां इस कथनकी सार्थकताको बतलाते हुए कहा है कि यह प्ररूपणा जघन्य प्रदेश सत्कर्मस्थानके असंख्यातवें भागप्रमाण कुल स्थान पाये जाते हैं इस बातके बतलाने के लिये की गई है । किन्तु ये स्थान निरन्तर वृद्धिको लिए हुए हैं या सान्तर वृद्धिरूप हैं इस बातका ज्ञान उक्त प्ररूपणासे नहीं होता है, अतः यहाँ इसी बातका ज्ञान कराया गया है । जघन्य सत्कर्मस्थान से लेकर उत्कृष्ट सत्कर्मस्थान तक यहाँ जितने भी स्थान सम्भव हैं वे निरन्तर क्रमसे वृद्धिको लिए हुए हैं, इसलिए इन सबका मिलाकर एक स्पर्धक होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि स्पर्धकका लक्षण है कि जहाँ निरन्तररूपसे क्रमवृद्धि और हानि पाई जाती है उसे स्पर्धक कहते हैं ।
* दो स्थितिविशेषोंमें दूसरा स्पर्धक होता है ।
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$ १६० गुणितकर्मा शके लक्षण के साथ आये हुये दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकके उत्कृष्ट द्रव्यको क्षपितकर्मा शके लक्षण के साथ आये हुये तीन समयकी स्थितिवाले दो निषेकसम्बन्धी जघन्य द्रव्यमें से घटानेपर जो शेष रहे उसमें एक परमाणु नहीं पाया जाता । और एकको छोड़कर बहुत परमाणुओंके साथ बढ़ने पर एक स्पर्धक होता नहीं; क्योंकि क्रमसे होनेवाली वृद्धि और हानिको स्पर्धक कहते हैं ।
शंका - घटाने पर शेष में एक परमाणुको छोड़कर बहुत परमाणु रहते हैं यह किस प्रमाणसे जाना ?
१. आ० प्रतौ 'एग परमाणु घेत्तूण बहुना' इति पाठः ।
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
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अणियट्टिगुणसेडिगोच्छादो गुणिदकम्मंसियअणियट्टिगुणसे डिगोवुच्छा सरिसा ति अवणेयव्वा । कुदो सरिसत्तं १ खविद-गुणिदकम्मं सियअणियट्टिपरिणामाणं सरिसत्तादो । णच परिणामेसु समाणेसु संतेसु गुणसे डिपदेसग्गाणं विसरित्तं, अत्तकञ्जत्त प्पसंगादो । खविदकम्मंसियपगदि-विगिदिअपुव्वगुण से डिगो वुच्छाहिंतो दोसु द्विदीसु द्विदाहिंतो गुणिदकम्मं सियस एगहिदीए हिदउकस्सपगदि - विगिदि - अपुव्वगुणसे ढिगोबुच्छाओ असंखेजगुणाओ त्ति तासु तत्थ अवणिदासु असंखेजा भागा चेति । ते च खविदकम्मं सियम्मि उव्वरिदअणियट्टिगुण सेटिगोवुच्छाए असंखेजदिभागमेत्ता ति तेसु तत्थ सोहिदेसु फद्दयंतरं होदि । सव्वअपुव्वगुणसेढिगोवच्छाहिंतो जेण जहणिया वि अणियट्टि गुणसे ढिगोवु च्छा असंखे० गुणा तेण एसो वि विसेसो अणियट्टिस्स दुरिमगुणसेटिगोच्छादो वि असंखेजगुणहीणो त्ति दव्वं । तदो दोसु हिदीस विदियं फद्दयं होदि ति सिद्ध । पुणो एदासु अहसु गोवच्छासु अणियट्टिगोवुच्छाओ मोत्तूण सेस गोबुच्छाओ परमाणुत्तरकमेण वढावेदब्बाओ जाव जहण्णादो असंखेजगुणत्तं पत्ताओ त्ति । कथं परमाणुत्तरखड्डी ? ण, पयडिगोवुच्छाए पदेसुत्तरवहिं पडि विरोहा
समाधान —— युक्ति से जाना । उसका खुलासा इस प्रकार है- क्षपितकर्मा शके अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी गुणश्र ेणिकी अन्तिम गोपुच्छासे गुणितकर्मा शके अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिकी गोपुच्छा समान है, इसलिए उसे अलग कर देना चाहिए ।
शंका —क्यों समान है ?
समाधान — क्योंकि क्षपितकर्माश और गुणितकर्मा शके अनिवृत्तिकरणरूप परिणाम समान होते हैं और परिणामोंके समान होते हुए गुणश्रेणिके प्रदेशसंचय में असमानता हो नहीं सकती । यदि हो तो प्रदेशसंचय परिणामका कार्य नहीं ठहरेगा ।
क्षपितकर्मा की दो स्थितियोंमें स्थित प्रकृतिगोपुच्छा, विकृतिगोपुच्छा और अपूर्वकरणसम्बन्धी गुणश्र ेणिकी गोपुच्छाओंकी अपेक्षा गुणितकर्मा शकी एक स्थितिमें स्थित उत्कृष्ट प्रकृतिगोपुच्छा, विकृतिगोपुच्छा और अपूर्वकरणसम्बन्धी गुणश्र ेणिकी गोपुच्छा असंख्यातगुणी हैं, इसलिए उनको इनमें से घटाने पर असंख्यात बहुभाग बाको बचते हैं और वे असंख्यात बहुभाग क्षपितकर्मा शकी बाकी बची अनिवृत्तिकरणकी गुणश्र ेणि गोपुच्छा के असंख्यातवें भागमात्र हैं, इसलिए उनको उसमेंसे घटाने पर दोनों स्पर्धकों का अन्तर प्राप्त होता है । यतः सब अपूर्वकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिकी गोपुच्छाओंसे जघन्य भी अनिवृत्तिकरणकी गुणश्र ेणि गोपुच्छा असंख्यातगुणी है अतः यह विशेष भी अनिवृत्तिकरणकी गुणश्रेणिसम्बन्धी द्विचरिम गोपुच्छासे भी असंख्यातगुणा हीन है ऐसा जानना चाहिए । अतः दो स्थितियोंमें दूसरा स्पर्धक होता है यह सिद्ध हुआ ।
इसके बाद इन आठ गोपुच्छाओं में से अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी गोपुच्छाओंको छोड़कर शेष छह गोपुच्छाओंको एक एक परमाणु के क्रमसे तब तक बढ़ाना चाहिए जब तक ये जघन्यसे असंख्यातगुणी प्राप्त हों ।
शंका- एक एक परमाणु के क्रमसे वृद्धि कैसे होगी ?
१. ता० प्रा० प्रत्योः 'गोवुच्छाहिं दोसु' इति पाठः । २. आ० प्रतौ' जहणियादिअणियहि-' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ भावादो। एत्थतणो वि उक्कस्सविसेसो असंखेजसमयपवद्धमेत्तो होदूण एगअणियट्टिगुणसेढिगोवुच्छार असंखेजभागमेत्तो । एवमणंतेहि ठाणेहि विदियं फद्दयं ।
* एवमावलियसमऊणमत्ताणि फद्दयाणि ।
६१६१. एवमेदेहि दोहि फद्दएहिं सह समयूणावलियमेत्ताणि फहयाणि होति, चरिमफालीए पदिदाए उदयावलियमंतरे उकस्सेण समयूणावलियमेत्ताणं चेव गोवुच्छाणमुवलंभादो। एत्थ एदेसु फद्दएसु उप्पाइजमाणेसु फद्दयंतरपरूवणविहाणं फद्दयाणमायामपरूवणविहाणं च जाणिदूण वत्तव्वं ।
समाधान नहीं, क्योंकि प्रकृतिगोपुच्छामें एक एक परमाणुके क्रमसे वृद्धि होने में कोई विरोध नहीं है।
यहाँका भी उत्कृष्ट विशेष असंख्यात समयप्रबद्धमात्र होकर एक अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिकी गोपुच्छाके असंख्यातवें भाग है। इस प्रकार अनन्त स्थानोंसे दूसरा स्पर्धक होता है।
विशेषार्थ-पहले एक स्थिति विशेषमें पाये जानेवाले स्थानोंका एक स्पर्धक होता है यह बतला आये हैं । अब यहां दो स्थितिविशेषोंमें वही स्पर्धक चालू न रहकर अन्य स्पर्धक चालू हो जाता है यह बताया जाता जा रहा है। यहां दो स्थितिविशेषोंसे तात्पर्य तीन समयकी स्थितिवाले दो निषेकों में अपना उत्कृष्टगत विशेष लिया गया है । यह जहां अपने जघन्य स्थानसे उत्कृष्ट स्थान तक निरन्तर क्रमसे वृद्धिको लिये हुए है वहाँ प्रथम स्पर्धकके उत्कृष्ट स्थानसे निरन्तर क्रमसे वृद्धिको लिए हुए नहीं है, प्रत्युत प्रथम स्पर्धकके अन्तिम स्थानसे इस स्पर्धकके प्रथम स्थानमें युगपत् बहुत परमाणओंकी वृद्धि देखी जाती है, इसलिये यह दूसरा स्पर्धक है यह सिद्ध होता है। इस स्पर्धकमें कितने स्थान हैं आदि बातोंका खुलासा मूलमें किया ही है, इसलिये वहांसे जान लेना चाहिए । दिशाका बोध कराने मात्रके लिए यह लिखा है।
& इस प्रकार एक समय कम आवलिप्रमाण स्पर्धक होते हैं।
६१६१. इस प्रकार इन दो स्पर्धकोंके साथ सब कुल एक समय कम आवलीप्रमाण स्पर्धक होते हैं, क्योंकि अन्तिम फालिका पतन होने पर उदयावलिके अन्दर उत्कृष्ट रूपसे एक समय कम आवलीप्रमाण ही गोपच्छ पाये जाते हैं।
यहाँ इन स्पर्धकोंके उत्पन्न करने पर स्पर्धकोंके अन्तरके कथनका विधान और स्पर्धकोंके मायामके कथनका विधान जानकर कहना चाहिए।
विशेषार्थ-दो समयवाली एक स्थितिके अपने जघन्यके लेकर अपने उत्कृष्ट तक जितने सत्कर्मस्थान होते हैं उनका एक स्पर्धक होता है और तीन समयवाली दो स्थितियोंके अपने जघन्यसे लेकर अपने उत्कृष्ट तक जितने सत्कर्मस्थान होते हैं उनका दूसरा स्पर्धक होता है यह बात तो पृथक् पृथक् बतला आये हैं । अब यहाँ यह बतलाया है कि इस प्रकार इन दो स्पधकों सहित कुल स्पर्धक आवलिप्रमाण कालमेंसे एक समयके कम करने पर जितने समय शेष रहते हैं उतने होते हैं। उतने क्यों होते है इस प्रश्नका समाधान करते हुये वीरसेन स्वामीने जो कुछ लिखा है उसका भाव यह है स्थितिकोण्डकघात उदयावलिके बाहरके द्रव्यका ही होता है, इसलिये जिस समय अन्तिम फालिका पतन होता है उस समय उदयावलिके भीतर प्रकृत कर्मके एक कम उदयावलिप्रमाण निषेक पाये जानेके कारण
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१६७ ॐ अपच्छिमस्स हिदिख डयस्स चरिमसमयजहण्णफद्दयमादि कादूण जाव मिच्छत्तस्स उक्कस्सगं ति एदमेगं फद्दय ।
१६२. 'अपच्छिमस्स हिदिखंडयस्स चरिमसमए' त्ति णि सो समयणुक्कीरणद्धामेत्तगोवच्छाणं फालीणं च गालणफलो । जहण्णपदणि सो गुणिदकम्मं सियगुणिदखविद-घोलमाणचरिमफालिपडिसेहद्वारेण खविदकम्मंसियचरिमफालिपदेसग्गग्गहणफलो । खविदकम्मंसियस्स अपच्छिमहिदिखंडयचरिमफालिजहण्णदव्वमादि कादूण जाव मिच्छत्तस्स उक्कस्सदव्वं त्ति एदमेगं फद्दयं, अंतराभावादो । एदस्स चरिमफद्दयस्स अंतरपमाणपरूवणा कीरदे । तं जहा--समयूणावलियमेत्तफद्दएसु चरिमफद्दयउक्कस्सदव्वादो आवलियमेत्तफद्दएसु चरिमफद्दयस्स जहण्णदव्वमसंखेजगुणं, गुणसेढिदव्वादो चरिमहिदिकंडयचरिमफालिदव्वस्स असंखेजगुणत्तादो । कथमसंखेजगुणतं णव्वदे ? पुवकोडिमेत्तकालं कदगुणसेढिदव्वादो चरिमफालिपदेसग्गमसंखेजगुणं । । त्ति सुत्ताविरुद्ध-गुरुवयणादो। असंखेजगुणओकड्डक्कड्डणभागहारमेत्तखंडीकददिवड्डगुणहाणिमेत्तसमयपबद्ध हिंतो देसूणपव्वकोडिमेत्तखंडेसु अवणिदेसु वि अवणिददव्वादो उव्वरिददव्वस्स असंखेजगुणत्तवलंभादो वा । किं च चरिमफालिम्हि पविअणियट्टिस्पर्धक भी उतने ही होते हैं । यहाँ प्रथम स्पर्धक और द्वितीय स्पर्धकके मध्य जैसे पहले अन्तरका कथन किया है उसी प्रकार सर्वत्र घटित कर लेना चाहिये । तथा द्वितीय स्पर्धकका आयाम अनन्तप्रमाण बतलाया है, उसी प्रकार तृतीयादि सब स्पर्धकोंका आयाम जान लेना चाहिये।
83 अन्तिम स्थितिकाण्डकके अन्तिम समयसम्बन्धी जघन्य स्पर्धकसे लेकर मिथ्यात्वके उत्कृष्ट द्रव्य पर्यन्त एक स्पर्धक होता है।
१६२. 'अन्तिम स्थितिकाण्डकके अन्तिम समय' इस कथनका प्रयोजन एक समय कम उत्कीरणकाल प्रमाण गोपुच्छाओं और फालियोंका गलन कराना है। जघन्य पदका निर्देश करनेका .योजन गुणितकाशकी गुणित, क्षपित और घोलमान अन्तिम फालीका प्रतिषेध करके क्षपितकर्मा'शकी अन्तिम फालीके प्रदेशोंका ग्रहण कराना है। इस प्रकार क्षपितकर्मा शके अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालीके जघन्य द्रव्यसे लेकर मिथ्यात्वके उत्कृष्ट द्रव्य पर्यन्त एक स्पर्धक होता है, क्योंकि इसमें अन्तरका अभाव है।
अब इस अन्तिम स्पर्धकके अन्तरके प्रमाणका कथन करते हैं। यथा-एक समय कम आवलीप्रमाण स्पर्धकोंमें जो अन्तिम स्पर्धक है उसके उत्कृष्ट द्रव्यसे आवलीप्रमाण स्पर्धकोंमें जो अन्तिम स्पर्धक है उसका जघन्य द्रव्य असंख्यातगुणा है; क्योंकि गुणश्रोणिके द्रव्यसे स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालीका द्रव्य असंख्यातगुणा है।
शंका-अन्तिम फालीका द्रव्य असंख्यातगुणा है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान—एक पूर्वकोटि काल पर्यन्त की गई गुणश्रणिके द्रव्यसे अन्तिम फालीके प्रदेशोंका समूह असंख्यातगुणा है इस सूत्रके अविरुद्ध गुरुवचनसे जाना जाता है। अथवा डेढ़ गुणहानिप्रमाण समयप्रबद्धोंके अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारसे असंख्यातगुणे खण्ड करके, उन खण्डोंमें से कुछ कम पूर्वकोटिप्रमाण खण्डोंके घटाने पर भी घटाये हुए द्रव्यसे बाकी बचा
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ गुणसेढिगोवुच्छाओ चेव हेहा गलिदअसेसदव्वादो असंखेजगुणाओ, असंखे०गुणाए सेढीए' णिसित्तत्तादो । गोवुच्छागारेण द्विदफालिदव्वं पुण चरिमफालीए अंतोडिदगुणसेढिदव्वादो असंखेजगुणं, फालीए आयामस्स गोवुच्छगुणगारं पेक्खिदूण असंखे०गुणत्तादो । तेण समयूणावलियमेत्तफद्दयउक्कस्सदव्वे आवलियफद्दयजहण्णदव्वादो सोहिदे सुद्धसेसं फद्दयंतरं होदि । एदं जहण्णदव्वमादि कादूण पदेसुत्तरकमेण णिरंतरं वड्ढावेदव्वं जाव सत्तमाए पुढवीए चरिमसमयणेरड्यस्स उकस्सदव्वं ति । एवं कदे मिच्छ त्तस्स आवलियमेत्तफद्दएहि अणंताणि ठाणाणि उप्पण्णाणि ।
६ १६३. संपहि आवलियमेत्तफद्दएसु पुव्वं सामण्णेण परूविदपदेसट्ठाणाणं विसेसिदूण परूवणं कस्सामो। एसा परूवणा पढमफद्दयपरूवणाए किण्ण परूविदा ? ण,
हुआ द्रव्य असंख्यातगुणा पाया जाता है, इससे भी जाना जाता है। दूसरे, अन्तिम फालीमें प्रविष्ट अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी गणश्रेणिकी गोपुच्छाएँ ही नीचे विगलित हुए सब द्रव्यसे असंख्यात गुणी हैं, क्योंकि असंख्यात गुणितश्र णीरूपसे उनका निक्षेपण हुआ है। तथा गोपुच्छाके आकार रूपसे स्थित फालीका द्रव्य तो अन्तिम फालीके अभ्यन्तरस्थित गुणश्रेणीके द्रव्यसे असंख्यातगुणा है; क्योंकि गोपुच्छाके गुणकारको अपेक्षा फालीका आयाम असंख्यातगुणा है। अतः एक समय कम आवलिप्रमाण स्पर्द्धकोंके उत्कृष्ट द्रव्यको आवलीप्रमाण स्पर्द्धकोंके जघन्य द्रव्यमेंसे घटानेपर जो शेष बचता है वह स्पर्द्धकोंका अन्तर होता है । इस जघन्य द्रव्यसे लेकर एक एक प्रदेश करके इसे तब तक बढ़ाना चाहिये जब तक सातवें नरकके अन्तिम समयवर्ती नारकीके उत्कृष्ट द्रव्य आवे। ऐसा करने पर मिथ्यात्वके आवलिप्रमाण स्पर्द्धकोंसे अनन्त स्थान उत्पन्न होते हैं।
विशेषार्थ-पहले एक समय कम एक आवलिप्रमाण स्पर्धकोंका कथन कर आये हैं। अब यहाँ पर अन्तिम स्थितिकाण्डकके पतनके अन्तिम समयमें जो जघन्य सत्कर्मस्थान होता है उससे लेकर मिथ्यात्वके उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक एक ही स्पर्धक होता है, यह बतलाया गया है। अन्तिम स्थितिकाण्डकके पतनके अन्तिम समयमें जघन्य सत्कर्मस्थान क्षपितकर्मा शिकके होता है और मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय जो गुणितकांशिकविधिसे आकर अन्तमें सातव नरकमें उत्पन्न होता है उस नारकीके भवके अन्तिम समयमें होता है। इस प्रकार यद्यपि इन जघन्य और उत्कृष्ट स्थानों में अधिकरी भेद है फिर भी इस जघन्य स्थानसे लेकर उत्कृष्ट स्थानके प्राप्त होने तक जितने भी स्थान प्राप्त होते हैं उनमें क्रमसे प्रदेशोत्तरवृद्धि सम्भव है, इसलिए इन सबक एक स्पर्धक माना गया है। यहाँ एक समय कम आवलिप्रमाण स्पर्धकोंमेंसे अन्तिम स्पर्धकके उत्कृष्ट द्रव्यसे इस स्पर्धकका जघन्य द्रव्य असंख्यातगुणा है। इसके स्वतंत्र स्पर्धक माननेका यही कारण है। एक समयकम स्पर्धकोंमेंसे अन्तिम स्पर्धकके उत्कृष्ट द्रव्यसे इस स्पर्धकका जघन्य दव्य असंख्यातगणा क्यों है इस प्रश्नका उत्तर वीरसेन स्वामीने मूलमें ही तीन प्रकारसे दिया है, इसलिए उसे वहाँसे जान लेना चाहिए।
६.६३ अब आवलिप्रमाण स्पर्द्धकोंमें पहले सामान्यरूपसे कहे गये प्रदेशस्थानोंका विशेषरूप से कथन करते हैं
शंका-प्रथम स्पर्द्धकका कथन करते समय इस कथन को क्यों नहीं किया ?
१. प्रा०प्रतौ'असंखेगुणसेढीए' इति पाठः । २. श्रा:प्रतौ 'असंखेजगुणफलीए' इति पाठः।
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गा०२२]
उत्तरपडिपदेसविहत्तीए सामित्तं आवलियमेत्तफद्दए अस्सिदूण हिदट्टाणपरूवणाए एकम्मि परूवणाणुववत्तीदो। जं जं जम्मि जम्मि फद्दयं परूविदं तत्थ तत्थ तहाणपरूवणा सुत्तेव किण्ण कदा १ ण, सवित्थराए फद्दयं पडि ढाणपरूवणाए कीरमाणाए गंथबहुत्तं होदि त्ति सयलफद्दए समुप्पण्णावगमाणं सिस्साणमेगफद्दयस्स हाणपरूवणं सवित्थरं काऊण अण्णासिं फद्दयहाणपरूवणाणमत्थेवंतब्भावपदुप्पायणटुं पच्छा तप्परूवणाकरणादो। ण च फद्दयं पडि पढमं चेव चउव्विहा द्वाणपरूवणा पण्णवणजोग्गा, अणवगयफद्दयंतरस्स तजाणावणे उवायाभावादो।
६ १६४. खविदकम्मंसियस्स कालपरिहाणिट्ठाणपरूवणा गुणिदकम्मंसियस्स कालपरिहाणिट्ठाणपरूवणा खविदकम्मंसियस्स संतकम्मट्ठाणपरूवणा गुणिदकम्मंसियस्स संतकम्मट्ठाणपरूवणा चेदि चउव्विहा हाणवरूवणा । तत्थ ताव वेछावद्विसागरोवमसमए एगसेढिआगारेण ढइदण' खविदकम्मंसियकालपरिहाणिहाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा-खविदकम्मंसियलक्खणेण कम्महिदिं सुहुमणिगोदेसु अच्छिय पलिदोवमस्स असंखे०भागमेत्तसंजमासंजमकंडयाणि तत्तो विसेसाहियसम्मत्तकंडयाणि अणंताणुबंधिविसंजोयणकंडयाणि च पुणो किंचूणअट्ठसंजमकंडयाणि चत्तारिवारं कसायउवसामणं
समाधान-नहीं, क्योंकि आवलीप्रमाण स्पर्धकों पर अवलम्बित स्थानोंका कथन एक स्पर्धकके कथनके समय नहीं किया जा सकता।
शंका—जो जो स्पर्धक जिस-जिस स्थानमें कहा है वहाँ-वहाँ उस स्थानका कथन सूत्रमें ही क्यों नहीं किया ?
___ समाधान नहीं, क्योंकि प्रत्येक स्पर्धकके प्रति स्थानोंका विस्तारपूर्वक कथन करने पर ग्रन्थ बड़ा हो जायगा। इसलिये सव स्पर्धकोंका जिन्हें ज्ञान हो गया है उन शिष्योंको एक स्पर्धकके स्थानोंका कथन विस्तारसे करके अन्य स्थानोंके कथनका इसीमें अन्तर्भाव कराने के लिये पीछेसे उनका कथन किया है। दूसरे प्रत्येक स्पर्धकके प्रति पहले ही स्थानोंका चार प्रकारका कथन बतलानेके योग्य नहीं है। क्योंकि जिसने स्पर्धकोंका अन्तर नहीं जाना है उसके लिये उनके ज्ञान करानेका कोई उपाय भी नहीं है।
१६४ क्षपितकाशकी कालपरिहानिस्थानप्ररूपणा, गुणितकर्मा शकी कालपरिहानिस्थानप्ररूपणा, क्षपितकाशकी सत्कर्मस्थानप्ररूपणा और गुणितकर्मा शकी सत्कर्मस्थानप्ररूपणा इस प्रकार चार प्रकारकी स्थानप्ररूपणा है। इनमेंसे दो छयासठ सागरप्रमाण कालको एक श्रेणीके आकार रूपमें स्थापित करके क्षपितकाशके कालकी हानिद्वारा स्थानकी प्ररूपणा करते हैं । वह इसप्रकार है-क्षपितकाशके लक्षणके साथ कर्मस्थिति काल तक सूक्ष्मनिगोदिया जीवोंमें रहकर, वहाँसे निकलकर पल्पोपमके असंख्यातवें भागप्रमाण संयमासंयमकाण्ड कोंको उससे कुछ अधिक सम्यक्त्वकाण्डकोंको और अनन्तानुबन्धीकषायके विसंयोजनाकाण्डकोंको करके फिर कुछ कम आठ संयमकाण्डकोंको करके और चार बार कषायोंका उपशमन करके असंज्ञी पञ्चेन्द्रियोंमें उत्पन्न हो । वहाँ देवायुका बन्ध करके मरकर देवोंमें उत्पन्न
१. ता०प्रतौ 'रहदूण इति पाठः।
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१७०
जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहती ५
च काढूण तदो असणिपंचिदिएसु उववज्जिय तत्थ देवाउअं बंधिदूण देवेसुववज्जिय छ पजत्तीओ समाणिय पुणो सम्मत्तं घेत्तूण वेडावहीओ भमिय तदो दंसणमोहणीयक्खवणाए अन्भुट्टिय मिच्छत्तस्स एट्ठिदिदुसमयकालप्रमाणे द्विदिसंत कम्म अच्छिदे जहण्णदव्वं होदि । एदमेगं ठाणं । पुणो अण्णम्मि जीवे पुव्वुत्तखविदकम्मं सियलक्खणेणागंतूण ओकडकड्डणमस्सिय एगपरमाणुणा अब्भहियमिच्छत्तजहण्णदव्वं धरेण तत्वावहिदे विदियद्वाणं । एसा अनंतभागवड्डी, जहण्णदव्वे तेणेव खंडिदे तत्थे खंडस वत्तादो । पुणो दोसु पदेसेसु वड्ढिदेसु सा चैव वड्डी, जहण्णदव्वदुभागेण जहण्णदव्वे भागे हिदे तत्थेगभागस्स वडिदत्तादो | एवं तिष्णि चत्तारि-आदि काढूण जाव संखेज- असंखेज- अणतपदेसेसु वहिदेसु विसा चैव वड्डी । पुणो जहण्णपरित्ताणंतेण जहण्णदव्वे खंडिदे तत्थेगखंडे जहण्णदव्वस्सुवरि वडिदे अणंतभागवड्डी परिसमप्पदि, जहण्णपरित्ताणंतादो हेट्ठिमासेससंखाए आणंतियाभावादो ।
$ १६५. पुणो दस्सुवरि एगपदेसे वडिदे असंखे ० भागवड्डी होदि । अवत्तव्यवड्डी किण्ण जायदे ? ण, अणंतासंखेजसंखाणमंतरे अण्णसंखाभावादो' । ण परियम्मेण वियहिचारी, तत्थ कलासंखाए विवक्खाभावादो ।
होकर छ पर्याप्तियोंको पूरा करके फिर सम्यक्त्वको ग्रहण करके दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करे। फिर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके लिये उद्यत होकर मिथ्यात्वके एक निषेककी दो समयप्रमाण स्थितिसत्कर्मके शेष रहने पर जघन्य द्रव्य होता है । यह एक स्थान है । कोई दूसरा जीव क्षतिकर्माशके पूर्वोक्त लक्षणके साथ आकर अपकर्षण- उत्कर्षणके आश्रयसे एक परमाणु अधिक मिध्यात्वके उक्त जघन्य द्रव्यको करके जब वहीं पाया जाता है तो दूसरा स्थान होता है । यह अनन्तभागवृद्धि है; क्योंकि यहाँ पर जघन्य द्रव्यमें जघन्य द्रव्यसे ही भाग देने पर लब्ध एक भागकी वृद्धि हुई है । पुनः जघन्यमें दो प्रदेशों के बढ़ने पर भी वही वृद्धि होती है; क्योंकि जघन्य द्रव्यके आधेका जघन्य द्रव्यमें भाग देने पर जो एक भाग लब्ध आया उसकी यहाँ वृद्धि पाई जाती है । इस प्रकार तीन, चार आदि प्रदेशों से लेकर संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रदेशोंके बढ़ने पर अनन्तभागवृद्धि ही होती है । पुन: जघन्य द्रव्य में जघन्य परीतानन्तसे भाग देकर लब्ध एक भागको जघन्य द्रव्य में मिला देने पर अनन्तभागवृद्धि समाप्त हो जाती है, क्योंकि जघन्य परितानन्त से नीचेकी सब संख्याएँ अनन्त नहीं हैं ।
१६५ फिर अन्तिम अनन्तभागवृद्धियुक्त जघन्य द्रव्यमें एक प्रदेशके बढ़ाने पर असंख्यात भागवृद्धि होती है ।
शंका- अवक्तव्यवृद्धि क्यों नहीं होती ?
समाधान नहीं, क्योंकि अनन्त और असंख्यात संख्या के बीच में अन्य संख्या नहीं है । इस कथनका परिकर्म नामक ग्रन्थमें किए गए कथनके साथ व्यभिचार भी नहीं आता; क्योंकि उसमें कलाओंकी संख्याको विवक्षा नहीं है ।
१. प्रा० प्रतौ० ' - मिच्छन्त धरेदूण' इति पाठः । २ श्र०प्रती ' वडिदेसु एसा चेव' इति पाठः । ३. ता०प्रतौ 'अण्णसंभा (भा) वादो' । श्र०प्रतौ 'अण्णासंखाभावादो' इति पाठः । ४. ताप्रतौ कालसंखाए इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१७१ ६ १६६. संपहि एदिस्से वडीए छेदभागहारपरू वणं कस्सामो। तं जहाजहण्णपरित्ताणंतं विरलेदूण समखंडं कादूण एवं पडि जहण्णदव्वे दिण्णे एकेक्कस्स रूवस्स जहण्णपरित्ताणतेणोवट्टिदजहण्णदव्वं पावदि । पुणो एदिस्से विरलाणाए हेटा वड्डिरूओवट्टिदएगरूवधरिदं विरलिय समखंडं कादूण एगरूवधरिदे चेव दिण्णे रूवं पडि एगेगपदेसो पावदि । पुणो एत्थ एगरूवधरिदे उवरिमविरलणाए एगेगरूवधरिदस्सुवरि हविदे संपहि पड्दिददव्वं होदि । हेहिमविरलणं रूवाहियं गंतूण जदि एगरू वपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणाए जहण्णपरित्ताणंतपमाणाए केवडियरूवपरिहाणिं पेच्छामो ति पमाणेण फलगुणिदच्छाए ओवट्टिदाए एगरूवस्स अणंतिमभागो आगच्छदि । पुणो एदम्मि जहण्णपरित्ताणंतविरलणाए एगरूवादो कदसरिसछेदादो सोहिदे सुद्धसेसमेगरूवस्स अर्णता भागा उक्कस्समसंखेजासंखेजं च भागहारो होदि । संपहि एदस्स एगरूवस्स जाव अणंता भागा झिजंति ताव छेदभागहारो चेव । पुणो तेसु सव्वेसु झीणेसु समभागहारो।
$ १६६. अब इस वृद्धिके छेद भागहारका कथन करते हैं, जो इस प्रकार है-जघन्यपरितानन्तका विरलन करके उसके प्रत्येक एक-एक रूप पर जघन्य द्रव्यके बराबर-बराबर खण्ड करके देने पर एक-एक रूप पर जघन्य परीतानन्तसे भाजित जघन्य द्रव्य आता है। फिर इस विरलनके नीचे वृद्धिरूपके द्वारा भाजित एक रूप पर स्थापित द्रव्य करके उसके उपर एक रूप पर स्थापित द्रव्यके ही समान खण्ड करके देने पर प्रत्येक एक पर एक-एक प्रदेश प्राप्त होता है। फिर यहाँ एक रूप पर स्थापित एक प्रदेशको ऊपरकी विरलन राशिके एक एक रूपपर स्थापित द्रव्यके ऊपर रखने पर इस समय बढ़े हुए द्रव्यका परिमाण होता है । रूप अधिक नीचेके विरलनके जाने पर यदि एक रूपकी हानि प्राप्त होती है तो ऊपरके जघन्य परीतानन्तप्रमाण विरलनमें कितने रूपोंकी हानि होगी, इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे इच्छाराशिको गुणा करके उसमें प्रमाणराशिसे भाग देने पर एक रूपका अनन्तवां भाग आता है। फिर इस अनन्तवें भागको जघन्य परीतानन्तप्रमाण विरलनराशिके एक विरलनमेंसे समान छेद करके उसमेंसे घटाने पर एक रूपका अनन्त बहुभाग और उत्कृष्ट असंख्यतासंख्यात भागहार प्राप्त होता है। अब इस रूपके अनन्त बहुभाग जब तक क्षयको प्राप्त होते हैं तब तक तो छेदभागहार ही रहता है। किन्तु उन सबके क्षीण होने पर समभागहार होता है।
उदाहरण-जघन्य द्रव्य ६४ ज. परीतानन्त ४ वृद्धिरूप १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १ १
एक अधिक नीचेके विरलन जाने पर यदि एककी हानि प्राप्त होती है तो उपरिम विरलनके प्रति कितनी हानि प्राप्त होगी । इस प्रकार त्रैराशिक करने पर की हानि प्राप्त हुई। अब इसे एकमेंसे घटा देने पर 3 रहे । पुनः इसे उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यातमें जोड़ देने पर ६९ आये । यहाँ यही भागहार है, क्योंकि इसका भाग जघन्य द्रव्यमें देने पर इच्छित द्रव्य
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ १६७. एवं एदेण कमेण खविदकम्मंसियजहण्णदव्वस्सुवरि वढावेदव्वं जाव तप्पाओग्गएगगोवुच्छविसेसो पयदगोवुच्छाए एगसमयमोकड्डिदूण विणासिददव्वं विज्झादभागहारेण परपयडिसरूवेण गददव्वं वडिदं ति । एवं वविदण द्विदो जहण्णसामित्त विहाणेग आगंतूण समयूणवेछावहिं भमिय मिच्छत्तं खविय एगणिसेगदुसमयकालपमाणं धरेदूण द्विदो च सरिसो। ___ १६८. संपहि पुविल्लखवगं मोत्तूण इमं समयूणवेछावहिं भमिय खवेदूणच्छिदखवगं घेत्तूण एदस्स दव्वं परमाणुत्तरदुपरमाणुत्तरादिकमेण दोहि वड्डीहि एगो तप्पाओग्गगोवुच्छविसेसो पयदगोवुछाए एगवारमोकड्डिय विणासिददव्वं तत्तो एगसमएण परपयडीसु संकामिददव्वं च वडिदं ति । एवं वद्भिदणच्छिदो अण्णेगेण खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण दुसमयूणवेछावहिं भमिय एगणिसेगं दुसमयकालहिदि धरेदूणच्छि देण सरिसो।
६ १६९. तं मोत्तूण दुसमयूणवेछावडीओ' हिंडिदूण हिदखवगदव्यं घेत्तुण पुणो एदं परमाणुत्तर-दुपरमाणुत्तरादिकमेण वड्ढावेदव्वं जाव एगो गोवुच्छविसेसो पयदगोवुच्छाए एगवारमोकड्डिदूण विणासिजमाणदव्वं तत्तो विज्झादसंकमेण गददव्वं
१७ आ जाता है।
६ १६७. इस प्रकार इस क्रमसे क्षपितकाशके जघन्य द्रव्यके ऊपर तब तक वृद्धि करनी चाहिये जब तक उसके योग्य एक गोपुच्छ विशेष, प्रकृत गोपुच्छमें एक समयमें अपकर्षण करके विनष्ट हुआ द्रव्य और विध्यातभागहारके द्वारा परप्रकृति रूपसे गये हुए द्रव्यकी वृद्धि हो । इस प्रकार वृद्धिको प्राप्त हुआ जीव और जघन्य स्वामित्वके विधानके अनुसार आकर एक समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके फिर मिथ्यात्वका क्षपण करके दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करनेवाला जीव ये दोनों समान हैं।
६१६८. अब पूर्वोक्त क्षपकको छोड़कर इस एक समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके मिथ्यात्वका क्षपण करके स्थित क्षपकको लेकर और इसके जघन्य द्रव्यके ऊपर एक परमाणु, दो परमाणुके क्रमसे अनन्तभागवृद्धि और असंख्यातभागवृद्धिके द्वारा उसके योग्य एक गोपुच्छविशेष, प्रकृत गोपुच्छामें एकबार अपकषर्ण करके विनष्ट हुआ द्रव्य और उस गोपुच्छामें से एक समयमें परप्रकृतियोंमें सक्रान्त हुआ द्रव्य बढ़ाओ । इस प्रकार वृद्धिको करके स्थित हुआ जीव क्षपितकाशके लक्षणके साथ आकर दो समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करनेवाले अन्य जीवके समान है।
६१६९. पुनः उसको छोड़कर दो समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके स्थित क्षपकके द्रब्यको लो। फिर इसके एक परमाणु, दो परमाणु के क्रमसे तब तक बढ़ाना चाहिये जब तक एक गोपुच्छविशेष, प्रकृतिगोपच्छमें एकबार अपकर्षण करके विनाशको प्राप्त होनेवाले द्रव्य और उसमेंसे विध्यातभागहारके द्वारा संक्रमणको प्राप्त हुए द्रव्यकी
१. भा०प्रतौ 'दुसमयवेछावडिओ इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१७३ च वड्डिदं ति । एवं वड्डिदूण हिदेण तिसमयूणवेछावहिं भमिय एगणिसेगं दुसमयकालहिदियं धरेदूण हिदो सरिसो । एवं चदु-पंचसमयणादिकमेण ओदारेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तूणा विदियछावहि त्ति ।
१७०. संपहि विदियछावट्ठिपढमसमए वेदगसम्मत्तं पडिवजिय अंतोमुहुत्तं' गमेदूण मिच्छत्तं खविय द्विदस्स तदेगणिसेगदव्वं दुसमयकालद्विदियं घेत्तूण परमाणुत्तरदुपरमाणुत्तर दिकमेण दोहि वड्डीहि अंतोमुहुत्तमेत्तगोवुच्छविसेसा अहियारहिदीए अंतोमुहुत्तमोकड्डिदण विणासिददव्वं पुणो जहण्णसम्मत्तद्धामेत्तकालं विज्झादेण परपयडीसु संकामिददव्वं च वड्डावेदव्वं । एत्थ अंतोमुहुत्तपमाणं' केत्तियं ? विदियछावहिपढमसमयप्पहुडि जहण्णसम्मत्तद्धासहिदमिच्छत्तक्खवणद्धमेतं हेडिमसम्मत्तसम्मामिच्छत्तक्खवणद्धामेत्तेग सादिरेयं । ओकडकड्डणभागहारोणाम पलिदो० असंखे०भागो। तं विरलिय अप्पिदणिसेगे समखंडं कादूण दिण्णे तत्थेगेगखंडे पडिसमयं हेट्ठा णिवदमाणे वेछावहिसागरोवमकालेण मिच्छत्तस्स सव्वे समयपबद्धा बंधाभावेण परपयडिदव्त्रपडिच्छण्णेण सगदव्वुक्कड्डणाए च उम्मुक्का कथं ण णिल्लेविजंति ? ण, उवसामणा-णिकाचणावृद्धि हो । इस प्रकार वृद्धिको करके स्थित हुआ जीव और तीन समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करनेवाला जीव ये दोनों समान होते हैं। इस प्रकार चार समय कम पच समय कम आदिके क्रमसे अन्तमुहूतकम दूसरे छयासठ सागर काल तक उतारते जाना चाहिये।
$ १७०. अब दूसरे छयासठ सागरके प्रथम समयमें वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त करके अन्तर्मुहूर्त काल बिताकर मिथ्यात्वका क्षपण करके स्थित जीवके दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको लेकर उसपर एक परमाणुके क्रमसे अनन्तभागवृद्धि और असंख्यातभागबृद्धिके द्वारा अन्तर्मुहूर्तप्रमाण गोपुच्छविशेष, अधिकृत स्थितिमें अन्तर्मुहूर्त कालतक अपकर्षण करके विनष्ट हुआ द्रव्य और सम्यक्त्वके जघन्य काल पर्यन्त विध्यातभागहारके द्वारा अन्य प्रकृतियोंमें संक्रान्त हुए द्रव्यको बढ़ाना चाहिये।
शंका-यहाँ अन्तर्मुहूर्तका प्रमाण कितना है ?
समाधान-यहाँ दूसरे छयासठ सागरके प्रथम समयसे लेकर सम्यक्त्वके जघन्यसहित मिथ्यात्वके क्षपण कालप्रमाण अन्तर्मुहूर्त है जो कि अधस्तन सम्यक्त्वप्रकृति और सम्यग्मिथ्यात्वके क्षपणकालसे अधिक है।
शका-अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारका प्रमाण पल्यका असंख्यातवां भाग है। उसका विरलन करके विवक्षित निषेकोंके समान खण्ड करके उसपर दो। उनमेंसे प्रतिसमय एक-एक खण्डका नीचे पतन होने पर दो छयासठ सागरप्रमाण कालके द्वारा मिथ्यात्वके सब समयप्रवद्धोंका अभाव क्यों नहीं हो जाता; क्योंकि मिथ्यात्वके बन्धका अभाव होनेसे न तो उसमें अन्य प्रकृतियोंका द्रव्य ही आता है और न अपने द्रव्यका उत्कर्षण ही संभव है ? .
समाधान नहीं, क्योंकि यद्यपि मिथ्यात्वके स्कन्ध उक्त कालके भीतर परिणामान्तरको
१. श्रा०प्रतौ 'पडि अंतोमुहुत्त' इति पाठः । २. ता०प्रतौ 'एव (द)मंत्तोमुहुत्तपमाणं' आप्रतौ 'एवमंतोमुहुत्तपमाणं' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ णिधत्तिकरणेहि परिणामंतरमुवगयाणं मिच्छत्तकम्मक्खंधाणं सव्वेसि पि परपयडिसंकमोकड्डणाणमभावादो। ण च ओकड्डिदासेसपरमाण सव्वे वि वेछावद्विसागरोवममेत्तहेहिमणिसेगेसु चेव णिवदंतिः अप्पिदणिसेगादो हेहा आवलियमेत्तणिसेगे अइच्छिद्ण सव्वणिसेगेसु ओकड्डिदकम्मक्खंधाणं पदणुवलंभादो। पलिदोवमस्स असंखे०भागमेत्तकालेण जदि एगावलियमेत्तणिसेगट्ठिदी उवरिमाओ पिल्लेविजंति तो वेछावहिसागरोवमकालेण केत्तियाओ पिल्लेविजंति त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए
ओवट्टिदाए पलिदो० असंखे०भागमेत्तणिसेगाणं पिल्लेवणुवलंभादो ण सव्वाहिदीओ जिल्लेविजंति । किं च ण सव्वणिसेगाणमोकड्डुक्कड्डणभागहारो पलिदो० असंखे भागो चेव होदि ति णियमो, जवसामणा-णिकाचणा-णिवत्तीकरणेहि पडिग्गहिदणिसेगेसु असंखे०लोगमेत्तभागहारस्स वि उदयावलियबाहिरणिसेगाणं व तत्थवलंभादो। ण च उवसामणा-णिकाचणा-णिवत्तीकरणाणि एगेगणिसेगकम्मक्खंधाणमेवदिए भागे चेव वति त्ति णियमो अस्थि, तप्पडिबद्धजिणवयणाणुवलंभादो। तम्हा ण सव्वे णिसेगा जिल्लेविनंति त्ति सिद्धं । एवं वड्डिदृणच्छिदक्खवगेण खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सम्मामिच्छ त्तं पडिवजिय पढमछावहिं भमिय पुव्वं व सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णपढमसमयम्मि सम्मामिच्छत्तमपडिवजिय' तत्थ दंसणमोहणीयक्खवणं प्राप्त नहीं होते हैं पर उपशामना, निकाचना और निधत्तिकरणके कारण उन सभी कर्मस्कन्धोंका पर प्रकृतिरूपसे संक्रमण और अपकर्षण नहीं होता। तथा अपकृष्ट हुए सभी परमाणु दो छयासठ सागर कालप्रमाण नीचेक निषकोंमें ही नहीं गिरते; किन्तु विक्षित निषेकसे नीचेके आवलिप्रमाण निषेकोंको छोड़कर बाकी के सब निषेकोंमें अपकृष्ट कर्मस्कन्धोंका पतन पाया जाता है। दूसरे पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र कालके द्वारा यदि ऊपरके एक आवलिप्रमाण निषेकोंकी स्थिति नष्ट होती है तो दो छयासठ सागरप्रमाण कालके द्वारा कितनी निषेकस्थितियोंका ह्रास होगा, इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे इच्छाराशिको गणा करके प्रमाणराशिसे उसमें भाग देने पर इतने कालके द्वारा असंख्यातवें भाग निषेकोंका विनाश पाया जाता है; सब स्थितियोंका विनाश नहीं होता। तीसरे सब निषेकोंका अपकर्षण उत्कर्षण भागहार पल्पके असंख्यातवें भाग ही होता है ऐसा नियम नहीं है, क्योंकि उपशमना, निकाचना और निधत्तिकरणके द्वारा स्वीकृत निषेकोंके रहते हुए उदयावलीबाह्य निषेकोंकी तरह उनमें असंख्यात लोकप्रमाण भागहार भी पाया जाता है। तथा उपशामना, निधत्ति और निकाचनाकरण एक-एक निषेकरूप कर्मस्कन्धोंके इतने भागमें ही होते हैं ऐसा नियम नहीं है; क्योंकि इस बातका नियामक कोई जिनबचन नहीं पाया जाता, इसलिये सब निषेकोंका विनाश नहीं होता यह सिद्ध हुआ।
इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुये क्षपकसे, क्षपितकाशके लक्षणके साथ आकर, सम्यक्त्वको प्राप्त करके, प्रथम छयासठ सागर तक भ्रमण करके, तदनन्तर पहले सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त करता था सो न करके सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त करनेके कालके प्रथम समयमें दर्शन
१.भा.प्रती 'पडिग्गहिदाणिसेगेसु' इति पाठः। २. ता०प्रतौ 'सम्मामिच्छत्तं(म)पडिवजिय' इति पाठः।
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गा०२२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१७५ पारभिय पुविल्लसम्मामिच्छत्तकालभंतरे मिच्छत्तचरिमफालिं सम्मामिच्छत्तस्सुवरि पक्खिविय समयूणावलियमेत्तगुणसेढिगोवुच्छाओ गालिय द्विदस्स एगणिसेगदव्वं दुसमयकालहि दियं सरिसं । अधवा एत्थ अक्कमेण विणा कमेण समयूणादिसरूवेण ओयरणं पि संभवदि तं चिंतिय वत्तव्वं ।। ___$ १७१. संपधि इमं घेत्तूण एदम्मि परमाणुत्तर-दुपरमाणुत्तरादिकमेण एगो गोवुच्छविसेसो पगदिगोवुच्छाए एगवारमोकड्डिददव्वं विज्झादसंकमण गददव्वं च वड्ढावेदव्वं । एवं बड्डिदूण हिदेण अण्णो जीवो समयूणपढमछावढि भमिय मिच्छत्तं खविय एगणिसेगं दुसमयहिदियं धरेदण हिदो सरिसो। एवं पढमछावट्ठी वि समयूणादिकमेण ओदारेदव्वा जाव अंतोमुहुत्तणपढमछावही सव्वा ओदिण्णे त्ति ।
___ १७२. तत्थ सव्वपच्छिमवियप्पो वुच्चदे । तं जहा-जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण उवसमसम्मत्तं पडिवजिय पुणो वेदगसम्मत्तं घेत्तूण तत्थ सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय दंसणमोहणीयक्खवणाए अब्भुडिय मिच्छत्तं खविय तत्थ एगणिसेगं दुसमयकालहि दि धरेदूण द्विदो । एसो सव्वपच्छिमो । एदस्स दव्वं चत्तारि पुरिसे अस्सिद ण वड्ढावेदव्वं जाव अपुव्वगुणसेढीए पयडि-विगिदिगोवुच्छाणं च दव्वमुक्कस्सं जादं त्ति । एवं वड्डाविदे अणंताणि द्वाणाणि पढमफद्दए उप्पण्णाणि । मोहनीयके क्षपणका प्रारम्भ करके, सम्यग्मिथ्यात्वके पूर्वोक्त कालके अन्दर मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिको सम्यग्मिथ्यात्वमें क्षेपण करके और एक समय कम आवली प्रमाण गुणश्रोणिकी गोपुच्छाओंका गालन करके स्थित जीवका दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकका द्रव्य समान होता है । अथवा यहाँ अक्रमके बिना क्रमसे एक समय कम, दो समय कम आदि रूपसे उतारना भी संभव है। उसे विचार कर कहना चाहिये।
१७१. अब इस उक्त द्रव्यको लेकर उसमें एक परमाणु, दो परमाणु आदिके क्रमसे एक गोपच्छा विशेष प्रकृतिगोपच्छामें एकबार अपकृष्ट किया हुआ द्रव्य और विध्यातसंक्रमणके द्वारा अन्य प्रकृतिरूप हुआ द्रव्य बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके एक समयकम प्रथम छयासठ सागर तक भ्रमण करके फिर मिथ्यात्वका क्षपण करके दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करनेवाला अन्य जीव समान है। इस प्रकार प्रथम छयासठ सागरको दो समय कम आदिके क्रमसे तब तक उतारना चाहिये जब तक अन्तर्मुहूतकम प्रथम छयासठ सागर पूरे हों।
१७२. अब उनमेंसे सबसे अन्तिम विकल्पको कहते हैं। वह इस प्रकार है-जघन्य स्वामित्वकी जो विधि कही है उस विधिसे आकर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करके फिर वेदक सम्यक्त्वको ग्रहण करके, वेदक सम्यक्त्वमें सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हो, फिर मिथ्यात्वका क्षपण करके मिथ्यात्वके दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करे। वह सबसे अन्तिम विकल्प है। इसके द्रव्यको चार परुषोंकी अपेक्षासे तब तक बढ़ाना चाहिये जब तक अपूर्वकरणसम्बन्धी गुणश्रेणि और प्रकृतिगोपुच्छा तथा विकृतिगोपुच्छाका उत्कृष्ट द्रब्य हो । इस प्रकार बढ़ानेपर प्रथम स्पर्धकमें अनन्त स्थान उत्पन्न होते हैं।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ _____ १७३. संपहि विदियफद्दयमस्सिदृण हाणपरूवणं कस्सामो। तं जहाखविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण वेछावहिओ भमिय दंसणमोहणीयक्खवणाए अब्भुट्ठिय मिच्छत्तं खविय तत्थ दोणिसेगे तिसमयकालहिदीए धरेदूण द्विदस्स अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं विदियफद्दयं पडि सव्वजहण्णमुप्पजदि । कुदो एदस्स विदिय
विशेषार्थ-मिथ्यात्वकी दो समयवाली एक निषेक स्थितिसे लेकर सातवें नरकमें भवके अन्तिम समयमें होनेवाले उत्कृष्ट प्रदेशसञ्चयके प्राप्त होने तक कुल स्पर्धक एक आवलिप्रमाण होते हैं इस बातका निर्देश पहले कर ही आये हैं । अब यहाँ इन स्पर्धकोंमेंसे किस स्पर्धकमें कितने प्रदेशसत्कर्म स्थान होते हैं यह बतलानेका प्रक्रम किया गया है । जीव दो प्रकारके हैं-एक क्षपितकर्माशिक और दूसरे गुणितकांशिक । एक तो यह कोई नियम नहीं कि सभी क्षपितकांशिक और गुणितकर्माशिक जीवोंके मिथ्यात्वके सभी प्रदेशसत्कर्मस्थान एक समान होते हैं। क्रियाविशेषके कारण उनमें अन्तर होना सम्भव है। दूसरे ये जीव निश्चित समयमें पहुँचकर ही मिथ्यात्वकी क्षपणा करते हैं यह भी कोई नियम नहीं है। इनके सिवा ऐसे भी जीव होते हैं जो न तो क्षपितकर्माशिक ही होते हैं और न गुणितकर्माशिक
ही। इसलिए एक-एक स्पर्धकगत प्रदेशभेदसे अनन्त सत्कर्मस्थान बनते हैं। यहाँ सर्व प्रथम मिथ्यात्वको दो समय कालवाली एक स्थितिके शेष रहने पर जघन्य स्थानसे लेकर उत्कृष्ट स्थान तक कुल कितने स्थान उत्पन्न होते हैं यह घटित करके बतलाया गया है। उत्तरोत्तर एक एक प्रदेशकी वृद्धि होकर किस प्रकार स्थान उत्पन्न हुए हैं इसका स्पष्ट निर्देश मलमें किया ही है, इसलिये वहाँ से जान लेना चाहिये । यहाँ पर प्रसङ्गसे मिथ्यात्वके द्रव्यका अपकर्षण होते रहनेसे उसका अभाव क्यों नहीं होने पाता इसका भी खुलासा किया है । क्षपणाके पूर्व मिथ्यात्वके द्रव्यके अभाव न होनेके जो कारण दिये हैं वे ये हैं-१. अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार का भाग देकर मिथ्यात्वके जिन परमाणुओंका अपकर्षण होता है उनका निक्षेप अतिस्थापना. वलिको छोड़कर नीचेके उदयावलि बाह्य सव निषेकोंमें होता है। २. मिथ्यात्वके प्रत्येक निषेकमें न्यूनाधिक ऐसे भी परमाणु होते हैं जिनका उपाशमना, निधत्ति और निकाचनारूपपरिणाम होनेसे न तो संक्रमण ही हो सकता है और न अपकर्षण ही । ३. ऊपर के एक आवलिप्रमाण निषेकोंका अभाव करनेमें पल्यका असंख्यातवाँ भागप्रमाण काल लगता है, इसलिये दो छयासठ सागरप्रमाण कोलके भीतर ऊपरके पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण निषेकोंका ही अभाव हो सकता है तथा ४. सव निषेकोंका अपकर्षण-उत्कर्षणभागहार पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण ही है ऐसा एकान्त नियम नहीं है किन्तु उपशामना आदिके कारण कहीं भागहारका प्रमाण असंख्यात लोकप्रमाण भी पाया जाता है और भागहारके बड़े होनेसे लब्ध द्रव्य स्वल्प होगा यह स्पष्ट ही है । ये तथा ऐसे ही कुछ अन्य कारण हैं जिनके कारण क्षपणके पूर्व वेदकसम्यक्त्वके उत्कृष्ट कालके भीतर मिथ्यात्वके सब द्रव्यका अभाव नहीं होता । इस प्रकार प्रथम स्पर्धकके भीतर जघन्य सत्कर्मस्थानसे लेकर उत्कृष्ट सत्कर्मस्थानतक जो अनन्त स्थान होते हैं वे उत्पन्न कर लेने चाहिये।
६१७३. अब दूसरे स्पर्धककी अपेक्षा स्थानोंका कथन करते हैं । वह इस प्रकार हैंक्षपितकाशके लक्षणके साथ आकर दो छयासठ सागर तक भ्रमण करके दर्शनमोहनीयकी क्षपणाके लिए तैयार होकर, मिथ्यात्वको क्षपणा करके मिथ्यात्वके तीन समयकी स्थितिवाले दो निषेकोंको धारण करके स्थित हुए जीवके दूसरे स्पर्धकका सबसे जघन्य अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१७७ फद्दयत्तं ? अंतरिदृणुप्पण्णत्तादो। केवडियमेत्तमंतरं ? अणियट्टिगुणसेढीए असंखेजा भागा। तं जहा-तिसमयकालडिदिएसु दोणिसेगेसु दोपयडिगोवुच्छाओ दोविगिदिगोवुच्छाओ दो-दोअपुव्व-अणियट्टिगुणसेढिगोवुच्छाओ च अस्थि । संपहि गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण उवसमसम्मत्तं पडिवन्जिय पढमछावढेि पढमसमए वेदगसम्मत्तं घेत्तण' जहण्णमंतोमुत्तमच्छिय मिच्छत्तं खवेदूण तत्थ एगणिसेगं दुसमयकालहिदि धरेदूण हि दस्स एगुक्कस्सपयडिगोवुच्छा पुव्वं भणिदूणागदस्स दोजहण्णपयडिगोवुच्छाहितो असंखेजगुणा । कुदो, ? बहुजोगेण संचिदत्तादो वेछावट्टिकालेण अपत्तक्खयत्तादो च । पुबिल्लदोविगिदिगोवुच्छाहिंतो एत्थतणी एगा उक्कस्सविगिदिगोवुच्छा असंखेजगुणा । कारणं सुगमं । खविदकम्मंसियचरिमदुचरिमजहण्णअपुव्वगुणसेढिगोवुच्छाहिंतो गुणिदकम्मंसियस्स उकस्सअपुव्वगुणसेढिगोवुच्छा एकल्लिया वि असंखे०गुणा । कुदो ? उ कस्सअपुव्वकरणपरिणामेहि संचिदत्तादो। एत्थ गुणसेढीए पदेसबहुत्तस्स ओकड्डिजमाणपयडीए पदेसबहुत्तमकारणं', परिणामबहुत्तेण गुणसेढिपदेसग्गस्स बहुत्तुवलंभादो । अणियट्टिकरणचरिमसमए गुणसेढिगोवुच्छा' पुण उभयत्थ सरिसा; अणियष्ट्रिपरिणामाणमेकम्मि समए वट्टमाणासेस
शंका—यह दूसरा स्पर्धक कैसे है ? समाधान-क्योंकि यह अन्तर देकर उत्पन्न हुआ है। शंका-कितना अन्तर है ?
समाधान-अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी गुणश्रोणिके असंख्यात बहुभागप्रमाण अन्तर है। खुलासा इसप्रकार है-तीन समयकी स्थितिवाले दो निषेकोंमें दो प्रकृतिगोपुच्छा, दो विकृतिगोपुच्छा, दो अपूर्वकरणसम्बन्धी गुणश्रोणिगोपच्छा और दो अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी गुणश्रोणिगोपुच्छा हैं और गुणितकाशके लक्षणके साथ आकर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त करके फिर प्रथम छयासठ सागरके प्रथम समयमें वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके, जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालतक बेदकसम्यक्त्वके साथ रहकर फिर मिथ्यात्वका क्षपण करके मिथ्यात्वके दो समयकी स्थितिवाले एक निपेकके धारक जीवकी एक उत्कृष्ट प्रकृतिगोपुच्छा है । वह पहले कही हुई विधिसे आये हुए जीवकी दो जघन्य प्रकृतिगोपुच्छाओंसे असंख्यातगुणी है; क्योंकि एक तो उसका संचय बहुत योगके द्वारा हुआ। दूसरे दो छथासट सागर कालके द्वारा उसका क्षय भी नहीं हुआ है। इसी तरह पूर्वोक्त जीवकी दो विकृतिगोपच्छाओंसे इस गुणितकोशकी एक उत्कृष्ट विकृतिगोपुच्छा असंख्यातगुणी है। इसका कारण सुगम है। क्षपितकाशकी जघन्य अपूर्वकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिकी अन्तिम और द्विचरमगोपुच्छाओंसे गुणितकाशकी उत्कृष्ट अपूर्वकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिकी गोपच्छा अकेली भी असंख्यातगुणी है, क्योंकि अपूर्वकरणसम्बन्धी उत्कृष्ट परिणामोंसे उसका संचय हुआ है। यहाँ गुणश्रोणिमें बहुत प्रदेश होनेका कारण अपकर्षणको प्राप्त प्रकृतिके बहुत प्रदेशोंका होना नहीं है, क्योंकि परिणामोंकी बहुतायतसे गुणणिमें प्रदेश संचयकी बहुतायत पाई जाती है। किन्तु अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिकी अन्तिम गोपच्छा दोनों जगह समान है, क्योंकि एक समयमें वर्तमान सभी जीवोंके अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी
१. आ०प्रतौ 'घेत्तूण' इति स्थाने 'गंतूण' इति पाठः । २. ता०प्रतौ 'पदेसबहुत्तं कारणं' इति पाठः । ३. आ०प्रती'-चरिमगुणसेढिगोपुक्छा' इति पाठः ।
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
जीवाणं विसरिसत्ताणुवलंभादो । जदि एवं तो समाणसमए वट्टमाणख विद-गुणिदकम्मंसियाणं अपुव्वगुणसेढिगोबुच्छाओ णियमेण सरिसाओ किण्ण होंति ९ ण, समयं पडि अपुव्वपरिणामाणं असंखेजलोगपमाणाण मुवलंभादो । खविद-गुणिद कम्मं सियाणं समाणापुव्वकरणपरिणामाणं पुण गुणसेढिगोवृच्छाओ सरिसाओ चेवः पदेसविसरिसत्तस्स कारणपरिणामाणं विसरिसत्ताभावादो । जदि वि सरिस अपुव्वकरणपरिणामा विसरिसगुणसेढिणिसेयस्स कारणं तो सव्वापुव्वकरण परिणामेहि अपुव्व - अपुव्वेण चैव गुणसेढिपदेसविण्णासेण होदव्वमिदि १ ण, सव्वापुव्वकरणपरिणामेहि अपुव्वा चैव गुणसेढिपदेसविण्णासो होदि ति नियमाभावादो । किं तु अंतोमुहुत्तमेत्तसगद्धासमएस एगेगसमयं पडि जहण्णपरिणामहाण पहुडि छहि वड्डीहि गदअसंखेज लोगमेत्तपरिणामहासु पढमपरिणामादो तप्पाओग्गासंखेज लोगमे तपरिणामट्ठाणेस गदेसु एगो अपुव्यपदेसविण्णास णिमित्तपरिणामो होदि । हेहिमावसेसपरिणामा 'समाणगुणसेढिपदेसविष्णासे णिमित्तं । एवमेदेण कमेण पुणो पुणो उच्चिण्णिदूण गहिदासेसपरिणामा एगेगसमयपडिबद्धा असंखे • लोगमेत्ता होंति । ते च अण्गोण्णपदेसविण्णासं पक्खिदूण असंखेज्जभागवडिणिमित्ता । पडिभागो पुण असंखेज्जा लोगा । गुणहाणि - सलागाओ पुण एत्थ असंखेजा । सुतेण विणा एदं कथं गव्वदे ? सुत्ताविरुद्धतेण परिणामों में विसदृशता नहीं पाई जाती ।
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शंका- यदि ऐसा है तो समान समयवर्ती क्षपितकर्माश और गुणितकर्मांश जीवोंकी अपूर्वकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिकी गोपुच्छाएँ नियमसे समान क्यों नहीं होतीं ?
समाधान — नहीं, क्योंकि प्रतिसमय अपूर्व परिणाम असंख्यात लोकप्रमाणप हैं। हां, जिन क्षपितकर्माश और गुणितकर्माश जीवोंके अपूर्वकरणसम्बन्धी परिणाम समान होते हैं उनकी गुण णिकी गोपुच्छाएँ समान ही होती हैं, क्योंकि प्रदेशों में विसदृशता होनेके कारण परिणाम हैं और वहाँ परिणामों में विसदृशताका अभाव है ।
शंका- यदि अपूर्वकरण परिणामोंकी विसदृशता गुणश्रेणिके निषेकोंकी विसदृशताका कारण है तो सब अपूर्वकरणपरिणामों के द्वारा गुणश्र ेणिके प्रदेशोंका निक्षेप अपूर्व - अपूर्व ही होना चाहिये ?
समाधान — नहीं, क्योंकि सब अपूर्वकरण परिणामोंके द्वारा गुणश्रेणिके प्रदेशोंका निक्षेप अपूर्व ही होता है ऐसा नियम नहीं है । किन्तु अपूर्वकरणके अन्तर्मुहूर्तकाल के समय में से प्रत्येक समय में जघन्य परिणामस्थान से लेकर छ वृद्धियोंसे युक्त असंख्यात लोकप्रमाण परिणामस्थानों में से प्रथम परिणामसे लेकर तत्प्रायोग्य असंख्यात लोकप्रमाण परिणामस्थानोंके जाने पर अपूर्व प्रदेशों के निक्षेपमें निमित्त एक परिणाम होता है । और उससे पूर्वके शेष परिणाम समान गुणश्रेणिकी प्रदेशरचनाके कारण हैं । इस प्रकार इस क्रमसे एक एक समयसम्बन्धी एकत्रित किये गये सब परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण हैं और परस्परकी प्रदेश रचनाको देखते हुए वे परिणाम असंख्यात भागवृद्धिमें निमित्त होते हैं । यहाँ प्रतिभागरूप असंख्यातका प्रमाण असंख्यात लोक है । परन्तु गुणहानिशलाकाएँ यहाँ अपंख्यात हैं ।
१. ता० प्रती 'हिमवसेणपरिणाम' श्राप्रतौ 'हेहिमावसेसपरिणाम इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१७९ सुत्तसमाणाइरियवयणादो। एत्थेव वेदगो णाम अत्थाहियारो उवरि अत्थि । तत्थ उक्कस्सयपदेसउदीरणाए जहण्णमंतरमंतोमुहुत्तमिदि पठिदं । तं जहा—गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण संजमाहिमुहचरिमसमयमिच्छादिहिणा उक्कस्सविसोहिहाणेण पदेसुदीरणाए उकस्साए कदाए आदी जादा । पुणो संजमं घेत्तूणंतरिय अंतोमुहुत्तमच्छिय मिच्छत्तं गंतूण संजमाहिमुहो होदूण मिच्छादिहिचरिमसमए तेणेव उक्स्सविसोहिट्ठाणेण उक्कस्सपदेसुदीरणाए कदाए जहण्णमंतरं ति सुत्ते भणिदं तेण जाणिजदि जधा खविद-गुणिदकम्मंसियाणं समाणपरिणामेसु ओकड्डणा सरिसी चेव होदि त्ति । जदि गुणिदकम्मंसियस्सेव उक्कस्सउदीरगा तो जहण्णअंतरेण वि अणंतेण होदव्वं, एगवारं समाणिदगुणिदकिरियस्स पुणो अणंतेण कालेण विणा गुणिदत्ताणुववत्तीदो। तेण अपुव्बपरिणामेसु विसरिसेसु वि संतेसु गुणसेढिपदेसविण्णासो सरिसो त्ति एदं ण घडदे। एत्थ परिहारो वुच्चदे-परिणामे सरिसे संते ओकड्डिजमाणमुक्कड्डिजमाणं च दव्वं सरिसं चेव त्ति णियमो णत्थि; ख विद-गुणिदकम्मंसिएसु एगसमयपबद्धमत्तपदेसाणं वडि-हाणिदसणादो। तेण समाणपरिणामेहि ओकड्डिजमाणदव्वं सरिसं पि होदि त्ति घेतव्वं । विसरिसपरिणामेहि पुण ओकड्डिजमाणदव्वं विसरिसं चेवे त्ति
शंका-सूत्रके बिना यह किस प्रमाणसे जाना ?
समाधान-सूत्रसे अविरुद्ध होनेसे सूत्रके समान आचार्य वचनोंसे ऐसा जाना । इसी कसायपाहुडमें आगे वेदक नामका अधिकार है । वहां उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणाका जघन्य अन्तर अन्तमुहूर्त कहा है। खुलासा इस प्रकार है-गणितकाशके लक्षणके साथ आकर संयमके अभिमुख अन्तिसमयवर्ती मिथ्यादृष्टि जीवके द्वारा उत्कृष्ट विशुद्धिस्थान वश उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणाके करनेपर उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणा प्रारम्भ होती है। फिर संयमको ग्रहण करके और मिथ्यात्वका अन्तर करके अन्तर्महत कालतक ठहरकर तदनन्तर मिथ्यात्वमें जाकर पुनः संयमके : होकर मिथ्यात्वके अन्तिम समयमें उसी विशुद्धिस्थानके द्वारा पुनः उत्कृष्ट प्रदेशोदीरणाके करनेपर जघन्य अन्तर होता है ऐसा चूर्णिसूत्रमें कहा है । उससे जाना जाता है कि क्षपितकर्माश और गुणितकाशके समान परिणाम होनेपर समान हो अपकर्षण होता है। __ शंका-यदि गुणितकार्माश जीवके ही उत्कृष्ट उदीरणा होती है तो उत्कृष्ट उदीरणाका जघन्य अन्तर भी अनन्तकाल होना चाहिये; क्योंकि एकबार गुणितसंचयकी क्रियाको समाप्त करके पुनः अनन्त काल बीते बिना गणितकाशपना नहीं बन सकता। अतः अपूर्वकरणके परिणामोंके विसदृश होते हुए भी गुणश्रेणिकी प्रदेशरचना समान होती है यह बात नहीं घटती।
समाधान-इस शंकाका परिहार कहते हैं-परिणामोंके सदृश होनेपर अपकृष्यमाण और उत्कृष्यमाण द्रव्य समान ही होता है ऐसा नियम नहीं है; क्योकि क्षपितकर्माश और गुणितकाश जीवोंमें एकसमयप्रबद्धमात्र प्रदेशोंको वृद्धि और हानि देखी जाती है । अतः समान परिणामके द्वारा अपकृष्यमाण द्रव्य समान भी होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिये। पर विसघशपरिणामके द्वारा अपकृष्यमाण द्रव्यविसदृश ही होता है ऐसानियम नहीं है, क्योंकि छह वृद्धियोंसे युक्त अपूर्व
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ णियमो णत्थिः अपुव्वपरिणामेसु छवड्डीए अवडिदेसु जहण्णादो अणंतगुणेण वि परिणामेण गुणसेढिपदेसविण्णासस्स सरिसत्तुवलंभादो । तेण विसरिसपरिणामेहि विसरिसं पि ओकड्डिजमाणदव्वं होदि त्ति घेत्तव्वं । अणियट्टिपरिणामेहि पुण ओकड्डिजमाणं दव्वं तिसु वि कालेसु सरिसं चेव, समाणोकड्डगणिमित्तसरिसपरिणामत्तादो। तदो अपुव्वगुणसेढिपदेसविण्णासो सरिसोवि होदि समाणोकड्डणपरिणामेसु वट्टमाणाणं, विसरिसो वि होदि असमाणोकड्डणहेदुपरिणामेसु वट्टमाणाणं त्ति घेतव्वं । तेण विदियफद्दयस्स दोसु द्विदीसु हिदपयडि-विगिदिगोवुच्छासु पढमुक्कस्स'फद्दयपगदि-विगिदिगोवुच्छाहितो सोहिदासु सुद्धसेसं तासिमसंखेजा भागा चेहति । खविद-चरिम-दुचरिमअपुव्वजहण्णगुणसेढिगोवुच्छासु गुणिदअपुव्बुकस्सगुणसेढीदो सोधिदासु एत्थ वि असंखेजा भागा उव्वरंति । खविद-गुणिदअणियट्टीणं चरिमगुणसेढिगोवुछाओ सरिसाओ त्ति अवणेयव्याओ। पुणो पुव्वमवणिदसेसव्वे खविददुचरिमअणियट्टिगुणसेढीदो सोहिदे सुद्धसेसमसंखेजा भागा तस्स चेट्ठति । एदे परमाणू रूबूणा पढमविदियफद्दयाणमंतरं । जत्थ जत्थ फद्दयंतरविष्णासो समुप्पजदि तत्थ तत्थ एवं चेव हेडिम-जहण्णफद्दयमुवरिमउकस्सफद्दयादो सोहिय फद्दयंतरमुप्पादेदवं ।
परिणमोंके रहते हुए जघन्यसे अनन्तगणे भी परिणामके द्वारा गुणश्रेणिकी प्रदेशरचनामें समानता पाई जाती है। अतः विसदृशपरिणामके द्वारा अपकृष्यमाण द्रव्य विसदृश भी होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिये। किन्तु अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंके द्वारा अपकृष्यमाण द्रव्य तीनों ही कालोंमें समान ही होता है; क्योंकि अनिवृत्तिकरणमें समान अपकर्षणके निमित्त परिणाम समान ही होते हैं । अतः समान अपकर्षणके कारणभूत परिणामोंमें वर्तमान जीवोंके सदृश भी होती है और असमान अपकर्षणके कारणभूत परिणामोंमें वर्तमान जीवोंके विसदृश भी होती है ऐसा ग्रहण करना चाहिये । अतः प्रथम उत्कृष्ट स्पर्धककी प्रकृतिगोपुच्छा और बिकृतिगोपुच्छामेंसे द्वितीय स्पर्धककी दो स्थितियोंमें विद्यमान प्रकृतिगोपुच्छा और विकृतिगोपुच्छाको घटानेसे उनका असंख्यात बहुभाग शेष रहता है । तथा गुणितकांशकी अपूर्वकरणसम्बन्धी उत्कृष्ट गुणश्रेणिमेसे क्षपितकर्मा शकी अपूर्वकरणसम्बन्धी जघन्य गुणश्रोणिकी अन्तिम और द्विचरम गोपुच्छाओंको घटानेसे भी असंख्यात वहभाग शेष रहता है । क्षपितकर्माश और गणितकर्मा शके अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी चरिम गुणश्रेणिकी गोपुच्छाएँ समान हैं, इसलिये उन्हें छोड़ देना चाहिये । तदन्तर क्षपितकर्मा शकी अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी द्विचम गुणश्रेणिमेंसे, पहले घटाकर शेष बचे द्रव्यको घटाने पर उसका असंख्यात बहुभाग शेष बचता है। इन परमाणुओंमेंसे एक कम करनेपर प्रथम और द्वितीय स्पर्धकका अन्तर होता है। जहाँ-जहाँ स्पर्धकका अन्तर जाननेकी इच्छा उत्पन्न हो वहाँ-वहाँ इसी प्रकार आगेके उत्कृष्ट स्पर्धकमेंसे जघन्य स्पर्धकको घटाकर स्पर्धकका अन्तर उत्पन्न कर लेना चाहिये।
विशेषार्थ-यहाँ द्वितीय स्पर्धकके जघन्य सत्कर्मस्थानमें प्रथम स्पर्धकके उत्कृष्ट
१. ता प्रतौ '-गोवुच्छासु पगदिपढमुक्कस्स-' इति पाठः। इति पाठः।
२. ता०प्रतौ 'फहयंतरविण्णासो'
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१८१ ___१७४. संपहि तिसमयकालहिदियाणं दोण्हं गोवुच्छाणमुवरि परमाणुत्तरकमेण दोहि वड्डीहि वेगोवुच्छविसेसो' पयदगोवुच्छाहितो एगसमयमोकड्डिददव्वं तत्तो तम्मि चेव समए विज्झादसंकमेण गददव्वं च वड्ढावेदव्वं । एवं वड्डिमाणहिदेण अण्णेगो जीवो जहण्णसामित्त विहाणेणागंतूग समयूणवेछावड्डीओ भमिय मिच्छत्तं खविय दोगोवुच्छाओ तिसमयकालहिदियाओ धरेदूण हिदो सरिसो। संपहि इमं घेत्तूण परमाणुत्तर-दुपरमाणुत्तरादिकमेणेदस्सुवरि दोहि सत्कर्मस्थानसे कितना अन्तर है यह उत्पन्न करके बतलाया गया है। प्रथम स्पर्धकके प्रत्येक सत्कर्मस्थानमें चार गोपुच्छाएँ होती हैं-अनिवृत्तिकरण गुणश्रेणि गोपुच्छा, अपूर्वकरण गुणश्रेणि गोपुच्छा, प्रकृतिगोपुच्छा और विकृतिगोच्छा । यहाँ उत्कृष्ट सत्कर्मस्थानसे प्रयोजन है, इसलिए इनमें जो गोपुच्छाएँ उत्कृष्ट सम्भव है वे ली गई हैं। अब द्वितीय स्पर्धकके जघन्य सत्कर्मस्थानमें कितनी गोपुच्छाएँ होती हैं यह बतलाते हैं । दो अनिवृत्तिकरण गुणश्रेणि गोपुच्छाएँ, दो अपूर्वकरण गुणश्रेणि गोपुच्छाएँ, दो प्रकृतिगोपुच्छाएँ और दो विकृतिगोपुच्छाएँ ये सब अनिवृत्तिकरणकी गुणश्रेणि गोपुच्छाओंको छोड़कर जघन्य ली गई हैं। अब पूर्वोक्त चार गोपुच्छाओंके साथ इन आठ गोपुच्छाओंकी तुलना करनेपर प्रथम स्पर्धकके अन्तिम सत्कर्मसम्बन्धी अनिवृत्तिकरण गुणश्रेणि गोपुच्छा और द्वितीय स्पर्धकके प्रथम जघन्य सत्कर्मकी अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी अन्तिम गोपुच्छा सो ये दोनों समान होती हैं, इसलिये इन दो गोपुच्छाओंको अलग कर दिया है। अब रही प्रथम स्पध कके अन्तिम उत्कृष्ट सत्कर्मकी तीन गोपुच्छाएँ और द्वितीय स्पध कके जघन्य प्रथम सत्कर्मकी सात गोपुच्छाएँ सो इन सातमेंसे अनिवृत्तिकरण गुणश्रणि गोपुच्छाको छोड़कर शेष छह गोपुच्छाएँ उक्त तीन गोपुच्छाओंके असंख्यातवें भागप्रमाण होती हैं, अतः तीन गोपुच्छाओंका असंख्यात बहुभागप्रमाण द्रव्य बच जाता है। पर अभी द्वितीय स्पर्धकके प्रथम जघन्य सत्कर्मकी एक अनिवृत्तिकरण गुणश्रेणि गोपुच्छा अछूती है, अतः इसके द्रव्यमेंसे बाकी बचे हुए असंख्यात बहुभागप्रमाण द्रव्यके कम कर कर देने पर असंख्यात बहुभागप्रमाण द्रव्य शेष बच रहता है जो प्रथम स्पर्धकके अन्तिम उत्कृष्ट सत्कर्मस्थानके द्रव्यसे अधिक है । इस प्रकार प्रथम स्पर्धकके अन्तिम उत्कृष्ट सत्कर्मस्थानके द्रव्यमें और द्वितीय स्पर्धकके जघन्य प्रथम सत्कर्मस्थानके द्रव्यमें कितना अन्तर है इस बातका पता लग जाता है। आगे भी इसी क्रमसे पिछले उत्कृष्ट स्थानसे अगले जघन्य स्थानके
का विचार कर लेना चाहिये। यहाँ कारणका साङ्गोपाङ विचार मलमें किया ही है, इसलिये वहाँसे जान लेना चाहिये।
६१७४. अब तीन समयकी स्थितिवाली दो गोपुच्छाओंके ऊपर एक एक परमाणु के क्रमसे अनन्तभागवृद्धि और असंख्यातभागवृद्धिके द्वारा दो गोपुच्छविशेष, प्रकृत गोपुच्छाओंमेंसे एक समयमें अपकृष्ट हुआ द्रव्य और उन्हीं गोपुच्छाओंमेंसे उसी एक समयमें विध्यातसंक्रमणके द्वारा संक्रान्त हुआ द्रव्य बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ जघन्य स्वामित्वके विधानके अनुसार आकर एक समय कम दो छयासठ सागर कालतक भ्रमण करके फिर मिथ्यात्वका क्षपण करके तीन समयकी स्थितिवाले दो गोपुच्छाओंका धारक अन्य एक जीव समान है। अब इसको लेकर एक परमाणु, दो
१.प्रा०प्रती 'वडीहि चे गोपुच्छविसेसो' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ वड्डीहि वेगोवुच्छविसेसा' एगसमयमोकड्डिदृण विणासिददव्वं विज्झादसंकमेण गददव्वं च वड्दावेदव्वं । एवं वड्विदूण हिदेण अण्णेगो दुसमयणवेछावहीओ भमिय मिच्छत्तं खवेदूण तिसमयकालहिदिगो दोगोवुच्छाओ धरेदूण हिदजीवो सरिसो। संपहि एदस्स दव्वस्सुवरि परमाणुत्तरादिकमेण दोगोवुच्छ विसेसा पयदगोवुच्छासु एगवारमोकड्डिददव्वं परपयडिसंकमण गददव्वं चे दोहि वड्डीहि वड्ढावेदव्यं । एवं वड्डिदूण हिदेण अण्णेगो तिसमयूणवेछावहीओ भमिय मिच्छत्तं खविय दोणिसेगे तिसमयकालहिदिगे धरेदृण हिदजीवो सरिसो। संपहि इमं घेत्तण पुव्वभणिदबीजावहभबलेण वड्डाविय ओदारेदव्वं जाव विदियछावहीए अंतोमुहुत्तमुबरिदं ति । पुणो तत्थ दृविय परमाणुत्तरादिकमेण दोहि बड्डीहि वड्ढावेदव्वं जाव पढमबारवड्डिदअंतोमुहुत्तमेत्तगोवुच्छविसेसेहितो दुगुणमेत्तगोवुच्छविसेसा अंतोणुहुत्तमोकड्डिदूण पयदगोवुच्छाए विणासिददव्यं च बड्डाविदं ति । पुणो सव्वजहण्णसम्मत्तकालभंतरे विज्झादसंकमण गददव्वमेत्तं च वढावेदव्वं । एवं वड्विदेण अवरेण जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण पढमछावहिं भमिय पुव्वं सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णपढमसमए दसणमोहक्खवणं पट्टविय मिच्छत्तं खविय दोणिसेगे तिसमयकालट्ठिदिगे धरेदूण हिदजीवो सरिसो। संपहि इमं घेत्तूण परमाणुत्तरादिकमेण वेवड्डीहि दोगोवुच्छविसेसमेत्तं एगवारमोकड्डिदूण परमाणु आदिके क्रमसे इसके ऊपर दो वृद्धियोंके द्वारा दो गोपुच्छविशेष, एक समयमें अपकर्षण करके विनष्ट हुआ द्रव्य और विध्यात संक्रमणके द्वारा संक्रान्त हुआ द्रव्य बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ दो समय कम दो छयासठ सागर तक भ्रमण करके मिथ्यात्वका क्षपण करके, तीन समयकी स्थितिवाले दो गोपुच्छाओंका धारक एक अन्य जीव समान है। अब इसके द्रव्यके ऊपर भी एक एक परमाणके क्रमसे दो गोपुच्छविशेष, प्रकृति गोपुच्छाओंमें एकवार अपकृष्ट हुआ द्रव्य और अन्य प्रकृतिमें संक्रमणके द्वारा गया हुआ द्रव्य दो वृद्धियोंके द्वारा बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ तीन समयकम दो छयासठ सागर तक भ्रमण करके और मिथ्यात्वका क्षपण करके तीन समयकी स्थितिवाले दो निषेकोंका धारक अन्य एक जीव समान है। अब इस द्रव्यको लेकर पहले कहे गये मूल कारणकी सहायतासे बढ़ाकर तब तक उतारते जाना चाहिये जब तक दूसरे छयासठ सागरमें एक अन्तर्मुहूर्त बाकी रहे। फिर वहाँ ठहरकर एक-एक परमाणुके क्रमसे दो वृद्धियोंके द्वारा उसे तब तक बढ़ाना चाहिये जब तक प्रथमबार बढ़ाये हुए अन्तर्मुहूर्त प्रमाण गोपुच्छविशेषोंसे दुगुने गोपुच्छविशेष और अन्तर्मुहूर्तमें अपकर्षण करके प्रकृत गोपुच्छामेंसे विनष्ट हुए द्रव्यकी वृद्धि हो। फिर इसके बाद सबसे जघन्य सम्यक्त्वके कालके अन्दर विध्यातसंक्रमणके द्वारा संक्रान्त हुए द्रव्यमात्रकी वृद्धि करनी चाहिये। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ जघन्य स्वामित्वकी प्रक्रियाके अनुसार प्रथम छयासठ सागर तक भ्रमण करके फिर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त करनेके प्रथम समयमें दर्शनमोहके क्षपणको प्रारम्भ करके और मिथ्यात्वका क्षपण करके तीन समयकी स्थितिवाले दो निषेकोंका धारण करके स्थित हुआ जीव समान है। अब इसको लेकर एक परमाणु आदिके क्रमसे
२. ता०प्रतौ 'वड्डीहि चे (व) गोपुच्छविसेसा' आ०प्रतौ 'वड्डीहि चे गोपुच्छविसेसा' इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्त
१८३ विणासिददव्यं परपयडिसंकमण गददव्यमेत्तं च एत्थ वड्डावेदव्वं । एवं वड्डिदेण समयूणपढमछावठिं भमिय मिच्छत्तं खविय वेणिसेगे तिसमयकालहिदिगे धरेदूण द्विदजीवो सरिसो। एवं जाणिदण ओदारेदव्वं जाव पढमछावही हाइ दूण अंतोमुहुत्तमत्ता चेद्विदा त्ति । तत्थ दृविय चत्तारि पुरिसे अस्सिदूण वड्ढावेदव्वं जाव तदित्थओघुक्कस्सदव्वं पत्तं ति । एवं विदियफद्दयमस्सिदूण द्वाणपरूवणा कदा ।
$ १७५. संपहि खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण वेछावहीओ भमिय मिच्छत्तं खविय तिण्णि णिसेगे चदुसमयकालहिदिगे धरेदूण हिदम्मि तदियफद्दयस्स आदी होदि । एत्थ फद्दयंतरपमाणं जाणिदूण वत्तव्वं । संपहि इमं घेत्तूण परमाणुत्तरादिकमेण दोहि वड्डीहि तिण्णिगोवुच्छविसेसमेत्तमेगवारमोकड्डिदूण विणासिददव्वमेत्तं परपयडिसंकमेण गददव्वमत्तं च वढाविय समयूण-दुसमयूणादिकमेण ओदारेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तणवि दियछावट्ठी ओदिण्णा ति । पुणो तत्थ दृविय परमाणुत्तरकमेण वड्ढावेदव्वं जाव पढमवारं वड्डिदअंतोमुहुत्तमेत्तगोवुच्छविसेसेहितो तिगुणगोवुच्छविसेसा अंतोमुहुत्तमोकड्डिदूण परपयडिसंकमण विणासिददव्वमेत्तं वड्डिदं ति । एवं दो वृद्धियोंके द्वारा दो गोपुच्छविशेष, एक बार अपकर्षणके द्वारा घिनष्ट हुआ द्रव्य और परप्रकृतिरूपसे संकान्त हुए द्रव्यके बराबर द्रव्य बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार वृद्धि करनेवाले जीवके साथ एक समय कम प्रथम छयासठ सागर तक भ्रमण करके मिथ्यात्वका क्षपण करके तीन समयकी स्थितिवाले दो निषेकोंको धारण करके स्थित हुआ जीव समान है। इस प्रकार जानकर तब तक उतारना चाहिये जब तक प्रथम छयासठ सागर घट करके अन्तर्मुहूर्त मात्र शेष रह जाये । वहाँ ठहरकर चार पुरुषोंकी अपेक्षासे तब तक बढ़ाते जाना चाहिये जब तक वहाँका ओघरूपसे उत्कृष्ट द्रव्य प्राप्त हो । इस प्रकार दूसरे स्पर्धकको लेकर स्थानोंका कथन किया।
विशेषार्थ-प्रथम स्पर्धकके जघन्य सत्कर्म स्थानसे लेकर उसीके उत्कृष्ट सत्कर्मस्थानको प्राप्त करनेके लिये जिस प्रक्रियाका निर्देश किया है वही प्रक्रिया यहाँ भी समझ लेनी चाहिए।
६ १७५. अब क्षपितकर्मा शके लक्षणके साथ आकर दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके फिर मिथ्यात्वका क्षपण करके चार समयकी स्थितिवाले तीन निषेकोंको धारण करनेवाले जीवके तीसरे स्पर्धकका आरम्भ होता है । यहाँ पर स्पर्धकके अन्तरका प्रमाण जानकर कहना चाहिये। अब इसे लेकर एक परमाणु आदिके क्रमसे दो वृद्धियोंके द्वारा तीन गोपुच्छविशेष प्रमाण, और एकबार अपकर्षण करके विनष्ट हुए द्रव्यप्रमाण और अन्य प्रकृति रूपसे संक्रान्त हुए द्रव्यप्रमाण द्रव्यको बढ़ाकर एक समय कम, दो समय कम आदिके क्रमसे अन्तर्मुहूर्तकम दूसरे छयासठ सागर काल पर्यन्त उतारते जाना चाहिए। फिर वहाँ ठहराकर एक एक परमाणुके अधिकके क्रमसे तब तक बढ़ाना चाहिये जब तक प्रथमबार बढ़े हुए अन्तर्मुहूर्तप्रमाण गोपुच्छविशेषोंसे तिगुने गोपुच्छविशेष और अन्तर्मुहूर्तमें अपकर्षण करके अन्य प्रकृतिरूपसे विनष्ट हुए द्रव्यप्रमाण द्रव्यकी वृद्धि हो। इस प्रकार वृद्धि करनेवाले जीव के साथ प्रथम छयासठ सागर तक भ्रमण करके और मिथ्यात्वका क्षपण करके चार समयकी
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ वडिदेण अवरेगो खविदकम्मंसिओ पढमछाव दि भमिय मिच्छत्तं खविय तिण्णि णिसेगे चदुसमयकालहिदिगे धरेदण हिदजीवो सरिसो। एवं समयणादिकमेणोदारेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तूणपढमछाव ही ओदिण्णा ।त्त । पुणो तत्थ ठविय चत्तारि परिसे अस्सिदृण वड्ढावेदव्वं जाव एवं फद्दयमुक्कस्सत्तं' पत्तं ति । एदेण कमेण समयूणावलियमंत्तफद्दयाणि अस्सिदृण हाणपरूवणा जाणिदूण कायव्वा । णव रि पुव्वुत्तसंधिम्मि पढमवारं वड्डाविय गोवुच्छविसेसाणं चत्तारि-पंचआदिगुणगारे पवेसिय वड्डावर्ण कायव्वं जाव तेसिं समयूणावलियमेत्तगुणगारो पवट्ठो त्ति ।
१७६. संपहि समयणावलियमेत्तगोवुच्छाणं कालपरिहाणिं काऊण चत्तारि पुरिसे अस्सिदूण तासु वड्डाविजमाणियासु अणियदिगुणसे ढिगोवुच्छाओ ण वड्ढावेदव्याओ; तत्थ परिणामभेदाभावेण खविद-गुणिदकम्मंसियाणमणियट्टिगुणसेढिगोवुच्छाणं तिसु वि कालेसु सरिसत्तवलंभादो । अपुव्वगुणसेढी वड्ढदि, तत्थ असंखेजलोगमेत्तपरिणामाणमुवलंभादो। णवरि पदेसुत्तरादिकमेण पत्थि वड्डी, असंखेजलोगेहि जहण्णदव्वे खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्तदव्वस्स एगवारेण वड्डिदंसणादो। तं जहाअपुव्वकरणपढमसमयम्मि असंखेजलोगमेत्तपरिणामहाणाणि होति । तत्थ जहण्णपरिणामट्ठाणप्पहुडि असंखे०लोगमेत्तविसोहिट्ठाणाणि जहण्णगुणसेढिपदेसविण्णासस्सेव स्थितिवाले तीन निषेकोंको धारण करके स्थित हुआ अन्य एक क्षपितकर्मा'शवाला जीव समान है। इस प्रकार एक सययहीन आदिके क्रमसे अन्तमुहत कम छयासठ सागर काल तक उतारते जाना चाहिये। फिर वहाँ ठहराकर चार पुरुषोंकी अपेक्षा तब तक बढ़ाते जाना चाहिये जब तक यह स्पर्धक उत्कृष्टपनेको प्राप्त होवे । इस क्रमसे एक समयकम आवली प्रमाण स्पर्धकोंको लेकर स्थानोंका कथन जानकर कहना चाहिये । किन्तु इतना विशेष है कि पूर्वोक्त सन्धिमें प्रथमबार बढ़ा करके गोपुच्छविशेषांके चार, पाँच आदि गुणकारोंका प्रवेश कराकर तब तक बढ़ाना चाहिये जब तक उन गोपुच्छोंके एक समयकम आवलीप्रमाण गुणकार प्रविष्ट हों । अर्थात् चौगुने पँचगुने आदिके क्रमसे एक समय कम आवलीप्रमाण गुणित गोपुच्छोंकी वृद्धि करनी चाहिये।
६ १७६. अब एक समयकम आवलिप्रमाण गोपुच्छाओंकी कालकी हानिको करके चार पुरुषोंकी अपेक्षा उन गोपुच्छाओंमें वृद्धि करने पर अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी गुणणिकी गोपुच्छाएँ नहीं बढ़ानी चाहिये, क्योंकि वहाँ परिणाम भेद न होनेसे क्षपितकर्मा श और गुणितकर्मा शवाले जीवोंकी अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिकी गोपुच्छओंमें तीनों ही कालोंमें समानता पाई जाती है । केवल अपूर्वकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिमें ही वृद्धि होती है, क्योंकि अपूर्वकरणमें असंख्यात लोकप्रमाण परिणाम पाये जाते हैं। किन्तु अपूर्वकरणमें एक प्रदेश अधिक आदिके क्रमसे वृद्धि नहीं होती, क्योंकि असंख्यात लोकके द्वारा जघन्य द्रव्यमें भाग देनेपर जो आवे उसके लब्ध एक भागप्रमाण द्रव्यकी वहाँ एक बारमें वृद्धि देखी जाती है। खुलासा इस प्रकार है-अपूर्वकरणके प्रथम समयमें असंख्यात लोकप्रमाण परिणामस्थान होते हैं। उनमेंसे जघन्य परिणामस्थानसे लेकर असंख्यात लोकप्रमाण विशुद्धिस्थान तो
१. श्रा.प्रतौ 'फद्दयमुक्कस्संतरं पत्तं' इति पाठः ।
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मा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं कारणं । कुदो ? साहावियादो। अणंतगुणहीण-अणंतगुणपरिणामाणं कज्जं कथं सरिसं होदि ? ण, मेरुगिरिमेत्तसोवण्णपुंजेणुप्पाइदमोहादो दहरपुत्तहंडेणुप्पाइदमोहस्स महल्लत्तुवलंभादो। पुणो उवरि तदणंतरमेगपरिणामट्ठाणमसंखेजलोगभागहारेण खंडिदेगखंडवुड्डीए कारणं होदि । एदं परिणामठ्ठाणमपुणरुतं ति जहण्णपरिणामेण सह पुध हवेदव्वं । पुषो पदेसओकडणाए एदेण सरिसपरिणामहासु' असंखेजलोगमेचेसु गदेसु तदो' अण्णमेगमपुणरुत्तहाणं लब्भदि, थुबिल्लगुणसेढिपदेसग्गमसंखे०लोगेहि खंडिय तत्थ एगखंडमेत्तपदेसब्भहियगुणसेढिविण्णासस्स कारणत्तादो। एदं पि परिणाम घेत्तूण पुव्वं पुध दृविददोहं परिणामाणं पासे उवेदग्वं । पुणो वि एत्तियमेत्तियमद्धाणमुवरि गंतूण अपुणरत्तपरिणामट्ठाणाणि असंखेजलोगमेत्ताणि लब्भंति । पुणो अणेण विधाणेणुचिणिदूण गहिदासेसपरिणामहाणाणमपुवकरणपढमसमए अवणिदासेसपुविल्लपरिणामपंतियागारेण रचणा कायब्धा । एवं विदियसमयादि जाव चरिमसमओ ति पुणरुत्तपरिणामाणमयणयणं काऊण तत्थतषअपुणरुसपरिणामाणं चेव एगसेढिआगारेण विण्णासो कायव्वो। संपहि एत्थ पढमसमयम्मि रचिदविदिय
स्वभावसे ही गुणश्रोणिसम्बन्धी जघन्य प्रदेशरचनाका हो कारण है। क्योंकि ऐसा होना स्वाभाविक है।
शंका—अनन्तगुणे हीन और अनन्तगुणे परिणामोंका कार्य समान कैसे हो सकता है ?
समाधान—यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि सुमेरुपर्वतके बराबर सोनेके ढेरसे जो मोह उत्पन्न होता है उस मोहसे छोटे पुत्रके खण्ड करनेसे उत्पन्न हुआ मोह बड़ा पाय। जाता है।
पुनः उन असंख्यात लोकप्रमाण परिणामस्थानोंका अनन्तरवर्ती एक परिणामस्थान जघन्य द्रव्यके असंख्यात लोकप्रमाण खण्ड करके उनमेंसे एक खण्डप्रमाण वृद्धिका कारण होता है। यह परिणाम स्थान अपुनरुक्त है, इसलिए जघन्य परिणामके साथ इसे पृथक् स्थापित करना चाहिये। फिर प्रदेशोंका अपकर्षण करने में उक्त परिणामके समान असंख्यात लोकप्रमाण परिणामोंके हो जानेपर एक अन्य अपुनरुक्त स्थान प्राप्त होता है, क्योंकि यह परिणाम पूर्वोक्त गुणश्रेणिके प्रदेशसमूहके असंख्यात लोकप्रमाण समान खण्ड करके उनमें से एक खण्डप्रमाण प्रदेश अधिक गुणश्रेणिकी रचनामें कारण है। इस परिणामको भी ग्रहण करके पहले पृथक स्थापित किए गये दो परिणामोंके पास में स्थापित करना चाहिए। इसके बाद भी असंख्यात लोकप्रमाण असंख्यात लोकप्रमाण स्थान जाकर अलग अलग असंख्यात लोकप्रमाण अपुनरुक्त परिणामस्थान प्राप्त होते हैं। पुनः इस विधिसे एकत्र किए हुए सब परिणामस्थानोंकी अपूर्वकरणके प्रथम समयमें अलग किए गए सब परिणामोंकी एक पंक्तिरूपसे रचना करनी चाहिए। इसी प्रकार दूसरे समयसे लेकर अन्तिम समय पर्यन्त पुनरुक्त परिणामोंको घटाकर वहांके अपुनरुक्त परिणामोंकी ही एक पंक्तिरूपसे रचना करनी चाहिए । अब यहां प्रथम समयमें स्थापित दूसरे परिणामरूप परिणमाकर शेष समयोंके जघन्य परिणामरूप यदि
१. आ०प्रतौ 'सरिसपरिणामेहि हाणेसु' इति पाठः । २. भा०प्रतौ 'मेत्तेसु तदो' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पदेसविहत्ती ५ परिणामं परिणमिय सेससमयजहण्णपरिणामेसु चेव जदि परिणमदि तो अणंताणि हाणाणि अंतरिदूण अण्णमपुणरुत्तहाणमुप्पजदि । एवं वड्डिददव्वं तत्तो अवणिय पुध दृविय पुणो समयूणावलियमेत्तपगदिगोवुच्छासु परमाणुत्तरादिकमेण दोहि वड्डीहि पव्वमवणेदण दृविददव्वं वढावेदव्वं । एवं वड्डिदूण हिदेण सव्वसमएसु जहण्णअपव्वकरणपरिणामेहि परिणमिय पढमसमए विदियपरिणामेण गुणसेढिं कदजीवो सरिसो' । संपहि पुणरवि पयडिगोवुच्छाए उवरि परमाणुत्तरकम ण दोहि वड्डोहि अपव्वगुणसेढिविसेसमेत्तं वढावेदव्वं । एवं वड्डिददव्वेण अण्णेगो खविदकम्मंसिओ अपव्वकरणपढमसमयम्मि तदियपरिणामेण परिणमिय सेससमएसु सग-सगजहण्णपरिणामेहि परिणमिय आगंतूण समयूणावलियमेत्तगोवुच्छाओ धरेदूण द्विददव्वं सरिसं होदि । संपहि एदेण बीजपदेण समयूणावलियमेत्तपगदिगोवुच्छाओ अस्सिदूण अपव्वगुणसेढिदव्वं वड्ढावेदव्वं जावप्पणो उकस्सं पत्तमिदि। णवरि पढमसमयजहण्णपरिणामप्पहुडि जाव उक्कस्सपरिणामो त्ति ताव .णिरंतरं परिणमाविय गुणसेढिदव्वे वडाविजमाणे विदियादिसमएसु जहण्णपरिणामा चेव णिरुद्धा कायव्वा, विरोधो णत्थि, पढमसमयउकस्सपरिणामादो विदियसमयजहण्णपरिणामस्स अणंतगुणत्तवलंभादो। पणो पढमसमयमुक्कस्सपरिणामम्मि चेव हविय विदियसमओ सगजहण्णपरिणामप्पहडि जाव तस्सेव उकस्सपरिणामो त्ति ताव परिवाडीए संचारेदव्यो । पणो पढम-विदियपरिणमता है तो अनन्त स्थानोंका अन्तर देकर अन्य अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है । इस प्रकार बढ़े हुए द्रव्यको उसमेंसे घटाकर पृथक् स्थापित करो। फिर एक समय कम आवलिप्रमाण प्रकृतिगोपुच्छाओंमें एक एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे दो वृद्धियोंके द्वारा पहले घटा करके स्थापित किये हुए द्रव्यको बढ़ाना चाहिये । इसप्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ सब समयों में जघन्य अपूर्वकरणसम्बन्धी जघन्य परिणामोंके द्वारा परिणमन करके प्रथम समयमें दूसरे परिणामके द्वारा गुणश्रेणीको करनेवाला जीव समान हैं। अब प्रकृतिगोपच्छाके ऊपर फिर भी एक एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे दो वृद्धियोंके द्वारा अपूर्वकरणकी गुणश्रेणिके विशेषमात्रको बढ़ाना चाहिये । इसप्रकार बढ़ाये हुए द्रव्य के साथ जो अन्य एक क्षपितकोशवाला जीव अपर्वकरणके प्रथम समयमें तीसरे परिणामरूप परिणमकर और शेष समयोंमें अपने अपने जघन्य परिणामरूप परिणम कर तथा आकर एक समयकम आवलिप्रमाण गोपुच्छाओंको धारण करके जब स्थित होता है तब उसका द्रव्य समान होता है । अब इसी बीजपदके अनुसार एक समयकम आवलिप्रमाण प्रकृतिगोपुच्छाओंका आश्रय लेकर अपूर्वकरणकी गुणश्रेणिका द्रव्य तब तक बढ़ाना चाहिए जब तक वह अपने उत्कृष्टपनेको प्राप्त हो । इतनी विशेषता है कि प्रथम समयके जघन्य परिणामसे लेकर उत्कृष्ट परिणामपर्यन्त निरन्तर परिणमन कराके गुणश्रेणिके द्रव्यको बढ़ाने पर दूसरे आदि समयोंमें जघन्य परिणाम ही लेने चाहिये, इसमें कोई विरोध नहीं है, क्योंकि प्रथम समयके उत्कृष्ट परिणामसे दूसरे समयका जघन्य परिणाम अनन्तगुणा पाया जाता है। फिर प्रथम समयमें उत्कृष्ट परिणाममें ही ठहराकर दूसरे समयको उसके जघन्य परिणामसे लेकर उसीके उत्कृष्ट परिणामके प्राप्त
१. भा०प्रतौ 'कदजीवसरिसो' इति पाठः । २. ता०प्रतौ 'जाव पुणों' इति पाठः ।
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गा० २२]
उत्तरपय डिपदेसविहत्तीए सामित्तं
समए सग-सगुक्कस्सप रिणामेसु चैव दुविय पुणो तदियसमओ सगजहण्णपरिणामहुड जावपणो उकस्सपरिणामो त्ति ताव णिरंतरं परिणमावेदव्वो । एवं सव्वे समया परिवाडीए संचारदव्वा जावप्पप्पणो उकस्सपरिणामं पत्ता त्ति । तत्थ सव्वपच्छिमवियप्पो वुच्चदे । तं जहा - खविदकम्मं सियलक्खणेणागंतूण उवसमसम्मत्तं पडिवजिय पुणो वेदगं गंतूण तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय दंसणमोहक्खवणमाढविय सव्वुक्कस अपुव्वपरिणामेहि चेव गुणसेटिं करिय मिच्छत्तं खवेदूण आवलियकालट्ठिदीए समयूणाव लिय मे तणिसेगे धरेण द्विदो सम्वपच्छिमो ।
$ १७७. संपहि समयूणावलियमे त्तविगिदिगोवुच्छाओ उकस्साओ कस्साम । एदाओ वि परमाणुत्तरकमेण ण वति । कुदो ? विदिखंडयचरिमफालीसु णिवदमाणासु सव्वणिसेगेसु अणंताणं परमाणूणमेगवारेण विगिदिगो वुच्छासरूवेण विदुर्लभादो | तेण परमाणुत्तरकमेण पयडिगोबुच्छा चैव वहावेदव्वा जाव पढमडिदिखंडयम स्सिदृण समयूणआवलियमेत्तगोकुच्छासु वडिददव्वं ति । एवं वडिदूण ट्ठिदेण अण्णेगो समयू णावलियमेत्तपगदिगोवच्छाओ जहण्णाओ चैव करिय समयूणावलियमेत्तविगिदिगोवच्छासु पुव्वं वडाविददव्वं धरेण द्विदो सरिसो । पुणो समयूणा
१८७
होने तक क्रमसे संचरण कराना चाहिये । फिर पहले और दूसरे समय में अपने अपने उत्कृष्ट परिणामों में हो ठहराकर फिर तीसरे समय को अपने जघन्ये परिणामसे लेकर अपने उत्कृष्ट परिणाम प्राप्त होने तक निरन्तर परिणमाना चाहिये । इस प्रकार सब समयोंका अपने अपने उत्कृष्ट परिणामके प्राप्त होने तक संचार कराना चाहिये । अब उनमेंसे सबसे अन्तिम विकल्पको कहते हैं । वह इस प्रकार है - क्षपितकर्मा शके लक्षणके साथ आकर उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करके फिर वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण करके, वहां अन्तर्मुहूर्त तक ठहरकर दर्शनमोहके क्षपणको आरम्भ करके और अपूर्वकरणसम्बन्धी सबसे उत्कृष्ट परिणामोंके ही द्वारा गुणश्रेणिको करके मिथ्यात्वका क्षपण करे और मिथ्यात्वकी एक आवलिप्रमाण स्थितिवाले एक समय कम आवलिप्रमाण निषेकोंके शेष रहने पर सबसे अन्तिम विकल्प होता है ।
९ १७७, अब एक समय कम आवलिप्रमाण विकृतिगोपुच्छाओंको उत्कृष्ट करके बतलाते हैं । ये गोपुच्छाएं भी एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे नहीं बढ़ती हैं, क्योंकि स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालियोंका पतन होने पर सब निषेकोंमें अनन्त परमाणुओं का एक बार में विकृतिगोपुच्छारूपसे पतन पाया जाता है। अतः एक-एक परमाणु अधिकके क्रमसे प्रकृतिगोपुच्छाको ही प्रथम स्थितिकाण्डकका अवलम्बन लेकर एक समय कम आवलिप्रमाण गोपुच्छाओं में बढ़े हुए द्रव्यके अन्त तक बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ एक समय कम आवलिप्रमाण जघन्य प्रकृतिगोपुच्छाओंको ही करके एक समय कम आवलिप्रमाण विकृतिगोपुच्छाओंमें पहले बढ़ाये हुए द्रव्यको धारण करके स्थित हुआ अन्य एक जीव समान है । फिर एक समय कम आवलिप्रमाण जघन्य
१. ता०प्रतौ ' कमेण वहुति' इति पाठः ।
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१८८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ वलियमेत्तपगदिगोवुच्छासु जहणियासु परमाणुत्तरकमेण वड्ढावेदव्वं जाव विदियद्विदिकंडयचरिमफालिमस्सिदूण समयूणावलिय मेत्तविगिदिगोवुच्छासु णिवदिददव्वं ति । एवं वढिदेण समयूणावलियमेत्तपगदिगोवुच्छाओ जहण्णाओ चेव धरिय चरिम-दुचरिमद्विदिखंडयचरिमफालीणं उक्कस्सदव्वं समयणावलियमेत्तगोवच्छासु तप्पाओग्गं धरेदूण हिदो सरिसो । कथं सव्वढिदिखंडेसु जहण्णेसु संतेसु पढम-विदियहिदि खंडयाणि चेव उकस्सत्तं पडिवजंति ? ण, उकड्डणवसेण तेसिं चेव उक्कस्सभावाबत्तीए अविरोहादो । सव्वहिदिखंडएसु वा समयाविरोहेण तप्पमाणं दव्वं वड्ढावेदव्वं । अहवा सव्वद्विदिखंडएसु जहण्णेण वड्डिदेसु संतेसु जो लाहो विगिदिगोवुच्छाए' तत्तियमेतदव्वं परमाणुत्तरकमेण पयडिगोवुच्छाए बड्डिदे पुणो पच्छा सव्वाडिदिखंडएसु एत्तियमेतं दव्वं वड्डाविय समयणावलियमेत्तपयडिगोवच्छाणं जहण्णभावं करिय सरिसं कायव्वं । एदेण बीजपदेण विगिदिगोवुच्छा वड्ढावेदव्या जाव समयणावलियमेत्तविगिदिगोवच्छाओ उकस्सत्तं पत्ताओ त्ति । पुणो पच्छा समयूणावलियमेत पयडिगोवुच्छाओ परमाणुत्तरकोण णिरंतरं वड्ढावेदव्वाओ जाव अप्पणो उकस्सत्तं पत्ताओ त्ति । सव्वट्टिदिगोवुच्छासु उक्कस्सभावमुवगयासु संतीसु प्रकृतिगोपुच्छाओंमें एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे तब तक बढ़ाना चाहिए जब तक दूसरे स्थित्तिकाण्डककी अन्तिम फालिका अवलम्बन लेकर एक समय कम आवलिप्रमाण विकृतिगोपुच्छाओंमें द्रव्यका पतन होता रहे । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ एक समय कम आवलिप्रमाण जघन्य प्रकृतिगोपुरछाओंको ही धारण करके, अन्तिम और द्विचरम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालियोंके उत्कृष्ट द्रव्यको एक समय कम आवलिप्रमाण गोपुच्छाओंमें तप्रायोग्य धारण करके स्थित हुआ जीव समान है।
शंका-सब स्थितिकाण्डकोंके जघन्य होते हुए प्रथम और द्वितीय स्थितिकाण्डक ही उत्कृष्टपनेको क्यों प्राप्त होते हैं।
समाधान नहीं, क्योंकि उत्कर्षणाके द्वारा उन्हींके उत्कृष्टपनेको प्राप्त होने में कोई विरोध नहीं आता।
अथवा सभी स्थितिकाण्डकोंमें आगमानुसार तत्प्रमाण द्रव्यको बढ़ाना चाहिये । अथवा सब स्थितिकाण्डकोंके जघन्यरूपसे बढ़ने पर विकृतिगोपुच्छामें जो लाभ हो, प्रकृतिगोपुच्छामें एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे उतने द्रव्यके बढ़ने पर फिर बादमें सब स्थितिकाण्डकोंमें उतने द्रव्यको बढ़ाकर एक समय कम आवलिप्रमाण प्रकृतिगोपुच्छाओंको जघन्य करके समान करना चाहिये । इस बीजपदके अनुसार जब तक एक समयकम आवलिप्रमाण विकृतिगोपुच्छाएँ उत्कृष्टपनेको प्राप्त हों तब तक विकृतिगोपुच्छाको बढ़ाना चाहिये । इसके बाद एक समय कम आवलिप्रमाण प्रकृतिगोपुच्छाओंको एक. एक परमाणु अधिकके क्रमसे तब तक निरन्तर बढ़ाना चाहिये जब तक अपने उत्कृष्टपनेको प्राप्त हों।
शंका-सभी स्थितिगोपुच्छाओंके उत्कृष्टपनेको प्राप्त होने पर एक समय कम
१. आ०प्रती -मस्सिदूण ण समयूणावलिय' इति पाठः। २. ता०प्रतौ 'लोहो ? विगिदिगोवुच्छाए' मा०प्रतौ 'लोहो विगिदिगोवुनछोए इति पाठः।
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१८९
कथं
समयूणावलियमेत्तपगदिगोवुच्छाणंचे व जहण्णत्तं ? ण ओकड्डकड्डणवसेण तत्थतणकम्मखंधे हेडुवरि संकंतेसु तासिं जहण्णत्तं पडि विरोहाभावादो । तत्थ सव्वपच्छिमवियप्पो वुच्चदे । तं जहा — जो गुणिदकम्मंसिओ सष्णिपंचिंदिएसु एइंदिएस च अंतोमुहुत्तकालमंतरिय मणुस्सेसु उववण्णो । तत्थ अंतोमुहुत्तन्भहिय अट्ठवस्सेसु गदेसु उकस्सअपुण्वपरिणामेहि दंसणमोहणीयं खविय समयूणावलियमेत्तगोबुच्छाओ धरेण द्विदो सव्वपच्छिम वियप्पो, एत्तो उवरि वड्डीए अभावादो ।
$ १७८. संपहि जो खविदकम्मंसिओ सम्मत्तेण सह भमिदवेछावद्विसागरोवमो मिच्छत्तचरिमफालिं धरेण हिदो तस्स दव्वं पुल्लिसम यूणावलियम तगोवुच्छाणसव्वादो असंखेजगुणं । तदसंखेज्जगुणत्तं कुदो णव्वदे ? जुत्तीदो । तं जहासमयूणावलियमेत्तउक्कस्सपयडिगोवच्छाहिंतो खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण वेछावडीओ भमिय मिच्छत्त चरिमफालिं धरेदूण द्विदखवगस्स पयडिगोवच्छाओ असंखेजगुणाओ, जोगगुणगारादो अंतोमुडुत्तोवदिओकड्ड कड्डणभागहारपदुप्पण्णवेछावट्ठिअण्णोण्णव्भत्थरासिणोव विदचरिमफालिआयामस्स असंखेञ्जगुणत्तादो | बिगिदिगोच्छा हिंतो विचरिमफालीए विगिदिगोवुच्छाओ असंखेञ्जगुणाओ । कारणं पुब्बं व परूवेदव्य' । समयूणावलियम तअपुच्व-अणियट्टिगुण सेडिगोवच्छाहिंतो चरिमआवलिप्रमाण प्रकृतिगोपुच्छाएँ जघन्य क्यों रहती हैं ?
तत्थतण
समाधान — नहीं, क्योंकि अपकर्षण- उत्कर्षण के निमित्तसे वहाँके कर्मस्कन्धोंके नीचे और ऊपर संक्रान्त होने पर उनके जघन्य होने में कोई विरोध नहीं आता। अब वहां सबसे अन्तिम विकल्पको कहते हैं । वह इस प्रकार है- जो गुणितकर्मा शवाला जीव संज्ञी पञ्चेन्द्रियों और एकेन्द्रियों में अन्तर्मुहूर्त काल बिताकर मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और वहां अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष बीतने पर उत्कृष्ट अपूर्वकरणरूप परिणामोंके द्वारा दर्शनमोहनीयका क्षय करके एक समय कम आवलिप्रमाण गोपुच्छाओंको धारण करके स्थित हुआ उसके सबसे अन्तिम विकल्प होता है, क्योंकि इसके द्रव्यके ऊपर वृद्धिका अभाव है ।
९ १७८. अब जो क्षपितकर्मा शवाला जीव सम्यक्त्वके साथ दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिको धारण करके स्थित है उसका द्रव्य पूर्वोक्त एक समय कम आवलिप्रमाण गोपुच्छाओंके उत्कृष्ट द्रव्यसे असंख्यातगुणा है । शंका- किण प्रमाणसे जाना कि वह असंख्यातगुणा है ?
समाधान-युक्तिसे जाना । वह युक्ति इस प्रकार है- क्षपितकर्मा शके लक्षणके साथ आकर दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिको धारण करनेवाले क्षपककी प्रकृतिगोपुच्छाएँ एक समय कम आवलिप्रमाण उत्कृष्ट प्रकृतिगोपुच्छाओंसे असंख्यातगुणी हैं, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त से भाजित अपकर्षण- उत्कर्षण भागहारसे गुणित दो छयासठ सागरकी अन्योन्याभ्यस्तराशिसे भाजित जो चरिमफालिका आयाम है वह योगके गुणकारसे असंख्यातगुणा है । तथा वहांकी विकृतिगोपुच्छाओं से भी चरमफालिकी विकृतिगोपुच्छाएँ असंख्यातगुणी हैं । कारणका पहले के ही समान कथन करना चाहिये । अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिकी एक समय कम
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
फालिधरस्स अपुव्व-अणियट्टि गुणसेढिगोवुच्छाओ असंखेजगुणाओ । कुदो १ असंखेजगुणकमेण अवद्विदणिसेगाणं अंतोमुहुत्तम चाणं चरिमफालीए उवलंभादो । जदि वि अपुब्वगुणसे ढिगोवु च्छाणं जहण्णुक्कस्सपरिणामावडंभेग असंखेजगुणत्तमासंकिजइ तो वि अणियट्टिगुणसेठीणमसंखेजत्ते णत्थि आसंका, तत्थ परिणामाणं जहण्णुक्कस्तभेदाभाव ेण खविद-गुणिदकम्म सियएसु' तासिं समाणत्तुवलंभादो । तम्हा चरिमफालिदव्वमसंखेजगुणं ति घेत्तव्वं ।
$ १७९ एत्थ ओट्टणं ठविय दव्वपमाणपरिच्छेदो कीरदे । तं जहा - जोगगुणगारेण पदुप्पण्णदिचढगुणहाणिगुणिदसमयपचद्धचरिमफालीए समयू णावलियम तपगदिविगि दिगोवच्छ सहिद अपुव्व-अणिय द्विगुणसेढीणमागमणडुमसंखेजरूवो वट्टिदाए भागे हिदे समयूणावलियम तगोवुच्छाणमुकस्सदव्यमागच्छदि । दिवगुणिदसमयपबद्ध अंतोमुहुत्तोवदिओकडकड्डणभागहारगुणिदवेछांव हि अण्णोष्णन्भत्थरासीए ओवट्टिदे चरिमफालिदच्त्रमागच्छदि । जोगगुणगारेण अपुच्व-अणियट्टिगुणसेढिगोबुच्छागमणहं हविदअसंखेजरूवगुणिदेणोवट्टिदचरिमफालीदो जेणंतोमुहुत्तोवडिओकडकड्डणभागहारगुणिदबेछावडिअण्णोष्णन्भत्थरासी असंखेञ्जगुणो तेण समयूणावलियमे तउकस्सगोवुच्छाहिंतो आवलिप्रमाण गोपुच्छाओंसे अन्तिम फालिके धारक जीवकी अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण सम्बन्धी गुणश्रेणिकी गोपुच्छाएँ असंख्यातगुणी हैं, क्योंकि अन्तिम फालिमें अन्तर्मुहूर्त प्रमाण निषेक असंख्यात गुणितक्रमसे अवस्थित पाये जाते हैं । यद्यपि अपूर्वकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिकी गोपुच्छाओंके असंख्यातगुणित होने में आशंका हो सकती है, क्योंकि अपूर्वकरणमें जघन्य और उत्कृष्ट परिणाम पाये जाते हैं, तथापि अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिकी गोपुच्छाओंके असंख्यातगुणित होनेमें कोई आशंका नहीं है, क्योंकि अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंमें जघन्य और उत्कृष्टका भेद नहीं होनेसे क्षपितकर्माश और गुणितकर्मा श जीवों में वे समान पाई जाती हैं । अतः अन्तिम फालिका द्रव्य असंख्यातगुणा है ऐसा ग्रहण करना चाहिये ।
$ १७९. अब यहां अपवर्तनाको स्थापित कर द्रव्यप्रमाणका निर्णय करते हैं। वह इस प्रकार है- योगगुणकारसे उत्पन्न डेढ़ गुणहाणिगुणित समयप्रबद्ध में एक समय कम आवलिप्रमाण प्रकृतिगोपुच्छा और विकृतिगोपुच्छा सहित अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण सम्बन्धी गुणश्रेणियों को लानेके लिये स्थापित असंख्यात रूपसे भाजित अन्तिम फालिका भाग देने पर एक समय कम आवलिप्रमाण गोपुच्छाओंका उत्कृष्ट द्रव्य आता है । और डेढ़ गुणहानिसे गुणित समयप्रबद्ध में अन्तर्मुहूर्तसे भाजित ऐसे अपकर्षण- उत्कर्षण भागहार से गुणित दो छयासठ सागरकी अन्योन्याभ्यस्तराशिका भाग देने पर अन्तिम फालिका द्रव्य आता है । अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी गुणश्र ेणिकी गोपुच्छाओंके लानेके लिए स्थापित असंख्यात रूपसे गुणित योगके गुणाकारका अन्तिम फालिमें भाग देने पर जो लब्ध आवे उससे यतः अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्षण- उत्कर्षण भागहारसे गुणित जो दो छयासठ सागर की
१. ता० प्रती 'खविदकम्मंसिएस' इति पाठः । २ ता०प्रतौ घेत्तव्वं । ण य ओवहणं इति पाठः । ३. आ० प्रतौ 'समयपबद्धचरिमफालीए' इति पाठः ।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं चरिमफालिदव्वमसंखेजगुणहीणं ति, तदसंखेजगुणत्तस्स कारणाणुवलंभादो। असंखेजरूवगुणिदवेछावहिअण्णोण्णब्भत्थरासीदो चरिमफालिआयामो असंखेजरूववड्डिदो वि संतो असंखेजगुणहीणो त्ति' काए जुत्तीए णव्वदे ? पुव्वं परूविदाए। ण च भागहारे बहुए संते लद्धपमाणं बहुअं होदि, विप्पडिसेहादो। तदो अत्थदो ओवट्टणादो' दुचरिमफालिदव्वमसंखेजगुणं ति सिद्धं ।। __ १८० संपहि इम चरिमफालिदव्वं परमाणुत्तरकमण दोवड्डीहि एगगोवुच्छमत्तम गसमएण ओकड्डणाए परपयडिसंकमण च विणासिददव्वमत्तं च वड्ढावेदव्वं । एवं वड्डिदण हिदेण अण्णेगो समयणवेछावट्ठीओ भमिय मिच्छत्तं खविय चरिमफालिं धरेदण द्विदजीवो सरिसो; पुव्विल्लेण वढाविददव्वस्स एत्थ खयाणुवलंभादो। पुणो इम घेत्तूण परमाणुत्तरकमण एगगोवुच्छमत्तम गसमएण ओकड्डणाए परपयडिसंकमण च विणासिददव्वमत्तं च वढावेदव्वं । एवं वड्डिदण हिदेण अण्णेगो दुसमयूणवेछावहिं भमिय मिच्छत्तचरिमफालिं धरेदूण विदखवगो सरिसो। एवं जाणिदूण ओदारेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तूणविदियछावहिमोदिण्णो त्ति । इममत्व दृविय अन्योन्याभ्यस्तराशि वह असंख्यातगुणी है, अतः एक समयकम आवलिप्रमाण उत्कृष्ट गोपुच्छाओंसे अन्तिम फालिका द्रव्य असंख्यातगुणा हीन है, क्योंकि उसके असंख्यातगुणे होनेका कोई कारण नहीं है।
शंका-असंख्यात रूपसे गुणित दो छ्यासठ सागरकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे अन्तिम फालिका आयाम असंख्यात रूपसे बढ़ा हुआ होने पर भी असंख्यातगुणा हीन है यह किस युक्तिसे जाना ?
समाधान-पहले कही हुई युक्तिसे जाना। दूसरे, भागहारके बहुत होने पर लब्धका प्रमाण बहुत नहीं होता, क्योंकि ऐसा होनेका निषेध है। अतः वास्तवमें अपवर्तनासे द्विचरिम फालिका द्रव्य असंख्यातगुणा है यह सिद्ध होता है।
६१८०. अब इस अन्तिम फालिके दव्यको एक एक परमाण अधिकके क्रमसे दो वदियोंके द्वारा एक गोपुच्छप्रमाण तथा एक समयमें अपकर्षण और अन्य प्रकृतिरूप संक्रमणके द्वारा विनष्ट हुए द्रव्यप्रमाण बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ एक समयकम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके फिर मिथ्यात्वका क्षपण करके अन्तिम फालिको धारण करनेवाला जीव समान है, क्योंकि पहले जीवने जो द्रव्य बढ़ाया है उसका इस जीवके क्षय नहीं पाया जाता। फिर इस द्रव्यको लेकर एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे एक गोपुच्छप्रमाण और एक समयमें अपकर्षण और अन्य प्रकृतिसंक्रमणके द्वारा विनष्ट हुए द्रव्यको बढ़ाना चाहिए । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ दो समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिको धारण करनेवाला क्षपक जीव समान है। इस प्रकार जोनकर अन्तर्मुहूर्तकम दूसरे छयासठ सागर कालके प्राप्त होने तक उतारते जाना चाहिए।
१. ता०प्रतौ 'असंखेजगुणो त्ति' इति पाठः । २. आ०प्रतौ 'अत्थदो अधदो प्रोवट्टणादो' इति पाठः । ३. ता०प्रती'-दब्वमेतं वद्राशेदवं' इति टाठः।
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जयघवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेक्त्तिी ५
परमाणुत्तरादिकमरेण दोहि वड्डीहि अंतोमुहुत्तमत गोवुच्छाओ तो मोकडणाए परपयडिसंकमण च विणासिददव्वम ेत्तं च एत्थ वड्ढावेदव्वं । एवं वड्ढिदेण अण्णेगो पढमछावहिं भमिय सम्मामिच्छत्तं पडिवजमाणपढमसमए दंसणमोहक्खवणमाढविय मिच्छत्तचरिमफालिं धरेदूण ष्ट्ठिदजीवो सरिसो । पुणो इम धेत्तूण परमाणुत्तरकमेण दोड्डीहि एगगोवच्छमेत्तमेगसमएण ओकड्डणाए परपयडिसंकम ेण च विणासिदवन्वमतं च वढावेदवं । एवं वहिदेण अण्णो खविदकम्म सिओ भमिदसमयूणपढमछा वहिसागरोवमो धरिदमिच्छत्तचरिमहिदिखंडयचरिमफालीओ सरिसो | एवं जाणिदूण ओदारेदव्व जाव पढछामि तोमुहुत्तूणं ओदिण्णो त्ति । पुणो तत्थ इविय पयडि - विगिदिगोवुच्छाकुंभणवलेण परिणाम अस्सिदूण अपुव्वगुणसेटिं वड्डाविय परिणामभेदाभावादो अणियट्टिगुणसेढिमवट्ठिदं ठविय पुणो परमाणुचरकमण पंचवड्डीहि चत्तारि पुरिसे अस्सिदूण चरिमफालिम ताओ पर्याडि - विगिदिगोवुच्छाओ वडाव दव्वाओ जाव दुचरिमडिति । तत्थ चरिमवड्डिवियप्पो बुच्चदे । तं जहा -- सत्तमाए पुढवीए मिच्छत्तदव्यमुकस्सं करिय पुणो दोतिण्णिभवग्गहणाणि तिरिक्खेसु उववजिय पुणो मणुस्सेसु उववजिय सव्वलहुं जोणिणिकमणजम्मणेण अंतोमुहुत्त भहियअट्ठवासीओ होदूण मिच्छत्तचरिमफालिं धरेण द्विदम्मि चरिमवियप्पो । पुणो इमं सत्तमपुढविचरिम
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इस द्रव्यको यहीं स्थापित करके एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे दो वृद्धियों के द्वारा अन्तर्मुहूर्तप्रमाण गोपुच्छाएँ और अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त अपकर्षण और अन्य प्रकृतिरूप संक्रमणके द्वारा विनष्ट हुए द्रव्यको इस पर बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ प्रथम छयासठ सागर तक भ्रमण करके जिस समय सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थानको प्राप्त होनेवाला था उसके प्रथम समयमें दर्शनमोहके क्षपणको प्रारम्भ करके मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिको धारण करनेवाला अन्य जीव समान है । फिर इसको लेकर एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे दो वृद्धियोंके द्वारा एक गोपुच्छप्रमाण द्रव्यको और एक समय में अपकर्षण और अन्य प्रकृतिरूप संक्रमणके द्वारा विनष्ट हुए द्रव्यको बढ़ाना चाहिए । इस प्रकार बढ़ानेवाले जीवके साथ एक समयक्रम प्रथम छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके मिथ्यात्वके अन्तिम स्थितकाण्डककी अन्तिम फालिका धारक क्षपितकर्मा शवाला अन्य जीव समान है । इस प्रकार जानकर अन्तर्मुहूर्तकम प्रथम छयासठ सागरके प्राप्त होने तक उतारते जाना चाहिए । फिर वहाँ ठहरा कर प्रकृतिगोपुच्छा और विकृतिगोपुच्छा के अवलम्बनसे परिणामों का आश्रय लेकर, अपूर्वकरणसम्बन्धी गुणश्र ेणिको बढ़ाओ और अनिवृत्तिकरण में परिणामोंका भेद न होनेसे अनिवृत्तिकरणसम्बन्धी गुणश्र णिको तदवस्थ रखो। फिर एक एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे पाँच वृद्धियोंके द्वारा चार पुरुषोंका आश्रय लेकर द्विचरम वृद्धि पर्यन्त अन्तिम फालिप्रमाण प्रकृतिगोपुच्छाओं और विकृतिगोपुच्छाओंको बढ़ाओ । उनमें से वृद्धिका अन्तिम विकल्प कहते हैं । वह इस प्रकार है- सातवें नरकमें मिथ्यात्वके द्रव्यको उत्कृष्ट करके तिर्यों में दो तीन भव धारण करे। फिर मनुष्यों में उत्पन्न होकर, सबसे लघु कालके द्वारा योनि से निकलकर, अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्षका होकर मिथ्यात्व की अन्तिम फालिको धारण करे उसके अन्तिम विकल्प होता है । फिर इसे सातवें नरकके अन्तिम समयवर्ती
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१९३ समयणेरइयदव्वेण सह संधिय तं मोत्तूणेदं घेत्तूण परमाणुत्तरकमण दोहि वड्डीहि वहाव दव्वं जाव अप्पणो ओघुक्कस्सदव्वं पत्तं त्ति । एवं मिच्छत्तस्स खविदकम्मंसियमस्सिदूण कालपरिहाणीए हाणपरूवणा कदा ।
६ १८१. संपहि तस्सेव मिच्छत्तस्स गुणिदकम्मंसियमस्सिदूण कालपरिहाणीए ढाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा-खविदकम्मंसियलक्खणेण वेछावट्ठीओ भमिय मिच्छत्तं खत्रिय दुसमयकालहिदिएगणिसेगमेत्तजहण्णदव्यं धरेदूग द्विदो परमाणुत्तरकमेण पंचवड्डीहि वड्ढावेदव्यो जाव अप्पणो उक्कस्सदव्वं पत्तो ति । एदेण अण्णेगो गुणिदकम्मंसिओ' रइयचरिमसमए एगगोवुच्छविसेसेण एगसमयमोकड्डणपरपयडिसंकमेहि विणासिन्जमाणदव्वेण च ऊणमुक्कस्सदव्वं करिय पुणो तत्तो णिप्पिडिय समय णवेछावट्ठीओ भमिय मिच्छत्तं खविय एगणिसेगं दुसमयकालहिदियं धरेदूण द्विदजीवो सरिसो। संपहि इमं खवयगोवुच्छं घेत्तूण वडावेदव्वं जाव तेणूणीकददव्वं वडिदं ति । एवं वड्डिदण हिदेण अण्णेगो एगगोवुच्छविसेसेण एगसमयमोकड्डण-परपयडिसंकमेहि विणासिददव्वेण य ऊणुक्कस्सं पयदगोवुच्छं णेरइएसु करिय पुणो तत्तो पिग्गंतूण दुसमयूणवेछावट्ठीओ भमिय मिच्छत्तं खविय एगणिसेगं दुसमयकालहिदियं धरेमाणहिदो सरिसो । एवं जाणिदूण ओदारेदव्वं जाव नारकीके द्रव्यके साथ मिलाओ और उसे छोड़ इसे लो। फिर इस पर एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे दो वृद्धियों के द्वारा तब तक बढ़ाओ जब तक अपने ओघरूप उत्कृष्ट द्रव्यकी प्राप्ति हो। इस प्रकार क्षपितकर्माशको लेकर कालकी हानिके द्वारा मिथ्यात्वके स्थानोंका कथन किया।
१८१. अब गुणितकर्मा शको लेकर कालकी हानिके द्वारा उसी मिथ्यात्वके स्थानोंका कथन करते हैं । वह इस प्रकार है-क्षपितकाशके लक्षणके साथ दो छयासठ सागर तक भ्रमण कर और मिथ्यात्वका क्षपण करके दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकप्रमाण जघन्य द्रव्यको धारण करके फिर उसे एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे पाँच वृद्धियोंके द्वारा तब तक बढ़ाना चाहिए जब तक अपना उत्कृष्ट द्रव्य प्राप्त हो। इस प्रकार उत्कृष्ट द्रव्यको करके स्थित हुए जीवके साथ एक अन्य गुणितकर्मा शवाला नारकी अन्तिम समयमें एक गोपुच्छविशेष और एक समयमें अपकर्षण और अन्य प्रकृतिरूप संक्रमणके द्वारा नष्ट होनेवाले द्रव्यसे होन उत्कृष्ट द्रव्यको करके फिर वहाँसे निकलकर एक समयकम दो छयासठ सागर तक भ्रमण कर मिथ्यात्वका क्षपण करके दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकका धारक होने पर समान होता है। अब इस क्षपककी गोपुच्छको तब तक बढ़ाना चाहिए जब तक उसके द्वारा कम किया हुआ द्रव्य वृद्धिको प्राप्त हो । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ एक गोपुच्छविशेष तथा एक समयमें अपकर्षण और अन्य प्रकृतिरूप संक्रमणके द्वारा नष्ट होनेवाले द्रव्यसे हीन उत्कृष्ट प्रकृतिगोपुच्छको नारकियोंमें करके फिर वहाँसे निकलकर दो समय कम दो छयासठ सागर तक भ्रमण करके मिथ्यात्वका क्षय करके दो समय काल स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित हुआ एक अन्य जीव समान है। इस प्रकार
१. आ० प्रती 'अण्णण गुणिदकम्मंसिनो' इति पाठः।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ अंतोमुहुत्तूणविदियछावही ओदिण्णा त्ति । संपहि तत्थ अंतोमुहुत्तमेत्तकाले अकमेण ऊणीकदे वि होदि तमम्हे एत्थ ण परूवेमो, बहुसो परूविदत्तादो ।
$ १८२. संपहि एत्थ समयूणादिकमेण ओयरणविहाणं उच्चदे। तं जहाचरिमसमयणेरइयो एगगोवुच्छविसेसेण एगसमयमोकड्डणपरपयडिसंकमेहि विणासिजमाणदव्वेण य ऊणमुक्कस्सं पयदगोवुच्छं करिय तत्तो णिप्पिडिय समयूणं पढमछावहिं भमिय सम्मत्तचरिमसमए सम्मामिच्छ त्तं प्रडिवजिय सम्मामिच्छत्तचरिमसमए सम्मत्तं पडिवन्जिय पुणो अंतोमुहुत्तमच्छिय मिच्छत्तं खविय एगणिसेगं दुसमयकालडिदिं करेदण हिदो पुविल्लेण सरिसो। एवं पढमछावढि सगचरिमसमयादो एग-दोसमयादिकमेण ओदारेदव्वा जाव सम्मामिच्छत्तकालो विदियछावट्ठीए उव्वरिदसम्मामिच्छत्तक्खवणद्धपेरंतकालो च सविसेसो ओदिण्णो ति । एवमोदिण्णेण अण्णेगो पढमछावहिं भमिय सम्मामिच्छ त्तमपडिवजिय मिच्छत्तं खविय तदेगगोवच्छं दुसमयकालहिदियं पढमछावहिचरिमसमयादो अंतोमुहुत्तमोदरिय धरेदश द्विदो सरिसो । एदेण अण्णेगो एगगोवुच्छविसेसेण एगसमएण ओकड्डण-परपयडिसंकमेण विणासिजमाणदव्वेण य ऊणमुक्कस्सं पयदगोवच्छं णेरइयचरिमसमए करिय समऊणपुव्विल्लकालं परभमिय मिच्छत्तं खविय तदेगगोवुच्छं दुसमयकालहि दियं जानकर अन्तमुहूर्त कम दूसरे छयासठ सागर काल कम होने तक उतारते जाना चाहिये । वहां अन्तर्मुहूर्तकाल एक साथ कम करने पर भी समानता होती है पर उसे हमने यहां नहीं कहा है, क्योंकि उसका अनेक बार कथन कर आये हैं।
१८२ अब यहांपर एक समय कम आदिके क्रमसे अवतरणविधिका कथन करते हैं। वह इसप्रकार है-एक अन्तिम समयवर्ती नारकी है जिसने एक गोपुच्छविशेषसे तथा अपकर्षण और परप्रकृति संक्रमणके द्वारा नष्ट होनेवाले द्रव्यसे हीन उत्कृष्ट प्रकृतगोपुच्छको किया । फिर वहांसे निकल कर एक समय कम प्रथम छयासठ सागर तक भ्रमण किया। फिर सम्यक्त्वके अन्तिम समयमें सम्यग्मिथ्यात्वको और सम्यग्मिथ्यात्वके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वको प्राप्त किया। फिर अन्तर्मुहूर्त तक ठहरकर मिथ्यात्वका क्षय किया। ऐसा करते हुए जब वह दो समय कालकी स्थितिवाले एक निषेकको करके स्थित होता है तो वह पहलेके जीवके समान होतो है। इस प्रकार अपने अन्तिम समयसे लेकर एक समय और दो समय आदिके क्रमसे प्रथम छयासठ सागर कालको तब तक उतारते जाना चाहिये जब तक सम्यग्मिथ्यात्वका काल और दूसरे छयासठ सागरमें शेष बचा सविशेष मिथ्यात्वका क्षपण तकका काल घट जाय । इस प्रकार उतरते हुए जीवके साथ प्रथम छयासठ सागर तक भ्रमण करके और सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुए बिना मिथ्यात्वका क्षय करके पहले छयासठ सागरसे अन्तर्मुहूर्त उतरकर दो समय कालकी स्थितिवाले मिथ्यात्वके एक गोपुच्छाको धारण करके स्थित हुआ अन्य एक जीव समान है। अब अन्य एक जीव लो जिसने एक गोपुच्छ विशेषसे तथा एक समयमें अपकर्षण और परप्रकृत्ति संक्रमणके द्वारा विनाशको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे कम नारकीके अन्तिम समयमें उस्कृष्ट प्रकृति गोपुच्छको किया है। फिर एक समय कम पूर्वोक्त काल तक परिभ्रमण करके मिथ्यात्वका क्षय किया। वह जब दो समय कालकी स्थितिवाले मिथ्यात्वके एक निषेकको
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं धरेदूण हिदो सरिसो । एवं समयूणादिकमेण ओदारेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तूणपढमलावहि त्ति । एवमोदारिदे एगं फद्दयं होदि, अंतराभावादो।
. १८३. संपहि विदियफद्दए ओदारिजमाणे पुव्वं व ओदारेदव्वं । णवरि दोगोबुच्छविसेसेहि एगसमयमोकड्डण-परपयडिसंकमेहि विणासिजमाणदव्वेण य णेरइयचरिमसमए पयददोगोवुच्छाओ ऊणाओ करिय समयूणवेछावडीओ भमिय मिच्छत्तं खविय तदो गोवुच्छाओ तिसमयकालहि दियाओ धरेदण द्विदो सरिसो । पुणो एदं दव्वं परमाणुत्तरकमेण वड्ढावेदव्वं जावप्पणो ऊणीकददव्वं वड्डिदं ति । एदेण अण्णेगो दोगोवुच्छविसेसेहि एगसमयमोकड्डण-परपयडिसंकमेहि विणासिजमाणदव्वेण य पयददोगोवुच्छाणमणमुक्कस्सं करिय दुसमयणवेछावडीओ भमिय मिच्छत्तं खविय तद्दोगोवुच्छाओ तिसमयकालहिदियाओ घरदूण द्विदो सरिसो। एवं संधीओ जाणिय ओदारेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तूणवेछावडीओ ओदिण्णाओ ति । एवमोदारिदे विदियं फद्दयं होदि; अंतराभावादो।'
$ १८४. संपहि तदियफद्दए ओदारिजमाणे पुव्वं व ओदारेदव्यं । णवरि तीहि गोवुच्छविसेसेहि एगसमयमोकड्डण-परपयडिसंकमेहि विणासिन्जमाणदव्वेण य ऊणमुक्कस्सं तिहं पयदगोवुच्छाणं कादूणोदारेदव्वं । एवं समयूणावलियमेत्तफद्दयाणि धारण करके स्थित होता है तब वह पूर्वोक्त जीवके समान होता है। इस प्रकार एक समय कम आदिके क्रमसे अन्तर्मुहूर्त कम पहले छयासठ सागर काल तक उतारते जाना चाहिये। इस प्रकार उतारने पर एक स्पर्धक होता है, क्योंकि बीच में अन्तर नहीं पाया जाता ।
६१८३. अब दूसरे स्पर्धकके उतारने पर पहलेके समान उतारना चाहिये । इतनी विशेषता है कि नारकीके अन्तिम समयमें प्रकृतिगोपुच्छाओंको दो गोपुच्छविशेषोंसे तथा एक समयमें अपकर्षण और परप्रकृतिरूपसे संक्रमणके द्वारा विनाशको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे कम करे। तथा एक समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके मिथ्यात्वका क्षय करे । ऐसा करते हुए तीन समय कालको स्थितिवाले मिथ्यात्वके दो निषेकोंको धारण करके स्थित हुआ जीव समान है । फिर इस द्रव्यको एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे अपने कम किये गये द्रव्यके बढ़ने तक बढ़ाता जाय । अब एक अन्य जीव लो जो दो गोपुच्छविशेषोंसे तथा एक समयमें अपकर्षण और परप्रकृति संक्रमणके द्वारा विनाशको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे न्यून प्रकृत दो गोपच्छाओंको उत्कृष्ट करके दो समय कम दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण करके और मिथ्यात्वका क्षय करके तीन समय कालकी स्थितिवाले मिथ्यात्वके दो गोपच्छाओंको धारण करके स्थित है । वह पहले बढ़ाकर स्थित हुये जीवके समान है। इस प्रकार सन्धियोंको जानकर अन्तर्मुहूर्त कम दो छयासठ सागर काल उतरने तक उतारते जाना चाहिये । इस प्रकार उतारने पर दूसरा स्पर्धक होता है, क्योंकि बीचमें अन्तरका अभाव है।
६१८४ अब तीसरे स्पर्धकके उतारने पर पहलेके समान उतारते जाना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि तीन गोपुच्छविशेषोंसे तथा एक समयमें अपकर्षण और परप्रकृति संक्रमणके द्वारा विनाशको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे न्यून तीन प्रकृति गोपुच्छाओंको उत्कृष्ट करके उतारना चाहिये। इस प्रकार एक समय कम आवलिप्रमाण स्पर्धकोंका आश्रय लेकर अलग अलग
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ अस्सिदूण पुध पुध कालपरिहाणीए द्वाणपरूवणा कायव्वा जाव समयूणावलियमेत्तफद्दयाणि सगसगुक्कस्सत्तं पत्ताणि त्ति ।
१८५. तत्थ सयपच्छिमफद्दयस्स ओयारणकमो वुच्चदे । तं जहा—गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण वेछावट्ठीओ भमिय मिच्छत्तं खविय समयूणावलियमेत्तगुणसेढिगोवुच्छाओ धरिय द्विदेण अण्णेगो समयूणावलियमेत्तगोवुच्छविसेसेहि एगसमयमोकड्डण-पयडिसंकमेहि विणासिजमाणदव्वेण य ऊणमुक्कस्सं समयूणावलियमत्तगोवुच्छाणं करिय आगंतूण समयूणवेछावडीओ भमिय मिच्छत्तं खविय समऊणावलियमेत्तगुणसेढिगोवुच्छाओ धरेदूण हिदो सरिसो । संपहि इमघेत्तूण परमाणुत्तरकमेण वड्ढावेदव्व जावप्पणो ऊणीकदं वड्विदं ति । एवं णाणाजीवे अस्सिदूण संधीओ जाणिय ओदारेदव्यं जाव अंतोमुहुत्तूणवेछावहिमोदिण्णो त्ति ।
१८६. पुणो एदेण णेरइएसु मिच्छत्तदव्यमुक्कस्सं करिय आगंतूण तिरिक्खेसुववन्जिय तत्थ अंतोमुहुत्तं गमिय मणुस्सेसुववजिय जोणिणिक्कमणजम्मणेण अंतोमुहुत्तब्भहियअहवस्साणमुवरि मिच्छत्तं खविय समयूणावलियमेत्तगुणसेढिगोवुच्छाओ धरेदण द्विदेण मिच्छत्तमुक्कस्सं करिय वेछावट्ठीओ भमिय दंसणमोहक्खवणमाढविय
कालको हानि द्वारा एक समय कम आवलिप्रमाण स्पर्धकोंके अपने अपने उत्कृष्टपनेको प्राप्त होने तक स्थानोंका कथन करना चाहिये ।
६१८५ अब सबसे अन्तिम स्पर्धकके उतारनेका क्रम कहते हैं जो इस प्रकार हैएक जीव ऐसा है जो गुणितकाशकी विधिसे आकर दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके और मिथ्यात्वका क्षय करके एक समय कम आवलिप्रमाण गुणश्रेणि गोपुच्छाओंको धारण करके स्थित है। तथा एक अन्य जीव ऐसा है जो एक समय कम आवलिप्रमाण गोपुच्छाविशेषोंसे तथा एक समयमें अपकर्षण और परप्रकृति संक्रमणके द्वारा विनाशको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे न्यून एक समय कम आवलिप्रमाण गोपुच्छाओंको उत्कृष्ट करके आया है और एक समय कम दो छयासठ सागर तक परिभ्रमण करके तथा मिथ्यात्वका क्षय करके एक समय कम आवलिप्रमाण गुणश्रेणिगोपुच्छाओंको धारण करके स्थित है। इस प्रकार स्थित हुआ यह जीव पिछले जीवके समान है। अब इसे लेकर एक एक परमाणुके उत्तरोत्तर अधिक के क्रमसे अपने कम किये हुए द्रव्यके बढ़ने तक बढ़ाते जाना चाहिये । इस प्रकार नाना जीवों का आश्रय लेकर और सन्धियोंको जानकर अन्तर्मुहूर्त कम दो छयासठ सार तक उतारते जाना चाहिये।
६१८६ फिर इस जीवने नारकियोंमें मिथ्यात्वके द्रव्यको उत्कृष्ट किया और वहांसे आकर तिर्यश्चोंमें उत्पन्न हुआ। और वहाँ अन्तर्मुहूर्त बिताकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। वहाँ योनिसे बाहर पड़नेरूप जन्मसे लेकर आठ वर्ष और अन्तमुहूर्त होने पर मिथ्यात्वका क्षय करके एक समयकम आवलिप्रमाण गुणश्रेणिगोपुच्छाओंको धारण करके स्थित हुआ । इस प्रकार स्थित हुए इस जीवके साथ मिथ्यात्वके द्रव्यको उत्कृष्ट करके दो छयासठ सागर तक भ्रमण करके और दर्शनमोहनीयके क्षयका आरम्भ करके मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिको
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं मिच्छ त्तचरिमफालिं धरिय द्विददव्वं सरिसं ण होदि, असंखेजगुणत्तादो। एदेण अण्णेगो रइयचरिमसमयम्मि एगगोवुच्छाए एगसमयमोकड्डण-परपयडिसंकमेहि विणासिजमाणदव्वेण य ऊणमुक्कस्सदव्य करिय आगंतूण समयणवेछावडीओ भमिय मिच्छत्तं खविय तच्चारिमफालिं धरिय हिदो सरिसो। संपहि इमेण ऊणीकददव्वं वड्ढावेदव्य । एवं वाड्तेदण हिदेण अण्णेगो एगगोवुच्छाए एगसमयमोकड्डण-परपयडिसंकमेहि विणासिञ्जमाणदव्वेण य ऊणं मिच्छत्तमुक्कस्सं करिय दुसमयूणवेछावडीओ भमिय मिच्छत्तचरिमफालिं धरिय द्विदो सरिसो । संपहि इमेण ऊणीकददव्व परमाणुत्तरकमेण वड्ढावेदव्वं । एदेण अण्णेगो एगगोवुच्छाए एगसमयमोकड्ड ण-परपयडिसंकमेहि विणासिजमाणदव्वण य ऊणमुक्कस्सं करिय तिसमयूणवेछावडिओ भमिय चरिमफालिं धरिय हिदो सरिसो। एवं संधीओ जाणिय ओदारेदव्व जाव अंतोमुहुत्तणवेछावडीओ ओदिण्णाओ त्ति । संपहि गुणिदकम्मंसियलक्खणेण मिच्छत्तमुक्कस्सं करिय तिरिक्खेसुववन्जिय तत्तो मणुस्सेसुववजिय जोगिणिक्कमणजम्मणेण अंतोमुहुत्तब्भहियअहवस्साणि गमिय मिच्छत्तचरिमफालिं धरिय हिदम्मि चरिमफालिदव्वमुक्कस्सं होदि त्ति भावत्थो । संपहि गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागदणेरइयचरिमसमय
धारण करके स्थित हुए जीवका द्रव्य समान नहीं है, क्योंकि यह उससे असंख्यातगुणा है। हाँ इसके साथ एक अन्य जीव समान है जो नारकियोंके अन्तिम समयमें एक गोपुच्छासे तथा एक समयमें अपकर्षण और परप्रकृतिसंक्रमणके द्वारा विनाशको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे न्यून द्रव्यको उत्कृष्ट करके और नरकसे आकर एक समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके तथा मिथ्य त्वका क्षय करते हए उसकी अन्तिम फालिको धारण करके स्थित है। अब इसके द्वारा कम किया हुआ द्रव्य बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जिसने एक गोपुच्छासे तथा एक समयमें अपकर्षण और परप्रकृतिसंक्रमणके द्वारा विनाशको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे कम मिथ्यात्वका दव्य उत्कृष्ट किया है। अनन्तर जो दो समयकम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके और मिथ्यात्वका क्षय करते हुए मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिको धारण करके स्थित है। अब इस जीवके द्वारा कम किये हुए द्रव्यको उत्तरोत्तर एक एक परमाणुके क्रमसे बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जिसने एक गोपुच्छासे तथा एक समयमें अपकर्षण और परप्रकृतिसंक्रमणके द्वारा विनाशको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे कम मिथ्यात्वका द्रव्य उत्कृष्ट किया है और तीन समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके जो अन्तिम फालिको धारण करके स्थित है। इस प्रकार सन्धियोंको जानकर अन्तमुहूर्त कम दो छ्यासठ सागर काल उतरने तक उतारते जाना चाहिए । अब गुणितकर्मांशकी विधिसे आकर मिथ्यात्वके द्रव्यको उत्कृष्ट करके तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न होकर और वहाँ से मनुष्योंमें उत्पन्न होकर योनिसे बाहर पड़नेरूप जन्मसे लेकर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष बिताकर मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिको धारण करके स्थित हुए जीवके अन्तिम फालिका द्रव्य उत्कृष्ट होता है यह इसका भावार्थ है। अब गुणितकाशविधिसे आकर जो नारकी हुआ है उसके अन्तिम समयका द्रव्य इस
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- जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ दव्यमेदेण' सरिसमूणहियं पि अत्थि । तत्थ सरिसं घेत्तूण परमाणुत्तरकमेण दोहि वड्डीहि वड्डावेदव्वं जाव मिच्छत्तमुक्कस्सदव्वं पत्तं ति । एवं कदे आवलियमेत्तफद्दयाणि अस्सिदूण मिच्छत्तस्स विदियपयारेण हाणपरूवणा कदा होदि ।
१८७. संपहि खविदकम्मंसियस्स संतकम्ममस्सिदण हाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा–समयूणावलियमेत्तफहएमु समयूणावलियमेत्ताणि चेव सांतरट्ठाणाणि उप्पजंति, तत्थ ख विदकम्मसियसंतं पडि णिरंतरठाणुप्पत्तीएर अभावादो। संपहि खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सम्मत्तं पडिवज्जिय वेछावट्ठीओ भमिय मिच्छत्तचरिमफालिं धरिय हिदखवगो परमाणुत्तरकमेण दोहि वड्डीहि वड्ढावेदव्यो जाव दुचरिमसमय म्मि परसरूवण गददुचरिमफालिदव्वं पुणो थिउक्कस्संतरेण संकमेण सम्मत्तसरू वेण गदगुणसेढिगोवुच्छदव्वं च वड्डिदं ति । पुणो एदेण अण्णेगो जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण वेछावहीओ भमिय मिच्छत्तदुचरिमफालिं धरिय हिदो सरिसो। संपहि इमं घेत्तूण परमाणुत्तरकमेण वड्डाव दव्यो जाव तिचरिमसमयम्मि गदतिचरिमफालिदव्य तत्थेव त्थिवुक्कसंकमेण गदगुणसेढिगोवुच्छदव्वं च वड्डिदं ति । एवं वड्डिदण द्विदेण जहण्णसामित्तविहाणणागंतूण वेछावहीओ भमिय मिच्छत्ततिचरिमफालिं धरिय हिदो सरिसो । एवमोदारेदव्वं जाव चरिमखंडयपढमफालि त्ति, विसेसाभावादो। द्रव्यके समान भी होता है, न्यून भी होता है और अधिक भी होता है। उसमेंसे समान द्रव्यको ग्रहण कर एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे मिथ्यात्वके उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक दो वृद्धियोंके द्वारा उसकी वृद्धि करनी चाहिये । ऐसा करने पर एक आवलिप्रमाण स्पधेकोंका आश्रय लेकर मिथ्यात्वके स्थानोंकी प्ररूपणा दूसरे प्रकारसे की गई है।
६९८७. अब क्षपितकाशके सत्कर्मका आश्रय लेकर स्थानोंका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है-एक समय कम आवलिप्रमाण स्पर्धकोंके एक समय कम आवलिप्रमाण ही सान्तर स्थान उत्पन्न होते हैं, क्योंकि उनमें क्षपितकर्माशके सत्त्वकी अपेक्षा निरन्तर स्थानोंकी उत्पत्ति नहीं होती। अब एक ऐसा क्षपक जीव लो जो क्षपितकर्माशकी विधिसे आकर सम्यक्त्वको प्राप्त करके, दो छ्यासठ सागर काल तक भ्रमण करके मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिको धारण करके स्थित है। फिर इसके दो वृद्धियोंके द्वारा उत्तरोत्तर एक एक परमाणुके क्रमसे द्रव्यको तब तक बढ़ाओ जब तक इसके द्वि चरम समयमें प्राप्त हुआ द्विचरिम फालिका द्रव्य तथा स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ गुणश्रेणि और गोपुच्छाका द्रव्य वृद्धि को प्राप्त हो जाय । फिर इस जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो जघन्य स्वामित्वकी विधिसे आकर दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके मिथ्यात्वकी द्विचरम फालिको धारण करके स्थित है। अब इस जीवको लेकर उत्तरोत्तर एक एक परमाणुके क्रमसे तब तक बढ़ाओ जब तक इसके द्विचरम समयमें प्राप्त हुआ त्रिचरम फालिका द्रव्य तथा वहीं पर स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा अन्य प्रकृतिको प्राप्त हुआ गुणश्रोणि और गोपुच्छाका द्रव्य वृद्धिको प्राप्त हो जाय । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो जघन्य स्वामित्वकी विधिसे आकर, दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके
१. आ०प्रतौ 'दब्वमेत्तेण' इति पाठः । २. आ०प्रतौ 'णिरंतरं ठाणुप्पत्तीए' इति पाठः ।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं ६ १८८. संपहि दुचरिमखंडयचरिमफालिप्पहुडि हेट्ठा ओदारिजमाणे फालिदव्वं ण वड्ढावेदव्वं, दुचरिमादिसव्वहिदिखंडयफालीणं परसरूवेण गमणाभावादो । तेण चरिमखंडयस्सुवरि वड्दाविजमाणे दुचरिमखंडयचरिमसमयम्मि गुणसंकमण गददव्व' तत्थ त्थिवुक्कसंकमेण गदगुणसेढिगोवच्छदव्वं च वड्ढाव दव्वं । एदेण जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण वेछावट्ठीओ भमिय चरिमद्विदिखंडएण सह दुचरिमखंडयचरिमफालिं धरिय हिदो सरिसो । एवं गुणसंकमभागहारेण गददव्वं त्थिवुकसंकमेण गदगुणसे ढिगोवुच्छ' च वडाविय ओदारेदव्वं जाव आवलियअणियट्टि त्ति । संपहि एत्तो प्पहुडि हेहा गुणसंकमेण गददव्वं त्थिउक्कसंकमण गदअपुत्रगुणसेढिगोवुच्छ च वड्डाविय
ओदारेदव्वं जाव आवलियअपुव्वकरणे त्ति । एत्तो प्पहुडि हेढा ओदारिजमाणे गुणसंकमेण गददव्वं संजमगुणसेढिगोवुच्छदव्य च' वड्डाविय ओदारेदव्य जाव चरिमसमयअधापमत्तकरणे त्ति । एत्तो हेहा ओदारिजमाणे गुणसंकमण गददव्यं णत्थि त्ति विज्झादसंकमण गददव्वं त्थिव कगोवच्छदव्यं च वड्डाविय ओदारेदव्वं जाव विदियछावहिपढमसमयादो हेहा सम्मामिच्छादिहिचरिमसमओ त्ति । णवरि कत्थ मिथ्यात्वकी त्रिचरम फालिको धारण करके स्थित है। इस प्रकार मिथ्यात्वके अन्तिम काण्डककी प्रथम फालिके प्राप्त होने तक उतारते जाना चाहिए, क्योंकि इससे उस कथनमें कोई विशेषता नहीं है।
१८८. अब द्विचरमकाण्डककी अन्तिम फालिसे लेकर नीचे उतारने पर फालिके द्रव्यको नहीं बढ़ाना चाहिये, क्योंकि द्विचरमसे लेकर सब स्थितिकाण्डकोंकी फालियोंका पररूपसे गमन नहीं पाया जाता है, इसलिये अन्तिम काण्डकके ऊपर बढ़ाने पर विचरमकाण्डकके अन्तिम समयमें गुणसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य तथा वहीं पर स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ गुणणि और गोपुच्छाका द्रव्य बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो जघन्य स्वामित्वकी विधिसे आकर, दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके अन्तिम स्थितिकाण्डकके साथ द्विचरम स्थितिकाण्डककी चरम फालिको धारण करके स्थित है। इस प्रकार गुणसंक्रमणभागहारके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य और स्तिवुक संक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ गुणश्रीणि और गोपुच्छाका द्रव्य बढ़ाकर अनिवृत्तिकरणको एक आवलि प्राप्त होने तक उतारना चाहिए। अब यहाँसे लेकर नीचे गुणसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य तथा स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ अपूर्वकरणकी गुणश्र णि और गोपुच्छाका द्रव्य बढ़ा कर अपूवंकरणकी एक आवाल प्राप्त होने तक उतारना चाहिये । अब यहाँसे लेकर नीचे उतारने पर गुणसंक्रमके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य तथा संयमकी गुणश्रेणि गोपुच्छके द्रव्यको बढ़ाकर अधःप्रवृत्तकरणका अन्तिम समय प्राप्त होने तक उतारना चाहिये। इससे नीचे उतारने पर गुणसंक्रमसे परप्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य नहीं है इसलिये विध्यातसंक्रमके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य और स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ गोपुच्छाका द्रव्य बढ़ाकर दूसरे छयासठ सागरके प्रथम समयसे नीचे सम्यग्मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समय तक उतारना चाहिये। किन्तु इतनी विशेषता है कि कहीं पर संयतकी गुणश्रेणि गोपुच्छा, . .. १. ता०प्रतौ -संकमेणागदगुणसेढ़िगोवुच्छं' इति पाठः । २. ता०प्रतौ -गोवुच्छंच' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ वि संजदगुणसेढिगोवुच्छा, कत्थ वि संजदासंजदगुणसेढिगोवुच्छा, कत्थ वि सत्याणसम्माइद्विगोवुच्छा स्थिवृक्कण संकमिदि ति एसो विसेसो जाणिदव्यो। एदम्हादो हेडा ओदारिजमाणे सम्मामिच्छादिहिम्मि स्थिवुक्कसंकमण गदगोवच्छा चेव वडावेदव्वा, तत्थ दंसणतियस्स संकमाभावादो । एवं वडिदण द्विदेण जहण्णसामित्तविहाणेणागंतण पढमछावहिं भमिय सम्मामिच्छत्तं पडिवज्जिय तस्स दुचरिमसमयहिदो सरिसो। एवमेगेगगोवुच्छ वड्डाविय ओदारेदव्वं जाव पढमछावहिचरिमसमयसम्मादिहि त्ति । पुणो एतो हेट्ठा परमाणुत्तरकमेण वडाविजमाणे णवरि हदसंकगण स्थिवुक्कर्सकमेण च गददव्वं वड्ढावेदव्यं । एवं वड्डिदूण हिदेण अण्णेगो जहण्णमामित्तविहाणेणागंतूण पढमछावहिसम्मत्तकालदुचरिमसमयद्विदो सरिसो। एवमोदारेदव्वं जाव आवलियूणपढमछावट्टि त्ति । पुणो तत्थ हविय वड्ढाविजमाणे विज्झादसंकमण गददवं चेव वड्ढावेदव्वं, त्थिवुक्कसंकमेण गदमिच्छत्तगोवुच्छाए अभावादो। एवमोदारेयव्वं जाव उवसमसम्मादिद्विचरिमसमओ ति । तत्थ दृविय पुणो वि एगसमयविज्झादसंकमगददव्वमेत्तं चेव वड्डावेयव्वं । एवं वड्डिदृण द्विदेण अण्णेगो जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण उवसमसम्मत्तं पडिवन्जिय तस्स दुचरिमसमयट्ठिदो सरिसो । एवमंत्तोमुहुत्तकालमोदारेदव्वं जाव गुणसंकमचरिमसमओ कहीं पर संयतासंयतकी गुणश्रेणिगोपुच्छा और कहीं पर स्वस्थान सम्यग्दृष्टिकी गोपुच्छा स्तिवुकसक्रमणके द्वारा परप्रकृतिरूपसे संक्रान्त होती है इतना यहाँ विशेष जानना चाहिए। अब इससे नीचे उतारने पर सम्यग्मिथ्यादृष्टिके स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुई गोपुच्छा ही बढ़ाना चाहिए, क्योंकि वहां पर दर्शनमोहनीयकी तीन प्रकृतियोंका संक्रमण नहीं होता। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ जघन्य स्वामित्व विधिसे आकर प्रथम छ यासठ सागर काल तक भ्रमण करके और सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होकर उसके द्विचरम समयमें स्थित हुआ जीव समान है। इस प्रकार एक एक गोपुच्छको बढ़ाकर प्रथम छयासठ सागरके अन्तिम समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके प्राप्त होने तक उतारते जाना चाहिये। फिर इससे नीचे उत्तरोत्तर एक एक परमाणु के क्रमसे बढ़ाने पर हतसंक्रमणके द्वारा और स्तिवुक संक्रमणके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ जघन्य स्वामित्व विधिसे आकर प्रथम छयासठ सागरसम्बन्धी सम्यक्त्वकालके द्विचरम समयमें स्थित हुआ जीव समान है। इस प्रकार एक आवलि कम प्रथम छयासठ सागर काल तक उतारना चाहिये । फिर वहां ठहराकर बढ़ाने पर विध्यातसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य ही बढ़ाना चाहिये, क्योंकि वहां पर स्तिवुक संक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुए मिथ्यात्वके गोपुच्छाका अभाव है। इस प्रकार उपशमसम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक उतरना चाहिये । अब वहां ठहराकर फिर भी एक समयमें विध्यातसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य मात्र बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ जघन्य स्वामित्व विधिसे आकर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होकर उसके द्विचरम समयमें स्थित हुआ जीव समान है। इस प्रकार गुणसंक्रमका अन्तिम समय प्राप्त होने तक अन्तर्मुहूर्त काल तक उतारना चाहिये । फिर वहां पर ठहराकर बढ़ाने पर
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
२०१ त्ति । पुणो तत्थ ठविय वड्डाविजमाणे गुणसंकमण गददव्वमेत्तं वड्ढावेदव्वं । एवं वड्डिदूण हि देण अण्णण गुणसंकमकालदुचरिमसमयहिदो सरिसो। एवं गुणसंकमण गददव्वं वड्डाविय ओदारेदव्वं जाव पढमसमयउवसमसम्मादिहि त्ति । एत्थ दृविय वड्डाविजमाणे गुणसंकमेण गददव्वमपुव्व-अणियट्टिगुणसेढिगोवुच्छाओ च वड्ढावेदव्वाओ। एवं वड्डिदूण ट्ठिदेण अण्णेगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण मिच्छादिद्विचरिमसमए हिदो सरिसो । पुणो चरिमसमयमिच्छादिद्वितकालयपञ्चग्गबंधेणूणदुचरिमगुणसेढिमत्तं' वड्ढावेदव्यो । एदेण जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण मिच्छादिट्ठी दुचरिमसमयहिदो सरिसो । एवमोदारेदव्वं जाव आवलियअपुव्वकरणमिच्छादिद्वित्ति। एत्तो हेट्ठा ओदारेहूँ ण सक्कदे, उदए गलमाणएइंदियगोवुच्छादो संपहि वज्झमाणपंचिंदियसमयपबद्धस्स असंखेजगुणत्तादो। संपहि इमेण सरिसं णेरइयचरिमसमयदव्वं घेत्तूण चत्तारि पुरिसे आसेज परमाणुत्तरकमेण पंचवड्डीहि वड्डावयव्वं जाव ओघक्कस्सदव्वं पत्तं ति । एवं खविदकम्मंसियमस्सिदूण संतकम्महाणपरूवणा कदा।
१८९. संपहि गुणिदकम्मंसियमासेज संतकम्मट्ठाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा–समयूणावलियमेत्तफद्दयाणं हाणाणं पुव्वं व परूवणा कायव्वा, विसेसाभावादो । उक्कस्सचरिमफालिदव्वं धरेदूण हिदेण अण्णेगो रइयचरिमसमए थिउक्कसंकमण गुणसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ गुणसंक्रमणके द्विचरम समयमें स्थित हुआ अन्य एक जीव समान है। इस प्रकार गुणसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य बढ़ाकर उपशमसम्यग्दृष्टिका प्रथम समय प्राप्त होने तक उतारना चाहिये। फिर यहाँ पर स्थापित करके बढ़ानेपर गुणसंक्रमके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य तथा अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणकी गुणणि गोपुच्छाओंका द्रव्य बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ क्षपितकाशकी विधिसे आकर मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समयमें स्थित हुआ अन्य एक जीव समान है। फिर अन्तिम समय मिथ्यादृष्टिके उसी कालमें नवीन बन्धसे न्यून द्विचरम गुणश्रेणिप्रमाण द्रव्यको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके साथ जघन्य स्वामित्वकी विधिसे आकर द्विचरम समयमें स्थित हुआ मिथ्यादृष्टि जीव समान है। इस प्रकार अपूर्वकरण मिथ्यादृष्टिके एक आवलि काल तक उतारना चाहिये । अब इससे नीचे उतारना शक्य नहीं है, क्योंकि उदयमें एकेन्द्रियके गलनेवाले गोपुच्छसे इस समय पंचेन्द्रियके बंधनेवाला समयप्रबद्ध असंख्यातगुणा है। अब इसके समान नारकीके अन्तिम समयवर्ती द्रव्यको लेकर चार पुरुषोंके आश्रयसे उत्तरोत्तर एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे पाँच वृद्धियोंके द्वारा ओघसे उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाते जाना चाहिये। इस प्रकार क्षपितकोशकी अपेक्षा सत्कर्मस्थानोंका कथन किया।
६१८९ अब गुणितकर्माशकी अपेक्षा सत्कर्मस्थानोंका कथन करते हैं जो इस प्रकार हैएक समय कम आवलिप्रमाण स्पधकोंके स्थानोंका कथन पहलेके समान कर लेना चाहिए, क्योंकि उनके कथनसे इनके कथनमें कोई विशेषता नहीं है। अब एक ऐसा जीव है जो
१. ता प्रतौ -तुचरिमसेढिमेत्त' इति पाठः । २६
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ गददव्वेण चरिमसमए गुणसंकमेण गददव्वेण य ऊणमुक्कस्सदव्व करिय व छावडीओ भमिय दुचरिमफालिं धरिय डिदो सरिसो। संपहि एसो अप्पणो ऊणीकददव्वमेत्तं परमाणुत्तरकमण दोहि वड्डीहि वड्डाव दव्यो । एवं वह्रिदेण अवरेगो' चरिमसमयणेरइओ गुणसंक्रमेण थिउक्कसंकमण य गददव्वेणूणमुक्कस्सं कादूण वछावट्ठीओ भमिय तिचरिमफालिं धरिय विदो सरिसो। एसो वि अप्पणो ऊणीकददव्वमत्ताए। वड्डावदव्यो। एवं णेरइयचरिमसमयम्मि इच्छिददव्यमणं करिय आगदं संपधियऊणीकददव्व वड्डाविय अव्वामोहेण ओदारेदव्व जाव चरिमसमयणेरइयओघकस्सदव्व पत्तं ति । पुणो एत्थ पुणरुत्तट्ठाणाणि अवणिय अपुणरुत्तट्ठाणाणं गहणं कायव्व।
एवं मिच्छत्तस्स सामित्तपरूवणा कदा । * सम्मामिच्छत्तस्स जहएणयं पदेससंतकम्म कस्स । ६ १९०. सुगमं ।
* तथा चेव सुहमणिगोदेसु कम्मट्ठिदिमच्छिदूण तदो तसेसु संजमासंजमं संजम सम्मत्तं च बहुसो लद्ध ण चत्तारि वारे कसाए उवसामेद ण वेछावहिसागरोवमाणि सम्मत्तमणुपालेदण मिच्छत्तं गदो। दीहाए अन्तिम फालिके उत्कृष्ट द्रव्यको धारण करके स्थित है सो इसके साथ एक अन्य जीव समान है जो नारकियोंके अन्तिम समयमें स्तिवुक संक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुए द्रव्यसे तथा अन्तिम समयमें गुणसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुए द्रव्यसे कम उत्कृष्ट द्रव्यको करके दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण करके द्विचरम फालिको धारण करके स्थित है। अब इसने जितना द्रव्य कम किया हो उतने द्रव्यको उत्तरोत्तर एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे दो वृद्धियोंके द्वारा बढ़ावे। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो नारकियोंके अन्तिम समयमें गुणसंक्रम और स्तिवुक संक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुए द्रव्यसे कम उत्कृष्ट द्रव्यको करके दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके त्रिचरिम फालिको धारण करके स्थित है। इसने भी अपना जितना द्रव्य कम किया हो उतनेको यह बढ़ा लेवे । इस प्रकार नारकीके अन्तिम समयमें इच्छित द्रव्यको कम करके आये हुए और इस समय कम किये हुए द्रव्यको बढ़ाकर व्यामोहसे रहित होकर नारकीके अन्तिम समयमें ओघ उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक उतारते जाना चाहिये। फिर यहां पुनरुक्त स्थानोंको छोड़कर अपुनरुक्त स्थानोंका ग्रहण करना चाहिये।
इस प्रकार मिथ्यात्वके स्वामित्वका कथन किया। सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है। $ १९:. यह सूत्र सुगम है।
जो उसी प्रकार कर्मस्थितिप्रमाण काल तक सूक्ष्म निगोदियोंमें रहा। फिर त्रसोंमें संयमासंयम, संयम और सम्यक्त्वको अनेक बार प्राप्त करके चारबार कषायोंका उपशम कर और दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वका पालन कर
१. ता०प्रतौ 'वडिदे णवरि अवरेगो' इति पाठः । २. आ० प्रती '-दव्वमेत्त' इति पाठः ।
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गा० २२.]
उत्तरपयडिपदेस विद्दत्तीए सामित्तं
उव्वेल्लपद्धाए उच्वेल्लिद तस्स जाधे सव्व उवल्लिदं उदयावलिया गलिदा जाधे दुसमय कालडिदियं एक्कम्मि ट्ठिदिविसेसे सेसं ताधे सम्मामिच्छत्तस्स जहां पदेस संतकम्मं ।
$ १९१. ' तथा चेव०' जहामिच्छत्तजहण्णदव्वे कीरमाणे सुहुमणिगोदेसु खविदकम्म' सियलक्खणेण कम्मद्विदिमच्छिदो तथा एसो वि तत्थच्छिदूण 'तदो तसेसु' तसेसुव्वजिय बहुसो संजमासंजम -संजम सम्मत्ताणि पडिवण्णो । पलिदो ० असंखे ० भागमेत्ताणित्ति एत्थ मिच्छत्तजहण्णसामित्ते च णिद्देसो किण्ण कदो १ ण, ओघखविदकम्मं सिय संजमासंजम -संजम सम्मत्तकंड एहिंतो एदेसिं कंडयाणं थोवतपदुष्पायणफलत्तादो । तत्तो श्रोवतं कुदो णव्वदे ! पलिदो० असंखे० भागेण भहियवे छावद्विसागरोवमपरियदृण्ण हाणुववत्ती दो । मिच्छत्त खविदकम्म सियस्स सम्मत्त - देस विरहसंजमवारे हिंतो एत्थतणा थोवा' मिच्छत्तं गंतूणुव्व ल्लणकालपरियदृणण्णहाणुववत्तीदो । मिध्यात्वको प्राप्त हुआ। वहां उद्वेलनाके सबसे उत्कृष्ट काल द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करते हुए जब सबकी उद्वेलना कर लो और उदयावली गल गई किन्तु दो समय कालकी स्थिति एक स्थितिविशेषमें शेष रही तब उसके सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है ।
1
१९१. सूत्रमें आये हुए ' तथा चेव' का भाव यह है कि जिस प्रकार मिथ्यात्व के जघन्य द्रव्यको करते समय यह जीव क्षपितकर्माशकी विधिके साथ सूक्ष्म निगोदियों में कर्मस्थितिप्रमाण काल तक रहा उसी प्रकार यह भी वहां रहा । सूत्रमें आये हुए 'तदो तसेसु' का भाव है कि तदनन्तर त्रसोंमें उत्पन्न होकर वहां बहुत बार संयमासंयम, संयम और सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ ।
शंका- यहां और मिथ्यात्व के जघन्य स्वामित्व के कथन के समय यह जीव 'पल्यके असंख्यातवें भाग बार संयमासंयम और सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ' इस प्रकार स्पष्ट निर्देश क्यों नहीं किया ?
समाधान — नहीं, क्योंकि ओघसे क्षपितकर्मांश जितनी बार संयमासंयम, संयम और सम्यक्त्व प्राप्त होता है उससे इसके संयमासंयम आदिको प्राप्त होने के बार थोड़े हैं, इस बात का कथन करना इसका फल है ।
शंका- ओघसे इसके संयमासंयम आदिको प्राप्त करनेके बार थोड़े हैं यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान — अन्यथा पल्यके असंख्यातवें भागसे अधिक दो छ्यासठ सागर काल तक इसका परिभ्रमण करना बन नहीं सकता है । इससे जाना जाता है कि यह ओघसे कम बार संयमासंयम आदि को प्राप्त होता है । उसमें भी मिध्यात्वका जघन्य सत्कर्म प्राप्त करते समय क्षपितकर्माश जीव जितनी बार सम्यक्त्व, देशविरति और संयमको प्राप्त होता है उससे यह जीव कमबार सम्यक्त्व आदिको प्राप्त होता है, क्योंकि यदि ऐसा न माना जाय तो इसका उद्वेलनकाल तक मिथ्यात्व में जाकर परिभ्रमण करना नहीं बन सकता है ।
१. प्रतौ 'एत्थतणथोवा' इति पाठः ।
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
'चत्तारि वारे० ' एत्थ कसायउवसामणाओ' चत्तारि वि ण विरुद्धाओ, चदुक्खुत्तोवसामिदकसायस्स वि वेछावट्टिसागरोवमपरिब्भमणे विरोहाभावादो । 'वेछावडी ०' एसा वेछावडी पुव्विल्लवेछावडीदो ऊणा । कुदो ? मिच्छत्तगमणण्णहाणुववत्तोदो । दि ऊणा तो वेछावट्टिणिद्देसो कथं कीरदे ? ण, 'समुदाए पउत्ता सहा तदवयवेसु वि वति' त्ति णायावलंबणाए तदविरोहादो । 'दोहाए' उब्वेल्लणद्धा जहण्णिया वि अस्थि त्ति जाणावणदुवारेण तप्पडिसेहविहाणां दीहाए ति णिद्देसो । ण च एसो निष्फलो, उवरि चडिदूण ट्ठिदसहिणगोवुच्छग्गहणडमुवहट्ठस्स णिष्फलत्त विरोहादो। अद्भु ब्वेल्लिदे वि उव्वेल्लिद होइ, पञ्जवडियणयावलंबणाए तप्पडिसेहढं 'जाधे सव्वमुव्वेल्लिदं' ति गिद्देसो कदो । पजवट्ठियणयावलंबणाए 'उदयावलिया गलिद' ति णिद्दिहं, अण्णहा दुसमऊणाए उद्यावलियववएसाणुववत्तीदो । सेससुत्तावयवा सुगमा । $ १९२. खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण असणिपंचिदिएस उववजिय देवाउ बंधिय देवेसुप्पजिय छप्पजतीओ समाणिय तोमुहुत्ते गदे उकस्सअपुव्वकरणपरिणामे हि
सूत्र में 'चत्तारि वारे' इत्यादि पाठ देनेका यह प्रयोजन है कि यहां अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य सत्कर्म प्राप्त करते समय कषायोंकी चार बार उपशामना करना विरुद्ध नहीं है, क्योंकि जिसने चार बार कषायोंका उपशम किया है उसका भी दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण माननेमें कोई बाधा नहीं आती । सूत्रमें 'वेछावट्ठो' से जो दो छयासठ सागर काल लिया है सो यह पहले के दो छयासठ सागर कालसे कम है, क्योंकि ऐसा माने बिना इसका मिथ्यात्व में जाना नहीं बन सकता ।
शंका- यदि कम है तो 'वेछाहट्ठी' पदका निर्देश कैसे किया ?
समाधान — नहीं, क्योंकि 'समुदाय में प्रवृत्त हुए शब्द उसके अवयवों में भी रहते हैं' इस न्यायका अवलम्बन करने पर उस बातके मान लेने में कोई विरोध नहीं रहता ।
'दोहाए' उद्वेलनाकाल जघन्य भी है इस प्रकारका ज्ञान करानेके अभिप्राय से उसका निषेध करने के लिये सूत्र में 'दीहाए' इस पदका निर्देश किया है। यदि कहा जाय कि तब भी 'दीर्घ' पदका निर्देश करना निष्फल है सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऊपर चढ़कर स्थित सूक्ष्म गोपुच्छाके ग्रहण करने के लिये इसका उपदेश दिया है। अर्थात् जितना बड़ा उद्वेलनाकाल होगा अन्तमें उतनी छोटी गोपुच्छा प्राप्त होगी, इसलिये इसे निष्फल माननेमें विरोध आता है । यद्यपि आधी उद्वेलना कर देने पर भी उद्व ेलना कर दी ऐसा कहा जाता है, अतः पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षा इस कथनका विरोध करनेके लिये 'जब सबकी उद्वेलना की' इस प्रकारका निर्देश किया है । इसी प्रकार 'उदयावलि गल गई' यह निर्देश पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे किया है । अन्यथा उदयावलिमें दो समय शेष रहे. इस प्रकारका कथन नहीं बन सकता । सूत्रके शेष अवयव सुगम है ।
१९२ जो क्षपितकर्मांशकी विधिसे आकर असंज्ञी पचेन्द्रियोंमें पैदा होकर और देवायुका बन्ध करके देवोंमें उत्पन्न हुआ । फिर छह पर्याप्तियों को पूरा करके अन्तर्मुहूर्त जाने
१. ता०प्रतौ 'कसानो (य) उवसामणाओ' श्रा० प्रतौ 'कसोभो उवसामणानो' इति पाठः । २. ता०प्रतौ 'द्विदल हि (ही), ण गोवुच्छ इति पाठः ।'
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
२०५ उवसमसम्मत्तं घेत्तूण तत्थ अपुव्वकरणगुणसेढिणिज्जरमुक्कस्सं काऊण जहण्णगुणसंकमकालेण सव्वबहुएण गुणसंकमभागहारेण सुट्ट थोवं मिच्छत्तदव्यं सम्मामिच्छत्तसरूवेण परिणमाविय वेदगसम्मत्तं पडिवन्जिय तप्पाओग्गव छावट्ठीओ भमिय मिच्छत्तं गंतूण दोहुव्वेल्लणकालेणुव्वेलिय सम्मामिच्छत्तचरिमफालिं मिच्छत्तसरूवण परणमाविय एगणिसेगं दुसमयकालं धरेदृण द्विदस्स जहण्णदव्यं होदि त्ति एस भावत्थो।
$ १९३. संपहि एत्थ उवसंहारो उच्चदे-कम्महिदिपढमसमयप्पहुडि उक्कस्सणिल्लेवणकालवेछावहिसागरोवमउक्कस्सुम्बेल्लणकालमेत्तमुवरिं चडिदूण बद्धसमयपबद्धाणं सामित्तचरिमसमए एगो वि परमाणू णत्थि, सगुक्कस्सवाड्डिहिदीदो अहियकालमवट्ठाणाभावादो। अवसेसकम्मद्विदीए बद्धसमयपबद्धाणं कम्मपरमाणू सिया अस्थि,
पर अपूर्वकरणसम्बन्धी उत्कृष्ट परिणामोंके द्वारा उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त किया। फिर वहाँ पर अपूर्वकरणकी उत्कृष्ट गुणश्रोणिकी निर्जरा की । गुणसंक्रमके सबसे छोटे काल और उसीके सबसे बड़े भागहार द्वारा मिथ्यात्वके बहुत थोड़े द्रव्यको सम्यग्मिथ्यात्वरूप परिणमाया । फिर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके उसके योग्य दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। फिर वहां उत्कृष्ट उद्वेलन काल द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वको उद्वलना करके जब सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिको मिथ्यात्वरूपसे परिणमा कर दो समय कालकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित हुआ तब उसके सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य द्रव्य होता है। यह उक्त सूत्रका भावार्थ है।
विशेषार्थ—यहां सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके जघन्य द्रव्यका स्वामी कौन है यह बतलाया गया है। यह बतलाते हुए अन्य सब विधि तो क्षपितकाशिककी ही बतलाई गई है। केवल अन्तमें दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ रखकर मिथ्यात्वमें ले जाना चाहिए और वहां मिथ्यात्वमें उद्वेलनाके सबसे बड़े काल तक सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करानी चाहिए। ऐसा करने पर जब सम्यग्मिथ्यात्वकी दो समय कालवाली एक निषेकस्थिति शेष रहे तब वह जीव सम्यग्मिथ्यात्वके सबसे जघन्य द्रव्यका स्वामी होता है। यहां उद्वेलनाका यह उत्कृष्ट काल प्राप्त करने के लिए संयमासंयम, संयम और सम्यक्त्वको प्राप्त करनेके बार थोड़े कहने चाहिए। तथा वेदकसम्यक्त्वका दो छयासठ सागर काल भी कुछ न्यून लेना चाहिए। ऐसा करनेसे अन्तमें उद्वेलनाका बड़ा काल प्राप्त हो जाता है । क्षपणसे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य द्रव्य नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्वका द्रव्य सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रान्त होता रहता है पर मिथ्यादृष्टिके यह क्रिया न होकर उद्वलना संक्रमण होने लगता है, अतः मिथ्यादृष्टिके ही सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य द्रव्य प्राप्त किया जा सकता है। यही कारण है कि यहां सबके अन्तमें सम्यग्मिथ्यात्वको उद्घलना कराते हुए एक निषेकके शेष रहने पर उसका जघन्य द्रव्य प्राप्त किया गया है।
६ १९३ अब यहां उपसंहारका कथन करते हैं-उत्कृष्ट निर्लेपनकाल दो छयासठ सागर है और उत्कृष्ट उद्वेलनाकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सो कर्मस्थितिके पहले समयसे लेकर इतना काल ऊपर चढ़कर बन्धको प्राप्त हुए समयप्रबद्धोंका एक भी परमाणु स्वामित्वके अन्तिम समयमें नहीं पाया जाता, क्योंकि जिस कर्मकी जितनी उत्कृष्ट बढ़ी हुई स्थिति है उससे और अधिक काल तक उस कर्मका अवस्थान नहीं पाया जाता। शेष बची हुई कर्मस्थितिके
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ओकडकड्डणवसेण हेडिल्लुवरिल्लणिसेगेसु संकमंतसमयपबद्धेगादिपरमाणूणं तत्थावहाणविरोहाभावादो। ___६ १९४. संपहि एदम्मि जहण्णदव्वे पयडिगोवुच्छपमाणाणुगमं कस्सामो । तं जहा-एगमेइंदियसमयपबद्धं दिवढगुणहाणिगुणिदं ठविय पुणो एदस्स हेट्ठा अंतोमुहुत्तोवट्टिद ओकडुक्कड्डगभागहारो ठवेदव्यो, देवेसुववन्जिय अंतोमुहुत्तं कालं पबद्ध अंतोकोडाकोडिसागरोवममेत्तद्विदीसु उक्कड्डिददव्वस्सेव अवहाणुवलंभादो । पुणो गुणसंकमभागहारो पुविल्लभागहारस्स गुणगारभावेण ठवेयव्वो, उक्कड्डिददव्वे किंचूणचरिमगुणसंकमभागहारेण खंडिदेगखंडस्सेव मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्तसरूवेण गमणुवलंभादो । पुणो सकलंतोकोडाकोडिअब्भंतरणाणागुणहाणिसलागाओ विरलिय विगुणिय अण्णोण्णेण गुणिय रूवूणीकयरासी वेछावहिसागरोवमूणतोकोडाकोडि
भीतर बंधे हुए समयप्रवद्धोंके कर्मपरमाणु स्वामित्वके अन्तिम समयमें कदाचित् रहते हैं, क्योंकि अपकर्षण और उत्कर्षणके कारण नीचे और ऊपरके निषेकों में संक्रमणको प्राप्त होनेवाले समयप्रबद्धोंके एक आदि परमाणुओंका स्वामित्वके अन्तिम समयमें सद्भाव माननेमें कोई विरोध नहीं है।
विशेषार्थ-बन्धके समय जिस कर्मकी जितनी स्थिति पड़ती है उस कर्मका अधिकसे अधिक उतने काल तक ही सत्त्व पाया जाता है । यद्यपि बँधे हुये कर्म परमाणुओंका उत्कर्षण होना सम्भव है पर यह क्रिया भी अपने-अपने कर्मकी शक्तिस्थितिके भीतर ही होती है, इसलिये किसी भी कर्मके परमाणुओंका अपनी कर्मस्थितिसे अधिक काल तक सद्भाव पाया जाना सम्भव नहीं है । इसी नियमको ध्यानमें रखकर यहां कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर दो छयासठ सागर काल और उद्वेलना कालका जितना योग हो उतने काल तकके परमाणु सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य सत्कर्मके समयमें नहीं पाये जाते यह निर्देश किया है, क्योंकि दो छयासठ सागर और दीर्घ उद्वेलना इन दोनोंका काल कर्मस्थितिके कालके बाहर है।
६१९४. अब इस जघन्य द्रव्यमें प्रकृतिगोपुच्छाके प्रमाणका विचार करते हैं । वह इस प्रकार है-एकेन्द्रियके एक समयप्रबद्धको डेढ़ गुणहानिसे गुणा करके स्थापित करो। फिर इसके नीचे अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार स्थापित करो, क्योंकि देवोंमें उत्पन्न होनेके बाद अन्तर्मुहूर्त काल तक बन्धको प्राप्त हुई अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितियोंमें उत्कर्षणको प्राप्त हुए द्रव्यका ही अवस्थान पाया जाता है। फिर गुणसंक्रम भागहारको पूर्वोक्त भागहारके गुणकाररूपसे स्थापित करना चाहिये, क्योंकि उत्कर्षणको प्राप्त हुए द्रव्यमें कुछ कम अन्तिम गुणसंक्रम भागहारका भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त हो उसीका मिथ्यात्वके द्रव्यमेंसे सम्यग्मिथ्यात्वरूपसे संक्रमण पाया जाता है। फिर अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरके भीतर प्राप्त हुई सब माना गुणहानिशलाकाओंका विरलन कर और विरलित प्रत्येक एकको दूना कर परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो एक कम उसमें दो छयासठ सागर . .. ता०मा०प्रत्योः 'तत्थावहाणामावादो इति पाठः । २. ता.या०प्रत्योः 'अंतोमुहुत्सोवडिद' इति पा । १. ता०प्रती 'अंतोमुहु(त)कालं (म) पबद्ध" इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
२०७ अब्भंतरणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासिणा रूवणेणोवट्टिदो भागहारो ठवेदव्यो, वेछावहिसागरोवमेसु विरइदगोवुच्छाणं सम्माइट्ठिचरिमसमए अभावादो। पुणो उव्वेल्लणकालभंतरणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासो सादिरेओ भागहारो ठवेदव्यो, उव्वेल्लणकालभंतरे विरइदगोवुच्छाणं' णिस्सेसगलणुवलंभादो । संपहि एदस्स गलिदावसिझदव्वस्स दिवड्डगुणहाणिभागहारो ठवेदव्यो, गलिदावसिठ्ठदव्ये पयडिगोवुच्छपमाणेण कीरमाणे दिवगुणहाणिमेत्तपगदिगोवुच्छाणं तत्थुवलंभादो । एवमेसा पयडिगोवुच्छा परूविदा । ___१९५. संपहि विगदिगोवुच्छाए पमाणाणुगमं कस्सामो। तं जहा-दिवड्डगुणिदसमयपबद्धस्स पयडिगोवुच्छाए ठविदासेसभागहारे पच्छिमदिवड्डगुणहाणिभागहारवजिदे ठविय चरिमुव्वेल्लणफालीए ओवट्टिदे विगिदिगोवुच्छा आगच्छदि । पयडिगोवुच्छा एगसमयपबद्धस्स असंखे०भागो, समयपबद्धगुणगारभूददिवड्डगुणहाणीदो हेट्टिमासेसभागहाराणमसंखे गुणत्तुवलंभादो । विगिदिगोवुच्छा पुण असंखेजसमयपबद्धमेत्ता, हेहिमासेसभागहारेहितो गुणगारभूददिवडगुणहाणीए असंखेजगुणत्तुवलंभादो । तदो पयडिगोवुच्छादो बिगिदिगोवुच्छा असंखेजगुणा ति गहेयव्वं ।
कम अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरके भीतर प्राप्त हुई नाना गुणहानिशलाकाओंकी एक कम अन्योन्याभ्यस्तराशिका भाग देने पर जो प्राप्त हो उसे भागहाररूपसे स्थापित करना चाहिये। क्योंकि दो छयासठ सागर कालके भीतर विरचित गोपुच्छाओंका सम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयमें अभाव होता है । फिर उद्वलन कालके भीतर नानागुणहानिशलाकाओंकी साधिक अन्योन्याभ्यस्त राशिको भागहाररूपसे स्थापित करना चाहिये; क्योंकि उद्बलना कालके भीतर विरचित गोपुच्छाओंका पूरी तरहसे गल कर पतन होता हुआ देखा जाता है। अब गल कर शेष बचे हुए इस द्रव्यका डेढ़ गुणहातिप्रमाण भागहार स्थापित करना चाहिये, क्योंकि गल कर शेष बचे हुए द्रव्यकी प्रकृतिगोपुच्छाएँ बनाने पर वहां डेढ़ गुणहानिप्रमाण प्रकृतिगोपुच्छाएँ पाई जाती हैं। इस प्रकार यह प्रकृतिगोपुच्छा कही।
१९५. अब विकृतिगोपुच्छाके प्रमाणका विचार करते हैं। वह इस प्रकार हैप्रकृतिगोपुच्छाके लानेके लिये डेढ़ गुणहानिसे गुणित समयप्रबद्धका पहले जो भागहार स्थापित कर आये हैं उसमेंसे अन्तमें कहे गये डेड गुणहानिप्रमाण भागहारके सिबा बाकीके सब भागहारको स्थापित करो और उसमें उद्वलनाकाण्डककी अन्तिम फालिका भाग दो तो विकृतिगोपुच्छा प्राप्त होती है। इनमेंसे प्रकृतिगोपुच्छा एक समयप्रबद्धके असंख्यातवें भागप्रमाण है; क्योंकि पहले प्रकृतिगोपुच्छाके लानेके लिये एक सममप्रबद्धका जो डेढ़ गुणहानिप्रमाण गुणकार बतला आये हैं उससे नीचेका सब भागहार असंख्यातगुणा पाया जाता है। किन्तु विकृतिगोपुच्छा असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण पाई जाती है, क्योंकि पहले विकृतिगोपुच्छाके लानेके लिये नीचे जो भागहार बतलाये हैं उन सबसे गुणकाररूप डेढ़ गुणहानि असंख्यातगुणी पाई जाती है। अतः प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा असंख्यात गुणी है ऐसा ग्रहण
१. ता०प्रतौ 'विगइदगोवुच्छाणं' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ __ १९६. पुणो वि तदसंखेजगुणत्तस्स किं चि कारणं वुचदे । तं जहाएगमेइंदियसमयपबद्ध दिवड्डगुणहाणिगुणिदं द्वविय पुणो अंतोमुहुत्तेणोवट्टिदओकड्डुक्कड्डणभागहारो किंचूणचरिमगुणसंकमभागहारो अण्णेगो ओकड्डक्कड्डणभागहारो वेछावट्टिअब्भंतरणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णभत्थरासी उव्वेल्लणणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासी च भागहारो हेट्ठा ठवेदव्यो । एवं ठविय पुणो दिवडभागहारे ठविदे तदित्थलाभो होदि । संपहि पयडिगोवुच्छ ठविय ओकडकड्डणभागहारेणोवट्टिदे पयडिगोवुच्छावओ होदि । एदे आय-व्वया व वि सरिसा, उभयत्थ भागहार-गुणगाराणं सरिसत्तुवलंभादो । संपहि विज्झादसंकममस्सिदूणायपरूवणं कस्सामो । तं जहा–एगमेइंदियसमयपबद्धं दिवड्डगुणहाणिगुणिदं ठविय पुणो अंतोमुहुत्तेणोवट्टिदओकडकडणभागहारो विज्झादभागहारो वेछावहि-उव्वेलणणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासी च भागहारो ठवेदव्यो । पुणो पच्छा दिवड्वगुणहाणिणा खंडिदे तत्थ एगखंडं विज्झादमस्सिदण आओ होदि । विज्झादेण वओ वि अत्थि सो अप्पहाणो, आयादो तस्स असंखेजगुणहीणत्तादो । तदसंखेजगुणहीणतं कुदो
करना चाहिये।
६१६६. अब फिरसे प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा असंख्यातगुणी क्यों है इसका कुछ अन्य कारण कहते हैं। वह इसप्रकार है-एकेन्द्रियके एक समयप्रबद्धको डेढ़ गुणहानिसे गुणित करके स्थापित करो। फिर इसके नीचे अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार, कुछ कम अन्तिम गुणसंक्रम भागहार, अन्य एक अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार, दो छयासठ सागर के भीतर नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि और उद्वलन कालके भीतर प्राप्त हुई नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि इन सब राशियोंको भागहाररूपसे स्थापित करो । इस प्रकार स्थापित करके पुनः डेढ़ गुणहानिको भागहाररूपसे स्थापित करने पर वहांका लाभ प्राप्त होता है । अब प्रकृतिगोपुच्छाको स्थापित करके अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारका भाग देने पर प्रकृतिगोपुच्छाओंमेंसे जितनेका व्यय होता है वह राशि आती है। ये दोनों ही आय और व्यय समान हैं, क्योंकि दोनों ही जगह भागहार और गुणकार समान पाये जाते हैं। अब विध्यातसंक्रमणका आश्रय लेकर आयका कथन करते हैं । वह इस प्रकार है-एकेन्द्रि यके एक समयप्रबद्धको डेढ़ गुणहानिसे गुणा करके स्थापित करो। फिर इसके नीचे अन्त महूर्तसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार, विध्यातसंक्रमण भागहार, दो छथ सठ सागरकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि इन सब राशियोंको भागहाररूपसे स्थापित करो। फिर नीचेसे डेढ़ गुणहानिका भाग देने पर जो एक भाग द्रव्य प्राप्त हो वह विध्यातकी अपेक्षा आयका प्रमाण होता है। विध्यातसंक्रमणके द्वारा व्यय भी होता है पर उसकी यहां प्रधानता नहीं है, क्योंकि आयसे वह असंख्यातगुणा हीन है।
शंका-वह आयसे असंख्यातगुणा हीन है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
१. ता०आ०प्रत्योः 'आदी होदि' इति पाठः।
..
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
२०९ णव्वदे? अणंतरपरूविदअंतोमुहुत्तेणोवट्टिदओकड्डुक्कड्डणभागहार-गुणसंकमभागहार-वेछावडिउव्वेल्लणणाणागुणहाणिसलागण्णोण्णब्भत्थरासि-दिवड्डगुणहाणि-विज्झादभागहारेहि खंडिद एगखंडपमाणस्स तस्सुवलंभादो। एदेण कमेण वेछावहिं गमिय मिच्छत्ते पडिवण्णे सम्मामिच्छत्तस्स वओ चेव, अधापमत्तसंकमभागहारेण सम्मामिच्छत्तदव्वे खंडिदे तस्स एयखंडस्स मिच्छत्तसरूवेण अंतोमुहुत्तकालं णिरंतरं गमणुवलंभादो। पुणो उव्वेल्लणपारंभे कदे पयडिगोवुच्छाए उव्वल्लणभागहारेण खंडिदाए तत्थ एयखंड मिच्छत्तसरूवेण गच्छदि । एवमुव्वेल्लणभागहारेण पयदगोवुच्छाए खंडिदाए तत्थ एगेगखंडं समयं पडि झीयमाणं गच्छदि जाव उव्वेल्लणकालचरिमसमओ त्ति । एवमेसा पयडिगोवुच्छाए आय-व्वयपरू वणा कदा ।
६ १९७. संपहि विगिदिगोवुच्छाए माहप्पपरूवणा कीरदे । तं जहावेछावहिकालब्भंतरे णस्थि विगिदिगोवुच्छा, तत्थ ट्ठिदिखंडयघादाभावादो। संते वि तग्धादे तत्तो जादसंचयस्स पयडिगोवुच्छाए अंतब्भावादो। संपहि पढमुव्वेल्लणखंडयचरिमफालीए णिवदमाणाए विगिदिगोवुच्छा सव्वजहणिया उप्पजदि । सा च दिवड्डगुणहाणिगुणिदेगसमयपबद्ध अंतोमुहुत्तेणोवट्टिदओकडकड्डणभागहारेण किंचूण
समाधान-अभी पहले जो यह कहा है कि अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षणभागहार, गुणसंक्रम भागहार, दो छयासठ सागरके भीतर प्राप्त हुई नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि, उद्वेलना कालके भीतर प्राप्त हुई नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि, डेढ़ गुणहानि और विध्यातसंक्रमण भागहार इन सबका भाग देनेपर जो एक भाग प्राप्त हो उतना व्यय पाया जाता है, इससे ज्ञात होता है कि आयसे व्यय असंख्यातगुणा हीन है।
इस क्रमसे दो छयासठ सागर काल बिताकर मिथ्यात्वको प्राप्त होनेपर सम्यग्मिथ्यात्वके द्रव्यका व्यय ही होता है, क्योंकि सम्यग्मिथ्यात्वके द्रव्यमें अधःप्रवृत्तसंक्रम भागहारका भाग देने पर जो एक खण्ड द्रव्य प्राप्त होता है उतनेका अन्तर्मुहूर्त काल तक निरन्तर मिथ्यात्वरूपसे संक्रमण पाया जाता है । फिर उद्वेलनाका प्रारम्भ करनेपर प्रकृतिगोपुच्छामें उद्वलना भागहारका भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त होता है उतना मिथ्यात्वरूपसे प्राप्त होता है। इस प्रकार उद्वलना भागहारका प्रकृतिगोपुच्छामें भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त होता है वह प्रत्येक समयमें उद्वेलना कालके अन्तिम समय तक झरकर मिथ्य जाता है अर्थात् मिथ्यात्वरूप होता जाता है। इस प्रकार यह प्रकृतिगोपुच्छाके आय और व्ययका कथन किया।
१९७. अब विकृतिगोपुच्छाके माहात्म्यका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है-दो छथासठ सागर कालके भीतर विकृतिगोपुच्छा नहीं है, क्योंकि उस कालमें स्थितिकाण्डकघात नहीं होता। उस कालके भीतर यदा कदाचित् स्थितिकाण्डकघात होता भी है तो उससे हुए संचयका प्रकृतिगोपुच्छामें ही अन्तर्भाव हो जाता है । अब प्रथम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिका पतन होनेपर सबसे जघन्य विकृतिगोपुच्छा उत्पन्न होती है । डेढ़ गुणहानिसे गुणा किये गये एक समयप्रबद्ध में अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षणभागहार, कुछ कम
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ चरिमसमयगुणसंकमभागहारेण वेछावट्ठिणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णभत्थरासिणा च ओवट्टिदे उवरिमदव्वमागच्छदि । पुणो अवसेसंतोकोडाकोडिणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासिका रूवूणेण दिवड्डगुणहाणिगुणिदेणोवट्टिदे चरिमणिसेगो आगच्छदि । पुणो एदेसु भागहारेसु पढमुव्वेल्लणखंडयचरिमफालीए ओवट्टिदेसु चरिमफालिमत्ता चरिमणिसेया आगच्छति' । पुणो किंचूर्ण कादूण विहजमाणदव्वे ओवट्टिदे पढमुवेल्लणखंडयचरिमफालिदव्वं होदि। पुणो उब्वेल्लणणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासिणा तम्मि ओवट्टिदे पढमुव्वेल्लणखंडयचरिमफालिदव्वमस्सिय पयदगोवुच्छादो उवरि णिवदिददव्वं होदि। तम्मि दिवगुणहाणीए ओवट्टिदे अहियारहिदीए विगिदिगोवुच्छा होदि ।
६ १९८. संपहि विदियउव्वेल्लणखंडयचरिमफालीए एत्तो उवरि अंतोमुहुत्तं चडिदूण द्विदाए णिवदमाणाए जा विगिदिगोवुच्छा तिस्से पमाणाणुगमं कस्सामो । पुव्वं हविदभज-भागहारसव्वरासीणं विण्णासं करिय दुगुणचरिमफालीए सादिरेगाए पुव्वभागहारेसु ओवट्टिदेसु तदित्थविगिदिगोवुच्छाए पमाणं होदि । एवमेदेण विहाणेण असंखेजुव्वेल्लणखंडएसु णिवदिदेसु उपरि एगगुणहाणिमेत्तहिदी परिहायदि । ताधे उव्वेल्लणकालो वि गुणहाणीए असंखे०भागमेत्तो अइक्कमइ, एगुव्वेल्लणखंडयस्स अन्तिम समयवर्ती गुणसंक्रमभागहार और दो छयासठ सागरकी नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि इन सबका भाग देने पर उपरिम द्रव्यका प्रमाण आता है। फिर इस द्रव्यमें शेष बची अन्तःकोडाकोडीकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी एक कम अन्योन्याभ्यस्तराशिको डेढ़ गुणहानिसे गुणा करके प्राप्त हुई राशिका भाग देनेपर अन्तिम निषेकका प्रमाण आता है। फिर इन भागहारोंको प्रथम उद्वेलनाकाण्डकको अन्तिम फालिसे भाजित कर देने पर अन्तिम फालिप्रमाण अन्तिम निषेक प्राप्त होते हैं। फिर अन्तिम फालिको कुछ कम करके उसका भज्यमान द्रव्यमें भाग देने पर प्रथम उद्वेलनाकाण्डकको अन्तिम फालिका द्रव्य प्राप्त होता है। फिर इसे उद्वलनाकी नाना गणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशिका भाग देने पर प्रथम उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिके द्रव्यका आश्रय लेकर प्रकृत गोपुच्छासे ऊपर पतित हुए द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है। अब इसमें डेढ़ गुणहानिका भाग देने पर अधिकृत स्थितिमें विकृतिगोपुच्छा प्राप्त होती है।
६ १९८ अब इससे आगे अन्तर्मुहूर्त जाकर जो दूसरे उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालि स्थित है उसका पतन होने पर जो विकृतिगोपुच्छा बनती है उसके प्रमाणका विचार करते हैं-पहले भाज्य और भागहारकी सब राशियोंकी जिस प्रकार स्थापना कर आये हैं उन्हें उसी प्रकारसे रखकर अनन्तर पहले स्थापित किये हुए भागहारोंमें साधिक दूनी की हुई अन्तिम फालिका भाग दो तो वहाँ की विकृतिगोपुच्छाका प्रमाण होता है। इस प्रकार इस विधिसे असंख्यात उद्वलनाकाण्डकोंका पतन होनेपर ऊपरकी एक गुणहानिप्रमाण स्थितियोंकी हानि होती है। और तब उदलनाका काल भी गुणहानिके असंख्यातवें भागप्रमाण व्यतीत हो जाता है, क्योंकि एक उद्वलनाकाण्डकके पतनमें यदि अन्तर्मुहूर्तप्रमाण उत्कीरणा काल प्राप्त ... १. तापा०प्रत्योः 'आगच्छदि' इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
२११ जदि अंतोमुहुत्तमेत्ता उक्कीरणद्धा लब्भदि तो एगगुणहाणिमेत्तहिदीए किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए उक्कीरणद्धोवट्टिदुव्वेल्लणखंडयचरिमफालीए ओवट्टिदगुणहाणिमेत्तकालुवलंभादो।
६ १९९. संपहि एत्थतणविगिदिगोवुच्छाए पमाणाणुगमं कस्सामो । तं जहादिवड्डगुणहाणिगुणिदेगेइंदियसमयपबद्धे अंतोमुहुत्तोवट्टिदओकड्डक्कड्डणभागहारेण किंचूणचरिमगुणसंकमभागहारेण वेछावट्ठिणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासिणा उवरिमअंतोकोडाकोडिअभंतरणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासिणा च भागे हिदे चरिमगुणहाणिदव्यमागच्छदि। पुणो एदम्मि दीहुव्वेल्लणकालभंतरणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णभत्थराप्तिणोवट्टिदे पयदणिसेगादो उवरि णिवदमाणदव्वं होदि । पुण तम्मि दिवसगुणहाणीए ओवट्टिदे एत्थतणविगिदिगोवुच्छा आगच्छदि ।।
२००. संपहि एत्तो उवरि अंतोमुहुत्तमेत्तउकीरणकालं चडिदूण अण्णमेगं द्विदिखंडयं णिवददि । तत्तो समुप्पण्णविगिदिगोवुच्छापमाणे आणिजमाणे पुव्विल्लविगिदिगोवुच्छाणयणे ठविदभज-भागहारा ठवेदव्वा । णवरि उवरिमअंतोकोडाकोडिणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासीए दिवड्डगुणहाणिगुणिदाए पढमहिदिखंडयदुगुणचरिमफालीए अब्भहियदिवड्गुणहाणिभागहारो ठवेदव्यो। किमटुं पढमगुणहाणिहोता है तो एक गुणहानिप्रमाण स्थितियोंके पतनमें कितना काल लगेगा इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे इच्छाराशिको गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें प्रमाणराशिका भाग देने पर उत्कीरणाकालसे उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिको भाजित करके जो प्राप्त हो उसका एक गुणहानिप्रमाण स्थितियोंमें भाग देनेसे एक गुणहानिप्रमाण स्थितियोंके पतनमें लगनेवाला उद्वेलनाकाल प्राप्त होता है।
१९९. अब यहाँकी विकृतिगोपुच्छाके प्रमाणका विचार करते हैं । वह इस प्रकार है-डेढ़ गुणहानिसे गुणा किये गये एकेन्द्रियके एक समयप्रबद्धमें अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार, कुछ कम अन्तिम समयवर्ती गुणसंक्रमभागहार, दो छयासठ सागरकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि और उपरिम अन्तः कोड़ाकोड़ीके भीतर प्राप्त हुई नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि इन सबका भाग देने पर अन्तिम गुणहानिका द्रव्य आता है। फिर उसमें सबसे बड़े उद्वेलना कालके भीतर प्राप्त हुई नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशिका भाग देने पर प्रकृत निषेकसे ऊपर प्राप्त हुए द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है। फिर उसमें डेढ़ गुणहानिका भाग देने पर यहांको विकृतिगोपुच्छा प्राप्त होती है।
६२००. अब इसके ऊपर अन्तर्मुहूर्तप्रमाण उत्कीरण काल जाकर एक दूसरे स्थितिकाण्डकका पतन होता है । अब इस स्थितिकाण्डकके पतनसे उत्पन्न हुई विकृतिगोपुच्छाका प्रमाण लाने पर, पूर्वोक्त विकृतिगोपुच्छाका प्रमाण प्राप्त करनेके लिये जिन भाज्य और भागहारोंको स्थापित कर आये हैं उन्हें उसी प्रकार स्थापित करना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि डेढ़ गुणहानिसे गुणित उपरिम अन्तःकोड़ाकोड़ीकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशिके भागहाररूपसे प्रथम स्थितिकाण्डककी दूनी अन्तिम
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२१२
जयधवलासहिदेकसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ चरिमफालिआयामो दुगुणिय पक्खिप्पदे ? ण, चरिमगुणहाणिगोवुच्छाहितो दुचरिमगुणहाणिगोवुच्छाणं दुगुणत्तुवलंभादो । पुणो अवरेगे उव्वेल्लणडिदिखंडए णिवदमाणे चउग्गुणं करिय पक्खिवेयव्वा । ण च उव्वेल्लणखंडयाणि सव्वत्थ सरिसा' चेवे ति णियमो, उव्वेल्लणकालस्स जहण्णुकस्सभावण्णहाणुववत्तीए । एत्थ पुण सव्वुव्वेल्लणहिदिखंडयाणमायामो सरिसो चेव, अहिकयउक्कस्सुव्वेल्लणकालत्तादो। एवमेदेण कमेण वेगुणहाणिमेत्तद्विदीसु णिवदिदासु विगिदिगोवुच्छाए भागहारो चरिमगुणहाणीए णिवदिदाए जो उत्तो सो चेव होदि । णवरि एत्य पुण उवरिमअंतोकोडाकोडीए अण्णोण्णब्भत्थरासी दोगुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासिणा रूवूणेणोवट्टेदव्यो। कुदो ? गुणगारीभूददिवड्डगुणहाणीदो तब्भागहारीभूददिवढगुणहाणीए एवदिगुणत्तुवलंभादो। एवं तिण्णि-चत्तारिआदी जावुक्कीरणद्धोवद्भिदचरिमफालीए जत्तियाणि रूवाणि तत्तियमेत्तगुणहाणीसु णिवदिदासु उव्वेल्लणकालभंतरे एगगुणहाणिमेत्तकालो गलदि ।
६२०१. संपहि एत्थतणविगिदिगोवुच्छाए पमाणाणुगमं कस्सामो । तं जहादिवड्डगुणहाणिगुणिदसमयपबद्धे अंतोमुहुत्तोवट्टिदओकड्डक्कड्डणभागहारेण गुणसंकमफालिसे अधिक डेढ़ गुणहानिको स्थापित करना चाहिये ।
शंका-प्रथम गुणहानिकी अन्तिम फालिका आयाम दूना क्यों स्थापित किया जाता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, अन्तिम गुणहानिको गोपुच्छाओंसे उपान्त्य गुणहानिकी गोपुच्छाएँ दूनी पाई जाती हैं।
फिर एक दूसरे उद्वेलनाकाण्डकके पतन होने पर अन्तिम फालिका आयाम चौगुना करके मिलाना चाहिये। तब भी सर्वत्र उद्वेलनाकाण्डक समान ही होते हैं ऐसा कोई नियम नहीं है, अन्यथा जघन्य और उत्कृष्ट उद्वेलनाकाल नहीं बन सकता । किन्तु यहाँ पर सब उद्वलना स्थितिकाण्डकोंका आयम समान ही लिया है, क्योंकि प्रकृतमें उत्कृष्ट उद्वेलनाकालका अधिकार है। इस प्रकार इस क्रमसे दो गुणहानिप्रमाण स्थितियोंका पतन होने पर विकृतिगोपुच्छाका भागहार वही रहता है जो अन्तिम गुणहानिके पतनके समय कह आये हैं । किन्तु इतनी विशेषता है कि यहां पर दो गुणहानिशलाकाओंको ५क कम अन्योन्याभ्यस्त राशिसे उपरिम अन्तःकोड़ाकोड़ीकी अन्योन्याभ्यस्त राशिको भाजित करना चाहिये, क्योंकि, गुणकाररूप डेढ़ गुणहानिसे उसकी भागहाररूप डेढ़ गुणहानि इतनी गुणी पाई जाती है। इस प्रकार तीन गुणहानि और चार गुणहानि आदिसे लेकर चरमफालिमें उत्कीरणकालका भाग देनेपर जितने अंक प्राप्त हों उतनी गुणहानियोंका पतन होने पर उद्वेलना कालके भीतर एक गुणहानिप्रमाण काल गलता है।
६ २०१. अब यहांकी विकृतिगोपुच्छाके प्रमाणका अनुगम करते हैं । वह इस प्रकार है-डेढ़ गुणहानिसे गुणा किये गये एक समयपबद्ध में अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्षणउत्कर्षणभागहार, गुणसंक्रमभागहार, दो छयासठ सागरको अन्योन्याभ्यस्तराशि, उपरिम
१. ताप्रा०प्रत्योः 'सम्वद्ध सरिसा' इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
२१३ भागहारेण वेछावहिअण्णोण्णभत्थरासिणा उवरिमअंतोकोडाकोडिणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासिणा रूवणेण उकीरणद्धोवट्टिदचरिमउव्वेल्लणकंडयरूवमेत्तणाणागुणहाणिसलागाण रूवूणण्णोण्णब्भत्थरासिणोवट्टिदेण रूवणुव्वेल्लणणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासिणा दिवड्डगुणहाणीए च ओषष्टिदे तत्थतणविगिदिगोवुच्छा आगच्छदि । ___२०२. एवमुवरिमगुणहाणीओ हायमाणीओ जाधे उक्कीरणद्धोवट्टिददुगुणपढमुव्वेल्लणफालिमेत्ताओ गुणहाणीओ परिहीणाओ ताधे उव्वेल्लणकालब्भंतरे दोगुणहाणीओ परिगलंति, एगगुणहाणीए जदि उक्कीरणद्धोवट्टिदचरिमफालीए खंडिदगुणहाणिमेत्तव्वेल्लणकालो लब्भदि तो उक्कोरणद्धाए दुभागेणोवट्टिदचरिमफालिमेत्तगुणहाणीणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए दोगुणहाणिमेत्तुव्वेल्लणकालुवलंभादो।
२०३. एत्थ विगिदिगोवुच्छापमाणाणुगमं कस्सामो । तं जहा-दिवड्डगुणहाणिगुणिदसमयपबद्धे अंतोमुहुत्तोवट्टिदओकड्डक्कड्डणभागहारेण गुणसंकमभागहारेण वेछावहिअण्णोण्णभत्थरासिणा उवरिमअंतोकोडाकोडिणाणागुणहाणिसलागाणं रूवूणण्णोण्णब्भत्थरासिणा उकीरणद्धादुभागेणोवट्टिदचरिममुव्वेल्लणफालिमेत्तणाणागुणहाणिसलागाणं रूवूणण्णोण्णब्भत्थरासिणोवट्टिदेण दुरूवूणुव्वेल्लणणाणागुणहाणिसलागाणभण्णोण्णब्भत्थअन्तःकोड़ाकोड़ीकी नानागुणहानिशलाकाओंकी एक कम अन्योन्याभ्यस्तराशि, उत्कीरणाकालसे भाजित उद्वलनाकाण्डककी अन्तिम फालिप्रमाण नानागुणहानि शलाकाओंकी एक कम अन्योन्याभ्यस्तराशिसे भाजित उद्घ लनाकी एक कम नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि और डेढ़ गुढ़हानि इन सब भागहारोंका भाग देने पर वहांकी विकृतिगोपुच्छा आती है।
६२०२. इस प्रकार उपरिम गुणहानियाँ कम होती हुई जब उत्कीरणकालसे भाजित प्रथम उद्वेलनकी दूनी फालिप्रमाण गुणहानियाँ कम होती हैं तब उद्वेलनकालके भीतर दो गुणहानियाँ गलती हैं, क्योंकि एक गुणहानिमें यदि उत्कीरण कालसे भाजित जो अन्तिम फालि उससे भाजित गुणहानिप्रमाण काल प्राप्त होता है तो उत्कीरणकालके द्वितीय भागसे भाजित अन्तिम फालिप्रमाण गुणहानियों में कितना काल प्राप्त होगा, इस प्रकार त्रैराशिक करके फल राशिसे इच्छा राशिको गुणित करके जो प्राप्त हो उसमें प्रमाणराशिका भाग देने पर दो गुणहानिप्रमाण उद्वलनकाल प्राप्त होता है।
६२०३. अब यहाँ विकृतिगोपुच्छाके प्रमाणका अनुगम करते हैं । वह इस प्रकार हैडेढ़ गुणहानिसे गुणा किये गये एक समयप्रबद्ध में अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षणभागहार, गुणसंक्रमभागहार, दो छयासठ सागरको अन्योन्याभ्यस्त राशि, उपरिम अन्त:कोड़ाकोड़ीकी नान गुणहानिशलाकाओंकी एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशि, उत्कीरण कालके दूसरे भागसे भाजित उद्वेलनाकाण्डककी अन्तिम फालिप्रमाण नाना गुणहानिशलकाओंकी एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिसे भाजित उद लनाकी दो कम नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि और डेढ़ गुणहानि इन सब भागहारोंका भाग देने पर वहाँकी विकृति
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२१४
जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
रासिणा दिवड गुणहाणीए च ओवट्टिदे तदित्थविगिदिगोवुच्छापमाणं होदि ।
९ २०४ एवमुब्वेल्लण कालब्भंतरे गुणहाणीसु गलमाणासु जाघे जहण्णपरित्तासंखेजच्छेद णयमेतगुणहाणीओ मोत्तूण सेससव्वगुणहाणाओ गलिदाओ ताघे अधिययगोबुच्छादो उवरि जहण्णपरित्तासंखेजछेदणयोवद्विदुक्कीरणद्धाए खंडिदचरिमफालीए जत्तियाणि रुवाणि तत्तियमेत्तगुणहाणीओ चिडंति, उक्कीरणद्धोवट्टिदुव्वेल्लणफालियाए खंडिदगुणहाणि मे चुच्वेल्लणकालम्मि जदि एगगुणहाणिमेतद्विदी लब्भदि तो जहण्णपरित्तासंखेजछेदणयगुणिदगुणहाणि मे चुव्वेल्लण कालम्मि किं लभामो ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए उक्कीरणद्धोवदिचरिममुव्वेल्लणफालीए गुणिदजहण्णपरितासंखे अछेदणयमेत्तगुणहाणीण मुवलंभादो ।
$ २०५. संपहि एत्थतणविगिदिगोबुच्छाए पमाणाणुगमं कस्सामो । तं जहादिवगुणहाणिगुणिदसमयपद्धे अंतोमुहुकोवदिओकडकड्डणभागहारेण किंचूणचरिमगुणसंकम भागहारेण वेछावद्विअण्णोष्णग्भत्थरासिणा उवरिमअंतोकोडा कोडिणाणागुणहासिल गाणं रुवृणण्णोष्णव्भत्थरासिणा ओदिण्णद्विदिणाणागुणहाणि सलागाणं रूवूणण्णोण्णव्भत्थरासिणोवट्टिदेण जहण्णपरित्तासंखेज्जेण दिवढगुणहाणीए च भागे हिदे तदित्थविगिदिगोवुच्छा होदि ।
गोपुच्छाका प्रमाण प्राप्त होता है ।
२०४. इस प्रकार उद्व ेलना कालके भीतर गुणहानियोंके उत्तरोत्तर गलने पर जब जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदशलाकाप्रमाण गुणहानियोंके सिवा शेष सब गुणहानियाँ गल ● जाती हैं तब अधिकृत गोपुच्छाके ऊपर जघन्य परितासंख्यातके अर्धच्छेदोंका उत्कीरणकालमें भाग दो जो लब्ध आवे उससे अन्तिम फालिको भाजित करो जो लब्ध रहे उतनी गुणहानियाँ शेष रहती हैं, क्योंकि यदि उत्कीरण कालसे उद्व ेलनफालिको भाजित करके जो लब्ध आवे उससे गुणहानिप्रमाण उद्व ेलना कालके भाजित करने पर यदि एक गुणहानिप्रमाण स्थिति प्राप्त होती है तो जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंसे गुणित गुणहानिप्रमाण उद्व ेलन कालके भीतर क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे इच्छा राशिको गुणित करके जो लब्ध आवे उसमें प्रमाण राशिका भाग देने पर उत्कीरण कालसे अन्तिम उद्वेलना फालिको भाजित करके जो लब्ध आवे उससे जघन्य परीतसंख्यातके अर्धच्छेदोंको गुणित करनेसे जितनी संख्या प्राप्त हो उतनी गुणहानियां पाई जाती हैं ।
[ पदेसविहत्ती ५
§ २०५. अब यहाँकी विकृतिगोपुच्छा के प्रमाणका अनुगम करते हैं । वह इस प्रकार हैडेढ़ गुणहानिसे गुणा किये गये एक समयप्रबद्ध में अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्षण- उत्कर्षणभागहार, कुछ कम अन्तिम गुणसंक्रमभागहार, दो छयासठ सागरकी अन्योन्याभ्यस्त राशि, उपरिम अन्तःकोड़ा कोड़ी सागरकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशि, जितनी स्थिति गत हो गई है उसकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिसे भाजित जघन्य परितासंख्यात और डेढ़ गुणहानि इन सब भारहारों का भाग देने पर वहाँकी विकृतिगोपुच्छा प्राप्त होती है ।
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गा० २२ ] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
२१५ ६ २०६ संपहि उव्वेल्लणकालभतरे एगगुणहाणिमेत्तवेल्लणकाले सेसे पयदगोवुच्छाए उवरि उक्कीरणद्धोवट्टिदचरिमुवेल्लणफालिमेत्तगुणहाणीओ होति । एत्थतणविगिदिगोवुच्छाए पमाणाणुगमं कस्सामो। तं जहा-दिवड्डगुणहाणिगुणिदसमयपबद्धे अंतोमुहुत्तोवट्टिदओकड्डक्कड्डणभागहारेण किंचूणचरिमगुणसंकमभागहारेण वेछावद्विणाणागुणहाणिसलागाणं सादिरेयण्णोण्णब्भत्थरासिणा उवरिमअंतोकोडाकोडिणाणागुणहाणिसलागाणं रूवूणण्णोण्णब्भत्थरासिणा ओदिण्णद्धाणणाणागुणहाणिसलागाणं रूखूणण्णोभत्थरासिणोवट्टिदेण दोहि रूवेहि सादिरेगेहि दिवड्डगुणहाणीए च ओवट्टिदे विगिदिगोवुच्छापमाणं होदि।
६ २०७. पुणो उवरिमण्णोण्णगुणहाणीए झीणाए उव्वेल्लणकालो किंचूणगुणहाणिमेत्तो उव्वरइ, उकीरणद्धोवट्टिदचरिमुव्वेल्लणफालिं विरलिय गुणहाणीए समखंड कादण दिण्णाए तत्थ एगखंडस्स परिहाणिदंसणादो। पुणो विदियगुणहाणीए झीणाए पुव्वुत्तविरलणाए विदियख्वधरिदं गलदि । एवं तिण्णि-चत्तारिआदी जाव जहण्णपरित्तासंखेजछेदणयमेत्तगुणहाणीओ मोत्तण अवसेससव्वगुणहाणीसु ओदिण्णासु जहण्णपरित्तासंखेजछेदणयगुणिदुक्कीरणद्धाए औवट्टिदचरिमफालीए गुणहाणीए ओवट्टिदाए तत्थ एगभागमेत्तो उव्वेल्लणकालो सेसो होदि ।
६ २०८. संपहि एत्थतणविगिदिगोवुच्छाए पमाणाणुगमं कस्सामो। तं जहादिवड्डगुणहाणिगुणिदसमयपबद्ध अंतोमुहुत्तोवट्टिदओकड्डक्कड्डणभागहारेण किंचूण
६ २०६. अब उद्वेलना कालके भीतर एक गुणहानिप्रमाण उद्वलना कालके शेष रहने पर प्रकृतिगोपुच्छाके ऊपर उत्कीरण कालसे भाजित अन्तिम उद्वलनाफालिप्रमाण गणहानियाँ होती हैं । अब यहाँकी विकृतिगोपुच्छाके प्रमाणका विचार करते हैं । वह इस प्रकार हैडेढ़ गुणहानिसे गुणा किये गये एक समयप्रबद्धमें अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार, कुछ कम अन्तिम गुणसंक्रम भागहार, दो छयासठ सागरकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी साधिक अन्योन्याभ्यस्त राशि, उपरिम अन्तःकोड़ाकोड़ीकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशि, जितना काल गत हो गया है उसकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी एक कम अन्योन्याभ्यस्त राशिसे भाजित और दो रूप अधिक डेढ़ गुणहानि इन सब भागहारोंका भाग देने पर विकृतिगोपुच्छाका प्रमाण होता है।
२०७. पुनः ऊपरकी अन्य एक गुणहानिके गलित होने पर उद्व लना काल कुछ कम एक गुणहानिप्रमाण शेष रहता है, क्योंकि उत्कीरणकालसे भाजित अन्तिम उद्वेलनाफालिका विरलन करके गुणहानिको समान खण्ड करके देनेपर वहाँ एक खण्डकी हानि देखी जाती है। पुनः दूसरी गुणहानिके गलित होने पर पूर्वोक्त विरलनके दूसरे एक विरलन पर स्थापित भागकी हानि होती है । इस प्रकार तीन और चारसे लेकर जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेद प्रमाण गुणहानियोंके सिवा शेष सब गुणहानियोंके गलने पर, जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदोंसे उत्कीरण कालको गुणा करो, फिर इसका अन्तिम फालिमें भाग दो, फिर इसका गुणहानिमें भाग देने पर वहाँ जो एक भाग प्राप्त है उतना उद्वेलना काल शेष रहता है।
६२०८. अब यहाँकी विकृतिगोपुच्छाके प्रमाणका अनुगम करते हैं। वह इस प्रकार
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ चरिमगुणसंकमभागहारेण वेछावट्ठिअण्णोण्णभत्थरासिणा सादिरेयजहण्णपरित्तासंखेजेण दिवङ्कगुणहाणीए च ओवट्टिदे विगिदिगोवच्छा होदि।
६२०९. पुणो उवरि अण्णेगाए गुणहाणीए झोणाए तत्थतणविगिदिगोवुच्छाभागहारो जो पुव्वं परूविदो सो चेव होदि । णवरि एत्थ जहण्णपरित्तासंखेजयस्स अद्धं भागहारो होदि । कुदो १ रूवूणजहण्णपरित्तासंखेजछेदणयमेत्तगुणहाणीणमुवरि अवट्ठिदत्तादो । अधिकारगोवुच्छाए उवरि एगगुणहाणिमेत्तहिदीसु चेहिदासु पगदिगोवच्छाए विगिदिगोवच्छा सरिसा होदि, पढमगुणहाणिदव्वादो विदियादिगुणहाणिदव्वस्स सरिसत्तुवलंभादो।
६२१०. पुणो पढमगुणहाणिं तिण्णि खंडाणि करिय तत्थ हेडिमदोखंडाणि मोत्तूण उवरिमएगखंडेण सह सेसासेसगुणहाणीसु घादिदासु पयडिगोवुच्छादो विगिदिगोवुच्छा किंचूणदुगुणमेत्ता होदि, पढमगणहाणिवे-ति-भागदव्वादो उवरिमति-भागसहिदसेसासेसगणहाणिदव्वस्स किंचूणदुगुणत्तुवलंभादो। एवं गंतूण पढमगणहाणिं जहण्णपरित्तासंखेजमेत्तखंडाणि कादूण तत्थ हेडिमवेखंडे मोत्तूण उवरिमरूवणुक्कस्ससंखेजमेत्तखंडेहि सह उवरिमासेसगुणहाणीसु घादिदासु पयडिगोवुच्छादो विगिदिगोवच्छा उक्कस्ससंखेजगणा, अवहिददव्वादो हिदिखंडएण पदिददव्वस्स उक्कस्ससंखेजगुणत्तुवल भादो । रूवाहियजहण्णपरित्तासंखेजमेत्तखंडयाणि पढमगुणहाणिं है-डेढ़ गुणहानिसे गुणा किये गये समयप्रबद्ध अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार, कुछ कम अन्तिम गुणसंक्रमभागहार, दो छयासठ सागरकी अन्योन्याभ्यस्त राशि, साधिक जघन्य परीतासंख्यात और डेढ़ गुणहानि इन सब भागहारोंका भाग देने पर विकृतिगोपुच्छा प्राप्त होती है।
६२०९. फिर आगे एक अन्य गणहानिके गलने पर वहाँकी विकृतिगोपुच्छाका भागहार जो पहले कहा है वही रहता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहाँ जघन्य परीतासंख्यातका आधा भागहार होता है, क्योंकि आगे एक कम जघन्य परीतासंख्यातके अर्धच्छेदप्रमाण गुणहानियां अवस्थित हैं। अधिकृत गोपुच्छाके आगे एक गुणहानिप्रमाण स्थितियोंके रहते हुए विकृतिगोपुच्छा प्रकृतिगोपुच्छाके समान होती है, क्योंकि प्रथम गुणहानिके द्रव्यसे दूसरी आदि गुणहानियोंका द्रव्य समान पाया जाता है।
२१०. फिर प्रथम गुणहानिके तीन खण्ड करके उनमेंसे नीचेके दो खंडोंको छोड़कर ऊपरके एक खण्डके साथ बाकीकी सब गुणहानियोंके घातने पर प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा कुछ कम दूनी होती है, क्योंकि प्रथम गुणहानिके दो तीन भागप्रमाण द्रव्यसे उपरिम तीन भाग सहित शेष सब गुणहानियोंका द्रव्य कुछ कम दूना पाया जाता है। इस प्रकार जाकर प्रथम गुणहानिके जघन्य परीतासंख्यातप्रमाण खण्ड करके वहां नीचे के दो खण्डोंको छोड़कर ऊपरके एक कम उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण खण्डोंके साथ ऊपरकी अशेष गुणहानियोंका घात होनेपर प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा उत्कृष्ट संख्यातगुणी प्राप्त होती है, क्योंकि जो द्रब्य अवस्थित रहता है उससे स्थितिकाण्डक घातके द्वारा पतित हुआ द्रव्य उत्कृष्ट संख्यातगणा पाया जाता है। प्रथम गुणहानिके एक अधिक जघन्य परीतासंख्यात
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
२१७ करिय तत्थ वे खंडे मोत्तूण उवरिमउक्कस्ससंखेजमेत्तखंडेहि सह सेसगुणहाणीसु धादिदासु पयडिगोवुच्छादो विगिदिगोवुच्छा जहण्णपरित्तासंखेजगुणा । पुगो सवपच्छिमवियप्पो बुच्चदे । तं जहा–चरिममुव्वेल्लणफालीए अद्धेण पढमगुणहाणीए खंडिदाए जं लद्ध तत्तियमेत्तखंडाणि पढमगुणहाणिं करिय तत्थ बे खंडे मोत्तूण सेसदुरूवूणखंडेहि सह उवरिमासेसहिदीसु धादिदासु असंखेजगुणवड्डीए समत्ती होदि । एत्थ को गुणगारो ? चरिमफालिअद्ध ण गुणहाणीए खंडिदाए जं लद्धं तं रूवणं गुणयारो। अथवा चरिमफालिओवट्टिददिवड्डगुणहाणिगुणगारो । तदो पयडिगोवुच्छादो विगिदिगोवुच्छाए सिद्धमसंखेजगुणत्तं । एवं विगिदिगोवुच्छाए पमाणपरूवणा कदा।
२११. एवं विहपयडि-विगिदिगोवुच्छाओ घेत्तूण सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णयं पदेससंतकम्मं । संपहि जहण्णसामित्तं परूविय अजहण्णसामित्तपरूवणट्ठमुत्तरसुत्तं भणदि
* तदो पदेसुत्तर।
६ २१२. जहण्णहाणस्सुवरि ओकड्डक्कड्डणाहितो एगपदेसे वड्डिदे विदियं ठाणं । . जोगकसायवडिहाणीहि विणा कथमेगो परमाणू वड्डदि हायदि वा ? ण एस दोसो, जोगकसाएहि विणा अण्णेहि वि जीवपरिणामेहिंतो कम्मपरमाणूणं
प्रमाण खण्ड करके उनमेंसे दो खण्डोंको छोड़कर ऊपरके उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण खण्डोंके साथ शेष गुणहानियोंके धाते जानेपर प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा जघन्य परीतासंख्यातगुण प्राप्त होती है। अब सबसे अन्तिम विकल्पको कहते हैं । वह इस प्रकार है-उद्वेलनाकी अन्तिमी फालिके आधेका प्रथम गणहानिमें भाग दो जो लब्ध आवे, प्रथम गुणहानिके उतने खण्ड करके उनमेंसे दो खण्डोंको छोड़कर दो कम शेष खण्डोंके साथ ऊपरकी शेष सब स्थितियों के घाते जाने पर असंख्यातगणवृद्धिको समाप्ति होती है।
शंका-यहाँ गुणकारका प्रमाण क्या है ?
समाधान-अन्तिम फालिके आधेका गुणहानिमें भाग देने पर जो लब्ध आवे एक कम उतना गुणकार है । अथवा अन्तिम फालिसे भाजित डेढ़ गुणहानि गुणकार है। इसलिये प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा असंख्यातगुणी सिद्ध होती है।
इस प्रकार विकृतिगोपुच्छाके प्रमाणका कथन किया। $ २११. इस प्रकार प्रकृतिगोपुच्छा और विकृतगोपुच्छाकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य प्रदेशसत्कर्मका कथन किया। अब जघन्य स्वामित्वका कथन करके अजघन्य स्वामित्वका कथन करनेके लिये आगेका सूत्र कहते हैं
ॐ उससे एक प्रदेश अधिक होता है।
६ २१२. जघन्य स्थानके उपर अपकर्षण-उत्कर्षणके द्वारा एक प्रदेशके बढ़ने पर दूसरा स्थान होता है।
शंका—योग और कषायकी वृद्धि और हानिके बिना एक परमाणु कैसे घट बढ़ सकता है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि योग और कषायके सिवा जीवके अन्य
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ वड्डि-हाणिदंसणादो। अण्णेसिं परिणामाणमत्थितं कत्तो णव्वदे १ खविद-गुणिदकम्मंसिएसु अणंतहाणपरूवणण्णहाणुववत्तीदो। .
8 दुपदेसुत्तरं ।
$ २१३. जहण्णदव्वस्सुवरि दोकम्मपरमाणुसु ओकडकडणावसेण वड्डिदे तदियं हाणं । एत्थ कजमेदण्णहाणुववत्तीदो कारणभेदोवगंतव्यो।
* णिरतराणि हाणाणि उकस्सपदेससंतकम्म ति ।
२१४. जहण्णहाणप्पहुडि जाव उकस्ससंतकम्मं ति ताव सम्मामिच्छत्तस्स णिरंतराणि ठाणाणि । ण सांतराणि, मिच्छत्तस्सेव एत्थ अपुव्व-अणियद्विगुणसेढिगोवुच्छाणमभावादो। ___६२१५. संपहि वेछावहिसागरोवमसमयाणमुव्वेल्लणकालसमयाणं च एगसेढिआगारे रचणं कादूण कालपरिहाणीए संतकम्मावलंबणेण च चउबिहपुरिसे अस्सिदूण ठाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा–खविदकम्मंसियलक्खणेण सव्वं कम्महिदि परिणामोंसे भी कर्मपरमाणुओंकी वृद्धि और हानि देखी जाती है।
शंका-अन्य परिणामोंका सद्भाव किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-अन्यथा क्षपितकर्माश और गुणितकर्मा शके अनन्त स्थानोंका कथन बन नहीं सकता, इससे जाना जाता है कि योग और कषायके सिवा अन्य परिणाम भी हैं जिनसे कर्मपरमाणुओंकी हानि और वृद्धि होती है।
दो प्रदेश अधिक होते हैं। ६२१३. जघन्य द्रव्यके ऊपर अपकर्षण उत्कर्षणके कारण दो कर्म परमाणुओंकी वृद्धि होने पर तीसरा स्थान होता है। यहाँ कारणमें भेद हुए बिना कार्यमें भेद हो नहीं सकता, इसलिए कारणमें भेद जानना चाहिये।
ॐ इस प्रकार उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मके प्राप्त होने तक निरन्तर स्थान होते हैं।
६२१४. सत्कर्मके जघन्य स्थानसे लेकर उत्कृष्ट सत्कर्मस्थानके प्राप्त होने तक सम्यग्मिथ्यात्वके निरन्तर स्थान होते हैं, मिथ्यात्वके समान सान्तर स्थान नहीं होते, क्योंकि यहां पर अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणकी गुणश्रेणिगोपुच्छाएँ नहीं पाई जाती ।
विशेषार्थ-मिथ्यात्वके अधिकतर सान्तर सत्कर्मस्थानोंके प्रोप्त होनेका मूल कारण उनका क्षपणाके निमित्तसे प्राप्त होना है। पर सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य स्थान क्षपणाके निमित्तिसेन प्राप्त होकर उद्वेलनाके निमित्तिसे प्राप्त होता है और उसमें उत्तरोत्तर प्रदेशवृद्धि होकर उत्कृष्ट सत्कर्मस्थान प्राप्त होता है, इसलिये यहाँ सान्तरसत्कर्मस्थानोंका प्राप्त होना सम्भव न होनेसे उनका निषेध किया है।
६२१५. अब दो छयासठ सागरके समयोंकी और उद्वलनाकालके समयोंकी एक पंक्ति रूपसे रचना करके कालकी हानि और सत्कर्मके अवलम्बन द्वारा चार पुरुषोंकी अपेक्षा स्थानोंका कथन करते हैं। वे इस प्रकार हैं-क्षपितकर्मा शकी विधिसे सब कर्मस्थितिप्रमाण
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गा० २२) उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं |
२१९ सुहमणिगोदेसु अच्छिय पुणो तत्तो णिप्पिडिय पलिदो० असंखे०भागमेत्ताणि संजमासंजमकंडयाणि तेहिंतो विसेसाहियमेत्ताणि सम्मत्ताणताणुवंधिविसंजोयणकंडयाणि अट्ट संजमकंडयाणि चदुक्खुत्तो कसायउवसामणं च कादण एइंदिएसु भमिय पच्छा असण्णिपंचिदिएसु उपजिय तत्थ देवाउअं बंधिय देवेसु उपजिय छप्पजत्तीओ समाणिय पुणो सम्मत्तमुवणमिय वेछावहिसागरोवमाणि ममिय तदो मिच्छत्तं गंतूण दोहुव्वेल्लणकालेण सम्मामिच्छत्तमुव्वेल्लिय एगणिसेगे दुसमयकालष्टिदिए सेसे सम्मामिच्छत्तस्स सव्वजहण्णढाणं होदि । संपहि जहण्णदव्वम्मि ओकड्डक्कड्डणाओ अस्सिदण एगपरमाणुम्मि ओवट्टिदे विदियमणंतभागवड्डिठाणं होदि, जहण्णदव्वेण जहण्णदव्वे खंडिदे संते तत्थ एगखंडमेत्तरूववड्डिदसणादो। दुपरमाणुत्तरं वड्डिदे वि तदियं ठाणमणंतभागवड्डीए, जहण्णट्ठाणदुभागेण जहण्णट्ठाणे भागे हिदे वडिरूवोवलंभादो । एवमणंतभागवड्डीए चेव अणंताणि ठाणाणि णिरंतरं गच्छंति जाव जहण्णपरित्ताणतेण जहण्णट्ठाणे भागे हिदे तत्थ एगभागमेत्ता कम्मपरमाणू जहण्णदबम्मि वड्डिदा ति । एवं वड्डिदे अणंतभागवडी परिसमप्पदि । अंसाणमविवक्खाए एत्थ एगपरमाणुम्मि वहिदे असंखेजभागवड्डी होदि, जहण्णदव्वभागहारस्स वड्डिरूवागमणणिमित्तस्स एत्थ असंखेज्जत्तवलंभादो। तं जहाजहण्णपरित्ताणंतं विरलिय जहण्णदव्वे समखंडं कादूण दिण्णे विरलणरूवं पडि कालतक सूक्ष्म निगोदियोंमें रहकर फिर वहांसे निकलकर पल्यके असंख्यातवें भागबार संयमासंयमको और इनसे विशेष अधिक बार सम्यक्त्व और अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाको, आठ बार संयमको तथा चार बार कषायोंके उपशमको प्राप्त करके, फिर एकेन्द्रियोंमें भ्रमणकर, बादमें असंज्ञी पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर और वहाँ देवायुका बन्धकर फिर देवोंमें उत्पन्न होकर और छह पर्याप्तियोंको पूरा कर फिर सम्यक्त्वको प्राप्तकर और दो छयासठ सागर कालतक भ्रमण कर फिर मिथ्यात्वमें जाकर वहाँ उत्कृष्ट उद्वलना काल द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्घ लना कर जब दो समय कालकी स्थितिवाला एक निषेक शेष रहता है तब सम्यग्मिथ्यात्वका सबसे जघन्य स्थान होता है। अब जघन्य द्रव्यमें अपकर्षण-उत्कर्षणकी अपेक्षा एक एक परमाणुकी वृद्धि होने पर अनन्तभागवृद्धिसे युक्त दूसरा स्थान होता है, क्योंकि जघन्य द्रव्यका जघन्य द्रव्यमें भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त होता है उसकी वहां वृद्धि देखी जाती है । जघन्य द्रव्यमें दो परमाणुओंके बढ़नेपर अनन्तभागवृद्धिसे युक्त तीसरा स्थान होता है, क्योंकि जघन्य स्थानमें जघन्य स्थानके आधेका भाग देने पर दो परमाणुओंकी वृद्धि पाई जाती है । इस प्रकार जघन्य परीतानन्तका जघन्य स्थानमें भाग देने पर वहां जघन्य द्रव्यमें लब्ध एक भागप्रमाण कर्म परमाणुओंकी वृद्धि होने तक केवल अनन्तभागवृद्धिके निरन्तर अनन्त स्थान होते हैं। इसप्रकार वृद्धि होनेपर अनन्तभागवृद्धि समाप्त होती है। आगे अंशोंकी विवक्षा न करके एक परमाणुकी वृद्धि होने पर असंख्यातभागवृद्धि होती है, क्योंकि जिसका जघन्य द्रव्यमें भाग देकर वृद्धिके अंक प्राप्त किये जाते हैं वह यहां असंख्यात है। खुलासा इस प्रकार है-जघन्य परीतानन्तका विरलन कर जघन्य द्रव्यके समान खण्ड करके देयरूपसे देने पर विरलनके प्रत्येक एकके प्रति पूर्वोक्त वृद्धिरूप द्रव्य प्राप्त होता है। फिर
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२२०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ पुग्विल्लवड्डिदव्वं पावदि । पुणो परमाणुत्तरवहिदव्वमिच्छामो त्ति उवरिल्लेगरूवधरिदं हेट्ठा विरलिय पुणो तम्मि चेव विरलणरूवं पडि समखंडं करिय दिण्णे एक्कक्कस्स रूवस्स एगेगपरमाणुपमाणं पावदि । पुणो एदेसु उवरिमविरलणरूवधरिदेसु पक्खित्तेसु जा भागहारपरिहाणी होदि तं वत्तइस्सामो-हेटिमविरलणरूवाहियं गंतूण जदि एगरूवपरिहाणी लब्भदि तो उवरिमविरलणाए किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए एगरूवस्स अणंतिमभागो आगच्छदि । एदम्मि जहण्णपरित्ताणंतादो सोधिदे सुद्धसेसमुक्कस्सअसंखेजासंखेजरूवस्स अणंतेहि भागेहि अब्भहियं होदि । जहण्णपरित्ताणंतादो हेडिमा इमा संखे त्ति असंखेज्जा । संपहि जाव एदे एगरूवस्स अणंता भागा ण झीयंति ताव छेदभागहारो होदि । तेसु सव्वेसु परिहीणेसु समभागहारो होदि । एवमसंखेजभागवड्डीए ताव वढावेदव्वं जावंगगोवुच्छविसेसो एगसमयमोकड्डिद्ग विणासिज्जमाणदव्वं विज्झादेण संकामिददव्वं च मिच्छत्तादो विज्झादसंकमेणागच्छमाणदव्वेण परिहीणं वड्डिदं ति ।।
२१६. पुणो एदेण अण्णेगो जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण समयणवेछावट्ठीओ भमिय मिच्छत्तं गंतूण दीहुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय एगणिसेगं' दुसमय कालट्ठिदियं धरेदूण द्विदो सरिसो । संपहि पुव्विलं मोत्तूण एवं दव्वं परमाणुत्तरादिकमेण एक परमाणु अधिक वृद्धिरूप द्रव्य लाना इष्ट है, इसलिए ऊपरके एक अंकके प्रति जो राशि प्राप्त है उसका विरलन करके और उसी विरलित राशिको समान खण्ड करके विरलित राशिके प्रत्येक एकके प्रति देयरूपसे देने पर एक एकके प्रति एक-एक परमाणु प्राप्त होता है। फिर इनको उपरिम विरलनके प्रत्येक एकके प्रति प्राप्त राशिमें मिला देने पर जो भागहारकी हानि होती है उसे बतलाते हैं-एक अधिक नीचेका विरलन समाप्त होने पर यदि भागहारमें एककी हानि होती है तो ऊपरके विरलनमें कितनी हानि प्राप्त होगी इसप्रकार राशिक करके इच्छा राशिको फलराशिसे गुणाकर फिर उसमें प्रमाण राशिका भाग देने पर एकका अनन्तवां भाग प्राप्त होता है। इसे जघन्य परीतानन्तमेंसे घटाने पर जो शेष बचता है वह एकका अनन्त बहुभाग अधिक उत्कृष्ट असंख्यातासंख्यात होता है । यह संख्या जघन्य परीतानन्तसे कम है, इसलिये इसका अन्तर्भाव असंख्यातमें होता है । अब जब तक इस एकके ये अनन्त बहभाग गलित नहीं होते तब तक छेद भागहार होता है। और । घट जाने पर समभागहार होता है। इस प्रकार असंख्यातभागवद्धिके द्वारा उत्तरोत्तर तब तक द्रव्य बढ़ाते जाना चाहिये जब तक एक गोपुच्छविशेष, एक समयमें अपकर्षण द्वारा विनाशको प्राप्त हुआ द्रव्य और मिथ्यात्वमेंसे विध्यात संक्रमणद्वारा आनेवाले द्रव्यसे हीन उसी विध्यातसंक्रमणद्वारा संक्रमणको प्राप्त हुआ द्रव्य वृद्धिको नहीं प्राप्त हो जाता।
६२१६. फिर इस जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो जघन्य स्वामित्वकी विधिसे आकर एक समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर, मिथ्यात्वमें जाकर उत्कृष्ट उद्वलना कालतक उद्वेलना कर दो समय कालकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित है । अब पहलेके जीवको छोड़ दो और इस जीवके द्रव्यको एक परमाणु अधिक आदिके
ता. प्रतौ 'एगणिसेग' इति पाठः ।
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
बडावेदव्वं जाव विज्झादसं कमेणागच्छंतदव्वेणूणेगगोबुच्छविसेसेणम्भहियएगसमरणोकड्डिण विणासिजमाणदव्वं सगविज्झादसंकमदव्वसहिदं वड्ढिदं ति । पुणो एदेण खविदकम्मं सियलक्खणेणागंतून दुसमयूणवेछावडीओ भमिय दीहुब्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय एगणिसेगं दुसमय कालडिदियं धरेदूण हिदो सरिसो । एवमेदेण कमेण ओदारेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तूणविदियछावट्ठिति । तं घेत्तृण परमाणुत्तर- दुपरमाणुत्तरादिकमेण बडा वेदव्वं जाव अंतोमुहुतमेच गोबुच्छविसेसा तावदियमेतकाल मोकड्डियूण विणासिददव्वं जहण्णसम्मत्त कालब्भंतरे' परपयडिसंकमेण गददव्वं च तेत्तियमेत्तकालं मिच्छत्तादो विज्झादेणागच्छमाणदव्वेणूणं वह्निदं ति । एदमंतो मुहुत्त प्रमाणं जहण्णसम्मत्त-सम्मामिच्छत्तद्वामेत्तमिदि वेत्तव्वं । एवं वडिऊण ट्ठिदेण अण्णेगो अंतोमुहुत्तदपढमछाबड्डिम्म सम्मामिच्छत्तमपडिवजिय मिच्छत्तं गंतूण दीहुबेहुणकालेणुव्वेल्लिय एयणिसेयं दुसमयकालट्ठिदियं धरेदूण हिदो सरिसो । एतो पहुडि विदियछावहिम्मि वृत्तविहाणेणोदारेदव्वं जावतोमुहुत्तूणपढमछावडी सव्वा ओदिण्णा त्ति । जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण असण्णिपंचिदिएसु देवेसु च कर्मणुष्पञ्जिय छप्पजत्तीओ समाणिय उवसमसम्मत्तं घेत्तूण वेदगं पडिवज्जिय तत्थ सव्वजहण्ण
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क्रमसे तब तक बढ़ाओ जबतक विध्यातसंक्रमणके द्वारा आनेवाले द्रव्य से न्यून एक समय में अपकर्षित होकर विनाशको प्राप्त होनेवाला द्रव्य और विध्यात संक्रमण के द्वारा संक्रमणको प्राप्त हुआ अपना द्रव्य न बढ़ जाय । फिर इस जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो कर्मा की विधिके साथ आकर दो समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर और उत्कृष्ट उद्व ेलना काल द्वारा उद्व ेलना कर दो समय कालकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण कर स्थित है । इसप्रकार इस क्रमसे अन्तर्मुहूर्त कम दूसरे छ्यासठ सागर कालके समाप्त होने तक उतारते जाना चाहिए । फिर वहां स्थित हुए जीवके दो समय कालकी स्थितिवाले एक निषेकको लो और उसमें एक परमाणु अधिक, दो परमाणु अधिक आदिके क्रमसे तब तक बढ़ाओ जब तक अन्तर्मुहूर्त के जितने समय हैं उतने गोपुच्छविशेष, उतने काल तक अपकर्षित होकर विनाशको प्राप्त होने वाला द्रव्य, जघन्य सम्यक्त्व कालके भीतर संक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य न बढ़ जाय । किन्तु इस वृद्धिको प्राप्त हुए द्रव्य में से अन्तर्मुहूर्त काल तक मिथ्यात्व प्रकृतिमेंसे विध्यातसंक्रमणके द्वारा आनेवाला द्रव्य कम कर देना चाहिये। यहां उस अन्तर्मुहूर्तको सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व के जघन्य कालप्रमाण लेना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो प्रथम छयासठ सागर कालमें अन्तर्मुहूर्तं शेष रहने पर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होकर फिर मिध्यात्वमें जाकर उत्कृष्ट उद्वेलना कालके द्वारा उद्बलना करके दो समय कालकी स्थितिवाले एम निषेकको धारण करके स्थित है । फिर यहांसे लेकर दूसरे छयासठ सागर में उक्त विधि से जीवको तब तक उतारना चाहिये जब तक अन्तर्मुहूर्त कम प्रथम छयासठ सागर सबका सब उतर जाय। फिर जघन्य स्वामित्वकी विधि से आकर तथा असंज्ञी पंचेन्द्रियों और देवों में क्रम से उत्पन्न होकर छह पर्याप्तियों को पूरा कर उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण कर फिर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त
१. श्र०प्रतौ 'जहण्णसामित्तकालब्भंतरे' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदै कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ मतोमुहुत्तमच्छिय पुणो मिच्छत्तं गंतूण दीहुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय एगणिसेगं दुसमयकालट्ठिदि धरेदूण हिदं जाव पावदि ताव ओदिण्णो त्ति भणिदं होदि।
२१७. संपहि इमं घेत्तूण परमाणुत्तरादिकमेण वड्ढावेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तमेत्तगोवुच्छविसेसा अंतोमुहुत्तमेतकालमोकड्डिद्ग विणासिजमाणदव्वेण कुणो विज्झादेग गददव्वेणब्भहियावहिदा ति। णवरि सम्मत्तकालम्मि सव्वजहण्णम्मि विज्झादसंकमणागददव्वेणूणा त्ति वत्तव्वं । एवं वड्डिदूण विदेण अण्णेगो जहण्णसामित्तविहाणेण' देवेसुप्पन्जिय उवसमसम्मत्तं पडिवजिय पुणो वेदगसम्मत्तमगंतूण मिच्छत्तं पडिवण्णो दीहुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय एगणिसेगं दुसमयकालट्ठिदि धरिय द्विदो सरिसो। संपधि एदं दवमुव्बेल्लणभागहारेणेपसमयम्मि गददव्वेणेगगोवच्छाविसेसेण च अब्भहियं कायव्वं । पुणो एदेण समऊणुक्कस्सुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय एगणिसेगं दुसमयकालहिदि धरेदूण हिदो सरिसो । एवं जाणिदणोदारेदव्वं जाव सव्वजहण्णुव्वेल्लणकालो सेसो त्ति । पुणो एसा गोवच्छा पंचहि वड्डीहि वड्डावेदव्वा जाव उक्कस्सा जादे त्ति । णारगचरिमसमयम्मि मिच्छत्तमुक्कस्सं कादण तिरिक्खेसु देनेसुववजिय उवसमसम्मत्तं घेत्तूण हो और वहांपर सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त कालतक रहे। फिर मिथ्यात्वमें जाकर और वहां उस्कृष्ट उद्वेलनाकालके द्वारा उद्वेलना करके दो समय कालकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित हुआ जीव जब जाकर प्राप्त हो तब तक उतारते जाना चाहिये, यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
६२१७. अब इस जीवको ग्रहण करके एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे तब तक बढ़ाते जाना चाहिए जब तक अन्तर्मुहूर्तमें जितने समय हों उतने गोपुच्छविशेष, एक अन्तर्मुहूर्त काल तक स्थितिका अपकर्षण करके नष्ट हुआ द्रव्य और विध्यातसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य वृद्धिको प्राप्त होवे । किन्तु इतनी विशेषता है कि सबसे जघन्य सम्यक्त्व कालके भीतर विध्यात संक्रमणके द्वारा प्राप्त हुए द्रव्यसे न्यून उक्त द्रव्यको कहना चाहिये । इस प्रकार द्रव्यको बढ़ा कर स्थित हुए इस जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो जघन्य स्वामित्व विधिसे आकर देवोंमें उत्पन्न होकर उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ फिर वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त न होकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ और वहां दीर्घ उद्वलनाकालके द्वारा उद्वलना कर दो समय कालकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित है । अब इस द्रव्यको उद्वलना भागहारके द्वारा एक समयमें जितना द्रव्य अन्य प्रकृतिको प्राप्त हो उससे और एक गोपुच्छविशेषसे अधिक करे। इस प्रकार अधिक किये हुए द्रव्यको धारण करनेवाले इस जीवके साथ एक समय कम उत्कृष्ट उद्वेलना कालके द्वारा उद्वलना करके दो समय कालकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित हुआ जीव समान है। इस प्रकार जानकर सबसे जघन्य उद्वलना कालके शेष रहने तक उतारना चाहिये। फिर इस गोपुच्छाको पाँच वृद्धियोंके द्वारा तब तक बढ़ाना चाहिये जब तक वह उत्कृष्ट न हो जाय । उक्त कथनका तात्पर्य यह है कि नारकियोंके अन्तिम समयमें मिथ्थात्वके द्रव्यको उत्कृष्ट करके क्रमशः तियचों और देवोंमें उत्पन्न होकर, उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण कर फिर
१. ता०प्रतौ 'जहण्णम्मि वि सामित्तविहाणेण' इति पाठः ।
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्त मिच्छत्तं गंतूण सव्वजहण्णुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय जाव एगणिसेगं दुसमयकालहिदि धरेदण द्विदं पावदि ताव ओदिण्णो त्ति भणिदं होदि । ____२१८. संपहि दोगोवुच्छाओ तिसमयकालहिदियाओ घेत्तूणवसेसठ्ठाणार्ण सामित्तपरूवणं कस्सामो । तं जहा-जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण वे छावडीओ भमिय मिच्छत्तं गंतूण दीहुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय एगणिसेयं दुसमयकालट्ठिदियं धरेदूण हिदस्स सम्मामिच्छत्तं ताव वड्ढावेदव्वं जाव तस्सेव दुचरिमगोवुच्छा वड्विदा ति । एवं वडिदण हिदेण अण्णेगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण वेछावट्ठीओ दीहुव्बेल्लणकालं च भमिय दो गोवुच्छाओ तिसमयकालहिदियाओ धरेदण हिदो सरिसो। संपहि एवं दव्वं परमाणुत्तरकमेण विज्झादसंकमेणागददव्वेणूणदोगोवुच्छविसेसमेत्तमेगसमएण ओकड्डणाए विणासिज्जमाणदव्वं च सादिरेयं वड्ढावेदव्वं । एदेण समयूणवेछावडीओ भमिय दीहुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय दोगोवुच्छाओ तिसमयकालहिदियाओ धरेदूण द्विदो सरिसो। संपहि एवं जाणिदण ओदारेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तूणविदियछावही ओदिण्णा त्ति । पुणो एदं दव्वं परमाणुत्तरकमेण वड्ढावेदव्य जाव पुत्वं वड्डिदअंतोमुहुत्तमेत्तगोवुच्छविसेसेहिंतो दुगुणमेत्तगोवच्छविसेसा विज्झादसंकमेण अंतोमुहुत्तमागददव्वणूणअंतोमुहुत्तमोकडिदूण विणासिजमाणदव्वं च सादिरेयं वड्डिदं ति । एदेण अण्णेगो मिथ्यात्वमें जाकर सबसे जघन्य उद्वलनाके द्वारा उद्वेलना करके दो समय कालकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित हुए जीवको प्राप्त होता है तब तक उतारना चाहिये ।
६२१८. अब तीन समय कालकी स्थितिवाली दो गोपुच्छाओंको ग्रहण करके अवशेष स्थानोंके स्वामित्वका कथन करते हैं। वह इस प्रकार है-जघन्य स्वामित्व विधिसे आकर दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर फिर मिथ्यात्वमें जाकर उत्कृष्ट उद्वेलना काल द्वारा उद्वलना करके दो समय कालकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित हुए जीवके सम्यग्मिथ्यात्व तब तक बढ़ाना चाहिये जब तक उसी जोवके द्विचरम गोपुच्छा बढ़ जाय । इस प्रकार द्विचरम गोपुच्छाको बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ अन्य एक जीव समान है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर दो छयासठ सागर और उत्कृष्ट उद्वेलना काल तक भ्रमण करके तीन समय कालकी स्थितिवाली दो गोपुच्छाओंको धारण करके स्थित है। अब इसके द्रव्यको उत्तरोत्तर एक परमाणुके अधिक क्रमसे विध्यात संक्रमणके द्वारा प्राप्त हुए द्रव्यसे न्यून दो गोपुच्छ विशेषके और एक समयमें अपकर्षण द्वारो विनाशको प्राप्त हुए द्रव्यके अधिक होने तक बढ़ाते जाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ एक समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमणकर और उत्कृष्ट उद्वेलना काल द्वारा उद्वेलना कर तीन समय कालकी स्थितिवाली दो गोपुच्छाओंको धारण कर स्थित हुआ जीव समान है। अब इस प्रकार जानकर अन्तर्मुहूर्त कम दूसरे छयासठ सागर कालके समाप्त होने तक उतारते जाना चाहिए । फिर इस द्रव्यको उत्तरोत्तर एक-एक परमाणुके अधिक क्रमसे तब तक बढ़ाना जब तक एक अन्तर्मुहूर्तमें जितने समय हों उनकी पहले बढ़ाई हुई गोपुच्छविशेषोंसे दूने गोपुच्छविशेष, विध्यातसंक्रमणके द्वारा अन्तर्मुहूर्त में प्राप्त हुए द्रव्यसे कम अन्तर्मुहूर्ततक अपकर्षण करके विनाशको प्राप्त हुआ साधिक द्रव्य न बढ़ जाय । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित
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२२४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ खविदकम्मंसियलक्खणेण देगेसुववन्जिय उवसमसम्मत्तं पडिवजिय पढमछावढि भमिय सम्मामिच्छत्तमग तूण मिच्छत्तं पडिवज्जिय दीहुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय दोणिसेगे तिसमयकालट्ठिदिगे धरेदूण द्विदो सरिसो।।
$ २१९. एवमेदेण कमेण जाणिदण पढमछावही वि ओदारेदव्या जाव अंतोमुहुत्तूणा त्ति । तत्थ हविय अंतोमुहुत्तमत्तगोवुच्छविसेसा विज्झादसंकमणागददव्वेणणओकड्डकड्डणाए विणासिय दव्वमेत्तं च सादिरेयं वड्डानेयव्वं । एदेण खविदकम्मंसियलक्खणेणागतृण देवेसुववन्जिय उवसमसम्म घेत्तूण मिच्छत्तं पडिवजिय दीहुव्वेल्लणकालेणुव्वोल्लिय दोणिसेगे तिसमयकालढिदिगे धरेदूण हिदो सरिसो' । पुणो इमं दव्वं परमाणुत्तरादिकमेण वड्डाव दव्वं जाव एयसमयमुव्वल्लणभागहारणागददव्वण सहिदवेगोवु च्छविसेसा वड्डिदा त्ति । पुणो एदेण पुत्वविहाणेणागंतूण समयूणुकस्सुव्वल्लणकालेणुव्वल्लिददोणिसेगे तिसमयकालढिदिगे धरेदूण द्विदो सरिसो। एवं समयूणादिकमेण ओदारिय सव्वज हण्णुव्वल्लणकालचरिमसमए ठविय गुणिदकम्मंसिएण सह पुत्वं व संधाणं कायव्वं ।।
६२२०. संपहि एदेण कमेण तिण्णि णिसेगे चदुसमयकालढिदिगे आदि कादूण ओदारेदव्वं जाव समयूणावलियमेत्तगोवुच्छाओ ओदिण्णाओ ति । तत्य हुए इस जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर देवोंमें उत्पन्न हुआ। फिर उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त कर और पहले छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर सम्यग्मिथ्यात्वको न प्राप्त हो मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। फिर उत्कृष्ट उद्वेलना कालके द्वारा उद्वलना कर तीन समय कालकी स्थितिवाले दो निषेकोंको धारण करके स्थित है।
$२१९. इस प्रकार इस क्रमसे जानकर अन्तर्मुहूर्त कम प्रथम छयासठ सागर कालको भी उतारना चाहिये । फिर वहां ठहराकर एक अन्तर्मुहूर्त में जितने समय हों उतने गोपुच्छविशेषोंको
और विध्यातसंक्रमणके द्वारा आये हए द्रव्यसे कम अपकर्षण-उत्कर्षणके द्वारा विनाशको प्राप्त हुए साधिक द्रव्यको बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर देवोंमें उत्पन्न हुआ। फिर उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त कर मिथ्यात्वमें गया और वहां उत्कृष्ट उद्वेलना कालके द्वारा उद्वेलनाकर तीन समय कालकी स्थितिवाले दो निषेकोंको धारण करके स्थित है। फिर इस द्रव्यको उत्तरोत्तर एक-एक परमाणुके अधिक क्रमसे तब तक बढ़ाना चाहिए जब तक एक समयमें उद्वेलना भागहारके द्वारा प्राप्त हुए द्रव्यके साथ दो गोपुच्छविशेष बृद्धिको न प्राप्त हों। फिर इस जीवके साथ पूर्वोक्त विधिसे आकर एक समयकम उत्कृष्ट उद्वेलना कालके द्वारा तीन समयकी स्थितिवाले उद्वेलनाको प्राप्त हुए दो निषेकोंको धारण कर स्थित हुआ जीव समान है। इस प्रकार एक समयकम आदिके क्रमसे उतारकर सबसे जघन्य उद्वेलना कालके अन्तिम समयमें स्थापित कर गणितकर्मा शके साथ पहलेके समान मिलान करा देना चाहिये ।
६२२०. अब इसी क्रमसे चार समयकी स्थितिवाले तीन निषेकोंसे लेकर एक समय कम आवलिप्रमाण गोपुच्छाओंके उतरनेतक उतारते जाना चाहिये । अब यहां सबसे अन्तिम
१. प्रा०प्रतौ 'डिदिसरिसो' इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
२२५ सव्वपच्छिमवियप्पो वुच्चदे । तं जहा–खवियकम्मंसियलक्खणेणागंतूण असण्णिपंचिंदिएसुववज्जिय पुणो देवेसुप्पन्जिय उवसमसम्मत्तं घेत्तूण वेदगं पडिवजिय वेछावट्ठीओ भमिय मिच्छत्तं गंतूण दीहुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय एगणिसेग दुसमयकालहिदियं घेत्तूण परमाणुत्तरकमेण षड्ढावेदव्वं जाव दुसमयूणावलियमेत्तजहण्णगोवुच्छाओ सविसेसाओ वड्डिदाओ ति । एवं वड्डिदूण हिदेण खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सम्मत्तं पडिवन्जिय वेछावहीओ भमिय मिच्छत्तं गतूण दीहुव्बेल्लणकालेणुव्वेलिय सम्मामिच्छत्तचरिमफालिमवणिय समयूणावलियमेसजहण्णगोवुच्छाओ धरिय हिदजीवो सरिसो । तं मोत्तूण समयूणावलियमेत्तगोवुच्छाओ धरिय हिदं घेत्तूण तत्थ परमाणुसरकमेण समयूणावलियमेत्तगोवुच्छविसेसा विज्झादभागहारेणागददव्वेणूणएगसमयमोकड्डिदूण विणासिददव्वं च वड्ढावेदव्वं । एवं वड्डिदेणेदेण खविदकम्मंसियलक्खणेणागतूण समयूणवेछावडीओ भमिय दीहुव्वेल्लणकालेण सम्मामिच्छत्तमुवेल्लिय समयणावलियमेत्तगोवुच्छाओ धरिय हिदो सरिसो। संपहि एदस्सुपरि परमाणुसरकमेण समयूणावलियमेत्तगोवुच्छविसेसा विज्झादसंकमेणागददव्वणूणएगसमयमोकड्डिय विणासिददब्व च वड्ढावेदव्वं । एवं वड्डिदेण अण्णेगो दुसमयूणवेछावट्ठीओ भमिय
विकल्पको कहते हैं जो इस प्रकार है-क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर, असंज्ञी पंचेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर फिर देवोंमें उत्पन्न होकर फिर उपशम सम्यक्त्वको ग्रहणकर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । फिर दो छयासठ सागर कालतक भ्रमणकर मिथ्यात्वमें गया। फिर वहां उत्कृष्ट उद्वेलना कालके द्वारा उद्वेलना करके दो समय स्थितिवाले एक निषेकको प्राप्तकर उत्तरोत्तर एक एक परमाणुके अधिक क्रमसे तब तक बढ़ाना चाहिये जबतक दो समयकम आवलिप्रमाण कुछ अधिक जघन्य गोपुच्छाएं वृद्धिको प्राप्त हों । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर सम्यक्त्वको प्राप्त हो
और दो छयासठ सागर काल तक भ्रमणकर मिथ्यात्वमें गया। फिर उत्कृष्ट उद्वेलना कालके द्वारा उदलना करके सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिके सिवा एक समयकम आवलिप्रमाण गोपुच्छाओंको धारण कर स्थित है। अब इस जीवको छोड़ दो और एक समयकम आवलिप्रमाण गोपच्छाओंको धारणकर स्थित हुए जीवको लो। फिर उसके एक परमाणु अधिकके क्रमसे एक समयकम आवलिप्रमाण गोपुच्छविशेषोंको और विध्यात भागहारके द्वारा प्राप्त हुए द्रव्यसे कम एक समयमें अपकर्षणके द्वारा विनाशको प्राप्त हुए द्रव्यको बढ़ाओ। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो क्षपितकर्मा शको विधिसे आकर एक समयकम दो छयासठ सागर कालतक भ्रमणकर और उत्कृष्ट उद्वेलना काल द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वलनाकर एक समयकम आवलिप्रमाण गोपुरछाओंको धारण कर स्थित है। अब इस जीवके द्रव्यके ऊपर एक परमाणु अधिकके क्रमसे एक समयकम आवलिप्रमाण गोपुच्छविशेषोंको और विध्यातसंक्रमण द्वारा प्राप्त हुए द्रव्यसे न्यून एक समयमें अपकर्षण द्वारा विनाशको प्राप्त हुए द्रव्यको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो दो समयकम दो छयासठ सागर काल
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ उव्वेल्लिय द्विदो सरिसो। एदेण कमेणोदारेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तूणविदियछावही
ओदिण्णा ति। ___$ २२१. संपहि एत्तो हेहा दोहि पयारेहि ओयरणं संभवदि । तत्थ ताव समयूणादिकम णोदारणोवाओ उच्चदे । तं जहा–एदस्स दव्वस्सुवरि परमाणुत्तरकमण समयूणावलियमेत्तगोवुच्छविसेसा विज्झादसंकमेणागददव्वेण्णमेगसमयमोकड्डिय विणासिददव्वं च वड्ढावेदव्वं । एदेण पढमछावहिसम्मत्तकालचरिमसमए सम्मामिच्छत्तं पडिवजिय अवडिदं सम्मामिच्छत्तद्धमच्छिय सम्मामिच्छत्तचरिमसमए सम्मत्तं घेत्तूण तेण सह जहणंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो मिच्छत्तं गंतूण दीहुव्वल्लणकालेणुव्वल्लिय समयूणावलियमेत्तगोवुच्छं ओदरिय द्विदो सरिसो।
६ २२२. एवं दुसमयूणादिकमेण ओदारेदव्वं जाव सम्मामिच्छत्तपढमसमओ त्ति । एवमोदारिय हिदेण अण्णेगो पढमछावट्ठीए सम्मामिच्छत्तं पडिवञ्जमाणहाणे सम्मामिच्छत्तमपडिवजिय मिच्छत्तं गतूणुव्वेल्लिय हिदो सरिसो। एत्तो प्पहुडि समयूणादिकमेणोदारिजमाणे जहा विदियछावही ओदारिदा तहा ओदारेदव्व।
१ २२३. संपहि एगवारेणोदारिजमाणे विदियछावहिपढमसमए सम्मत्तं घेत्तूण तत्थ जहण्णमंतोमुहुत्तमच्छिय मिच्छत्तं गंतूणुव्वोल्लिय समयूणावलियमेत्तगोवुच्छाण
तक भ्रमण कर और उद्वेलना कर स्थित है। इस क्रमसे अन्तर्मुहूर्त कम दूसरा छयासठ सागर काल व्यतीत होनेतक उतारते जाना चाहिये।
६२२१. अब इससे नीचे दोनों प्रकारसे उतारना सम्भव है। उसमेंसे पहले एक समय कम आदिके क्रमसे उतारनेकी विधि कहते हैं । वह इस प्रकार है-इस द्रव्यके ऊपर एम परमाणु अधिकके क्रमसे एक समयकम आवलिप्रमाण गोपच्छाविशेषोंको और विध्यात संक्रमणके द्वारा प्राप्त हुए द्रव्यसे न्यून एक समयमें अपकर्षण द्वारा नाश होनेवाले द्रव्यको बढ़ाना चाहिये । इस जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो प्रथम छयासठ सागर कालके भीतर वेदकसम्यक्त्वके कालके अन्तिम समयमें सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होकर और सम्यग्मिथ्यात्वके अवस्थित काल तक उसके साथ रहकर फिर सम्यग्मिथ्यात्वके अन्तिम समयमें सम्यक्त्वको ग्रहण कर उसके साथ जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर फिर मिथ्यात्वमें जाकर उत्कृष्ट उद्धलना कालके द्वारा उद्वेलना करके एक समय कम आवलिप्रमाण गोपुच्छा उत्तरकर स्थित है।
६२२२. इस प्रकार दो समय कम आदिके क्रमसे सम्यग्मिथ्यात्वके प्रथम समय तक उतारना चाहिये । इस प्रकार उतार कर स्थित हुए जीवके साथ अन्य एक जीव समान है जो प्रथम छयासठ सागर कालके भीतर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त करनेके स्थानमें सभ्यग्मिथ्यावको प्राप्त हुए बिना मिथ्यात्वमें जाकर और उद्वेलना करके स्थित है। इससे आगे एक समयकम आदिके क्रमसे उतारने पर जिस प्रकार दूसरे छयासठ सागर कालको उतरवाया है उसी प्रकार उतरवाना चाहिये।
६२२३. अब एक साथ उतारने पर दूसरे छयासठ सागर कालके प्रथम समयमें सम्यक्त्वको ग्रहण करके और वहाँ जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक रहकर फिर मिथ्यात्वमें जाकर
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गो० २२]
उत्तरपयडिपदेस विहन्तीए सामित्तं
मुवरि समयूणावलियाए गुणिदतो मुहुत्तमेतगोबुच्छविसेसा तेत्तियमेतकालमोकडणाए विणासिददव्वं परपयडिसंकमेण गददव्वं च मिच्छत्तादो जहण्णसम्मत्तद्धामेत्तकाल - मप्पणो दुकमाणविज्झादसंकमे दव्वेणूणं वड्डावे दव्वं । एवं वडिदूण हिदेण अवरेगो पढमछावहिम्मि सम्मादिट्ठिचरिमसमए मिच्छत्तं गं तूणुव्व ल्लिय हिदो सरिसो । संपहि एदम्मिदच्च परमाणुत्तरकमेण समयूणावलियमेतगोवुच्छविसेसा मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्तस्सागददव्येणूणओकडणाए विणासिददव्वं च सादिरेयं वङ्गावेदव्वं । एवं वड्डदेण अण्णेगो समयूणपढमलावहिं भमिय मिच्छत्तं गं तूणुव्व ल्लिय हिंदो सरिसो । एवमोदारेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तूणपढमछावहिति ।
$ २२४. संपहि एदस्सुवरि परमाणुत्तरकमेण वड्डावेदव्वळ जाव समयूणावलियाए गुणिदअंतोमुहुत्तमेत्तगोवुच्छविसेसा सविसेसा वड्ढिदा ति । एवं वडिदूणच्छिदेण अवरेगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागतूण उवसमसम्मत्तं पडिवजिय वेदगसम्मत्तं पविजमाणपढमसमए मिच्छत्तं गं तूणुव्व ल्लिय द्विदो सरिसो । संपहि एदस्सुवरि परमाणुत्तरकमेण समऊणावलियमेत्तगोवुच्छविसेसा एगसमयमुव्वेल्लणसंकमेण गददव्व च बड्डावदव्वं । एवं वड्डिण हिदेण अवरेगो खविदकम्मं सियलक्खणेणागं तूण
और उद्वेलना करके एक समय कम आवलिप्रमाण गोपुच्छाओंके ऊपर एक समयकम आवलिसे गुणित अन्तर्मुहूर्तप्रमाण गोपुच्छाविशेषोंको, उतने ही कालमें अपकर्षणके द्वारा विनाशको प्राप्त हुए द्रव्यको और सम्यक्त्वके जघन्य कालके भीतर विध्यातसंक्रमणके द्वारा मिथ्यात्व में से अपने में प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे न्यून संक्रमणके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त होनेवाले द्रव्यको बढ़ाते जाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ प्रथम छयासठ सागरके भीतर, सम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयमें मिथ्यात्वमें जाकर और उद्वेलना करके स्थित हुआ जीव समान है। अब इस द्रव्य में एक-एक परमाणु अधिकके क्रमसे एक समयकम आवलिप्रमाण गोपुच्छाविशेषों को और मिथ्यात्वके द्रव्यमेंसे संक्रमण द्वारा जो द्रव्य सम्यमिथ्यात्वको मिला है उससे कम अपकर्षणद्वारा विनाशको प्राप्त हुए साधिक द्रव्यको बढ़ाते जाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ एक समय कम प्रथम छयासठ सागर काल तक भ्रमणकर फिर मिध्यात्व में जाकर उद्वेलना करके स्थित हुआ जीव समान है । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्तक्रम प्रथम छयासठ सागर काल समाप्त होने तक उतारना चाहिये । ६ २२४. अब इसके ऊपर एक परमाणु अधिकके क्रमसे एक समय कम आवलिसे गुणित अन्तर्मुहूर्त से कुछ अधिक गोपुच्छाविशेष प्राप्त होनेतक बढ़ाते जाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्तकर वेदकसम्यक्त्व को प्राप्त होनेके पहले समय में वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त किये बिना freeran जाकर और उद्वेलनाकर स्थित हुआ जीव समान है। अब इसके ऊपर एक-एक परमाणु अधिक के क्रमसे एक समयकम आवलिप्रमाण गोपुच्छाविशेषों को और एक समय में उद्वेलना संक्रमणके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुए द्रव्यको बढ़ाते जाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ क्षपितकर्मा शकी विधिसे भाकर वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त होने के पहले ही समय में उसे प्राप्त किये बिना मिथ्यात्वमें जाकर एक समय कम उत्कृष्ट उद्वेलना
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ व दगसम्म पडिबजमाणपढमसमए मिच्छत्तं गंतूण समऊणुवल्लणकालेणुव्वोल्लिय हिदो सरिसो। एवमुव्वल्लणकालो समयूण-दुसमयणादिकमेण ओदारेदव्यो जाव सव्वजहण्णत्तं पत्तो ति। __ २२५. पुणो समयूणावलियमेत्तगोवुच्छाओ चत्तारि पुरिसे अस्सिदूण परमाणुत्तरकमेण वड्ढावेदव्वाओ जान उकस्सत्तं पत्ताओ ति । णवरि पयडिगोवुच्छाओ परमाणुत्तरकमेण वडति' ण विगिदिगोवुच्छाओ, हिदिखंडए णिवदमाणे अक्कमेण तत्थ अणंताणं परमाणणं विगिदिगोवुच्छायारेण णिवादुवलंभादो। तेण विगिदिगोवुच्छाए उक्कडं कीरमाणाए पयडिगोवच्छमस्सिदूण अणंताणि णिरंतरहाणाणि उप्पादिय पुणो एगवारेण विगिदिगोवुच्छा वड्डावेदव्वा । तं जहा–खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण उवसमसम्मत्तं पडिवन्जिय तस्सेव चरिमसमए मिच्छत्तं गंतूण सव्वजहण्णुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय समयूणावलियमेत्तजहण्णगोवुच्छाणमुवरि परमाणुत्तरं कादूणच्छिदे अण्णमपुणरुत्तहाणं होदि । एवं पयडिगोवुच्छाणमुवरि णिरंतरहाणाणि उप्पादेदव्वाणि जाव पढमुव्वेलणकंडए णिवदमाणे समयूणावलियमेत्तगोवुच्छासु पदिददव्यमेत्तहाणाणि उप्पण्णाणि त्ति । एवं वडिदण हिदेण' अण्णेगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण उवसमसम्मत्तं पडिवन्जिय तच्चरिमसमए मिच्छत्तं गंतूण पुणो अंतोमुहुत्तेण पढमुव्वेल्लणकंडयं पयडिगोकुच्छाए उवरि वड्डाविदपरमाणुपुंजेणब्भहियं घादिय पुणो विदियादिकालके द्वारा उद्वेलना करके स्थित हुआ जीव समान है । इस प्रकार एक समय कम दो समय कम आदिके क्रमसे सबसे जघन्य उद्वेलना कालके प्राप्त होने तक उद्वेलना कालको उतारते जाना चाहिये।
६२२५. फिर एक समय कम आवलिप्रमाण गोपुच्छाओंको चार पुरुषोंकी अपेक्षा एक-एक परमाणु अधिकके क्रमसे उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढाते जाना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रकृतिगोपुछाएं ही एक-एक परमाणु अधिकके क्रमसे बढ़ती हैं विकृतिगोपच्छाएं नहीं, क्योंकि स्थितिकाण्डकका पतन होने पर एक साथ ही वहां अनन्त परमाणुओंका विकृतिगोपच्छारूपसे पतन पाया जाता है, इसलिये विकृतिगोपुच्छाके उत्कृष्ट करने पर प्रकृति गोपुच्छाकी अपेक्षा अनन्त निरन्तर स्थानोंको उत्पन्न करके फिर एक साथ विकृतिगोपुच्छाको बढ़ाना चाहिये। यथा क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर और उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होकर फिर उसीके अन्तिम समयमें मिथ्यात्वमें जाकर सबसे जघन्य उद्वेलना कालके द्वारा उद्वेलना करके एक समय कम आवलिप्रमाण जघन्य गोपुच्छाओंके ऊपर एक परमाणु अधिक कर स्थित होनेपर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । इस प्रकार प्रकृतिगोपुच्छाओंके ऊपर, प्रथम उद्वेलनाकाण्डकके पतन होने पर एक समयकम आवालिप्रमाण गोपुच्छाओंमें पतित द्रव्यसे उत्पन्न हुए स्थानोंके प्राप्त होने तक निरन्तर स्थान उत्पन्न करना चाहिये । इसप्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके साथ अन्य एक जीव समान है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हो उसके अन्तिम समयमें मिथ्यात्वमें जाकर फिर अन्तर्मुहूर्तमें प्रकृतिगोपुच्छाके ऊपर बढ़ाये गये परमाणुपुजसे अधिक प्रथम उद्वेलनाकाण्डकका
१. सा.प्रतौ 'वडिदं ति' इति पाठः। २. प्रा०प्रतौ 'वडिदूच्छिदेण' इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
२२९ कंडयाणि पुन्वविहाणेण पत्तजहण्णभावाणि जहण्णुव्वेल्लणकालेण पादिय समयूणावलियमेत्तगोवुच्छाओ धरिय हिदो सरिसो। सव्वेसु कंडएसु जहण्णेसु संतेसु कथमेगं चेव कंडयमहियत्तमल्लियइ' ? ण, ओकड्डक्कड्डणवसेण णाणाकालपडिबद्धणाणाजीवेसु एवं विहवष्टुिं पडि विरोहाभावादो। अधवा पयडिगोवुच्छाए बड्डाविददव्वमेत्तं सव्व सुव्वल्लणहिदिखंडएसु वड्डाविय विगिदिगोवुच्छसरूवण करिय णिरंतरहाणपरूवणा कायव्वा ।
$ २२६. संपहि इमं घेत्तण परमाणुत्तरकमण' पगदिगोवच्छा वड्ढावेदव्वा जाव विदियकंडएण संछुहमाणदव्व वहिदं ति । एवं वड्डिदूण हिदेण अण्णेगो पुव्वविहाणेणागंतूण पढमविदियकंडयाणि उक्कहाणि करिय घादिय अवसेसकंडयाणि जहण्णाणि चेव घादिय हिदो सरिसो। एवमेदेण बीजपदेण तदियादिकंडयाणि चड्ढाव दव्याणि जाव दुचरिमकंडयं ति । चरिमकंडयदव्व किण्ण वड्डाविदं ? ण, तस्स मिच्छत्तसरूवण गच्छंतस्स समयूणउदयावलियाए पदणाभावादो। एवं विगिदिगोवुच्छाओ उक्कस्साओ कादूण पुणो समऊणावलियमेत्तपगदिगोवुच्छाओ परमाणुत्तरकमेण पंचवड्डीहि घातकर फिर प्रथमकाण्डकको छोड़कर द्वितीयादि उद्वेलना काण्डकको जघन्यपनेको प्राप्तकर जघन्य उद्वेलना कालके द्वारा पतन कर एक समय कम आवलिप्रमाण गोपुच्छाओंको धारण कर स्थित है।
शंका-सब काण्डकोंके जघन्य रहते हुए एक ही काण्डक अधिकपनेको क्यों प्राप्त होता है।
समाधान नहीं, क्योंकि अपकर्षण-उत्कर्षणके वझसे नाना कालसम्बन्धी नाना जीवोंमें इस प्रकार वृद्धि माननेमें कोई विरोध नहीं आता।
अथवा प्रकृतिगोपुच्छामें बढ़ाये गये द्रव्यप्रमाण द्रव्यको सब उद्वेलना स्थितिकाण्डकोंमें बढ़ाकर और फिर उसे विकृतिगोपुच्छारूपसे करके निरन्तर स्थानोंका कथन करना चाहिये।
६२२६. अब इस द्रव्यको लेकर एक-एक परमाणु अधिकके क्रमसे दूसरे स्थितिकाण्डकके द्वारा पतनको प्राप्त हुए द्रव्यके बढ़ने तक प्रकृतिगोपुच्छाको बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ अन्य एक जीव समान है जो पूर्व विधिसे आकर प्रथम व दूसरे काण्डकको उत्कृष्ट कर व उनका घात कर अनन्तर शेष काण्डकोंको जघन्यरूपसे ही घात कर स्थित है। इस प्रकार इस बीज पदका अवलम्बन लेकर द्वि चरिम काण्डक तक तीसरे आदि काण्डकको बढ़ाना चाहिये।
शंका-अन्तिम काण्डकके द्रव्यको क्यों नहीं बढ़ाया ?
समाधान नहीं क्योंकि मिथ्यात्वरूपसे जानेवाले अन्तिमकाण्डकके द्रव्यका एक समय कम उदयावलिमें पतन नहीं होता ।
इस प्रकार विकृतिगोपुच्छाओंको उत्कृष्ट करके फिर एक समय कम आवलिप्रमाण प्रकृतिगोपुच्छाओंको एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे पांच वृद्धिोंके द्वारा अपने उत्कृष्ट द्रव्यके
१.पा प्रतौ 'चेव फहयमहियत्तमल्लियई' इंति पाठः । २. ता. प्रतौ 'परमाणुत्तरादिकमेण' इति पाठः । ३. प्रा०प्रती 'गोपुच्छाओ कादूण इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ वड्ढावेदव्वाओ जावप्पणो उक्कस्सदव्वं पत्ताओ ति । सत्तमपुढविणारगचरिमसमए मिच्छत्तदव्यमुक्कसं करिय तिरिक्खेसुववन्जिय पुणो देव सुववजिदूणुवसमसम्मत्तं पडिवजिय मिच्छत्तं गतूण सबजहण्णुव्वल्लणकालेणुव्व ल्लिय समयूणावलियमेत्तसव्वुक्कस्सपयडिविगिदिगोवुच्छाओ धरेदूण द्विदं जाव पावदि ताव वड्डिदो त्ति भावत्थो । एवंविहसमयूणावलियमेत्तुक्कस्सगोवुच्छाहितो खविदकम्मसियलक्खणेणागंतूण वेछावडीओ भमिय मिच्छत्तं गतूण दीहुव्वेल्लणकालेणुव्वल्लिय चरिमफालिं धरेदण हिदस्स तप्कालिदव्वं सरिसं होदि । एदं कुदो णव्वदे ? 'तदो पदेसुत्तरं दुपदेसुत्तरं णिरंतराणि हाणाणि उक्कस्सपदेससंतकम्म' ति एदम्हादो सुत्तादो। दिवड्डगुणहाणिगुणिदेगसमयपबद्धे अंतोमुहुत्तोरट्टिदोकड्डुक्कड्डणभागहारेण किंचूणचरिमगुणसंकमभागहारगुणिदवेछावद्विअण्णोण्णब्भत्थरासिणा दीहुव्वेलणकालभंतरणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णभत्थरासिणा च ओवट्टिदे चरिमफालिदव्व होदि । समयूणालियमेत्तुक्कस्सगोवुच्छाणं पुण जोगगुणगारमेत्तदिवड्डगुणहाणिगुणिदेगसमयपबद्धे किंचूणचरिमगुणसंकमभागहारेण जहण्णुवल्लणकालभंतरणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णभत्थरासिणा समयणावलियाए अवहरिदचरिमुव्वल्लणफालीए च ओवट्टिदे पमाणं
प्राप्त होने तक बढ़ाते जाना चाहिये । इस कथनका तात्पर्य यह है कि सातवीं पृथिवीके नारकीके अन्तिम समयमें मिथ्यात्वके द्रव्यको उत्कृष्ट करके तियेंचोंमें उत्पन्न हुआ। फिर देवोंमें उत्पन्न होकर और उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त कर मिथ्यात्वमें गया। फिर सबसे जघन्य उद्वेलना कालके द्वारा उद्वेलना करके एक समय कम आवलिप्रमाण सर्वोत्कृष्ट प्रकृति और विकृतिगोपुच्छाओंको धारण करके स्थित हुए जीवको प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार एक समय कम आवलिप्रमाण उत्कृष्ट गोपुच्छाओंके, क्षपित काशकी विधिसे आकर दो छयायसठ सागर काल तक भ्रमण कर और मिथ्यात्वमें जाकर उत्कृष्ट उद्वेलना कालके द्वारा उद्वेलना कर अन्तिम फालिको धारण कर स्थित हुए जीवके उस फालिका द्रव्य समान है।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है।
समाधान-'जघन्य द्रव्यके ऊपर एक प्रदेश अधिक दो प्रदेश अधिक इस प्रकार उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मके प्राप्त होने तक निरन्तर स्थान होते हैं।' इस सूत्रसे जाना जाता है।
. डेढ़ गुणहानिसे गुणा किये गये एक समयपबद्धमें अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्षणउत्कर्षण भागहार, कुछ कम गुणसंक्रमभागहारसे गुणित दो छयासठ सागरकी अन्योन्याभ्यस्तराशि और उत्कृष्ट उद्वेलना कालके भीतर प्राप्त हुई नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि इन सब भागहारोंका भाग देने पर अन्तिम फालिका द्रव्य प्राप्त होता है। किन्तु योगके गुणकार प्रमाण डेढ़ गुणहानिसे गुणा किये गये एक समयप्रबद्धमें कुछ कम अन्तिम गुणसंक्रमभागहार, जघन्य उद्वेलना कालके भीतर प्राप्त हुई नाना गुणहानि शलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि और एक समय कम आवलिके द्वारा भाजित उद्वेलनाकी अन्तिम फालि इन सब भागहारोंका भाग देने पर एक समय कम आवलिप्रमाण
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
२३१ होदि। समयूणावलियमत्तुकस्सगोवुच्छाणं गुणसंकमभागहारादो चरिमफालिगुणसंकमभागहारो असंखेजगुणो, जहण्णदव्वहेदुत्तादो। जहण्णुव्वल्लणकालण्णोण्णब्भत्थरासीदो चरिमफालीए उव्वल्लणण्णोण्णब्भत्थरासी असंखेजगुणो, उक्कस्सुव्वेल्लणकालम्मि उप्पण्णत्तादो । चरिमफालीदो जोगगुणगारेण समयूणावलियाए ओकडुक्कड्डणभागहारेण च गुणिदव छावहिअण्णोण्णभत्थरासी असंखे गुणो, बहुएहि गुणगारेहि गुणिदत्तादो। तेण चरिमफालिदोण असंखेजगुणहीणेण होदव्वं । तदो ण दोण्हं दव्वाणं सरिसत्तमिदि ? तोक्खहि समयूणावलियमत्तगोवुच्छाणमजहण्णाणुक्कस्सदव्वण चरिमफालिदव्व सरिसं ति घेत्तव्यं ।
२२७. संपहि इम चरिमफालिदव्व परमाणुत्तरादिकमण वड्डाव देव्व जाव एगगोवुच्छदव्वं विज्झादसंकमणागददव्वणूणं वड्डिदं ति । एवं वड्डिदूण विदेण अण्णेगो समयणव छावडीओ भमिय दीहुव्वेल्लणकालेणुव्वोल्लिय चरिमफालिं धरेदूण हिदो सरिसो । एवम गेगगोवुच्छदव्वं विज्झादसंकमणागददव्वेणूणं वड्डाविय दुसमयूणतिसमयणादिकमेण ओदारेदव्वं जाव अंतोमु हुत्तूणं विदियछावहि त्ति । संपहि विदियछावहीए अंतोमुहुत्तस्स चरिमसमए ठविय समऊणादिकमण ओदारिजमाणे
उत्कृष्ट गोपुच्छाओंका प्रमाण होता है।
शंका-एक सयय कम आवलिप्रमाण उत्कृष्ट गोपुच्छाओंके गुणसंकम भागहारसे अन्तिम फालिका गुणसंक्रम भागहार असंख्यातगुणा हैं, क्योंकि यह जघन्य द्रव्यका कारण है। जघन्य उद्वेलना कालकी अन्योन्याभ्यस्त राशिसे अन्तिम फालिकी उद्वेलनाकालकी अन्योन्याभ्यस्तराशि असंख्यातगुणी है, क्योंकि यह उत्कृष्ट उद्घ लना कालमें उत्पन्न हुई है। तथा अन्तिम फालिसे योगगुणकारके द्वारा और एक समय कम आवलिके भीतर प्राप्त अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारके द्वारा गुणा की गई दो छयासठ सागरकी अन्योन्याभ्यस्त राशि असंख्यातगुणी है, क्योंकि यह राशि बहुतसे गुणकारोंसे गुणा करके उत्पन्न हुई है, इसलिये अन्तिम फालिका द्रव्य असंख्यातगुणा हीन होना चाहिये, इसलिये दोनों द्रव्य समान हैं यह बात नहीं बनती ?
समाधान–यदि ऐसा है तो एक समय कम आवलिप्रमाण गोपच्छाओंके अजघन्यानुत्कृष्टके साथ अन्तिम फालिका द्रव्य समान है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये।
६२२७. अब इस अन्तिम फालिके द्रव्यको एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे विध्यात संक्रमणके द्वारा प्राप्त हुए द्रव्यसे न्यून एक गोपुच्छाप्रमाण द्रव्यके बढ़ने तक बढ़ाते जाना चाहिये। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ एक समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमणकर फिर उत्कृष्ट उद्वेलना कालके द्वारा उद्वेलना कर अन्तिम फालिको धारण करके स्थित हुआ एक अन्य जीव समान है। इस प्रकार विध्यातसंक्रमणसे आये हुए द्रव्यसे कम एक-एक गोपुच्छके द्रव्यको बढ़ाकर दो समय कम और तीन समय कम आदिके क्रमसे अन्तर्मुहूर्त कम दूसरा छयासठ सागर कालको उतारना चाहिये । अब दूसरे छयासठ सागरके पहले अन्तर्मुहूर्तके अन्तिम समयमें ठहराकर एक समय कम आदिके क्रमसे उतारने
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहची ५ पुध्वं व ओदारेदव्वं, विसेसाभावादो। णवरि एगगोवुच्छदव विज्झादसकमेणागददव्वेणणं सव्वत्थ वड्ढावेदव्वं । एगवारेण ओदारिजमाणे वि णस्थि विसेसो । गवरि एगवारेण एत्थ अंतोमुहुत्तमेत्तगोवुच्छाओ अंतोमुहुत्तकालम्मि विज्झादसंकमणागददव्वेणूणाओ वड्ढावेदव्याओ । एत्तो पहुडि समय णादिकमण ताव ओदारेदव्व जाव अंतोमुहुत्तूणपढमछावहिमोदिण्णो त्ति । पुणो तत्थ हविय एगगोवुच्छदव्वमुवेल्लणसंक्रमण परपयडीए संकेतदव्वं च वड्डाविय समय ण-दुसमयणादिकमण उव्वेल्लणकालो वि
ओदारेदव्वो जाव सव्वजहण्णुव्वेल्लणकालो चेहिदो ति । पुणो तत्थ एगवारण अंतोमुहुत्तमेत्तगोवु च्छाओ तत्थ विज्झादसंकमेणागददव्वेणूणाओ वड्ढावेदव्वाओ। एवं वड्डिदूण हिदेण अण्णेगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण देवेसुप्पन्जिय उवसमसम्मत्तं पडिवजिय मिच्छत्तं गंतूण सव्वजहण्णुव्वेल्लणकालेण सम्मामिच्छत्तमुव्वेल्लिय तश्चरिमफालिं धरेदूण हिदो सरिसो।
६२२८. संपहि एदेण दव्वेण जं सरिसं दंसणमोहणीयक्खवगस्स सम्मामिच्छत्तदव्वं मेत्तूण तं कालपरिहाणिं कस्सामो। को दंसणमोहक्खवगो एदेण सरिसो १ जो खविदकम्म सियलक्खणेणागंतूण सम्मत्तं पडिवज्जिय पढमछावट्ठीए गुणसंकमभागहारम्सद्धच्छेदणयमेत्ताओ सव्वजहण्णुव्वेल्लणकालस्स गुणहाणिसलागमेत्ताओ च गुणहाणीओ पर पहलेके समोन उतारना चाहिये, क्योंकि इससे उसमें कोई विशेषता नहीं है। किन्त इतनी विशेषता है कि सर्वत्र विध्यातसंक्रमणसे आये हुए द्रव्यसे कम एक गोपुच्छप्रमाण द्रव्यको बढ़ाना चाहिये । किन्तु एक साथ उतारा जाय तो भी कोई विशेषता नहीं है। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहां एक साथ अन्तर्मुहूर्त काल में विध्यातसंक्रमणके द्वारा आये हुए द्रव्यसे कम अन्तमुहूर्तप्रमाण गोपुच्छाओंको बढ़ाना चाहिये। फिर यहांसे लेकर अन्तर्मुहूर्तकम प्रथम छयासठ सागर काल उतरने तक उतारते जाना चाहिये । फिर वहां ठहराकर एक गोपच्छप्रमाण द्रव्यको और उद्वेलना संक्रमणके द्वारा अन्य प्रतिमें संक्रान्त हुए द्रव्यको बढ़ाकर एक समय कम और दो समय कम आदि क्रमसे उद्वेलना कालको भी सबसे जघन्य उद्वेलना कालके प्राप्त होनेतक उतारते जाना चहिए । फिर वहां पर विध्यातसंक्रमणके द्वारा आये हुए द्रव्यसे कम अन्तर्मुहूर्तप्रमाण गोपुच्छाओंको बढ़ाना चाहिये । इसप्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर और देवों में उत्पन्न होकर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। अनन्तर मिथ्यात्वमें जाकर सबसे जघन्य उद्वेलनाकालके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनाकर उसकी अन्तिम फालिको धारण करके स्थित है।
६२२८. अब इस द्रव्यके साथ दर्शनमोहनीयके क्षपकके सम्यग्मिथ्यात्वका जो द्रव्य समान है उसकी अपेक्षा कालकी हानिका कथन करते हैं
शंका-दर्शनमोहनीयका क्षपक कौनसा जीव इसके समान है ?
समाधान-जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर और सम्यक्त्वको प्राप्त होकर प्रथम छयासठ सागर कालके भीतर गुणसंक्रम भागहारके अर्धच्छेदप्रमाण और सबसे जघन्य उदलना कालकी गुणहानिशलाकाप्रमाण गुणहानियोंको बिताकर फिर दर्शनमोहनीयकी
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
२३३ गंतूण दंसणमोहणीयक्खवणमाढविय मिच्छचं सम्मामिच्छशिम्मि संछुहिय द्विदो सरिसो, दिवड्डगुणहाणिगुणिदेगेइंदियसमयपबद्धे गुणसंकमभागहारेण सव्वजहण्णुव्वेल्लणकालभंतरणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णभत्थरासिणा च ओबट्टिदे दोहं दव्वाणं पमाणागमणुवलंभादो । संपहि इमं दसणमोहक्खवगदव्वं घेत्तूण परमाणुत्तरादिकमेण अणंतभागवडि-असंखेजभागवड्डीहि वड्ढावेदव्वं जाव एगगोवुच्छमेत्तमेगसमएण विज्झादसंकमेणागददव्वेणूणं वहिदं ति । एदेण खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण पढमछावहि. कालभंतरे पुव्विल्लं कालं समयूणं भमिय मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तम्मि पक्खिविय द्विदो सरिसो। संपहि इमं घेत्तूण विज्झादसंकमेणागददव्वेणूणएगेगगोवुच्छमेत्तं वड्डाविय सरिसं कादूण समयूणादिकमेणोदारेदव्वं जाव गुणसंकमच्छेदणयमेत्ताओ उव्वेल्लणणाणागुणहाणिसलागमेत्ताओ च गुणहाणीओ ओदरिदूण द्विदो ति । एदेण खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण मणुस्सेसुववज्जिय गम्भादिअट्ठवस्साणि अंतोमुहुत्तन्महियाणि गमिय दंसणमोहक्खवणमाढविय मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तम्मि संछुहिय द्विदो सरिसो। संपहि एवं दव्वं पंचहि वड्डीहि चत्तारि पुरिसे अस्सिदण वड्ढावेदव्वं जाव सम्मामिच्छत्तस्स ओघुक्कस्सदव्वं जादं ति । एवं खविदकम्मंसियमस्सिदण कालपरिहाणीए हाणपरूवणा कदा ।
क्षपणाका आरम्भ कर मिथ्यात्वको सम्यग्मिथ्यात्वमें क्षेपण कर स्थित है, क्योंकि डेढ़ गुणहानिसे गुणा किये गये एकेन्द्रियोंके एक समयप्रबद्धमें गुणसंक्रम भागहारका और सबसे जघन्य उदलनाकालके भीतर प्राप्त हुई नाना गुणहानिशलाकाओंको अन्योन्याभ्यस्त राशिका भाग देने पर दोनों द्रव्योंका प्रमाण प्राप्त होता है। अब दर्शनमीहनीयके क्षपकके इस द्रव्यके ऊपर एक-एक परमाणु अधिकके क्रमसे अनन्तभागवृद्धि और असंख्यातभागवृद्धिके द्वारा एक समयमें विध्यातसंक्रमणके द्वारा आये हुए द्रव्यसे कम एक गोपुच्छप्रमाण द्रव्यके बढ़ने तक बढ़ाते जाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो क्षपितकर्माशकी विधिसे आकर और प्रथम छयासठ सागर कालके भीतर एक समय कम पूर्वोक्त कालतक भ्रमण करके और मिथ्यात्वके द्रव्यको सम्यग्मिथ्यात्वमें निक्षिप्त करके स्थित है । अब इस द्रव्यके ऊपर विध्यातसंक्रमण द्वारा आये हुए द्रव्यसे कम एक गोपुच्छाप्रमाण द्रव्यको बढ़ाकर और समान करके एक समय कम आदि क्रमसे तब तक उतारना चाहिये जब तक गुणसंक्रमके अर्धच्छेदप्रमाण और उद्वेलनाकी नाना गुणहानिशलाकाप्रमाण गुणहानियोंको उतार कर स्थित होवे । इस प्रकार उतार कर स्थित हुए इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर और मनुष्योंमें उत्पन्न होकर गर्भसे अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष कालको बिताकर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ करके मिथ्यात्वको सम्यग्मिथ्यात्वमें निक्षिप्त करके स्थित है। अब इस द्रव्यको पांच वृद्धियोंके द्वारा चार पुरुषोंका आश्रय लेकर सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाते जाना चाहिये । इस प्रकार क्षपितकर्मा शकी अपेक्षा कालकी हानि द्वारा स्थानोंका कथन किया।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ६ २२९. संपहि तस्सेव सम्मामिच्छत्तस्स गुणिदकम्मंसियमस्सिदूण कालपरिहाणीए हाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा-खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सम्मत्तं पडिवजिय वेछावडीओ भमिय मिच्छत्तं गंतूण दीहुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय एगणिसेगं दुसमयकालट्ठिदियं धरिदे जहण्णदव्वं होदि । संपहि इमं दव्वं चत्तारि पुरिसे अस्सिदूण पंचहि वडीहि वहावेदव्वं जाव तप्पाओग्गुक्कस्सदव्वं जादं ति । सत्तमपुढविणेरइयचरिमसमए मिच्छत्सदव्वमुकस्सं करिय सम्मत्तं पडिवञ्जिय वेछावहीओ भमिय दीहुव्वेल्लणकालेण सम्मामिच्छत्तमुवेल्लिय एगणिसेगं दुसमयकालहिदियं जाव पावदि ताव वड्डिदं ति वुत्तं होदि । एवं वड्डिदूण द्विदेण अवरेगो सत्तमपुढवीए उक्कस्सदव्वं करेमाणो ओघुक्कस्सदव्वस्स किंचूणद्धमेतदव्वसंचयं करिय आगंतूण सम्मत्तं पडिवजिय वेछावडीओ भमिय दीहुव्वल्लणकालेणुव्व लिय दोणिसेगे तिसमयकालद्विदिगे धरेदूण द्विदो सरिसो।
२३० संपहि इमेण अप्पणो ऊणीकददव्वमेत्तं वड्डिदेण अण्णेगो गुणिदघोलमाणो उक्कस्सदव्वस्स किंचूणदोतिभागमेतदव्वं संचयं करिय आगंतूण तिण्णिगोवुच्छाओ धरिय द्विदो सरिसो। संपहि इमेण अप्पणो ऊणीकददव्वमेत्तं तीहि वडोहि वड्डिदेण किंचूणतिण्णिचदुब्भागमेत्तदव्वसंचयं करिय आगंतूण चत्तारि
६ २२९. अब उसी सम्यग्मिथ्यात्वका गुणितकर्मा शकी अपेक्षा कालकी हानिद्वारा स्थानोंका कथन करते हैं जो इस प्रकार है-क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर सम्यक्त्वको प्राप्त हो दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके मिथ्यात्वको प्राप्त हो उत्कृष्ट उद्वेलनाकालके द्वारा उद्वेलना करके दो समयको स्थितिवाले एक निषेकको धारण करनेवाले जीवके सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य द्रव्य होता है। अब इस द्रव्यको चार पुरुषोंका आश्रय लेकर पांच वृद्धियोंके के द्वारा तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होनेतक बढ़ाते जाना चाहिये । भाव यह है कि सातवीं पृथिवीके नारकीके अन्तिम समयमें मिथ्यात्वके द्रव्यको उत्कृष्ट करके फिर क्रमशः सम्यक्त्वको प्राप्त हो दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर पुनः उत्कृष्ट उद्बलना कालके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करके दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकके प्राप्त होने तक बढ़ाते जाना चाहिये। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो सातवीं पृथिवीमें उत्कृष्ट द्रव्यको करता हुआ ओघसे उत्कृष्ट द्रव्यके कुछ कम आधे द्रव्यका संचय करके आया और सम्यक्त्वको प्राप्त हो दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करता रहा। फिर उत्कृष्ट उद्वलना काल द्वारा उद्वलना करके तीन समयकी स्थितिवाले दो निषेकको धारण करके स्थित है।
६२३०. अब अपने कम किये गये द्रव्यको बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके समान गुणित घोलमान योगवाला एक अन्य जीव है जो उत्कृष्ट द्रव्यसे कुछ कम दो बटे तीन भागप्रमाण द्रव्यका संचय करके आया और तीन गोपुच्छाओंको धारण करके स्थित है। अब अपने कम किये गये द्रव्यको तीन वृद्धियोंके द्वारा बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो कुछ कम तीन बटे चार भागप्रमाण द्रव्यका संचय करके
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गा. २२] उत्तरपयडिपदेसविहचीए सामित्तं
२३५ गोवुच्छाओ धरिय द्विदो सरिसो । एवं किंचूणचदुपंचभागादिकमेण वड्डाविय ओदारेदव्वं जाव रूवूणुक्कस्ससंखेजमेत्तगोवुच्छाओ धरिय हिदो त्ति । एदेण अण्णेगो उक्कस्ससंखेञ्जण उक्कस्सदव्वं खंडिय तत्थ सादिरेगेगखंडेण ऊणुक्कस्सदव्वसंचयं करिय आगंतूणुक्कस्ससंखेजमेत्तगोवुच्छाओ धरिय द्विदो सरिसो। इमो परमाणुत्तरकमेण तीहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वो जावप्पणो उक्कस्सदव्वं पत्तो ति ।
२३१. संपहि एत्तो हेट्ठा ओदारिजमाणे दोहि वड्डीहि वड्डाविय ओदारेदव्वं जाव दुसमयूणावलियमेत्तगोवुच्छाओ धरिय हिदो त्ति । एदेण अवरेगो समयूणावलियाए उकस्सदव्वं खंडेदूण तत्थ सादिरेगेगखंडेशृणुकस्सदव्वसंचयं करियागतूण समयणावलियमेत्तगोवुच्छाओ धरिय द्विदो सरिसो। संपहि इमम्मि अप्पणो ऊणीकददव्वे वढाविदे समयूणावलियमेत्तगोवुच्छाओ उक्कस्साओ होति । एदासिं सव्वगोवुच्छाणं समऊणावलियमेत्ताणं कालपरिहाणीए कीरमाणाए जहा खविदकम्मंसियस्स कदा तहा पुध पुध कायव्वा । णवरि जेरइयचरिमसमए उक्कस्सं करेमाणो पयदेगेगगोवुच्छाए विज्झादसंकमेणागच्छमाणसव्वेणेगगोवुच्छविसेसेणूणमुक्कस्सदव्वं करिय समयूणवेछावट्ठीओ हिंडावेयव्यो । दोण्हं गोवच्छाणमोयारणकमो वि एसो चेव । णवरि विज्झादसंकमेणागच्छमाणदव्वेणूणगोवुच्छविसेसेहि पयदगोवुच्छाओ तत्थूणाओ करिय आया और चार गोपुच्छाओंको धारण करके स्थित है। इस प्रकार एक कम उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण गोपुच्छाओंको धारण करके स्थित हुए जीवके प्राप्त होने तक कुछ कम चार बटे पांच भाग आदिके क्रमसे बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो उत्कृष्ट द्रव्यके उत्कृष्ट संख्यात प्रमाण खण्ड करके उनमेंसे साधिक एक खण्डसे न्यून उत्कृष्ट द्रव्यका संचय करके आया और उत्कृष्ट संख्यातप्रमाण गोपुच्छाओंको धारण करके स्थित है। फिर इसे एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे अपने उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाते जाना चाहिये।
$२३१. अब इससे नीचे उतारने पर दो समय कम एक आवलिप्रमाण गोपुच्छाओंको धारण कर स्थित हुए जीवके प्राप्त होने तक दो वृद्धियोंसे बढ़ाकर उतारना चाहिये । इस प्रकार प्राप्त हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो उत्कृष्ट द्रव्यके एक समय कम
माण खण्ड करके उनमें से साधिक एक खण्डसे न्यून उत्कृष्ट द्रव्यका संचय करके आकर एक समय कम आवलिप्रमाण गोपुच्छाओंको धारण करके स्थित है। अब इसके अपने कम किये गये द्रव्यके बढ़ाने पर एक समय कम आवलिप्रमाण गोपुच्छाएं उत्कृष्ट होती हैं। एक समय कम आवलिप्रमाण इन सब गोपुच्छाओंकी कालकी हानि करने पर जिस प्रकार क्षपितकाशकी की गई उसी प्रकार अलग अलग गुणितकर्माशकी करनी चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि नारकीके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्त्वको करनेवालेको प्रकृत एक एक गोपुग्छामें विध्यातसंक्रमण द्वारा आनेवाले द्रव्यसे कम जो एक गोपुच्छा विशेष उससे न्यून द्रव्यको उत्कृष्ट करके एक समय कम दो छयासठ सागर काल तक घुमाना चाहिये। दो गोपुच्छाओंके उतारनेका क्रम भी यही है। किन्तु इतनी विशेषता
1. ता०प्रतौ 'दोणि णिसेगे' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ आणेदव्यो । एवमेदेण बीजपदेण समयूणावलियमेत्तकालपरिहाणिपरिवाडीओ चिंतियाणेदव्वाओ । णवरि सव्वपच्छिमवियप्पे विज्झादसंकमेणागच्छमाणदव्वेणूणसमऊणावलियमेत्तगोवुच्छविसेसा ऊणा कायव्वा । संपहि इमाओ समऊणावलियमेत्तुकस्सगोवुच्छाओ खविदकम्मंसियचरिमफालीए सह सरिसाओ ण होंति, असंखेजगुणत्तादो । तेण चरिमफालिदव्व सत्थाणे चेव चड्ढावेयव्व जाव समयूणावलियमेत्तकस्सगोवुझपमाणं पत्तं ति । पुणो एत्तो उनरि तिणि पुरिसे अस्सिदण पंचहि वड्डीहि वड्ढावेदव्य जाव चरिमफालिदव्वमुक्कस्स जादं ति ।
२३२ संपहि चरिमफालीए उक्कस्सदव्वमस्सिदण कालपरिहाणीए ठाणपरूवणाए कीरमाणाए सोव्वल्लणकालव छावद्विसागरोवमाणं जहां खविदकम्म सियम्मि परिहाणी कदा तहा एत्थ वि अव्वामोहेण कायव्वा । णवरि सम्मत्तकाले ऊणीकदे विज्झादसंकमणागददव्वणूणएगगोवुच्छादव्वेणूणमुक्कस्सदव्व करिय आणेदव्यो। उव्वेल्लणकाले ऊणीकदे उव्वल्लणसंकमण गच्छमाणदव्वेणब्भहियम गगोवुच्छदव्य तत्थूणं करिय णिकालेयव्यो । संपहि सत्तमपुढवीए मिच्छत्तुक्कस्सं करियागंतूण सम्मत्तं पडिवजिय पढमछावट्टिकालब्भंतरे गुणसंकमच्छेदणयमेत्ताओ उव्व लणणाणागुणहाणिसलागमत्ताओ च गुणहाणीओ उवरि चढिय दंसणमोहहै कि विध्यात संक्रमण द्वारा प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे कम जो गोपुच्छविशेष उनसे वहां प्रकृत गोपुच्छाओंको कम करके लाना चाहिये। इस प्रकार इस बीज पद द्वारा एक समय कम आवलिप्रमाण कालकी हानिके क्रमको जानकर ले आना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि सबसे अन्तिम विकल्पमें विध्यात संक्रमण द्वारा आनेवाले द्रव्यसे कम एक समय कम आवलिप्रमाण गोपुच्छाविशेषोंको कम करना चाहिये। अब ये एक समयकम आवलिप्रमाण उत्कृष्ट गोपुच्छा क्षपितकाशकी अन्तिम फालिके समान नहीं होते हैं, क्योंकि ये असंख्यातगुणे हैं, अतः अन्तिम फालिके द्रव्यको एक समय कम आवलिप्रमाण उत्कृष्ट गोपुच्छाओंके प्रमाणके प्राप्त होने तक स्वस्थानमें ही बढ़ाना चाहिये। फिर इससे ऊपर तीन पुरुषोंका आश्रय लेकर पांच वृद्धियोंके द्वारा अन्तिम फालिका द्रव्य उत्कृष्ट होने तक बढ़ाते जाना चाहिये।
६२३२. अब अन्तिम फालिके उत्कृष्ट द्रव्यका आश्रय लेकर कालको हानिद्वारा स्थानोंका कथन करते हैं, अतः जिस प्रकार क्षपितकर्मा शके उद्वलनाकाल और दो छथासठ सागर कालकी हानिका कथन कर आये उसी प्रकार व्यामोहसे रहित होकर यहां भी करना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि सम्यक्त्वके कालके कम करने पर विध्यातसंक्रमणके द्वारा आये हुए द्रव्यसे कम जो एक गोपुच्छाका द्रव्य उससे कम उत्कृष्ट द्रव्य करके ले आना चाहिए। तथा उद्वलनाकालके कम करने पर उद्वेलना संक्रमणके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे अधिक जो एक गीपुच्छाका द्रव्य उसे वहाँ कम करके उद्वेलना कालको घटाना चाहिये । अब सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्वको उत्कृष्ट करके आया फिर सम्यक्त्वको प्राप्त कर प्रथम छयासठ सागर कालके भीतर गुणसंक्रमणके अर्धच्छेदप्रमाण और उदलनाकी नाना गुणहानिशलाकाप्रमाण गुणहानियाँ ऊपर चढ़कर फिर दर्शन
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
२३७ क्खवणमाढविय मिच्छत्तचरिमफालिं सम्मामिच्छ त्तस्सुवरि पक्खिविय द्विदो उव्व ल्लणाए उकस्सचरिमफालिं धरेदूण द्विदेण सरिसो । एदम्मि खवगदव्व
ओदारिलमाणे जहा खविदकम्म सियस्स समयणादिकमणोयारणं कदं तहा ओयारेदव्वं । (एवमोदारिय द्विदेण अवरेगो सत्तमपुढवीए मिच्छत्तमुक्कस्सं करियागंतूण तिरिक्खेसुववञ्जिय पुणो मणुस्सेसुप्पजिदण जोणिणिकमणजम्मणेण अहवस्साणि गमिय सम्मत्तं घेत्तूण दंसणमोहक्खवणमाढविय मिच्छत्तचरिलफालिं सम्मामिच्छत्तस्सुवरि पक्खिविय द्विदो सरिसो । एवं विदियपयारेण हाणपरूवणा कदा ।
२३३. संपहि संतकम्ममस्सिदूण सम्मामिच्छत्तहाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा-खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सम्मत्तं पडिवजिय वेछावहीओ भमिय दीहुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय एगणिसेगं दुसमयकालट्ठिदियं धरेदूण डिदिम्मि सव्वजहण्णसंतकम्मट्ठाणं । एदम्मि परमाणुत्तरादिकमेण वढावेदव्वं जाव दुगुणं सादिरेगं जादं ति । एवं वड्डिदूण हिदेण अण्णेगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण वेछावट्ठीओ भमिय दीहुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय दोणिसेगेहि तिसमयकालडिदिए धरेदूण द्विदो सरिसो । पुणो एदस्सुवरि परमाणुत्तरादिकमेण तिचरिमगोवच्छमेतदव्वं वड्डावेदव्व। एवं वड्डिदूण विदेण अण्णेगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सम्मत्तं पडिवजिय वेछावट्ठीओ भमिय दीहुव्वेल्लणकालेणुव्वेल्लिय तिण्णि गोवुच्छाओ चदुसमयकालमोहनीयकी क्षपणाका आरम्भ कर मिथ्यात्वको अन्तिम फालिको सम्यग्मिथ्यात्वके ऊपर प्रक्षिप्त करके स्थित हुआ जीव उद्वलनाकी उत्कृष्ट अन्तिम फालिको धारणकर स्थित हुए जीवके समान है । क्षपकके इस द्रव्यको उतारने पर जिस प्रकार क्षपितकर्मा शको एक समयकम आदिके क्रमसे उतारा है उस प्रकार उतारना चाहिये । इस प्रकार उतारकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्वको उत्कृष्ट करके आया और तियचोंमें उत्पन्न हुआ। फिर मनुष्यों में उत्पन्न होकर योनिसे निकलनेरूप जन्मसे आठ वर्ष विताकर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। फिर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका भारम्भ करके मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिको सम्यग्मिथ्यात्वके ऊपर प्रक्षिप्त कर स्थित है। इस प्रकार दूसरे प्रकारसे स्थानोंका कथन किया।
६२३३. अब सत्कर्मकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्वके स्थानोंका कथन करते हैं। वे इस प्रकार हैं-क्षपितकाशकी विधिसे आकर और सम्यक्त्वको प्राप्त हो दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके तथा उत्कृष्ट उद्वलनाकाल द्वारा उद्वेलना करके दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित हुए जीवके सबसे जघन्य सत्कर्मस्थान होता है। फिर साधिक दूने होने तक इसे एक-एक परमाणु अधिकके क्रमसे बढ़ावे । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान अन्य एक जीव है जो क्षतिकर्मा शकी विधिसे आकर और दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर उत्कृष्ट उद्वेलना काल द्वारा उद्वेलनाकर तीन समयकी स्थितिवाले दो निषेकोंको धारण कर स्थित है , फिर इसके ऊपर एक-एक परमाणु अधिकके क्रमसे त्रिचरम गोपुच्छाप्रमाण द्रब्यको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर और सम्यकत्वको प्राप्त हो
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२३८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ हिदियाओ धरेदूण हिदो सरिसो। एवं ताव ओदारेदव्व जाव समयूणावलियमेत्तगोवच्छाओ जादाओ त्ति ।
* ६ २३४. संपहि एदम्हादो दव्वादो खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सम्मत्तं पडिवजिय वेछावट्ठीओ भमिय दीहुन्लोल्लणकालेणुव्वेल्लिय चरिमफालिं धरेदूण डिदस्स दव्वमसंखेजगुणं । संपहि तं मोत्तूण इमं घेत्तूण परमाणुत्तरादिकमेण अणंतभागवड्डि-असंखेजभागवड्डीहि वड्डावेदव्वं जाव तस्सेवप्पणो दुचरिमसमयम्मि गुणसंकमेण गदफालिदव्वमेतं त्थिउकसंकमण गदगोवुच्छमत्तं च वड्डिदं ति । एवं वहिदण द्विदेण अण्णेगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण सम्मत्तं पडिव जिय वेछावहीओ भमिय दोहुव्बेल्ल णकालेणुव्वेल्लिय दोहि फालीहि सह दोगोवच्छाओ धरिय हिदो सरिसो । एवमोदारेदव्व जाव चरिमहिदिखंडयपढमसमओ त्ति ।
२३५. संपहि चरिमद्विदिखंडयपढमसमयम्मि वड्वाविजमाणे पढमसमयम्मि गदगुणसंकमफालिदव्वमत्तं तम्मि चेव समए त्थिउकसंकमण गदगोवच्छदव्वमेत्तं च वड्ढावेयव्य। एवं वविदण द्विदेण अवरेगो उव्वेल्लणसंकमचरिमसमयद्विदो सरिसो। संपहि एत्थ परमाणुत्तरकमेण उव्वेल्लणचरिमसमए उव्वेल्लणभागहारेण मिच्छत्तसरूवेण गददव्वमत्तं तत्थेव त्थिउक्कसंकमण गददव्वमत्तं च वड्दावेदव्यं । एवं वहिदूण दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर उत्कृष्ट उद्वेलना काल द्वारा उद्वेलनाकर चार समयकी स्थितिवाली तीन गोपुच्छाओंको धारणकर स्थित है। इस प्रकार एक समयकम एक आवलीप्रमाण गोपुच्छाओंके हो जाने तक उतारते जाना चाहिये।
६२३४. अब इस द्रव्यसे, क्षपितकर्मा शकी विधि से आकर और सम्यक्त्वको प्राप्त हो दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर फिर उत्कृष्ट उद्वेलनाकाल द्वारा उद्वेलना कर अन्तिम फालिको धारण कर स्थित हुए जीवका द्रव्य असंख्यातगुणा है। अब उस जीवको छोड़कर इस जीवकी अपेक्षा एक-एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि और संख्यातभागवृद्ध इन तीन वृद्धियों द्वारा द्रव्यको तबतक बढ़ाते जाना चाहिये जब तक उसीके अपने उपान्त्य समयमें गुणसंक्रमणके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुई फालिका द्रव्य और स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुआ द्रव्य बढ़ जाय । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीव के समान एक अन्य जीव है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर और सम्यक्त्वको प्राप्त हो फिर दो छयासठ सागर कालतक भ्रमणकर और उत्कृष्ट उद्वेलनाकाल द्वारा उद्वेलना कर दो फालियोंके साथ दो गोपुच्छाओंको धारण कर स्थित है । इस प्रकार अन्तिम स्थितिकाण्डकके प्रथम समय तक उतारते जाना चाहिये।
६२३५. अब अन्तिम स्थितिकाण्डकके प्रथम समयमें द्रव्यके बढ़ाने पर प्रथम समय में गुणसंक्रमण द्वारा अन्य प्रकृतिको प्राप्त हुआ फालिका द्रव्य और उसी समयमें स्तिवुक संक्रमणके द्वारा अन्य प्रकृतिको प्राप्त हुआ गोपुच्छाका द्रव्य बढ़ावे । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो उद्वेलना संक्रमणके अन्तिम समयमें स्थित है। अब इसके द्रव्यमें, एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे उद्वेलनाके अन्तिम समयमें उद्व लनाभागहारके द्वारा जितना द्रव्य मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ है उसे और उसी समय स्तिवुक संक्रमणके द्वारा जो द्रव्य पर प्रकृतिको प्राप्त हुआ है उसे बढ़ावे । इस प्रकार
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गा० २२]
उत्तरपय डिपदेसविहन्तीए सामित्तं
ट्ठिदेण अण्णेगो उब्व ेल्लणदुचरिमसमयद्विदो सरिसो । एवमोदारेदव्वं जावुब्वेल्लणपढमसमओ ति ।
$ २३६. संपहि उब्वेल्लणपढमसमए ठाइदूण बड्डाविजमाणे तम्मि चैव समए उब्वेल्लणाए गददव्वमेत्तं त्थिउकसंक्रमेण गददव्वमेत्तं च वड्डावेदव्वं । एवं चड्डिण हिदेण अण्णेगो अधापवत्तचरिमसमयद्विदो सरिसो । संपहि अधापवत्तचरिमसमए डाइदू वड्डाविमा अधापवत्तसंकमेण त्थिउक्कसंक्रमेण च गददव्वमेतं वड्डाव दव्व ं । एवं वड्डिण अण्णेगो अधापवत्तदुचरिमसमपट्टिदो सरिसो । एवमोदारदव्व जाव अधापवत्तपढमसमओ त्ति ।
२३९
$ २३७. संपहि तत्थ वड्डाविजमाणे अधापवत्तसंकमण त्थिबुकसंक्रमेण च गददव्त्रमेतं वड्डावळे यव्वं । एवं वहिदेण अवरेगो सम्मत्तचरिमसमयट्ठिदो सरिसो । संपहिएदम्मि चरिमसमयसम्मादिडिम्मि वड्डाविजमाणे विज्झादसंकमेण सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्तं गच्यमाणदव्वेणूणं मिच्छत्तादो विज्झादसंकमेण सम्मामिच्छत्तं गच्छमाणं Goa' त्थिउक्कसंकमेण सम्मत्तं गच्छमाणदव्वम्मि सोहिय सुद्धसेसमेतं वड्डावेयव्व । सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्तं गच्छमाणदव्व पेक्खिदूण मिच्छात्तादो सम्मामिच्छत्तं
बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो उद्वेलनाके उपान्त्य समय में स्थित है । इस प्रकार उद्वेलनाके प्रथम समयके प्राप्त होने तक उतारते जाना चाहिये ।
६ २३६. अब उद्वेलनाके प्रथम समयमें ठहराकर द्रव्यके बढ़ाने पर उसी समय जितना द्रव्य उद्वेलना द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुआ है और जितना द्रव्य स्तिवुक संक्रमण द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुआ है उतना द्रव्य एक एक परमाणु कर बढ़ावे । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो अधःप्रवृतके अन्तिम समय में स्थित है । अब अधः प्रवृत्तके अन्तिम समय में ठहराकर द्रव्यके बढ़ाने पर अधःप्रवृत्तसंक्रमणद्वारा और स्तिवुकसंक्रमणद्वारा जितना द्रव्य अन्य प्रकृतिमें प्राप्त हुआ है उतना द्रव्य एक-एक परमाणु कर बढ़ावे । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो अधःप्रवृत्तके उपान्त्य समय में स्थित है। इस प्रकार अधःप्रवृत्तके प्रथम समय के प्राप्त होने तक उतारना चाहिये ।
६ २३७ अब वहां पर द्रव्यके बढाने पर अधःप्रवृत्तसंक्रमणके द्वारा और स्तिवक संक्रमणके द्वारा जितना द्रव्य अन्य प्रकृतिको प्राप्त हुआ है उतना द्रव्य एक एक परमाणु कर बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो सम्यक्त्वके अन्तिम समय में स्थित है । अब अन्तिम समय में स्थित इस सम्यग्दृष्टिके द्रव्यके बढ़ाने पर विध्यात संक्रमणके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्व के द्रव्यमेंसे सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे कम मिथ्यात्वमेंसे विध्यात संक्रमणके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले द्रव्यको स्तिवक संक्रमणके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले द्रव्यमेंसे घटाकर जो द्रव्य शेष रहे उतने द्रव्यको एक-एक परमाणु कर बढ़ावे |
शंका-सम्यग्मिथ्यात्व से सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले द्रव्यकी अपेक्षा मिथ्यात्वसे
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ गच्छमाणदव्वमसंखेजगुणं ति कुदो णव्वदे ? सम्मामिच्छत्तदव्वं पेक्खिदण मिच्छत्तदव्वस्स असंखेजगुणत्तवलंभादो। ण च परिणामभेदेण संकामिजमाणदव्वस्स मेदो, एगसमयम्मि एगजीव णाणापरिणामाणुववत्तीदो । जहा मिच्छत्तादो मिच्छत्तपदेसग्गं सम्मामिच्छत्तं गच्छदि, तहा तत्तो पदेसग्ग तेणेव भागहारेण सम्मत्तं गच्छदि । किंतु तेणेत्थ ण कजमथि सम्मामिच्छत्तस्स पयदत्तादो। एवं वविदण हिदेण अवरेगो दुचरिमसमयसम्मादिट्ठी सरिसो । एदेण विहाणेण वड्डाविय ओदारेयव्व जाव विदियछावट्ठिपढमसमओ त्ति। ___६२३८. संपहि विदियछावट्ठिपढमसमयसम्मादिडिम्मि वड्डाविजमाणे सम्मामिच्छत्तादो विज्झादसंकमण त्थिउकसंकमेण च सम्मत्तं गददव्व मिच्छत्तादो विज्झादसंकमण सम्मामिच्छत्तस्सागददव्वणूणं । पुणो पढमछावहिचरिमसमयम्मि हिदसम्मामिच्छादिहिउदयगदतिण्णिगोवुच्छदबंच वड्ढाव यव्व। एवं वड्डिदूण ट्ठिदेण अण्णेगो चरिमसमयसम्मामिच्छादिट्ठी सरिसो । संपहि चरिमसमयसम्मामिच्छादिहिम्मि वडाविजमाणे तस्सेवप्पणो दुचरिमगोवच्छदव्वं पुणो मिच्छत्त-सम्मत्ताणं दोगोवच्छविसेसा च वड्डावेदव्वा । एवं वड्डिदेण अण्णगो दुचरिमसमयहिदसम्मामिच्छादिट्ठी सरिसो।
सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाला द्रव्य असंख्यातगुणा है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान—चूंकि सम्यग्मिथ्यात्वके द्रव्यकी अपेक्षा मिथ्यात्वका द्रव्य असंख्यातगुणा है, इससे ज्ञात होता है कि सम्यग्मिथ्यात्वसे सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले द्रव्यकी अपेक्षा मिथ्यात्वसे सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाला द्रव्य असंख्यातगुणा है।
यदि कहा जाय कि परिणामोंमें भेद होनेसे संक्रमणको प्राप्त होनेवाले द्रव्यमें भेद होता है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि एक समयमें एक जीवके नाना परिणाम नहीं पाये जाते हैं। जिस प्रकार मिथ्यात्वमेंसे मिथ्यात्वके प्रदेश सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होते हैं उसी प्रकार उसी मिथ्यात्वमेंसे उसके प्रदेश उसी भागहारके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त होते हैं परन्तु उससे यहां कोई मतलब नहीं है, क्योंकि यहां प्रकरण सम्यग्मिथ्यात्वका है। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो उपान्त्य समयवर्ती सम्यग्दृष्टि है। इस विधिसे बढ़ाकर दूसरे छयासठ सागरके प्रथम समयके प्राप्त होने तक उतारते जाना चाहिये।
६२३८. अब दूसरे छयासठ सागरके प्रथम समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके द्रव्यके बढ़ाने पर मिथ्यात्वमेंसे विध्यात संक्रमणके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे कम सम्यग्मिथ्यात्वमें विध्यातसंक्रमणके द्वारा और स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले द्रव्यको और प्रथम छयासठ सागरके अन्तिम समयमें स्थित हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टिके उदयको प्राप्त हुए तीन गोपुच्छ्राओंके द्रव्यको बढ़ावे । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान अन्य एक जीव है जो अन्तिम समयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टि है । अब अन्तिम समयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टिके द्रव्यके बढ़ाने पर उसीके अपना उपान्त्य समयसम्बन्धी गोपच्छके द्रव्यको तथा मिथ्यात्व और सम्यक्त्वके दो गोपुच्छविशेषोंको बढ़ावे । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं एवमोदारदव्वं जाव पढमसमयसम्मामिच्छादिहि त्ति ।
२३९. पुणो पढमसमयसम्मामिच्छादिट्ठिम्मि वड्डाविजमाणे गुणसंकमभागहारस्स संकलणम त्तगोवच्छविसेसेहि अब्भहियएगसम्मामिच्छत्तगोवच्छदव्वं दुरूवाहियगुणसंकमभागहारमेत्तकालम्मि सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्तगददव्वणब्भहियं सम्मत्तस्थिवुक्कगोवुच्छाए दुरूवाहियगुणसंकममेत्तकालमि मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्तस्स संकंतदव्वेण च ऊणं वड्ढावेदव्वं । एवं वड्डिदूण विदेण अण्णेगस्स सम्मत्तचरिमसमयादो हेहा दुरूवाहियगुणसंकमभागहारमेत्तमोदरिदृण हिदसम्मादिहिस्स सम्मामिच्छत्तदव्वं सरिसं। कुदो ? गुणसंकमभागहारमेत्तसम्मामिच्छत्तगोवुच्छासु अवणिदगोवुच्छविसेसासु मेलिदासु एगमिच्छत्तगोवुच्छुप्पत्तीदो गोवुच्छविसेससंकलणसहिदेगसम्मामिच्छत्तगोवुच्छाए सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्तस्स आगददव्वेणन्भहियाए सम्मत्तगोवुच्छाए. मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्तं गददव्वेण च ऊणाए वड्डाविदत्तादो । संपहिं एतो हेढा ओदारिजमाणे तस्समयम्मि मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्तमागददव्वेणूणसम्मामिच्छत्तत्थिवुक्कगोवुच्छासम्मामिच्छत्तादो विज्झादसंकमेण सम्मत्तं गददव्वं च वड्ढावेदव्वं । एवं वड्विदेण अण्णेगो हेट्ठिमसमयम्मि द्विदसम्मादिही सरिसो। एदेण कमेणोदारेदव्वं जाव पढमछावट्ठीओ आवलियवेदगसम्मादिहि त्ति । संपहि एदेण इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो विचरमसमयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टि है । इस प्रकार प्रथम समयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टि के प्राप्त होने तक उतारते जाना चाहिए ।
६२३९. फिर प्रथम समयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टिके द्रव्यके बढ़ाने पर गुणसंक्रमणभागहारके संकलनका जो प्रमाण हो उतने गोपुच्छाविशेषोंसे अधिक सम्याग्मिथ्यात्वके एक गोपुच्छाके द्रव्यको और दो अधिक गुणसंक्रमण भागहारप्रमाण कालके भीतर सम्यग्मिथ्यात्वसे सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे अधिक स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त हुई गोपुच्छाको एक-एक परमाणुकर बढ़ाता जावे । किन्तु इसमेंसे दो अधिक गुणसंक्रमणके कालके भीतर मिथ्यात्वके द्रव्यमेंसे सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रान्त हुए द्रव्यको घटा दे। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके द्रव्यके साथ सम्यक्त्वके अन्तिम समयसे दो अधिक गुणसंक्रमण भागहारका जितना काल है उतना नीचे उतरकर स्थित हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टिके सम्यग्मिथ्यात्वका द्रव्य समान है, क्योंकि गुणसंक्रमण भागहारप्रमाण सम्यग्मिथ्यात्वकी गोपुच्छाओं मेंसे गोपुच्छविशेषोंको घटाकर जोड़ने पर मिथ्यात्वकी एक गोपुच्छाकी उत्पत्ति हुई है। तथा गोपुच्छाविशेषोंके जोड़ने पर जो प्रमाण हो उसके साथ सम्यग्मिथ्यात्वकी एक गोपुच्छाकी भौर मिथ्यात्वके द्रव्यमेंसे सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले द्रव्यको कम करके सम्यग्मिध्यात्वके द्रव्यमेंसे सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे अधिक सम्यक्त्वकी गोपुच्छाकी वृद्धि हुई है। अब इससे नीचे उतारने पर उसी समय मिध्यात्वके द्रव्यमेंसे साग्मग्यात्वको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे कम स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा अन्य प्रकृतिको प्राप्त होनेवाली सम्यग्मिथ्यात्वकी गोपच्छाको और विध्यातसंक्रमणके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वके द्रव्यमेंसे सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले द्रव्यको बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान अन्य एक जीव है जो नीचेके समयमें सम्यग्दृष्टि होकर स्थित है। इस प्रकार इस क्रमसे पहले छयासठ सागरके भीतर वेदक सम्यग्दृष्टिके एक भावलिकालके प्राप्त होने
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहती ५
अगो खविदकम्मंसियो पडिवण्णवेदगसम्मत्तो पढमछावद्विअन्तरे गुणसंकम भागहारछेदणय मे त्तगुणहाणीओ गालिय दंसणमोहणीयक्खवणमाढविय मिच्छत्तं सम्मामिच्छरो पक्खिविय हिंदो सरिसो ।
६ २४० संपहि इमं घेत्तूण एगगोबुच्छमेतं वड्डाविय सरिसं कादूणोदारेदब्धं जावतोमुहुत्त वेदसम्मादिडी दंसणमोहक्खवणमाढविय मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तम्मि संयि हिंदो त्ति | संपहि एसो खविदकम्मं सियलक्खणेणागंतूण मणुसेसुववजिय सव्वलहुँ जोणिणिक्खमणजम्मणेण अट्ठवस्सिओ होण सम्मत्तं घेत्तूण अणंताणुबंधिचउकं विसंजोय दंसणमोहक्खवणमाढविय मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं पक्खिविय जो अवद्विदो सो परमाणुत्तरादिकमेण चत्तारि पुरिसे अस्सिदूण पंचहि वड्डीहि वढावेदव्वो जाव गुणिदकम्मंसियलक्खणेण सत्तमा पुढवीए मिच्छत्त मुकस्सं करिय पुणो दो-तिण्णिभवग्गहणाणि पंचिदिएस एइंदिएसु च उपजिय पुणो मणुस्सेसुववज्जिय सव्वलहुं जोणिणिकमणजम्मणेण अंतोमुहुत्तन्भहियअडवस्सिओ होदूण पुणो सम्मत्तं पडिवजिय अणंताणुबंधिचउकं विसंजोइय पुणो अंतोमुहुत्तं गमिय दंसणमोहणीयक्खवणमाढविय मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तम्मि संछुहिय द्विदो । एवमोदारिदे अनंताणं द्वाणाणमेगं फद्दयं, विरहाभावाद । एवं तदियपयारेण सम्मामिच्छत्तद्वाणपरूवणा कदा |
तक उतारते जाना चाहिये । अब इस जीवके समान अन्य एक जीव है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर और वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त होकर प्रथम छयासठ सागर कालके भीतर गुणसंक्रम भागहार के अर्धच्छेदप्रमाण गुग्गाहानियोंको गलाकर और दर्शनमोहनीयको क्षपणाका आरम्भ करके मिथ्यात्वके द्रव्यको सम्यग्मिथ्यात्वमें प्रक्षिप्त करके स्थित है ।
९ २४०. अब इस जीवको लो और इसके एक गोपुच्छाप्रमाण द्रव्यको उत्तरोत्तर ढ़ाते हुए और समान करते हुए तब तक उतारते जाना चाहिये जब तक छयासठ सागर के भीतर अन्तर्मुहूर्त के लिए वेदकसम्यग्दृष्टि होकर और दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका आरम्भ करके मिथ्यात्व के द्रव्यको सम्यग्मिथ्यात्व में क्षेपण करके स्थित होवे । अब यह जीव क्षपितकर्माशिक लक्षणके साथ आकर मनुष्यों में उत्पन्न हो सर्व जघन्य कालके द्वारा योनिसे बाहर निकलनेरूप जन्म से लेकर आठ वर्षका होकर सम्यक्त्वको प्राप्त हो अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका आरम्भ करके मिथ्यात्वके द्रव्यको सम्यग्मिथ्यात्व में प्रक्षिप्त करके स्थित है । फिर चार पुरुषोंका आश्रय लेकर एक-एक परमाणु अधिकके क्रमसे पांच वृद्धियोंके द्वारा तब तक बढ़ावे जब तक गुणितकर्माशिकलक्षणके साथ सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्वको उत्कृष्ट करके फिर दो तीन भव ग्रहण कर पंचेन्द्रिय और एकेन्द्रियों में उत्पन्न हो फिर मनुष्यों में उत्पन्न होकर सर्वलघु कालके द्वारा योनिसे निकलनेरूप जन्म से अन्तर्मुहूर्त सहित आठ वर्षका होकर पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त कर अनन्ताबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर फिर अन्तर्मुहूर्त जाकर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका आरम्भ करके मिथ्यात्व के द्रव्यको सम्यग्मिथ्यात्वमें क्षेपण करके स्थित होवे । इस प्रकार उतारने पर अनन्त स्थानोंका एक स्पर्धक होता है, क्योंकि मध्य में विरह ( अन्तर ) का अभाव है ।
. इस प्रकार तीसरे प्रकारसे सम्यग्मिथ्यात्वको स्थानप्ररूपणा की ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्त
२४३ २४१. संपहि सम्मामिच्छत्तस्स गुणिदकम्मंसियसंतकम्ममस्सिदूण हाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा-खविदकम्मंसियलक्खणेणागतूण सम्मत्तं पडिवन्जिय वेछावठीओ भमिय दीहुव्वल्लणकालेण सम्मामिच्छत्तमुव्वल्लिय चरिमफालिं धरेदण हिदो परमाणुत्तरकमेण चत्तारि पुरिसे अस्सिद्ण पंचहि वड्डीहि वड्ढाव दव्वो जाव गुणिदकम्मंसिओ सत्तमाए पुढवीए मिच्छत्तमुक्कस्सं कादण तत्तो णिस्सरिदूण सम्मत्तं पडिवजिदूण वेछावडीओ भमिय दीहुव्वल्लणकालेण सम्मामिच्छत्तमुव्वल्लिय चरिमफालिं धरेदूण ट्ठिदो ति । एवं वड्डिदेण अण्णेगो सत्तमाए पुढवीए मिच्छत्तमुक्कस्सं करेमाणो जो सम्मामिच्छत्तदुचरिमगुणसंकमफालिदव्वण तस्सेव त्थिव कसंकमेण गदगोवुच्छदव्वेण च ऊणं करियाग तूण सम्मामिच्छत्तमुव्वल्लिय तचरिमदुचरिमफालीओ धरिय हिदो सरिसो । संपहि' एसो दोफालिधारगो परमाणुत्तरकमेण वड्ढाव दव्वो जावप्पणो ऊणीकददव्व वड्डिदं ति । एवमुव्वल्लणवेछावहिकालेसुओदारिजमाणेसु जधा खविदकम्मंसियस्स संतमोदारिदं तधाओदारेदव्वं । णवरि एत्थ इच्छिददव्वमृणं करिय आगतूण पुणो वड्डाविय ओदारेदव्वं । संधिजमाणे वि जहा खविदस्स संधिदं तहा एत्थ वि संधेदव्व ।
एवं सम्मामिच्छत्तस्स चदुहि पयारेहि हाणपरूवणा कदा ।
____६२४१. अब गुणितकाशकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्वके सत्कर्मस्थानोंका कथन करते है। वे इस प्रकार हैं-भपितकाशके लक्षणसे आकर सम्यक्त्वको प्राप्त कर दो
र काल तक भ्रमण कर उत्कृष्ट उद्रेलना काल द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर अन्तिम फालिको धारण कर स्थित हुआ जीव एक अन्य जीवके समान है जो चार पुरुषोंके आश्रयसे एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे पाँच वृद्धियोंके द्वारा तब तक बढ़ावे जब तक गुणितकर्माशवाला सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्वको उत्कृष्ट करके वहाँसे निकलकर सम्यक्त्वको प्राप्त कर दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर उत्कृष्ट उद्वेलना काल द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वको उद्वेलना कर अन्तिम फालिको धारण कर स्थित होवे। इस प्रकार बढ़े हुए इस जीवके समान एक अन्य जीव समान है जो सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्वको उत्कृष्ट करके सम्यग्मिथ्यात्वकी द्विचरमगुणसंक्रमफालिके द्रव्यको और स्तिवुकसंक्रमणको प्राप्त हुए उसीके गोपुच्छाके द्रव्यको घटाकर सम्यग्मिथ्यात्वको उद्वेलना करके उसको अन्तिम और द्विचरमफालिको धारण कर स्थित है। अब उस दो फालिके धारक जीवने जितना अपना द्रव्य कम किया हो उतना द्रव्य उत्तरोत्तर एक एक परमाणके क्रमसे बढ़ावे | इस प्रकार उद्वेलना व दो छयासठ सागर कालके उतारने पर जिस प्रकार क्षपितकर्माश जीवके सत्कर्मको उतारा है उस प्रकार उतारते जाना चाहिये । किंतु इतनी विशेषता है कि यहाँ पर इच्छित द्रव्यको कम करते हुए आकर पुनः बढ़ाकर उतारना चाहिये । तथा जोड़ने पर भी जिस प्रकार क्षपितकर्माशका जोड़ा है उसी प्रकार यहाँ भी जोड़ना चाहिए।
इस प्रकार चारों प्रकारसे सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थानप्ररूपणा की। १. प्रा०प्रतौ 'द्विदो । संपहि, इति पाठः । २. प्रा०ततौ 'बड्ड'ति' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ 8 एवं चेष सम्मत्तस्स वि । ६२४२. जहा सम्मामिच्छत्तस्स जहण्णहाणादि जाव तदुक्कस्सहाणे ति सामित्तपरूवणा चदुहि पयारेहि कदा तहा सम्मत्तस्स वि कायव्वा, विसेसाभावादो । अधापवत्तपढमसमयम्मि वड्डाविजमाणे मिच्छत्तसरूवेण गदअधापवत्तदव्वमेत्तं तम्मि चेव त्थिउक्कसंकमण गदसम्मत्तगोवुच्छा चरिमसमयसम्मादिद्विस्स उदयगदतिण्णिगोवुच्छाओ च जेणेत्थ वहाविजंति तेण जहा सम्मामिच्छत्तस्स परूविदं तहा सम्मत्तस्स परूव दव्यमिदि ण घडदे ? किं चेत्थ सम्मादिहिम्मि ओदारिजमाणे सम्मामिच्छत्तमिच्छत्तेहिंतो सम्मत्तस्सागदविज्झाददव्वणसम्मत्तगोवुच्छा पुणो मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्ताणं दोगोवुच्छविसेसा च सव्वत्थ वड्डाविजंति तेणेदेण वि कारणेण ण दोण्हं सामित्तार्ण सरिसत्तं । अण्णं च विदियछावहिसम्मत्तपढमसमयदव्वम्मि वड्डाविजमाणे विज्झादभागहारण मिच्छत्त-सम्मामिच्छत्तेहिंतो सम्मत्तस्सागददबणणा पढमलावट्ठीए अंतोमुहुत्तं हेहा ओसरिदूण हिदसम्मादिहिस्स अंतोमुहुत्तमेत्तमिच्छत्त-सम्मामिच्छत्तगोवुच्छविसेसेहि अमहियअंतोमुहुत्तमेत्तसम्मत्तगोवुच्छाओ वड्डाविजंति, अण्णहा विदियछावद्विपढमसमयादो अंतोमुहुत्तं हेडा ओदरिदूण हिदपढमछावहिचरिमसमय
* इसी प्रकार सम्यक्त्वके स्थानोंके स्वामित्वका भी कथन करना चाहिये।
२४२. जिस प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य स्थानसे लेकर उसके उत्कृष्ट स्थानके प्राप्त होने तक स्वामित्वका कथन चार प्रकारसे किया है उसी प्रकार सम्यक्त्वका भी करना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है।
शंका-अधःप्रवृत्तके प्रथम समयमें द्रव्यके बढ़ाने पर यह द्रव्य बढ़ाया जाता हैएक तो अधःप्रवृत्तभागहारके द्वारा सम्यक्त्वका जितना द्रव्य मिथ्यात्वको प्राप्त होता है उसे बढ़ाया जाता है। दूसरे उसी समय जो स्तिवुक संक्रमणके द्वारा सम्यक्त्वकी गोपुच्छाका द्रव्य मिथ्यात्वको प्राप्त होता है उसे बढ़ाया जाता है और तीसरे सम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयमें उदयको प्राप्त हुई तीन गोपुच्छाएँ बढ़ाई जाती हैं। चूंकि इतना द्रव्य बढ़ाया जाता है, इसलिये जिस प्रकार सम्यग्मिथ्यात्वके स्वामीका कथन किया है उस प्रकार सम्यक्त्वके स्वामीका कथन करना चाहिये, यह कथन नहीं बनता है ? दूसरे यहाँ सम्यग्दृष्टिको उतारने पर सम्यग्मिथ्यात्व और मिथ्यात्वके द्रव्यमेंसे विध्यातसंक्रमणके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे कम सम्यक्त्वकी गोपुच्छाको तथा सर्वत्र मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी दो गोपुर छाविशेषोंको सर्वत्र बढ़ाया जाता है। इसलिये इस कारणसे भी दोनोंका स्वामित्व समान नहीं है ? तीसरे दूसरे छयासठ सागरके प्रथम समयमें सम्यक्त्वके द्रव्यको बढ़ाने पर विध्यात भागहारके द्वारा मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यास्वके द्रव्यमेंसे सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे कम तथा पहले छयासठ सागरमें अन्तर्मुहूर्त नीचे उतर कर स्थित हुए सम्यग्दृष्टिके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी गोपुच्छाविशेषोंसे अधिक अन्तर्मुहूर्त प्रमाण सम्यक्त्वकी गोपुच्छाएँ बढ़ाई जाती हैं, अन्यथा दूसरे छयासठ सागरके प्रथम समयसे अन्तर्मुहूर्त नीचे
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं सम्मादिद्विदव्वण सरिसत्ताणुववत्तीदो । तेण जाणिजदे जहा दोण्हं सामित्ताणं ण सरिसत्तमिदि । ण, दवट्टियणयमस्सिदूण सरिसत्तपदुप्पायणादो। एसो विसेसो कत्तो णव्वदे १ ण, सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तपयरणवसेणेव तदवगमादो। पञ्जवहियपरूवणादो वा तदवगमो। सो पुण किण्ण सुत्ते उच्चदे ? ण, तत्थ वक्खोणाइरियभडारयाणं वावारादो । दव्वहियणयवयणकलावो सुत्तं । पञ्जवडियवयणकलावो टोका । णेगमणयवयणकलाओ विहासा ति सव्वत्थ दहव्व।।
* दोण्ह पि एदेसि संतकम्माणमेगौं फद्दय ।
६ २४३. पदेसुत्तरं दुपदेसुत्तरं णिरंतराणि हाणाणि उक्कस्ससंतकम्मं ति एदेणेव सुत्तेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तसंतकम्महाणाणं फद्दयत्त'मवगम्मदे। ण च णिरंतरट्ठाणेसु अंतरणिबंधणणाणमत्थित्त, विप्पडिसेहादो । तम्हा णिप्फलमिदं सुत्तमिदि १ ण, सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तसंतकम्महाणाणमेगं फहयमिदि दोण्हं संतकम्माणमंतराभावपदुप्पायणेण णिप्फलत्तविरोहादो। तं जहा–सम्मामिच्छत्तस्स उतर कर स्थित हुए जीवका द्रव्य प्रथम छयासठ सागरके अन्तिम समयवर्ती सायग्दृष्टिके द्रव्यके समान नहीं हो सकता है । इससे जाना जाता है कि दोनोंके स्वामी एक समान नहीं हैं ?
समाधान नहीं, क्योंकि द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा दोनोंके स्वामियोंको एक समान कहा है।
शंका-यह विशेष किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान नहीं, क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके प्रकरणके वशसे ही यह विशेष जाना जाता है । अथवा पर्यायार्थिक प्ररूपणासे इस प्रकारका विशेष जाना जाता है।
शंका-तो फिर इस विशेषका कथन सूत्रमें क्यों नहीं किया ?
समाधान नहीं, क्योंकि विशेषके कथनका व्याख्यान करना व्याख्यानाचार्योका काम है । तात्पर्य यह है कि संक्षिप्त वचनोंका समुदाय सूत्र कहलाता है, विस्तृत वचनोंका समुदाय टीका कहलाती है और मैगमरूप वचनोंका समुदाय विभाषा कहलाती है। यही कारण है कि सूत्रमें उभयगत विशेषताका व्याख्यान नहीं किया। इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिये।
ॐ इन दोनों ही सत्कर्मोंका एक स्पर्धक होता है।
२४३. शंका-जघन्य सत्कर्म स्थानसे लेकर एक प्रदेश अधिक, दो प्रदेश अधिक इस प्रकार उत्कृष्ट सत्कर्मस्थानके प्राप्त होने तक निरन्तर स्थान पाये जाते हैं। इस सूत्रके द्वारा सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सत्कर्मस्थानोंका एक स्पर्धक है यह बात जानी जाती है। यदि कहा जाय कि निरन्तर स्थानोंके रहते हुए भी उनका अस्तित्व अन्तरका कारण हो जाय, सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा माननेमें विरोध आता है, अतएव यह सूत्र निष्फल है ?
समाधान नहीं, क्योंकि सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वके सत्कर्मस्थानों का एक स्पर्धक है इस प्रकार यह सूत्र दोनों सत्कर्मों के अन्तरके अभावका कथन करता है, इसलिये इसे निष्फल नहीं माना जा सकता है। अब आगे इसी बातका खुलासा करते हैं-सम्यग्मिथ्यात्व
1. साप्रती -टाणा[णं] फइयत्त-' मा प्रतौ -हाणा फहयात-' इति पाठः। २. ता०प्रती -णिबंधणा हाणा) मत्थित इति पाठः।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ पलिदोवमस्स असंखे भागमेत्तद्विदीओ पूरिय ओदारेदव्वं जाव सम्मत्तमुव्वेल्लिय तदेगणिसेगं दुसमयकालहि दियं पत्तं ति । पुणो तस्समयम्मि गदउव्वेल्लणदव्वे त्थिउक्कसंकमण गदसम्मत्त-सम्मामिच्छत्तवेगोवुच्छासु च एदस्सुवरि वड्डाविदासु एदेण दवेण सम्मत्तमुवेल्लिय तव्वेगोवुच्छाओ तिसमयकालडिदियाओ धरेदण द्विदोसरिसो। एवमोदारेदव्वं जाव समयूणावलियमेत्तगोवुच्छाओ ओदिण्णाओ त्ति । पुणो तत्थ ठविय वड्डाविजमाणे सम्मामिच्छत्तुव्वेल्लणसम्मत्तचरिमफालिदव्व पुणो सम्मत्तसम्मामिच्छत्तवेगोवुच्छाओ च वड्ढावेदव्वो। एवं वड्डिदेण तस्सेव हेहिमसमए ओदरिय हिदो सरिसो।
६२४४. संपहि सम्मत्तचरिमगुणसंकम-दुचरिमफालिदव्वं सम्मामिच्छत्तुव्वेल्लणदव्वं त्थिउक्कसंकमेण गदसम्मत्त-सम्मामिच्छत्तदोगोवुच्छाओ च एत्थ वड्ढावेदव्वाओ। एवं पड्डिदूण द्विदेण अणंतरहेहिमसमयट्ठिदो सरिसो। एवं सरिसं कादोदारेदव्वं जाव सम्मत्तदुचरिमट्ठिदिखंडयचरिमसमओ ति । पुणो तत्थ वड्डाविञ्जमाणे दोण्हमुव्वेल्लणदव्यमेत्तं वे गोवुच्छाओ च वड्ढावेदव्वाओ। एवं वड्डिदण हिदेण अण्णेगो हेट्ठिमसमयविदो सरिसो। एवं वड्डाविय ओदारेयव्व जाव अधापवत्तसंकमचरिमसमओ त्ति ।
को पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थितियोंको पूरा कर तब तक उतारना चाहिये जब तक सम्यक्त्वकी उद्वेलना कर उसका दो समयकी स्थितिषाला एक निषेक प्राप्त होवे । फिर उस समय जो उद्वेलनाका द्रव्य अन्य प्रकृत्तिको प्राप्त हुआ और स्तिवुक संक्रमणके द्वारा जो सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वको दो गोपुच्छाएँ अन्य प्रकृतिको प्राप्त हुई उन्हें इसके ऊपर बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके द्रव्यके समान एक अन्य जीवका द्रव्य है जो सम्यक्त्वकी उद्वेलना कर तीन समयकी स्थितिवाले सम्यक्त्वकी दो गोपुच्छाओंको धारण करके स्थित है। इस प्रकार एक समय कम आवलिप्रमाण गोपुच्छाओंके उतरने तक उतारते जाना चाहिये । फिर वहाँ ठहरा कर बढ़ाने पर सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनासे सम्यक्त्वमें हुए अन्तिम फालिके द्रव्यको और सम्यक्त्व तथा सम्यग्मिथ्यात्वकी दो गोपुच्छाओको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो उसीके एक समय नीचे उतर कर स्थित है।
६२४४. अब यहाँ पर सम्यक्त्वके अन्तिम गुणतक्रमकी द्विचरम फालिके द्रव्यको, सम्यग्मिथ्यात्वके उद्वेलनाके द्रव्यको और स्तिवुक संक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुई सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी दो गोपुच्छाओंको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो अनन्तर नीचेके समयमें स्थित है । इस प्रकार उत्तरोत्तर समान करके सम्यक्त्वके द्विचरम स्थितिकाण्डकके अन्तिम समय तक उतारते जाना चाहिये। फिर वहाँ पर द्रव्यके बढाने पर दोनोंके उद्धलनाप्रमाण दव्यको और दो गोपच्छाओंको बढ़ावे । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान अन्य एक जीव है जो नीचेके समयमें स्थित है। इस प्रकार बढ़ाकर अधःप्रवृत्त संक्रमके अन्तिम समय तक उतारना चाहिये।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
२४७ ६ २४५. पुणो तत्थ दृविय वड्डाविजमाणे दोहितो अधापवत्तचरिमसमयम्मि गददव्वं त्थिवुक्कसंकमण गदव गोवुच्छाओ च वड्डाव दव्याओ। एवं वड्डिद्ण हिदेण अण्णेगो अधापवत्तदुचरिमसमयद्विदो सरिसो। एवमोदारेदव्वं जाव अधापवत्तपढमसमयमिच्छादिहि त्ति । पुणो तत्थ हविय वड्डाविजमाणे दोहितो अधापवत्तसंकमेण गददव्वमेत्तं त्थिउक्कगोवुच्छाओ' पुणो सम्मादिहिचरिमसमयम्मि उप्पादाणुच्छेदणएण णिअिण्णमिच्छत्त-सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं तिहि गोवुच्छाओ च वड्ढाव दव्वाओ । एवं वड्डिदण द्विदेण अण्णेगो चरिमसमयसम्मादिही सरिसो। पुणो एत्थ दोण्हं मिच्छत्तादो आगददग्वेणणसम्मत्त-सम्मामिच्छत्तवेगोवुच्छाओ मिच्छत्तगोवुच्छविसेसो च वड्ढावेदव्यो। एवं वड्डिदेण अण्णेगो अणंतरहेहिमसमयट्टिदो सरिसो । एवं वड्डाविय सरिसं करिय ओदारेदव्व जाव पढमछावहिचरिमसमयसम्मामिच्छादिहि त्ति।
२४६. संपहि एत्थ वे गोवुच्छाओ एगगोवृच्छविसेसो च वड्ढावेदव्यो । एवं वड्डिदेण दुचरिमसमयसम्मामिच्छादिही सरिसो। एत्थ मिच्छत्तादो सम्मत्तसम्मामिच्छत्तेसु संकेतदव्व Yणतं किण्ण परूविदं १ ण, सम्मामिच्छादिहिम्मि दसणतियस्स संकमाभावादो। एव' वड्डाविय ओदारेदव्व जाव पढमछावट्ठीए
६२४५. फिर वहाँ ठहरा कर द्रव्यके बढ़ाने पर दोनोंमेंसे अधःप्रवृत्तके अन्तिम समयमें पर प्रकृतिको प्राप्त हुए द्रव्यको और स्तिवुक संक्रमणके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुई दो गोपुच्छाओंको बढ़ावे । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान अन्य एक जीव है जो अधःप्रवृत्तसंक्रमणके उपान्त्य समयमें स्थित है। इस प्रकार अधःप्रवृत्तके प्रथम समयवर्ती मिथ्याष्टिके प्राप्त होने तक उतारते जाना चाहिये। फिर वहाँ ठहराकर द्रव्यके बढ़ानेपर दोनोंमेंसे अधःप्रवृत्तसंक्रमणके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुए द्रव्यको और स्तिवुक संक्रमणसंबंधी दो गोपुच्छाओंको तथा सम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयमें उत्पादानुच्छेदनयकी अपेक्षा निर्जराको प्राप्त हुई मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व इन तीन गोपुच्छाओंको बढ़ाना चाहिए । इसप्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान अन्य एक जीव है जो अन्तिम समयवर्ती सम्यग्दृष्टि है। फिर यहां मिथ्यात्वमेंसे इन दोनों प्रकृतियोंके लिए आये हुए द्रव्यसे कम सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी दो गोपुच्छाओंको तथा मिथ्यात्वके गोपुच्छविशेषको बढ़ाना चाहिए । इसप्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो अनन्तर नीचेके समयमें स्थित है। इस प्रकार बढ़ाकर और समान कर प्रथम छयासठ सागरमें सम्यग्मिथ्या दृष्टिके अन्तिम समयतक उतारते जाना चाहिए।
६२४६. अब यहांपर दो गोपुच्छाओंको और एक गोपुच्छा विशेषको बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो उपान्त्य समयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टि है।
शंका-यहां मिथ्यात्वमेंसे सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रान्त हुए द्रव्यसे कम क्यों नहीं कहा ?
समाधान-नहीं, क्योंकि सम्यग्मिध्यादृष्टि गुणस्थानमें दर्शनमोहनीयकी तीन १. ता०प्रतौ 'गददवमेत्त वेति(त्थि)वुक्कगोवुच्छामो' इति पाठः ।.............
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जय वलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहती ५
वरिमसमयसम्मादिति । संपहि एत्थ मिच्छत्तादो आगददव्व णूणव गोवुच्छाओ एगगोवच्छविसेसो च बड्डावदव्वो । एवं वडिदूण हिदेण अनंतरहेट्ठिमसमयहिदो सरिसो । एवं वड्डाविय ओदारेदव्वं जाव पढमछावडीए आवलियव दगसम्मादिडि त्ति । पुणो तत्थ ट्ठविय पंचहि वड्डीहि बड्ढावेदव्वं जाव एत्थतणजहण्णदव्वं गुणसंकमेण गुणिदमेत्तं जादं ति । एदेण जो खविदकम्मं सियलक्खणेणागतूण मस्सेववजिय सव्वलहुं जोणिणिकमणजम्मणेण अंतोमुडुत्तन्महिय अडवस्साणि भमिय सम्मत्तं घेत्तूण दंसणमोहकखवणाए अन्मुट्ठिय मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तस्सुवरि संकुहिय ट्ठिदो सरिसो । कुदो ? दिवड्डुगुणहाणिगुणिदेगसमयपबद्धमे तमिच्छत्त जहण्णदव्वेण १२ गुणिसंकमेण गुणिदसम्मत्त-सम्मामिच्छत्तदव्वस्स सरिसत्तुवलंभादो । १९९१ । अधवा संतकम्मसरूवेणोदरिण हिदआवलियवेदगसम्मादिट्टिणा सह खविदकम्मंसियलक्खणेणागं तूण पढमछावट्टिकालव्यंतरे गुणसंकम भागहारछेदणयमेत्तगुणहाणीओ उवरि चडिय' मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तम्मि संछुहिय विदो सरिसो, दिवड गुणहाणि गुणिदेगसमयपबद्ध गुणसंकमभागहारेण खंडिदे तत्थ एगखंडपमाणत्तेण दोन्हं दव्वाणं सरिसत्तुवलंभादो । संपहि एदं दव्वं पुव्वविहाणेण ओदरिय परमाणुत्तरकमेण चत्तारि पुरिसे अस्सिदूण पंचहि वड्डीहि वढावेदव्वं जावप्पणो प्रकृतियों का संक्रमण नहीं होता । इस प्रकार बढ़ाकर प्रथम छ्यासठ सागर के भीतर सम्यग्दृष्टि के अन्तिम समय तक उतारते जाना चाहिए । अब यहाँ मिथ्याश्वके द्रव्यमेंसे आये हुए द्रव्यसे कम दो गोपुच्छाओं को और एक गोपुच्छाविशेषको बढ़ाना चाहिए । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो अनन्तर नोचेके समय में स्थित है । इस प्रकार बढ़ाकर प्रथम छयासठ सागर में वेदकसम्यग्दृष्टिको एक आवलिकाल होने तक उतारना चाहिये | फिर
ठहराकर पांच वृद्धियोंके द्वारा तब तक बढ़ाना चाहिये जब तक यहाँके जघन्य द्रव्यको गुणक्रमसे गुणा करने पर जितना प्रमाण प्राप्त हो उतना हो जावे । इस प्रकार प्राप्त हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर और मनुष्यों में उत्पन्न होकर अतिशीघ्र योनिसे निकलनेरूप जन्म से लेकर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष विताकर और सम्यक्त्वको प्राप्तकर फिर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भकर मिध्यात्वको सम्यग्मिथ्यात्व के ऊपर प्रक्षिप्त करके स्थित है, क्योंकि डेढ़ गुणहानि ( १२ ) से गुणा किये गये एक समयप्रवद्धप्रमाण मिथ्यात्वके जघन्य द्रव्यके साथ गुणसंक्रमके द्वारा गुणा किया गया सम्यक्त्व और सम्यग्मिध्यात्वका द्रव्य समान है । अथवा सत्कर्मरूपसे उदीरणा करके स्थित हुए आवलिकालवर्ती वेदकसम्यग्दृष्टिके साथ क्षपितकर्मा शकी विधि से आकर प्रथम छयासठ सागर कालके भीतर गुणसंक्रम भागहारकी अर्धच्छेद प्रमाण गुणहानियां ऊपर चढ़कर मिथ्यात्वको सम्यग्मिथ्यात्व में निक्षिप्त करके स्थित हुआ एक अन्य जीव समान है, क्योंकि डेढ़ गुणहानिसे गुणा किये गये एक समयप्रबद्ध में गुणसंक्रम भागहारका भाग देने पर वहां जो एक भाग प्राप्त हो तद्रूपसे दोनों द्रव्यों की समानता पाई जाती है । अब पूर्व विधिसे उतरकर इस द्रव्यको एक-एक परमाणु अधिकके १. भा०प्रतौ 'उवरि सुचढिय' इति पाठः ।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं उकस्सदव्वं पत्तं ति । संपहि गुणिदकम्मंसियमस्सिदूण वि जाणिदण दोण्हं कम्माणमेगफद्दयत्तं परूवेदव्यं । तम्हा ण णिप्फलमिदं सुत्तमिदि सिद्धं ।
* अट्टह कसायाणं जहण्णय पदेससंतकम्म कस्स ? ६२४७. सुगम।
® अभवसिद्धियपाओग्गजहएणयं काऊण तसेसु ागदो संजमासंजमं संजमं सम्मत्तं च पहुसो लद्ध ण चत्तारि वारे कसाए उवसामिण एइंदिए गदो। तत्थ पलिदोवमस्स असंखे जदिभागमत्तमच्छिदूण कम्म हदसमुप्पत्तियं कादण कालं गदो तसेसु आगदो कसाए खवेदि अपच्छिम द्विदिखंडए अवगदे अधट्ठिदिगलणाए उदयावलियाए गलतीए एकिस्से हिदीए सेसाए तम्मि जहणणयं पदं ।
____६२४८. भवसिद्धियपाओग्गजहण्णपदेसपडिसेहढं अभवसिद्धियपाओग्गजहण्णयं कादणे त्ति णिहिटुं । संजमासंजम-संजम-सम्मत्तगुणसेढिणिजराहि विणा खविदकिरियाए सव्वुक्कस्सेण एई दिएसु कम्मणिजराए कदाए जमवसेसं जहण्णदव्वं तमभवसिद्धियपाओग्गजहण्णदव्व ति घेत्तव्यं, तिरयणजणिदकम्मणिजराभावादो। तसेसु चेव
क्रमसे चार पुरुषोंकी अपेक्षा पाँच वृद्धियों द्वारा अपने उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाते जाना चाहिये । अव गुणितकर्मा शकी अपेक्षा भी जानकर दोनों कर्मों के एक स्पधेकपनेका कथन करना चाहिये । इसलिये यह सूत्र निष्फल नहीं है यह बात सिद्ध हुई।
* आठ कषायोंका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? ६२४७. यह सूत्र सुगम है ।
अभव्योंके योग्य जघन्य प्रदेशसत्कर्म करके त्रसोंमें आया। फिर संयमासंयम, संयम और सम्यक्त्वको बहुत बार प्राप्त करके और चार बार कषायोंका उपशम कर एकेन्द्रियोंमें गया। वहाँ पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक रह कर और कर्मको हतसमुत्पत्तिक करके मरकर त्रसोंमें आया । वहां कषायोंका क्षपण करते समय अन्तिम स्थितिकाण्डकका पतन होनेके बाद अधःस्थितिगलनाके द्वारा उदयावलिके गलते हुए एक स्थितिके शेष रहने पर जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है।
६२४८. भव्योंके योग्य जघन्य प्रदेशोंका निषेध करनेके लिये 'अभव्योंके योग्य जघन्य' इस पदका निर्देश किया। संयमासंयम, संयम और सम्यक्त्वके निमित्तसे जो गुणश्रेणि निर्जरा होती है उसके बिना क्षपित क्रियाके द्वारा सबसे उत्कृष्टरूपसे एकेन्द्रियोंके भीतर रहते हुए कर्मकी निर्जरा की जाने पर जो जघन्य द्रव्य शेष रहता है वह अभव्योंके योग्य जघन्य द्रव्य है यह इसका भाव है, क्योंकि यह कर्मनिर्जरा रत्नत्रयके निमित्तसे नहीं
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ तिरयणजणिदकम्मणिजरा होदि त्ति जाणावणडं तसेसु आगदो ति भणिदं । थावरकाएसु तिरयणाणि किण्ण उप्पजंति ? अच्चंताभावेण पडिसिद्धत्तादो। भव्वजीवकम्मणिजरावियप्पपदुप्पायणटुं संजमासंजम' संजमं सम्मत्तं च बहुसो लक्ष्ण चत्तारि वारे कसाए उवसामेदूण त्ति भणिदं । एत्थ बहुसो त्ति जदि वि सामण्णणि सो कदो तो वि पलिदो० असंखे०भागमेत्ताणि चेव तिरिक्ख-मणुस्सेसु संजमासंजमकंडयाणि । सम्मत्तकंडयाणि पुण देवेसु चेव पलिदो० असंखे०भागमेत्ताणि । एदाणि तिरिक्ख-मणुस्सेसु किण्ण घेप्पंति ? ण, तत्थेदेसु संतेसु संजमासंजमसंजमकंडयाणमण्णत्थ असंभवाणमभावप्पसंगादो । सम्मत्ते ति वुत्ते अणंताणुबंधिचउक्कविसंजोयणा घेत्तव्बा, सहचारादो । संजमकंडयाणि अह चेव मणुस्सेसु । एदेसिमेत्तिया चेव संखा होदि ति कुदो णव्वदे ? सुत्ताविरुद्धाइरियवयणादो वेयणादिसुत्तेहिंतो वा । तसेसु आगंतूण संजमासंजम-सम्मत्तेसु पलिदो० असंखे०भागमेत्तं कालमच्छदि त्ति ण घडदे, तिरिक्खेसु संजमासंजमस्स देसूणपुव्वकोडीए अहियकालाणुवलंभादो । ण, तिरिक्खेसु संजमासंजममणुपालिय दसवस्ससहस्साउहुई है। त्रसोंमें ही रत्नत्रयके निमित्तसे कर्मोकी निर्जरा होती है यह जतानेके लिये 'त्रसोंमें आया' यह कहा।
शंका-स्थावरकायिक जीवोंको रत्नत्रयकी प्राप्ति क्यों नहीं होती ? समाधान-अत्यन्ताभाव होनेसे वहां इसकी प्राप्तिका निषेध है।
भव्य जीवोंके कर्मनिर्जराके विकल्पोंका कथन करनेके लिये 'संयमासंयम, संयम और सम्यक्त्वको अनेकबार प्राप्तकर तथा चार बार कषायोंका उपशमकर' यह कहा । यहाँ सूत्रमें यद्यपि 'अनेकबार' ऐसा सामान्य निर्देश किया है तो भी संयमासंयमकाण्डक पल्यके असंख्यातवें भाग बार तियच और मनुष्योंमें ही होते हैं। किन्तु सम्यक्त्वकाण्डक पल्यके असंख्यातवें भागबार देवोंमें ही होते हैं।
शंका-ये सम्यक्त्वकाण्डक तिर्यश्च और मनुष्योंमें क्यों नहीं ग्रहण किये जाते ?
समाधान नहीं, क्योंकि वहाँ इनको मान लेने पर संयमासंयम और संयमकाण्डक अन्यत्र सम्भव नहीं, इसलिये इनका अभाव प्राप्त होता है। सूत्रमें 'सम्यक्त्व' ऐसा कहने र इस पदसे अनन्तानुबन्धी चारकी विसंयोजना लेनी चाहिये, क्योंकि सम्यक्त्वके साथ इसका सहचार अविनभाव सम्बन्ध है । अर्थात् सम्यक्त्वके सद्भावमें ही अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना पाई जाती है। संयमकाण्डक आठों ही मनुष्योंमें होते हैं।
शंका-इन सबकी इतनी ही संख्या होती है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-सूत्राविरुद्ध अचार्यों के वचनसे या वेदना आदिमें आये हुए सूत्रोंसे जाना जाता है।
शंका-सोंमें आकर संयमासंयम और सम्यक्त्वके साथ पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालतक रहता है यह बात नहीं बनती, क्योंकि तिर्यचोंमें संयमासंयम कुछ कम पूर्वकोटिसे अधिक काल तक नहीं पाया जाता ?
समधान-नहीं, क्योंकि 'तियचोंमें संयमासंयमका पालनकर, फिर दस हजार वर्ष
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गा० २२]
उत्तरपथ डिपदेस विहत्तीए सामित्तं
२५१
हिदिदेवे सुजिय सम्मत्तं घेत्तूण अनंताणुबंधिविसंजोयणाए तत्थ कम्मणिञ्जरं करिय एइ दिए गंतूण पलिदो० असंखे० भागमेत्तकालेण हदसमुप्पत्तियं कम्मं काऊणे ति परियदृणेण तेसिं पलिदो० असंखे० भागमेत्तवाराणमुवलं भादो । कुदो एदं णव्वदे ? उवरिमदेसामासियसुत्तादो | कसायउवसामणवारा जेण चत्तारि चेव उक्कस्सेण तेण चत्तारि वारे कसा उवसामिण एइंदिएसु गदो ति णिहिं । एवं दिएसु पलिदो ० असंखे० भागमेत्तकाले विणा कम्मं हदसमुप्पत्तियं ण होदि त्ति जाणावणहं एइंदिएस पलिदो ० असंखे० भागमच्छिदूण कम्मं हदसमुप्पत्तियं काऊण कालं गदो ति भणिदं । जेणेदं पलिदो० असंखे० भागग्गहणं देसामासियं तेण संजमं घेत्तूण देवेसुप्प जिय तत्थ सम्मत्तं पडिवज्ञ्जिय पुणो एइंदिए गंतूण तत्थ पलिदो ० असंखे ० भागमे त्तकाले कम्म हदसमुप्पत्तियं काऊण णिप्पिडिदि त्ति सव्वत्थ वत्तव्वं । उदयावलिय हिदीणं खवणादिसु हिदिखंडयघादो णत्थि त्ति जाणावहं अपच्छिमे डिदिखंडए अवगदे अहिदिगणाए उदयावलियाए गलतीए त्ति भणिदं । खविदकम्मं सियलक्खणेणागंतूण पलिदो ० असंखे० भागमेत संजमासंजमकंडयाणि तत्तो विसेसाहियमेत्ताणि अणंताणुबंधिविसंजोयणकंडयाणि अड्ड संजमकंडयाणि चदुक्खुत्तो कसायउवसामणाओ करिय आगंतूण पुणो सुहुमणिगोदेसुववज्ञ्जिय तत्थ पलिदोवमस्स असंखेभागमेत्तकालेण
आयुवाले देवों में उत्पन्न हो और सम्यक्त्वको प्राप्त कर अनन्तानुबन्धी चारकी विसंयोजना द्वारा वहाँ कर्मोंकी निर्जराकर फिर एकेन्द्रियोंमें जाकर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा कर्मको हतसमुत्पत्तिक करके इस प्रकार परिवर्तन द्वारा वे पल्यके असंख्यातवें भाग बार पाये जाते हैं ।
शंका- यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान — उपरिम देशामर्षक सूत्रसे जाना जाता है ।
चूंकि कषायोंके उपशमानेके बार अधिकसे अधिक चार ही हैं, इसलिये 'चार बार कषायोंको उपशमाकर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हुआ' यह कहा है । एकेन्द्रियोंमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके बिना कर्म हतसमुत्पत्तिक नहीं होता, यह बात जतानेके लिये 'एकेन्द्रियों में पल्यके असंख्यातवें भाग काल तक रहकर और कर्मको हतसमुत्पत्तिक करके मरा' यह कहा है । चूंकि सूत्रमें जो पल्यके असंख्यातवें भाग इस पदका ग्रहण किया है सो यह पद देशामर्षक है, इसलिये सर्वत्र संयमको ग्रहणकर, अनन्तर देवोंमें उत्पन्न होकर वहां सम्यक्त्वको प्राप्तकर फिर एकेन्द्रियों में जाकर वहां पल्यके असंख्यातवें कालके द्वारा कर्मको हतसमुत्पत्तिक करके वहाँसे निकलता है यह कथन करना चाहिये । उदद्यावलिको प्राप्त स्थितियोंका क्षपणा आदिके समय स्थितिकाण्डकघात नहीं होता इस बातके जताने के लिये 'अन्तिम स्थितिकाण्डकके घात हो जानेपर अधःस्थितिगलनाके द्वारा उदयावलिके गलते समय' यह कहा है । क्षपितकर्माशकी विधिसे आकर फिर पल्यके असंख्यातवें भाग बार संयमासंयमकाण्डकों को, उससे विशेष अधिक बार अनन्तानुबन्धीके विसंयोजनाकाण्डकों को, आठ बार संयमकाण्डकोंको धारण कर अनन्तर चार बार कषायोंको उपशमाकर आया और सूक्ष्म निगोदियों में उत्पन्न हुआ। वहां पल्यके असंख्यातवें भाग कालके द्वारा कर्मको
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२५२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
कम्मं हदसमुत्पत्तियं काढूण पुणो बादरेह दियपजत्तेसुववजिय तत्थ अंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो पुब्बकोडाउअ मणुस्सेमुववज्ञ्जिय सब्बलहुं जोणिणिकमणजम्मणेण अंतोमुहुत्तम्भहियअवस्त्राणि गमिय पुणो सम्मत्तं संजमं च जुगवं पडिवज्ञ्जिय अणंताणुबंधिं विसंजोए दूण पुणो वेदगं पडिवजिदृण दंसणमोहणीयं खविय पुणो देसूणपुब्वकोर्डि संजमगुणसेढिणिञ्जरं करिय पुणे अंतोमुहुत्तावसेसे सिज्झिदव्यए ति तिणि वि करणाणि करिय चारित्तमोहक्खवणाए अन्भुट्टिय पुणो अणियडिअडाए संखेोमु भागेसु गदेसु अट्ठकसायचरिमफालिं परसरूवेण संछुहिय पुणो दुसमयूणावलियमेत्तगोच्छाओ गालिय एगणिसेगे दुसमयकालडिदिगे सेसे अट्ठकसायाणं जहण्णपदं होदित एसो भावत्थो ।
$ २४९. संपहि एत्थ परूवणा पमाणमप्याबहुअमिदि तीहि अणियोगद्दारेहि संचयानुगमं कस्सामो । तं जहा – कम्मट्ठिदिआदिसमय पहुडि उक्कस्सणिल्लेवणकालमेत्ता समयबद्धा जहण्णदव्वे णत्थि । कुदो १ साहावियादो । देसूणपुब्वकोडिमेत्ता वि णत्थि, संजमद्धीए अकसायाणं बंधाभावादो । सेससमयपबद्धाणं कम्मपरमाणू अत्थि | सेसदोअणियोगद्दाराणं परूवणा जाणिय कायव्वा ।
$ २५०. एत्थ पयडिगोच्छापमाणानुगमं कस्सामो । तं जहा — दिवडगुणिदेगसमयपबद्धे दिवगुणहाणीए ओवट्टिदे पयडिगोबुच्छा आगच्छदि,
इतसमुत्पत्ति करके फिर बादर एकेन्द्रिय पर्याप्तकोंमें उत्पन्न हुआ। वहां अन्तर्मुहूर्त काल तक रहा। फिर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर अतिशीघ्र योनिसे निकलनेरूप जन्म से लेकर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष बिताकर फिर सम्यक्त्व और संयमको एकसाथ प्राप्त करके और अनन्तानुबन्धी चारकी विसंयोजना कर फिर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त कर और दर्शनमोहनीयकी क्षपणा कर फिर कुछ कम पूर्वकोटि काल तक संयम गुणश्रेणिनिर्जराको करके फिर सिद्ध पदको प्राप्त करनेके लिये जब अन्तर्मुहूर्त काल शेष रह जाय तब तीनों करणों को करके चरित्रमोहनीयकी क्षपणाके लिये उद्यत हुआ । फिर अनिवृत्तिकरणके कालमें संख्यात बहुभागके व्यतीत होनेपर आठ कषायोंकी अन्तिम फालिको पर प्रकृतिरूपसे निक्षिप्त कर फिर दो समय कम एक आवलि प्रमाण गोपुच्छाओंको गलाकर दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकके शेष रहने पर आठ कषायोंका जघन्य पद होता है यह इस सूत्रका भावार्थ है ।
६ २४९. अब यहां प्ररूपणा, प्रमाण और अल्पबहुत्व इन तीन अनुयोगोंके द्वारा संचयका विचार करते हैं जो इस प्रकार है -- कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर उत्कृष्ट निर्लेपन कालप्रमाण समयप्रबद्ध जघन्य द्रव्यमें नहीं हैं क्योंकि ऐसा स्वभाव है । कुछ कम पूर्वकोटि काल प्रमाण समयप्रबद्ध भी जघन्य द्रव्यमें नहीं हैं, क्योंकि संयमकालमें आठ कषायका बन्ध नहीं होता । शेष समयप्रबद्धों के कर्मपरमाणु हैं । शेष दो अनुयोगद्वारोंका कथन जान कर करना चाहिये |
६ २५०. अब यहां प्रकृतिगोपुच्छाके प्रमाणका विचार करते हैं जो इस प्रकार हैएक समयप्रबद्धको डेढ़ गुणहानिसे गुणा करके फिर उसमें गुणहानिका भाग देने पर प्रकृति
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गां० २२ ]
तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
पुष्वको डिकालम्मि एगगुणहाणीए वि गलणाभावादो। संपहि दिवडुगुणिदसमयपबद्धे चरमफालीए ओट्टिदे विगिदिगोवुच्छा आगच्छदि । सा वि पयडिगोवुच्छादो असंखेअगुणा, चरिमफालिआयामस्स एगगुणहाणीए असंखे० भागत्तादो । पुणो विगिदिगोबुच्छादो अपुव्वाणियद्विगुणसेढिगोवुच्छा असंखे० गुणा, चरिमफालिआयामादो गुणसेढिगोवच्छागमणणिमित्तपलिदोवमासंखेञ्ज भागमे सभागहारस्सासंखेजगुणहीतादो। एवमेदमेगं द्वाणं ।
२५३
* तदो पदेसुत्तर |
६ २५१. तदो जहण्णद्वाणादो पदेसुत्तरं हि द्वाणमत्थि त्ति संबंधो कायन्वो । जेणेदं देसामासियं तेण दुपदेसुत्तरादिसेसट्टाणाणं सूचयं ।
* पिरंतराणि द्वापाणि जाव एगडिदिविस लस्स उक्कस्सपदं । ६ २५२. पदेसुत्तरादिकमेण णिरंतराणि द्वाणाणि ताव गच्छंति जाब एडिदिविसेसस्स दव्वमुकस्सं जादं ति ।
* एदमेगफद्दयौं ।
$ २५३. एत्थ अंतराभावादो ।
* एदेण कमेण अट्टरह पि कसायाणं समयूणावलियमेताणि फयाणि उदयावलियादो ।
गोपुच्छा भाता है, क्योंकि पूर्वकोटि कालके भीतर एक गुणहानिका भी गलन नहीं होता है । अब डेढ़ गुणहानिसे गुणित एक समयप्रबद्ध में अन्तिम फालिका भाग देने पर विकृतिगोपुच्छा आती है । वह भी प्रकृतिगोपुच्छसे असंख्यातगुणी है, क्योंकि अन्तिम फालिका आयाम एक गुणहानिके असंख्यातवें भागप्रमाण है । फिर विकृतिगोपुच्छासे अपूर्वकरणकी गुणश्रेणिगोपुच्छा और अनिवृत्तिकरणकी गुणश्रेणिगोपुच्छा असंख्यातगुणी है, क्योंकि गुणश्रेणिगोपुच्छा प्राप्त करनेके लिये जो पल्यका असंख्यातवां भागप्रमाण भागद्दार है वह अन्तिम फालिके आयामसे असंख्यातगुणा हीन है । इस प्रकार यह एक स्थान है ।
* जघन्य स्थानके ऊपर एक प्रदेश बढ़ाने पर दूसरा स्थान होता है ।
६ २५१. उससे अर्थात् जघन्य द्रव्यसे एक प्रदेश अधिक करने पर दूसरा स्थान होता है । इस प्रकार इस सूत्रका सम्बन्ध करना चाहिये । चूंकि यह सूत्र देशामर्षक है, इसलिये यह दो प्रदेश अधिक आदि शेष स्थानोंका सूचक है ।
इस प्रकार एक स्थितिविशेष के उत्कृष्ट पदके प्राप्त होने तक निरन्तर स्थान होते हैं ।
२५२. एक-एक प्रदेश अधिक होकर निरन्तर स्थान तब तक प्राप्त होते जाते हैं जब जाकर एक स्थितिविशेषका उष्कृष्ट द्रव्य प्राप्त होता है ।
* ये सब स्थान मिलकर एक स्पर्धक है ।
$ २५३. क्योंकि यहाँ अन्तर नहीं पाया जाता ।
* इस क्रमसे आठों ही कषायोंके उदयावलिसे लेकर एक समयकम आवलि प्रमाण स्पधक होते हैं ।
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२५४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ २५४. जेण कमेण पढमफद्दयं परूविदमेदेणेव कमेण समयूणावलियमेत्तफहयाणि परूवेदव्वाणि त्ति भणिदं होदि । कत्तो ताणि परूविजंति ? उदयावलियादो। तं जहादोणिसेगे तिसमयकालढिदिगे धरेदूण डिदस्स' विदियं फद्दयं, खविदकम्मंसियदोद्दोपगदिविगिदिगोवुच्छाहितो दोअपुव्वगुणसेढि गोवुच्छाहितो च गुणिदकम्मंसियपयडि-विगिदिअपुव्वगुणसेढिगोवुच्छाणमसंखेजगुणाणं दुचरिमअणियट्टिगुणसेडिगोवुच्छादो असंखेजगुणहीणतुवलंभादो खविद-गुणिदकम्मंसियाणं चरिमणियट्टिगुणसेढिगोवुच्छाणं सरिसत्तुवलंभादो च ।
६२५५. संपहि जहण्णपगदि-विगिदिअपुव्वगुणसेढिगोवच्छाओ परमाणुत्तरकमेण छप्पि समयाविरोहेण वड्ढावेदव्वाओ जाव असंखेजगुणत्तं पत्ताओ त्ति । णवरि जहण्णविदियफद्दयादो उक्कस्सफद्दयं विसेसाहियं; दोहमणियट्टिगुणसेढिगोवुच्छाणं बड्डीए अभावादो। एवं समयूणावलियमेत्तफयाणमुप्पत्ती पुध पुध परूवेदव्वा । णवरि एदेसिं फद्दयाणमुक्कस्सभावो खविद-गुणिदकम्मंसिएसु देसूणपुव्वकोडिमेत्तकालेण' परिहीणेसु वत्तव्यो।
६ २५४. जिस क्रमसे पहला स्पर्धक कहा है उसी क्रमसे एक समय कम आवलिप्रमाण स्पर्धक कहने चाहिए, यह इस सूत्रका तात्पर्य है।
शंका-इन स्पर्धकोंका कथन कहाँसे लेकर करना चाहिए ?
समाधान-उदयावलिसे लेकर । खुलासा इस प्रकार है-तीन समयकी स्थितिवाले दो निषेकोंको धारणकर स्थित हुए जीवके दूसरा स्पर्धक होता है, क्योंकि क्षपितकर्मा शके दो प्रकृतिगोपुच्छाओं और दो विकृतिगोपुच्छाओंसे तथा अपूर्वकरणकी गुणश्रेणि गोपुच्छासे गुणितकर्मा शके प्रकृति, विकृति और अपूर्वकरणको गुणश्रेणि गोपुग्छाएं असंख्यातगुणी होती हुई भी अनिवृत्तिकरणकी द्विचरम गुणश्रेणिगोपुच्छासे असंख्यातगुणी हीन पाई जाती हैं । तथा क्षपितकर्मा श और गुणितकर्मा शके अनिवृत्तिकरणकी अन्तिम गुणश्रेणिगोपुछाएं समान पाई जाती हैं ।
६२५५. अब दोनों जघन्य प्रकृतिगोपुच्छाऐं, जघन्य दोनों विकृतिगोपुच्छाएं और अपूर्वकरणकी दोनों गुणश्रेणिगोपुच्छाएं इन छहों ही गोपुच्छाओंको एक-एक परमाणु अधिकके क्रमसे असंख्यातगुणी होने तक शास्त्रानुसार बढ़ाओ। किन्तु इतनी विशेषता है कि जघन्य दूसरे स्पर्धकसे उत्कृष्ट स्पर्धक विशेष अधिक है, क्योंकि अनिवृत्तिकरणकी दोनोंके गुणश्रेणि गोपुच्छाएं समान होती हैं, उनमें वृद्धिका अभाव है। इस प्रकार एक समयकम आवलिप्रमाण स्पर्धकोंकी उत्पत्तिका कथन पृथक् पृथक् करना चाहिए । किन्तु इतनी विशेषता है कि इन स्पर्धकोंका उत्कृष्टपना कुछ कम पूर्वकोटि कालसे हीन क्षपितकर्माश और गुणितकर्मा श जीवोंके कहना चाहिये।
१. ता०प्रसौ 'द्विदस्स इति पाठः । २. प्रा०प्रतौ -गोवुच्छाहिती अपुष्वगुणसेढि-' इति पाठः । १.भा०प्रतौ'-पुरावकोडिमेतं कालेण' इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामितं
२५५ ___ अपच्छिमहिदिखंडयस्स' चरिमसमयजहएणपदमादि कादूण जाववुक्कस्सपदेससंतकम्म ति एदमेगं फय। ____६२५६. दुचरिमादिद्विदिखंडयपडिसेहफलो अपच्छिमहिदिखंडयणिदेसो । तस्स दुचरिमादिफालोणं पडिसेहफलो चरिमसमयणिद्द सो । गुणिदकम्मंसियपडिसेहफलो जहण्णपदणिद्द सो । जहण्णचरिमफालीदो जावट्ठकसायाणमुक्कस्सदव्वं ति एत्थ अंतराभावपदुप्पायणफलो एगफद्दयणिद्द सो । संपहि चरिमफालिजहण्णदव्वं घेत्तण कालपरिहाणिं काऊण द्वाणपरूवणाए कीरमाणाए जहा मिच्छत्तस्स कदा तहा कायव्वा, विसेसाभावादो । णवरि देसूणपुव्वकोडी चेव ओदारेदव्वा, हेहा ओदारणे असंभवादो। संपहि चत्तारि पूरिसे अस्सिदण पंचहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वं जाव असंखेजगुणं ति । पुणो चरिमसमयणेरइएण संधाणं करिय ओघुक्कस्सदव्वं ति वड्डाविदे खविदकम्मंसियमस्सिदूण कालपरिहाणीए हाणपरूवणा कदा होदि । एवं गुणिदकम्मसियं पि अस्सिदूण कालपरिहाणीए द्वाणपरूवणा कायव्वा । णवरि एगगोवुच्छाए ऊणं कादणागदो त्ति वत्तव्वं । एवं परूवणाए कदाए गुणिदकम्म सियमस्सिद्ण कालपरिहाणीए अट्ठकसायाणं ढाणपरूवणा कदा होदि । संपहि खविदकम्मंसियमस्सिदण संतकम्मे ओदारिजमाणे मिच्छत्तस्सेव ओदारेदव्वं जाव मिच्छादिहिचरिम
* तथा अन्तिम स्थितिकाण्डकके अन्तिम समयवर्ती जघन्य द्रव्यसे लेकर उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मके प्राप्त होने तक एक स्पर्धक होता है।
६२५६. द्विचरम आदि स्थितकाण्डकोंका निषेध करनेके लिये 'अन्तिम स्थितिकाण्डक' पदका निर्देश किया है । अन्तिम स्थितिकाण्डककी द्विरम आदि फालियोंका निषेध करनेके लिये 'अन्तिम समय' पदका निर्देश किया है । गुणितकर्मा शका निषेध करनेके लिये 'जघन्य' पदका निर्देश किया है । जघन्य अन्तिम फालिसे लेकर आठ कषायोंके उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक इस प्रकार यहाँ अन्तरका अभाव दिखलानेके लिये 'एक स्पर्धक' पदका निर्देश किया है। अब अन्तिम फालिके जघन्य द्रव्यकी अपेक्षा कालकी हानि द्वारा स्थानोंका कथन करने पर जिस प्रकार मिथ्यात्वका कथन किया उसी प्रकार आठ कषायोंका कथन करना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। किन्तु इतनी विशेषता है कि कुछ कम पूर्वकोटि काल हो उतारना चाहिये, इससे और नीचे उतारना सम्भव नहीं है । अब चार परुषोंकी अपेक्षा पाँच वृद्धियोंके द्वारा असंख्यातगणा प्राप्त होने तक बढाना चाहिये। फिर अन्तिम समयवर्ती नारकीसे मिलान करके ओघ उत्कृष्ट द्रव्य तक बढ़ाने पर क्षपितकर्मा शकी अपेक्षा कालकी हानि द्वारा स्थानोंका कथन समाप्त होता है। इसी प्रकार गुणितकर्माशकी अपेक्षा भी कालकी हानिद्वारा स्थानोंका कथन करना चाहिये। इतनी विशेषता है कि एक गोपुच्छा कम करके आया है ऐसा कहना चाहिये । इस प्रकार कथन करने पर गुणितकर्मा शकी अपेक्षा कोलकी हानिद्वारा आठ कषायोंके स्थानोंका कथन समाप्त होता है । अब क्षपितकर्मा शकी अपेक्षा सत्कर्मके उतारने पर मिथ्याददृष्टि के अन्तिम समय २. ता०प्रतौ 'अपच्छिमाडिदिखंडयस्स' इति पाठः ३. ता०मा प्रत्योः -जहण्णपढमादि' इति पाठः ।
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२५६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहती ५
समओ चि । पुणो णवकबंधेणूणगुणसेढिगोवुच्छं वड्डाविय ओदारेदव्वं जाव अपुव्वकरणावलियाए सुहुमणिगोदगोवच्छं पत्तो त्ति । पुणो एत्थ ट्ठविथ पुव्वविहाणेण वडाविय रहएण सह संघिय ओघुकस्सं ति वड्डाविदे खविदकम्म सियमस्सिदूण संतकम्मट्ठाणपरूवणा कदा होदि । संपहि गुणिदकम्म सियं पि अस्सिदूण संतकम्मट्ठाणाणं जाणिदूण परूवणा कायव्वा ।
* अता बंधि मिच्छत्तभगो ।
$ २५५. जहा मिच्छत्तस्स जहण्णसामित्तं परूविदं तहा अणंताणुबंधीणं पि परूवेदव्व, खविदकम्म सियलक्खणेणागंतूण असष्णिपंचिदिएसु पुणो देवेसु च उववज्जिय अंतोमुहुत्ते गदे उवसमसम्मत्तं पडिवजिय पुणो अंतोमुहुत्रेण वेदगसम्मत्तं घेण बेछावडीओ भमिय अनंताणुबंधिचकं विसंजोपण दुसमयकालेगणिसेगधारणेण विसेसाभावादो । पञ्जवडियणए पुण अवलंबिजमाणे अस्थि विसेसो, देवे सुप्पञ्जिय उवसमसम्मत्ते गहिदे तत्थ अनंताणुबंधिचउक्क विसंजोजिय पुणो अंतोमुहुत्तेण मिच्छत्सं गंतूण अधापवत्तेण संकंत कसायदव्वं घेतूण वेछावहिसागरोवमाणि तद्दव्वगालणं करिय जहण सामित्तविहाणादो । एसो विसेसो सुतेणाणुवइडो कुदो णव्वदे !
ताणुबंधिच कस विसंजोयणपयडित्तण्णहाणुववत्तीदो। ण च विसंजोयणपयडोण
के प्राप्त होने तक मिध्यात्वकी तरह उतारना चाहिये । फिर नवकवन्धसे न्यून गुणश्रेणिगोपुच्छाको बढ़ाकर अपूर्वकरणकी आवलिके सूक्ष्म निगोदकी गोपुच्छाको प्राप्त होने तक उतारना चाहिये । फिर यहाँ ठहराकर और पूर्व विधिसे बढ़ाकर नारकीके साथ जोड़कर ओघ उत्कृष्ट के प्राप्त होने तक बढ़ाने पर क्षपितकर्माशकी अपेक्षा सत्कर्मस्थानका कथन समाप्त होता है । अब गुणितकर्माशकी अपेक्षा भी सत्कर्मस्थानोंका जानकर कथन करना चाहिये ।
* अनन्तानुबन्धियोंका भंग मिथ्यात्व के समान है ।
६ २५७. जिस प्रकार मिथ्यात्व के जघन्य स्वामीका कथन किया उसी प्रकार अनन्तानुबन्धियोंके जघन्य स्वामीका भी कथन करना चाहिये, क्योंकि क्षपितकर्माशकी विधि से आकर पहले संज्ञी पंचेन्द्रियोंमें फिर देवोंमें उत्पन्न होकर अन्तर्मुहूर्त जाने पर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हो फिर अन्तर्मुहूर्त काल द्वारा वेदकसम्यक्त्वको ग्रहण कर और दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर अनन्तानुबन्धी चारकी विसंयोजना करके दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करनेकी अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है । परन्तु पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करने पर विशेषता है, क्योंकि देषों में उत्पन्न होकर उपशमसम्यक्त्व के प्रहण करने पर वहाँ अनन्तानुबन्धी चारकी विसंयोजना करके फिर अन्तर्मुहूर्तमें मिथ्यात्व में जाकर और अधःप्रवृत्तभागहारके द्वारा संक्रमणको प्राप्त हुए कषायके द्रव्यको ग्रहण कर फिर दो छयासठ सागर कालतक उसके द्रव्यको गलाकर जघन्य स्वामित्वका कथन किया है ।
शंका - यह विशेषता सूत्रमें नहीं कही फिर कैसे जानी जाती है ?
समाधान — यदि ऐसा न माना जाय तो अनन्तानुबन्धीचतुष्क विसंयोजना प्रकृति नहीं
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
२५७ मण्णहा खविदकम्मसियत्तं संभवइ, विप्पडिसेहादो । अणंताणुबंधीणं कसाएहितो अधापवत्तेण संकंतदव्वं ण पहाणं, तस्स अंतोमुहुत्तमेत्तणवकबंधदव्वं वेछावहिकालेण गालिय पुचव विसंजोइय दुसमयकालेगणिसेगम्मि जहण्णपदेण होदव्वं । ण च संकेतदव्वस्स पहाणत्तं, आयस्स वयाणुसारित्तदंसणादो । ण वेदमसिद्ध, खविदकम्मसियलक्खणेणागंतूण तिपलिदोवमिएसु वेछावहिसागरोवमिएसु च संचिदपुरिसवेददव्वस्स मिच्छत्तं गंतूण पुणो सम्मत्तं पडिवजिय खवगसेढिमारूढस्स णवुसयवेदजहण्णपदपरूवयसुत्तादो तस्स सिद्धीए ? एत्थ परिहारो वुचदे–ण णवकबंधदव्वस्स पहाणत, अंतोमुहुत्तमेत्तसमयपबद्धेसु गलिदवेछावहिसागरोवममेतणिसेगेसु अवसेसदबम्मि एगसमयपबद्धस्स असंखे०भागत्तुवलंभादो। ण च एदं, अणंताणुबंधिचउक्त विसंजोएंतस्स गुणसे ढिणिजराए एगसमयपबद्धस्स असंखे०भागत्तप्पसंगादो। ण च एगसमयपबद्धस्स असंखे०भागेण गुणसेढिणिजरा होदि, तत्थ एगसमएण गलंतजहण्णदव्वस्स वि असंखेजसमयपबद्धपमाणत्तादो। ण च संतदव्वाणुसारिणी गुणसेढिणिज्जरा, खविद-गुणिदकम्मंसिएसु अणियट्टिपरिणामेहि
हो सकती है। तथा अन्य प्रकारसे विसंयोजनारूप प्रकृतिका क्षपितकर्माशपना बन नहीं सकता है, क्योंकि अन्य प्रकारसे मानने में विरोध आता है।
शंका-अधःप्रवृत्त भागहारके द्वारा कषायोंके द्रव्यमेंसे अनन्तानुबन्धियों में संक्रमणको प्राप्त हुआ द्रव्य प्रधान नहीं है, क्योंकि वह अन्तमुहूर्तप्रमाण समयप्रबद्धोंके असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिए अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर न्यूतन बँधे हुए द्रव्यको दो छयासठ सागर कालके द्वारा गलाकर और पहलेके समान विसंयोजना करके दो समयकी स्थितिवाला एक निषेक जघन्य द्रव्य होना चाहिये। यदि कहा जाय कि संक्रमणको प्राप्त हुआ द्रव्य प्रधान है. सो भी बात नहीं है. क्योंकि आय व्ययके अनुसार देखा जाता है। यदि कहा जाय कि यह बात असिद्ध है सो भी बात नहीं है, क्योंकि क्षपितकाशकी विधिसे आकर तीन पल्यकी स्थितिवालोंमें और दो छयासठ सागरको स्थितिवालों में पुरुषवेदके द्रव्य का संचय करके मिथ्यात्वको प्राप्त हो फिर सम्यक्त्वको प्राप्त हो क्षपकणि पर चढ़े हुए जीवके नपुंसक वेदके जघन्य पदका कथन करनेवाले सूत्रसे उसकी सिद्धि होती है ?
समाधान-अब इस शंकाका निराकरण करते हैं-यहाँ नवकबन्धके द्रव्यकी प्रधानता नहीं है, क्योंकि, अन्तमुहूर्तप्रमाण समयप्रबद्धोंमेंसे दो छयासठ सागर कालके द्वारा निषेकोंके गल जाने पर जो द्रव्य शेष रहता है वह एक समयप्रबद्ध का असंख्यातवाँ भाग पाया जाता है। परन्तु यह बात बनती नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना करनेवाले जीवके गुणश्रेणिनिरामें एक समयप्रबद्धके असंख्यातव भागका प्रसंग प्राप्त होता है। परन्तु एक समयप्रबद्धके असंख्यातवें भागके द्वारा गुणश्रेणि निर्जरा नहीं होती, क्योंकि वहाँ पर एक समय द्वारा गलनेवाला द्रव्य भी असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण पाया जाता है। यदि कहा जाय कि सत्वमें जिस हिसाबसे द्रव्य रहता है उसी हिसाबसे गुणश्रोणिनिर्जरा होती है, सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती गुणसेढिणिजराए समाणत्तण्णहाणववत्तीदो। किं च ण णवकबंधदव्वस्स पहाणतं, 'अणंताणुबंधीणं मिच्छत्तभंगो' त्ति सुत्तेण खविदकम्मंसियत्तस्स परू विदत्तादो। ण च णवकबंधे घेप्पमाणे खविदकम्मंसियत्तं फलवंतं, खविद-गुणिदकम्मंसियाणं संजुत्तद्धाए समाणजोगुवलंभादो। ण च वयाणसारी चेव आओ ति सव्वट्ठ अस्थि णियमो, संजुत्तपढमसमयप्पहु डि आवलियमेत्तकालम्मि वओ पत्थि त्ति सेसकसाएहिंतो अधापवत्तसंकमेण अणंताणबंधीणमागच्छमाणदव्वस्स अभावप्पसंगादो। ण च अभावो, 'बंधे अधापवत्तो' ति सुत्तेण सह विरोहादो। ण च बंधणिबंधणस्स संकमस्स संकममवेक्खिय पवुत्ती, विप्पडिसेहादो। ण पडिग्गहदव्वाणसारी चेव अण्णपयडीहिंतो आगच्छमाणदव्वं ति णियमो वि एस्थ संभवइ, संजुजमाणावत्थं मोत्तूण तस्स अण्णत्थ पवुत्तीदो। ण च वयाणुसारी आओ ण होदि चेवे ति णियमो वि, सव्वघादीणं पि पदेसग्गेण देसघादीहि समाणत्तप्पसंगादो । ण च अणंताणुबंधोणं वुत्तक्कमो णबुंसयवेदादिपयडीणं वोत्तु सकिन्जदे, विसंजोयणपयडीहि अविसंजोयणपयडीणं समाणत्तविरोहादो । तम्हा संकेतदव्वस्सेव पहाणत्तमिदि दडव्वं ।
मानने पर क्षपितकर्माश और गुणितकाशके अनिवृत्तिकरणरूप परिणामों के द्वारा गुणश्रेणि निर्जरा समान नहीं बन सकती है। दूसरे इस प्रकार भी नवकबन्धके द्रव्यकी प्रधानता नहीं है, क्योंकि 'अनन्तानुबन्धियोंका भंग मिथ्यात्वके समान है' इस सूत्र द्वारा क्षपितकोशपनेका कथन किया है। परन्तु नक्कबन्धके ग्रहण करने पर क्षपितकोशपनेकी कोई सफलता नहीं रहती, क्योंकि क्षपितकर्माश और गुणितकर्माश इन दोनोंके अनन्तानुबन्धीसे संयुक्त होनेके कालमें समान योग पाया जाता है। और व्ययके अनुसार ही आय होता है सो यह नियम भी सर्वत्र नहीं है, क्योंकि ऐसा नियम मानने पर अनन्तानुबन्धियोंका संयोग होनेके पहले समयसे लेकर एक आवलि कालके भीतर अनन्तानुबन्धीका व्यय नहीं है इसलिये उस समय शेष कषायोंके द्रव्यमेंसे अधःप्रवृत्त संक्रमणके द्वारा जो अनन्तानुबन्धीका द्रव्य आता है उसका अभाव प्राप्त होता है। परन्तु उसका अभाव तो किया नहीं जा सकता है, क्योंकि ऐसा मानने पर उक्त कथनका 'अधःप्रवृत्त संक्रमण बन्धके समय होता है' इस सूत्रके साथ विरोध आता है। यदि कहा जाय कि जो संक्रम बन्धके निमित्तसे होता है उसकी प्रवृत्ति संक्रमके निमित्तसे होने लगे, सो भी बात नहीं है, क्योंकि इसका निषेध है। यदि यह नियम लागू किया जाय कि ग्रहण किये कये द्रव्यके अनुसार ही अन्य प्रकृतियोंमेंसे द्रव्य आता है सो यह नियम भी यहां सम्भव नहीं है, क्योंकि अनन्तानुबन्धिके संयोगकी अवस्थाके सिवा इस नियमकी अन्यत्र प्रवृत्ति होती है। तथा 'व्ययके अनुसार आय होता ही नहीं' ऐसा भी नियम नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर सर्वघातियोंके भी प्रदेश देशघातियोंके समान प्राप्त हो जायगे । तथा अनन्तानुबन्धियोंके लिये जो क्रम कह आये हैं वह नपुंसकवेद आदि प्रकृतियोंके लिये भी कहा जा सकता है, सो भी बात नहीं है, क्योंकि विसंयोनारूप प्रकृतियोंके साथ अविसंयोजनारूप प्रकृतियोंकी समानता माननेमें विरोध आता है। इसलिये यहाँ संक्रमणको प्राप्त हुए द्रव्यकी ही प्रधानता है। ऐसा जानना चाहिये।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं विसंजोइजमाणअणंताणुबंधीणं पदेसग्गं किं सव्वघादीसु चेव संकमदि आहो देसवादीसु चेव उभयत्थ वा ? ण पढमपक्खो, चरित्तमोहणिजे कम्मे बज्झमाणे संते तस्स अपडिग्गहत्तविरोहादो। ण विदियपक्खो वि, तत्थ वि पुव्वुत्तदोससंभवादो। तदो तदियपक्खेण होदव्वं, परिसिहत्तादो । एवं च हिदे संते संजुत्तावत्थाए सव्वघादीणं चेव दवेण अणंताबंधिसत्वेण परिणमेयव्वं, अण्णहा अधापवत्तभागहारस्स आणतियप्पसंगादो । णासंखेजत्तं, अणंताणुबंधिदव्वस्स देसघादिपदेसग्गादो असंखेजगुणहीणत्तप्पसंगादो। ण च एवं, उवरिभण्णमाणअप्पाबहुअसुत्तेण सह विरोहादो त्ति ? ण एस दोसो, अधापवत्तभागहारो सजाइविसओ चेव, असंखेजो त्ति अब्भुवगमादो । देसघादिकम्मेहिंतो सव्वधादिकम्माणं संकममाणदव्वस्स पमाणपरूवणा किण्ण कदा ? ण, तस्स पहाणत्ताभावादो।
६२५६. संपहि एत्थ जहण्णदव्वपमाणाशुगमे कीरमाणे पढमं ताव पयडिगोवुच्छपमाणाणुगमं कस्सामो। तं जहा-दिवड्डगुणहाणिगुणिदेगेइंदियसमयपवद्ध अंतोमुहुत्तेणोवट्टिदओकड्डक्कड्डणभागहारेण अंतोमुहुत्तोवट्टिदअधापवत्तेण व छावट्ठिअभंतरणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासिणा दिवड्डगुणहाणीए च ओवट्टिदे पयडिगोवुच्छा आगच्छदि । संपहि विगिदिगोवुच्छा पुण दिवड्डगुण
शंका-विसंयोजनाको प्राप्त होनेवाले अनन्तानुबन्धियोंके प्रदेश क्या सर्वधाती प्रकृतियों में ही संक्रान्त होते हैं या देशघाति प्रकृतियों में ही संक्रान्त होते हैं या दोनों प्रकारकी प्रकृतियोंमें संक्रान्त होते हैं ? इनमेंसे पहला पक्ष तो ठीक नहीं, क्योंकि चरित्रमोहनीयकर्मका बन्ध होते समय उसे अपग्रह माननेमें विरोध आता है। दूसरा पक्ष भी ठीक नहीं है, क्योंकि वहां भी पूर्वोक्त दोष सम्भव है। इसलिये परिशेष न्यायसे तीसरा पक्ष होना चाहिये । ऐसा होते हुए भी अनन्तानुबन्धीके पुनः संयोगकी अवस्थामें सर्वघातियोंके ही द्रव्यको अनन्तानुबन्धीरूपसे परिणमना चाहिये, अन्यथा अधःप्रवृत्तभागहारको अनन्तपनेका प्रसंग प्राप्त होगा। यदि कहा जाय कि वह असंख्यातरूप रहा आवे सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर अनन्तानुबन्धीका द्रव्य देशघातिद्रव्यसे असंख्यातगुणा हीन प्राप्त होता है। परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर आगे कहे जानेवाले सूत्रसे विरोध आता है।
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अधःप्रवृत्त भागहार अपनी जातिको विषय करता हुआ ही असंख्यातरूप है, ऐसा स्वीकार किया गया है।
शंका-देशघाति कर्मोशमेंसे सर्वघाति कर्मों में संक्रमणको प्राप्त होनेवाले द्रव्यके प्रमाणका कथन क्यों नहीं किया?
समाधान नहीं, क्योंकि उसकी प्रधानता नहीं है।
६२५६. अब यहां पर जघन्य द्रव्यके प्रमाणका विचार करते समय पहले प्रकृति गोपुच्छाके प्रमाणका विचार करते हैं जो इस प्रकार है-डेढ़ गुणहानिसे गुणा किये गये एकेन्द्रियके एक समयप्रबद्ध में अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार, अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अधःप्रवृत्तभागहार, दो छयासठ सागरके भीतर नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि और डेढ़ गुणहानि इन सब भागहारोंका भाग देने पर प्रकृत्तिगोपुच्छा आती है।
१. ता०प्रती एवं चरि (हि) दे आ०प्रतौ ‘एवं च रिदे' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ति ५ हाणिगुणिदेगेहंदियसमयपबद्ध अंतोमुहुत्तोवट्टिदओकडुक्कड्डण-अधापवत्तभागहारेहि व छावद्विअन्भंतरणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासिणा चरिमफालीए च ओवट्टिदे आगच्छदि । एत्थ जहा मिच्छत्तस्स विगिदिगोवुच्छाए संचयकमो परूविदो तहा परूव यव्यो, विसेसाभावादो । अपुव्व-अणियट्टिगुणसेढिगोवुच्छाओ पुण मिच्छत्तस्सेव परूव दवाओ, परिणामवसेण तासिं समुप्पत्तीए।
___$२५७. एदम्मि जहण्णदव्वे एगपरमाणुम्मि वड्डिदे विदियहाणं, दोसु वडिदेसु तदियं । एवं वड्ढावेदव्वं जाव एगगोवुच्छविसेसो एगसमयं विज्झादभागहारेण परपयडीसु संकेतदव्वं च वड्डिदं ति । एवं वड्विदूण द्विदेण अण्णेगो समयणवेछावट्ठीओ भमिय अणंताणुबंधिचउक विसंजोइय दुसमयकालहिदिमेगणिसेगं धरिय द्विदो सरिसो।
२५८. एवमेदेण बीजपदेण दुसमयूणादिकमेण ओदारेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तूणवेछावडीओ ओदारिय क्वविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण देवेसुववजिय सम्मत्तं घेत्तण पुणो अणंताणुबंधिचउक्क विसंजोइय अंतोमु हुत्तेण संजुत्तो होदण सम्मत्तं पडिवन्जिय पुणो अणंताणुबंधिचउक्क विसंजोइय दुसमयकालहिदिमेगणिसेग धरिय द्विदो त्ति ।
परन्तु डेढ़ गुणहानिसे गुणा किये गये एकेन्द्रियके एक समयपबद्ध में अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्षणउत्कर्षणभागहार, अधःप्रवृत्तभागहार, दो छयासठ सागरके भीतर प्राप्त हुई नानागुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्तराशि और अन्तिम फालिका भाग देने पर विकृतिगोपुच्छा प्राप्त होती है। जिस प्रकार मिथ्यात्वकी विकृतिगोपुच्छाके संचयका क्रम कहा है उसी प्रकार यहां भी कहना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। परन्तु अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणकी गुणश्रेणिगोपुच्छाओंका कथन मिथ्यात्वके समान ही करना चाहिए, क्योंकि उनकी उत्पत्ति परिणामोंके अनुसार होती है।
६२५७. इस जघन्य द्रव्यमें एक परमाणु बढ़ाने पर दूसरा स्थान होता है और दो परमाणु बढ़ाने पर तीसरा स्थान होता है । इस प्रकार एक गोपुच्छा विशेष और एक समयमें विध्यात भागहारके द्वारा पर प्रकृतिमें संक्रमणको प्राप्त हुए द्रव्यकी वृद्धि होने तक बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो एक समयकम दो छयासठ सागर कालतक भ्रमणकर और अनन्तानुबन्धि चतुष्ककी विसंयोजना कर दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण कर स्थित है।
६२५८. इस प्रकार इस बीजपदसे दो समयकम आदिके क्रमसे तब तक उतारते जामा चाहिये जब तक अन्तर्मुहूर्तकम दो छयासठ सागर काल उतार कर वहाँ पर क्षषितकर्मा शकी विधिसे आकर, देवोंमें उत्पन्न हो और सम्यक्त्वको ग्रहणकर फिर अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना कर फिर अन्तमुहूर्तमें उससे संयुक्त हो, सम्यक्त्वको प्राप्त कर फिर अनन्तानुबन्धी चतुष्काकी विसंयोजना कर दो समयको स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित होवे ।
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मा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं २५९. संपहि एसो पंचहि वड्डीहि वडावेदव्वो जावप्पणो जहण्णदव्यमधापवत्तभागहारेण गुणिदमेत्तं जादं ति । संपहि एदेण अवरेगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण असणिपंचिंदिएसु देवेतु च उववज्जिय' सम्मत्तं घेत्तण अणंताणु०चउक विसंजोइय दुसमयकालहिदिमेगणिसेग धरिय द्विदो सरिसो।
२६०. संपहि एत्थतणपगदि-विगिदिगोवच्छाओ अपुव्वगुणसेढिगोवुच्छा च मिच्छत्तस्सेव वड्ढावेदव्वाओ जाव सत्तमाए पुढवीए अणंताणुबंधिदव्यमुक्कस्सं करिय तिरिक्खेसुववज्जिय पुणो देवेसुववन्जिय सम्मत्तं घेत्तण अणंताणु०चउक्क विसंजोइय दुसमयकालहिदिमेगणिसेग धरिय द्विदो त्ति ।
२६१ संपहि इमेण अण्णेगो सत्तमाए पुढवीए अंतोमुहुत्तेणुक्कस्सदव्वं होहदि त्ति विवरीयं गतूणप्पणो उक्कस्सदरमसंखेजभागहीणं काऊण सम्मत्तं पडिवञ्जिय पुणो अणंताणु०चउक विसंजोएदूणेगणिसेग दुसमयकालं धरेदूण हिदो सरिसो। एदं दव्वं परमाणुत्तरकमेण अप्पणो उकस्सदव्यं ति वड्ढावेदव्वं । एवम गफद्दयविसयाणमणंताणं ठाणाणं परवणा कदा।
६२६२. संपहि दुसमयणावलियमेत्तफद्दयविसयहाणाणं परूवणाए कीरमाणाए जहा मिच्छत्तस्स परूवणा कदा तहा परवेयव्वा । संपहि चरिमफालिपरूवणकमो
६२५९. अब इस द्रव्यको पाँच वृद्धियों के द्वारा अपने जघन्य द्रव्यको अधःप्रवृत्त भागहारसे गुणा करके जितना प्रमाण हो उतना प्राप्त होनेतक बढ़ाते जाना चाहिये । अब इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर असंज्ञी पंचेन्द्रिय और देवोंमें उत्पन्न होकर फिर सम्यक्त्वको ग्रहण कर और अनन्तानुबन्धी चारकी विसंयोजना कर दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित है।
६२६०. अब यहाँकी प्रकृतिगोपुच्छा, विकृतिगोपुच्छा और अपूर्वकरणकी गुणश्रोणि पिचळाको मिथ्यात्वके समान तब तक बढाना चाहिये जब जाकर सातवीं प्रथिवीमें अनन्तानुबन्धी चारके द्रव्यको उत्कृष्ट करके तिर्यचोंमें उत्पन्न हो फिर देवोंमें उत्पन्न हो और वहाँ सम्यक्त्वको ग्रहणकर फिर अनन्तानुबन्धी चारको विसंयोजना कर दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारणकर स्थित होवे।
६२६१. अब इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो सातवीं पृथिवीमें अन्तमुहूर्तमें उत्कृष्ट द्रव्य होगा किन्तु लौटकर और अपने उत्कृष्ट द्रव्यको असंख्यात भागहीन करके सम्यक्त्वको प्राप्त होकर फिर अनन्तानुबन्धीचतुष्कको विसंयोजना करके दो समयकी स्थितिषाले एक निषेकको धारण करके स्थित है। फिर इस द्रव्यको एक परमाणु अधिकके क्रमसे अपना उत्कृष्ट द्रव्य प्राप्त होने तक बढ़ाते जाना चाहिये । इस प्रकार एक स्पर्धकके विषयभूत अनन्त स्थानोंका कथन किया।
२६२. अब दो समय कम आवलिप्रमाण स्पर्धकोंके विषयभूत स्थानोंका कथन करने पर जिस प्रकार मिथ्यात्वका कथन किया है उसी प्रकार कथन करना चाहिये।
1. आप्रतौ 'देवेसु च एत्थुववजिय' इति पाठः ।
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२६२
जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहन्ती ५ वुम्बदे । तं जहा — खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण देवसुववजिय सम्मतं घेत्तूण अणंताणुबंधिचउकं विसंजोएदूण संजुत्तो होदून सम्मत्तं पडिवजिय वेछावडीओ भमिय अनंताणु० चउकं विसंजोइय चरिमफालिं धरेण द्विदम्मि अनंतभागवड्डि-असंखेजभागवड्डीहि एगगोवुच्छा एगसमयं विज्झादेण गददव्वं च वढावेदव्वं । एवं वड्ढिदेण अण्गो पुव्वविहाणेण' आगंतूण समयूणवेछावडीओ भमिय चरिमफालिं धरेदूण हिदो सरिसो । एवमेगगोवुच्छं वड्डाविय समयूणादिकमेण ओदारेदव्वं जाव पढमछावही तोमुहुत्तणाति । पुणो तत्थ दृविय पुव्वविहाणेण वड्डाविय सत्तमपुढविणेरइएण सह संधाणं करिय दिव्वं ।
$ २६३. संपहि गुणिदकम्मं सियमस्सिदूण कालपरिहाणीए द्वाणपरूवणं कस्साम । तं जहा - खविदकम्मंसियल क्खणेणागतूण सयलवेच्छावडीओ भमिय अनंताणुबंधिचक विसंजोएदूण एगणिसेग दुसमयकालं धरेदूण द्विदम्मि जहण्णदव्वं होदि । एत्थ परमाणुत्तरकमेण चत्तारि पुरिसे अस्सिदूण वड्ढावेदव्वं पयडि - विगि दिगो वुच्छाओ अपुव्वगुणसेढिगोवुच्छा च उकस्सा जादा ति । णवरि अणियट्टिगुणसेढिगोबुच्छा वड्ढिविवज्जिदा, खविद-गुणिदकम्मंसिएस अणियट्टिपरिणामाणं
जाव
अब अन्तिम फालिके कथन करनेका क्रम कहते हैं जो इस प्रकार है - क्षपितकर्मा शकी विधि से आकर देवों में उत्पन्न हुआ। फिर सम्यक्त्वको ग्रहणकर अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना की । फिर उससे संयुक्त हो सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । फिर दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर अन्तिम फालिको धारण कर स्थित होने पर अनन्तभागवृद्धि और असंख्यात भागवृद्धिके द्वारा एक गोपुच्छाको और एक समय में विध्यावभागहारके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुए द्रव्यको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो पूर्व विधिसे आकर और एक समयकम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमणकर अन्तिम फालिको धारणकर स्थित है । इस प्रकार एक-एक गोपुच्छाको बढ़ाकर एक समयकम आदिके क्रमसे अन्तर्मुहुर्त कम प्रथम छयासठ सागर काल तक उतारना चाहिये । फिर वहां ठहरा कर और पूर्वविधिसे बढ़ा कर सातवीं पृथिवीके नारकीके साथ मिलान करके ग्रहण करना चाहिए ।
९ २६३. अब गुणितकर्मा शकी अपेक्षा कालकी हानि द्वारा स्थानोंका कथन करते हैं जो इस प्रकार है - क्षपितकर्माशकी विधिसे आकर पूरे दो छ्यासठ सागर काल तक भ्रमण कर फिर अनन्तानुबन्धी चतुष्कका विसंयोजन करके दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित हुए जीवके जघन्य द्रव्य होता है। यहां चार पुरुषोंकी अपेक्षा एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे प्रकृतिगोपुच्छा, विकृतिगोपुच्छा और अपूर्वकरणकी गुणश्र ेणि गोपुच्छा इनके उत्कृष्ट होने तक बढ़ाते जाना चाहिये | किन्तु इतनी विशेषता है कि अनिवृत्तिकरणकी गुणश्रेणिगोपुच्छा वृद्धि से रहित है क्योंकि क्षपितकर्माश और गुणितकर्माशके अनिवृत्तिकरणके परिणाम तीनों कालोंमें वृद्धि और
१. प्रा० प्रती 'अण्णेगो अपुब्वविहाणेण' इति पाठः ।
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गा० २२]
तिकालविसयाणं वड्डि-हाणीणमभावादो ।
२६४. एदेण सह अण्णेगो गुणिदकम्मंसिओ एगगोबुच्छा विसेसेणूणुकस्सदव्वं करिय पुब्वविहाणेणागंतूण समयणवेछावडीओ भमिय विसंजोएदूण एगणिसेगं दुसमयकालं धरेण द्विदो सरिसो । संपहि एदेण अध्पणो ऊणोकददव्वे वड्डाविदेण सह अण्णेगो सत्तमपुढवीए ऊणीकदगोवच्छाविसेसो भमिददुसमऊणवेछाबडि सागरोवमो धरिददुसमयकालेग णिसेगो सरिसो ।
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
२६३
$ २६५. एण कमेण वेछावडीओ ओदारेदव्वाओ जाव सत्तमा पुढवीए उक्कस्तदव्वं करियागंतूण दोतिण्णिभवग्गहणणि तिरिक्खेसुववजिय पुणो देवसुववज्जिय सम्मत्तं घे तूण अनंताणुबंधिचक्क विसंजोइय संजुत्ता होण सम्मत्तं पडिवज्जिय सव्वजहणमंतोमुहुत्तमच्छिय पुणो विसंजोएद्ण दुसमयकाल मेगणिसेगं धरेदूण हिदो ति । संपहि एदेण अण्णेगो णारगउकस्सदव्वमधापवत्त भागहारेण खंडेदूण तत्थ एगखंडमेतदव्वसंचयं करिय आगंतूण तिरिक्खेसु देवसु च उववजिय सम्मतं घेतूण पुणो अनंताणुबंधिच विसंजोय दुसमयकाल मेगणिसेगं धरिय हिदो सरिसो । पुणो इमेणपणो ऊणीकददव्वं वड्डाविय पुणो णेरइएण सह संधाणं करिय पुणो तत्थ विय वढावेदव्वं जावु कस्सदव्वं जादं ति । एवमेगफद्दयमस्सिदूण अणंताणं द्वाणाणं परूवणा कदा |
हानिसे रहित होते हैं ।
§ २६४. इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके समान एक अन्य गुणितकर्माश जीव है जो एक गोपुच्छाविशेषसे कम उत्कृष्ट द्रव्यको करके पूर्व विधिसे आकर एक समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर और अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण कर स्थित है। अब अपने कम किये गये द्रव्यको बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो सातवीं पृथ्वी में गोपुच्छा विशेषसे कम उत्कृष्ट द्रव्यको करके और दो समय कम दो छ्यासठ सागर कालतक भ्रमण कर दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण कर स्थित है ।
९ २६५. इस क्रम से दो छयासठ सागर काल तब तक उतारते जाना चाहिए जब जाकर सातवीं पृथ्वीमें उत्कृष्ट द्रव्य करनेके बाद आकर और तिर्यंचोंके दो तीन भव धारण कर फिर देवोंमें उत्पन्न हुआ । पश्चात् सम्यक्त्वको ग्रहण कर अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना की । फिर उससे संयुक्त होकर और सम्यक्त्वको प्राप्त हो सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल तक रहा फिर विसंयोजना कर दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण कर स्थित हुआ । अब इस जीवके समान अन्य एक जीव है जो, नारकियोंके उत्कृष्ट द्रव्यमें अधःप्रवृत्तभागहारका भाग दो जो एक भाग प्राप्त हो, उतने द्रव्यका संचय कर और आकर तिर्यचों व देवों में उत्पन्न हुआ । फिर सम्यक्त्वको ग्रहण कर और अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना कर दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण कर स्थित है । फिर इसके कम किये गये द्रव्यको बढ़ाकर और नारकीके साथ मिलान कर और वहां ठहराकर अपने उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाता जाय । इस प्रकार एक स्पर्धककी अपेक्षा अनन्त स्थानोंका
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२६४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ___ ६२६६. संपहि एदेण कमेण दुसमयूणावलियमेत्तफहयहाणाणं परूबणा कायवा, विसेसाभावादो । संपहि जहण्णसामित्त विहाणेगागतूण वेछावडीओ भमिय विसंजोएदण धरिदचरिमफालिदव्वं जदि वि जहण्णं तो वि समयूणावलियमेत्तफयाणमुक्कस्सदवादो असंखे०गुणं, सगलफालिदव्वस्स असंखे०भागस्सेव गुणसेढीए अवहिदत्तादो गुणसेढिदव्वस्स वि असंखे भागस्सेव उदयावलिआए उवलंभादो। संपहि एवंविहचरिमफालिदव्वं परमाणुत्तरकोण चत्तारि पुरिसे अस्सिदूण पचहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वं जावप्पणो उकस्सदव्वं पत्तं ति । एदेणण्णेगो गुणिदकम्मंसिओ सत्तमाए पुढवीए कदगोवुच्छृणुकस्सदव्वो देवेसु सम्मत्तं पडिवलिय अणंताणुबंधिचउक्क विसंजोएदूण अंतोमुहुत्तेण संजुत्तो होदूण सम्मत्तं पडिवजिय भमिदसमऊणवेछावहिसागरोवमो पणो विसंजोइय धरिदचरिमफालिदव्वो सरिसो। एवं समयणादिकोण जाणिदणोदारेदव्वं जाव पढमछावहिअंतोमुहुसूणा ति । पुणो तत्थ ठविय जहा गुणिदसेढिगोवुच्छाणं संधाणं कदं तहा कादव्वं । पुणो एदेण दव्वेण सरिसं चरिमसमयणेरइयदव्यं घेत्तूण परमाणुत्तरकमेण' वड्ढावेदव्वं जावप्पणो उकस्सदव्वं पत्तं ति।
कथन किया।
६२६६. अब इसी क्रमसे दो समयकम आवलिप्रमाण स्पर्धकोंके स्थानोंका कथन करना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। अब जघन्य स्वामित्वकी विधिसे आकर और दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करता रहा । अन्तमें विसंयोजना कर अन्तिम फालिका द्रव्य प्राप्त होने पर वह यद्यपि जघन्य है तो भी एक समय कम आवलिप्रमाण स्पर्धकोंके उत्कृष्ट द्रव्यसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि पूरे फालिके द्रव्यके असंख्यातवें भागका ही गुणणिरूपमें अवस्थान पाया जाता है । तथा गुणश्रोणिके द्रव्यका भी असंख्यातवां भाग ही उदयावलिमें पाया जाता है। अब इस प्रकारके अन्तिम फालिके द्रव्यको चार पुरुषोंकी अपेक्षा एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे पांच वृद्धियोंके द्वारा अपने उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाते जाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके समान गुणितकर्माश एक अन्य जीव है जो सातवीं पृथिवीमें एक गोपुच्छासे कम उत्कृष्ट द्रव्यको करके क्रमसे देवों में उत्पन्न हुआ और सम्यक्त्वको प्राप्त हो अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना कर अन्तर्मुहूर्तमें उससे संयुक्त हो सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । फिर एक समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर और पुनः अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजनाकर अन्तिम फालिके द्रव्यको धारण कर स्थित है। इस प्रकार एक समय कम आदिके क्रमसे जानकर अन्तर्मुहूर्त कम प्रथम छयासठ सागर कालके समाप्त होने तक उतारते जाना चाहिये। फिर वहां ठहराकर जिस प्रकार गुणित श्रेणिगोपुच्छाओंका सन्धान किया है उस प्रकार करना चाहिये। फिर इस द्रव्यके समान अन्तिम समयवर्ती नारकीके द्रव्यको लेकर एक एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे अपने उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाते जाना चाहिये।
1. प्रा०प्रतौ 'परमाणुतरादिकमेण' इति पाठः ।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहन्तीए सामित्तं
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६ २६७. संपहि खविदकम्मंसियस्स संतकम्ममस्सिदृण द्वाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा — खविदकम्मं सियलक्खणेणागदचरिमफालीए उवरि परमाणुत्तरकमेण वडावेदव्त्रं जावप्पणो गुणसंकमेण गददुचरिमफालिदव्वं त्थिबुकसंक्रमेण गदगुणसेढिदव्वं च वडिदं ति । पुणो एदेण अण्णेगो जहण्णसामित्तविहाणेणागतूण अप्पणी दुरिमफालिं धरिय द्विदो सरिसो । एदेण कमेण वड्डाविय ओदारेदव्वं जाव दुरिमट्टि दिखंडय चरिमसमओ त्ति । पुणो दुरिमडि दिखंडयप्पहुडि फालिदव्व वडावे दव्वं, तस सत्थाणे चेव पदणुवलंभादो । किं तु तस्स त्थिबुकगुणसेढिगोवुच्छं गुणसंकमदव वड्डाविय ओदारेदव्व जाव आवलिय अणियति ।
२६८. पुणो तत्थ ठाइदूण वड्डाविजमाणे तस्समयम्मि त्थिवुक्कसंकमण गदअपुव्वगुणसे ढिगोवच्छागुणसंकमण गददव्व' च वड्डाव देव्व । एवं वडिदूण हिदेण अण्गो जहण्णसामित्तविहाणेणागं तूण समयूणावलियअणियट्टी होदूण ट्ठिदो सरिसो । एवमोदारेदव्व जाव आवलियअपुव्वकरणं पत्तोति । संपहि तो gr अपुव्वगुणसे ढिगोच्छा ण वड्डाविजदि, अपुव्वकरणम्मि उदयादिगुणसेढीए अभावादो । तेण एतो पहुडि एगगोवच्छं गुणसंकमदव्वं च वड्डाविय श्रोदारेदव्वं जाव अपुव्वकरण पढमसमओ त्ति ।
§ २६७. अब क्षपितकर्मांशके सत्कर्मकी अपेक्षा कथन करते हैं जो इस प्रकार हैक्षपितकर्मा की विधिसे आये हुए जीवके अन्तिम फालिके ऊपर एक एक परमाणु अधिक क्रमसे गुणसंक्रमके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुआ अपनी द्विचरम फालिका द्रव्य और स्तिवुक संक्रमणके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुआ गुणश्र ेणिका द्रव्य बढ़ने तक बढ़ाते जाना चाहिए । फिर इसके समान एक अन्य जीव है जो जघन्य स्वामित्व विधिसे आकर अपनी द्विचरम फालिको धारणकर स्थित है। इस क्रमसे बढ़ाकर द्विचरम स्थितिकाण्डकके अन्तिम समय तक उतारना चाहिये | फिर द्विचरम स्थितिकाण्डकसे लेकर फालि द्रव्यको नहीं बढ़ाना चाहिये, क्योंकि उसका पतन स्वस्थानमें ही देखा जाता हैं । किन्तु इसके स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा परप्रकृतिको प्राप्त हुई गुणश्रेणि गोपुच्छाको और गुणसंक्रमके द्रव्यको अनिवृत्तिकरणके एक आवलि काल तक उतारना चाहिये । ९ २६८. फिर वहाँ ठहराकर बढ़ाने पर उस समय में स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुई अपूर्वकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिकी गोपुच्छाको और गुणसंक्रमके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुए द्रव्यको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो जघन्य स्वामित्वकी विधिसे आकर अनिवृत्तिकरणमें एक समय कम एक आवलि काल जाकर स्थित है । इस प्रकार अपूर्वकरणमें एक आवलि काल प्राप्त होने तक उतारना चाहिए। अब इससे नीचे अपूर्वकरणकी गुणश्रेणिगोपुच्छा नहीं बढ़ाई जा सकती, योंकि अपूर्वकरणमें उदयादि गुणश्रेणिका अभाव है, इसलिए यहाँ से लेकर एक गोपुच्छाको और गुणसंक्रमके द्रव्यको बढ़ाते हुए अपूर्वकरणके प्रथम समय तक उतारना चाहिये ।
१. आ० प्रतौ 'मस्सिदूण परूवणं' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ २६९. संपहि एत्थ वहाविजमाणे तस्समयम्मि' गदगुणसंकमदव्वं एगगोवुच्छदव्वं च वड्ढावेदव्यं । एवं वड्डिदूण हिदेण अवरेगो अधापवत्तचरिमसमयहिदो सरिसो।।
६ २७०. संपहि एत्थ वड्डाविजमाणे तस्समयम्मि गदविज्झाददब्वमेत्तं त्थिवुक्कसंकमेण गदगोवुच्छदव्वं च वड्ढावेदव्व । एवं वड्डिदेण अण्णेगो दुचरिमसमयअधापवत्तो सरिसो। एवमोदारेदब जाव वेछावद्विपढमसमओ ति । पुणो तत्थतणदव्वं वडाबेदव्व जावप्पणो जहण्णदव्बमधापवत्तभागहारेण गुणिदमेतं जादं ति । संपहि एदेण अण्णेगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागतूण देवेसुववजिय सम्मत्तं घेत्तण अणंताणुबंधिविसंजोयणाए अब्भुडिय अधापवत्तकरणचरिमसमयद्विदो सरिसो । संपहि एदम्मि दव्वे विज्झादेण संकेतदव्व गोवुच्छदव्वं च वड्ढाव दव्व। पुणो एदेण अण्णेगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागतूण सम्मत्तं पडिवजिय अधापवत्तदुचरिमसमयहिदो सरिसो त्ति । एवं जाणिदूण हेहा ओदारेदव्वंजाव पढमसमयउवसमसम्माइहि त्ति ।
६२७१. संपहि एत्थ पढमसमयसम्मादिहिम्मि वडाविजमाणे तस्समयम्मि गदविज्झाददव्व स्थिवुक्कगुणसेढिगोवुच्छादव पुणो चरिमसमयमिच्छादिहिगुणसेढि
६२६९. अब यहाँ बढ़ाने पर उस समयमें पर प्रकृतिको प्राप्त हुए गुणसंक्रमके द्रव्य को और ५क गोपुच्छाके द्रव्यको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो अधःवृत्तकरणके अन्तिम समयमें स्थित है।
२७०. अब यहाँ पर द्रव्यके बढ़ाने पर उस समयमें पर प्रकृतिको प्राप्त हुए विध्यातसंक्रमणके द्रव्यको और स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुए गोपुच्छाके द्रव्यको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो अधःप्रवृत्तकरणके उपान्त्य समयमें स्थित है। इस प्रकार दो छयासठ सागरके प्रथम समयके प्राप्त होने तक उतारना चाहिए। फिर वहाँ स्थित जीवके द्रव्यको, अपने जघन्य द्रव्यको अधःप्रवृत्त भागहारसे गुणा करने पर जितना प्रमाण हो उतना होने तक, बढ़ाना चाहिये। अब इसके समान एक अन्य जीव है जो क्षपितकाशकी विधिसे आकर देवोंमें उत्पन्न हो सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ फिर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके लिये उद्यत होकर अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें स्थित है। अब इस द्रव्यमें विध्यातके द्वारा पर प्रकृतिमें संक्रान्त हुए द्रव्यको
को और गोपरछाके दव्यको बढाना चाहिए । फिर इसके समान एक अन्य जीव है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर और सम्यक्त्वको प्राप्त हो अधःप्रवृत्तकरणके उपान्त्य समयमें स्थित है। इस प्रकार जान कर उपशमसम्यग्दृष्टिके प्रथम समय तक नीचे उतारते जाना चाहिये।
६२७१. अब यहाँ प्रथम समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके द्रव्यके बढ़ाने पर उस समय अभ्य प्रकृतिको प्राप्त हुए विध्यातसंक्रमणके द्रव्यको, स्तिवुक संक्रमणके द्वारा अन्य प्रकृतिको प्राप्त हुए गुणश्रेणिगोपुच्छाके द्रव्यको तथा अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टिके गुणश्रेणिकी गोपुच्छाको
1. भा० प्रती 'तस्स समयम्मि' इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्त
२६७ गोवुच्छा च वड्डाव दव्वा । एवं वड्डिदूण द्विदपढमसमयसम्मादिछिणा अण्णेगो चरिमसमयमिच्छादिट्ठी सरिसो । पुणो एत्थ वड्डाविजमाणे तस्समयणवकबंधेणं दुचरिमगुणसेढिगोवुच्छादव्वं च वड्डाव दव्वं । एवं वड्डिदेण अण्णेगो दुचरिमसमयमिच्छादिट्ठी सरिसो। एवमोदारेदव्व जाव आवलियअपुवकरणो त्ति । संपहि हेहा ओदारेदु ण सक्कदे, उदए गलिदएइंदियसमयपबद्धमत्तगोबुच्छादो वज्झमाणपंचिंदियसमयपबद्धस्स असंखेन्गुणत्तवलंभादो। तेण इमं दव्व चत्तारि पुरिसे अस्सिदूण परमाणुत्तरकमेण पंचहि वड्डीहि वड्ढावेदव्व जावप्पणो उकस्सदव्व पत्तं ति । संपहि इमेण अण्णेगो रइओ तप्पाओग्गुक्कस्ससंतकम्मिओ सरिसो। संपहि णेरइयदव्व परमाणुत्तरकमण बड्ढावेदव्व जावप्पणो ओघकस्सदव्व पत्तं ति । एवं खविदकम्म सियसंतमस्सिदण णिरंतरहाणपरूवणा कदा।
___६ २७२. संपहि गुणिदकम्मंसियसंतमस्सिदूण ठाणपरूवणाए कीरमाणाए ऊणदव्वं संधीओ च जाणिय परूवणा कायव्वा ।
* णवुसयवेदस्स जहणणयं पदेससंतकम्म कस्स ! ६ २७३. सुगमं ।
तधा चेष अभवसिद्धियपाओग्गण जहणणेण संतकम्मेण तसेसु पागदो संजमासंजमं संजमं सम्मत्तं च बहुसो लद्ध ण चत्तारि वारे
बढाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए प्रथम समयवर्ती सम्यग्दृष्टिके समान एक अन्य जीव है जो अन्तिम समयवर्ती मिथ्यादृष्टि है। फिर यहाँ पर बढ़ाने पर नवकबन्धके बिना उस समय सम्बन्धी द्रव्यको और द्विचरम गुणश्रोणि गोपुच्छाके द्रव्यको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो उपान्त्य समयवर्ती मिथ्यादृष्टि है। इस प्रकार अपूर्वकरणमें एक आवलि काल प्राप्त होनेतक उतारना चाहिये । अब नीचे उतारना शक्य नहीं है, क्योंकि यहाँ उदयमें गलित हुए एकेन्द्रियके समयप्रबद्धप्रमाण गोपुच्छाके द्रव्यसे बँधनेवाला पंचेन्द्रिय सम्बन्धी समयप्रबद्ध असंख्यातगुणा है इसलिए इस द्रव्यको चार पुरुषों की अपेक्षा एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे पाँच वृद्धियोंके द्वारा अपने उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाना चहिये। अब इसके समान एक अन्य नारकी जीव है जो तद्योग्य उत्कृष्ट सत्कर्मवाला है। अब नारकीके द्रव्यको एक-एक परमाणु अधिकके क्रमसे अपने ओघ उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाते जाना चाहिये । इस प्रकार क्षपितकाशके सत्कर्मकी अपेक्षा निरंतर स्थानोंका कथन किया ।
६२७२. अब गुणितकोशके सत्कर्मकी अपेक्षा स्थानोंका कथन करने पर कम द्रन्य और सधिन्योंको जानकर कथन करना चाहिये।
ॐ नसकव दका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है। ६ २७३. यह सूत्र सुगम है।
* उसी प्रकार अभव्योंके योग्य जघन्य सत्कर्म के साथ वसोंमें आया। वहां संयमासंयम, संयम और सम्यक्त्वको बहुत बार प्राप्त कर तथा. चार वार कमायोंको.
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ कसाए उवसामिण तदोतिपलिदोवमिएसु उववरणो। तत्थ अंतोमुहुत्तावसेसे जीविकव्वए ति सम्मत्त घेत्त ण वेछावहिसागरोवमाणि सम्मत्तद्धमणुपालियूण मिच्छत्तं गंत ण णव सयवेदमणस्सेसु उववरणो । सव्वचिर संजममणपालिद ण खर दुमाढत्तो। तदो तेण अपच्छिमहिदिखंडयं संछहमाणं संछडू । उदो णवरि विस सो तस्स चरिमसमयणवुसयवेदस्स जहण्णयं पदेससंतकम्म।
२७४ एत्थ संजमासंजम-संजम-सम्मत्ताणं पडिवजणवारा सव्वुकस्सा ण होति, उक्कस्सेसु संतेसु णिव्वाणगमणं मोत्तण तिण्णिपलिदोवमब्भहियवेछावहिसागरोवमेसु भमणाणुववत्तीदो । तिण्णिपलिदोवमेसु किमट्ठमुप्पाइदो ? तत्थतणणव सयवेदस्स बंधाभावेण एई दिएसु संचिदपदेसग्गस्स परिसादणहूँ । तिपलिदोवमिएसु चेव सम्मत्तं किमिदि पडिवजाविदो ? ण, मिच्छत्तेण सह देवेसुप्पण्णस्स अंतोमुहुत्तकालब्भंतरे णसयव दस्स बंधे संते भुजगारप्पसंगादो त्ति । वछावहिसागरोवमाणि सम्मत्तद्धमणुपालियूण मिच्छत्तं किमिदि गदो ? णव॒सयव दमणुस्सेसु उप्पजणहुँ ।
उपशमा कर अनन्तर तीन पल्यकी आयुवाले जोवों में उत्पन्न हुआ। वहां जीवन में अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर सम्यक्त्वको ग्रहण किया । फिर दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वका पालन कर और फिर मिथ्यात्वको प्राप्त हो नपुसकवंदवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। वहां सबसे अधिक काल तक संयमका पालन कर क्षपणाका आरम्भ किया। फिर उसने संक्रमित होनेवाले अन्तिम स्थितिकाण्डकका संक्रमण किया। उदयमें इतनी विशेषता है कि उसके अन्तिम समयमें नपुंसकवेदका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है।
____६२७४. यहां संयमासंयम, संयम और सम्यक्त्वको प्राप्त करनेके बार सर्वोत्कृष्ट नहीं होते हैं, क्योंकि उनके उत्कृष्ट होने पर निर्वाणगमनके सिवा फिर तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण करना नहीं बन सकता है।
शंका–तीन पल्यवाले जीवोंमें किसलिए उत्पन्न कराया है ?
समाधान-वहां नपुसकवेदका बन्ध न होनेसे एकेन्द्रियोंमें संचित नपुंसकवेदके प्रदेशोंका क्षय करानेके लिये तीन पल्यकी आयुवाले जीवोंमें उत्सन्न कराया है।
शंका–तीन पल्यकी आयुवाले जीवोंमें ही सम्यक्त्व क्यों प्राप्त कराया है ?
समाधान नहीं, क्योंकि यदि मिथ्यात्वके साथ देवोंमें उत्पन्न कराया जाय तो अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर नपुसकवेदका बन्ध होने पर भुजगारका प्रसंग प्राप्त होता है । यह न हो इसलिये तीन पल्य की आयुवाले जीवों में ही सम्यक्त्व उत्पन्न कराया है।
शंका-यह जीव दो छयाठस सागर काल तक सम्यक्त्वकालका पालन कर मिथ्यात्वको क्यों प्राप्त कराया गया?
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
२६९ णव॒सयवेदोदएण विणा अण्णवेदोदएण किमह ण उप्पाइजदि १ ण, परोदएण चडिदस्स पलिदोवमस्स असंखे भागमेत्तचरिमफालिद्विददव्वं मोत्तूण एगुदयणिसेगदव्वाणुवलंभादो । जदि एगुदयणिसेगदव्वं चेव जहण्णददव होदि तो तिण्णि पलिदोवमभहियव छावहिसागरोवमेसु पुणो ण हिंडावेदव्वो, खविदगुणिदकम्मंसिएसु समाणपरिणामेसु गुणसेढिणिसेगं पडि भेदाभावादो ? ण, तिण्णि पलिदोवमन्भहियवछावद्विसागरोवमाणि परिभमिदखवगस्स एगहिदिपगदि-विगिदिगोवुच्छाहितो तत्थ अभमिदखवगस्स एगहिदिपगदिविगिदिगोवुच्छाणमसंखेजगुणत्तुवलंभादो। जदि एवं तो एसो ण मिच्छत्तं पडिवजावेदव्यो, तिण्णिपलिदोवमभहियवेछावहिसागरोवमेसु संचिदपुरिसवेददव्व दिवड्डगुणहाणिगुणिदेगपंचिंदियसमयपबद्धमत्ते अधापवत्तभागहारेण खंडिदे तत्थ एगखंडे णवुसयव दम्मि संकंते अभवसिद्धियपाओग्गजहण्णसंतकम्मेण खवगसेढिमारूढणव सयवेदखवगस्स पगदि-विगिदिगोवुच्छाहिंतो एदस्स पगदिविगिदिगोवुच्छाणमसंखेजगुणत्तुवलंभादो १ ण एस दोसो, बंधपयडीणं सव्वासि पि
समाधान-नपुसकवेदवाले मनुष्योंमें उत्पन्न करानेके लिये ।
का_नपसंकवेदके सिवा अन्य वेदके उदयसे क्यों नहीं उत्पन्न कराया गया ?
समाधान नहीं, क्योंकि अन्य वेदके उदयसे चढ़े हुए जीवके क्षपणाके अन्तिम समयमें पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण अन्तिम फालिमें स्थित नपुसकवेदका द्रव्य पाया जाता है, उदयगत एक निषेकका द्रव्य नहीं पाया जाता, इसलिये नपुसकवेदके सिवा अन्य वेदके उदयसे नहीं उत्पन्न कराया।
शंका-यदि उदयगत एक निषेकका द्रव्य ही जघन्य सत्कर्मरूपसे विवक्षित है तो तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागर कालके भीतर पुनः नहीं घुमाना चाहिये, क्योंकि समान परिणामवाले क्षपितकर्माश और गुणितकर्माश जीवके गुणश्रेणिके निषेक समान होते हैं, उनमें कोई भेद नहीं पाया जाता ?
समाधान नहीं, क्योंकि जो तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करनेके बाद क्षपक हुआ है उसके एक स्थितिगत प्रकृतिगोपुच्छा और विकृतिगोपुच्छासे वहां नहीं भ्रमण करके जो क्षपक हुआ है उसकी एक स्थितिगत प्रकृतिगोपुच्छा और विकृतिगोपुच्छा असंख्यातगुणी पाई जाती है।
शंका-यदि ऐसा है तो (घुमाने के बाद) इस जीवको मिथ्यात्वमें नहीं ले जाना चाहिये, क्योंकि तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागर कालके भीतर पुरुषवेदका डेढ़ गुणहानिगुणित पंचेन्द्रियका एक समयप्रबद्धप्रमाण जो द्रव्य संचित होता है उसमें अधःप्रवृत्त भागहारका भाग देने पर उसमेंसे एक भागका नपुंसकवेदमें संक्रमण होता है। अब यदि कोई जीव अभव्यके योग्य जघन्य सत्कर्मके साथ क्षपकणिपर चढ़ा तो उसके नपुंसकवेदके उदयके अन्तिम समयमें जो प्रकृतिगोपुच्छा और विकृतिगोपुच्छा होगी उससे इस पूर्वोक्त जीवके प्रकृतिगोपुच्छा और विकृतिगोपुच्छा असंख्यातगुणी पाई जाती है ?
समाधान-यही कोई दोष नहीं है, क्योंकि सभी बन्ध प्रकृतियोंकी आय व्ययके
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ वयाणुसारिआयस्सुवलंभादो । जदि एवं तो तिपलिदोवमिएहितो मिच्छत्तेणेव देव सुप्पाइय किण्ण सम्मत्तं णीदो ? ण, बंधमस्सिदूण गवसयवेदसंतस्स तत्थ भुजगारप्पसंगादो। एत्थ वि अंतोमुहुत्तब्भहियअहवस्सेसु बंधं पडुच्च णवसयवेदसंतस्स भुजगारो होदि ति ण मिच्छत्तं णेदव्यो ? ण, एस दोसो, एदम्हादो संचयादो असंखेजगुणदव्वस्स संजमबलेण गुणसेढीए णिजरुवलंभादो, अण्णहा णव सयव दोदयक्खवगस्स एयदि घेत्तूण सामित्तविहाणाणुववत्तीदो च । मिच्छत्ते पडिवण्णे णवसयव दस्स वयाणुसारी आओ त्ति कुदो णव्वदे ? तिणि पलिदोवमब्भहियव छावहिसागरोवमहिंडावणसुत्तण्णहाणुववत्तीदो । ण च णिप्फलं सुत्तं, जिद्दोसजिणवयणस्स णिप्फलत्ताणुववत्तीदो। वयाणुसारी आओ ण होदि, जोगगुणगारादो असंखेजगुणहीणस्स अधापवत्तभागहारस्स असंखेजगुणत्तप्पसंगादो । णाववादट्ठाणं मोत्तूण अण्णत्थतणअधापवत्तभागहारादो जोगगुणगारस्स असंखेजगुणत्तुवलंभादो ।
अनुसार ही पाई जाती है।
शंका-यदि ऐसा है तो तीन पल्यवालोंमेंसे मिथ्यात्वके साथ ही देवों में उत्पन्न करा कर फिर सम्यक्त्वको क्यों नहीं प्राप्त कराया ?
समाधान नहीं, क्योंकि बन्धके आश्रयसे नपुंसकवेदके सत्वका वहाँ भुजगार होनेका प्रसंग प्राप्त होता है, इसलिये मिथ्यात्वके साथ देवोंमें नहीं उत्पन्न कराया।
शंका-यहां भी अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्षके भीतर बन्धके आश्रयसे नपुंसकवेदके सत्त्वका भुजकार प्राप्त होता है, इसलिए इस जीवको मिथ्यात्वमें नहीं ले जाना चाहिये।
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि मिथ्यात्वकालमें होनेवाले इस संचयसे असंख्यातगुणे द्रव्यको संयमके बलसे गुणणिनिर्जरा पाई जाती है। यदि ऐसा न होता तो नपुंसकवेदके उदयवाले क्षपकके जो एक स्थितिकी अपेक्षा जघन्य स्वामित्वका निर्देश किया है वह नहीं करना चाहिये था।
शंका-मिथ्यात्वके प्राप्त होने पर नपुंसकवेदकी व्ययके अनुसार आय होती है यह किस प्रमोण से जाना जाता है।
समाधान-मिथ्यात्वको प्राप्त होनेसे पहले तीन पल्य अधिक दो छयासठ सागर काल तक घूमनेका कथन करनेवाला सूत्र अन्यथा बन नहीं सकता, इससे जाना जाता है कि मिथ्यात्वमें नपुंसकवेदके व्ययके अनुसार आय होती है। यदि कहा जाय कि उक्त सूत्र निष्फल है सो भी बात नहीं है, क्योंकि निर्दोष जिन भगवानका वचन निष्फल नहीं हो सकता।
शंका–व्यय के अनुसार आय होती है यह बात नहीं बनती, क्योंकि ऐसा मानने पर योग गुणकारसे असंख्यातगुणा हीन अधःप्रवृत्तभागहार उससे असंख्यातगुणा प्राप्त होता है।
समाधान-नहीं, क्योंकि अपवादरूप स्थानको छोड़कर अन्यत्र अधःप्रवृत्तभागहारसे योगगुणकार असंख्यातगुणा उपलब्ध होता है।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्त अधापवत्तभागहारो अणवद्विदो ति कुदो णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो । जदि वयाणुसारी चेव आओ तो गवसयव दस्सेव संजुत्तावत्थाए अणंताणुबंधोणं वओ णत्थि त्ति अण्णपयडीहिंतो आएण ण होदव्व ? ण, विसंजोयणाविसंजोयणपयडीणं अवंतराणं साहम्माभावादो। खविदकम्मसियलक्खणेणागंतूण एइंदिएसु उववजिय पुणो सण्णिपंचिंदिएसु उववन्जिय दाणेण दाणाणुमोदेण वा तिपलिदोवमिएसु उववजिय छहि पज्जत्तीहि पज्जत्त यदस्स णसयव दबंधो थकइ । पुणो तिण्णि पलिदोवमाणि णव सयव दं त्थिउक्कसंकमेण विज्झादसंकमेण च गालिय अंतोमुहुत्तावसेसे सम्मत्तं पडिवन्जिय पढमछावहि भमिय सम्मामिच्छत्तं गंतूण पुणो सम्मत्तं पडिवजिय विदियछावढि भमिय पुणो मिच्छत्तं गतूण गवसयव दो होदूण पुव्वकोडाउअमणुस्सेसुववञ्जिय सव्वलहुं जोणिणिक्खमणजम्मणेण अंतोमुहुत्तब्भहियअवस्सिओ होदूण सम्मत्तं संजमं च जुगवं पडिवन्जिय अणंताणुबंधिचउकं विसंजोइय दंसणमोहणीयं खविय देखणपुव्वकोडिं संजमगुणसेढिणिज्जरं करिय अंतोमुहुत्तावसेसे सिज्झणकाले चारित्तमोहक्खवणाए अब्भुहिय पुणो अणियट्टिअद्धाए संखेजेसु भागेसु गदेसु अट्ठकसाए
शंका-अधःप्रवृत्तभागहार अनवस्थित है अर्थात् वह सर्वत्र एकसा नहीं है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-इसी सूत्रसे जाना जाता है।
शंका-यदि व्ययके अनुसार ही आय होती है तो नपुसकवेदके समान अन्य प्रकृतियोंकी भी आय-व्यय माननी पड़ती है। चूंकि विसंयोजनाके बाद पुनः संयोग होने पर एक आवलिकाल तक अनन्तानुबन्धीका व्यय नहीं है, इसलिये अन्य प्रकृतियों में से उसमें आय भी नहीं होनी चाहिये ?
समाधान नहीं, क्योंकि विसंयोजनारूप प्रकृतियां और विसंयोजनाको नहीं प्राप्त . होनेवाली प्रकृतियां अत्यन्त भिन्न है, इसलिये उनमें समानता नहीं हो सकती।
क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न हो फिर संज्ञी पंचेन्द्रियों में उत्पन्न हुआ। अनन्तर दान देनेसे या दानको अनुमोदना करनेसे तीन पल्यकी आयुवालोंमें उत्पन्न हुआ। वहां छह पर्याप्तियोंसे पर्याप्त होनेके बाद नपुंसकवेदका बन्ध रुक जाता है । फिर तीन पल्य काल तक नपुंसकवेदको स्तिवुकसंक्रमण और विध्यातसंक्रमणके द्वारा गलाकर अन्तर्मुहूर्त काल शेष रह जाने पर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । फिर प्रथम छयासठ सागर काल तक भ्रमणकर सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। फिर सम्यक्त्वको प्राप्त हो दूसरे छयासठ सागर काल तक भ्रमण किया। फिर मिथ्यात्वमें गया और नपुसक वेदके उदयके साथ पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। अनन्तर अतिशीघ्र योनिसे निकलनेरूप जन्मसे लेकर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्षका होकर सम्यक्त्व और संयमको एक साथ प्राप्त हुआ। फिर अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजनाकर दर्शनमोहनीयकी क्षपणा की। फिर कुछ कम एक पूर्व कोटि काल तक संयमसम्बन्धी गुणश्रेणिको निजरा करता हुआ सिद्ध होनेके लिये अन्तर्मुहूर्त कालके शेष रह जाने पर चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हुआ। फिर अनिवृत्तिकरणके कालके संख्यात बहुभाग व्यतीत होने पर पाठ कषाय,
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२७२ . जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ तेरसणामकम्माणि थीणगिद्धितियं च खविय पुणो बारसकम्माणमणुभागस्स देसघादिबंधं करिय पुणो अंतरकरणं समाणिय णवंसयव दस्स खवणं पारभिय पुणो अंतोमुहुत्ते बोलीणे णवसयवदचरिमफालिं सव्वसंकमेण पुरिसव दस्सुवरि संछुहिय एगणिसेगे एगसमयकालडिदिगे सेसे जहण्णदव्व होदि ति भावत्थो ।
६ २७५. संपहि एत्थ उ वसंहारम्मि संचयाणुगमो वुचदे । तं जहाकम्महिदिआदिसमयप्पहुडि उक्कस्सणिल्लेवण-तिण्णिपलिदोवम-बछावद्विसागरोवमपुवकोडिमेत्ताणं कम्महिदिपढमसमयप्पहुडि समयपबद्धाणं जहण्णपदम्मि एगो वि परमाणू णत्थि, कम्मट्ठिदीदो उवरि सव्वसमयपबद्धाणमवहाणामावादो । अवसेससमयपबद्धाणं एगो वा दो वा एवमणंता वा परमाणु अत्थि ।
६ २७६. संपहि एत्थ पगदि-विगिदिगोवुच्छाणं गवसणाकीरमाणाए जहा मिच्छत्तस्स परूवणा कदा तहा कायव्वा । उक्कड्डणाए विज्झादेण च आयव्वयणिरूवणाए मिच्छत्तभंगो । तेण दिवड्डगुणहाणिगुणिदेगेइंदियसमयपबद्धे अंतोमुहुत्तेणोवट्टिदओकडुक्कड्डणभागहारेण तिणिपलिदोवमणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासिणा व छावट्ठिणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासिणा दिवड्डगुणहाणीए च खंडिदे पयडिगोवुच्छा होदि । ओकड्डणभागहारो पलिदो. असंखे०भागमेत्तो। तेण भागहारेण खंडिदेगखंडमेत्तदव्वे सव्वगोवच्छाहिंतो समयं नामकर्मकी तेरह प्रकृतियां और तीन स्त्यानगृद्धि इन सबकी क्षपणा की। फिर बारह कर्मोके अनुभागका देशघातिबन्ध किया। फिर अन्तरकरण करके नपुंसकवेदकी क्षपणाका प्रारम्भ किया। फिर अन्तर्मुहूर्त कालको बिताकर नपुसकवेदकी अन्तिम फालिको सर्वसंक्रमणके द्वारा पुरुषवेदके ऊपर निक्षिप्त किया। अनन्तर एक समयकी स्थितिवाले एक निषेकके शेष रहने पर जघन्य द्रव्य होता है यह इसका भाव है।
.६ २७५. अब यहां उपसंहारका प्रकरण है। उसमें पहले संचयानुगमका कथन करते हैं जो इस प्रकार है-कर्मस्थितिके पहले समयसे लेकर उत्कृष्ट निर्लेपनरूप तीन पल्य, दो छयासठ सागर और एक पर्वकोटि प्रमाण समयबद्धोंका एक भी परमाणु जघन्य द्रव्यमें नहीं है, क्योंकि कर्मस्थितिके ऊपर सब समयप्रबद्धोंको अवस्थान नहीं पाया जाता है । अवशेष समयप्रबद्धोंके एक परमाणु अथवा दो परमाणु इसी प्रकार अथवा अनन्त परमाणु जघन्य द्रव्यमें हैं।
६२७६. अब यहां प्रकृतिगोपुच्छा और वकृतिगोपुच्छाका विचार करने पर जिस प्रकार मिथ्यात्वका कथन किया है उसप्रकार करना चाहिये, क्योंकि उत्कर्षण और विध्यातके निमित्तसे होनेवाले आय और व्ययका कथन मिथ्यात्वके समान है। इसलिये डेढ़ गुणहानिसे गुणा किये गये एकेन्द्रियके एक समयप्रबद्ध में अन्तमुहूर्तसे भाजित अपकण-उत्कर्षणभागहार, तीन पल्यकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि दो छयासठ सागरकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि और डेढ़ गुणहानि इन सब भागहारोंका भाग देने पर प्रकृतिगोपच्छा प्राप्त होती है।
शंका-अपकर्षण भागहार पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । इस भागहारका
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
२७३ पडि गलमाणे पलिदो० असंखे०भागमेत्तकालेण णव सयवेदेण णिस्संतेण होदव्वं, णिरायत्तादो। ण च णिकाचिदत्तादो ण ओकड्डिजदि, सव्वगोवुच्छाणं सबप्पणा णिकाचणाणुववत्तीदो। ओकडणाभागहारस्स पलिदो० असंखे०भागपमाणत्तं फिट्टिदूण असंखेजलोगाणं तत्तप्पसंगादो च । तम्हा ण एस भागहारो' वेछावद्विसागरोवमपरिभमणं च जुजदे ? एत्थ परिहारो वुच्चदे-आएण विणा बहुअं कालमच्छमाणाण' पयडीणमोकणभागहारेण विज्झादभागहारेणेव अंगुलस्स असंखे०भागेण तत्तो पहुएण ना होदव्वं, अण्णहा पुन्वुत्तदोसप्पसंगादो । ओकड्डणभागहारो पलिदो० असंखे०भागो घेव त्ति वक्खाणप्पाबहुएण विरोहो होदि त्ति णासंकणिशं उक्कड्डणाविणाभाविओकड्डणाए तत्थ पलिदो० असंखे०भागपमाणत्तप्परूवणादो। सुत्तेण वक्खाणेण वा विणा कधमेदं णातुं सकिजदे ? ण, वेछावहिसागरोवमेसु सादिरेगेसु हिंडिदेसु वि णवंसयव दसंतकम्म ण णिश्लेविञ्जदि त्ति सुत्तण्णहाणुववत्तीए तस्स सिद्धीदो । तम्हा पयडिगोवुच्छभागहारो पुव्वत्तो चेव णिरवजो त्ति घेत्तव्व।
भाग देने पर एक भागप्रमाण द्रव्य सब गोपुच्छाओं में से प्रतिसमय गलता है, इसलिये पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा नपुसकवेद निःसत्त्व हो जाना चाहिए, क्योंकि नपुंसकवेदकी आय नहीं पाई जाती। यदि कहा जाय कि निकाचित होनेसे अपकर्षण नहीं होता सो भी बात नहीं है, क्योंकि सब गोपुच्छाओंकी पूरी तरहसे निकाचना नहीं बन सकती और अपकर्षण भागहार पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण न रहकर या तो असंख्यात लोकप्रमाण प्राप्त होता है या अनन्तप्रमाण प्राप्त होता है। इसलिए जो प्रकृतिगोपुच्छाको प्राप्त करनेके लिए भागहार कहा है वह नहीं बनता और न दो छयासठ सागर कालतक परिभ्रमण करना बनता है ?
समाधान-अब इस शंकाका समाधान करते हैं-आयके बिना बहुत कालतक विद्यमान रहनेवाली प्रकृतियोंका अपकर्षण भागहार या तो विध्यातभागहारके समान अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण होना चाहिये या उससे भी बड़ा होना चाहिये, अन्यथा पूवोंक्त दोष आता है। यदि कहा जाय कि अपकर्षग भागहार पल्यके असंख्यातव भागप्रम इस प्रकारका व्याख्यान करनेवाले अल्पबहुत्व के साथ पूर्वोक्त कथनका विरोध आता है सो ऐसी आशंका भी नहीं करनी चाहिये, क्योंकि वहाँ पर उत्कर्षणका अविनाभावी अपकर्षणको ही पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है।
शंका-सूत्र या व्याख्यानके बिना यह बात कैसे जानी जा सकती है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि साधिक दो छयासठ सागर काल तक घूमने पर मा नपुंसकवेदका सत्कम निःशेष नहीं होता, इस प्रकार सूत्रका कथन अन्यथा बन नहीं सकता, इससे उक्त कथनकी सिद्धि होती है।
इसलिये प्रकृतिगोपुच्छाका भागहार जो पहले कहा है वही निर्दोष है यह यहां स्वीकार करना चाहिये।
१.पा. प्रतौ 'एसो भागहारो' इति पाठः । २. आ प्रतौ 'काल गच्छमाणाणं' इति पाठः ।
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२७४
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ____६ २७७. संपहि विगिदिगोवुच्छापमाणे इच्छिञ्जमाणे दिवड्डमवणिय चरिमफालिभागहारे ठविदे विगिदिगोवुच्छा आगच्छदि । एवं विहपयडि-विगिदिगोवुच्छाओ अपुव्व-अणियट्टिगुणसेढिगोवच्छाओ च धेरण णवंसयव दस्स जहण्णयं पदं।
तदो पदेसुत्तरं ।
६ २७८. तदो जहण्णसंतफम्मादो ओकडणवसेण पदेसुत्तरे संतकम्मे संते अण्णमपुणरुत्तहाणं होदि । एदं सुत्तं देसमासियं ति कड्ड दुपदेसुत्तर-तिपदेसुत्तरादिअणंताणं णिरंतरढाणाणं परवणा कायव्वा ।
* णिरतराणि हाणाणि जाव तप्पाओग्गो उकसो उदो ति ।
६ २७९. तिण्डं पलिदोवमाणं वेछावहिसागरोवमाणं देसूणपुव्वकोडीए च समयरचणं काऊण णवंसयवेदहाणाणं परूवणा कीरदे । तं जहा—जहण्णदव्वम्मि परमाणुत्तरकमेण एगगोवुच्छविसेसे विज्झाददव्वेणब्भहिए वड्डिदे अणंताणि णिरंतरट्ठाणाणि उप्पजंति । एवं वड्डिदूच्छिदेण अण्णेगो जहण्णसामित्तविहाणेण समयूणवेछावट्ठीओ अंतोमुहुत्तूणाओ भमिय मिच्छत्तं गंतूण मणुसेसुववजिय पुणो जोणिणिक्खमणजम्मणेण' अंतोमुहुत्तब्भहियअहवस्साणि गमिय सम्मत्तं संजमं च
$ २७७. अव विकृतिगोपुच्छाका प्रमाण लानेको इच्छा होने पर पिछले प्रकृतिगोपुच्छाके भागहारमेंसे डेढ़ गुणहानिको निकालकर उसके स्थानमें अन्तिम फालिको भागहाररूपसे स्थापित करने पर विकृतिगोपुच्छा आती है। इस प्रकार प्रकृतिगोपुच्छा, विकृतिगोपुच्छा, अपूर्वकरणकी गुणश्रेणिगोपुच्छा और अनिवृत्तिकरणकी गुणश्रेणिगोपुच्छा इन चार गोपुच्छाओंको मिलाने पर नपुंसकवेदका जघन्य सत्त्वस्थान होता है।
* जघन्य द्रव्यमें एक प्रदेश मिलाने पर दसरा स्थान होता है।
६२७८. उससे अर्थात् जघन्य सत्कर्मसे अपकर्षणाके कारण एक प्रदेश अधिक सत्कर्मके होने पर एक दूसरा अपुनरुक्त स्थान होता है। चूंकि यह सूत्र देशामर्षक है इसलिये इसीप्रकार दो प्रदेश अधिक, तीन प्रदेश अधिक आदि अनन्त निरन्तर स्थानोंका कथन करना चाहिये।
ॐ इस प्रकार तद्योग्य उत्कृष्ट उदय प्राप्त होने तक निरन्तर स्थान होते हैं।
६२७९. तीन पल्य, दो छथासठ सागर और कुछ कम एक पूर्वकोटि इन सबके समयोंको एक पंक्तिरूपसे रचकर नपुंसकवेदके स्थानोंका कथन करते हैं जो इस प्रकार हैं-जघन्य द्रव्यमें उत्तरोत्तर एक एक परमाणुके क्रमसे विध्यातद्रव्यसे अधिक एक गोपुच्छविशेष बढ़ाने पर अनन्त निरन्तर स्थान उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो जघन्य स्वामित्वकी विधिसे आया। भनन्तर एक समय कम दो छयासठ सागरमेंसे अन्तर्मुहूर्त कम कालतक भ्रमण करता रहा । पश्चात् मिथ्यात्वमें जाकर मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। वहाँ योनिसे निकलनेरुप जन्मसे
1. वा प्रतौ 'णिक्कमणजम्मणेण' इति पाः।
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गा० २२] उत्तरपडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
२७५ घेत्तण देसूणपुव्वकोडिं विहरिय चारित्तमोहक्खवणाए अब्भुट्ठिय णqसयवेदस्स एगणिसेगमेगसमयकालं धरेदूण हिदो सरिसो। एवमोदारेदव्वं जाव विदियछावहिपढमसमओ ति। पढमलावट्ठीए ओदारिजमाणाए सम्मामिच्छत्तकालन्भंतरे णत्थि विसेसो त्ति पढमछावही वि पुत्वविहाणेण ओदारेदव्वा जाव खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण तिपलिदोवमिएसु उववजिय पुणो अंतोमुहुत्तावसेसे जीविदव्वे ति सम्मत्तं घेत्तूण दिवड्डपलिदोवमाउएसु देवेसुप्पन्जिय तत्थ अंतोमुहुत्तावसेसे आउए मिच्छत्तं गंतूण पुव्वकोडीए उप्पजिय पुणो जोणिगिक्खमणजम्मणेण' अंतोमुहत्तब्भहियअट्टवस्साणि गमिय सम्मत्तं संजमं च जुगवं घेत्तण देसणपुचकोडिं विहरिय चारित्तमोहक्खवणाए अब्भुटिय णवंसयवेदस्स एगणिसेगमेगसमयकालं धरिय हिदो त्ति ।
६२८०. संपहि देवाउअमोदारेदुं ण सक्विजदि, सोहम्मे समुप्पजमाणसम्मादिट्ठीणं दिवड्डपलिदोवमादो हेट्ठा जहण्णाउआमावादो । सम्मादिट्ठी समऊणदिवड्डपलिदोवमाउएसु देवेसु ण उप्पजदि त्ति कुदो णव्वदे ? सुत्तसमाणाइरियवयणादो। संपहि तिण्णिपलिदोवमाणि ओदारेहामो। तं जहा–खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण
लेकर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष बिताकर सम्यक्त्व और संयमको एकसाथ प्राप्त हुआ । पश्चात् कुछ कम एक पूर्वकोटि काल तक विहार कर चरित्रमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हुआ। पश्चात् जो नपुंसकवेदकी एक समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण कर स्थित है। इस प्रकार दूसरे छयासठ सागरके प्रथम समयके प्राप्त होने तक उतारते जाना चाहिये । प्रथम छयासठ सागर कालके उतारने पर सम्यग्मिथ्यात्व कालके भीतर कोई विशेषता नहीं है, इसलिये प्रथम छयासठ सागर कालको भी पूर्व विधिके अनुसार क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर, तीन पल्यकी आयुवालोंमें उत्पन्न हो पश्चात् जीवनमें अन्तमुहूर्त शेष रहने पर सम्यक्त्वको प्राप्त कर अनन्तर डेढ़ पल्यको आयुवाले देवोंमें उत्पन्न होकर और वहां आयुमें अन्तमुहूर्त शेष रहने पर मिथ्यात्वमें जाकर पश्चात् पूर्वकोटिकी आयुवले मनुष्यों में उत्पन्न होकर फिर योनिसे निकलनेरूप जन्मसे लेकर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष बिताकर सम्यक्त्व और संयमको एक साथ प्राप्त हो पश्चात् कुछ कम एक पूर्वकोटि काल तक बिहार करने के बाद चरित्रमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हो नपुसकवेदके एक समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित हुए जीवके प्राप्त होने तक उतारते जाना चाहिये।
६२८०. अब देवायुको उतारना शक्य नहीं है, क्योंकि सौधर्म स्वर्गमें उत्पन्न होनेवाले सम्यग्दृष्टियोंके डेढ़ पल्यसे कम जघन्य आयु नहीं होती।
शंका-सम्यग्दृष्टि जीव एक समय कम डेढ़ पल्यकी आयुवाले देवोंमें नहीं उत्पन्न होता यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समासान-सूत्रके समान आचार्यवचनसे जाना जाता है। अब तीन पल्यको उतारकर बतलाते हैं जो इसप्रकार है-क्षपितकर्मा शकी विधिसे
१. मा०प्रतौ -जोगिणिक्कमणजम्मणेण' इति पाठः ।
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२७६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [पदेसविहत्ती ५ समऊणतिपलिदोवमिएसुववन्जिय सम्मत्तं घेत्तूण दिवड्डपलिदोवमाउअसोहम्मदेवेसुप्पज्जिय पच्छा मिच्छत्तं गंतूण पुव्वकोडीए उववजिय खवणाए अब्भुटिय णqसयवेदस्स एगणिसेगमेगसमयकालं धरेदूण डिदो पुविल्लेण सरिसो।
२८१. संपहि इमो परमाणुत्तरकमेण एगगोवुच्छविसेसं विज्झादेण गददव्वेणब्भहियं वड्ढावेदव्यो । पुणो एदेण अण्णेगो खविदकम्मंसियलक्खणेण दुसमयणतिपलिदोवमिएसुववन्जिय सम्मत्तं घेत्तण दिवड्डपलिदोवमाउअसोहम्मदेवेसुववन्जिय मिच्छत्तं गंतूण पुव्वकोडीए उववज्जिय खवणाए अन्भुडिय णqसयवेदस्स एगणिसेगमेगसमयकालं धरिय हिदो सरिसो। एवं तिण्णि पलिदोवमाणि हेट्ठा ओदारदव्याणि जाव समयाहियपुव्वकोडी सेसा त्ति । संपहि एत्तो हे ओदारेढुं ण सक्कदे समयाहियपुव्वकोडोदो हेहा असंखेजवस्साउआणं सव्वजहण्णाउअभावादो।। ___२८२. संपहि एदेण अण्णेगो खविदकम्मंसिओ सण्णिपंचिंदिएसुप्पण्णो संतो पुणो समयाहियपव्वकोडीए समहियदिवड्डपलिदोवमहिदिएसु देवेसु उववज्जिय अंतोमुहुत्तं गमिय सम्मत्तं पडिवञ्जिय पणो देवाउग्रं सचमणुपालिय मिच्छत्तं गंतूण पव्वकोडीए उववजिय सम्मत्तं संजमं च घेत्तूण सव्व पव्यकोडिं संजमगुणसेढिणिजरं
आकर एक समयकम तीन पल्यकी आयुवालोंमें उत्पन्न हुआ। पश्चात् सम्यक्त्वको ग्रहणकर डेढ़ पल्यकी आयुवाले सौधर्म स्वर्गके देवोंमें उत्पन्न हुआ। पश्चात् मिथ्यात्वको प्राप्तकर पूर्व कोटिकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। फिर क्षपणाके लिये उद्यत हो नपुसकवेदके एक समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारणकर स्थित हुआ जीव पूर्वोक्त जीवके समान है।
२८१. अब इस जीवके द्रव्यके ऊपर उत्तरोत्तर एक-एक परमाणु अधिकके क्रमसे एक गोपुच्छविशेषको और विध्यातभागहारके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुए द्रव्यको बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर दो समय कम तीन पल्यकी आयुवाले जीवोंमें उत्पन्न हुआ । फिर सम्यक्त्वको ग्रहण कर डेढ़ पल्यकी आयुवाले सौधर्म स्वर्गके देवोंमें उत्पन्न हुआ। फिर मिथ्यात्वमें जाकर पूर्वकोटिके आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। फिर क्षपणाके लिये उद्यत हो नपुंसकवेदकी दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण कर स्थित है। इस प्रकार एक समय अधिक एक पूर्वकोटि काल शेष रहने तक तीन पल्य कालको उतारते जाना चाहिये । अब इससे नीचे उतारना शक्य नहीं हैं, क्योंकि असंख्यात वर्षकी आयुवालोंकी एक समय अधिक एक पूर्वकोटि सबसे जघन्य आयु है। उनकी इससे और नीचे आयु नहीं पाई जाती।
६२८२. अब इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो क्षपितकर्माश जीव संज्ञी पंचेन्द्रियों में उत्पन्न हो, फिर एक समय अधिक पूर्वकोटिकी आयुवालोंमें और एक समय अधिक डेढ़ पल्यकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हो अनन्तर अन्तर्मुहूर्तके बाद सम्यक्त्वको प्राप्त हो फिर सब देवायुको पालकर मिथ्यात्वको प्राप्त हो पूर्वकोटि की आयुवालोंमें उत्पन्न हुआ। अनन्तर सम्यक्त्व जौर संयमको एक साथ ग्रहण कर पूरे पूर्वकोटि काल तक
1. आ०प्रतौ 'समयाहिय' इति पाठः । .
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसबिहत्तीए सामित्तं
२७७ करिय णवंसयवेदं खवेदूण हिदो सरिसो।
६ २८३. संपहि देवाउअं समयूणदुसमयूणादिकमेणोदारेदव्वं जाव खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण दसवस्ससहस्साउअदेवेसुववज्जिय सम्मत्तं घेत्तूण पुणो अंतोमुहुत्तावसेसे मिच्छत्तं गंतूण सयलपुव्वकोडीए उववन्जिय णवंसयवेदं खविय एगणिसेगमेगसमयकालं धरेदूण हिदो त्ति । संपहि देवाउअं समऊणादिकमेण ण
ओहट्टदि दसवस्ससहस्सेहितो ऊणदेवाउआभावादो। तदो समयूण-दुसमयूणादिकमेण पुव्वकोडी ओहट्टावेदव्वा जाव समयणदसवस्ससहस्सूणपव्वकोडि' ति । ___२८४. पुणो एदेणवहिदतप्पाओग्गदव्वेण अण्णेगो खविदकम्मंसियलक्खणेण दसवस्ससहस्साउअदेवेसुववन्जिय अंतोमुहत्तं गमिय तत्थ सम्मत्तं घेत्तण पणो अंतोमुहुत्तावसेसे जीविदव्वए त्ति मिच्छत्तं गंतूण तदो दसवस्ससहस्साणि ऊणपुचकोडीए उववजिय णवंसयवदं खविय एगणिसेगमेगसमयकालं घरेण हिदो सरिसो।
२८५. संपहि एदेण अण्णेगो खविदकम्मंसियलक्खणे देवे मोत्तण संपुण्णपुवकोडाउअमणुस्सेसु' उववण्णो तत्थ जोणिणिक्खमणजम्मण अंतोमुहुत्तब्भहियअहवस्साणि गमिय पुणो सम्मत्तं संजमं च जुगवं घेत्तूण संयमसम्बन्धी गुणश्रेणि निर्जरा करता हुआ नपुसकवेदका क्षय करके स्थित है।
६२८३. अब देवायुको उत्तरोत्तर एक समय कम और दो समय कम आदि क्रमसे क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर दस हजार वर्षकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न होकर, सम्यक्त्वको ग्रहण करके, फिर अन्तर्मुहूर्त आयु शेष रहने पर मिथ्यात्वमें जाकर, पूरी एक पूर्वकोटिकी आयु लेकर उत्पन्न हो नपुंसकवेदका क्षय करता हुआ एक समयकी स्थितिवाले
नषेकको धारणकर स्थित हए जीवके प्राप्त होने तक उतारते जाना चाहिये । अब देवायुको एक समय कम अदि क्रमसे और घटाना शक्य नहीं है, क्योंकि देवायु दस हजार वर्षसे और कम नहीं होती । इसलिए पूर्वकोटिको एक समय कम दो समय कम आदि क्रमसे एक समय न्यून दस हजार वर्ष कम पूर्वकोटिके प्राप्त होनेतक घटाते जाना चाहिये।
६२८४. अब तद्योग्य अवस्थित द्रव्यको धारणकर स्थित हुए इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर, दस हजार वर्षकी आयुवाले देवोंमें उत्पन्न हो फिर अन्तमुहूर्तके बाद वहाँ सम्यक्त्वको ग्रहण कर अनन्तर जीवनमें अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर मिथ्यात्वको प्राप्त हो फिर दस हजार वर्ष कम एक पूर्वकोटिकी आयुवालोंमें उत्पन्न हो नपुंसकवेदका क्षय करता हुआ एक समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण कर स्थित है।
६२८५. अब इसके समान एक अन्य जीव है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर देवोंमें उत्पन्न हुए बिना परी एक पर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। वहाँ योनिसे निकलनेरूप जन्मसे लेकर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष बिताकर फिर सम्यक्त्व
..'-दसवस्सूणपुवकोडि' इति पाठः । . २ श्रा०प्रती 'पुवकोडीए अाउअमणुस्सेसु' उति पाठः । ३. भा०प्रतौ 'जोणिणिकमणजम्मणेण' इति पाठः।..
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२७८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ संजमगुणसेढिणिज्जरं करिय पुणो सिज्झणकालेण सव्वजहण्णमंतोमुहुत्तावसेसे चारित्तमोहक्खवणाए अब्भुट्ठिय णसयवेदचरिमफालिं पुरिसव दसरूवण संचारिय एगणिसेगमेगसमयकालं धरेदण द्विदो सरिसो।।
___$ २८६. संपहि एदस्स दव्वं परमाणुत्तरकमेण एगगोवच्छविसेसमेत्तं वड्ढावेदव्वं । एवं वड्डिदेण अण्णेगो समयूणपुव्वकोडीए उववजिय णवंसयवदं खविय एगणिसेगमेगसमयकालं धरिय द्विदो सरिसो। एवं समयूणादिकमेण सव्वा पुव्वकोडी ओदारदव्या जाव अंतोमुहुत्तब्महियअट्ठवस्साणि चेद्विदाणि ति । खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण मणुस्सेसुववन्जिय सव्वल हुं जोणिणिक्खमणजम्मणेण अंतोमुहुत्तब्भहियअदुवस्साणि गमिय पुणो सम्मत्तं संजमं च जुगव घेत्तण अणंताणुबंधिचउकं विसंजोइय दंसणमोहणीयं खविय चारित्तमोहक्खवणाए अब्भुद्धिय खविय एगणिसेगमेगसमयकालं धरेदूण द्विदं पावदि ताव ओदिण्णो त्ति घेत्तव्व। ___$ २८७. संपहि एवं दव्व खविदकम्मंसियमस्सिदूण दोहि वड्डोहि खविद-गुणिद-घोलमाणे अस्सिदूण पंचहि वड्डीहि गुणिदकम्मंसियमस्सिदूण दोहि वड्डीहि वड्ढावेदव्वं जाव एगो गुणिदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण ईसाणदेव सुववजिय पुणो तत्थ णqसयव दमुक्कस्सं करिय मणुस्सेसुववजिय पणो जोणिणिक्खमणजम्मणण' और संयमको एक साथ प्राप्त हुआ। अनन्तर संयमसम्बन्धी गुणश्रोणिकी निर्जरा करता हुआ जब सिद्ध होनेके लिये सबसे जघन्य अन्तर्मुहूर्त काल शेष रह जाय तब चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हो और नपुसकवेदकी अन्तिम फालिको धारण करके स्थित है।
२८६. अब इसके द्रव्यको उत्तरोत्तर एक एक परमाणुके क्रमसे एक गोपुच्छविशेषके बढ़नेतक बढ़ाते जाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो एक समय कम पूर्वकोटिकी आयुके साथ उत्पन्न हो नपुसकवेदका क्षय करता हुआ दो समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण कर स्थित है। इस प्रकार उत्तरोत्तर एक समय कमके क्रमसे अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष रहने तक पूरी पूर्वकोटिको उतारते जाना चाहिये । तात्पर्य यह है कि क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर मनुष्योंमें उत्पन्न हो, अतिशीघ्र योनिसे निकलनेरूप जन्मसे लेकर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष बिताकर फिर सम्यक्त्व और संयमको एक साथ प्राप्त कर, अनतानुबन्धीचतुष्कको विसंयोजना कर, दर्शनमोहनीयकी क्षपणा कर, चरित्रमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हो नपुंसकवेदका क्षय करते हुए एक समयकी स्थितिले एक निषेकको धारण कर स्थित हुए जीवके प्राप्त होनेतक उतारना चाहिये।
६२८७. अब इस द्रव्यको क्षपितकर्मा की अपेक्षा दो बृद्धियोंके द्वारा क्षपितोगुणित और घोलमान कर्मा शकी अपेक्षा पाँच वृद्धियोंके द्वारा और गुणितकर्मा शकी अपेक्षा द वृद्धियोंके द्वारा तब तक बढ़ाते जाना चाहिये जब जाकर गुणितकर्मा शकी विधिसे आकर ईशान स्वर्गके देवोंमें उत्पन्न हो फिर वहाँ नपुसकवेदको उत्कृष्ट करके पश्चात् मनुष्यों में
१. आ०प्रतौ 'जोणिणिक्कमणजम्मण' इति पाठः । २. आप्रतौ 'जोणिणिक्कमणजम्मणेण' इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
२७९ अंतोमुहुत्तम्भहियअवस्सिओ होदूण चारित्तमोहक्खवणाए अब्भुहिय णवंसयवेदचरिमफालिं पुरिसवेदस्त संचारिय एगणिसेगमेगसमयकालं धरेदण हिदो ति । णवरि पढमवारमपुव्वगुणसेढिगोवुच्छा विदियवारं विगिदिगोवुच्छा तदियवारं पयडिगोवुच्छा समयाविरोहेण वड्ढावेदव्वा । एवं वड्डाविदे अणंतेहि ठाणेहि एगं फद्दयं होदि ।
२८८. संपहि गुणिदकम्मंसियमस्सिदण कालपरिहाणीए ठाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा–खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण तिण्णि पलिदोवमाणि वेछावहीओ च भमिय मिच्छत्तं गंतूण पुणो पुवकोडीए उवववजिय णqसयवेदं खविय एगणिसेगं एगसमयकालं धरेदूण द्विदम्मि जहण्णदव्वं होदि । संपहि एदस्स जहण्णदव्वस्स वड्डावणकमोवुच्चदे। तं जहा—अपुवकरणपरिणामेसुअंतोमुत्तकालभंतरे पुध पुध पंतियागारेण संठिदेसु तत्थ पढमसमयम्हि सव्वजहण्णपरिणामप्पहुडि जाव असंखेजलोगमेत्तपरिणामट्ठाणाणि उवरि गच्छंति ताव एदेहि परिणामेहि ओकड्डिदूण कीरमाणपदेसगुणसेढी सरिसा। कुदो ? साभावियादो। पुणो एत्तियमेत्तमद्धाणं गंतूण डिदपरिणामं परिणममाणस्त पदेसग्गं विसेसाहियं । केत्तियमेत्तेण ? जहण्णदव्वे असंखेजलोगेहि खंडिदे तत्थ एयखंडमेत्तेण । पुणो वि एत्तो उवरि असंखेजलोगमेत्तमद्धाणं उत्पन्न हो फिर योनिसे निकलनेरूप जन्मसे लेकर अन्तर्मुहुर्त अधिक आठ वर्षका होकर चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हो नपुसकवेदकी अन्तिम फालिको पुरुषवेदके ऊपर प्रक्षिप्त करके एक समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण कर स्थित होवे । किन्तु इतनी विशेषता है कि पहली बार अपूर्वकरणकी गुणश्रोणिगोपुच्छाको दूसरी बार विकृतिगोपुच्छाको
और तीसरी बार प्रकृतिगोपुच्छाको यथाविधि बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाने पर अनन्त स्थानोंको मिलाकर
६२८८. अब गुणितकर्मा शकी अपेक्षा कालकी हानि द्वारा स्थानोंका कथन करते हैं जो इस प्रकार हैं-जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर तथा तीन पल्य और दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर अनन्तर मिथ्यात्वको प्राप्त हो फिर एक पूर्वकोटिकी आयुके साथ उत्पन्न हो नपुंसकवेदका क्षय करते हुए एक समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित हुए जीवके जघन्य द्रव्य होता है। अब इस जघन्य द्रव्यको बढ़ानेका क्रम कहते हैं जो इस प्रकार है-अपूर्वकरणके परिणामोंको अन्तर्मुहूर्त कालके भीतर अलग अलग पंक्तिरूपसे स्थापित करे । फिर इनमेंसे पहले समयमें सबसे जघन्य परिणामसे लेकर असंख्यात लोकमात्र परिणामस्थान ऊपर जाने तक इन परिणामोंके द्वारा अपकर्षण होकर जो प्रदेशोंकी गुणश्रेणि रचना की जाती है वह समान है, क्योंकि एसा स्वभाव है। फिर इतना ही स्थान जाकर जो परिणाम स्थित है उससे प्राप्त होनेवाले प्रदेश विशेष अधिक है।
शंका-कितने अधिक हैं ?
समाधान-जघन्य द्रव्यमें असंख्यात लोकका भाग देनेपर जो एक भाग प्राप्त हो उतने अधिक हैं।
फिर भी यहांसे आगे असंख्यात लोकमात्र स्थानोंके प्राप्त होने तक इन परिणामों के 1. प्रा०प्रतौ 'कीरमाणा' इति पाठः। ..............................
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ जाव गच्छदि ताव एदेहि परिणामेहि कीरमाणं. गुणसेढिदव्वं सरिसं चेव । कुदो ? साहावियादो । पणो एत्तियमद्धाणं गंतूण जो हिदो परिणामो सो विसेसाहियपदेसग्गस कारणं । एवं पणेदव्वं जाव उक्कस्सपरिणामट्ठाणे त्ति ।
२८९. संपहि एत्थ विसेसाहियपदेसकारणपरिणामहाणाणि चेव उचिणिदण तस्सरिससेसासेसपरिणामहाणाणि अवणिय एदेसिमुचिणिदूण गहिदपरिणामाणमपुव्वपढमसमयम्मि परिवाडीए रचणाए कदाए एदे वि असंखेजलोगमेत्ता परिणामवियप्पा होति । एवं विदियसमयप्पहुडि जाव चरिमसमओ त्ति ताव द्विदपरिणामपंतीसु पदेसग्गविणाससंखं पडि समाणपरिणामाणमवणयणं काऊण तत्थ तं पडि विसरिसपरिणामाणं चेव रचणा कायव्वा । संपहि पयडिगोवुच्छाए उवरि परमाणुत्तरादिकमेण अणंता परमाणू वड्ढावेदव्वा । एवं वड्डाविय हिदेण अण्णेगो जहण्णसामित्तविहाणेणागंतूण पुणो अपव्वकरणपढमसमयविदियपरिणामेण गुणसेटिं कादण पणो विदियसमयप्पहुडि सव्वजहण्णपरिणामेहि चेव गुणसेटिं करिय एगणिसेगमेगसमयकालं धरेदूण द्विदो सरिसो।
___$ २९०. एवमेदेण बीजपदेण जाणिदूण वड्ढाव दव्वं जाव अपव्वगुणसेढिदव्वमुक्कस्सं जादं ति । एवं वढिदेण अण्णेगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण पुणो अपव्वपढमसमयप्पहुडि जाव चरिमसमओ ति उक्कस्सपरिणामेहि चेव गुणसेटिं द्वारा का जानेवाली गुणश्रेणिका द्रव्य समान ही है, क्योंकि एसा स्वभाव है। फिर इतना ही स्थान जाकर जो परिणाम स्थित है वह विशेष अधिक प्रदेशोंका कारण है । इस प्रकार उत्कृष्ट परिणामस्थानके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए।
६२८९. अब यहां विशेष अधिक प्रदेशोंके कारणभूत परिणामस्थानोंको ही संग्रह कर तथा उन्हींके समान बाकीके सब परिणामस्थानों को निकाल कर और इनका संग्रह करके ग्रहण किये गये इन सब परिणामोंका अपूर्वकरणके प्रथम समयमें परीपाटीसे रचना करने पर ये परिमाणविकल्प भी असंख्यात लोकप्रमाण होते हैं । इस प्रकार दूसरे समयसे अन्तिम समय तककी स्थापित की हुई परिणामोंकी पंक्तिमेंसे, विशेष अधिक प्रदेशोंके कारण भूत असंख्यात असमान परिणामोंकी रचना करनी चाहिये तथा इन्हीं के समान परिणामोंको छोड़ देना चाहिये। अब प्रकृतिगोपुच्छाके ऊपर उत्तरोत्तर एक-एक परमाणु के क्रमसे अनन्त परमाणुओंको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ा कर स्थित हुए जीवके समान अन्य एक जीव है जो जघन्य स्वामित्वकी विधिसे आकर फिर अपूर्वकरणके प्रथम समयवर्ती दूसरे परिणामके द्वारा गुणश्रेणि करके फिर दूसरे समयसे लेकर सबसे जघन्य परिणामोंके द्वारा ही गुणश्रेणि करके एक समय की स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित है।
६२९०. इस प्रकार इस बीज पदके अनुसार जानकर अपूर्वकरणको गुणश्रेणिके द्रव्यके उत्कृष्ट होनेतक बढ़ाना चाहिए । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके समान अन्य एक जीव है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर फिर अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर अन्तिम सयय तक उत्कृष्ट परिणामोंके द्वारा ही गुणश्रीणिको करके एक समयकी स्थिति
१. ता. प्रतौ 'गहिदपरिणायमपुव्व' इति पाठः ।
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गा. २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
२८१ काऊणेगणिसेगमेगसमयं कालं धरेदूण हिदो सरिसो। एवं वड्डाविदे अपुब्वगुणसेटी चेव उक्कम्सा जादा, ण पयडि-विगिदिगोवुच्छाओ।
६ २९१. संपहि विगिदिगोवच्छावड्डावणक्कमो वचदे । तं जहाजहण्णसामित्तविहाणेणागदपयडिगोवुच्छाए उवरि दोहि वड्डीहि अणंता परमाण वड्ढावेदव्वा । एवं वड्डिदेण अण्णेगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागतूण चारित्तमोहक्खवणाए अन्भुट्ठिय पुणो उक्स्सपरिणामेहि अपुव्वगुणसेढिं करिय पुणो अणियदिअद्धाए संखेजे भागे गतूण पढमहिदखंडयं धादियमाणेण तेण ट्ठिदिखंडएण सह पव्वं वड्डाविददव्वमेतं जहण्णविगिदिगोवच्छाए उवरि पक्खिविय पणो विदियादिखंडयाणि पव्वविहाणेण धादिय एगणिसेगमेगसमयकालं धरिय हिदो सरिसो। एदेण कमेण विदियट्ठिदिखंडयप्पहुडि अधियदव्यं पक्खिविय पक्खिविय वढावेदव्वं जाव दुचरिमखंडयं ति । एवं बड्डाविदविगिदिगोवुच्छा वि उक्कस्सत्तमुगगया।
६ २९२. संपहि पयडिगोवुच्छा वडाविजदे । तं जहा–जहण्णपयडिगोवुच्छापरमाणुत्तरादिकमेण चत्तारि परिसे अस्सिदृण पंचहि वड्डीहि वहाव दव्वा जावुकस्सा जादा त्ति । विगिदिगोवुच्छाए उकस्सीए संतीए कथमे किस्से पयडिगोवुच्छाए चेव जहण्णत्तं ? ण, सव्वहिदिगोवुच्छासु उकस्सासु संतीसु वि एगगोवच्छाए
वाले एक निषेकको धारण करके स्थित है । इस प्रकार बढ़ाने पर अपूर्वकरणकी गुणश्रोणि ही उत्कृष्ट होती है प्रकृतिगोपुच्छा और विकृतिगोपुच्छा नहीं।
६२९१. अब विकृतिगोपुच्छाके बढ़ानेका क्रम कहते हैं जो इस प्रकार है-जघन्य स्वामित्वकी विधिसे आये हुए जीवके प्रकृतिगोपुच्छाके ऊपर दो वृद्धियोंके द्वारा अनन्त परमाणु बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान अन्य एक जीव है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हो फिर उत्कृष्ट परिणामोंके द्वारा अपूर्वकरणसम्बन्धी गुणश्रेणिको करके फिर अनिवृत्तिकरणके कालके संख्यात बहुभागको बिताकर, प्रथम स्थितिकाण्डकका घात करते हुए उस स्थितिकाण्डकके साथ पहले बढ़ाये गये द्रव्यप्रमाण द्रव्यको जघन्य विकृतिगोपुच्छाके ऊपर प्रक्षिप्त करके फिर पूर्व विधिके अनुसार दूसरे आदि काण्डकोंका घात करके एक समयकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित है। इस क्रमसे दूसरे स्थितिकाण्डकसे लेकर अधिक द्रव्यको पुनः पुनः मिलाकर द्विचरम स्थितिकाण्डकके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए । इस प्रकार बढ़ाई गई विकृतिगोपुच्छा भी उत्कृष्टपनेको प्राप्त हो गई।
६२९२. अब प्रकृतिगोपुच्छाको बढ़ाते हैं जो इस प्रकार है-जघन्य प्रकृतिगोपुच्छाको उत्तरोत्तर एक एक परमाणुके क्रमसे चार पुरुषोंकी अपेक्षा पांच बृद्धियोंके द्वारा उत्कृष्ट प्रकृतिगोपुच्छाके प्राप्त होने तक बढ़ाते जाना चाहिये।
शंका-विकृतिगोपुच्छाके उत्कृष्ट रहते हुए एकमात्र प्रकृतिगोपुच्छाको ही जघन्यपना कैसे प्राप्त हो सकता है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि सब स्थितियोंको गोपुच्छाओंके उत्कृष्ट रहते हुए भी एक
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ओकडणमस्सिदण असंखेजगुणहीणत्तं पडि विरोहाभावादो। एवं बड्डिदूण हिदेण अण्णेगो गुणिदकम्मंसिओ ईसाणदेव सु णवंसयव ददव्वमुक्कस्सं करियागतूण पुणो तिपलिदोवमिएसुववजिय सम्मत्तं घेत्तूण वेछावडीओ भमिय मिच्छत्तं गतूण पुवकोडीए उववजिय पुणो उक्कस्सअपुव्व परिणामेहि गुणसेढिं करिय खवण एगणिसेगमेगसमयकालं धरेदण द्विदो सरिसो । एवं वड्डाविदे पयडि-विगिदिगोवुच्छाओ अपव्वगुणसेढिगोवुच्छा च उकस्साओ जादाओ । पणो एदेण अण्णगो ईसाणदेवसु णवंसयव दमुकस्सं करमाणो तत्थ विज्झाददव्वसहिदएगगोवुच्छविसेसेणूणमुक्कस्सदव्वं करियाग तूण पुणो समऊणव छावडीओ भमिय णसयषदें खव दूण एगणिसेगमेगसमयकालं धरेदूण हिदो सरिसो । एवं संघीओ जाणिय खविदकम्मंसियम्मि भणिदविहाणेण ओदारेदव्वं जाव अंतोमुहुत्तब्भहियअट्ठवस्साणि त्ति । एवं खविद-गुणिदकम्मसिए अस्सिदूण णसयव दस्स एगफद्दयपरूवणा कदा ।
२९३. संपहि एत्थ गवंसयव दम्मि समयूणावलियम तफद्दयाणि णत्थि, दुचरिमसमयसव दम्मि चरिमफालीए उवलंभादो। तिण्हं व दाणं दुचरिमसमयसव दे चरिमफालीओ अत्थि त्ति कुदो णव्वदे ? उवरि भण्णमाणखवणचुण्णिसुत्तादो ।
8 एद मगं फदय। गोपुच्छा अपकर्षणकी अपेक्षा असंख्यातगुणी हीन होती है इसमें कोई विरोध नहीं है।
इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए एक जीवके समान अन्य एक जीव है गुणितकर्मा शवाला जो जीव ईशानस्वर्गके देवोमें नपुंसक वेदको उत्कृष्ट करके आया फिर तीन पल्यकी आयुवालों में उत्पन्न होकर अन्तमें सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ फिर दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर मिथ्यात्वमें गया और एक पूर्वकोटिकी आयुके साथ उत्पन्न हुआ। फिर अपूर्वकरणके उत्कृष्ट परिणामोंके द्वारा गुणश्रोणिको करके क्षय करता हुआ एक समयकी स्थितिषाले एक निषकको धारण कर स्थित है। इस प्रकार बढ़ाने पर प्रकृतिगोपुच्छा, विकृतिगोपुच्छा और अपूर्वकरणकी गुणश्रणिगोपुच्छा उत्कृष्टपनेको प्राप्त होती हैं। फिर इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो ईशान स्वर्गके देवोमें नपुंसकवेदको उत्कृष्ट करता हुआ वहाँ विध्यातके द्रव्यके साथ एक गोपुच्छा विशेषसे कम उत्कृष्ट द्रव्यको प्राप्त हो आया और एक समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर नपुंसकवेदका क्षय करता हुआ एक समयकी स्थितिवाले एक निषकको धारण कर स्थित है। इस प्रकार सन्धियोंको जानकर क्षपितकर्मा शिकको अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष तक उतारते जाना चाहिये । इस प्रकार क्षपितकर्माश और गुणितकर्मा शकी अपेक्षा नपुंसक वेदके एक स्पर्धकका कथन किया।
६२९३. अब यहां नपुंसकवेदमें एक समयकम आवलिप्रमाण स्पर्धक नहीं हैं, क्योंकि सवेद भागके द्विचरम समयमें अन्तिम फालि पाई जाती है।
शका-तीनों वेदोंके सवेद भागके द्विचरम समयमें चरम फालियां रहती हैं यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-आगे कहे जानेवाले क्षपणाविषयक चूर्णिसूत्रसे जाना जाता है। * यह सब मिलकर एक स्पर्धक होता है।
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गा० २२]
उत्तरपडिपदेसविहत्तीए सामित्तं ६२९४ किंफलमदं सुत्तं ? समयूणावलियमत्तफहयपडिसेहफलं । उवरि भण्णमाणखवणसुत्तादो चैव दुचरिमसमयसव दम्मि चरिमफाली अस्थि ति णव्वदे । तेण तत्तो चेव समयूणावलियम तफयाणं अभावो सिज्झदि त्ति गाढव दव्वमिदं सुत्तं ? ण, अंतरिदसुत्तेसु एत्थाणिय भण्णमाणेसु सिस्साणं मदिवामोहो होदि त्ति तप्पडिसेहट्ठम दस्स पवुत्तीदो।।
® अपच्छिमस्स हिदिखंडयस्स चरिमसमयजहएणपदममादि कादूण जाव उकस्सपदेससंतकम्मणिरतराणि हाणाणि ।
२९५. दुचरिमादिद्विदिखंडयपडिसेहफलो अपच्छिमस्स हिदिखंडयस्से त्ति णिद्द सो। दुचरिमादिफालीणं पडिसेहफलो चरिमसमयणि सो। गुणिदचरिमफालिपडिसेहफलो जहण्णपदणि सो। एदं जहण्णपदमादि कादण जाव तस्सेव उक्कस्सपदेससंतकम्मति णिरंतराणि पदेससंतकम्मट्ठाणाणि होति, विरहकारणाभावादो। संपहि खविदकम्मसियलक्खणेणागतण तिपलिदोवमिएसुववजिय वेछावहीए अंतोमुहुत्तावसेसाए मिच्छत्तं गतूण पुवकोडीए उववजिय णव'सयव दोदएण चारित्तमोहक्खवणाए अब्भुडिय णवंसयवदचरिमफालिं धरेदूण हिदं गेण्हिय ढाणवरूवणं
$ २६४ शंका-इस सूत्रका क्या कार्य है ? समाधान-एक समय कम आवलिप्रमाण स्पर्धकोंका निषेध करना इस सूत्रका कार्य है।
शंका-आगे कहे जानेवाले क्षपणाविषयक सूत्रसे ही सवेदभागके द्विचरम समयमें अन्तिम फालि पाई जाती है यह बात जानी जाती है, इसलिए उसी सूत्रसे ही एक समय कम आवलिप्रमाण स्पर्धकोंका अभाव सिद्ध होता है अतएव इस सूत्रके आरम्भ करनेकी कोई आवश्यकता नहीं रहती ?
समाधान-नहीं, क्योंकि वह सूत्र बहुत अन्तरके बाद आया है । अब यदि उसे यहाँ लाकर कहा जाता है तो शिष्योंको मतिव्यामोह होना सम्भव है, इसलिये उसके प्रतिषेधके लिए अर्थात् एक समय कम आवलिप्रमाण स्पर्धकोंके निषेधके लिए इस सूत्रकी प्रवृत्ति हुई है यह सिद्ध होता है।
* अन्तिम स्थितिकाण्डकके अन्तिम सययवर्ती जघन्य द्रव्यसे लेकर उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मके प्राप्त होने तक निरन्तर स्थान होते हैं।
६२९५. 'अन्तिम स्थितिकाण्डकके' इस पद द्वारा द्विचरम आदि स्थितिकाण्डकोंका निषेध किया है । द्विचरम आदि फालियोंका निषेध करनेके लिए 'अन्तिम समय' यह पद दिया है । गुणितकर्मा शकी अन्तिम फालिका निषेध करने के लिए 'जघन्य' पदका निर्देश किया है। इस जघन्य द्रव्यसे लेकर उसीके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मके प्राप्त होने तक निरन्तर प्रदेशसत्कर्म स्थान होते हैं, क्योंकि कोई विरहका कारण नहीं पाया जाता । अव कोई एक जीव क्ष पितकर्मा'शकी विधिसे आया, तीन पल्यकी आयु वालोंमें उत्पन्न हुआ, अनन्तर दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करता रहा । अनन्तर अन्तर्मुहूर्त शेष रह जाने पर मिथ्यात्वमें जाकर नपसकवेदके उदयके साथ एक पर्वकोटिकी आयवालोंमें उत्पन्न फिर चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हो नपुसकवेदकी अन्तिम फालिको धारण करके
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अवधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ कस्सामो। विदियछावहीए मिच्छत्तमग तूण पुव्वकोडीए उववञ्जिय पुरिसवेदोदएण खरगसेढिं चडिदस्स णवूसयव दचरिमफालिदव्वं जहण्णं होदि । वछावहिसागरोवमकालसंचिदपुरिसवेददव्वे दिवड्डगुणहाणिमेत्ते समयपबद्धे अधापवत्तभागहारेण खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्तदव्वस्स णQसयवेदम्मि अभावादो । तेणिमं चरिमफालिं घेत्तूण हाणवरूवणा किण्ण' कीरदे ? ण, वयाणुसारी चेव आओ होदि ति पुत्वं दत्तत्तरत्तादो । वछावडिकालब्भंतरे गलिदसेसणव सयव ददव्वादो जदि वि अधापवत्तभागहारेण खंडिदेगखंडमेत्तं पुरिसवेददव्वमसंखेजगुणं होदि तो वि ण तत्थ दोसो, एगणिसेगट्ठिदजहण्णदव्वग्गहणादो ति ? ण, पयडि-विगिदिगोवुच्छाणं पुग्विल्लपयडि-विगिदिगोवुच्छाहितो असंखेजगुणत्तप्पसंगादो। ओकड्डणाए जदि वि पयडिगोवच्छदव्यं जहण्णभावण चेव चेट्टदि तो वि विगिदिगोवच्छादव्वण असंखेजगुणेण होदव । दुचरिमादिहिदिखंडएसु हिददव्वे चरिमफालिसरूवण विहंजिदूण पदिदे तस्स जहण्णभावणावट्ठाणविरोहादो। तम्हा चयाणुसारी चेव एत्थ आओ त्ति दहव्वं, अण्णहा वेछावहिकालपरियट्टणस्स विहलत्तप्पसंगादो । जदि किह वि स्थित हुआ । इस प्रकार स्थित हुए इस जीवको अपेक्षा स्थानाका कथन करते हैं
शंका-दूसरे छयासठ सागरके अन्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त हुए बिना पूर्वकोटिक आयुवालोंमें उत्पन्न होकर पुरुषवेदके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़नेवाले जीवके नपुंसक वेदकी अन्तिम फालिका द्रव्य जघन्य होता है, क्योंकि दो छयासठ सागर कालके द्वारा संचित हुए डेढ़ गुणहानिसे गुणित समयप्रबद्ध प्रमाण पुरुषवेदके द्रव्यमें अधःप्रवृत्तभागहारका भाग देनेपर वहां जो एक भाग द्रव्य प्राप्त होता है उतना द्रव्य नपुंसकवेदमें नहीं गया । इसलिये इस अन्तिम फालिकी अपेक्षा स्थानोंका कथन क्यों नहीं किया जाता ?
समाधान नहीं, क्योंकि व्ययके अनुसार ही आय होती है यह उत्तर पहले दिया जा चुका है।
शंका-यद्यपि दो छयासठ सागर कालके भीतर गलकर शेष बचे नपुसकवेदके द्रव्यसे अधःप्रवृत्त भागहारके द्वारा खण्ड करके प्राप्त हुआ एक खण्डप्रमाण पुरुषवेदका द्रव्य असंख्यातगुणा है तो भी वहाँ कोई दोष नहीं है, क्योंकि जघन्य द्रव्यके प्रकरणमें एक निषेकमें स्थित जघन्य द्रव्यका ग्रहण किया है, इसलिये व्ययके अनुसार ही आय होती है इस नियमकी कोई आवश्यकता नहीं रहती।
समाधान-नहीं, क्योंकि इसप्रकार प्रकृतिगोपुच्छा और विकृतिगोपुच्छाको पूर्वोक्त प्रकृतिगोपुच्छा और विकृतिगोपुच्छासे असंख्यातगुणी होनेका प्रसंग प्राप्त होता है । अपकर्षणके द्वारा यद्यपि प्रकृतिगोपुच्छाका द्रव्य जघन्यरूपसे ही रहता है तो भी विकृतिगोपुच्छाका द्रव्य असंख्यातगुणा होना चाहिये, क्योंकि द्विचरम आदि स्थितिकाण्डकोंमें स्थित हुए द्रव्य के अन्तिम फालिरूपसे विभक्त होकर पतित होने पर विकृतिगोपच्छाका जघन्यरूपसे अवस्थान होने में विरोध आता है, इसलिये यहां व्ययके अनुसार ही आय है यह जानना चाहिये, अन्यथा दो छयासठ सागर कालतक परिभ्रमणको विफलता प्राप्त होती है।।
१. प्रा०प्रतौ 'ढाणपरूवणाणि किण' इति पाठः ।
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गा० २१]
उत्तरपतिपदेसविहत्तीए सामित्तं वयादो आओ बहुओ. होदि तो पुरिसव दोदएण खवगसेढिं चडिय णवंसयव दक्खवणपदेसादो उवरिमअद्धाए गुणसंकमेण णवंसयव दादो पुरिसव दं गच्छमाणदव्वस्स असंखे०भागो चेव अहिओ होदि, ण तत्तो बहुओ ति णिच्छओ कायव्यो । कुदो एवं परिच्छिजदे ? सोदएण सामित्तविहाणण्णहाणुववत्तीदो। किंच जदि सुत्तद्दिट्टक्खविदकम्मंसियस्स अपच्छिमद्विदिखंडयचरिमफालीए जहण्णपदं ण होदि तो तिस्से जहण्णपदसामियस्स पुध परूवणं करेज, अण्णहा तजहण्णावगमोवायाभावादो। ण च पुध परूवणं कदं, तम्हा सुत्तुत्तखविदकम्मंसियस्सेव अपच्छिमद्विदिखंडयचरिमसमए चरिमफालीए जहण्णपदं ति घेत्तव्व।
२९६. संपहि एदिस्से चरिमफालीए उवरि परमाणुत्तरादिकमेण एगगोवुच्छा विज्झादेण गच्छमाणदव्वं च वड्ढावयव्यं । एवं वड्डिदेण अण्णेगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागतूण समऊणव छावडीओ भमिय णवंसयव दचरिमफालिं धरेमाणविदो सरिसो । एवमेगेगगोवच्छं ससंकेतदव्व वड्डाविय वड्डाविय वछावडीओ ओदारेदवाओ जाव पढमछावहीए दिवड्डपलिदोवमं सेसं ति । संपहि इमं संधिं तिण्णि पलिदोवमसव्वसंधीओ च णादण जहा खविदकम्मंसियस्स एगफद्दयपरूवणाए परविदं
यद्यपि किसी प्रकारसे व्ययसे आय बहुत होती है तो भी पुरुषवे के उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़कर नपुंसकवेदके क्षय होनेवाले द्रव्यसे आगेके कालमें गुणसंकमके द्वारा नपुंसकवेदमेंसे पुरुषवेदको प्राप्त होनेवाला द्रव्य असंख्यातवां भाग ही अधिक होता है उससे अधिक नहीं होता, इसलिये पुरुषवेदके उदयसे चढ़नेवालेकी अपेक्षा नपुंसकवेदसे चढ़नेवालेका द्रव्य अधिक नहीं होता यहाँ ऐसा निश्चय करना चाहिये ।
शंका—इसप्रकार किस प्रमाणसे जाना ?
समाधान-अन्यथा स्वोदयसे स्वामित्वका कथन नहीं बन सकता । दूसरे यदि सूत्र में कहे गये क्षपितकर्मा शके अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिमें जघन्य पद नहीं होता है तो उसके जघन्य पदके स्वामीका अलगसे कथन करते, अन्यथा उसके जघन्यका ज्ञान होने का अन्य कोई उपाय नहीं है । परन्तु अलगसे कथन नहीं किया है अतएव सूत्र में कहे गये क्षपितकर्मा शिक जीवके ही अन्तिम स्थितिकाण्डकके अन्तिम समयमें प्राप्त अन्तिम फातिमें जघन्य पद होता है ऐसा ग्रहण करना चाहिए।
६२९६. अब इस अन्तिम फालिके ऊपर उत्तरोत्तर एक एक परमाणुके क्रमसे एक गोपुच्छाको और विध्यातभागहारके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त होनेवाले द्रव्यको बढ़ाना चाहिये । इसप्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान अन्य एक जीव है जो क्षपिरुकर्मा शकी विधिसे आकर और एक समय कम दो छथासठ सागर काल तक भ्रमण कर नपुंसकवेदकी अन्तिम फालिको धारण कर स्थित है। इस प्रकार संक्रान्त होनेवाले द्रव्यके साथ एक एक गोपुच्छाको बढ़ाते हुए दो छयासठ सागर कालको तब तक उतारना चाहिए जब उतारते उतारते प्रथम छयासठ सागरमें डेढ़ पल्य शेष रह जाय। अब इस सन्धिको और तीन पल्यकी सब सन्धियोंको जानकर जिस प्रकार क्षपितकर्मा शके एक स्पर्धकके कथनके समय प्रतिपादन
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२८६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५० तहा परूवेदव्वं । एवमोदारेदव्व जाव अंतोमुहुत्तब्भहियअहवस्समेत्तमोदरिदण हिदो त्ति ।
६२९७. संपहि एदं चरिमफालिदव्वं चत्तारि पुरिसे अस्सिदूण परमाणुत्तरकमेण पंचहि वड्डीहि वड्ढाव दव्व जाव गुणिदकम्मंसिएण ईसाणदेव सु णवसयव दस्स कदउक्स्सदव्वण मणुसेसुववजिय सव्वलहुओ जोणिणिक्खमणजम्मण' अंतोमुहुत्तब्भहियअहवस्साणि गमिय सम्मत्तं संजमं च जुगवं घेत्तण अणंताणुबंधिचउक विसंजोइय चारित्तमोहणीयं खव दूण णवंसयव दचरिमफालिं धरिय हिदेण सरिसं जादंति । एवं वड्डिददव्वमीसाणदेव सु संधिय पुणो परमाणुत्तरकमेण दोहि वड्डीहि चड्ढाव दव्व जाव गवसयव दस्स ओघुक्कस्सदव्व पत्तं ति । एवं ख विदकम्मंसियकालपरिहाणीए चरिमफालि पडुच्च हाणपरूवणा कदा।।
२९८. संपहि गुणिदकम्मंसियमस्सिदण हाणपरूवणं कस्सामो। तं जहाखविदकम्मंसियलक्खणेणागतूण तिसु पलिदोवमेसुववन्जिय व छावडीओ भमिय अंतोमहुत्तावसेसे मिच्छत्तं गतूण पचकोडीए उववज्जिय पुणो णव॑सयव दोदएण चारित्तमोहक्खवणाए अब्भुहिय णवसयवेदचरिमफालिं धरेदण द्विदस्स णसयवेददव्वं चत्तारि पुरिसे अस्सिदूण परमाणुत्तरकमेण पंचहि वड्डीहि वड्ढाव दव्वं जाव
किया उसी प्रकार प्रतिपादन करना चाहिए । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष तक उतार कर स्थित हुए जीवके प्राप्त होने तक उतारना चाहिये।
२९७. अब इस अन्तिम फालिके द्रव्यको चार पुरुषोंकी अपेक्षा उत्तरोत्तर एक एक परमाणुके क्रमसे पांच द्धियोंके द्वारा तब तक बढ़ाना चाहिये जब जाकर यह द्रव्य जिस गुणितकर्माशने ईशान स्वर्गके देवोंमें नपुंसकवेदके द्रव्यको उत्कृष्ट किया है फिर जो मनुष्योंमें उत्पन्न होकर अतिशीघ्र योनिसे निकलनेरूप जन्मके द्वारा अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष बिताकर फिर सम्यक्त्व और संयमको एक साथ ग्रहण करके फिर अनन्तानुबन्धी चारको विसंयोजना कर और चारित्रमोहनीयकी क्षपणा कर नपुंसकवेदकी अन्तिम फालिको धारण कर स्थित है उसके द्रव्यके समान हो जावे । इस प्रकार बढ़े हुए द्रव्यकी ईशानस्वगके देवोंमें संधि करे फिर उत्तरोत्तर एक एक परमाणुके क्रमसे दो वृद्धियोंके द्वारा नपुंसकवेदके ओघ उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाता जाय । इस प्रकार क्षपितकाशके कालकी हानि द्वारा अन्तिम फालिकी अपेक्षा स्थानोंका कथन किया।
६२९८. अब गुणितकर्मा शकी अपेक्षा स्थानीका कथन करते हैं जो इस प्रकार हैक्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर तीन पल्यकी आयुवालोंमें उत्पन्न हो अनन्तर दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर अन्तर्मुहूर्त कालके शेष रहने पर मिथ्यात्वमें जाकर अनन्तर पूर्वकोटि की आयुवालोंमें उत्पन्न हो फिर नपुसकवेदके उदयसे चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके लिए उद्यत हो जो नपुसकवेदकी अन्तिम फालिको धारण कर स्थित है उसके नपुसकवेदके उस द्रश्यको चार पुरुषोंकी अपेक्षा उत्तरोत्तर एक एक परमाणुके क्रमसे पांच वृद्धियों द्वारा
..भा प्रतौ 'जोणिणिक्कमणजम्मणेण' इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
२८७ गुणिदकम्मंसियचरिमफालीए सह सरिसं जादं ति । पुणो एव' वड्दूिण द्विदेण अण्णेगो गुणिककम्म सिओ ईसाणदेवेसु णसयव दमुक्कस्सं करेमाणो सादिरेगेग-गोवच्छाए ऊणमुक्कस्सदव्व करियागतूण तिरिक्खेसुववन्जिय दाणेण दाणाणुमोदेण वा तिपलिदोवमिएसुववण्णो कथं तिरिक्खाणं दाणाणुमोदं मोत्तण दाणसंभवो ? ण, दादुमिच्छाए तत्थ वि संभवं पडि विरोहाभावादो। अत्रोपयोगी श्लोक :
सदा संप्रतीक्ष्यातिथीनन्नकाले नरो वल्भते चेदलाभेऽपि तेषाम् ।
"भवेत्स प्रदानाप्रदानं हि सन्तः प्रदाने प्रयत्नं नृणामामनंति ॥ ५॥) ६ २९९. पुणो समऊणव छावडीओ भमिय मिच्छत्तं गतण पुव्वकोडीए उववन्जिय संजमं सम्मत्तं च जुगवं घेत्तण चारित्तमोहणीयं खवद ण चरिमफालिं धरेदूण द्विदो सरिसो। संपहि इमणप्पणो ऊणिददव्वं परमाणुत्तरादिकमण वड्ढावेदव्वं । एवं वड्विदण द्विदेण अण्णेगो ईसाणदेव सु उक्कस्सदव्व करमाणो सादिरेगगोवच्छाए ऊणं करियागंतूण तिसु पलिदोवम सुवव जिय वि समयूणवेछावट्ठीओ भमिय चारित्तमोहणीयं खविय चरिमफालिं धरेदण हिदो सरिसो। एवं खविदकम्मंसियस्स भणिदविहाणेण ओदारिय गेण्हिदव्व । गुणितकर्मा शकी अन्तिम फालिके द्रव्यके समान द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिये । फिर इस प्रकार बढ़ा कर स्थित हुए इस जीवके समान अन्य एक जीव है गुणितकर्मा शकी विधिसे आकर जो ईशानस्वर्गके देवोंमें नपुंसकवेदके द्रव्यको उत्कृष्ट कर रहा है और जो उत्कृष्ठ द्रव्यको समधिक एक एक गोपुच्छा न्यून करके आया फिर तियचोंमें उत्पन्न होकर दानसे या दानकी अनुमोदनासे तीन पल्यकी आयुवालोंमें उत्पन्न हुआ।
शंका-तियेचोंके दानकी अनुमोदनाके सिवा दान देना कैसे सम्भव है ?
समधान-नहीं, क्योंकि देनेकी इच्छा होने पर वहां भी दान देनेकी सम्भावना मान लेने में कोई विरोध नहीं है । इस विषयमें यह श्लोक उपयोगी है
अतिथिलाभ सम्भव न होने पर भी यदि मनुष्य भोजतके समय सदा अतिथियोंकी प्रतीक्षा करके ही भोजन करता है तो भी वह दाता है, क्योंकि सन्त पुरुषोंने दान देनेके लिये किये गये मनुष्योंके प्रयत्नको ही सच्चा दान माना है॥५॥
६२९९. फिर जो एक समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर मिथ्यात्वमें गया । अनन्तर पूर्वकोटिकी आयुके साथ उत्पन्न होकर सम्यक्त्व और संयमको एकसाथ प्राप्त हुआ अनन्तर जो चारित्रमोहनीयकी क्षपणा कर अन्तिम फालिको धारण कर स्थित है। अब इसके अपने कमती द्रव्यको उत्तरोत्तर एक एक परमाणुके क्रमसे बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके समान अन्य एक जीव है जो ईशानस्वर्गके देवोंमें द्रव्यको उत्कृष्ट करता हुआ साधिक गोपुच्छासे न्यून करके आया और तीन पल्यकी आयुवालोंमें उत्पन्न होकर फिर दो समय कम दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करता
जो चारित्रमोहनीयकी क्षपणा करके अन्तिम फालिको धारण करके स्थित है। इस प्रकार क्षपिवकर्मा शकी कही गई विधिके अनुसार उतार कर ग्रहण करना चाहिये।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसहित ५
९३००. संपहि संतकम्ममस्सिदूण द्वाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा--- खविदकम् मंसियलक्खणेणागतूण तिपलिदोवमिएसुप्पजिय पुणो बेछावडीओ भमिय मिच्छत्तं गंतूण पुब्वकोडाउअमणुस्सेसुववञ्जिय दंसणमोहणीयं खविय चारितमोहक्खवणाए अन्भुट्टिय णवुंसयव दचरिमफालिं धरेदूण' हिदम्मि जहण्णदव्व होदि । संपहि एत्थ जहण्णदव्वे दुचरिमगुणसे ढिगोबुच्छागुणसंकमेण गददुचरिमफालिदव्यं च परमाणुत्तरकमण वहाव देव्वं । एवं वड्डिदूण ट्ठिदेण अण्णेगो दुवरिमफालिं धरेण द्विदो सरिस । एवमोदादव्व जाव चरिमट्ठिदिखंडयं धरेण ट्ठिदो ति ।
३०१. पुणो उदयगदगुणसेढिगोवच्छा गुणसंकमेण गददव्वं च वड्डावदव्वं । एवं वड्डिण द्विदेण अण्णेगो दुरिमखंडयचरिमफालिं धरेदूण ष्ट्ठिदो सरिसो । एवमोदारेदव्व' जाव अंतरच रिमफालिगदसमओ आवलियं अपतो रति । पुणो तत्थ हविय परमाणुत्तरकमेण वड्डावदेव्व जाव गुणसंकमेण गददव्वमेतं तिन्हं वेदाणं णवुंसयवेदसरूवण उदयमागंतूण गदगुणसेढिगोषुच्छदव्वं च वडिदं ति । एवं वडिदूण द्विदो अण्णेगो तदणंतर हे टिमसमए द्विदो च सरिसो । एतो हेहा हेद्विमतिण्णिगुणसेढिगोबुच्छस हिदगुणसंकमदव्वम्मि उवरिमा दोगुणसेढिगोवच्छाओ
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९ ३००. अव सत्कर्मकी अपेक्षा स्थानोंका कथन करते हैं जो इस प्रकार हैक्षपितकर्मा की विधिसे आया और तीन पल्यकी आयुवालोंमें उत्पन्न हुआ । फिर दो छयासठ सागर कालतक भ्रमण कर मिध्यात्व में गया । अनन्तर पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर दर्शनमोहनीयकी क्षपणा कर अनन्तर जो चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके लिये उद्यत हो नपुंसक वेदको अन्तिम फालिको धारण करके स्थित है उसके नपुंसकवेदका जघन्य द्रव्य होता है । अब यहां जघन्य द्रव्य में उपान्त्य गुणश्रेणिकी गोपुच्छा और गुणसंक्रमके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुई उपान्त्य फालिके द्रव्यको उत्तरोत्तर एक एक परमाणुके क्रमसे बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो द्विचरम फालिको धारण कर स्थित है । इस प्रकार अन्तिम स्थितिकाण्डकको धारण कर स्थित हुए जीवके प्राप्त होने तक उतारते जाना चाहिये ।
३०१. अनन्तर उदयको प्राप्त हुई गुणश्रेणिकी गोपुच्छाको और गुणसंक्रमणके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हुए द्रव्यको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो द्विचरम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फालिको धारण कर स्थित है । इस प्रकार अन्तरकरणकी अन्तिम फालिके समय से एक आवलि पहले तक उतारते जाना चाहिये। फिर वहां ठहरा कर गुणसंक्रमके द्वारा जितना द्रव्य अन्य प्रकृतिको प्राप्त हो उसको, नपुंसकवेदरूपसे उदयमें आये हुए तीनों वेदोंके द्रव्यको और गुणश्रेणि गोच्छाके द्रव्यको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ा कर स्थित हुए इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो उससे अनन्तरवर्ती नीचेके समयमें स्थित है। अब इससे नीचे तीन गुणश्रेणिगोपुच्छाओंके साथ गुणसंक्रमके द्रव्यमेंसे ऊपरकी दो गुणश्रेणिकी गोपुच्छाओंको घटाने पर जो द्रव्य शेष
१. ता०प्रतौ चरिमफालीए धरेदूण' इति पाठः । २ आ०प्रसौ 'आवलिय अपतो' इति पाठः ।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामिर्स सोहिय सुद्धसेसं वड्डावे दूण ओदारेदव्व जाव आवलियअपुन्वकरणो त्ति । पुणो तत्तो हेट्ठा ओदारिजमाणे दोगोवुच्छविसेससहिदगुणसेढिगोवुच्छं गुणसंकमदव्व च वड्डावेदव्वं । एवमोदारेदव्वं जाव अधापवत्तकरणचरिमसमओ त्ति ।
३०२. संपहि एवं दव्वं परमाणुत्तरकमण वड्डाव दव्व जाव तम्मि गदविल्झादसंकमदव्वमेत्तं उदयगदगुणसेढिगोवच्छदव्वं दोगोवुच्छविसेससहिदं वड्डिदं ति । एवं वड्डिदूण द्विदेण अण्णेगो दुचरिमसमयअधापवत्तो सरिसो । एवमोदारेदव्वं जाव आवलियसंजदो त्ति । पुणो तत्थ विज्झादसंकमेण गददव्वं दोगोवच्छविसेसाहियगोवच्छदव्व च वड्ढाव दव्व । एवं वड्डाविदण ओदारेदव्व जाव मिच्छादिहिचरिमसमओ ति। तत्तो हेहा ओदारदुंण सकिजदे', उदयविसेसं पेक्खिण णवकबंधदव्वस्स असंखे गुणत्तादो । सव्वमेदं थूलकमेण परूविद। ___३०३ सुहुमदिट्ठीए' पुण णिहालिजमाणे एयंताणुवड्डिसंजदचरिमगुणसैढिसीसयप्पहुडि हेहा सव्वत्थेवमोदारदुं ण सक्कदे, हेडिल्लदव्व पेक्खिद्ण उवरिमसमयडियणवसयव ददव्वस्स बहुत्तुवलंभादो । तं पि कुदो ? हेट्ठिमथिवक्कगुणसेढिगोवुच्छलाभादो उवरिमतल्लाभस्स असंखेजगुणत्तदसणादो। ण च रहे उसे बढ़ाकर अपूर्वकरणको एक आवलि काल तक उतारते जाना चाहिये। फिर इससे नीचे उतारने पर दो गोपुच्छाविशेषांके साथ गुणश्रेणिकी गोपुच्छाको और गुणसंक्रमके द्रव्यको बढ़ाना चाहिये और इस प्रकार अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक उतारते जाना चाहिये।
६३०२. अब इस द्रव्यको उत्तरोत्तर एक एक परमाणुके क्रमसे तब तक बढ़ाना चाहिये जब जाकर इसी समय विध्यातसंक्रमणके द्वारा जितना द्रव्य अन्य प्रकृतिको प्राप्त हो उतना द्रव्य तथा दो गोपुच्छविशेषोंके साथ उदयको प्राप्त हुआ गुणश्रेणिगोपुच्छाका द्रव्य बढ़ जाय । इसप्रकर बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो अधःप्रवृत्त. करणके उपान्त्य समयरें स्थित है। इस प्रकार संयतके एक आवलि काल तक उतारते जाना चाहिये । फिर वहाँ विध्यातसंक्रमणके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हए द्रव्यको और दो गोपुच्छाविशेषोंके साथ गोपुच्छाके द्रव्यको बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़ाकर मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समय तक उतारना चाहिये । अब इससे और नीचे उतारना शक्य नहीं है, क्योंकि उदयविशेषकी अपेक्षा नवकबन्धका द्रव्य असंख्यातगुणा है । यह सब स्थूल क्रमसे कहा है।
६३०३. सूक्ष्मदृष्टिसे विचार करने पर एकान्तानुवृद्धिसंयतको अन्तिम गुणश्रेणिके शीर्षसे लेकर नीचे सर्वत्र इस प्रकार उतारना शक्य नहीं है, क्योंकि नीचेके द्रव्यकी अपेक्षा ऊपरके समयमें स्थित नपुंसकवेदका द्रव्य बहुत पाया जाता है।
शंका- ऐसा क्यों होता है।
समाधान-क्योंकि नीचे स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा जो गुणश्रेणि गोपुच्छाका लाभ होता है उससे ऊपर स्तिवुक संक्रमणके द्वारा प्राप्त होनेवाली गुणश्रोणि गोपुच्छाका लाभ
१. मा०प्रतौ सिक्किदे' इति पाठः । २. ता. प्रती 'मुहुमद्विदोए' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ हेडिमं वड्डाविय उवरिमेण संधाणं जुजंतयं, संतकम्मोदारणे तहाविहपइजाभावादो । तेणेदं मोत्तूण चरिमसमयअसंजदसम्मादिविसंतं घेत्तण संतकम्मट्ठाणाणं परूवर्ण कस्सामो। तं जहा-चरिमसमयअसंजदसम्मादिहिसंतम्मि एगगोवच्छा सादिरेगा वड्ढाव दव्वा । एवं वड्डिदण हिदेण अण्णगो दुचरिमसमयअसंजदसम्मादिट्ठी सरिसो। एवमोदारेदव्वं जाव व छावडीओ तिण्णि पलिदोवमाणि च ओदरिय छपजत्तीहि पज्जत्तयदपढमसमओ त्ति ।
६३०४. संपहि एत्तो हेट्ठा ओदारदुं ण सक्कदे, थिवक्कस्स गोवुच्छं पेक्खिदूण णवकबंधस्स असंखेजगुणत्तवलंभादो। तेणेदं परमाणुत्तरकमेण' चत्तारि परिसे अस्सिदूण पंचहि वड्डीहि वड्डावेदव्वं जाव गुणिदकम्मेण ईसाणदेव सु णव॒सयवदमावूरिय पुणो तिरिक्खेसु उप्पन्जिय तत्थ अंतोमुहुत्तं जीविदण दाणेण दाणाणुमोदेण वा कुरवाउअं बंधिदूण छप्पजत्तीओ समाणेदूण द्विदपढमसमओ त्ति । संपहि इमेण सरिसमीसाणदेवचरिमसमयदव्व घेत्तूण परमाणुत्तरकम ण दोहि वड्डीहि वड्ढावदव्व जावप्पणो ओघुक्कस्सदवं पत्तं ति । संपहि गुणिदस्स वि एदेणेव कमण संतमस्सिदूण हाणपरूवणा कायव्वा । णवरि ऊणं कादूण संधाणं कायव्वं ।
असंख्यातगुणा देखा जाता है।
यदि कहा जाय कि नीचेके द्रव्यको बढ़ाकर ऊपरके द्रव्यके साथ सन्धिस्थल में जोड़ देंगे, सो भी कहना ठीक नहीं है क्योंकि सत्कर्मको उतारनेके सम्बन्धमें इस प्रकारकी प्रतिज्ञा नहीं की है, इसलिए इस द्रव्यको यहीं छोड़कर असंयतसम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयवर्ती सत्त्वकी अपेक्षा सत्कर्मस्थानोंका कथन करते हैं जो इस प्रकार है-सम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयवर्ती सत्त्वमें साधिक एक गोपुच्छाको बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो उपान्त्य समयवर्ती असंयतसम्यग्दृष्टि है। इस प्रकार दो छयासठ सागर और तीन पल्य उतर कर छह पर्याप्तियोंसे पर्याप्त होनेके प्रथम समयके प्राप्त होने तक उतारते जाना चाहिये ।
$३०४. अब इससे नीचे उतारना शक्य नहीं है, क्योंकि स्तिवुककी गोपुच्छाकी अपेक्षा नवक बन्ध असंख्यातगुणा पाया जाता है, इसलिये इसके द्रव्यको चार पुरुषोंकी अपेक्षा उत्तरोत्तर एक एक परमाणुके क्रमसे पाँच वृद्धियोंके द्वारा तब तक बढ़ाना चाहिये जब जाकर एक गुणितकर्माश जीव नपुंसकवेदको पूराकर फिर तिर्यचोंमें उत्पन्न होकर और वहां अन्तर्मुहूर्त काल तक जाकर दान या दानकी अनुमोदनासे कुरुक्षेत्रकी आयुको बाँधकर और वहाँ उत्पन्न होनेके बाद छह पर्याप्तियोंको पूरा कर तदनन्तर पहले समयमें स्थित होवे । अब इसके समान ईशान स्वर्गके देवके अन्तिम समयके द्रव्यको लेकर उत्तरोत्तर एक एक परमाणुके क्रमसे दो वृद्धियोंके द्वारा अपने उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाते जाना चाहिये। अब गुणितके भी इसी क्रमसे सत्त्वकी अपेक्षा स्थानोंका कथन करना चाहिये। किन्तु इती विशेषता है कि कम करके सन्धान कर लेना चाहिये।
१. आ०प्रतौ 'वेणेदवं परमाणुत्तरकमेण' इति पाठः।
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गा० २२]
- उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्त 8 एवं णवुसयवेदस्स दोफहयाणि । ६३०५. कुदो ? तिप्पहुडिफयाणमत्थ संभवाभावादो।
* एवमित्थिवेदस्स । णवरि तिपलिदोवमिएसु णो उववरणो । ६३०६. जहा णव सयव दस्स सामित्तपरूवणा कदा तहा इत्थिव दस्स वि कायव्वा, विसेसाभावादो। णव रि तिपलिदोवमिएसु णो उप्पादेदव्वो, कुरवसु वि इत्थिवदस्स बंधुवलंभादो।
ॐ पुरिसवेदस्स जहणणयं पदेससंतकम्मं कस्स ? ६३०७. सुगमं?
ॐ चरिमसमयपुरिसवेदोदयक्खवगेण घोलमाणजहएणजोगहाणे वट्टमाणेण जं कम्मं पद्धतं कम्ममावलियसमयअवेदो संकामेदि । जत्तो पाए संकामेदि तत्तो पाए सो समयपबद्धो आवलियाए अकम्मं होदि । तदो एगसमयमोसकिदण जहणणयं पदेससंतकम्मट्ठाणं ।।
३०८. चरिमसमयपुरिसव दोदयक्खवगेण बद्धसमयपबद्धो चेव एत्थ किमहं घेप्पदे ? ण, हेहिम सु घेप्पमाणेसु बहुदव्यप्पसंगादो । एदेसि पञ्चग्गबद्धसमयपबद्धाण
8 इस प्रकार नपुंसकवेदके दो स्पर्धक होते हैं। ६३०५. शंका-नपुंसकवेदके दो ही स्पर्धक क्यों सम्भव है। समाधान-क्योंकि नपुसकवेदमें तीन आदि स्पर्धक सम्भव नहीं है।
* इसी प्रकार स्त्रीवेदके जघन्य स्वामित्वका कथन करना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इसे तीन पल्यकी आयुवाले जीवोंमें नहीं उत्पन्न कराना चाहिये ।।
६३०६. जिस प्रकार नपुंसकवेदके स्वामित्वका कथन किया उसी प्रकार स्त्रीवेदके स्वामित्वका भी कथन करना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। किन्तु इतनी विशेषता है कि तीन पल्यकी आयुवालोंमें नहीं उत्पन्न कराना चाहिये, क्योंकि कुरुओंमें भी स्त्रीवेदका बन्ध पाया जाता है।
* पुरुषवेदका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? ६३०७. यह सूत्र सुगम है। .
ॐ जघन्य परिणाम योगस्थानमें विद्यमान क्षपकने पुरुषवेदके उदयके अन्तिम सययमें जिस कर्मका बन्ध किया वह कर्म अपगतवेदके एक आवलि काल जाने पर तदनन्तर समयसे संक्रमणको प्राप्त होता है और जबसे संक्रमणको प्राप्त होता है तबसे वह समयप्रबद्ध एक आवलिके भीतर अकर्मभावको प्राप्त होता है, इसलिए इससे एक समय पोछे जाकर विद्यमान जीवके पुरुषवेदका जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थान होता है।
६३०८. शंका-पुरुषवेदके उदयके अन्तिम समयमें क्षपकके द्वारा बांधे गये समयप्रबद्धको ही यहाँ किसलिये ग्रहण किया गया है ?
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५ कमेण विणासो चिराणसंतकम्मस्सेव किण्ण होदि १ ण, दोहि आवलियाहि विणा जहणेण वि बद्धकम्मस्स विणासाभावादो । अवेदो पुरिसवदं किण्ण बंध ? साहावियादो । जेसि जोगहाणाणं वड्डी हाणी अवद्वाणं च संभवइ ताणि घोलमाणजोगद्वाणाणि णाम । परिणामजोगट्टाणाणि ति भणिदं होदि । एदेण उववाद- एयंताणुवढिजोगट्ठाणाणं पडिसेहो कदो, तत्थ घोलमाणत्ताभावादो । एयंतेण वडणं ण घोलमाणत्तं, हाणि - अवढाणेहि विणा वडीए चेव तदणुववत्तीदो | तेण ण वडजोगडाणाणं घोलमाणतं । घोलमाणजोगो जहण्णओ अजहण्णओ वि अत्थि, तत्थ अजहण्णपडिसेह जहण्णणिद्देसो कदो । किमहं जहण्णजोगट्टाणस्स गहणं कीरदे ? थोवपदेसग्गहणहं । चरिमसमय पुरिसव दोदयक्खवगेण घोलमाणजहण्णजोगहाणे वट्टमाणेण जं बद्धं कम्म तमावलियसमयअवेदो संकामेदि, बंधावलियादिकंतत्तादो । traforare four संकामेदि । साहावियादो । जत्तो पाए संकाम दि तत्तो पाए सो
समाधान नहीं, क्योंकि इससे नीचेके समयप्रबद्धों के ग्रहण करने पर बहुत द्रव्यका प्रसंग प्राप्त होता है ।
शंका- इन न्यूतन बंधे हुए समयप्रबद्धोंका प्राचीन सत्कर्मके समान युगपत् विनाश क्यों नहीं होता ?
समाधान — नहीं क्योंकि जघन्यरूपसे भी बँधे हुए कर्मका दो आवलियोंके बिना विनाश नहीं होता ।
शंका- अपगतवेदी जीव पुरुषवेदको क्यों नहीं बाँधता है ?
समाधान — क्योंकि ऐसा स्वभाव है ।
जिन योगस्थानोंको वृद्धि, हानि और अवस्थान सम्भव है वे घोलमान योगस्थान कहलाते हैं । ये ही परिणामयोगस्थान हैं यह इस कथनका तात्पर्य है । इससे उपपाद और एकान्तानुवृद्धि योगस्थानोंका निषेध किया है, क्योंकि वहां घोलमानता नहीं पाई जाती । एकान्त से बढ़ना घोलमानपना नहीं है, क्योंकि घोलमान में हानि और अवस्थानके बिना केवल वृद्धि नहीं बनती। इसलिये एकान्तानुवृद्धिरूप योगस्थानोंको घोलमान नहीं माना जा सकता । घोलमान योगस्थान जघन्य भी है और अजघन्य भी है, अतः वहाँ अजघन्यका निषेध करनेके लिये जघन्य पदका निर्देश किया है ।
शंका- जघन्य योगस्थानका ग्रहण किसलिये किया है ?
समाधान-थोड़े प्रदेशोंका ग्रहण करनेके लिये पुरुषवेदके अन्तिम समय में घोलमान जघन्य योगस्थानमें विद्यमान क्षपकने जो कर्म बाँधा उसका अपगतवेद होनेके एक आवलि बाद संक्रमण करता है, क्योंकि इसकी बन्धावलि व्यतीत हो चुकी है ।
शंका - बन्धावलिके भीतर क्यों नहीं संक्रमण होता ?
समाधान—क्योंकि ऐसा स्वभाव है । जिस समय से लेकर संक्रमण करता है उस
१. श्रा० प्रती - मक्कमेणाविणासो' इति पाठः । २. ता०प्रतौ ' -जो गद्वाणाणि (गं ) पडिले हो' प्रा० प्रती 'जोगद्वाणाथि पडिसेहो' इति पाठ: । ३. ता०प्रतौ 'वट्टयां' इति पाठः । ४. आ०प्रतौ 'जहण्णओ वि' इति पाठः । ५. ता०प्रती 'सकमदि' इति पाठः ।
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मा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
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समयपबद्धो आवलियाए अकम्मं होदि । णवगसमयपबद्धे आवलियम तक लेणेव खवेदिति भणिदं होदि । जहा चिराणसंतकम्मम तोमुहु तेण कालेन संकामिजदि तहा णवगसमयबद्धो तेण कालेन किण्ण संकामिज्जदि ? साहावियादो । जम्मि पदेसे चरिमसमयसवेदेण बद्धसमयपबद्धो अकम होदि तत्तो हेहा एगसमयमोसक्किदूण ओसरिदूण तस्स चरिमफालिं धरेदूण हिस्स जहण्णयं पदेस संतकम् ।
* तस्स कारणमिमा परूवणा कायव्वा । ६३०९ तस्स चरिमसमवसव देण जहण्णत्तपदुष्यायण इमा परूवणा कीरदे ।
* पढमसमयमवेदगस्स केत्तिया समयपबद्धा ।
बद्धसमयपबद्धस्स चरिमफालिसेसस्स
३१० सुगममदं ।
* दोश्रावलियाओ दुसमणाश्रो ।
३११. दोसु आवलियासु दुसमऊणासु जत्तिया समया तत्तियमेत्ता समयपबद्धा दे अस्थि ।
पढसमय
* केण कारण ?
३१२. दो आवलियासु केण कारणेण दो समया ऊणा किअंति त्ति भणिदं
समयसे लेकर वह समयप्रबद्ध एक आवलि कालके भीतर अकर्मभावको प्राप्त हो जाता है । इसका यह तात्पर्य है कि नवक समयप्रबद्धकी एक आवलि कालके द्वारा। ही क्षपणा करता है । शंका - जिस प्रकार प्राचीन सत्कर्मका अन्तर्मुहूर्त कालके द्वारा संक्रमण करता है उसी प्रकार उतने ही कालके द्वारा नवक समयप्रबद्धका क्यों नहीं संक्रमण करता है ?
समाधान- —क्योंकि ऐसा स्वभाव है । सवेदीके द्वारा अपने अन्तिम समय में वांधा गया समयबद्ध जिस स्थानमें अकर्मभावको प्राप्त होता है उससे नीचे एक समय सरककर पुरुषवेदकी अन्तिम फालिको धारणकर स्थित हुए जीवके पुरुषवेदका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है ।
* अब इस जघन्य सत्कर्म के लिये यह आगेकी प्ररूपणा करनी चाहिए ।
$ ३०९. उसके अर्थात् अन्तिम समयवर्ती सवेदीके द्वारा बांधे गये समयप्रबद्धकी शेष री अन्तिम फालिके जघन्यपनेको बतलाने के लिये यह कथन करते हैं ।
* प्रथम समयवर्ती अपगतवेदोके कितने समयग्रबद्ध होते हैं ?
६ ३१०. यह सूत्र सुगम है ।
* दो समय कम दो आवलिप्रमाण समयप्रबद्ध होते हैं ।
६ ३११. दो समय कम दो आवलियोंमें जितने समयप्रबद्ध होते हैं उतने समय प्रबद्ध प्रथम समयवर्ती अपगतवेदीके होते हैं।
* इसका कारण क्या है ?
$ ३१२. दो आवलियों में दो समय किस कारणसे कम किये गये, यह सूत्र इस शंकाको
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'जयधवला सहिदे कसा पाहुडे
होदि । एदस्त कारणपदुप्पायणढमुत्तरमुत्त कलावं भणदि जइव सहभडारओ ।
* जं चरिमसमय सवेदेण बद्ध तमवेदस्स विदियाए श्रावलियाए तिचरिमसमयादोत्ति दिस्सदि । दुचरिमसमए अकम्मं होदि ।
$ ३१३. अवगदव दस्स पढमसमयादो उवरिमआवलियमेत्तकालो अवगदव दस्स पदमावलिया णाम । तत्तो उवरिमआवलियम तकालो तस्सेव विदियावलिया, अवगदवेद संबंधित्तादो । तिस्से विदियावलियाए जाव तिचरिमसमओ त्ति ताव जं चरिमसमयसवेदेण बद्धं कम्मं तं दिस्सदि समयूणदोआवलियाओ मोत्तूण णवकबंधस्स अवहाणाभावादो । तं जहा - अवगदवेदस्स समयूणावलियाए सो समयपबद्धो ण पिल्लेविजदि, बंधावलियकालम्मि तस्स परपयडिसंकंतीए अभावादो । संकमे पारद्धे वि ण समयुणावलियमेत्तकालं णिल्लेविजदि, संकमणावलियाए चरिमसमए तदभावलंभादो | तम्हा अवेदस्स विदियाए आवलियाए तिचरिमसमओ त्ति सो समयबद्धो दिस्सदित्ति जुजदे । तिस्से दुचरिमसमए अकम्मं होदि, चरिमसमयवेदादो गणिमाणे तत्थ संपुण्णदोआवलियाणमुवलंभादो ।
* जं दुरिमसमय सवेदेण बद्ध तमवेदस्स विदियाए आवलियाए चदुचरिमसमयादोत्ति दिस्सदि । तिचरिमसमए कम्मं होदि ।
[ पदेसविहत्ती ५
प्रकट करता है । अब इसका कारण बतलानेके लिये यतिवृषभ भट्टारक आगेके सूत्रोंको कहते हैं* अन्तिम समयवर्ती सवेदीने जो कर्म बांधा वह अपगतवेदीके दूसरी आवलिके त्रिचरम समय तक दिखाई देता है और द्विचरम समय में अकर्मभावको प्राप्त होता है ।
$ ११३. अपगतवेदी के प्रथम समयसे लेकर आगेकी एक आवलिप्रमाण काल अपगतवेद की प्रथमावलि है । और इससे आगेकी दूसरी आवलिप्रमाण काल उसीकी दूसरी आवलि है, क्योंकि इनका सम्बन्ध अपगतवेदसे है । उस दूसरी आवलिके त्रिचरम समय तक अन्तिम समयवर्ती सवेदीके द्वारा बांधा गया कर्म दिखाई देता है, क्योंकि एक समय कम दो आवलिके सिवा और अधिक काल तक विवक्षित नवक समयप्रबद्धका अवस्थान नहीं पाया जाता । खुलासा इस प्रकार है- अपगतवेदीके एक समय कम एक आवलि काल तक वह समयप्रबद्ध निर्लेप नहीं होता अर्थात् तदवस्थ रहता है, क्योंकि बन्धावलि कालमें उसका अन्य प्रकृति में संक्रमण नहीं होता । तथा संक्रमणका प्रारंभ होने पर भी एक समय कम एक आवलि प्रमाण काल में वह निर्लेप नहीं होता, क्योंकि संक्रमणावलिके अन्तिम समय में उसका अभाव पाया जाता है । इसलिये अपगतवेदी की दूसरी आवलिके तीसरे समय तक वह समयप्रबद्ध दिखाई देता है यह कथन बन जाता है । तथा उस दूसरी आवलिके द्विचरम समय में अकर्म भावको प्राप्त होता है, क्योंकि सवेदीके अन्तिम समयसे गिनने पर वहां पूरी दो आवलियां पाई जाती हैं।
* उपान्त्य समयवर्ती सवेदीने जो कर्म बांधा वह अपगतवेदीके दूसरी आवलिके चार अन्तिम समय तक दिखाई देता है । त्रिचरम समय में अकर्मपनेको
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गा० २२] उत्तर पयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
२९५ ____३१४. कुदो ? अवेदस्स पढमावलियाए दुसमयूणाए बंधावलियं गमिय पढमावलियदुचरिमसमए तस्स समयपबद्धस्स संकमपारंभादो । तिचरिमसमए अकम्म होदि, बद्धसमयादो गणिजमाणे तत्थ संपुण्णाणं दोण्हमावलियाणमुवलंभादो।
* एदेण कमेण चरिमावलियाए पढमसमयसवेदेण जं बद्ध तमवेदस्स पढमावलियाए चरिमसमए अकम्मं होदि।
३१५. पुन्विल्लकमं संभरिदूण णिज्जदि ति जाणावणहमेदेण कमेणे त्ति णिद्देसो कदो। जं तिचरिमसमयसवेदेण बद्धं तमवेदस्स विदियाए आवलियाए पंचचरिमसमयादो त्ति दिस्सदि । जं चदुचरिमसमयसवेदेण बद्धं तमवेदस्स विदियाए आवलियाए छचरिमसमयादो त्ति दिस्सदि । एवं णेदव्वमिदि भणिदं होदि । सवेदचरिमावलियाए पढमसमए वट्टमाणसवेदेण जं बद्धं तमवेदस्स पढमावलियाए चरिमसमए अकम्मं होदि। कुदो ? बद्धसमयादो गणिजमाणे अवगदवेदस्स पढमावलियाए चरिमसमए बंधावलिया संकमणावलिया ति संपुण्णाणं दोण्हमावलियाणं पमाणुवलंभादो। ण च णवगसमयपबद्धो समयूणदोआवलियाहिंतो अहियं कालमच्छदि, विप्पडिसेहादो।
8 ज सवेदस्स दुचरिमाए प्रावलियाए पढमसमए पषद्धं तं चरिम
प्राप्त होता है।
$ ३१४. क्योंकि अपगतवेदीकी दो समय कम पहली आवलिसे बन्धावलिको बिताकर पहली आवलिके द्विचरम समयमें उस समयप्रबद्धके संक्रमणका प्रारम्भ होता है और अपगतवेदीकी दूसरी आवलिके त्रिचरम समयमें वह समयप्रबद्ध अकर्मभावको प्राप्त होता है, क्योंकि बन्ध समयसे लेकर यहां तक गिनने पर पूरी दो आवलियां पाई जाती हैं।
* इस क्रमसे अन्तिम आवलिके प्रथम समयवर्ती सवेदीने जो कर्म बांधा वह अवेदीके पहली आवलिके अन्तिम समयमें अकर्मभावको प्राप्त होता है।
६३१५. पहलेके क्रमका स्मरण करके आगे लेजाना नाहिये यह जताने के लिये सूत्र में 'इस क्रमसे' इस पदका निर्देश किया है। जो कर्म सवेदीने अपने द्विचरम समयमें बांधा है वह अपगतवेदीके दुसरी आवलिके पाँच चरम समय तक दिखाई देता है। जो कर्म सवेदीने अपने चार चरम समयमें बांधा है वह अपगतवेदीके दूसरी आवलिके छह चरम समय तक दिखलाई देता है। इसी प्रकार लेजाना चाहिये यह 'एदेण कमेण' इस पदके देने का तात्पर्य है । सवेद भागकी अन्तिम आवलिके प्रथम समयमें विद्यमान सवेदीने जो कर्म बांधा वह अपगतवेदीके प्रथम आवलिके अन्तिम समयमें अकर्मभावको प्राप्त होता है, क्योंकि कर्मबन्धके समयसे गिनती करने पर अपगतवेदीके पहिली आवलिके अन्तिम समयमें बन्धावलि और संक्रमणावलि इस प्रकार बहां तक पूरी दो आवलियोंका प्रमाण पाया जाता है और नवक समयप्रबद्ध एक समय कम दो आवलिसे अधिक काल तक रहता नहीं है, क्योंकि और अधिक काल तक इसके रहनेका निषेध है।
8 सवेदीने अपनी द्वि चरमावलीके प्रथम समयमें जो कर्म बांधा वह सवेदीके
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जयधवडासहिदे कसायपाहुडे [परेसविहत्तीय समयसवेदस्स प्रकम्मं होदि ।
६३१६. कुदो ? पद्धपढमसमयादो गणिजमाणे तत्थ संपुण्णाणं दोण्हमावलियाणमुवलंभादो।।
जे तिस्से चेव दुचरिमसमयसवेदावलियाए विदिसमए बलुतं पढमसमयअवेदस्स अकम्मं होदि।
.६३१७. कुदो ? बद्धपढमसमयादो अवगदवेदपढमसमयम्मि संपुण्णाणं दोण्हमावलियाणमुवलंभादो । तं वि कुदो ? सवेदस्स आवलिया सवेदावलिया। दुचरिमा च सा सवेदावलिया च दुचरिमसवेदावलिया । तिस्से विदियसमए पबद्धसमयपबद्धस्स णिरुद्धत्तादो।
* एदेण कारणेण वेसमयपषद्ध ण लहदि अवगदवेदो। .
$ ३१८. जेणेवं दुचरिमसवेदावलियाए पढम-विदियसमएसु बद्धसमयपबद्धा पढमसमयअवेदस्स पत्थि तेण कारणेण वेसमयपबद्ध सो ण लहदि ति दहव्व। तेणेत्तिया समयपबद्धा तत्थ अस्थि त्ति जाणावणमुत्तरसुत्तमागदं
ॐ सवेदस्सा दुचरिमावलियाए दुसमयूणाए चरिमावलियाए एव्बे
अन्तिम समयमें अकर्मभावको प्राप्त होता है ।
६३१६. क्योंकि नवकबन्धके पहले समयसे लेकर गिनती करने पर वहां पर पूरी दो आवलियां पाई जाती हैं।
जो कर्म सवेदीकी उसी द्विचरमावलिके दूसरे समयमें बांधा वह अपगतवेदीके पहले समयमें अकर्मभावको प्राप्त होता है।
$ ३१७. क्योंकि नवकबन्धके पहले समयसे लेकर अपगतवेदके प्रथम समयमें पुरो दो आवलियाँ पाई जाती हैं।
शंका-वहाँ जाकर पूरी दो आवलियाँ क्यों होती हैं ?
समाधान—क्योंकि सवेद भागकी आवलि सबेदावलि कहलाती है और यदि वह सवेदावलि द्विचरम हो तो द्विचरम सवेदावलि कहलाती है । अव इसके दूसरे समयमें बंधे हुए समय प्रबद्धको विषय करनेवाला काल लेना है, इससे ज्ञात होता है कि अपगतवेदके प्रथम समय तक दो आवलियाँ पूरी होजाती हैं।
* इस कारणसे अपगतवेदी जीवको दो समयप्रबद्धोंका लाभ नहीं होता।
६३१८. यतः इस प्रकार सवेद भागकी द्विचरमावलिके प्रथम और द्वितीय समयमें बंधे हुए समयप्रबद्ध अपगतवेदीके प्रथम समयमें नहीं हैं अतः उसके दो समयप्रबद्ध नहीं पाये जाते ऐसा जानना चाहिये ।। _ अब इतने समयप्रबद्ध वहाँ पर अर्थात् अपगतवेदीके हैं इस बातको बतलानेके लिये भागेका सूत्र आया है
8 किन्तु अपगतवेदीके सवेद भागकी दो समय कम द्विचरमावलि और परमावलि
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उत्तरपय डिपदेसविहत्तीए सामित्तं
गा० २२]
च एदे समयबद्ध अवेदो लहदि ।
३१९. जेण एत्तिए समयपचद्धे पढमसमयअवेदो लहदि त्ति तेण जं पुब्बं भणिदं पढमसमयअवेदो दोआवलियाओ दुसमयूणाओ लहदि ति तं सुहासियं । पदमसमयअव दम्मि एत्तिया समयपबद्धा अस्थि ति किमट्ठे परूवणा कीरदे १ अवगदव दपढमसमए जहण्णसामित्तं किण्ण दिण्णमिदि पच्चवहिद सिस्सस्स विपडिवत्तिणिराकरणडौं । जेणेदं सुत्तं देसामासियं तेण विदियसमयअवगदवेदो वि ण जहण्णदव्वसामी, तत्थ तिसमयूणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धाणमुवलंभादो । तदियसमय अवगदव दो वि ण जहण्णदव्वसामी, चदुसमयूणदोआवलियमेत्त समयपबद्धाणं तत्थुवलंभादो एवं गंतूण तिसमयूणदो आवलियअवगदव दो वि ण जहण्णदव्वसामी, तत्थ दोन्हं समयपबद्धाणमुवलंभादो । दुसमयूणदोआवलियअवगदव दो पुण जहण्णदव्वसामी होदि, तत्थ घोलमाणजहण्णजोगेण बद्धेगसमयपबद्धस्स चरिमफालीए चेव उवलंभादो |
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* एसा ताव एक्का परूवणा ।
§ ३२०. एसा परूवणा जहण्णदव्वपमाणपरूवणहं अवगदवेदेसुप्पजमाणहाणाणं णिबंधणावगमण' 'च कदा |
सम्बन्धी ये सब समयप्रबद्ध पाये जाते हैं ।
३१९. चूंकि इतने समयप्रबद्ध अपगतवेदी जीव अपने प्रथम समय में प्राप्त करता है, इसलिये पहले जो यह कहा है कि प्रथम समयवर्ती अपगतवेदीके दो समय कम दो आवलिप्रमाण समयप्रबद्ध पाये जाते हैं वह ठीक ही कहा है ।
कथन किसलिये
शंका- अपगतवेदी के प्रथम समय में इतने समयबद्ध हैं यह किया है ? समाधान - पुरुषवेदका जघन्य स्वामी अपगतवेदके प्रथम समय में क्यों नहीं बतलाया इस प्रकार जिस शिष्यको शंका है उसके निराकरण करनेके लिये उक्त कथन किया है ।
चूंकि यह सूत्र देशामर्षक है इसलिये इससे यह भी निष्कर्ष निकलता है कि द्वितीय समवर्ती अपगतवेदी भी जघन्य द्रव्यका स्वामी नहीं है, क्यों कि वहाँ पर तीन समय कम दो आवलिप्रमाण समयप्रबद्ध पाये जाते हैं। तीसरे समय में स्थित अपगतवेदी भी जघन्य द्रव्यका स्वामी नहीं है, क्योंकि उसके चार समय कम दो ओवलप्रमाण समयप्रबद्ध पाये जाते हैं । इस प्रकार जाकर जिसे अपगतवेदी हुए तीन समय कम दो आवलि हो गये हैं वह भी जघन्य द्रव्यका स्वामी नहीं है, क्योंकि वहाँ दो समयप्रबद्ध पाये जाते हैं । किन्तु जिसे अपगतवेदी हुए दो समय कम दो आवलि हुए हैं वह जघन्य द्रव्यका स्वामी है, क्योंकि वहाँ पर जघन्य परिणामयोगके द्वारा बाँधे गये एक समयप्रबद्ध की अन्तिम फालि ही पाई जाती है ।
* यह एक प्ररूपणा है ।
३२०. जघन्य द्रव्यके प्रमाणका कथन करनेके लिये और अपगतवेदियों में उत्पन्न होनेवाले स्थानोंके कारणका ज्ञान करानेके लिये यह प्ररूपणा की है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ इमा अण्णा परूवणा । ६ ३२१. पुव्विल्लपरूवणादो एसा परूवणा अण्णा पुधभूदा, परूविजमाणस्स भेदुवलंभादो।
* दोहि चरिमसमयसवेद हि तुल्लजोगेहि पद्ध' कम्मं तेसिं तं संतकम्मं चरिमसमयअणिल्लेविदं पि तुल्लं ।
$ ३२२. दोहि चरिमसमयसवे देहि तुल्लजोगेहि जं बद्धं कम्मं तं तुल्लमिदि संबंधो कायव्यो । सरिसे जोगे संते पदेसबंधस्स विसरिसत्ताणुववत्तीदो। तेसिं संतकम्म जं चरिमसमयअणिल्लेविदं तं पि तल्लं, अणियट्टिपरिणामेहि अधापवत्तसंकमेण कोधसंजलणे संकममाणपदेसग्गस्स समयं पडि दोहं पि समाणत्तादो। ण च समाणदव्वाणं समाणव्वयाणं सेसस्स विसरिसत्तं, विप्पडिसेहादो ।
8 दुचरिमसमयअणिल्लेविदं पितुल्लं । ६३२३. सुगममेदं, पुव्वमवगयकारणत्तादो।
ॐ एवं सव्वत्थ ।
६३२४. तिचरिमसमयअणिल्लेविदं पि तुल्लं। चदुचरिमसमयअपिल्लेविदं पि तुल्लं ति वत्तव्वं जाव बद्धपढमसमयो त्ति । ओकडणाए उदए णिवदिय गलमाणे दोण्हं
ॐ यह दूसरी प्ररूपणा है।
६३२१. पहली प्ररूपणासे यह प्ररूपणा भिन्न अर्थात् पृथग्भूत है, क्योंकि कथन किये जानेवाले विषयमें पूर्वोक्त प्ररूपणासे भेद पाया जाता है।
* तुल्य योगवाले अन्तिम समयवर्ती वेदवले दो जीवोंने जो कर्म बांधा वह समान है। तथा उनके जो सत्कर्म अन्तिम समयमें अवशिष्ट है वह भी समान है।
६३२२. समान योगवाले अन्तिम समयवर्ती वेदवाले दो जीवोंने जो कर्म बाँधा वह समान है इस प्रकार यहां सम्बन्ध कर लेना चाहिये । क्योंकि सदृश योगके रहते हुए प्रदेसबन्धमें असमानता बन नहीं सकती । तथा इन दोनों जीवोंका जो सत्कर्म अन्तिम समयमें निर्जीर्ण नहीं हुआ वह भी समान है, क्योंकि अनिवृत्तिकरणरूप परिणामोंके निमित्तसे अधःप्रवृत्तसंक्रमणके द्वारा क्रोध संज्वलनमें संक्रमणको प्राप्त होनेवाले प्रदेश प्रत्येक समयमें दोनोंके ही समान हैं। और यह हो नहीं सकता कि दो समान द्रव्योंमेंसे एक समान व्ययके होते हुए जो शेष रहे वह असमान होवे, क्योंकि ऐसा मानने में विरोध आता है।
ॐ उपान्त्य समयमें जो द्रव्य अवशिष्ट है वह भी समान है। ६३२३. यह सूत्र सुगम है, क्योंकि इसके कारणका ज्ञान पहले किया जा चुका है।
ॐ इसी प्रकार सर्वत्र जानना चाहिए।
६ ३२४. त्रिचरम समयमें जो द्रव्य अनिर्लेपित है वह भी समान है। चतुश्चरम समयमें जो द्रव्य अनिर्लेपित है वह भी समान है। इस प्रकार बन्ध होनेके पहले समय तक
१. श्रा० प्रती 'सरिसजोगे' इति पाठः ।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं समयपबद्धाणं सेसदव्वस्स विसरिसत्तं किण्ण जायदे ? ण, विदियट्ठिदीए अवद्विदत्तणेण अवगदव दम्मि पुरिसवे दपढमहिदीए अभावादो च विसरिसत्तासंभवादो' । दुचरिमावलियाए पबद्धाणं पढमहिदी अस्थि त्ति उदए परिगलणं पडुच विसरिसत्तं किण्ण जायदे ? ण, आवलिय-पडिआवलियासु सेसासु आगाल-पडिआगालवोच्छेदेण विदियहिदीए हिददव्वस्स पढमहिदीए आगमणाभावादो। तेण सिद्धं सव्वसमयपबद्धाणं' सरिसत्तं ।
8 एदाहि दोहि परूवणाहि पदेससंतकम्मट्ठाणाणि परूवेदव्वाणि ।
६ ३२५. एगसमयपबद्धमादि कादूण जाव दुसमयूणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धाणं परूवणा एगं बीजपदं, जहण्णजोगट्ठाणप्पहुडि सव्वजोगहाणाणि अवलंबिय सांतराणं संतकम्महाणाणमुप्पत्तिणिमित्तत्तादो। णिरंतराणि ठाणाणि एस्थ किण्ण होति ? ण, एगजोगपक्खेवेण एगसमयपबद्धस्स असंखे०भागमेत्तकम्मपरमाणूणभागमणुवलंभादो । बंधावलियादीदसमयपबद्धाणं परपयडिसंकमो सांतरसंतकम्मट्ठाणाणं विदियं बीजपदं ।
कथन करना चाहिये।
शंका-अपकर्षणके द्वारा उदयमें डालकर गलन हो जाने पर दोनों समयप्रबद्धोंका शेष द्रव्य विसदृश क्यों नहीं हो जाता ?
समाधान नहीं, क्योंकि दूसरी स्थितिमें अवस्थित होनेके कारण और अपगतवेद अवस्थामें पुरुषवेदकी प्रथम स्थितिका अभाव होनेसे उनका विसदृश होना सम्भव नहीं है।
शंका-द्विचरमावलिमें बंधे हुए समयप्रबद्धोंकी प्रथम स्थिति है, इसलिये इनका द्रव्य उदयको प्राप्त होकर गलता रहता है, अतएव इनमें विसदृशता क्यों नहीं पाई जाती ?
समाधान नहीं, क्योंकि आवलि और प्रत्यावलिके शेष रहने पर आगाल और प्रत्यागालकी व्युच्छित्ति हो जानेके कारण दूसरी स्थितिमें स्थित द्रव्यका प्रथम स्थितिमें आगमन नहीं पाया जाता, इसलिये समयप्रबद्ध की समानता सिद्ध होती है।
ॐ इन दोनों प्ररूपणाओंक द्वारा प्रदेशसत्कर्मस्थानोंका कथन करना चाहिये।
६३२५. एक समयप्रबद्धसे लेकर दो समय कम दो आवलिप्रमाण समयप्रबद्धोंकी प्ररूपणा यह एक बीजपद है, क्योंकि यह जघन्य योगस्थानसे लेकर सब योगस्थानोंकी अपेक्षा सान्तर सत्कर्मस्थानोंको उत्पत्तिका निमित्त है।
शंका-यहां निरन्तर स्थान क्यों नहीं होते ?
समाधान-नहीं, क्योंकि एक योगके एक प्रक्षेप द्वारा एक समयप्रबद्ध के असंख्यातवें भागप्रमाण कर्मपरमाणुओंका आगमन पाया जाता है।
बन्धावलि के बाद समयप्रबद्धोंका अन्य प्रकृतिमें संक्रमण होना यह सान्तर सत्कर्मस्थानोंका दूसरा बीजपद है।
१. आ० प्रती 'च 'सरिसत्तासंभवादो' इति पाठः । २. प्रा०प्रतौ 'सिद्धं समयपबद्धाणं' इति पाठः ।
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३००
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ संकममस्सिदूण परूविजमाणसंतकम्मट्ठाणाणं सांतरत्तं कुदो णव्वदे ? पढमवारसंकंतदव्वं पेक्खिदण एगसमयपबद्धादो विदियवारसंकंतदव्वस्स असंखे०भागहीणत्तवलंभादो । एगसमयपबद्धादो संकेतदव्वं पेक्खिदूण अण्णेगसमयपबद्धादो संकेतदव्यं पदेसुत्तरं पदेसहीणं वा किण्ण जायदे ? ण, तुल्लजोगीहि बद्धसमयपबद्धस्स संकमणावलियाए सव्वत्थ सरिसत्तवलंभादो। ___$ ३२६. एत्थ संदिहीए समजोगिजीवसमयपबद्धाणं पमाणमेदं | २५६/ पुणो
२५६ दोण्हं पि समयपबद्धाणं पढमसमयसंकमफालिप्पहुडि जाव आवलियमेत्तरफालीणमेसा संदिही-१८ | १६ | १४ | १२ | १० || ६ |१७|
३२७. अथवा अधापवत्तभागहारो ९ एत्तियमेत्तो ति संकप्पिय एदेण [४३०४६७२१ / एत्तियमेत्तसमयपबद्धसंदिहिमोवट्टिय जहाकममुप्पाइदपढमादिफालीणमेसा संदिही दडव्वा-४७८२९६९ / ४२५१५२८ | ३७७९१३६ | ३३५९२३२ | २९८५९८४ | | २६५४२०८ | २३५९२९६ | १८८७४३६८ एदमेत्थ पहाणं, अत्थाणुमारित्तादो । एदेहि
शंका-आगे कहे जानेवाले सत्कर्मस्थान संक्रमकी अपेक्षा खान्तर होते हैं यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-क्योंकि पहली बार जितना द्रव्य संक्रान्त होता है उसकी अपेक्षा एक समयप्रबद्ध मेंसे दूसरी बार संक्रान्त होनेवाला द्रव्य असंख्यातवें भाग हीन पाया जाता है, इससे जाना जाता है कि प्रदेशसत्कर्मस्थान संक्रमणकी अपेक्षा सान्तर होते हैं।
शंका-एक समयप्रबद्धमेंसे संक्रान्त होनेवाले द्रव्यको अपेक्षा दूसरे एक समयप्रबद्ध मेंसे संक्रान्त होनेवाला द्रव्य एक प्रदेश अधिक या एक प्रदेश हीन क्यों नहीं होता ?
समाधान नहीं क्योंकि समान योगवाले जीवोंके द्वारा बांधा गया समयप्रबद्ध संक्रमणावलिके भीतर सर्वत्र समान पाया जाता है।।
६३२६. यहाँ अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा समान योगवाले दो जीवोंके दो समयप्रबद्धोंका यह प्रमाण है-२५६, २५६, पुनः दोनों ही समयप्रबद्धोंकी प्रथम समयवर्ती संक्रमफालिसे लेकर आवलिप्रमाण फालियोंकी यह संदृष्टि है१८ १६ १४ । १२ १० ।
१७२ १८ । १६ । १४ १२ १० । विशेषार्थ-यहां अंकसंदृष्टिकी अपेक्षा आवलिका प्रमाण आठ है, इसलिये पूर्वोक्त २५६ प्रमाण एक समयप्रबद्धको आठ समयोंमें बांट दिया है।
३२७. अथवा अधःप्रवृत्त भागहारका प्रमाण ९ है ऐसा मानकर इसके द्वारा ४३०४६७२१ इतने समयप्रबद्धको भाजित करने पर क्रमसे जो प्रथम आदि फालियां उत्पन्न होती हैं उनकी यह संदृष्टि जाननी चाहिये । प्रथम फालि ४७८२९६९, द्वितीय फालि ४२५१५२८, तृतीय फालि ३७७९१३६, चतुर्थ फालि ३३५१२३२, पांचवीं फालि २९८५९८४, छठी फालि २६५४२०८, सातवीं फालि २३५९२९६, आठवीं फालि १८८७४३६८ । यह संदृष्टि यहां मुख्य है,
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्त
३०१ दोहि चीजपदेहि पुरिसवेदस्स संतकम्मट्ठाणाणि परूबदव्वाणि । तत्थ पढममत्थपदमस्सिदूण हाणपरूवणद्वमुत्तरसुत्तकलावो आगओ।
ॐ जहा-जो चरिमसमयसवेदेण बद्धो समयपबद्धो तम्हि चरिमसमयअणिल्लेविदे घोलमाणजहणजोगहाणमादि कादूण जत्तियाणि जोगहाणाणि तत्तियमेत्ताणि संतकम्महापाणि ।
६ ३२८. 'जहा' तं जहा त्ति अंतेवासिपुच्छा जइवसहाइरियाणमासंका वा । चरिमसमयसवेदेण जीवेण जो बद्धो समयपबद्धो तम्हि ताव सांतरहाणाणं पनाणं परूवेमि त्ति जइवसहाइरियाणमेसा पइन्जा) केरिसे तम्हि त्ति वुत्ते चरिमसमयअपिल्लेविदे चरिमफालिमेत्तावसेसे भणामि त्ति भावत्थो । एदिस्से जहण्णदव्वचरिमफालीए पमाणाणुगमं कस्सामो। तं जहा-घोलमाणजहण्णजोगेण चरिमसमयसवेदेण बद्धेगसमयपबद्धे बंधावलियादिकंते अधापवत्तभागहारेण खंडिदे तत्थ एगखंडं परसरूपेण संकामेदि । पुणो विदियसमए सेसदव्यमधापवत्तभागहारेण खंडिदूण तत्थ एगखंडं परसरूवेण संकामेदि । णवरि पढमसमयम्मि संकंतदव्वादो विदियसमयम्हि संकेतदव्वमसंखे०भागूणं, पढमसमयम्मि संकंतदव्वे अधापवत्तभागहारेण खंडिदे तत्य एगखंडमेत्तेण तत्तो विदियसमयसंकंत
क्योंकि यह मूल अर्थके अनुसार बनाई गई है। इन दोनों बीज पदोंकी अपेक्षा पुरुषवेदके सत्कर्मस्थानोंका कथन करना चाहिये। उनमें से पहले अर्थकी अपेक्षा स्थानोंका कथन करनेके लिये आगेका सूत्रसमुच्चय आया है
8 यथा--अन्तिम समयवर्ती सवेदीने जो समयप्रबद्ध बाँधा उसके अन्तिम फालि मात्र शेष रहने पर घोलमान जघन्य योगस्थानसे लेकर जितने योगस्थान होते हैं उतने ही सत्कर्मस्थान होते हैं।
६३२८. सूत्रमें 'जहा' पद 'तं जहा' के अर्थमें आया है । इसके द्वारा अन्तेवासीकी पृच्छा या स्वयं यतिवृषभ आचार्यने अपनी आशंका प्रकट की है । अन्तिम समयवर्ती सवेदी जीवने जो समयप्रबद्ध बाँधा उसमें सर्व प्रथम सान्तर स्थानोंके प्रमाणका कथन करते हैं यह यतिवृषभ आचार्यकी प्रतिज्ञा है। वह कैसा ऐसा पूछने पर चरम समय अनिर्लेपित रहने पर अर्थात् अन्तिम फोलिमात्र शेष रहने पर यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब इस जघन्य द्रव्यरूप अन्तिम फालिके प्रमाणका विचार करते हैं । यथा-अन्तिम समयवर्ती सवेदी जीव जघन्य परिणामयोगके द्वारा जिस एक समयप्रबद्धका बन्ध करता है उसमें अधःप्रवृत्त भागहारका भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त हो उसका बन्धावलिके बाद प्रथम समयमें पर प्रकृतिरूपसे संक्रमण होता है। फिर शेष द्रव्यमें अधःप्रवृत्तभागहारका भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त हो उसका दूसरे समयमें पर प्रकृतिरूपसे संक्रमण होता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रथम समयमें जितने द्रव्यका संक्रमण होता है उससे दूसरे समयमें संक्रमणको प्राप्त हुआ द्रव्य असंख्यातवें भागप्रमाण कम होता है, क्योंकि प्रथम समयमें जो द्रव्य संक्रमणको प्राप्त हुआ है उसमें अधःप्रवृत्तभागहारका भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त हो, दूसरे समयमें
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३०२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ दव्वस्स ऊणत्तुवलंभादो। विदियसमयसंकेतदव्वादो वि तदियसमयसंकंतदव्वमसंखे०. भागहीणं, विदियसमयसंकेतदव्वे अधापवत्तभागहारेण खंडिदे तत्थ एयखंडमेत्तदव्वेण तत्तो तस्स परिहीणत्तुवलंभादो। एवं चउत्थसमयादीणं पिणेदव्वं जाव संकामगदुचरिमसमओ त्ति । पढमफालीए सह सव्वफालीओ सरिसाओ ति घेत्तूण पुणो समयणावलियाए ओवट्टिदअधापवत्तभागहारेण एगसमयपबद्धे भागे हिदे एगसमयपबद्धादो परपयडीए संकेतदव्वं होदि। सेसरूवूणविरलणाए धरिदखंडाणं समुदओ जहण्णपदेससंतकम्मट्ठाणं होदि। संपहि एत्थ एदं समयपबद्धमस्सिदण घोलमाणजहण्णजोगहाणमादि कादूण जत्तियाणि जोगट्ठाणाणि तत्तियाणि चेव संतकम्मडाणाणि होति ।
___$ ३२९. एत्थ ताव हाणाणं साहणटं समयपबद्धपक्खेवपमाणाणुगमं कस्सामो। तं जहा—सुहुमणिगोदजहण्णजोगट्ठाणपक्खेवभागहारे सेढीए असंखे०भागमेत्ते तप्पाओग्गेण पलिदो०असंखे भागेण गुणिदे घोलमाणजहण्णजोगपक्खेवभागहारो होदि । संपहि इमं विरलेदूण चरिमसमयसवेदेण बद्धेगसमयपबद्ध समखंडं कादण दिण्णे तत्थ एकेकस्स रूवस्स एगेगो सगलपक्खेवो होदि । संपहि एदिस्से विरलणाए हेट्ठा अधापवत्तभागहारं विरलेदूण एगसगलपक्खेवे समखंडं कादूण दिण्णे तत्थ एगखंडमवेदपढमावलियचरिमसमए एगसगलपक्खेवादो संकेतदव्वं होदि । संपहि संक्रमणको प्राप्त हुआ द्रव्य उतना कम पाया जाता है। इसी प्रकार दूसरे समयमें संक्रमणको प्राप्त हुए द्रव्यसे भी तीसरे समयमें संक्रमणको प्राप्त हुआ द्रव्य असंख्यातवें भागप्रमाण न्यून है, क्योंकि दूसरे समयमें संक्रमणको प्राप्त हुए द्रव्यमें अधःप्रवृत्तभागहारका भाग देनेपर वहाँ जो एक भाग प्राप्त हो, तीसरे समयमें संक्रमणको प्राप्त हआ द्रव्य उतना कम पाया जाता है। इसी प्रकार संक्रामकके उपान्त्य समय तक चौथे आदि समयोंमें भी संक्रमणका क्रम उक्त प्रकारसे जानना चाहिये । प्रथम फालिके समान सब फालियां हैं ऐसा समझकर फिर एक समय कम एक आवलिसे भाजित अधःप्रवृत्तभागहारका एक समयप्रबद्धमें भाग देने पर एक समयप्रबद्धमेंसे पर प्रकृतिमें संक्रमणको प्राप्त हुआ द्रव्य प्राप्त होता है और शेष एक कम विरलनके ऊपर प्राप्त खण्डोंका जोड़ जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। यहां इस समयप्रबद्ध की अपेक्षा जघन्य परिणामयोगस्थानसे लेकर जितने योगस्थान होते हैं उतने ही सत्कर्मस्थान होते हैं।
६३२९. अब यहाँ स्थानोंकी सिद्धिके लिये समयप्रबद्धके प्रक्षेपके प्रमाणका विचार करते हैं । यथा-सूक्ष्म निगोदियाके जघन्य योगस्थानका प्रक्षेप भागहार जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसे तद्योग्य पल्यके असंख्यातवें भागसे गुणा करने पर जघन्य परिणाम योगस्थानका प्रक्षेप भागहार होता है। अब इसका विरलन करके इस पर अन्तिम समयवर्ती सवेदीके द्वारा बाँधे गये एक समयप्रबद्धके समान खण्ड करके देयरूपसे देने पर प्रत्येक एकके प्रति एक एक सकल प्रक्षेप प्राप्त होता है। अब इस विरलनके नीचे अधःप्रवृत्त भागहारका विरलन करके उस पर एक सकलप्रक्षेपको समान खण्ड करके देयरूपसे देने पर वहाँ प्राप्त हुआ एक खण्ड, अपगतवेदीकी प्रथम आवलिके अन्तिम समयमै एक सकल प्रक्षेपमेंसे संक्रान्त हुए द्रव्यका प्रमाण होता है। अब इस प्रमाणको आगे श्रेणिके असंख्यातवें भाग
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
३०३ एदेण पमाणेण उवरिमसेढीए' असंखे०भागमेत्तसयलपक्खेवेसु अवणिदे सेसं विदियादिफालिपमाणं होदि। संपहि इमाओ अवणेदूण दृविदपढमफालीओ सयलपक्खेवसंबंधिणीओ सयलपक्खेवपमाणेण कस्सामो। तं जहा-अधापवत्तभागहारमेत्तपढमफालीओ घेत्तण जदि एगो सयलपक्खेवो लन्भदि तो सेढोए असंखे०मागमेत्तपढमफालीणं केत्तिए सयलपक्खेवे लभामो त्ति अधापवत्तभागहारेण उवरिमभागहारे सेढीए असंखे०भागमेत्ते खंडिदे तत्थ एयखंडमेत्ता सयलपक्खेवा लभंति ।
६३३०. संपहि पढमफालिं विदियादिसेसफालिपमाणेण कस्सामो। तं जहारूवणअधापवत्तभागहारमेत्तपढमफालीहिंतो जदि एगं विदियादिफालिपमाणं' लब्भदि तो सेढीए असंखे०भागमेत्तपढमफालीसु केत्तियं विदियादिसेसपमाणं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए रूवूणअधापवत्त भागहारेण उवरिमविरलणाए खंडिदाए तत्थ एगखंडमेत्ताओ विदियादिसेससलागाओ लभंति २।
प्रमाण सकल प्रक्षेपोंमेंसे घटाकर जो शेष रहे वह दूसरी आदि फालियोंका प्रमाण होता है। अब इन फालियोंको घटाकर सकल प्रक्षेप सम्बन्धी जो प्रथम फालियाँ स्थापित हैं उन्हें सकल प्रक्षेपके प्रमाणसे करते हैं। यथा-अधःप्रवृत्तभागहारप्रमाण प्रथम फालियोंको एकत्रित करने पर यदि एक सकल प्रक्षेप प्राप्त होता है तो जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण प्रथम फालियोंको एकत्रित करने पर कितने सकल प्रक्षेप प्राप्त होंगे इस प्रकार त्रैराशिक करके अध:प्रवृत्त भागहारका आगेके भागहार श्रेणिके असंख्यातवें भागमें भाग देने पर वहां एक खण्ड प्रमाण सकल प्रक्षेप प्राप्त होते हैं ?
__उदाहरण अधःप्रवृत्तभागहार ९, जगश्रेणिका असंख्यातवां भाग ३६, प्रथम फलि ४७८२९६९,
९ बार प्रथम फलि ४७८२६६९ को जोड़ने पर एक सकल प्रक्षेप ४३०४६७२१ प्रमाण संख्या प्राप्त होती है तो जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग ३६ बार प्रथम फालि ४७८२९६९ को जोड़ने पर ४ सकलप्रक्षेप प्राप्त होंगे यह स्पष्ट ही है।
६३३०. अब प्रथम फालिको दूसरी आदि शेष फालियोंके प्रमाणसे करते हैं। यथा-एक कम अधःप्रवृत्तभागहार प्रमाण प्रथम फालियोंके जोड़ने पर यदि एक बार दूसरी फालियोंका प्रमाण प्राप्त होता है तो जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण फालियोंके जोड़ने पर कितनी दसरी आदि शेष फालियोंका प्रमाण प्राप्त होगा इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाण राशिका भाग देने पर उपरिम विरलनमें अधःप्रवृत्तभागहारका भाग देने पर वहाँ एक भागप्रमाण दुसरी आदि शेष फालियां प्राप्त होती हैं ।
उदाहरण-यहाँ एक कम अधःप्रवृत्तभागहार ८ है। इतनी बार प्रथम फालियोंको जोड़ने पर एक बार दूसरी आदि सब फालियोंका प्रमाण ३८२६३७५२ प्राप्त होता है अतः जगणिके असंख्यातवें भाग ३६ बार प्रथम फालियोंको जोड़नेसे ३६ में ८ का भाग देने पर लब्ध ४३ बार दूसरी आदि फालियोंका जोड़ प्राप्त होगा।
१. भा०प्रतौ 'उवरि सेढीए' इति पाठः । २. प्रा०प्रतौ 'अवणिदसेस' इति पाठः । ३. ता प्रवौ 'जदि एवमेगं विदियादिफालिपमाणं' इति पाठः । १. आ०प्रतौ 'अवटिदाए मधापवत्त' इति पाठः।
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जयधवलास हिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५ ९ ३३१. संपहि पढमफालीओ पढमसेसपमाणेण कस्सामो । किं सेसं १ विदियादिकालिपमाणं । तं जहा — अधापवत्तभागहारमे तपढमफाली हिंतो जदि एगं पढमसेसपमाणं लब्भदि तो उवरिमविरलणमेत्तपढमफालीसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए अधापवत्तभागद्दारेण ओवट्टिदउवरिमविरलणमेत्ता पढमसेसा लब्भंति ३ ।
$ ३३२. संपहि विदियादिसेसं पढमफालिपमाणेण कस्सामो । तं जहाएग विदियादिसेसादो जदि रूवूण अधापवत्तभागहारमे त पढमफालीओ लब्भंति तो सेढीए असंखे० भागमेत्तविदियादिसेसेसु केत्तियाओ लभामो ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए रूवूणअधापवत्तेण गुणिदसेढीए असंखे० भागमेत्ताओ पढमफालीओ लब्भंति ४ ।
९ ३३३. संपहि विदियादिसेसं सयलपक्खेवपमाणंण कस्सामो । तं जहाअधापवत्तभागहारमेत्तसे साणं जदि रूवूणअधापवत्तभागहारमेत्तसयल पक्खेवा लब्भंति तो सेढीए असंखे० भागमे तसे साणं केत्तिए सयलपक्खेवे लभामो त्ति अधापवत्तेण सेटीए
३०४
$ ३३१. अब प्रथम फालियोंको प्रथम शेषके प्रमाणसे करते हैं । शंका- शेष किसे कहते हैं ?
समाधान - दूसरी आदि फालियोंके प्रमाणको शेष कहते हैं । यथा अधःप्रवृत्त भागहार प्रमाण प्रथम फालियोंके जोड़ने पर यदि एक बार प्रथम शेषका अर्थात् प्रथम फालिके साथ शेष फालियोंका प्रमाण प्राप्त होता है तो उपरिम विरलन प्रमाण प्रथम फालियों में क्या प्राप्त होगा इस प्रकार त्रैराशिक करके फल राशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाण राशिका भाग देने अधःप्रवृत्त भागहारसे भाजित उपरिम विरलनप्रमाण प्रथम शेष प्राप्त होते हैं ३ ।
उदाहरण - अधःप्रवृत्त भागहार ९ है । इतनी बार प्रथम फालियोंके जोड़ने पर प्रथम आदि सब फालियोंका जोड़ ४३०४६७२१ प्राप्त होता है, अतः उपरिम विरलन ३६ बार प्रथम फालियोंके जोड़नेसे ३६ में ९ का भाग देने पर लब्ध ४ बार प्रथम शेष प्राप्त होंगे ।
$ ३३२, अब द्वितीयादि शेषको प्रथम फालिके प्रमाणसे करते हैं । यथा एक द्वितीयादि शेषसे यदि एक कम अधःप्रवृत्त भागद्दार प्रमाण प्रथम फालियाँ प्राप्त होती हैं तो जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण द्वितीयादि शेषोंमें कितनी प्रथम फालियाँ प्राप्त होंगी इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देने पर एक कम अधःप्रवृत्तभागद्दार से गुणित जगश्र ेणिका असंख्यातवां भाग प्राप्त हो उतनी प्रथम फालियाँ प्राप्त होती हैं ४ ।
उदाहरण - दूसरी फालिसे लेकर शेष सब फालियां द्वितीयादि शेष कहलाती हैं । अंकदृष्टि से इसका प्रमाण ३८२६३७५२ है । इसमें ४७८२९६९ के बराबर एक कम अधप्रवृत्तभागहार ८ प्रमाण प्रथम फालियां प्राप्त होती हैं अतः उपरिम विरलन ३६ बार प्रथम शेषों में ८×३६ = २८८ प्रथम फालियाँ प्राप्त होंगी ।
§ ३३३. अब द्वितीयादि शेषको सकल प्रक्षेपके प्रमाणसे करते हैं । यथा - अधःप्रवृत्त भागहार प्रमाण द्वितीयादि शेषोंके यदि एक कम अधःप्रवृत्तभागहार प्रमाण सकल प्रक्षेप प्राप्त होते हैं तो जगश्र णिके असंख्यातवें भागप्रमाण शेषोंके कितने सकल प्रक्षेप प्राप्त होंगे
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं असंखे भागं खंडेदूण तत्थेगखंडे रूवूणअधापवत्तेण गुणिदे सयलपक्खेवा लब्भंति ५। ___६३३४. संपहि विदियादिसेसं पढमसेसपमाणेण कस्सामो। एत्थ जाणिदूण तेरासियं कायव्वं ६ ।
$३३५. संपहि सयलपक्खेवम्मि पढमफालिमवणिय अवणिदसेसमधापवत्तभागहारं विरलिय समखंडं कादण दिण्णे सयलपक्खेवमस्सिदण विदियफालिपमाणं पावदि । पुणो एदेण पमाणेण सेढीए असंखे०भागमेत्तसव्वसेसेसु अवणिदण पुध द्ववेदव्वं । एसा अवणेदूण पुध हविदा विदिया फाली पढमफालीए अधापवत्तभागहारेण खंडिदाए तत्थ एगखंडेणणा। संपहि एदं विदियफालिदव्वं पढमफालिपमाणेण कस्सामो। तं जहा-अधापवत्तभागहारमेत्तविदियफालोणं जदि रूवूणअधापवत्तमेत्तपढमफालीओ लभंति तो सेढीए असंखे०भागमेत विदियफालीसु केत्तियाओ पढमफालीओ लभामो
इस प्रकार त्रैराशिक करके अधःप्रवृत्त भागहारका जगणिके असंख्यातवें भागमें भाग देकर जो एक भाग प्राप्त हो उसका एक कम अधःप्रवृत्त भागहारसे गुणा करने पर जितना लब्ध आवे उतने सकल प्रक्षेप प्राप्त होते हैं ५।
___ उदाहरण-अधःप्रवृत्त भागहार ९ है और द्वितीयादि शेष ३८२६३७५२ है । इसे ९ से गुणा करने पर ३४४३७३७६८ होते हैं । इस राशिमें सकल प्रक्षेप ८ प्राप्त होते हैं । यह ८ एक कम अधःप्रवृत्त भागहारप्रमाण है अतः जगणिके असंख्यातवें भाग ३६ बार द्वितीयादि शेषोंमें ३२ सकल प्रक्षेप प्राप्त होंगे।
६३३४. अब द्वितीयादि शेषको प्रथम शेषके प्रमाणसे करते हैं। यहां जान कर त्रैराशिक करना चाहिये ६।
उदाहरण-प्रथमादि शेष और सकल प्रक्षेपका एक ही अर्थ है अतः अधःप्रवृत्त भागहार ९ प्रमाण द्वितीयादि शेषोंमें ८प्रथम शेष प्राप्त होंगे और इसी हिसाबसे जगणिके असंख्यातवें भाग ३६ प्रमाण द्वितीयादि शेषोंमें ३२ प्रथम शेष प्राप्त होंगे। त्रैराशिकके क्रमसे इसका यों कथन होगा-अधःप्रवृत्तभागहार प्रमाण द्वितीयादि शेषोंके यदि एक कम अधःप्रवृत्तभागहार प्रमाण प्रथम शेष प्राप्त होंगे तो जगश्रोणिके असंख्यातवें भागप्रमाण द्वितीयादि शेषोंके कितने प्रथम शेष प्राप्त होंगे। इसप्रकार त्रैराशिक करने पर अधःप्रवृत्त भागहारका जगणिके असंख्यातवें भागमें भाग देकर जो एक भाग लब्ध आवे उसे एक कम अधःप्रवृत्तभागहारसे गुणा करने पर प्रथम शष/का प्रमाण प्राप्त होता है।
$ ३३५. अब सकल प्रक्षेपमेंसे प्रथम फालिको निकालकर निकालनेके बाद जो शेष बचे उसे अधःप्रवृत्तभागहार प्रमाण विरलनोंके ऊपर समान खण्ड करके देने पर सकल प्रक्षेपकी अपेक्षा प्रत्येक एक विरलनके प्रति दुसरी फालिका प्रमाण प्राप्त होता है। फिर इस प्रमाणको जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण सब शेषोंमेंसे घटाकर अलग स्थापित करना चाहिये । यह घटाकर अलग स्थापित की गई दूसरी फालि है जो प्रथम फालिमें अधःप्रवृत्त भागहारका भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त हो उतना प्रथम फालिसे न्यून है। अब इस दूसरी फालिके द्रव्यको पहली फालिके प्रमाणसे करते हैं। यथा-अधःप्रवृत्तभागहारप्रमाण दूसरी फालियोंकी यदि एक कम अधःप्रवृत्तभागहार प्रमाण प्रथम फालियां प्राप्त होती हैं तो जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण दुसरी फालियों में कितनी प्रथम फालियाँ प्राप्त होंगी ? इस
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए पढमफालिपमाणमागच्छदि ७ ।
६ ३३६. संपहि विदियफालिदव्वं सेसपमाणेण कस्सामो। तं जहा-रूवूणअधापवत्तमेतविदियफालीणं जदि एगं सेसं पमाणं लब्भदि तो सेढीए असंखे०भागमेत्तविदियफालीसु किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए सेसपमाणमागच्छदि ८।
६ ३३७. संपहि विदियफालिं सगलपक्खेवपमाणेण कस्सामो । तं जहाअधापवत्तभागहारवग्गमेत्तविदियफालीणं जदि रूवूणअधापवत्तभागहारमेत्तसयलपक्खेवा लब्भंति तो सेढीए असंखे०भागमेत्तविदियफालीणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए अधापवत्तभागहारवग्गेण सेढीए असंखे०भागं खंडेदूण तत्थ लद्धगखंडे रूवूणअधापवत्तभागहारेण गुणिदे जत्तियाणि रूवाणि तत्तियमेत्ता सयलपक्खेवा लब्भंति ९। प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देने पर प्रथम फालियोंका प्रमाण प्राप्त होता है ।
उदाहरण-सकल प्रक्षेप ४३०४६७२१-४७८२९६९, प्रथम फालि ३८२६३७५२, अधःप्रवृत्तभागहार ९, दूसरी फालि ४२५१५२८, जगणिका असंख्यातवाँ भाग ३६ । ४२५१५२८, ४२५१५२८, ४२५१५२८, ४२५१५२८, ४२५१५२८, ४२५१५२८,
४२५१५२८, ४२५१५२८, ४२५१५२८ अब जगणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण ३६ बार सब शेष स्थापित करो और प्रत्येक उसमेंसे दूसरी फालि ४२५१५२८ को घटाकर अलग रखो। अब इन सब दूसरी फालियोंको
राशिक विधिसे प्रथम फालिरूपसे किया जाता है तो ३६ दूसरी फालियोंकी ३२ प्रथम फालियाँ बनती हैं।
६३३६. अब दूसरी फालिके द्रव्यको शेषके प्रमाणसे करते हैं । यथा-एक कम अधःप्रवृत्तप्रमाण द्वितीय फालियोंका यदि एक शेष प्रमाण प्राप्त होता है तो जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण द्वितीय फालियोंमें कितने शेष प्राप्त होंगे इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देने पर शेषका प्रमाण आता है ८।
उदाहरण-एक कम अधःप्रवृत्त प्रमाण ८, द्वितीय फालि ४२५१५२८, शेषका प्रमाण ३४०१२२३४, जगणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण ३६ यदि ८४४२५१४२८३४०१२३३४, ३६x४२५१५२८ बराबर होंगे ६x६४२५१५२८, अर्थात ४१ शेष ।
६३३७. अब दसरी फालिको सकल प्रक्षेपके प्रमाणरूपसे करते हैं। यथा-अध:प्रवृत्त भागहारके वर्गप्रमाण द्वितीय फालियोंके यदि एक कम अधःप्रवृत्त भागहारप्रमाण सकल प्रक्षेप प्राप्त होते हैं तो जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण द्वितीय फालियोंके कितने सकल प्रक्षेप प्राप्त होंगे इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देने पर, अधःप्रवृत्तभागहारके वर्गद्वारा जगश्रेणिके असंख्यातवें भागको भाजित करके वहाँ जो एक भाग प्राप्त हो उसे एक कम अधःप्रवृत्तभागहारसे गुणित करने पर, जितनी संख्या आवे उतने सकल प्रक्षेप प्राप्त होते हैं ९।
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं ___६३३८. संपहि विदियफालिंदव्वे पढमफालिदव्वम्मि सोहिदे सुद्धसेसं पढमफालिपक्खेवविसेसो णाम । संपहि एदे विसेसा पुव्विल्लकिरियाए समुप्पण्णा उवरिमविरलणाए सेडीए असंखे०भागमेत्ता अत्थि । संपहि एदे अवणि दविसेसे पढमफालिपमाणेण कस्सामो। तं जहा–अधापबत्तभागहारमेत्तपढमफालिविसेसाणं जदि एगा पढमफाली लब्भदि तो सेढीए असंखे०भागमेत्तविसेसेसु केत्तियाओ पढमफालीओ लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए पढमफालीओ लभंति १०।।
$३३९. संपहि सयलपक्खेवपमाणेण कस्सामो । तं जहा-अधापवत्तभागहारवग्गमेत्तविसेसाणं जदि एगो सयलपक्खेवो लब्भदि तो सेढीए असंखे०भागमेत्तविसेसाणं केत्तियसयलपक्खेवे लभामो त्ति अधापवत्तभागहारवग्गेण सेढीए असंखे०भागे खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्ता सयलपक्खेवा लब्भंति ११ ।
६३४०. संपहि ते विसेसे विदियफालिपमाणेण कस्सामो । तं जहारूवणअधापवत्तभागहारमेत्तविसेसेहितो जदि एगा विदियफाली लब्भदि तो सेढीए उदाहरण-अधःप्रवृत्तभागहार ९ का वर्ग ८१; ४२५१५२८४८१-३४४३७३७६८ =
८४४३०४६७२१;
१८४४३०४६७२१ = २६ सकल प्रक्षेप । ६३३८. अब दूसरी फालिके द्रव्यको पहली फालिके द्रव्यमेंसे घटा देने पर जो शेष रहे वह प्रथम फालिसम्बन्धी प्रक्षेपविशेष है। अब ये विशेष पूर्वोक्त विधिसे उत्पन्न करने पर उपरिम विरलनमें जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं। अब इन घटाये हुए विशेषोंको प्रथम फालिके प्रमाणरूपसे करते हैं। यथा-अधःप्रवृत्त भागहारप्रमाण विशेषोंकी यदि एक प्रथम फालि प्राप्त होती है तो जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण विशेषोंकी
प्रथम फालियाँ प्राप्त होंगी इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देने पर जो लब्ध आवे उतनी प्रथम फालियाँ प्राप्त होती हैं १० ।
उदाहरण-प्रथम फालि ४७८२९६९; द्वितीय फालि ४२५१५२८; विशेष ४७८२९६९४२५१५२८ =५३१४४१; यदि ९४५३१४४१ =४७८२९६९ (प्रथम फालि ) तो ३६४५३१४४१ =३६ प्रथमफालि अर्थात् ४ प्रथमफालि प्राप्त होंगी।
६३३९. अब दूसरी फालिके द्रव्यको पहली फालिके द्रव्यमेंसे घटा देने पर जो शेष रहे उस विशेषको सकल प्रक्षेपके प्रमाणरूपसे करते हैं । यथा-अधःप्रवृत्तभागहारके वर्गप्रमाण विशेषोंका यदि एक सकल प्रक्षेप प्राप्त होता है तो जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण विशेषांके कितने सकल प्रक्षेप प्राप्त होंगे इस प्रकार अधःप्रवृत्तभागहारके वर्गसे जगणिके असंख्यातवें भागको खंडित करने पर एक भागप्रमाण सकल प्रक्षेप प्राप्त होते हैं ११ ।
उदाहरण--अधःप्रवृत्तभागहार ९ का वर्ग ८१, विशेष ५३१४४१; यदि ८१४५३१४४१ का एक सकल प्रक्ष प४३०४६७२१ होता है तो जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग ३६ के कितने सकलपक्षप होंगे ? ३६ सकलप्रक्षेप होंगे।
६३४०. अब उन्हीं विशेषोंको द्वितीय फालिके प्रमाणरूपसे करते हैं । यथा-एक कम अधःप्रवृत्त भागहारप्रमाण विशेषोंकी यदि एक द्वितीय फालि होती है तो जगणिके असंख्यातवें
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३०८
जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
असं० भागमेत्तविसेसाणं केत्तियाओ लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओट्टिदाए रूवूणअधापवतेण खंडिदसेढीए असंखे० भागमेत्ताओ विदियफालीओ लब्भंति १२ ।
६ ३४१. संपहि सेढी असंखे० भागमेत्तसयलपक्खेवेसु पढम - विदिय फालीए अवणेण पुणो अवणिदसेसं विदियफालिपमाणेण कस्सामो। तं जहा — एगसेसपमाणम्मि जदि रूवूणअधापवत्तमेत्तविदियफ लीओ लब्भंति तो सेढीए असंखे ०भागमेत साणं केचियाओ विदियफालीओ लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओट्टदा सेढी असंखे ० भागमेत्ताओ विदियफालीओ होंति १३ ।
$ ३४२. संपहि तं चैव विदियसेसपमाणेण कस्साभो । तं जहा - अधापवत्तभागहारमेत्तसेसाणं जदि रूवूणअधापवत्तमे त्तविदियसेस प्रमाणं लब्भदि तो सेढीए असंखे ० भागमेत्तसे साणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए अधापवत्तेण सेढीए असंखे० भागे खंडिदे तत्थेगखंडं रूवूणअधापवत्तेण गुणिदमेत्तं होदि १४ ।
भागप्रमाण विशेषोंकी कितनी द्वितीय फालियाँ प्राप्त होंगी इस प्रकार फलराशिसे गुणित इच्छाराशि में प्रमाणराशिका भाग देने पर एक कम अधःप्रवृत्त भागहारसे भाजित जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण द्वितीय फालियाँ प्राप्त होंगी ।
उदाहरण -- एक कम अधःप्रवृत्तभागहार ९ - १ = ८; विशेष = ५३१४४१; यदि ८x ५३१४४१ = द्वितीयफालि ४२५१५२८ जगश्रेणिका अ० भा० ३६५३१४४१ = द्वितीय फालियाँ |
६ ३४१. अब जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण सकल प्रक्षेपोंमेंसे प्रथम और द्वितीय फालियों को घटाकर फिर जो शेष रहे उसे दूसरी फालिके प्रमाणरूपसे करते हैं । यथा - एक बार शेष रहे प्रमाण में यदि एक कम अधःप्रवृत्त भागहारप्रमाण दूसरी फालियाँ प्राप्त होती हैं जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण शेषों में कितनी दूसरी फालियाँ प्राप्त होंगी इस प्रकार फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देने पर एक कम अधःप्रवृत्त भागहार से गुणित जग णिके असंख्यातवें भागप्रमाण दूसरी फालियाँ प्राप्त होती हैं १२ |
उदाहरण -- सकल प्रक्ष प ४३०४६७२१; प्रथमफालि ४७८२९६९; द्वितीयफालि ४२५१४२८; ४३०४६७२१ – ( ४७८२९६९ + ४२५१५२८ ) = ३४०१२२२४; यदि ३४०१२२२४=८X ४१५१५२८ द्वितीयफालि तो जगश्रेणिका असंख्यातवाँ भाग ३६४३४०१२२२४-३६x८ द्वितीय फालियाँ |
§ ३४२. अब उसीको द्वितीय शेषके प्रमाणरूपसे करते हैं । यथा--अधःप्रवृत्तभागहारप्रमाण शेषोंके यदि एक कम अधःप्रवृत्तभागहारप्रमाण द्वितीय शेष प्राप्त होते हैं तो जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण शेषोंके कितने द्वितीय शेष प्राप्त होंगे इस प्रकार फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देने पर अधःप्रवृत्तभागहार से जगश्रेणिके असंख्यातवें भागको भाजित करके वहाँ जो एक भाग प्राप्त हो उसे एक कम अधःप्रवृत्तभागहार से गुणित करने पर जो लब्ध आवे उतने द्वितीय शेष होंगे १४ ।
उदाहरण - पूर्वोक्त शेष ३४०१२२२४; सकलप्रक्षेप ४३०४६७२१- प्रथमफालि ४७८२९६९ = ३८२६३७५२ द्वितीय शेषः यदि ९४३४०१२२२४ = ८४३८२६३७५२ तो ३६x
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गा०२२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं ____३४३. एवं सेसदुसमऊणावलियमेत्तफालीणं जाणिदण एसा परूवणा कायव्वा । संपहि चरिमसमयादो हेढा ओदारिजमाणे जो कमो तं वत्तइस्सामो। तं जहादुसमयूणआवलियाए ओवट्टिदअधापवत्तभागहारं विरलिय पुणो एगसयलपक्खेवे समखंडं करिय दिण्णे तत्थ एगखंडं दुसमयूणावलियाए गलिददव्वं होदि ।
६३४४. संपहि अणेण पमाणेण घोलमाणजहण्णजोगपक्खेवभागहारमेत्तसगलपक्खेवेसु अवणयणं कायव । अवणिदसेसं चरिम-दुचरिमफालोणं पमाणं होदि ।
६.३४५. संपहि हेडा अधापवत्तभागहारं विरलेदूण एगचरिम-दुचरिमफालिपमाणे समखंडं कादृण दिण्णे तत्थेगेगरूवस्स दुचरिमफालिपमाणं पावदि । पुणो एदम्मि सेढीए असंखेजदिमागमेत्तचरिम-दुचरिमफालीसु अवणिदे सेसं चरिमफालिपमाणेण चेहदि । ३४०१२२२४ =३२ द्वितीय शेष ।
६३४३. इसी प्रकार शेषकी दो समयकम आवलिप्रमाण फालियोंको जान कर यह कथन करना चाहिये । अब अन्तिम समयसे नीचे उतारनेका जो क्रम है उसे बतलाते हैं। यथा-दो समयकम एक आवलिका अधःप्रवृत्तभागहारमें भाग दो जो लब्ध आवे उसका विरलन करो फिर उसपर एक सकल प्रक्षेपको समान खण्ड करके दो, इस प्रकार जो एक खण्ड प्राप्त हो उतना दो समयकम एक आवलिमें गलनेवाले द्रव्यका प्रमाण है।
उदाहरण-आवलिका प्रमाण ८ समय; दो समयकम आवलि ८-२-६, अधःप्रवृत्तभागहार ९; = ३, १३, सकलप्रक्षेप ४३०४६७२१,२८६९७८१४ १४३४८९०७, दो समय कम एक आवलिमें गलनेका प्रमाण २८६९७८१४ ।
६३४४. अब इस प्रमाणको जघन्य परिणाम योगस्थानके प्रक्षेप भागहारप्रमाण सकल प्रक्षेपोंमेंसे घटा देना चाहिये । घटाने पर जो शेष रहे वह चरम और द्वि चरम फालियोंका प्रमाण होता है।
__उदाहरण-४३०४६७२१ -२८६९७८१४=१४३४८९०७ चरम और द्विचरम फालियोंका प्रमाण ।
६३४५. अब नीचे अधःप्रवृत्तभागहारका विरलनकर उसपर एक चरम और द्विचरम फालिके प्रमाणको समान खण्ड करके देयरूपसे देनेपर वहां प्रत्येक एकके प्रति द्विचरम फालिका प्रमाण प्राप्त होता है। फिर इसे जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण चरम और द्वि चरम फालियोंमेंसे घटा देने पर शेष अन्तिम फालियोंका प्रमाण रहता है।
उदाहरण-अधःप्रवृत्तभागहारका प्रमाण ९; चरम और द्विचरम फालिका प्रमाण १४३४८९०७ १५९४३२३ १५९४३२३ १५९४३२३ १५९४३२३ १५९४३२३ १५९४३२३ १५९४३२३ १५९४३२३ १५९४३२३ विचरम फालिका प्रमाण १५९४३२३; चरमफालि = १४३४८९०७ - १५९४३२३
=१२७५४५८४, जगणिके असंख्यातवें भाग ३६ प्रमाण चरम द्विचरम फालि द्रव्य ३६४१४३४८९०७ मेंसे जगणिप्रमाण द्विचरम फालिका द्रव्य ३६४१५९४३२३ घटा देने पर जगश्रेणिप्रमाण अन्तिम फालियोंका द्रव्य होता है ३६४१२७५४५८४ ।
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जयधवलासहिदे कमायपाहुडे [पदेसविहन्ती ५ ३४६. संपहि इममवणेदूण पुध दृविददुचरिमफालिं चरिमफालिपमाणेण कस्सामो। तं जहा–रूवगअधापवत्तमत्तदुचरिमफालीणं जदि एगा चरिमफाली लब्भदि तो सेढीए असंखे भागमेत्तदुचरिमाणं केत्तियाओ चरिमफालीओ लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए रूखूणअधापवत्तभागहारेण खंडिदसयलपक्खेवभागहारमेत्ताओ चरिमफालीओ लभंति १। ।
३४७. संपहि दुचरिमफालियाओ चरिम-दुचरिमपमाणेण कस्सामो। तं जहा-अधापवत्तमेतदुचरिमफालीणं जदि एगं चरिम-दुचरिमफालिपमाणं लब्भदि तो सेढीए असंखे०भागमेत्तदुचरिमाणं केत्तियाओ चरिम-दुचरिमफालीओ लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए चरिम-दुचरिमफालिपमाणं लब्भदि २ ।
६ ३४८. संपहि पुध दुविदसेढीए असंखे०भागमेत्तचरिमफालीओ दुचरिमफालिपमाणेण कस्सामो । तं जहा—एगचरिमफलियाए जदि रूवूणअधापवत्तभागहारमेत्तदुचरिमफालीओ लब्भंति तो सेढीए असंखेजदिभागमेत्तचरिमफालीणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए दुचरिमफालीओ लब्भंति ३।
६३४६. अब इसे घटाकर पृथक स्थापित द्विचरम फालिको अन्तिम फालिके प्रमाणरूपसे करते हैं। यथा-एक कम अधःप्रवृत्त भागहारप्रमाण द्वि चरम फालियोंकी यदि एक चरम फालि प्राप्त होती है तो जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण द्विचरम फालियोंकी कितनी चरम फालियां प्राप्त होंगी इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देनेपर एक कम अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित सकल प्रक्षेपके भागहारप्रमाण अन्तिम फालियां प्राप्त होती हैं १।।
__उदाहरण-एक कम अधःप्रवृत्तभागहार ९-१=८; द्विचरमफालि १५९४३२३; यदि ८४१५९४३२३= १२७५४५८४ चरम फालि तो सकल प्रक्षेपका भागहार ३६४१५९४३२३%= १६ चरम फालियां।
६३४७. अब द्विचरम फालियोंको चरम और द्विचरम फालियोंके प्रमाणरूपसे करते हैं । यथा-अधःप्रवृत्तभागहारप्रमाण द्विचरम फालियोंकी यदि एक चरम और द्विचरम फालिका प्रमाण प्राप्त होता है तो जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण द्विचरम फालियों में कितनी च
और द्विचरम फालियां प्राप्त होंगी, इसप्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देनेपर चरम और द्विचरम फालियोंका प्रमाण प्राप्त होता है ।
उदाहरण-अधःप्रवृत्तभागहार ९; द्विचरम फालि १५९४३२३; यदि ९४१५९४३२३ = चरम और द्विचरम फालि १४३४८९०७ के तो ३६४:५९४३२३--३६ चरम और द्विचरम फालि।
६३४८. अब पृथक् स्थापित जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण चरम फालियोंको द्विचरमफालियोंके प्रमाणरूपसे करते हैं। यथा--एक अन्तिम फालिमें यदि एक कम अधःप्रवृत्तभागहारप्रमाण द्विचरम फालियां प्राप्त होती हैं तो जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण चरम फालियोंमें क्या प्राप्त होगा इस प्रकार फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देने पर विचरम फालियाँ प्राप्त होती हैं ३ ।
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गा० २२]
उत्तरपवडिपदेसविहत्तीए सामित्तं ६३४९. संपहि ताओ चेव चरिम-दचरिमपमाणेण कस्सामो । तं जहाअधापवतभागहारमेत्तचरिमफालीणं जदि रूवूणअधापवत्तमेत्तचरिम-दुचरिमफालीओ लब्भंति तो सेढीए असंखे०भागमेत्तचरिमफालीणं केत्तियाओ चरिम-दचरिमफालीओ' लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए चरिम-दुचरिमफालिपमाणं लब्भदि४।
६३५०. संपहि तिसमयणावलियाए ओवट्टिदअधापवत्तभागहारं विरिलिय एगसगलपक्खेवे समखंडं कादूण दिण्णे एगसगलपक्खेषमस्सिदूण तिसमयूणावलियाए गलिददव्वं होदि । पुणो एत्थ एगरूवधरिदपमाणे घोलमाणजहण्णजोगपक्खेवभागहारभूदसेढीए असंखे भागमेत्तसगल पक्खेवेसु अवणिदे अवणिदसेसं चरिम-दुचरिम-तिचरिमफालिपमाणं होदूण चिट्ठदि । संपहि तिचरिमफालीए इच्छिञ्जमाणाए अधापवत्तं विरलिय चरिम-दुचरिम-तिचरिमफालीसु समखंडं कादूण दिण्णासु तत्थतणएगेगरुवस्स तिचरिमफालिपमाणं पावदि । संपहि एसा तिचरिमफाली सेढीए असंखेजदिभागमेत्तचरिम-दुचरिम-तिचरिमफालीसु अवणेदव्वा ।
उदाहरण-यदि चरमफालि १२७५४५८४ की ९-१ =८xद्विचरमफालि १५९४३२३ प्राप्त होती हैं तो ३६४१२७५४५८४ की ३६ द्विचरमफालि प्राप्त होंगी।
६३४९. अब उन्हींको अर्थात् जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण चरमफालियोंको चरम और द्विचरम फालियोंके प्रमाणरूपसे करते हैं। यथा-अधःप्रवृत्तभागहारप्रमाण चरम फालियोंमें यदि एक कम अधःप्रवृत्तभागहारप्रमाण चरम और द्विचरम फालियां प्राप्त होती हैं तो जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण चरम फालियोंमें कितनी चरम और द्विचरम फालियां प्राप्त होंगी इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देने पर चरम और द्विचरम फालियोंका प्रमाण प्राप्त होता है ।।
उदाहरण-यदि अधःप्रवृत्तभागहार ९, चरम फालियों १२७५४५८४ की एक कम अधःप्रवृत्तभागहार ९-१८ चरम और द्विचरम फालि १४३४८६०७ प्राप्त होती हैं तो जगश्रेणिके असंख्यातवें भाग प्रमाण ३६ चरमफालि १२७५४५८४ की ६४८ चरम द्विचरम फालि प्राप्त होंगी अर्थात ३२ चरम और द्विचरमफालि प्राप्त होंगी।
३५०. अब तीन समय कम एक आवलिसे भाजित अधःप्रवृत्तभागहारका विरलन करके उसपर एक सकल प्रक्षेपको समान खण्ड करके देयरूपसे देनेपर एक सकल प्रक्षेपके आश्रयसे तीन समयकम एक आवलिके भीतर गलनेवाले द्रव्यका प्रमाण प्राप्त होता है। फिर यहां विरलनके एक अंकपर प्राप्त प्रमाणको जघन्य परिणामयोगके प्रक्षेपभागहाररूप जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण सकल प्रक्षेपोंमेंसे घटा देने पर जो शेष रहे उतना चरम, द्विचरम और त्रिरचम फालियोंका प्रमाण प्राप्त होता है। अब त्रिचरमफालिको लाना इष्ट है अतः अधःप्रवृतभोगहारका विरलन करके और उसपर अन्तिम, द्विचरम और त्रिचरम फालियोंको समान खण्ड करके देयरूपसे देनेपर वहां प्रत्येक एकके प्रति त्रिचरम फालियोंका प्रमाण प्राप्त होता है। अब इस त्रिचरमफालिको जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण चरम, द्विचरम, और त्रिचरमफालियोंमेंसे घटा देना चाहिये। इस प्रकार घटाकर जो शेष रहे वह चरम और द्विचरम फालियोंका प्रमाण होता है। अब घटाकर अलग
१. भा०प्रतौ 'चरिमफालीओ' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ अवणिदसेसं चरिम-दुचरिमफालिपमाणं होदि । संपहि अवणेदुण पुध विदतिचरिमफालिं दुचरिमफालिपमाणेण कस्सामो। तं जहां-रूवणअधापवत्तमेत्ततिचरिमफालीणं जदि अधापवत्त मेत्तदुचरिमफालीओ लब्भंति तो सेढोए असंखे०भागगेत्ततिचरिमफालीणं केत्तियाओ दुचरिमफालीको लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए दुचरिमपमाणं होदि ५।
$३५१. संपहि तिचरिमफालीओ चरिमफालिपमाणेण कस्सामो । तं जहारूवूणअधापवत्तभागहारवग्गमेत्ततिचरिमाणं जदि अधापवत्तभागहारमेत्तचरिमफालीओ लभंति तो सेढीए असंखे भागमेत्ततिचरिमफालीणं केत्तियाओ चरिमफालीओ लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए चरिमफालीओ लभंति ६ ।
$३५२. संपहि तिचरिमफालीओ चरिम-दुचरिमपमाणण कस्सामो। तं जहारूवूणअधापवत्तमत्त तिचरिमाणं जदि एगं चरिम-दुचरिमपमाणं लब्भदि तो सेढीए
स्थापित त्रिरचम फालिको द्विचरम फालिके प्रमाणरूपसे करते हैं। यथा-एक कम अधःप्रवृत्तभागहारप्रमाण त्रिचरम फालियोंमें यदि अधःप्रवृत्तभागहारप्रमाण द्विचरम फालियां प्राप्त होती है तो जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण त्रिचरम फालियोंमें कितनी द्विचरम फालियां प्राप्त होंगी, इस प्रकार फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देनेपर द्विचरम फालियोंका प्रमाण प्राप्त होता है ५।
उदाहरण-आवलिकी संदृष्टि ८; अधःप्रवृत्त ९; सकलप्रक्षेप ४३०४६७२१९ - तीन समय कम आवली ८-३=५६ भागहार; ४३०४६७२१-६%२३९१४८४५; तीन समय कम एक आवलीमें गलनेवाला द्रव्य २३९१४८४५; तीन चरम समयोंका द्रव्य ४३०४६७२१ - २३९१४८४५= १९१३१८७६, त्रिचरम समयका द्रव्य १९१३१८७६ +९= २१२५७६४, द्वि चरम और चरम समयका द्रव्य १९१३१८७६-२१२५७६४%१७००६११२, द्विचरम समयका द्रव्य १७००६११२९-१८८९५६८, यदि ९-१-८ त्रिचरम समय २१२५७६४ के ९ द्विचरम समय १८८९५६८ प्राप्त होते हैं तो ३६४२१२५७६४ के ३६४८ द्विचरम समय प्राप्त होंगे अर्थात ३२ द्विचरम समय प्राप्त होंगे।
३५१. अब त्रिचरम फालियोंको चरम फालियोंके प्रमाण रूपसे करते हैं। यथा-एक कम अधःप्रवृत्त भागहारके वर्गप्रमाण त्रिचरम फालियों में यदि अधःप्रवृत्तभागहार प्रमाण अन्तिम फालियां प्राप्त होती हैं तो जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण त्रिचरम फालियोंमें कितनी चरम फालियों प्राप्त होंगी इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देने पर चरम फालियां प्राप्त होती हैं ६।
उदाहरण-चरम फालिका द्रव्य १७००६११२–१८८९५६८%D१५११६५४४; एक कम अधःप्रवृत्त भागहारका वर्ग ( ९-१)=६४, यदि ६४ त्रिचरम फालि २१२५७६४ की ९ चरमफालि १५११६५४४ प्राप्त होती हैं तो जगश्रोणिके असंख्यातवें भाग ३६ त्रिचरम फालिकी २१चरम फालि प्राप्त होंगी।
६३५२. अब त्रिचरम फालियोंको चरम और द्विचरम फालियोंके प्रमाणरूपसे करते हैं । यथा-एक कम अधःप्रवृत्तभागहारप्रमाण त्रिचरम फालियोंमें यदि एक चरम और द्विचरम
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उत्तरपय डिपदेसविहत्तीए सामित्तं
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गा० २२] असंखे० भागमेत्ततिचरिमाणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए चरम दुरिमफालीणं पमाणं लब्भदि ७ ।
६ ३५३. संपहि दुचरिमफालीए विरलणमेततिचरिमफालीस सोहिदासु सुद्ध से सं तिचरिमफालिविसेसो' । संपहि इमे विसेसे तिचरिमफालिपमाणेण कस्सामो । तं जहाअधापवत्तमेत्ततिचरिमविसेसाणं जदि एगा तिचरिमफाली लब्भदि तो सेढीए असंखे० भागमेत्ततिचरिमफालिविसेसाणं किं लभामो ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओट्टिदा तिचरिमफालीओ लब्भंति ८ ।
1
$ ३५४. संपहि तिचरिमफा लिविसेसे दुचरिमफालिपमाणेण कस्सामो । तं जहा - रूवूणअधापवत्तमेत्ततिचरिमफालिविसेसाणं जदि एगा दुचरिमफाली लब्भदि तो सेढीए असंखे ० भागमे ततिचरिमफालिविसेसाणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओट्टिदाए दुरिमफालीओ लब्भंति ९ ।
फालि प्राप्त होती है तो जगश्र णिके असंख्यातवें भागप्रमाण त्रिचरम फालियों में कितनी चरम और द्विचरम फालियाँ प्राप्त होंगी, इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देने पर चरम और द्विचरम फालियोंका प्रमाण प्राप्त होता है ७ ।
उदाहरण - यदि एक कम अधःप्रवृत्त भागहार ( ९ - १ ) - ८; त्रिचरम फालि २१२५७६४; ८x२१२५७६४ की एक चरम और द्विचरम फालि १७००६११२ प्राप्त होती हैं तो ३६×२१२५७६४ क' X १७००६११२ अर्थात् ४३ चरम और द्विचरम फालि प्राप्त होंगी ।
९ ३५३. अब विरलनमात्र त्रिचरम फालियोंमेंसे द्विचरम फालिके घटा देने पर जो शेष रहे उतना त्रिचरम फालिविशेष प्राप्त होता है । अब इन विशेषोंको त्रिचरम फालिके प्रमाणरूप से करते हैं । यथा - अधः प्रवृत्तभागहारप्रमाण त्रिचरम फालिविशेषोंमें यदि एक त्रिचरम फालि प्राप्त होती है तो जगश्रेणिके श्रसंख्यातवें भागप्रमाण त्रिचरम फालि विशेषों में कितनी त्रिचरम फालियां प्राप्त होंगी, इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे गुणित इच्छाराशि में प्रमाणराशिका भाग देने पर त्रिचरम फालियां प्राप्त होती हैं ८ ।
उदाहरण - त्रिचरम फालिविशेष २१२५७६४-१८८९५६८ = २३६१९६ । यदि ९x २३६१९६ की एक त्रिचरम फालि २१२५७६४ प्राप्त होती है तो ३६x२३६१९६ की x २१२५७६४ अर्थात् ४ त्रिचरम फालि प्राप्त होंगी ।
९ ३५४. अव त्रिचरम फालि विशेषोंको द्विचरम फालियोंके प्रमाणरूपसे करते हैं । यथा - एक कम अधःप्रवृत्त भागद्दार प्रमाण त्रिचरम फालिविशेषोंमें यदि एक द्विचरम फालि प्राप्त होती है तो जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण त्रिचरम फालिविशेषों में कितनी द्विचरम फालियां प्राप्त होंगी, इस प्रकार फलराशिसे गुणित इच्छाराशि में प्रमाणराशिका भाग देने पर द्विचरम फालियोंका प्रमाण प्राप्त होता है ९ ।
उदाहरण - एक कम अधःप्रवृत्तभागहार (६- १) ८; त्रिचरमफालिविशेषों ८४२३६१९६ की एक द्विचरम फालि १८८९५६८ प्राप्त होती है तो ३६x२३६१९६ की ६ x १८८९५६८ अर्थात् ४३ द्विचरम फालि प्राप्त होंगी ।
१. श्र०प्रतौ 'सोहिदासु सुद्ध सेसं तिचरिमफालिविसेसा' आ० प्रतौ सोहिदाए सुसेसे तिचरिमफालिविसेसो' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ३५५. संपहि ते चेव चरिमफालिपमाणेण कस्सामो । तं जहारूवूणअधापवत्तवग्गमेत्ततिचरिमफालिविसेसाणं जदि एगा चरिमफाली लब्भदि तो सेढोए असंखे०भागमेत्ततिचरिमफालिविसेसाणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए चरिमफालीओ लब्भंति १०। ।
६३५६. एवं चरिम-दुचरिम-तिचरिम-चदुचरिमादीणं पि परूवणं करिय सिस्साणं संसकारो उप्पादेदव्वो। संपहि उप्पण्णसंसकारसिस्साणमइसंसकारमुप्पायणलं घोलमाणजहण्णजोगमादि कादृण जाव सण्णिपंचिंदियपजत्तयदउक्कस्सजोगो ति ताव एदेसि सेढीए असंखे० भागमेत्तजोगहाणाणमेगसेढिआगारेण रयणं कादण पुणो सवेदचरिम-दुचरिमआवलियाणमवगदवेदपढम-विदियआवलियाणं च समयरयणा कायव्वा । एवं काऊण पुणो पुरिसवेदस्स ढाणपरूवणं कस्सामो। तं जहा–जो चरिमसमयसवेदेण जहण्णपरिणामजोगेण बद्धो समयपबद्धो बंधावलियादिकंतपढमसमयप्पहुडि परपयडीसु संकंतदुचरिमादिफालिकलावो चरिमफालिमेत्तावसेसो सो जहण्णपदेससंतकम्महाणं होदि । संपहि एदस्सुवरि एगपरमाणुत्तरादिकमेण हाणाणि ण उप्पजंति, पदेससंकमस्स एगजोगेण बद्धेगसमयपबद्धविसयस्स सव्वजीवेसु समाणत्तादोअवगदवेदम्मि
६ ३५५. अब उन्हीं त्रिचरम फालिविशेषोंको चरम फालियोंके प्रमाणरूपसे करते हैं । यथा-एक कम अधःप्रवृत्तभागहारके वर्गप्रमाण त्रिचरम फालिविशेषोंमें यदि एक चरम फालि प्राप्त होती है तो जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण त्रिचरम फालिविशेपोंमें कितनी अन्तिम फालियां प्राप्त होंगी, इस प्रकार त्रैराशिक करके फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाण राशिका भाग देने पर चरम फालियां प्राप्त होती हैं १०।
. उदाहरण-यदि एक कम अधःप्रवृत्तभागहारका वर्ग (९-१)=६४; त्रिचरम फालि विशेषों ६४४२३६१९६ की एक चरम फालि १५११६५४४ प्राप्त होती है तो ३६४ . २३६१९६ की ३६४१५११६५४४ अर्थात् १६ चरम फालि प्राप्त होंगी।
६३५६. इस प्रकार चरम, द्विचरम, त्रिचरम और चतुःचरम आदि फालियोंका भी कथन करके शिष्योंमें संस्कार उत्पन्न करना चाहिये । अब जिन शिष्योंमें संस्कार उत्पन्न हो गये हैं उनमें और अधिक संस्कारोंके उत्पन्न करनेके लिये जघन्य परिणाम योगस्थानसे लेकर संज्ञी पंचेन्द्रिय पर्याप्तकके उत्कृष्ट योगके प्राप्त होने तक जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण इन योगस्थानोंकी एक पंक्तिमें रचना करके फिर सवेद भागकी चरम और द्विचरम आवलियों के और अपगतवेदकी प्रथम और द्वित्तीय आवलियोंके समयोंकी रचना करनी चाहिये । ऐसा करनेके बाद अब पुरुषवेदके स्थानोंका कथन करते हैं । यथा-अन्तिम समयवर्ती सवेदीने जघन्य परिणाम योगके द्वारा जो समयप्रबद्ध बांधा उसमेंसे बन्धावलिके बाद प्रथम समयसे लेकर द्विचरम फालि तकका द्रव्य पर प्रकृतियों में संक्रान्त होकर जो चरम फालि मात्र शेष रहता है वह जघन्य प्रदेशसत्कर्म है। अब इसके आगे उत्तरोत्तर एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे स्थान नहीं उत्पन्न होते हैं, क्योंकि एक योगके द्वारा बांधा गया समयप्रबद्धसम्बन्धी प्रदेशसंक्रम अनिवृत्तिकरण गुणस्थानवर्ती सब जीवोंके समान होता है। तथा अपगतवेदोके पुरुषवेदका उदय नहीं होनेसे अधःस्थितिकी निर्जरा नहीं पाई जाती, इसलिये
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गो० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
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उदयाभावेण अधट्टिदीए गलणाभावादो च । तेणेत्थ सांतरट्ठाणाणि चेवुप्पअंति । त्ति । चरिमसमयसवेदेण जहण्णजोगहाणादो पक्खेवु त्तरजोगेण परिणमिय बद्धसमयपबद्धेण परपयडीए संकंतदुचरिमादिफा लिकलावेण चरिमफालीए धरिदाए अनंताणि द्वाणाणि अंतरिदूण अण्णमपुणरुत्तद्वाणं होदि । एवं णाणाजीवे अस्सिदूण घोलमाणजहण्णजोगा पहुड पक्खेवुत्तरकमेण परिणमाविय णेदव्वं जाव उक्कस्सजोगहाणे ति । एवं णीदे चरिमसमयअणिल्लेविदम्मि घोलमाणजहण्णजोगहाणमादिं काढूण जत्तियाणि जोगवाणाणि वत्तियमेत्ताणि संतकम्मड्डाणाणि होंति ।
* चरिमसमयसवेदेण उक्कस्सजोगेणे त्ति दुचरिमसमय सवेदेण जहणजो गहाणेणे त्ति एत्थ जोगड्डाणमेत्ताणि [ संतकम्मट्ठाषाणि ] लब्भंति ।
९ ३५७. चरिमसमय सवेदेण उकस्सजोगेण बद्धचरिम- दुचरिमफालिदव्त्रं दुचरिमसमयसवेदेणजहण्णजोगेण बद्धसमयपबद्धस्स चरिमफालिदव्वं च घेत्तूण अण्णमपुणरुत्तड्डाणं होदि | दुचरिमसमय सवेदो जदि जहण्णजोगेण परिणदो होदि तो चरिमसमयसवेदो उकस्सजोगट्ठाणेण ण परिणमदि, संखेजेहि वारेहि विणा उक्कस्सजोगहाणेण परिणमणसत्ती अभावादो । अह जह चरिमसमयसवेदो उक्कस्सजोगट्ठाणेण परिणदो होदि तो दुचरिमसमयसवेदो ण जहण्णजोगो, अचंताभावेण पडिसिद्धत्तादो ति १ ण एस यहां सान्तर स्थान ही उत्पन्न होते हैं। अब एक ऐसा चरम समयवर्ती सवेदी जीव है जिसे योगस्थानमें प्रक्षेप करने से दूसरा योगस्थान प्राप्त हुआ है, उसने उसके द्वारा एक समयप्रबद्धका बन्ध किया । अनन्तर द्विचरम फालिसे लेकर प्रारम्भकी फालि तकके द्रव्यको पर प्रकृतिरूपसे संक्रान्त कर दिया और अन्तिम फालिको धारण करके स्थित है तो उसके अनन्त स्थानोंका अन्तर देकर दूसरा अपुनरुक्त स्थान प्राप्त होता है । इस प्रकार नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य परिणाम योगस्थानसे लेकर उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक प्रक्षेपोसर के क्रमसे परिणमते हुए ले जाना चाहिए। इस प्रकार ले जाने पर अन्तिम समयवर्ती अनिर्लेपित द्रव्यमें जघन्य परिणाम योगस्थान से लेकर जितने योगस्थान होते हैं उतने सत्कर्मस्थान उत्पन्न होते हैं । * चरम समयवर्त्ती सवेदी जीवके द्वारा उत्कृष्ट योगसे तथा द्विचरम समयवर्त्ती सवेदी जीवके द्वारा जघन्य योगस्थानसे बन्ध करने पर यहां पर योगस्थानप्रमाण सत्कर्मस्थान प्राप्त होते हैं ।
९ ३५७. अन्तिम समयवर्ती सवेदी जीवके द्वारा उत्कृष्ट योगका आलम्बन लेकर बाँधे गये समयप्रबद्धके अन्तिम और उपान्त्य फालिके द्रव्यको तथा उपान्त्य समयवर्ती सवेदी जीवके द्वारा जघन्य योगका आलम्बन लेकर बाँधे गये समयप्रबद्ध के अन्तिम फालिके द्रव्यको ग्रहण कर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है ।
शंका-उपास्य समयवर्ती सवेदी जीव यदि जघन्य योगसे परिणत होता है तो अन्तिम समयवर्ती सवेदी जीव उत्कृष्ट योगस्थानरूपसे परिणत नहीं हो सकता, क्योंकि संख्यात बार हुए बिना उत्कृष्ट योगरूपसे परिणमन करनेकी शक्तिका अभाव है । और यदि अन्तिम समयवर्ती सवेदी जीव उत्कृष्ट योगरूपसे परिणत होता है तो उपान्त्य समयवर्ती सवेदी जीव
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जयधषलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ दोसो, चरिमसमयसवेदे उकस्सजोगे संते दुचरिमसमयसवेदस्स जं पाओग्गं जहण्णजोगहाणं तस्सेत्थ गहणादो। एदस्स चेव एत्थ गहणं होदि, ओघजहण्णस्स ण होदि त्ति कुदो णव्वदे १ तंतजुत्तीदो सुत्ताविरुद्धवक्खाणाइरियवयणेण वा । चरिमसमयसवेदेण बद्धसमयपबद्धस्स चरिम-दुचरिमफालोओ दुचरिमसमयसवेदेण बद्धसमयपबद्धस्स चरिमफालिं च धरेदण पुव्विल्लसमयादो हेट्ठा ओदरिय हिदतिण्णिफालिक्खवगदव्वं पुग्विल्लदव्वादो असंखे०भागब्भहियं, उकस्सजोगेण बद्धदोचरिमफालीसु सरिसा त्ति अवणिदासु उक्कस्सजोगेण बद्धदुचरिमफालीए सह जहण्णजोगेण बद्धचरिमफालीए अहियत्तवलंभादो।
३५८. संपहि अंतरपमाणपरूवणहमिमा परूवणा कीरदे । तं जहा—उकस्सजोगपक्खेवभागहारभूदसेढीए असंखे भागमेत्तदुचरिमफालीओ चरिमफालिपमाणेण कस्सामो। तं जहा-रूवूणअधापवत्तभागहारमेत्तद्चरिमफालीणं जदि एगा चरिमफाली' लब्भदि तो सेढीए असंखे०भागमेत्तदुचरिमफालीणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए उकस्सजोगट्टाणपक्खेवभागहारं रूवणअधापवत्तभागहारेण जघन्य योगवाला नहीं हो सकता, क्योंकि अत्यन्त अभाव होनेसे उसका प्रतिषेध है ?
समाधान—यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अन्तिम समयवर्ती सवेदी जीवके उत्कृष्ट योगके रहते हुए उपान्त्य समयवर्ती सवेदी जीवके योग्य जो जघन्य योगस्थान होता है उसका यहां पर ग्रहण किया गया है।
शंका-इसीका यहां पर ग्रहण होता है ओघ जघन्यका नहीं होता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान-आगम और युक्तिसे तथा सूत्रके अवरोधी आचार्य वचनसे जाना जाता है।
अन्तिम सममवर्ती सवेदी जीवके द्वारा बाँधे गये समयप्रबद्धकी अन्तिम और . उपान्त्य फालियोंको तथा उपान्त्य समयवर्ती सवेदी जीवके द्वारा बाँधे गये समयप्रबद्धकी अन्तिम फालिको ग्रहण करके पहलेके समयसे नीचे उतरकर स्थित हुआ तीन फालियों सम्बन्धी क्षपक द्रव्य पहलेके द्रव्यसे असंख्यातवें भागप्रमाण अधिक है, क्योंकि उत्कृष्ट योगके द्वारा बाँधी गई दो चरम फालियाँ समान हैं ऐसा जान कर उनके अलग कर देने पर उत्कृष्ट योगके द्वारा बाँधी गई उपान्त्य फालिके साथ जघन्य योगके द्वारा बाँधी गई अन्तिम फालि अधिक उपलब्ध होती है।
६३५८. अब अन्तरके प्रमाणका कथन करनेके लिये यह प्ररूपणा करते हैं। यथाउत्कृष्ट योगके प्रक्षेपके भागहाररूप जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण द्विचरम फालियोंको अन्तिम फालिके प्रमाणरूपसे करते हैं। यथा-एक कम अधःप्रवृत्तभागहारप्रमाण द्विचरम फालियोंकी यदि एक चरमफालि प्राप्त होती है तो जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण द्विचरम फालियोंमें क्या प्राप्त होगा इस प्रकार फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देने पर उत्कृष्ट योगस्थानके प्रक्षेपभागहारको एक कम अधःप्रवृत्त भागहारसे भाजित कर
१. आप्रतौ 'एगो चरिमफाली' इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामिन्तं
३१७ खंडिय तत्थ एयखंडम्मि तप्पाओग्गजहण्णजोगहाणपक्खेवभागहारेण अब्भहियम्मि जत्तियाणि रूवाणि तत्तियमेत्तचरिमफालीहि अंतरिदूण एदमपुणरुत्तहाणमुप्पजदि । संपहि तप्पाओग्गजहण्णजोगेण बंधिदणागददचरिमसमयसवेदो पक्खेवत्तरकमेण वडावेदव्वो जाव उकस्सजोगहाणं पत्तो ति । एवं वड्डाविदे तिण्णि वि फालीओ उक्कस्साओ जादाओ। तेण एत्थ जोगहाणमेत्ताणि संतकम्मट्ठाणाणि लभंति त्ति जं भणिदं तं सुट्ट समंजसं । तप्पाओग्गजहण्णजोगहाणादो उवरिमअद्धाणमेत्ताणि चेव जेणेत्थ पदेससंतकम्मट्ठाणाणि उप्पण्णाणि तेण जोगहाणमेत्ताणि संतकम्मट्टाणाणि एत्थ लब्भंति त्ति णेदं घडदे ? ण एस दोसो, हेडिमजोगहाणद्धाणस्स सव्वजोगहाणद्धाणादो असंखे०भागत्तेण पाधणियाभावादो।
* चरिमसमयसवेदो उक्कस्सजोगो दुचरिमसमयसवेदो उकस्सजोगो तिचरिमसमयसवेदो अण्णदरजोगहाणे त्ति एत्थ पुण जोगट्टाणमेत्ताणि पदेससंतकम्माणाणि [ लभंति ]।
$ ३५९. अण्णदरजोगट्ठाणे त्ति भणिदे अण्णदरतप्पाओग्गजहण्णजोगहाणे त्ति संबंधो कायव्यो। एवं संबंधो कीरदि त्ति कुदो णव्वदे ? एत्थ जोगट्ठाणमेत्ताणि संतकम्मट्ठाणाणि लब्भंति त्ति सुत्तणि सण्णहाणुववत्तीदो। सवेदस्स तिचरिमसमए वहां प्राप्त हुए तत्ययोग्य जघन्य योगस्थानके प्रक्षेपभागहारसे अधिक एक भागमें जितने रूप सपलब्ध होते हैं तत्प्रमाण चरम फालियोंका अन्तर देकर यह अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है । अब तत्प्रायोग्य जघन्य योगके द्वारा बन्ध कर आये हुए द्विचरम समयवर्ती सवेदी जीवको एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होनेतक बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाने पर तीनों ही फालियाँ उत्कृष्ट हो जाती हैं । इसलिए यहां पर योगस्थानप्रमाण सत्कर्मस्थान प्राप्त होते हैं यह जो कहा है वह भले प्रकार ठीक ही कहा है।
शंका-तत्प्रायोग्य जघन्य योगस्थानसे लेकर उपरिम अध्वानमात्र ही चूंकि यहां पर प्रदेशसत्कर्मस्थान उत्पन्न होते हैं, इसलिए योगस्थोनप्रमाण सत्कर्मस्थान यहां पर उपलब्ध होते हैं यह कथन घटित नहीं होता ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि अधस्तन योगस्थानअध्वान सब योगस्थानअध्वानके असंख्यातवें भागप्रमाण होनेसे उसकी प्रधानता नहीं है।
ॐ जो चरम समयवर्ती सवेदी जीव उत्कृष्ट योगवाला है, द्विचरम समयवर्ती सवेदी जीव उत्कृष्ट योगवाला है और त्रिचरम समयवर्ती सवेदी जीव अन्यतर योगवाला है उसके बन्ध करने पर यहां पर योगस्थानप्रमाण प्रदेशसत्कर्मस्थान प्राप्त होते हैं।
६३५९. सूत्रमें ' अन्यतर योगस्थान' ऐसा कहने पर 'अन्यतर जघन्य योगस्थान ऐसा सम्बन्ध करना चाहिए।
शंका-इस प्रकार सम्बन्ध किया जाता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान यहां पर 'योगस्थानप्रमाण सत्कर्मस्थान प्राप्त होते हैं' ऐसा सूत्रका निर्देश अन्यथा बन नहीं सकता, इससे जाना जाता है कि सूत्र में आये हुए 'अन्यतर योगस्थान' पदका अर्थ 'अन्यतर जघन्य योगस्थान' लिया गया है।
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__ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ तप्पाओग्गजहण्णजोगेण तस्सेव दुचरिम-चरिमसमएसु उक्कस्सजोगेण बंधिदूण अधियारतिचरिमसमयम्मि द्विदस्स छप्फालीओ भवंति । संपहि चरिमसमयसवेदेण बद्धसमयपबद्धस्स चरिम-दुचरिमफालीओ दुचरिमसमयसवेदेण बद्धसमयपबद्धस्स चरमफालिसहिदाओ तिण्णि फालीओ पुव्विल्लुक्कस्सतिणिफालीहि सरिसाओ। संपहि चरिमसमयसवेदस्स तिचरिमफाली दुचरिमसमयसवेदस्स दुचरिमफाली तप्पाओग्गजहण्णजोगेण बद्धतिचरिमसमयसवेदस्स चरिमफाली च अंतरं होदूण एवं छप्फालिहाणमुप्पण्ण । णवरि पुव्विल्लंतरादो इदमंतरं विसेसाहियं, उक्कस्सजोगेण बद्धसमयपबद्धस्स तिचरिमफालीए अहियत्तवलंभादो। संपहि इदमंतरं चरिमफालिपमाणेण कस्सामो। तं जहा-रूवूणअधापवत्तभागहारमेत दुचरिमफालीणं जदि एगं चरिमफालिपमाणं लब्भदि तो उक्कस्सजोगट्ठाणपक्खेवभागहारं रूवूणअधापवत्तभागहारेण खंडेदूण तत्थ' एगखंडेणब्भहियदुगुणुकस्सजोगट्ठाणपक्खेवभागहारमेत्तदुचरिमफालीणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए चरिमफालीओ लन्भंति । एदासु तप्पाओग्गजहण्णजोगतिचरिमसमयसवेदचरिमफालीसु पक्खित्तासु अंतरपमाणं होदि । संपहि तिचरिमसमयसवेदतप्पाओग्गजहण्णजोगहाणप्पहुडि पक्खेवुत्तरकमेण वड्ढावेदव्वं जाव
जो सवेदी जीव त्रिचरम समयमें तत्प्रायोग्य जघन्य योगसे तथा द्विचरम और चरम समय में उत्कृष्ट योगसे बन्ध करके विवक्षित त्रिचरम समयमें स्थित है उसीके छह फालियाँ हैं। अब द्विचरम सवेदी जीवके द्वारा बाँधे गये समयप्रबद्ध की अन्तिम फालिके साथ अन्तिम समयवर्ती सवेदी जीवके द्वारा बांधे गये समयप्रबद्धकी अन्तिम और द्विचरम फालि मिलकर ये तीन फालियाँ पहलेको उत्कृष्ट तीन फालियोंके समान हैं। अब अन्तिम समयवर्ती सवेदी जीबकी त्रिचरम फालि, द्विचरम समयवर्ती सवेदी जीवकी द्विचरम फालि और त्रिचरम समयवर्ती सवेदी जीवकी तत्प्रायोग्य जघन्य योगसे बाँधी गई चरम फालि इनका अन्तर होकर यह छह फालिरूप स्थान उत्पन्न हुआ है। इतनी विशेषता है कि पहलेके अन्तरसे यह अन्तर विशेष अधिक है, क्योंकि उत्कृष्ट योगसे बाँधा गया समयप्रबद्ध त्रिचरम फालिरूपसे अधिक पाया जाता है। अब इस अन्तरको अन्तिम फालिके प्रमाणरूपसे करते हैं । यथा-एक कम अधःप्रवृत्त भागहारप्रमाण द्विचरम फालियोंमें यदि एक अन्तिम फालिका प्रमाण उपलब्ध होता है तो उत्कृष्ट योगस्थानके प्रक्षेप भागहारको एक कम अधःप्रवृत्तभागहारसे खण्डित करके वहां पर एक खण्डसे अधिक दुगुणे उत्कृष्ट योगस्थानके प्रक्षेप भागहारमात्र द्विचरम फालियोंमें क्या प्राप्त होगा, इसप्रकार फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देने पर अन्तिम फालियाँ प्राप्त होती हैं। इनमें तत्प्रायोग्य जघन्य योगसे प्राप्त त्रिचरम समयवर्ती सवेदी जीवकी चरम फालियोंके प्रक्षिप्त करने पर अन्तरका प्रमाण होता है । अब त्रिचरम समयवर्ती सवेदी जीवके तत्प्रायोग्य जघन्य योग स्थानसे लेकर उशष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक एक-एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढ़ाना
१. ता०प्रतौ 'दुचरिमसमएसु' इति पाठः । २. श्रा०प्रतौ -तिण्णिफालीओ सरिसायो' इति पाठः । ३. श्रा०प्रतौ 'इदमुत्तरं' इति पाठः । ४. प्रा०प्रतौ 'खंडेदूण ण वत्थ' इति पाठः ।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं उक्कस्सजोगट्ठाणं पत्तं ति । एवं वड्डाविदे छप्फालीओ उक्कस्साओ जादाओ सेढीए असंखे०भागमेत्ताणि पदेससंतकम्मट्ठाणाणि अपुणरुत्ताणि लद्धाणि भवंति । ___® एवं जोगहाणाणि दोहि आवलियाहि दुसमयूणाहि पदुप्पण्णाणि । एत्तियाणि अवेदस्त पदेससंतकम्मट्ठाणाणि सांतराणि सव्वाणि ।
६३६०. संपहि चदुचरिमसवेदस्स दसप्फालिप्पहुडि एदेण कमेणोदारेदव्वं जाव चरिमसमयसवेदस्स पढमफाली दिस्सदि ति जाव एद्दरं ओदरिदि ताव अंतराणि विसरिसाणि अण्णोण्णं पेक्खिदण विसेसाहियाणि । संपहि एत्तो प्पहुडि जाव अवेदपढमसमओ ति ताव हेहा अंतराणि सरिसाणि, एगसमयपबद्धत्तणेण समाणत्तादो । अत्थदो पुण विसरिसाणि, सव्वसमयपबद्धागमेगजहण्णजोगहाणेण बंधासंभवादो । संपहि एवमोदारिदे दुसमयूणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धा ओदिण्णा होति । दुसमगृणाहि दोआवलियाहि सव्वजोगहाणेसु गुणिदेसु जत्तियमेत्ताणि रूवाणि तत्तियमेत्ताणि पुरिसवेदसंतकम्महाणाणि होति त्ति जं भणिदं तण्ण घडदे। तं जहा-चरिमसमयसवेदस्स चरिमफालियाए घोलमाणजहण्णजोगप्पहुडि जावुकस्सजोगहाणे ति एवडियाणि पदेससंतकम्मट्ठाणाणि लद्धाणि । तिसमयणदोआवलियमेत्तसेसचरिमफालियाहि तप्पाओग्गजहण्णजोगट्ठाणप्पहुडि जावुक्कस्सजोगट्ठाणं ति तत्तियमेत्ताणि चेव पदेस. संतकम्महाणाणि लद्धाणि । संपहि चरिमसमयसवेदस्स चरिमफालियाए लद्धपदेसचाहिये। इस प्रकार बढ़ाने पर छह फालियाँ उत्कृष्ट होकर जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण अपुनरुक्त प्रदेशसत्कर्मस्थान प्राप्त होते हैं।
* इस प्रकार दो समय कम दो आवलियोंके द्वारा योगस्थान उत्पन्न होकर अवेदी जीवके इतने सब सान्तर प्रदेशसत्कर्मस्थान होते हैं ।
$ ३६०. अब चतुःसमयवर्ती सवेदी जीवके दस फालियोंसे लेकर अन्तिम समयवर्ती सवेदी जीवके जितने दूर उतरकर प्रथम फालि दिखाई देती है उतने दूर तक इस क्रमसे उतारना चाहिए । इसप्रकार इतने दूर उतरने तक अन्तर विसदृश होकर एक दूसरेको देखते हुए विशेष अधिक होते हैं। अब इससे लेकर अपगतवेदी जीवके प्रथम समयके प्राप्त होने तक नीचे अन्तर समान होते हैं, क्योंकि एक समयप्रबद्धपनेको अपेक्षा उनमें समानता है। परन्तु वास्तवमें वे विसदृश होते हैं, क्योंकि सब समयप्रबद्धोंका एक जघन्य योगके द्वारा बन्ध होना असम्भव है। अब इसप्रकार उतारने पर दो समय कम दो आवलिप्रमाण समयप्रबद्ध उतरे हुए होते हैं।
शंका-दो समय कम दो आवलियोंके द्वारा सब योगस्थानोंके गुणित करनेपर जितने रूप प्राप्त होते हैं उतने पुरुषवेदके सत्कर्मस्थान होते हैं ऐसा जो कहा है वह घटित नहीं होता। खुलासा इस प्रकार है-अन्तिम समयवर्ती सवेदी जीवके अन्तिम फालिके घोलमान जघन्य योगसे लेकर उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक इतने प्रदेशसत्कर्मस्थान लब्ध होते हैं। तीन समय कम दो आवलिप्रमाण शेष अन्तिम फालियोंके द्वारा तत्प्रायोग्य जघन्य योगस्थानसे लेकर उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक उतने ही प्रदेशसत्कर्मस्थान प्राप्त होते हैं।
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३२०
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ संतकम्मट्ठाणेसु तप्पाओग्गजहण्णजोगहाणप्पहुडि उवरिमद्धाणं मोत्तूण हेट्ठिमद्धाणं सेढीए असंखे०भागमेत्तं घेत्तूण पुध द्ववेदव्वं । एवं सेसफालियासु वि सव्वजहण्णहाणसंखाफालियाए जहण्णहाणादो हेहि मासेसटाणाणि घेतूण पुव्वं पुध दृविदट्ठाणाणमुवरि ढोएदण ठवेदव्वाणि । एवं ठविय पुणो ताणि दुसमयणदोआवलियमेत्तखंडाणि कादण तत्थ एगेगखंडं घेत्तूण दुसमयूणदोआवलियमेतद्वाणपंतीए हेढा संधाणे कदे एगेगपंतीए आयामो किंचूणजोगट्ठाणद्धाणमत्तो चेव होदि ण संपुण्णो, हेहिमतदसंखेजदिभागमेत्तट्ठाणाणमणुवलंभादो। तेण दुसमयूणाहि दोहि आवलियाहि जोगहाणेसु गुणिदेसु पुरिसवेदस्स पदेससंतकम्मट्ठाणाणि ण उप्पजंति, तहाणेहिंतो समहियहाणुप्पत्तिदंसणादो त्ति ? ण एस दोसो, दव्वाहियणयावलंबणाए दुसमयूणदोआवलियमेत्तगुणगारुवलंभादो। तिसमयूणदोआवलियमेत्तगुणगाररूवाणमत्थित्तं होदु णाम, तेसिं गुणिजमाणस्स जोगट्टाणद्धाणपमाणत्तुवलंभादो। णावरेगरूवस्स' अत्थितं, तत्थ गुणिज्जमाणस्स सगहेद्विमासंखेजदिभागेणूणजोगट्ठाणद्धाणपमाणत्तवलंभादो त्ति ? ण, रूवावयवक्खए रूवस्स क्खयाभावादो। ण च अवयवहिंतो अवयवी अभिण्णो, णाणेगसंखाणं
अब अन्तिम समयवर्ती सवेदी जीवके अन्तिम फालिरूपसे प्राप्त हुए प्रदेशसत्कर्मस्थानोंमें तत्प्रायोग्य योगस्थानसे लेकर उपरिम अध्वानको छोड़कर जगणिके असंख्यातवें भागप्रमाण अधस्तन अध्वानको ग्रहण कर पृथक् स्थापित करना चाहिए। इस प्रकार शेष फालियोंमें भी सब जघन्य स्थानकी संख्याप्रमाण फालिके जघन्य स्थानसे नीचेके सब स्थानोंको ग्रहण कर पहले पृथक् स्थापित किये गये स्थानोंके ऊपर लाकर स्थापित करना चाहिए । इस प्रकार स्थापित करके पुनः उनके दो समय कम दो आवलिप्रमाण खण्ड करके उनमें से एक एक खण्डको ग्रहणकर दो समय कम दो आवलिप्रमाण स्थानोंकी पंक्तिके नीचे मिलाने पर एक एक पंक्तिका आयाम कुछ कम योगस्थानके अध्वानप्रमाण ही होता है संपूर्ण नहीं होता, क्योंकि नीचेके उसके असंख्यातवें भागप्रमाण स्थान नहीं पाये जाते। इसलिए दो समय कम दो आवलियांसे योगस्थानोंके गुणित करने पर पुरुषवेदके प्रदेशसत्कर्मस्थान नहीं उत्पन्न होते हैं, क्योंकि उन स्थानोंसे कुछ अधिक स्थानोंकी उत्पत्ति देखी जाती है?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि द्रव्यार्थिकनयका आलम्बन करने पर दो समय कम दो आवलिप्रमाण गणकार उपलब्ध होता है।
शंका–तीन समय कम दो आवलिप्रमाण गुणकार रूपोंका अस्तित्व होवे, क्योंकि वे गुण्यमानके योगस्थान अध्वानप्रमाण उपलब्ध होते हैं। परन्तु अन्य रूपका अस्तित्व नहीं प्राप्त होता, क्योंकि वहाँ पर गुण्यमान अपने अधस्तन असंख्यातवें भाग कम योगस्थान अध्वानप्रमाण उपलब्ध होता है?
समाधान-नहीं, क्योंकि रूपके अवयवका क्षय होने पर रूपके क्षयका अभाव है। यदि कहा जाय कि अवयवोंसे अवयवी अभिन्न है सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि भवयव नाना संख्यावाले होते हैं, अवयवी एक संख्यावाला होता है, दोनों हो अलग अलग
१. भा०प्रती 'गवरि एगरूवस्स' इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
३२१ भिण्णबुद्धिगेज्झाणं भिण्णकजाणं च एयत्तविरोहादो। ण च अण्णम्मि विणढे अण्णस्स विणासो, अइप्पसंगादो। तम्हा दुसमयूणदोआवलियपदुप्पण्णजोगहाणमेत्ताणि संतकम्महाणाणि पुरिसवेदस्स होति त्ति घडदे । ___६३६१. अथवा अण्णेण पयारेण दुसमयूणदोआवलियगुणगारसाहणं कस्सामो। तं जहा-चरिमसमयसवेदेण घोलमाणजहण्णजोगेण जो बद्धो समयपबद्धो सो सवेदचरिमसमयप्पहुडि समयूणदोआवलियमेत्तमद्धाणं गंतूण जहण्णसंतकम्मट्टाणं होदि, दुचरिमादिफालीणं तत्थामावादो। संपहि जहण्णदव्वस्सुवरि णाणाजीवे अस्सिदूण घोलमाणजहण्णजोगप्पहुडि पक्खेवत्तरकमेण चरिमसमयसवेदो वडावेदव्वो जावुकस्सजोगट्ठाणं पत्तो ति । एवं वड्डाविदे एगचरिमफाली उक्कस्सा होदि । संपहि अण्णेगेण दुचरिमसमयम्मि तप्पाओग्गजहण्णजोगेण चरिमसमयम्मि उक्कस्सजोगेण पबद्ध तिण्णि फालीओ दीसंति, अहियारदुचरिमसमयम्मि अवहिदत्तादो। संपहि इमस्स दुचरिमसमयसव दस्स' तप्पाओग्गजहण्णजोगो घोलमाणजहण्णजोगादो असंखे गुणो, दुचरिमसमयम्मि घोलमाणजहण्णजोगेण परिणदस्स संखेजवारेहि विणा विदियसमए चेव
बुद्धिग्राह्य हैं और अलग अलग कार्यवाले हैं, इसलिए उनके एक होने में विरोध आता है। यदि कहा जाय कि अन्यका विनाश होने पर अन्यका विनाश हो जाता है सो यह कहना भी ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा होने पर अतिप्रसङ्ग दोष आता है। इसलिए दो समय कम दो आवलियोंसे उत्पन्न हुए योगस्थानप्रमाण पुरुषवेदके सत्कर्मस्थान होते हैं यह बात बन जाती है।
६३६१. अथवा अन्य प्रकारसे दो समय कम दो आवलिप्रमाण गुणकारोंकी सिद्धि करते हैं। यथा--अन्तिम समयवर्ती सवेदी जीवने घोलमान जघन्य योगके द्वारा जो समयप्रबद्ध बाँधा वह सवेदी जीवके अन्तिम समयसे लेकर एक समय कम दो आवलिप्रमाण स्थान जाकर जघन्य सत्कर्मस्थान होता है, क्योंकि द्विचरम आदि फालियोंका वहाँ पर अभाव है। अब जघन्य द्रव्यके ऊपर नाना जीवोंका आश्रयकर घोलमान जघन्य योगसे लेकर एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक अन्तिम समयवर्ती सवेदी जीवको बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाने पर एक अन्तिम फालि उत्कृष्ट होती है। अब अन्य एक जीवके द्वारा द्विचरम समयमें तत्प्रायोग्य जघन्य योगका अवलम्बन लेकर और अन्तिम समयमें उत्कृष्ट योगका अवलम्बन लेकर बन्ध करने पर तीन फालियाँ दिखलाई देती हैं, क्योंकि वे विवक्षित द्विचरम समयमें अवस्थित हैं। अब इस विचरम समयवर्ती सवेदी जीवका तत्प्रायोग्य जघन्य योग घोलमान जघन्य योगसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि द्विचरम समयमें घोलमान जघन्य योगरूपसे परिणत हुए उसके संख्यात बारके बिना दूसरे समयमें ही उत्कृष्ट
१. प्रा०प्रतौ 'इमस्स चरिमसमयसवेदस्स' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[ पदेसविहत्ती ५
उक्कस्सजोगेण परिणमणसत्तीए अभावादो । संपहि एत्थतणउक्कस्सजोगच रिमफाली पुच्चिल्लचरिमफाली च सरिसाओ, उक्कस्सजोगहाणपरिणामेण समाणत्तादो ।
$ ३६२. संपहि उक्कस्सजोगदुचरिमफाली तप्पा ओग्गजहण्णजोगेण बद्ध चरिमफाली च एत्थ अंतरं होदि । एदेण अंतरेण विणा जहा तिणिफालिखगट्टाणमुप्पञ्जदि तहा वत्तइस्लामो । तं जहा — उक्कस्सजोगस्स सेढीए असंखे०भागमेत्तपक्खेवभागहारपमाणदु चरिमफालीओ ताव चरिम- दुचरिमपमाणेण कस्सामो | अधापवत्तमेतदुचरिमाणं जदि एगं चरिम- दुचरिमपमाणं लब्भदि तो सेढीए असंखे० भागमेत्तचरिम-दुचरिमाणं केत्तियाओ चरिम- दुचरिमफालीओ लभामो ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए अवद्विदाए अधापवत्तेण उक्कस्सजोगट्टाणद्धाणं खंडेदू तत्थ एगखंडमेत्ताओ होंति । एत्तियमेत्तमद्वाणं दोफालिसामीओ ओदारेदव्वो । एवमोदारिदे दुचरिमफालिमस्सिद्ण जमंतरं तं गति दट्ठव्वं ।
९ ३६३. संपहि तप्पाओग्गजहण्णजोग चरिमफालिजणिदअंतरपरिहाणि कस्सामो । तं जहा - अधापवत्तभागहारमेत्तचरिमफालीणं जदि रूवूणअधापवत्तभागहारमेतचरिमदुचरिमफालीओ लब्भंति तो तप्पा ओग्गजहण्णजोगिणो
अद्धाणादो
योगरूपसे परिणमन करनेकी शक्तिका अभाव है । अब यहाँकी उत्कृष्ट योगसम्बन्धी अन्तिम फालि और पहलेकी अन्तिम फालि समान है, क्योंकि उत्कृष्ट योगस्थानके परिणामरूप से समानता है ।
§ ३६२. अब उत्कृष्ट योगसम्बन्धी द्विचरम फालि और तत्प्रायोग्य जघन्य योग द्वारा बद्ध चरम फालि यहाँ पर अन्तर होता है । इस अन्तरके बिना जिस प्रकार तीन फालिरूप क्षपकस्थान उत्पन्न होता है उस प्रकार बतलाते हैं । यथा - उत्कृष्ट योगकी जगश्रेणिके असंख्यातवें भागमात्र प्रक्षेपभाग हारप्रमाण द्विचरम फालियोंको चरम और द्विचरम प्रमाणरूपसे करते हैं । अधःप्रवृत्तमात्र द्विचरमोंका यदि एक चरम और द्विचरमप्रमाण उपलब्ध होता है तो जगश्रेणिके असंख्यातवें भागप्रमाण चरम और द्विचरमोंकी कितनी चरम और द्विचरम फालियाँ प्राप्त होंगी, इस प्रकार फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देने पर अधःप्रवृत्त से उत्कृष्ट योगस्थान अध्वानको भाजित करके वहाँ एक खण्डप्रमाण होती हैं । दो फालियोंके स्वामीको इतना मात्र अध्वान उतारना चाहिए । इस प्रकार उतारने पर द्विचरम फालिका आश्रय लेकर जो अन्तर है वह नष्ट हो गया ऐसा जानना चाहिए ।
९३६३. अब तत्प्रायोग्य जघन्य योगकी अन्तिम फालिसे उत्पन्न हुए अन्तरकी परिहानिको करते हैं । यथा - अधःप्रवृत्तभागहारप्रमाण अन्तिम फालियोंकी यदि एक कम अधःप्रवृत्तभागहारप्रमाण चरम और द्विचरम फालियाँ उपलब्ध होती हैं तो तत्प्रायोग्य जघन्य योग
१. आ०प्रतौ 'बद्धचरिमफालीए च एत्थ' इति पाठः । २ श्र०प्रतौ ' -भागमेत्तदुचरिमाणं' इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
३२३ विसेसाहियपक्खेवभागहारमेत्तचरिमाणं केत्तियाओ चरिम-दुचरिमफालीओ लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए एत्थतणपक्खेवभागहारमधापवत्तेण खंडेदूण तत्थ लद्धेगखंडे रूवणअधापवत्तभागहारेण गुणिदे तत्थ जत्तियाणि रूवाणि तत्तियमेत्ताओ लब्भंति । पुणो एत्तियमेत्तजोगट्ठाणाणि पुणरवि दोफालिसामीओ ओदारेदव्वाओ एवमेदेहि जोगहाणेहि परिणमिय बद्धपुरिसवेदतिण्णिफालिदव्वमुक्कस्सजोगेण बद्धपुरिसवेदचरिमफालिदव्वेण सरिसं होदि, विणटुंतरत्तादो । पुणो दुचरिमसमयसवेदे पक्खेवुत्तरजोगेण बंधाविदे एगफालिसामिणो पुव्वुप्पण्णुक्कस्सपदेससंतकम्मट्ठाणादो उवरि अण्णमपुणरुत्तट्ठाणमुप्पजदि । एवं दुचरिमसमयसवेदे पक्खेवुत्तरकमेण वड्डाविजमाणे केत्तियमेत्तजोगहाणेसु उवरि चडिदेसु सव्वमंतरं पक्खेवुत्तरकमेण पविसदि त्ति भणिदे तप्पाओग्गजहण्णजोगिणो विसेसाहियहेहिमअद्धाणमेतं पुणो उक्कस्सजोगहाणद्धाणं रूवूणअधापवत्तभागहारेण खंडिय तत्थ एगखंडमेत्तं च उवरि चडिदे पक्खेवुत्तरकमेण सव्वमंतरं पविसदि । संपहि पणरवि दुचरिमसमयसवेदो पक्खेवुत्तरकमेण वड्डाव दव्वो जावुकस्सजोगट्ठाणं पत्तो त्ति । संपहि अण्णेगेण दुचरिमसमए दोफालिखवगजोगेहि परिणामिय चरिमसमए
वाले जीवके अधस्तन अध्वानसे विशेष अधिक प्रक्षेप भागहारप्रमाण चरमोंकी कितनी चरम और द्विचरम फालियाँ प्राप्त होंगी, इस प्रकार फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देने पर यहाँके प्रक्षेपभागहारको अधःप्रवृत्तसे भाजित करके वहाँ प्राप्त हुए एक खण्डको एक कम अधःप्रवृत्तभागहारसे गुणित करने पर वहाँ जितने रूप हैं उतना प्राप्त होता है। पुमः इतने मात्र योगस्थानोंको फिर भी दो फालियोंके स्वामियोंके आश्रयसे उतारना चाहिए । इस प्रकार इन योगस्थानरूपसे परिणमाकर बद्ध पुरुषवेदकी तीन फालियोंका द्रव्य उत्कृष्ट योगसे बद्ध पुरुषवेदकी अन्तिम फालिके द्रव्यके समान होता है, क्योंकि अन्तरका विनाश हो गया है। पुनः द्विचरम समयवर्ती सवेदी जीवके प्रक्षेप अधिक योगके द्वारा बन्ध कराने पर एक फालिके स्वामीके पूर्वोत्पन्न उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थानसे ऊपर अन्य अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है। इसी प्रकार द्विचरम समयवर्ती सवेदी जीवके एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे वृद्धि कराने पर कितने योगस्थान ऊपर चढ़ने पर सब अन्तर एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे प्रवेश करते हैं ऐसा पूछने पर उत्तर देते हैं कि तत्प्रायोग्य जघन्य योगवाले जीवके विशेष अधिक अधस्तन अध्वानमात्रको पुनः उत्कृष्ट योगस्थान अध्वानको एक कम अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित करके वहाँ एक भागमात्र ऊपर चढ़ने पर एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे सब अन्तर प्रवेश करता है। अब फिर भी द्विचरम समयवर्ती सवेदी जीवको एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। अब अन्य एक जीवके
१.ता०प्रतौ 'भोदारेवो' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ पदेसविहत्ती ५ उक्कस्सजोगेण परिणमिय पुरिसवेदे बद्ध पुग्विल्लतिण्णिफालिदव्वादो एदासिं तिण्हं फालोणं दव्वं विसेसाहियं होदि, एगफालिसामिणो हिदजोगट्ठाणादो उवरिमजोगहाणमेत्तदुचरिमाणमब्भहियत्तवलंभादो।
३६४. संपहि इमाओ अहियदचरिमफालोओ चरिमफालिपमाणेण कस्सामो । तं जहा–रूवूणअधापवत्तमेत्तदुचरिमफालीणं जदि एगा चरिमफाली लब्भदि तो एगदोफालीणमंतरालट्ठिदनोगहाणमेत्तदचरिमफालीसु केत्तियाओ लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए जं लद्धं तत्तियमेत्ताओ चरिमफालोओ लभंति । एवं लभंति त्ति कादूण एदासिमवणयणट्ठमेत्तियमद्धाणमेगफालिसामिओ पुणरवि
ओदारेदव्वो। संपहि एगफालिखवगे पक्खेवुत्तरकमेण वढाविजमाणे केत्तिए अद्धाणे उपरि चडिदे दुचरिमसमयवेदस्स चरिमफाली सयलजोगहाणद्धाणं लहदि त्ति भणिदे तप्पाओग्गजहण्णजोगहेटिममद्धाणमेत्तजोगहाणेसु उवरि चडिदेसु दुचरिमसमयसवेदस्स चरिमफाली उकस्सजोगहाणम त्तद्धाणं संपुण्णं लहइ । एवम स्थ दोजोगट्ठाणद्धाणमेत्तपदेससंतकम्मढाणाणि लद्धाणि । संपहि उवरिमसेसद्धाणम्मि वहाविजमाणे चरिमसमयसव दस्स दुचरिमफाली वि उकस्सा होदि,
द्वारा द्विचरम समयमें दो फालिरूप क्षपक योगरूपसे परिणमा कर तथा अन्तिम समयमें उत्कृष्ट योगरूपसे परिणमा कर पुरुषवेदका बन्ध करने पर पहलेकी तीन फालियोंके द्रव्यसे इन तीन फालियोंका द्रव्य विशेष अधिक होता है, क्योंकि एक फालिके स्वामीके स्थित हुए योगस्थानसे उपरिम योगस्थानमात्र द्विचरमोंका अधिकपना उपलब्ध होता है।
$३६४. अब इन अधिक द्विचरम फालियोंको अन्तिम फालिके प्रमाणरूपसे करते हैं। यथा--एक कम अधःप्रवृत्तमात्र द्विचरम फालियोंकी यदि एक चरम फालि प्राप्त होती है तो एक दो फालियोंके अन्तरालमें स्थित योगस्थानमात्र द्विचरम फालियोंमें कितना प्राप्त होगा, इस प्रकार फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देने पर जो लब्ध आवे उतनी अन्तिम फालियाँ लब्ध आती हैं। इतनी लब्ध आती हैं ऐसा समझकर इनको निकालने के लिए इतने अध्वान तक एक फालिके स्वामीको पुनरपि उतारना चाहिए । अब एक फालि क्षपकके एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढ़ाने पर कितना अध्वान ऊपर चढ़ने पर द्विचरम समयवर्ती सवेदी जीवकी चरम फालि सकल योगस्थान अध्वानको प्राप्त करती है इस प्रकार पूछने पर उत्तर देते हैं कि तत्प्रायोग्य जघन्य योगके अधस्तन अध्वानमात्र योगस्थानोंके ऊपर चढ़ने पर द्विचरम समयवर्ती सवेदी जीवकी अन्तिम फालि सम्पूर्ण उत्कृष्ट योगस्थानमात्र अध्वानको प्राप्त करती है। इस प्रकार यहाँ पर दो योगस्थान अध्वानमात्र प्रदेशसत्कर्मस्थान प्राप्त हुए । अब उपरिम शेष अध्वानके बढ़ाने पर अन्तिम समयवर्ती सवेदी जीवकी द्विचरम फालि भी उत्कृष्ट होती है, क्योंकि एक कम अधःप्रवृत्तभागहारका योगस्थान अध्वानमें भाग देने पर
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
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रूवूणअधापवत्तभागहारेण जोगहाणद्वाणे खंडिदे एगखंडमेत्तद्वाणाणं तत्थुवलंभादो । एत्थ संदिट्ठी १२८|२| अहियद्वाणपमाणमेदं १३ ।
$ ३६५. संपहि अण्णेगे खवगे सब दतिच रिमसमयम्मि तप्पा ओग्गजहण्णजोगेण दुचरिमसमए चरिमसमए च उक्कस्सजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमए चेट्ठिदे छफालओ लब्भंति । संपहि एदाओ छष्फालीओ पुव्विल्लुक्कस्स तिष्णिफालीहिंतो विसेसाहियाओ, उक्कस्सजोगहाणपक्खेव भागहारमेतदुचरिम-तिचरिमफालीणं तिचरिमसमय सर्व देण तप्पा ओग्गजहण्णजोगेण बद्धचरिमफालीए च अहियत्तवलंभादो । संपहि एदस्स अंतरस्स हायणकमो बुच्चदे । तं जहा - अधापवत्तमेत्तदचरिमफालीणं जदि एगं चरिम- दचरिमफालिपमाणं लम्भदि तो उक्कस्सजोगहाणद्धाणमेत्तदुचरिमाणं केत्तियाओ चरिम- दुचरिमफालीओ लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए अधापवतेण उकस्सजोगद्वाणद्धाणे खंडिदे तत्थ एयखंडसादिरेयदोरूवगुणिदे जत्तियाणि रुवाणि तत्तियम ताओ चरिम - दुचरिमफालीओ लब्भंति । कुदो ? सादिरेयद्गुणतं तिचरिमफालिफलेण सह जोगादो लद्धमेदं पुध ट्ठविय पुणो तप्पाओग्गजहण्णजोगपक्खेवभागहारमधापवत्तेण खंडेदूण तत्थतणएगखंडे रूवूणअधापवत्तेण गुणिदे जं लद्धं तं पुव्विल्ललम्मि पक्खिविय तत्थ जत्तियम त्ताणि रुवाणि तत्तियमेत्तजोगट्ठाणाणि
एक खण्डमात्र स्थान वहाँ उपलब्ध होते हैं । यहाँ पर संदृष्टि-- १२८, २ । अधिक अध्वानका प्रमाण यह है-- ।
६३६५. अब अन्य एक क्षपकके सवेद भागके त्रिचरम समय में तत्प्रायोग्य जघन्य योगसे तथा द्विचरम समय और चरम समय में उत्कृष्ट योगसे बन्ध करके अधिकृत त्रिचरम समय में स्थित होने पर छह फालियाँ होती हैं । अब ये छह फालियाँ पहले की उत्कृष्ट तीन फालियोंसे विशेष अधिक हैं, क्योंकि उत्कृष्ट योगस्थान प्रक्षेपभागहारमात्र द्विचरम और त्रिचरम फालियाँ तथा त्रिचरम समयवर्ती सवेदी जीवके द्वारा तत्प्रायोग्य जघन्य योगसे बाँधी गई चरम फालि अधिक पाई जाती हैं। अब इस अन्तरके कम होनेके क्रमका कथन करते हैं । यथा - अधः प्रवृत्तमात्र द्विचरम फालियों में यदि एक चरम और द्विचरम फालिका प्रमाण प्राप्त होता है तो उत्कृष्ट योगस्थान अध्वानमात्र द्विचरमोंकी कितनी चरम और द्विचरम फालियाँ प्राप्त होंगी, इस प्रकार फलराशिसे गुणित इच्छाराशि में प्रमाणराशिका भाग देने पर अधःप्रवृत्त के द्वारा उत्कृष्ट योगस्थान अध्वानके भाजित करने पर वहाँ प्राप्त एक भागको साधिक दो रूपों से गुणित करने पर जितने रूप आते हैं उतनी चरम और द्विचरम फालियाँ. प्राप्त होती हैं, क्योंकि त्रिचरम फालिरूप फलके साथ योगसे लब्ध हुई इस साधिक द्विगुणी संख्याको पृथक् स्थापित करके पुनः तत्प्रायोग्य जघन्य योगकें प्रक्षेपभागहारको अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित कर वहाँ प्राप्त हुए एक भागको एक कम अधःप्रवृत्त से गुणित करने पर जो लब्ध आवे उसे पहले के लब्धमें मिलाकर वहाँ जितने रूप हों, उत्कृष्ट योगस्थानसे उतने योगस्थान जाने तक द्विचरम समयवर्ती सवेदी जीवको उतारना चाहिए। इस प्रकार उतारने पर
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३२६
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ उक्कस्सजोगट्ठाणादो दुचरिमसमयसवेदो ओदारेदव्यो । एवमोदारिदे तिण्ह फालीणमुक्कस्सदव्वेण छप्फालिदव्वं सरिसं होदि, तिचरिमसमए तप्पाओग्गजहण्णजोगेण सवेददचरिमसमए उक्कस्सजोगहाणादो पुबिल्लं तं लद्धमेत्तमोदारिदूण द्विदजोगेण चरिमसमए उक्कस्सजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमयम्मि अवहिदत्तादो ।
5 ३६६. संपहि तपाओग्गजहण्णजोगेण परिणदतिचरिमसमयसवेदो पक्खेवत्तरकमेण वड्डावयव्यो । एवं वड्डाविजमाणे केत्तिएसु जोगहाणेसु चडिदेसु सव्वमंतरं पविसदि त्ति चे ? तस्सेवप्पणो हेहिमअद्धाणमत्तेसु पुणो उकस्सजोगहाणमद्धाणं रूवूणअधापवत्तेण खंडिदूण तत्थ एगखंडं दुगुणं करिय विसेसाहिए च कदे तत्तियमेत्तेसु च जोगट्टाणेसु चडिदेसु सव्वमंतरं। पक्खेवत्तरकमेण पविसदि । संपहि उवरिमअसंखेजा भागा पक्खेवुत्तरकमेण वड्दावेदव्वा जावुकस्सजोगहाणं पत्तं ति । संपहि एवं पेक्खिदूण सवेदतिचरिमसमए दुचरिमसमयसवेदेण परिणदजोगट्ठाणेण परिणमिय' दचरि समए चरिमसमए च उकस्सजोगहाणेण परिणमिय पुरिसवेदं बंधिय अधियारतिचरिमसमयहिदस्स छप्फालिदव्वं विसेसाहियं होदि, चढिदद्धाणमेतदुचरिमाहि अहियत्तुवलंभादो ।
तीन फालियोंके उत्कृष्ट द्रव्यके साथ छह फालियोंका द्रव्य समान होता है, क्योंकि त्रिचरम समयमें तत्प्रायोग्य जघन्य योगका अवलम्बन लेकर सवेद भागके द्विचरम समयमें उत्कृष्ट योगस्थानसे पहलेका जो लब्ध है तत्प्रमाण उतर कर स्थित हुए योगके साथ अन्तिम समयमें उत्कृष्ट योगसे बन्ध करके अधिकृत त्रिचरम समयमें अवस्थित है।
६३६६. अब तत्प्रायोग्य जघन्य योगसे परिणत हुए त्रिचरम समयवर्ती सवेदी जीवको एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढ़ाना चाहिए।
शंका-इस प्रकार बढ़ाने पर कितने योगस्थानोंके चढ़नेपर सब अन्तर प्रवेश करता है ?
समाधान-उसीके अपने अधस्तन अध्वानमात्र योगस्थानोंके और उत्कृष्ट योगस्थान अध्वानको एक कम अधःप्रवृत्तसे भाजित करके वहाँ जो एक भाग लब्ध आवे उसे दूना करके विशेष अधिक करने पर जितने योगस्थान हों उतने योगस्थानोंके चढ़ने पर सब अन्तर एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे प्रवेश करता है।
अब उपरिम असंख्यात बहुभागको एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। अब इसको देखकर सवेद भागके त्रिचरम समयमें द्विचरम समयवर्ती सवेदी जीवके द्वारा परिणत हुए योगस्थानरूपसे परिणमा कर तथा द्विचरम समयमें
। समयमें उत्कृष्ट योगस्थानरूपसे परिणमा कर परुषवेदका बन्ध कर अधिकृत त्रिचरम समयमें स्थित हुए जीवके छह फालियोंका द्रव्य विशेष अधिक होता है, क्योंकि जितना अध्वान ऊपर गये हैं उतने द्विचरमोंसे वह अधिक पाया जाता है।
१. ता०प्रतौ 'चढिदेसु लद्धमंतर' इति पाठः । २. आ.प्रतौ 'परिणदजोगहाणं परिणमिय' इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
३२७ ३६७. पुणो इमाओ दुचरिमफालोओ चरिमफालिपमाणेण कस्सामो। तं जहा–रूवूणअधापवत्तमेत्ताणं दचरिमफालीणं जदि एगा चरिमफाली लब्भदि तो ओदिण्णद्धाणमत्ताणं दचरिमफालीणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए लद्धमत्ता अचरिमफालीओ लभंति । पुणो एत्तियमद्धाणं पुणरवि तिचरिमसमयसवेदो ओदारेदश्वो । संपहि इमम्मि तिचरिमसमयसवेदे तप्पाओग्गजहण्णजोगादो हेहि मद्धाणमत्ताणि जोगट्ठाणाणि उवरि चडिदे चरिमफालियाए उक्कस्सजोगहाणद्धाणपरिवाडी सयला लद्धा होदि । पुणो एत्तो उवरिमजोगट्ठाणेसु परिणमाविय णाणाजीवे अस्सिदूण वड्डावदव्व जावुक्कस्सजोगहाणं पत्तं ति । एवं वड्डाविदे उक्कस्सजोगेण बद्धचरिमसमयसवेदस्स तिचरिमफाली तस्सेव दुचरिमफाली च उक्कस्सा जादा । एवमेत्थ पुब्बिल्लहाणेहि सह तिगुणजोगहाणद्धाणमेत्तसंतकम्महाणाणि समधियाणि समुप्पजति १२८।१३।३।।
$ ३६८. संपहि एदेण कमेण जाणिदूण ओदारेदव्वं जाव अवगदवेदपढमसमओ त्ति । एवमोदारिदे अवगदवेदपढमसमयम्मि तिसमयूणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धाणं सव्वचरिमफालियाहि पादेक सयलजोगहाणद्धाणमेत्तसंतकम्मट्ठाणाणि लद्धाणि त्ति ।
६ ३६७. पुनः इन द्विचरम फालियोंको चरम फालिके प्रमाणरूपसे करते हैं। यथाएक कम अधःप्रवृत्तमात्र द्विचरम फालियोंकी यदि एक चरम फालि प्राप्त होती है तो जितना अध्वान नीचे गये हैं उतनी द्विचरम फालियोंमें क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देने पर जो लब्ध आवे तत्प्रमाण चरम फालियाँ लब्ध आती हैं। पुनः इतना अध्वान जाने तक फिर भी विचरम समयवर्ती सवेदी जीवको उतारना चाहिए । अब इस त्रिचरम समयवर्ती सवेदी जीवके तत्प्रायोग्य जघन्य योगस्थानसे अधस्तन अध्वानमात्र योगस्थान ऊपर चढ़ने पर चरम फालिकी समस्त उत्कृष्ट योगस्थान अध्वान परिपाटी लब्ध हो जाती है। पुनः इससे आगे उपरिम योगस्थानोंमें परिणमन कराते हुए नाना जीवोंका आश्रय लेकर उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाने पर उत्कृष्ट योगसे बाँधी गई चरम समयवर्ती सवेदी जीवकी त्रिचरम फालि और उसीकी द्विचरम फालि उत्कृष्ट हो जाती है । इस प्रकार यहाँ पर पहलेके स्थानोंके साथ, साधिक तिगुने योगस्थान अध्वानमात्र सत्कर्मस्थान उत्पन्न होते हैं २२८ १८३ ।
६३६८. अब इस क्रमसे जानकर अपगतवेदी जीवको प्रथम समयके प्राप्त होने तक उतारना चाहिए । इस प्रकार उतारने पर अपगतवेदी जीवके प्रथम समयमें तीन समयकम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंकी सब अन्तिम फालियोंके साथ अलग अलग समस्त योगस्थान अध्वान मात्र सत्कर्मस्थान लब्ध आते हैं। इन्हें पृथक् स्थापित करना चाहिए। पुनः चरम समयवर्ती
१. ता प्रतौ १२८, २, ३, १२८, ३।' इति पाठः ।
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३२८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ एदाणि पुध ठवेदव्वाणि । पुणो चरिमसमयसवेदस्स चरिमफालियाए घोलमाणजहण्णजोगप्पहुडि उवरिमजोगट्ठाणमेत्ताणि चेव पदेससंतकम्मट्ठाणाणि लद्धाणि ण हेहिमाणि । पुणो तिस्से वेवप्पणो समयूणावलियमेत्तदुचरिमादिफालियासु तत्थ एगदचरिमफालियाए लढाणमसंखेज्जाणि खंडाणि कादूण तत्थ एगखंडे घोलमाणजहण्णजोगस्स हेढा आणेदेण संघिदे तीए वि उकस्सजोगट्टाणद्धाणमेत्ताणि पदेससंतकम्मटाणाणि लद्धाणि त्ति कादूण एगम्मि सयलजोगट्टाणद्धाणे दुसमयूणदोआवलियाहि विसेसाहियाहि गुणिदे सव्वपदेससंतकम्महाणाणि होति । किम दुसमयूणदोआवलियाओ विसेसाहियाओ कदाओ ? ण, दुचरिमादिफालियाहि लहाणेसु मेलाविदेसु मव्वजोगहाणाणमसंखेजदिमागस्सुवलंभादो। तं जहा
१ इमं संदिहिं हविय एत्थ दुसमयूणदोआवलियमेत्तसव्वचरिमफालीओ ११. सव्वसुण्णाणि च अवणेदूण सेसखेत्तं पदरावलियपमाणेण कस्सामो। तं
। जहा-दुसमयणावलियसंकलणखेत्ते सेसखेत्तादो अवणिय पध ६११६ हविदे उव्वरिदखेत्तं समयूणावलियवग्गमेत्तं ति तस्स पुध १ १ १ १ १ १ . विणासोकायव्यो-२११११११ संपहि सेसखेत्तस्स
२१११ समकरणे कदे | १ १ १ १ १ १ १ | समयणलिया. ० ० १ १ १ १११११ १११११ यामं दुस
| मयूणावलियाए ०००० ११ १ १ १ ११ १
१११११११
विक्खंभखेत्तं ००००००११११११११ हादण। १ १ १ १ १ १ १ चेदि । तस्स
rrrrrrro०००००
|१११११११।
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wwwwww
००००१ ११११ १११
शत. १११११११ ।
सवेदी जीवको अन्तिम फालिमें घोलमान जघन्य योगसे लेकर उपरिम योगस्थानमात्र ही प्रदेशसत्कर्मस्थान लब्ध आते हैं, अधस्तन नहीं । पुनः उसकी ही जो अपनी एक समय कम आवलिमात्र द्विचरम आदि फालियाँ हैं उनमेंसे एक द्विचरम फालिके प्राप्त हुए स्थानके असंख्यात खण्ड करके उनमेंसे एक खण्डको घोलमान जघन्य योगके नीचे लाकर मिलाने पर उसके भी उत्कृष्ट योगस्थानअध्वानमात्र प्रदेशसत्कर्मस्थान लब्ध आते हैं ऐसा समझकर एक पूरे योगस्थान अध्वानको विशेष अधिक दो समय कम दो आवलियोंसे गुणित करने पर सब प्रदेशसत्कर्मस्थान होते हैं।
शंका-दो समय कम दो आवलियाँ विशेष अधिक क्यों की हैं ?
समाधान नहीं, क्योंकि द्विचरम आदि फालिरूपसे प्राप्त हुए स्थानोंके मिलाने पर सब योगस्थानोंका असंख्यातवाँ भाग उपलब्ध होता है । यथा-(यहां पर मूलमें दी गई संदृष्टि देखिए )। इस संदृष्टिको स्थापित करके यहाँ पर दो समय कम दो आवलिमात्र सब चरम फालियोंको और सब शून्योंको अलग करके शेष क्षेत्रको प्रतरावलिके प्रमाणरूपसे करते हैं। यथा-दो समय कम आवलिप्रमाण संकलन क्षेत्रको शेष क्षेत्रमेंसे निकालकर पृथक स्थापित करने पर बाकी बचा क्षेत्र एक समयकम आवलिके वर्गप्रमाण होता है, इसलिए उसका अलगसे विन्यास करना चाहिए ( मूलमें दी गई संदृष्टि यहां पर लिजिए )। अब शेष क्षेत्रका समीकरण करने पर एक समय कम आवलिप्रमाण आयामको लिए
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
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पमाणमेदं- १ १ १ | पुणो एत्थ समयूणावलियायामाओ दोफालीओ घेण पुव्विल्लखेत्तस्स १११ | दोसु वि फासेसु फालिय संघिदासु दोसु फासेसु आवलियमेत्ता-११ १ यामं सेसदोफासेसु समयणावलियमेतं होण चेट्ठदि,
१ १ १
T
एगफालियाए १११ वग्गमेत्तेणूणत्तादो। तं चेदं - पुणो गहिद- १ १ १ | सेसं समयूणावलियायामं दुरूवूणमेत्तविक्खंभं
होदूण
दुसमपूणावलियाए अर्द्ध चेदि । तस्स पमाणमेदंविक्खंभेण गुणिदे जं पुणखेत्तम्मि
| पुणो एदस्स आयामे
फलं तत्थ एगरूवं
-
१ १ १ १ १ १ १ १ १ १
१ १ १ १ १ १ १ १
१ १ १ १
1
१ संपहि एदाओ फालियाओ जदि वि सरिसाओ न होंति तो वि बुड्डीए दुचरिमफालिसमाणाओ त्ति घेत्तव्वं । पुणो एदाओ चरिमफालिपमाणेण कस्सामो । तं जहा - रूवूणअधापवत्तमेतदुचरिमफालियाणं जदि एगचरिमफाली लग्भदि तो उक्कस्सजोगहाणपक्खेव भागहारमेतदुचरिमफालीणं केत्तियाओ चरिमफालीओ लभामो ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए रूवूणअधापवत्तभागहारेण उकस्सजोगट्ठाण
१ १ १
१ १
१
१ १ १
१
१
१
१
१ १
१ १ १ १ १ १ १
१ १ १ १ १ १ १ १ १ १
१
१
१
१ १ १ १ १ १ १० १ १ १ १ १ १ १ १
१
१
१
१
१ १
१ १
१ ??? १ १ १
१ १ १ १
१ १ १ १
१ १ १ १ १ १ १ १
१ १ १
१ १ १ १ १
१ १ १ १ १ १ १ १
विदे संपुण्णा पदरावलिया होदि । सा एसा
१
१ १ १
१
१ १
हुए और दो समय कम आवलिके अर्धभागप्रमाण विष्कम्भको लिए हुए होकर क्षेत्र स्थित होता है । उसका प्रमाण यह है -- ( संदृष्टि मूल में देखिए । ) पुनः यहां पर एक समय कम आवलिप्रमाण आयामवाली दो फालियोंको ग्रहण करके पहलेके क्षेत्रके दोनों ही पार्श्वोमें फाड़कर मिला देने पर दोनों ही पावों में आवलिप्रमाण आयामवाला तथा शेष दो पावों में एक समयकम आवलिप्रमाण क्षेत्र स्थित होता है, क्योंकि एक फालिके वर्गसे वह न्यून है । वह क्षेत्र यह है - ( संदृष्टि मूलमें देखिए । ) पुनः ग्रहण किये गयेसे शेष बचा क्षेत्र एक समय कम आवलिप्रमाण लम्बा तथा दो समय कम आवलिके अर्धभाग में से दो रूप कम करने पर जो शेष बचे उतना विष्कम्भवाला होकर स्थित होता है । उसका प्रमाण यह है( संदृष्टि मूल में देखिए ) । पुनः इसके आयामको विष्कम्भसे गुणित करने पर जो फल प्राप्त हो उसमें से एक रूपको ग्रहणकर पूर्वोक्त न्यून क्षेत्र में स्थापित करने पर सम्पूर्ण प्रतराव होती है । वह यह है -- ( संदृष्टि मूलमें देखिये ) |
अब ये फालियाँ यद्यपि समान नहीं होती हैं तो भी बुद्धिसे द्विचरम फालिके समान हैं ऐसा प्रहण करना चाहिये । पुनः इनको अन्तिम फालिके प्रमाणरूपसे करते हैं। यथा-एक कम अधःप्रवृत्तप्रमाण द्विचरम फालियोंकी यदि एक चरम फालि प्राप्त होती है तो उत्कृष्ट योगस्थानके प्रक्षेप भागहारप्रमाण द्विचरम फालियोंकी कितनी चरम फालियाँ प्राप्त होती हैं, इस प्रकार फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देने पर एक कम अधस्तन भागद्दारका उत्कृष्ट योगस्थानके प्रक्षेप भागद्दार में भाग देने पर वहाँ एक खण्डप्रमाण
४२
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ पक्खेवभागहारे खंडिदे तत्थ एयखंडमेत्ताओ चरिमफालियाओ लम्भंति ।।
३६९. संपहि एकिस्से दुचरिमफालियाए जदि सगलजोगट्ठाणद्धाणं रूवणअधापवत्तेण खंडेदूण तत्थ एगखंडमेत्ताओ चरिमफालियाओ लभंति तो किंचूणअद्धाहियपदरावलियमेत्तदुचरिमाणं किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए
ओवट्टिदाए साद्धपदरावलियाए खंडियरूवणअधापवत्तभागहारेण उक्कस्सजोगहाणपक्खेवभागहारे ओवट्टिदे लद्धम्मि जत्तियाओ चरिमफालीओ तत्तियमेत्ताणि चेव पदेससंतकम्मट्ठाणाणि लभंति । एदाणि सव्वट्ठाणाणि सयलजोगट्ठाणस्स असंखे०भागमेत्ताणि होति ति । एदेसिमागमणडं गुणगारम्मि एगरूवस्स असंखे०भागो पक्खिविदव्यो। तम्हा दोहि आवलियाहि दुसमयूणाहि पदप्पण्णजोगट्ठागमेत्ताणि पुरिसवेदस्स पदेससंतकम्मट्ठाणाणि होति सि सिद्धं ।
३७०. अथवा अण्णेण पयारेण जोगहाणाणं दसमयणदोआवलियगुणगारसाहणं च कस्सामो । तं जहा-चरिमसमयसवेदेण घोलमाणजहण्णजोगेण बद्धजहण्णदव्वस्सुवरि पक्खेवत्तरादिकमेण वड्डाविय णेदव्वं जाव उक्कस्सजोगट्टाणं पत्तं ति । एवं णीदे एगा चरिमफाली उकस्सा जादा। संपहि अण्णेगो दुचरिमसममए चरिमसमए वि अद्धजोगेण चेव बंधिदूण पुणो अधियारदुचरिमसमए अवहिदो तस्स तिण्णि फालीओ दीसंति । संपहि एगफालिउकस्सदव्वादो तिण्णिफालिखवगस्स दव्वं विसेसाहियं। दोसु अद्धजोगचरिमफालिसु एगुक्कस्सजोगचरिमफाली होदि त्ति अवणिदासु
चरम फालियाँ प्राप्त होती हैं।
६३६९. अब यदि एक द्विचरम फालिके समस्त योगस्थान अध्वानको एक कम अधःप्रवृत्तसे भाजित कर वहाँ एक भागप्रमाण चरम फालियाँ प्राप्त होती हैं तो कुछ कम अर्धभाग अधिक प्रतरावलिमात्र द्विचरमों में क्या प्राप्त होगा, इसप्रकार फलराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देने पर अर्धभागसहित प्रतरावलिसे भाजित एक कम अधःप्रवृत्तभागहारका उत्कृष्ट योगस्थानके प्रक्षेपभागहारमें भाग देने पर लब्ध रूपमें जितनी भन्तिम फालियां हों उतने ही प्रदेशसत्कर्मस्थान प्राप्त होते हैं। ये सब स्थान समस्त योगस्थानके असंख्यातवें भागप्रमाण होते हैं, इसलिए इनके लाने के लिए गणकारमें एक रूपका असंख्यातवां भाग मिलाना चाहिए । इसलिए दो समय कम दो आवलियोंसे उत्पन्न योगस्थानप्रमाण पुरुषवेदके सत्कर्मस्थान होते हैं यह सिद्ध हुआ।
६३७०. अथवा अन्य प्रकारसे योगस्थानोंके दो समय कम दो आवलिप्रमाण गुणकारकी सिद्धि करते हैं । यथा-चरम समयवर्ती सवेदी जीवके द्वारा घोलमान जघन्य योगसे बांधे गये जघन्य द्रव्यके ऊपर एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढ़ाकर उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक लेजाना चाहिये । इस प्रकार ले जाने पर एक चरम फालि उत्कृष्ट हुई । अब एक अन्य जीव द्विचरम समयमें और चरम समयमें भी अर्ध योगसे हो बांधकर पुनः भधिकृत द्विचरम समयमें अवस्थित है उसके तीन फालियाँ दिखलाई देती हैं । अब एक कालिके उत्कृष्ट द्रव्यसे तीन फालि क्षपकका द्रव्य विशेष अधिक है। दो अर्ध योग चरम
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेविहतीए सामितं
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चरिमसमय सवेदेण अद्धजोगेण बद्धदुचरिमफालीए अहियत्तुवलंभादो । संपहि अद्धजोग पक्खेव भागहारमे तदचरिमफालीओ चरमफालिपमाणेण कीरमाणाओ रूवूण अधापवत्तभागहारेण ओवविदअद्ध जोगपक्खेव भागहारमेताओ होंति ति तेत्तियमेत्तमद्भाणं दचरिमसमयसवेदो अद्धजोगादो हेड्ट्ठा ओदारेदव्वो । एवमेदेहि जोगेहि परिणदखवगतिण्णिफालीओ उक्कस्सजोगेण परिणदखवगेगफालीओ समाणाओ, ओट्टिदअधियदव्वत्तादो ।
९ ३७१. संपधि इमो दुरिमसमयसवेदो पक्खेवुत्तरकमेण वढावेदव्वो जाव अद्धजोगं पत्तो त्ति । एवं वड्डाविदे पुव्विल्ल अद्धजोगेण बद्धदुचरिमफाली पक्खेवुत्तरकमेण सयला बड्डिदा त्ति । संपहि अद्धजोगादो उवरि दुवरिमसमयसवेदे पवखेवुत्तरकमेण जावकस्स जोगद्वाणं ति ताव वड्ढमाणे चरिमफालियाए अद्धजोगपक्खेव भागहारमे तद्वाणाणि लद्भाणि होंति । संपहि सवेदचरिमसमए उकस्सजोगेण दुवरिमसमए अद्धजोगेण पुरिसवेदं बंधिय अधियारदुचरिमसमए द्विदस्स तिष्णिफालिदव्वं पुब्विल्लतिष्णिफालिदव्वादो विसेसाहियं चडिदद्वाणमेतदुच रिमफालीणमहियाणमुवलंभादो । पुणो एदाओ अधियदुचरिमफालीओ चरिमफालिपमाणेण कीरमाणाओ रूवूणअधापवत्तभागहारेणोदिअद्धजोगपक्खेव भागहारमेत्ताओ चरिमफालीओ होंति त्ति पुणरवि अद्धजोगादो
फालियों में एक उत्कृष्ट योग चरम फालि होती है, इसलिए उनके अलग कर देने पर चरम समयवर्ती सवेदी जीवके द्वारा अर्ध योगसे बद्ध द्विचरम फालि अधिक उपलब्ध होती है। अब अर्ध योग प्रक्षेप भागहारमात्र द्विचरम फालियोंको चरम फालिके प्रमाणसे करनेपर वे एक कम अधःप्रवृत्त भागहारसे भाजित अर्ध योग प्रक्षेपभागहारप्रमाण होती है, इसलिए द्विचरम समयवर्ती सवेदी जीवको अर्ध योगसे नीचे उतने अध्वानप्रमाण उतारना चाहिये । इस प्रकार इन योगोंसे परिणत हुए क्षपककी तीन फालियां उत्कृष्ट योगसे परिणत हुए क्षपककी एक फालि समान है, क्योंकि अधिक द्रव्यका अपवर्तन हो गया है । ९ ३७१. अब इस द्विचरम समयवर्ती सवेदो जीवको एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे अध योगके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए । इस प्रकार बढ़ाने पर पहले अर्ध योगसे बांधी गई द्विचरम फालि एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे समस्त बढ़ गई है । अब अर्ध योगसे ऊपर द्विचरम समयवर्ती सवेदी जीवके एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक बढ़ाने पर चरम फालिके अध भाग प्रक्षेप भागहारमात्र स्थान • प्राप्त होते हैं । अब सवेदी जोवके चरम समय में उत्कृष्ट योगसे तथा द्विचरम समय में अर्ध योगसे पुरुषवेदको बाँधकर अधिकृत द्विचरम समय में स्थित हुए जीवके तीन फालियोंका द्रव्य पहलेकी तीन फालियों के द्रव्यसे विशेष अधिक है, क्योंकि जितने स्थान आगे गये हैं उतनी द्विचरम फालियां अधिक उपलब्ध होती हैं । पुनः इन अधिक द्विचरम फालियोंको चरम फालिके प्रमाणसे करने पर एक कम अधःप्रवृत्त भागहारसे भाजित अर्ध योग प्रक्षेप भागहार प्रमाण चरम फालियां होती हैं, इसलिए फिर भी अर्ध योगसे नोचे
१. आ०प्रतौ ' कमेण बढावेदव्वं । एवं गेदब्वं इति पाठः ।
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[ पदेसविहत्ती ५
हेडा एत्तियमेत्तमद्वाणं दुचरिमसमय सवेदो ओदारेदव्वो । एवमेदेहि जोगेहि परिणमिय अधियारदुचरिमसमय दिस्स तिणिफालिदवं पुब्बिल्ल तिण्णिफालिदव्वेण सरिसं, ओट्टिदअहियदव्वत्तादो ।
६३७२. संपहि दुरिमसमय सवेदो पक्खेवुत्तरकमेण वढावेदव्वो जाव अद्धजोगं पत्तो त्ति । एवं वड्डाविदे दुचरिमफाली उकस्सा जादा, रूवूणअधापवत्तभागहारेण ओवद्विदअद्धजोगपक्खेवभागहारे दुगुणिदे रूवणअधापवत्तभागहा रेगोवट्टिद उकस्सजोगपक्खेवभागहारपमाणाणुवलंभादो' । संपहि अद्धजोगादो उवरि पक्खेत रकमेण दुरिमसमयसवेदो वढावेदव्वो जाव उक्कस्सजोगट्ठाणं पत्तो त्ति । एवं वड्ढाविदे चरिमफालियाए सयलजोगहाणद्वाणमेचाणि पदेस संतकम्मद्वाणाणि लढाणि अद्धजोगपक्खेववेभागहारमे तसंतकम्मडाणाणं दोवारमुवलंभादो । एत्थ एत्तियाणि चैत्र पदे ससंतकम्मड्डाणाणि लम्भंति, तिन्हं फालीणमुकरसभाबुवलंभादो |
६ ३७३. संपहि अण्णेगो सवेदस्स चरिम- दुचरिम-तिचरिमसमएसु तिभागूणुकस्सजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमए अवहिदो एदम्मि छप्फालीओ दीसंति । एदासिं छहं फालीणं दव्वं पुव्विल्ल तिण्णिफालिदव्वादो विसेसाहियं, तिन्हं चरिमफालीणं वेतिभागेहि दोउक्कस्सचरिमफालीओ होंति दुचरिमफालीए दोहि वेतिभागेहि सतिभागा एगा उकस्सजोगदुचरिमफाली होदि ति पुव्विल्लतिण्णिफालिदव्वादो एदं दव्वं सरिसं
द्विचरम समयवर्ती सवेदी जीवको इतनामात्र अध्वान उतारना चाहिये । इस प्रकार इन योगों से परिणमा कर अधिकृत द्विचरम समय में स्थित हुए जीवकी तीन फालियोंका द्रव्य पहले की तीन फालियों के द्रव्यके समान है, क्योंकि अधिक द्रव्यका अपवर्तन हो गया है।
६ ३७२. अब द्विचरम समयवर्ती सवेदो जीवको एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे अर्ध योग प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए । इस प्रकार बढ़ाने पर द्वि चरम फालि उत्कृष्ट हो जाती है, क्योंकि एक कम अधःप्रवृत्त भागहारसे भाजित अर्ध योग प्रक्षेप भागहार के द्विगुणित करने पर एक कम अधःप्रवृत्त भागहारसे भाजित उत्कृष्ट योग प्रक्षेपभागहारका प्रमाण उपलब्ध होता है । अत्र अर्धयोगके ऊपर एक एक प्रक्ष ेप अधिकके क्रमसे उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक द्विचरम समयवर्ती सवेदी जीवको बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़ाने पर चरम आवलिके समस्त योगस्थान अध्वानमात्र प्रदेशसत्कर्मस्थान लब्ध आते हैं, क्योंकि अर्ध योग प्रक्षेपके दो भागहारमात्र सत्कर्मस्थान दो बार उपलब्ध होते हैं। यहां पर इतने ही प्रदेशसत्कर्मस्थान ब्ध आते हैं; क्योंकि तीन फालियोंकी उत्कृष्टता उपलब्ध होती है ।
§ ३७३. अब अन्य एक जीव सवेद भागके चरम, द्विचरम और त्रिचरम समयों में तृतीय भाग कम उत्कृष्ट योगसे बन्ध कर अधिकृत स्थितिके त्रिचरम समयमें अवस्थित है । तब इसके छह फालियां दिखलाई देती है । इन छह फालियोंका द्रव्य पहलेकी तीन फालियों के द्रव्यसे विशेष अधिक है जो तीन चरम फालियोंके दो त्रिभागके साथ दो उत्कृष्ट चरम फालियाँ होती है तथा द्विचम फालिके दो त्रिभागों के साथ एक विभागसहित उत्कृष्ट योग द्विचरम
१. ता० प्रतौ 'पाणावलंभादो' इति पाठः । २. प्रा० प्रतौ 'चेत्र संतकम्महाणाणि' इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
३३३ ति अवणिदे चरिमसमयसवेदस्स दुचरिमफालियाए तिभागेण सह तस्सेव तिचरिमफालियाए वेतिभागाणमहियाणमुवलंभादो। तिभागणुकस्सजोगेणेगजीवस्स णिरंतरतिसु समएम परिणामो विरुज्झदि. त्ति ण पञ्चवद्वेयं, बालजणाणुग्गहह तहापदुप्पायणाए विरोहाभावादो। संपहि एदम्मि अहियदव्वे चरिमफालिपमाणेण कीरमाणे रूवूणअधापयत्तभागहारेणोपट्टिदउक्कस्सजोगहाणपक्खेवभागहारमेत्ताओ सविसेसाओ चरिमफालीओ होति त्ति तिचरिमसमयसवेदो तिभागूणुक्कस्सजोगहाणादो हेट्ठा एत्ति यमेत्तमद्धाणमोदारेदव्वं । एवमोदारिदे पविल्लुक्कस्सतिण्णिफालिदव्वेण एदं छप्फालिदव्वं सरिसं होदि, ओवट्टिदअहियदव्वत्तादो। संपहि इमो चरिमसमयसवेदो पक्खेवत्तरकमेण वड्ढावेदव्वो जाव तिभागृणुक्कस्सजोगं पत्तो त्ति । एवं वड्डाविदे सव्वमंतरं पक्खेवृत्तरकमेण पविट्ठ होदि । संपहि एत्तो उवरिं पि पक्खेवुत्तरकमेण वड्ढावेदव्वो जाव उक्कस्सजोगहाणं पत्तो त्ति । एवं वड्डाविदे तिचरिमसमयसवेदस्स चरिमफालियाए उकस्सजोगहाणपक्खेवभागहारस्स तिभागमेत्ताणि संतकम्मट्ठाणाणि लद्धाणि होति । संपहि सवेदतिचरिमसमए तिभागूणुकस्सजोगण तद्दचरिमसमए उक्कस्सजोगेण चरिमसमए वितिभागूणुकस्सजोगण
फालि होती है, इसलिए पहलेकी तीन फालियोंके द्रव्यसे यह द्रव्य समान है, इसलिए अलग कर देने पर चरम समयवर्ती सवेदी जीवके द्विचरम फालिके विभागके साथ उसीके त्रिचरम फालिके दो त्रिभाग अधिक उपलब्ध होते हैं।
शंका-तृतीय भाग कम उत्कृष्ट योगसे एक जीवके निरन्तर तीन समयोंमें परिणमन विरोधको प्राप्त होता है ?
समाधान-ऐसा निश्चय नहीं करना चाहिए, क्योंकि बाल जनोंके अनुग्रहके लिए उस प्रकारका कथन करने पर कोई विरोध नहीं आता।
अब इस अधिक द्रव्यके अन्तिम फालिके प्रमाणसे करने पर एक कम अधःप्रवृत्त भागहारसे भाजित उत्कृष्ट योगस्थानके सविशेष प्रक्षेप भागहारप्रमाण चरम फालियाँ होती हैं, इसलिए त्रिचरम समयवर्ती सवेदी जीवको तृतीय भाग कम उत्कृष्ट योगस्थानसे नीचे इतने मात्र अध्वान उतारना चाहिए। इस प्रकार उतारने पर पहलेके उत्कृष्ट तीन फालियोंके द्रव्यसे यह छह फालियोंका द्रव्य समान होता है, क्योंकि अधिक द्रव्यका अपवर्तन हो गया है। अब इस चरम समयवर्ती सवेदी जीवको एक एक प्रक्षेष अधिकके क्रमसे तृतीय भाग कम उत्कृष्ट योगके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाने पर सब अन्तर एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे प्रविष्ट होता है। अब इसके ऊपर भी एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक बढाना चाहिए। इस प्रकार बढाने पर त्रिचरम समयवर्ती स जीवके चरम फालिके उत्कृष्ट योगस्थान प्रक्षेप भागहारके त्रिभागप्रमाण सत्कर्मस्थान लब्ध आते हैं। अब सवेदी जीवके त्रिचरम समयमें त्रिभाग कम उत्कृष्ट योगसे, उसके द्विचरम समयमें उत्कृष्ट योगसे तथा चरम समयमें भी त्रिभाग कम उत्कृष्ट योगसे ही पुरुषवेदका बन्ध
१. ता प्रतौ 'जोगेणतदुवरिमसमए' इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [देसविहत्ती ५ चेव पुरिसवेदं बंधिय अधियारतिचरिमसमए हिदतिभागूणुक्कस्सक्खवगछप्कालीओ पबिल्ल छप्फालीहितो विसेसाहियाओ, चडिदद्धाणमेत्तदुचरिमफालीणमहियत्तुवलंभादो ।
३७४. संपहि इमाओ अहियदचरिमफालीओ चरिमफालिपमाणेण कीरमाणाओ रूवणअधापवत्तभागहारेणोवट्टिदुक्कस्सजोणट्ठाणपक्खेवभागहारतिभागमेत्ताओ चरिमफालीओ होति त्ति तिचरिमसमयसवेदो पुणरवि हेढा एत्तियमेत्तमोदारेदव्यो । एवमोदारिय पणो इमो पक्खेवत्तरकमेण वड्ढावेदव्यो जाव उक्कस्सजोगहाणं पत्तो त्ति । एवं वड्डाविदे दुचरिमफालिणिमित्तमोदरियमद्धाणं तिचरिमसमयसवेदस्स विदियतिभागमेत्तजोगडाणद्धाणं च लद्धं होदि. । संपहि सवेदचरिमसमए दुचरिमसमए च उक्कस्सजोगेण तिचरिमसमए तिभागूणुकस्सजोगेण परिसवेदं बंधिय अधियारतिचरिमसमयम्मि द्विदस्स छप्फालिदव्वं पुव्विल्लछप्फालिदव्वादो विसेसाहियं, उक्कस्सजोगहाणपक्खेवभागहारस्स तिभागमेत्ताणं दचरिम-तिचरिमफालोणमहियत्तवलंभादो। ___$ ३७५. संपहि इमाओ दुचरिम-तिचरिमफालीओ चरिमफालिपमाणेण कीरमाणाओ रूवूणअधापत्तभागहारेणोवट्टिदुक्कस्सजोगहाणभागहारस्स सादिरेयवेतिभागमेत्ताओ चरिमफालीओ होति त्ति पुणरवि एत्तियमेत्तमद्धाणं तिचरिमसमयसवेदो हेट्ठा ओदारेदव्यो । संपहि इमो तिचरिमसमयसवेदो पक्खेवत्तरकमेण वड्ढावेदव्यो जाव
कर अधिकृत त्रिवरम समयमें स्थित हुई त्रिभाग कम उत्कृष्ट क्षपकसम्बन्धी छह फालियाँ पहलेकी छह फालियोंसे विशेष अधिक हैं, क्योंकि जितने स्थान आगे गये हैं उतनी द्विचरम फालियोंकी अधिकता पाई जाती है।
६३७४. अब इन अधिक द्विचरम फालियांको चरम फालिके प्रमाणसे करने पर एक कम अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित उत्कृष्ट योगस्थान प्रक्षेप भागहारके त्रिभागप्रमाण चरम फालियों होती है, इसलिए त्रिचरम समयवती सवेदी जीवको फिर भी नीचे इतना उतारना चाहिए। इस प्रकार उतार कर पुनः इसे एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाने पर विचरम फालिका निमित्तभूत अवतरित अध्वान और त्रिचरम समयवर्ती सवेदी जीवके द्वितीय त्रिभागमात्र योगस्थान अध्वान लब्ध होता है। अब सवेद भागके अन्तिम समयमें और द्विचरम समयमें तथा उत्कृष्ट योगसे त्रिचरम समयमें तृतीय भाग कम उत्कृष्ट योगसे पुरुषवेदको बाँध कर अधिकृत त्रिचरम समयमें स्थित हुए जीवके छह फालिका द्रव्य पहलेकी छह फालियोंके द्रव्यसे विशेष अधिक है, क्योंकि उत्कृष्ट योगस्थानके प्रक्षेप भागहारके तृतीय भागप्रमाण द्विचरम और त्रिचरम फालियोंकी अधिकता पाई जाती है।
६३७५. अब इन द्विचरम और त्रिचरम फालियोंको चरम फालिके प्रमाणसे करने पर एक कम अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित उत्कृष्ट योगस्थान भागहारकी साधिक दो तीन भागप्रमाण चरम फालियाँ होती हैं, इसलिए फिर भी विचरम समयवर्ती सवेदी जीवको इतना मात्र अध्वान नीचे उतारना चाहिए। अब इस त्रिचरम समयवर्ती सवेदी जीवको एक
1. आप्रतौ '-जोगट्ठाणद्वाणं वत्तन्वं होदि-' इति पाः ।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं तिभागणुकस्सजोगट्ठाणं पत्तो त्ति । एवं वड्डाविदे पुग्विल्लमूणिददव्वं पक्खेवुत्तरकमेण पविहं होदि । संपहि उवरिमतिभागं पि तिचरिमसमयसवेदो वड्डाविय णेदव्वो जाव उकस्सजोगहाणं पत्तो ति । एवं णीदे तिचरिमसमयसवेदस्स चरिमफालियाए सगलजोगहाणद्धाणमेत्ताणि पदेससंतकम्मट्ठाणाणि लद्धाणि, उक्कस्सजोगहाणभागहारस्स तीहि तिभागेहि सयलजोगहाणद्धाणप्तमुप्पत्तीर । एवं छष्फालीओ उकस्सभावं पीदाओ। एवं चदन्भागृणादिजोगहाणेसु समयाविरोहेण परिणमाविय ओदारदव्वं जाव अवगदवेदवढमसमओ त्ति । एवमोदारिय पणो पदेससंतकम्मट्ठाणाणं पमाणपत्रणाए कीरमाणाए सादिरेयदुसमयूणदोआवलियमेत्तो सयलजोगहाणद्धाणस्स गुणगारो पुव्वं व साहेयव्यो।
$ ३७६. अहवा अण्णेण पयारेण दुसमयूणदोआवलियमेत्तगुणगारुप्पायणं कस्सामो । तं जहा-घोलमाणजहण्णजोगट्ठाणप्पहुडि पक्खेवत्तरकमेण चरिमसमयसवेदो वहाव दव्वो जाव घोलमाणजहण्णजोगट्ठाणादो सादिरेयदुगुणमेत्तं जोगहाणं पत्तो त्ति । संपहि एदेण दवण अण्णेगो सव ददचरिमसमए चरिमसमए च घोलमाणजहण्णजोगेण परिसवदं बंधिय अधियारदचरिमसमयम्मि तिण्णि फालीओ धरिय द्विदो सरिसो, घोलमाणजहण्णजोगहाणपक्खेवभागहारं रूवूणअधापवत्तभागहारेण खंडिय तत्थ एगखंडेणब्भहियतब्भागहारमेत्तमुवरि चढिय एगफालिखवगस्स अवट्ठाणुवलंभादो । पणो एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे तृतीय भाग कम उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाने पर पहलेका कम किया गया द्रव्य एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे प्रविष्ट होता है। अब त्रिचरम समयवर्ती सवेदी जीव उपरिम विभागको भी बढाकर उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक ले जावे। इस प्रकार ले जाने पर विचरम समयवर्ती सवेदी जीवके चरम फालिके समस्त योगस्थानके अध्वानप्रमाण प्रदेशसत्कर्मस्थान लब्ध होते हैं, क्योंकि उत्कृष्ट योगस्थान भागहारके तीन विभागोंके द्वारा सकल योगस्थान अध्वानकी उत्पत्ति होती है। इस प्रकार छह फालियाँ उत्कृष्टपनेको ले जाई गई हैं। इस प्रकार चतुर्थ भाग कम आदि योगस्थानोंमें समयके अविरोधरूपसे परिणमा कर अपगतवेदके प्रथम समय तक उतारना चाहिए । इस प्रकार उतार कर पुनः प्रदेशसत्कर्मस्थानोंके प्रमाणकी प्ररूपणा करने पर सकल योगस्थान अध्वानका गुणकार साधिक दो समय कम दो आवलिप्रमाण पहलेके समान साधना चाहिए।
६३७६. अथवा अन्य प्रकारसे दो समय कम दो आवलिप्रमाण गुणकारकी उत्पत्ति करनी चाहिए। यथा--घोलमान जघन्य योगस्थानसे लेकर एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे
चरम समयवर्ती सवेदी जीवको घोलमान जघन्य योगस्थानसे साधिक दुगुने योगस्थानके • प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए । अब इस द्रव्यके साथ एक अन्य जीव समान है जो सवेद भागके द्विचरम और चरम समयमें घोलमान जघन्य योगसे पुरुषवेदका बन्ध कर अधिकृत द्विचरम समयमें तीन फालियोंको धारण कर स्थित है, क्योंकि घोलमान जघन्य योगस्थानके प्रक्षेप भागहारको एक कम अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित कर वहाँ एक खण्डसे अधिक उसके भागहारप्रमाण ऊपर चढ़कर एक फालि क्षपकका अवस्थान उपलब्ध होता है। पुनः द्विचरम
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ दचरिमसमयसव दो पक्खेवुत्तरकमेण उवरि वड्ढाव दव्वो जाव घोलमाणजहण्णजोगहाणादो सादिरेयदगुणमेत्तं वड्डिदं ति । एवं वडिदण द्विदो च अण्णेगो सवेदतिचरिम-दचरिमचरिमसमएसु घोलमाणजहण्णजोगेण परिसवदं बंधिय अधियारतिचरिमसमयम्मि द्विदस्स छप्कालिदव्व पविल्लतिगिफालिदव्वण सरिसं, घोलमाणजहण्णजोगट्ठाणपक्खेवभागहारमत्तजोगहाणाणि उवरि चढिय पणो रूवणअधापवत्तभागहारेण दगुणं चडिदद्धाणं खंडिय तत्थ सादिरेयमेयखंडमुवरि चढिय एयफोलिखवगस्स अवहाणुवलंभादो। एवं सरिसं कादूगोदारदव्व जाव दुसमयूणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धा उप्पण्णा त्ति । एवमोदारिदसव्वसमयपबद्धा जहण्णा चेव । दुसमयूणदोआवलियमत्तकालम गजोगहाणेण परिणम दूं संभवो णत्थि त्ति सव्व समयपवद्धा जहण्णा चव ति वयणं णोववण्णमिदि ण पञ्चवडेयं, ओघजहणं मोत्तूणोघादेसजहण्णसामग्णस्स एत्थ ग्गहणादो। संपहि इमाओ सव्वफालोओ उक्कस्साओ कस्सामो। तं जहासव दस्स दुचरिमावलियाए तदियसमयम्मि बद्धएगेगसमयपबद्धस्स एगफालिं धरेदण हिदखवगो पक्खेवुत्तरकमण बड्डाव दव्यो जाव तप्पाओग्गमसंखजगुणजोगं वविद्ण हिदोत्ति । जेण जोगेणेगसमयं परिणमिय पुणोणंतरविदियसमए घोलमाणजहण्णजोगट्ठाण परिणमणसमत्थो होदि तारिसेण जोगहाणेण सव ददचरिमावलियाए तदियसमयम्मि
समयवर्ती सवेदी जीवको एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे उससे ऊपर घोलमान जघन्य योगस्थानसे साधिक दुगुनेकी वृद्धि होने तक बढ़ाना चाहिए । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुआ अन्य एक जीव सवेद भागके त्रिचरम, द्विचरम और चरम समयमें घोलमान जघन्य योगसे पुरुषवेदका बन्ध करके आंधकृत त्रिचरम समयम स्थित हए जीवका छह फालियाका द्रव्य पहलेकी तीन फालियोंके द्रव्यके साथ समान है, क्योंकि घोलमान जघन्य योगस्थानके प्रक्षेप भागहारमात्र योगस्थान ऊपर चढ़ कर पुनः एक कम अधःप्रवृत्त भागहारसे दूने आगे गये हुए स्थानोंको भाजित कर वहाँ साधिक एक भाग ऊपर चढ़कर एक फालि क्षपकका अवस्थान उपलब्ध होता है। इस प्रकार समान करके दो समय कम दो आवलिप्रमाण समयप्रबद्ध उत्पन्न होने तक उतारना चाहिए । इस प्रकार उतारे गये सब समयप्रबद्ध जघन्य ही हैं। .
शंका-दो समय कम दो आवलिप्रमाण काल तक एक योगस्थानरूपसे परिणमाना सम्भव नहीं है, इसलिए सब समयप्रबद्ध जघन्य ही हैं यह वचन नहीं बन सकता है?
समाधान-ऐसा निश्चय करना ठीक नहीं है, क्योंकि ओघ जघन्यको छोड़कर ओघ भादेश जघन्य सामान्यका यहाँ पर ग्रहण किया है।
अब इन सब फालियोंको उत्कृष्ट करते हैं। यथा--सवेद भागकी द्विचरमावलिके तृतीय समयमें बन्धको प्राप्त हुए एक एक समयप्रबद्धकी एक फालिको धारण कर स्थित हुए क्षपकको तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योगको बढ़ाकर स्थित होने तक एक एक प्रक्षेप अधिक क्रमसे बढ़ाना चाहिए। जिस योगसे एक समय तक परिणमन करके पुनः अनन्तर द्वितीय समयमें पोलमान जघन्य योगस्थानरूपसे परिणमन करने में समर्थ होता है उस प्रकारके योगस्थान रूपसे सवेद भागकी द्विचरमावलिके तृतीय समयमें परिणत हुआ है यह उक्त कथनका भावाथ है।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
३३७ परिणदो त्ति भावत्यो। संपहि सव ददुचरिमावलियाए तदियसमयम्मि जहण्णजोगेण चउत्थसमयम्मि तप्पाओग्गअसंखेजगुणजोगेण सेससमएसु जहण्णजोगेणेव पुरिसवेदं बंधिय अवगदव दपढमसमए द्विदखबगदव्व पुबिल्लदव्वादो सादिरेयं, चडिदद्धाणमेत्तदुचरिमफालीणमहियाणमुवलंभादो।
३७७. संपहि एगकालिखवगो हेवा ओदारदुं ण सक्किाइ, सव्वजहण्णजोगहाणे अवट्टिदत्तादो। दोफालिखवगो वि हेडा ओदारदुं ण सकिजइ, एगवारेण चरिम-दुचरिमफालीणं परिहाणिदंसणादो। तेणेत्थ अधापवत्तमेत्तदुचरिमाणं जदि एगं चरिम-दचरिमपमाणं लन्भदि तो चडिदद्धाणमतदचरिमाणं केत्तियं लभामो ति अधापवत्तेणोवट्टिदचडिदद्धाणमेत्तमक्कम ण दोफालिखवगो ओदारेदव्यो। अधापवत्तेण चडिदद्धाणमोवट्टि अमाणं णिरग्गं होदि त्ति कुदो णव्वदे ? आइरियभडारयाणमुवदेसादो। अणिरग्गे संते णोयरणं संभवइ, दोण्हं जोगट्ठाणाणं विचाले हाणंतरस्साभावादो। एवं पुव्वुप्पण्णट्ठाणेण सह एदं द्वाणं सरिसं होदि। संपहि एगफालिक्खवगो पक्खेवुत्तरकमण घड्ढावेदव्यो जाव तेण पुव्वं चडिदद्धाणं चडिदो त्ति ।
३७८. संपहि सवे ददुचरिमावलियाए तदियसमयम्मि जहण्णजोगेण चउत्थ-पंचमसमएसुतप्पा ओग्गअसंखेजगुणजोगेसु सेससमएसु तप्पाओग्गजहण्णजोगेसु. अब सवेद भागकी द्विचरमावलिके तृतीय समयमें जघन्य योगसे, चतुर्थ समयमें तत्प्रायोग्य असंख्वातगुणे योगसे और शेष समयोंमें जघन्य योगसे ही पुरुषवेदका बन्ध करके अपगत वेदके प्रथम समयमें स्थित हुआ झपक द्रव्य पहलेके द्रव्यसे अधिक होता है, क्योंकि जितना अध्वान आगे गये हैं उतनी द्विचरम फालियोंकी अधिकता उपलब्ध होती है।
६३७७. अब एक फालि क्षपकको नीचे उतारना शक्य नहीं है, क्योंकि सबसे जघन्य योगस्थानमें अवस्थित है। दो फालि क्षपकको भी नीचे उतारना शक्य नहीं है, क्योंकि एक बारमें चरम और द्विचरम फालियोंकी हानि देखी जाती है। इसलिए यहाँ पर अधःप्रवृत्तमात्र द्विचरमोंका यदि एक चरम और द्विचरम प्रमाण प्राप्त होता है तो जितना शाध्वान आगे गये हैं उतने द्विचरमोंका कितना प्राप्त होगा, इस प्रकार अधःप्रवृत्त से भाजित जितना अध्वान आगे गये हैं तत्प्रमाण दो फालि क्षपकको युगपत् उतारना चाहिए।
शंका-अधःप्रवृत्तसे जितना अध्वान आगे गये हैं उसका अपवर्तन करने पर वह अग्र रहित होता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
' समाधान-आचार्य भट्टारकोंके उपदेशसे जाना जाता है। सान होने पर उतरना सम्भव नहीं है, क्योंकि दोनों योगस्थानोंके मध्यमें स्थानान्तरका अभाव है।
इस प्रकार उतारने पर पहले उत्पन्न हुए स्थानके साथ यह स्थान सदृश होता है। अब एक फालि क्षपकको वह जितना अध्वान चढ़ा है उतना स्थान चढ़ने तक एक एक प्रक्षेप अधिक क्रमसे बढ़ाना चाहिए।
६३७८. अब सवेद भागकी द्विचरमावलिके तृतीय समयमें जघन्य योगसे, चौथे और पाँचवें समयमें तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योगोंके होने पर तथा शेष समयोंमें तत्प्रायोग्य जघन्य
१. ताप्रती 'मोवडिमाणाणं शिरग्गं इति पाठः ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ पुरिसवदं बंधिय अवगदवेदपढमसमयद्विददव्य पुस्विरलदव्वादो सादिरेयं, चडिदद्धाणमत्तदुचरिम-तिचरिमफालियाहि अहियत्तुवलंभादो। संपहि एदासिं दुचरिम-तिचरिमफालीणं दव्व चरिम-दचरिमफालिपमाणेण कीरमाणे चडिदद्धाणं दगुणं सादिरेयमधापवत्तभागहारेण खंडिदं होदि त्ति एत्तियम तमद्धाणं दोफालिखवगो पुणरवि हेडा ओदारदव्यो। एवमोदारिदे पुबिल्लदव्वण सरिसं होदि, अहियदव्वस्स कयहाणित्तादो । एवं चत्तारि-पंच-छप्पहुडि जाव दुसमयण'दोआवलियमेत्तसमयपबद्धा तप्पाओग्गमसंखे०गुणं पत्ता त्ति ताव वड्ढावेदव्व। णवरि एगफालिखवगो पोलमाणजहण्णजोगट्ठाणे चेव हिदो त्ति दहव्यो । संपहि एगफालिक्खवगो पक्खेवुत्तरकम ण ताव वड्डाव दव्वो जाव सव्वफालीणं चडिदखाणं वोलेदण तप्पाओग्गं तत्तो असंखेजगुणं जोगं पत्तो त्ति । संपहि एगफालिक्खवगजोगेण दोफालिक्खवगेण एगफालिक्खवगेण वि दोफालिखवगजोगेण पुरिसवेदे बद्धे पुविल्लपदेससंतकम्मट्टाणादो एदं पदेससंतकम्महाणं चडिदद्धाणमेत्तदुचरिमफालियाहि अहियं होदि, सेससमयक्खवगाणं जोगेण मेदाभावादो। एदं चडिदद्धाणं रूवूणअधापवत्तेण खंडिय तत्थ एयखंडमेत्तं पुणरवि एगफालिक्खवगो हेट्ठा ओदारेदव्वो, अण्णहा अहियदव्वस्स परिहाणीए विणा पुविल्लदव्वेण सरिसत्ताणुववत्तीदो। पुणो एगफालिक्खवगो पक्खेवुत्तरकमेण ताव वड्ढावेदव्वो जाव दोफालिक्खवगजोगहाणं पत्तो ति । योगके रहते हुए पुरुषवेदका बन्ध कर अपगतवेदके प्रथम समयमें स्थित हुआ द्रव्य पहलेके द्रव्यसे साधिक है, क्योंकि जितना अध्वान आगे गये हैं तत्प्रमाण द्विचरम और त्रिचरम फालियोंके साथ अधिकता पाई जाती है। अब इन द्विचरम और त्रिचरम फालियोंके द्रव्यको चरम और द्विचरम फालियोंके प्रमाणरूपसे करने पर जितना अध्वान आगे गये हैं वह साधिक दूना अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजितमात्र होता है, इसलिए दो फालि क्षपकको इतना मात्र अध्वान फिर भी नीचे उतारना चाहिए । इसप्रकार उतारने पर पहलेके द्रव्यके समान होता है, क्योंकि अधिक द्रव्यकी हानि की गई है। इसप्रकार चार, पाँच और छहसे लेकर दो समय कम दो आवलिप्रमाण समयप्रबद्ध तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए । इतनी विशेषता है कि एक फालि क्षपक घोलमान जघन्य योगस्थानमें ही स्थित है ऐसा जानना चाहिए । अब एक फालि क्षपकको सब फालियोंका जितना अध्वान आगे गये हैं उसे बितोकर तत्प्रायोग्य उससे असंख्यातगुणे योगके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। अब एक फालि क्षपक योगरूप दो फालि क्षपकके द्वारा तथा एक फालि क्षपकरूप भी दो फालि क्षपक योगके द्वारा पुरुषवेदका बन्ध होने पर पहले के प्रदेशसत्कर्मस्थानसे यह प्रदेशसत्कर्मस्थान जितना अध्वान आगे गये हैं उतनी द्विचरम फालियोंसे अधिक होता है, क्योंकि शेष समयवर्ती क्षपकोंका योगसे भेद नहीं है। इस आगे गये हए अध्वानको एक कम अधःप्रवृत्तसे भाजितकर वहां एक फालि क्षपकको फिर भी एक खण्डमात्र नीचे उतारना चाहिए, अन्यथा अधिक द्रव्यकी हानि हुए बिना पहलेके द्रव्यके साथ समानता नहीं बन सकती है। पुनः एक फालि क्षपकको एक-एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे दो फालि क्षपक योगस्थानके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए।
१. ता० प्रती 'जाव समयूण-' इति पाठः ।
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गा० २२]
उत्तरपडिपदेसविहसीए सामित्तं ___६ ३७९. संपहि एगफालिक्खवगजोगेण तिण्णिफालिक्खवगं तिण्णिफालिक्खवगजोगेण एगफालिक्खवग परिणमाविय सेससमयखवगेसु समाणजोगेसु संतेसु एदं पदेससंतकम्महाणं पुबिल्लट्ठाणादो चडिदद्धाणमेत्तदुचरिम-तिचरिमफालियाहि अहियं होदि । तेणेदं चडिदद्धाणं रूवृणअधापवत्तेण खंडेदृण तत्थ एयखंडं दुगुणं सादिरेयमत्तं पुणरवि एगफालिक्खवगो हेट्ठा ओदारेदबो । एवमोदारिय पुव्विल्लदव्वेण सरिसं करिय पुणो एगफालिक्खवगो पक्खेवुत्तरकमेण वड्ढावेदव्वो जाव पुव्बं चडिदजोगहाणं पत्तो त्ति । संपहि एगफालिक्खवगजोगम्मि चत्तारिफालिक्खवगे एगफालिक्खवगे च चत्तारिफालिक्खवगजोगम्मि हविदे चडिदद्धाणमेत्ताओ दुचरिम-तिचरिम-चदुचरिमफालीओ अहिया होति, चरिमफालीणं सरिसत्तुवलंभादो। पुणो रूवणअधापवत्तेण चढिदद्धाणं खंडिय तत्थ एयखंडं तिगुणं सादिरेयमेत्तमेयफालिक्खवगो हेट्ठा ओदारेदव्वो। एवं पंचादिफालीओ वि वड्डावेदव्वाओ जाव सव्वफालीओ विदियवारसंकंताओ त्ति (संपहि एवंविहेहि संखेजपरियट्टणवारेहि सव्वफालीओ उक्कस्सजोगं पावेंति । एदं कुदो णव्वदे ? आइरियभडारयाणमुपदेसादो। णिरंतरमुक्कस्सजोगेण परिणमणकालपमाणं 'वे चेव समया' त्ति सुत्तेण सह एदं वयणं किण्ण विरुज्झदे १ ण, आदेसुक्कस्सस्स वि उक्कस्सत्तभुवगमादो। तेण दुसमयूणदोआवलियाणमभंतरे जत्तिएसु समएसु उकस्सजोगहाणेण परिणमिदं
६३७९. अब एक फालि क्षपक योग द्वारा तीन फालि क्षपकको तथा तीन फालि क्षपक योग द्वारा एक फालि क्षपकको परिणमाकर शेष समयवर्ती क्षपकोंके समान योगवाले होनेपर यह प्रदेशसत्कर्मस्थान पहलेके स्थानसे जितना अध्वान आगे गये है उतनी द्विचरम और त्रिचरम फालियोंसे अधिक होता है, इसलिए इस आगे गये हुए अध्वानको एक कम अधःप्रवृत्तसे भाजितकर वहां एक फालि झपकको फिर भी एक खण्डको साधिक दूना करके जो हो उतना नीचे उतारना चाहिए । इस प्रकार उतारकर और पहलेके द्रव्यके समानकर पुनः एक फालि क्षपकको पहले आगे गये हुए योगस्थानके प्राप्त होने तक एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढ़ाना चाहिए । अब एक फालि क्षपक योगरूप चार फालि क्षपक और एक फालि क्षपकके चार फालि क्षपक योगमें स्थापित करने पर आगे गये हुए अध्वानमात्र द्विचरम, त्रिचरम और पतइचरम फालियाँ अधिक होती हैं, क्योंक चरम फालियोंकी समानता पाई जाती है। पन: एक कम अधःप्रवृत्तसे आगे गये हुए अध्वानको भाजितकर वहां पर एक फालि क्षपकको एक खण्डको साधिक तिगुना करके जो हो उतना नीचे उतारना चाहिए। इस प्रकार सब फालियोंके दूसरी बार संक्रान्त होने तक पाँच आदि फालियोंको भी बढ़ाना चाहिये। अब इस प्रकारके संख्यात परिवर्तनरूप बारोंके द्वारा सब फालियाँ उत्कृष्ट योगको प्राप्त होती हैं।
शंका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-आचार्य भट्टारकोंके उपदेशसे जाना जाता है
शंका-निरन्तर उत्कृष्ट योग रूपपे परिणमन करनेरूप कालका प्रमाण दो ही समय है, इस सूत्रके साथ यह वचन विरोधको क्यों नहीं प्राप्त होता ?
समाधान-नहीं, क्योंकि भादेश उत्कृष्टको भी उस्कृष्टरूपसे स्वीकार किया है। इसलिए दो समय कम दो आवलियोंके भीतर जितने समयोंमें उत्कृष्ट योगस्थानरूपसे
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___ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे पदेसविहत्ती ५ संभवो तत्तियमेत्तसमएसु सांतरं णिरंतरं वा तेण परिणमिय अवसेससमएसु आदेसुक्कस्सजोगहाणेसु परिणमिय बंधदि ति भणिदं होदि । एवं वडाविदे दुसमयणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धा उक्कस्सा जादा) संपहि सयलजोगहाणद्धाणस्स पुव्वं व दुसमयणदोआवलियगुणगारो एत्थ साहेयवों । जोगस्स द्वाणाणि जोगहाणाणि त्ति अभिण्णछट्टिमवलंबिय भणंताणमाइरियाणमहिप्पायपणासणहमेसा परूवणा कदा ।
६३८०(संपहि एदस्स जइवसहाइरियमुहविणिग्गयस्स सुत्तस्स देसामासियभावेण पयासिदसगासेसहस्स जहत्थपरूवणं कस्सामो) तं जहा–चरिमफालिमस्सिद्ग पुवुप्पाइदा सेसटाणाणि पुव्वं व उप्पाइय संपहि तदंतरेसु पदेससंतकम्महाणाणं परूवणाए कीरमाणाए सवेदस्स चरिम-दुचरिमसमएसु घोलमाणजहण्णजोगेण बंधिय अधियारदुचरिमसमए हिदतिण्णिफालिक्खवगो ताव अवलंबेयव्यो । एदं तिण्णिफालिपदेससंतकम्मट्ठाणं पुणरत्तं, घोलमाणजहण्णजोगादो सादिरेयदुगुणजोगट्ठाण बद्धपुरिसवेदचरिमसमयसव दस्स एगफालिपदेससंतकम्महाणेण समाणत्तादो। संपहि एगफालिक्खवग जहण्णजोगेण बंधाविय दोफालिक्खवगे पक्खेवुत्तरकमेण बंधाविदे अण्णमपुणरुत्तपदेससंतकम्मट्ठाणं होदि, अक्कमेण धरिम-दुचरिमफालीणं पवे सुवलंभादो। वहिदचरिम-दुचरिमफालीसु तत्थ एगचरिमफालिं घेत्तूण पुचिल्लसरिसीकदहाणम्मि
परिणमाना सम्भव है उतने ही समयोंमें सान्तर अथवा निरन्तर क्रमसे इस रूपसे परिणमाकर अवशेष समयोंमें आदेश उत्कृष्ट योगस्थानों में परिणमाकर बन्ध करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार बढ़ाने पर दो समय कम दो आवलिप्रमाण समयप्रबद्ध उत्कृष्ट हो जाते हैं । अव सकल योगस्थान अध्वानका पहलेके समान दो समय कम दो आवलिप्रमाण गुणकार यहां पर साध लेना चाहिये । योगके स्थान योगस्थान इसप्रकार अभेदरूप षष्ठी विभक्तिका अवलम्बन करके कथन करनेवाले आचार्यों के अभिप्रायका प्रकाशन करनेके लिए यह प्ररूपणा की है।
६३८०. अब यतिवृषभ आचार्यके मुखसे निकले हुए तथा देशामर्षकभावसे अपने समस्त अर्थका प्रकाशन करनेवाले इस सूत्रका यथा स्थित कथन करते हैं । यथा-चरम फालिका आश्रय करके पहले उत्पन्न किये गये समस्त स्थानोंको पहलेके समान उत्पन्न करके अब उनके अन्तरालोंमें प्रदेशसत्कर्मस्थानोंको प्ररूपणा करने पर सवेद भागके घरम और द्विचरम समयोंमें घोलमान जघन्य योगसे बन्ध करके अधिकृत द्विचरम समयमें स्थित हुए तीन फालि क्षपकका तब तक अवलम्बन करना चाहिए । यह तीन फालि प्रदेशसरकर्मस्थान पुनरुक्त है, क्योंकि घोलमान जघन्य योगसे साधिक दुगुणे योगस्थानके द्वारा बाँधे गये पुरुषवेदके चरम समयवर्ती सवेदी जीवके एक फालि प्रदेशसत्कर्मस्थानके साथ समानता है। अब एक फालि क्षपकको जघन्य योगसे बन्ध कराकर दो फालि क्षपकके एक एक प्रक्षेप अधिक योगके द्वारा बन्ध कराने पर अन्य अपुनरुक्त प्रदेशसत्कर्मस्थान होता है, क्योंकि अक्रमसे चरम और द्विचरम फालियोंका प्रवेश उपलब्ध होता है। बढ़ी हुई चरम और द्विचरम फालियोंमेंसे वहां पर एक चरम फालिको ग्रहणकर पहलेके समान किये गये
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गा० २२ ]
उत्तरपयडपदेसविहत्तीए सामित्तं
पक्खित्ते पुणरुतङ्काणं होदि । पुणो तत्थ दुचरिमफालीए पक्खित्ताए उवरिमफालिमपावेण विच्चाले व अण्णहाणमुप्पजदित्ति भणिदं होदि ।
९ ३८१. संपहि दोफालिखवर्ग' पक्खेवुत्तरजोगम्मि चेव हविय एगफालिख वगे पक्खेवु तरजोगेण बंधाविदे अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । एवमेगफालिक्खवगो चेव पक्खेषु तर कमेण ताव वढावेदव्यो जाव घोलमाणजहण्णजोगड्ढाणादो तप्पा ओग्गम संखेअगुणं जोगट्ठाणं पत्तो त्ति | संपहि उवरि वडावेढुं ण सकिजदे, एत्तो उवरिमजोगट्ठाणेहि परिणदस्स पुणो अणंतरविदियसमए घोलमाणजहण्णजोगहाणेण परिणमणाणुववत्तीए । संपहि अण्णेगस्स खवगस्स सवेददुचरिमसमए घोल माणजहण्णजोगडाणेण तस्सेव चरिमसमर घोलमाणजहण जोगडाणादो असंखेअगुणजोगेण पुरिसवेदं बंधिय अधियारदुचरिमसमए अवदिस्त पदेससंतकम्महाणं पुव्विल्लुपदेस संतकम्मट्ठाणादो विसेसाहिय, चदिद्वाणमेतदुचरिमफालीहि अहियत्तुवलंभादो ।
९ ३८२. पुणो एदाओ अहियदुचरिमफालीओ चरिम- दुचरिमपमाणेण कस्सामो । तं जहा - अधापवत्तभागहार मे तदुचरिमाणं जदि एवं चरिम दुचरिमफालिपमाणं लम्भदि तो चदिद्वाणमेतचरिमफालीणं किं लमामो ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओट्टिदाए जं लद्धं तत्तियमेतं दोफालिक्खदगे हेट्ठा ओदरिदे एदस्स संतकम्मट्ठाणं
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स्थान में मिलाने पर पुनरुक्त स्थान होता है । पुनः वहां पर द्विचरम फालिके प्रक्षिप्त करने पर उपरिम फालिस्थानको नहीं प्राप्तकर बीच में ही अन्य अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है ।
९ ३८१. अब दो फालि क्षपकको एक एक प्रक्षेप अधिकरूप योग में ही स्थापितकर एक फालि क्षपकके एक एक प्रक्षेप अधिकरूप योगके द्वारा बन्ध कराने पर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है । इस प्रकार एक फालि क्षपकको ही एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे घोलमान जघन्य योगस्थान से लेकर तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योगस्थानके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए | अब ऊपर बढ़ाना शक्य नहीं है, क्योंकि इससे उपरिम योगस्थानोंरूपसे परिणत हुए जीवके पुनः अनन्तर द्वितीय समय में घोलमान जघन्य योगस्थानरूपसे परिणमन नहीं बन सकता । अब एक अन्य क्षपक जीव जो कि उसीके चरम समय में घोलमान जघन्य योगस्थान से असंख्यतागुणे योगरूप ऐसे सवेदभागके द्विचरम समय में घोलमान जघन्य योगस्थानके द्वारा पुरुषबेदका बन्ध करके अधिकृत द्विचरम समयमें अवस्थित है उसका प्रदेशसत्कर्मस्थान पहले के प्रदेशसत्कर्मस्थान से विशेष अधिक है, क्योंकि आगे गये हुए अध्वानमात्र द्विचरम फालिरूप से अधिकता उपलब्ध होती है ।
६ ३८२. पुनः इन अधिक द्विचरम फालियोंको चरम और द्विचरमके प्रमाणरूपसे करते हैं । यथा - अधःप्रवृत्त भागहारमात्र द्विचरमोंका यदि एक चरम और द्विचरम फालिका प्रमाण प्राप्त होता है तो जितना अध्वान आगे गये हैं उतनी द्विचरम फालियोंका क्या प्राप्त होगा, इस प्रकार फळराशिसे गुणित इच्छाराशिमें प्रमाणराशिका भाग देने पर जो भाग लब्ध आवे तत्प्रमाण दो फालिक्षपकको नीचे उतारने पर इसका सत्कर्मस्थान पहलेके सत्कर्मस्थानके समान
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ पुबिल्लसंतकम्मट्ठाणेण सरिसं, चरिमफालिट्ठाणुप्पायणटुं पुठिवल्लदोफालिखवगस्स घोलमाणजहण्णजोणहाणे अवहिदत्तादो। संपहियदोफालिक्खवगे पक्खेवुत्तरजोगट्टाणं णीदे चरिमफालिहाणं फिट्टिदूण दुचरिमफालिहाणमुप्पअदि, चरिम-दुचरिमफालीणमकमेण पविजुत्तादो।
३८३. संपहि दोफालिक्खवगमत्थेव हविय एगफालिक्खवगे जहण्णजोगहाणादो पक्खेवुत्तरकमेण वड्डमाणे अपुणरुत्ताणि दुचरिमफालिडाणाणि उप्पजति ति कट्ट एगफालिक्खवगोताव वड्ढावेदव्वो जाव दोफालिक्खवगजोगट्ठाणादो तप्पाओग्गमसंखेजगुणं जोगहाणं पत्तो त्ति । संपहि एत्तो उवरि वड्डावे, ण सक्किन्जइ, दोफालिक्खवगजोगट्ठाणम्मि विदियसमए पदणाणुववत्तीदो । तेणेत्थुद्द से किजमाणकञ्जभेदो उच्चदेएगफालिक्खवगो दोफालिक्खवगजोगट्ठाणादो अणंतरहेडिमजोगहाणेण दोफालिक्खवगो वि एगफालिक्खवगजोगहाणेण बंधावेदव्यो। एवं बद्ध पविल्लसंतकम्महाणादो एदं संतकम्महाणं चडिदद्धाणमेत्तदुचरिमफालीहि अब्भहियं होदि। संपहि इमाओ दुचरिमफालीओ चरिमफालिपमाणेण कीरमाणाओ' च डिदद्धाणे रूवूणअधापवत्तभागहारेण खंडिदे तत्थ एयखंडमेत्ताओ होति ति एगफालिखवगो पुणरवि एत्तियमेतजोगट्ठाणाणि ओदारेदव्यो । एवमोदारिदे एवं संतकम्महाणं चरिमफालिट्ठाणेण सरिसं
है, क्योंकि चरम फालिस्थानके उत्पन्न करनेके लिए पहलेका दो फालिक्षपक घोलमान जघन्य योगस्थानमें अवस्थित है। साम्प्रतिक दो फालिक्षपकके एक एक प्रक्षेप अधिकरूप योगस्थानको ले जाने पर चरम फालिस्थान न रहकर उसके स्थानमें द्विचरम फालिस्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि चरम और द्विचरम फालियोंका अक्रमसे प्रवेश हुआ है।
६३८३. अब दो फालिक्षपकको यहीं पर स्थापित करके एक फालि क्षपकके जघन्य योगस्थानसे एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढ़ाने पर अपुनरुक्त द्विचरम फालिस्थान उत्पन्न होते हैं ऐसा समझकर एक फालिक्षपकको दो फालिक्षपक योगस्थानसे लेकर त असंख्यातगुणे योगस्थानके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। अब इसके ऊपर बढ़ाना शक्य नहीं है, क्योंकि दो फालिक्षपक योगस्थानमें दूसरे समयमें पतन नहीं बन सकता। इसलिये इस स्थान पर किये जानेवाले कार्यभेदका कथन करते हैं-एक फालिक्षपकको दो फालिक्षपक योगस्थानसे तथा अनन्तर अधस्तन योगस्थानसे दो फालिझपकको भी एक फालिक्षपक योगस्थानरूपसे बन्ध कराना चाहिए । इस प्रकार बन्ध होनेपर पहलेके सत्कर्मस्थान सत्कर्मस्थान आगे गए हुए अध्वानमात्र द्विचरम फालियोंसे अधिक होता है। अब इन द्विचरम फालियोंको चरमफालिके प्रमाणसे करते हुए आगे गये हुए अध्वानको एक कम अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित करने पर वहां एक भागप्रमाण होती हैं, इसलिए एक फालि क्षपकको फिर भी इतने मात्र योगस्थान उतारना चाहिए । इस प्रकार उतारने पर यह सत्कर्मस्थान अन्तिम फालिस्थानके समान हो गया, इसलिए दो फालि झपकको एक एक प्रक्षेप
१. आ प्रतौ 'एवं बढे पुधिल्ल संतकम्मट्ठाणादो एवं संतकमाणेण कीरमाणाओ' इति पाठः ।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसषिहत्तीए सामितं जादं ति दोफालिक्खवगो पक्खेवुत्तरजोगं णेदव्वो । एवं णीदे पुविन दुचरिमफालिट्ठाणेणेदं द्वाणं समाणं होदि, पुव्वं पन्चट्टाविदचरिम-दुचरिमफालोणमक्कमेण पविद्वत्तादो । तेणेदं द्वाणं पुणरुत्तं ।
___३८४. संपहि दोफालिक्खवगमेत्येव जोगट्ठाणे ठविय एगफालिक्खवगे पक्खेवुत्तरकमेण वड्डमाणे दुचरिमफालिट्ठाणाणि थैव उप्पअंति त्ति एगफालिक्खवगो पक्खेवुत्तरकमेण वड्ढावेदव्वो जाव दुचरिमफालिक्खवगद्विदजोगादो असंखेजगुणं जोगं पत्तो ति। एवं संखेजपरियणवारे गंतूण एगफालिक्खवगो अद्धजोगं पत्तो । दोफालिखवगो वि अद्धजोगादो हेट्ठा असंखेजगुणहोणं जोगं पत्तो। अण्णेगेण सवेददुचरिमसमए दोफालिखवगो जोगादो अणंतरहेहिमजोगेण तस्सेव चरिमसमए अद्धजोगेण बद्धे एदस्स पदेससंतकम्मट्ठाणं पुव्विल्लपदेससंतकम्मट्ठाणादो चडिदद्धाणमेत्तदुचरिमफालियाहि अहियं होदि, पुग्विल्लहाणम्मि चरिम-दुचरिमफालीणमभावादो।
६ ३८५. संपहि एदाओ दुचरिमफालीओ चरिमफालिपमाणेण कीरमाणाओ रूवूणअधापवत्तभागहारेण खंडिदचडिदद्धाणमेत्ताओ होति त्ति एगफालिक्खवगो पुणरवि हेट्ठा एत्तियमेत्तमद्धाणमोसारेदव्यो । एवमोसारिय दोफालिक्खवगे पक्खेवुत्तरमद्धजोगं णीदे पुणरुत्तं दुचरिमफालिहाणमुप्पजदि । पुणो एवं दोफालिक्खवगमेत्येव
अधिकरूप योगस्थानको प्राप्त कराना चाहिए। इस प्रकार प्राप्त कराने पर यह स्थान पहलेके द्विचरम फालिस्थानके समान होता है, क्योंकि पहले पलटा कर चरम और द्विचरम फालियोंका अक्रमसे प्रवेश हुआ है, इसलिए यह स्थान पुनरुक्त है।
६३८४. अब दो फालिक्षपकको यहीं ही योगस्थानमें स्थापित कर एक फालि क्षपकके एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढ़ने पर द्विचरम फालिस्थान ही उत्पन्न होते हैं, इसलिए एक फालि क्षपकको द्विचरम फालि क्षपकके स्थित योगसे असंख्यातगणे योगके प्राप्त होने तक एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढाना चाहिए । इस प्रकार संख्यात परिवर्तन बार जाकर एक फालि क्षपक अर्ध योगको प्राप्त हुआ। दो फालि क्षपक भी अर्धयोगसे नीचे असंख्यातगुणे हीन योगको प्राप्त हुआ। अन्य एकके द्वारा सवेद भागके द्विचरम समयमें दो फालिक्षपक योगसे अनन्तर अधस्तन योगसे उसीके चरम समयमें अर्धयोगसे बन्ध करने पर इसका प्रदेशसत्कर्मस्थान पहलेके प्रदेशसत्कर्मस्थानसे आगे गये हुए अध्वानमात्र द्विचरम फालियोंसे अधिक होता है, क्योंकि पहलेके स्थानमें चरम और द्विचरम फालियोंका अभाव है।
६३८५. अब इन द्विचरम फालियोंको चरम फालिके प्रमाणसे करने पर एक कम अधःप्रवृत्त भागहारसे भाजित होकर वे आगे गये हुए अध्वानमात्र होती हैं, इसलिए एक फालि क्षपकको फिर भी नीचे इतनामात्र अध्वान अपसारित करना चाहिए। इस प्रकार अपसारित करके दो फालिक्षपकको प्रक्षेप अधिक अर्धयोगको प्राप्त कराने पर पुनरुक्त द्विचरम फालिस्थान उत्पन्न होता है। पुनः इस दो फालि क्षपकको यहीं पर स्थापित कर एक फालि क्षपकको
१. ता०प्रतौ 'खवगमेत्ते (त्थे )व' मा प्रतौ 'वखवगमेत्तेव' इति पाठः ।
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जयधवलासहिरे कसायपाहुडे [पदेसविरची दृविय एगफालिक्खवगो पक्खेवुत्तरकमेण चड्ढावेदव्वो जाव अजोगपक्खेलभागहारं रूवूणअधापवत्तभागहारेण खंडिग तत्थ एगखंडं दुरूवाहियमेतमद्धजोगादो हेड्डा ओसरिदण हिदो ति। एवं वड्डाविदे एगफालिसामिणो उकस्सहाणं ति ताव सव्वचरिमफालिट्ठाणाणमंतरेसु दुचरिमफालिट्ठाणाणि उप्पण्णाणि होति, सवेददुचरिमसमए रुखूणअधापवत्तभागहारेणोवट्टिदअबोगपक्षेवभागहारोत्तमद्वाणमद्धजोगादो हेडा ओसरिय हिदजोगेण चरिमसमए अद्धजोगेण बंधिय द्विदस्स तिग्णिफालिसंतकम्मट्ठाणेण एगफालिक्खवगुकस्ससंतकम्मट्ठाणस्स सरिसत्तुवलंभादो। दुरूवाहियमद्धाणं किमिदि ओसारिदो ? अद्धजोगादो उवरिमपक्खेबुसरजोगम्मि दोफालिक्खवगे अवडिदे संते दुरूवाहियत्तेण विणा एगफालिक्खवगस्स दुचरिम-चरिमफालिहाणाणमंतरे' दुचरिमफालिट्ठाणुप्पत्तीए अणुववत्तीदो । ____8 ३८६. संपहि एगफालिखवमो परसेवुत्तरकमेण पुब्वविहाणेण पुणरवि वड्ढावेयव्यो जाव उकस्सजोगहाणं पत्तो ति। पुणो दोफालिक्खनगे अद्धजोगम्मि ठविदे चरिमफालिट्ठाणं होदि, पुविल्लदुचरिमफालिट्ठागादो अकमेण चरिमदुचरिमफालीणमभावुवलंभादो। संपहि पदम्हादो पदेससंतकम्मट्ठाणादो दुचरिमसमए अद्धजोगेण चरिंमसमए उक्कस्सजोगेण बंधिय अधियारदुचरिमसमए हिदस्स पदेससंतकम्मदाणं
एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे वहां तक बढ़ावे जहां जाकर अर्धयोग प्रक्षेपभागहारको एक कम अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित कर वहां जो एक भाग लब्ध आवे सतना दो रूप अधिक मात्र अर्धयोगसे नीचे सरककर स्थित होवे। इस प्रकार बढ़ाने पर एक फालि स्वामीके उत्कृष्ट स्थानके प्राप्त होने तक सब चरम फालिस्थानों के अन्तरालोंमें द्विचरम फालिस्थान उत्पन्न होते हैं, क्योंकि सवेद भागके द्विचरम समयमें एक कम अधःप्रवृत्त भागहारसे भाजित अर्धयोग प्रक्षेप भागहारमात्र अध्वान अर्धयोगले नीचे सरककर स्थित योगसे तथा मन्तिम समयमें अर्धयोगसे बाँधकर जो स्थित है उसके तीन फालि सत्कर्मस्थानके साथ एक फालि क्षपकके उत्कृष्ट सत्कर्मस्थानकी समानता उपलब्ध होती है।
शंका-दो रूप अधिक अध्वानको किसलिए अपसारित किया है ?
समाधान-क्योंकि अर्धयोगसे ऊपर प्रक्षेप अधिक योगमें दो फालि क्षपकके अवस्थित रहने पर दो रूप अधिक हुए विना एक फालि क्षपकके द्विचरम और चरम फालिस्थानोंके अन्तरालमें द्विचरम फालिस्थानोंकी उत्पत्ति नहीं बन सकतीं।
६३८६. अब एक फालि क्षपकको उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे पूर्व विधिसे फिर भी बढ़ाना चाहिए। पुनः दो फालिक्षपकके अर्धयोगमें स्थापित करने पर अन्तिम फालिस्थान होता है, क्योंकि पहलेके द्विचरम फालिस्थानसे युगपत् चरम और द्विचरम फालियोंका अभाव उपलब्ध होता है। अब इस प्रदेशसत्कर्मस्थानसे द्विचरम समयमें अर्धयोगसे तथा चरम समयमें उत्कृष्ट योगसे बन्धकर अधिकृत दिचरम समयमें जो स्थित है उसके प्रदेशसस्कर्मस्थान भागे गये हुए अध्वानमात्र द्विपरम फालियोंसे अधिक होता
१. ता०मा०प्रत्योः 'चरिमदुचरमचरिमकाबिहाणाणमंतरे' इति पाठः ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्त
३४५ चडिदद्धाणमेत्तदुचरिमफालियाहि अहियं होदि । संपहि एदाआ दुचरिमफालीओ' चरिमफालिपमाणेण कीरमाणाओ रूवूणअधापवत्तभागहारेणोवट्टिदचडिदद्धाणमेत्ताओ होति त्ति अद्धजोगादो हेढा एगफालिक्खवगो पुणरवि एत्तियमद्धाणं ओदारेयव्यो । एवमोदारिदे चरिमफालिहाणपमाणं जादं ।
३८७. संपहि दोफालिक्खवगो उक्कस्सजोगट्टाणादो रूवूणअधापवत्तभागहारमेत्तजोगहाणाणि हेहा ओदारिय पुणो पक्खेवुत्तरजोगं णेदव्वो, अण्णहा दचरिमफालिपडिबद्धपदेससंतकम्मट्ठाणाणमुप्पत्तीए अभावादो। पुणो एदमेत्थेव ढविय एगफालिक्खवगो पक्खेवुत्तरकमेण वड्डावेदव्यो जात्र उक्कस्सजोगट्ठाणं पत्तो त्ति । एवं वड्डाविदे तिण्णिफालिक्खवगुक्कर पचरिमफालिहाणादो हेढा दुरूवूणअधापवत्तभागहारमेत्तचरिमफालिहाणंतराणि भोत्तण सेसद्वाणंतरेसु सव्वत्थ दचरिमफालिहाणाणि उप्पण्णाणि होति।
३८८. संपहि तिण्णिफालिखवगमस्सिदण दचरिमफालिहाणाणि एत्तियाणि चेव उप्पजंति त्ति एदंर मोत्तूण छप्फालिखवगमस्सिदूण सेसहाणाणं परूवणं कस्सामो। तं जहा-पुचिल्लं तिण्णिफालिट्ठाणं चरिमफालिहाणेण सरिसं करिय एदेण सरिसछप्फालिहाणं वत्तइस्सामो। चरिम-दचरिम-तिचरिमसमएसु तिभागूणुकस्सजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमए डिदस्स छप्फालिट्ठाणं तिण्णिफालीणमुक्कस्सहाणादो विसेसाहियं, सादिरेयउक्कस्सजोगहाणपक्खेवभागहारमेत्तदचरिमफालीणमहियत्तवहै। अब इन द्विचरम फालियोंको चरम फालिके प्रमाणसे करने पर वे एक कम अधःप्रवृत. भागहारसे भाजित आगे गये हुए अध्वानमात्र होती हैं, इसलिए अर्धयोगसे नीचे एक फालि क्षपकको फिर भी उतना अध्वान उतारना चाहिए । इस प्रकार उतारने पर चरम फालिका प्रमाण हो जाता है।
३८७. अब दोफालि क्षकको उत्कृष्ट योगस्थानसे एक कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र योगस्थान नीचे उतारकर पुनः प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त कराना चाहिये, अन्यथा द्विचरम फालिसे प्रतिबद्ध प्रदेशसत्कर्मस्थानोंकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। पुनः इसे यहीं पर स्थापित करके एक फालि क्षपकको उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक एक एक प्रक्षेप अधि क्रमसे बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाने पर तीन फालि क्षपकके उत्कृष्ट चरम फालिस्थानसे नीचे दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र चरम फालिस्थानोंके अन्तरालोंको छोड़कर शेष स्थानोंके अन्तरालोंमें सर्वत्र द्विचरम फालिस्थान उत्पन्न होते हैं।
६३८८. अब तीन फालिक्षपकका आश्रय करके द्विचरम फालिस्थान इतने ही उत्पन्न होते हैं, इसलिए इसे छोड़ कर छह फालिक्षपकका आश्रय लेकर शेष स्थानोंका कथन करते हैं। यथा-पहलेके तीन फालिस्थानको चरम फालिस्थानके समान करके इसके समान छह फालिस्थानको बतलाते हैं। चरम, द्विचरम और त्रिचरम समयमें त्रिभाग कम उत्कृष्ट योगसे बन्ध करके अधिकृत त्रिचरम समयमें जो स्थित है उसके छह फालिस्थान तीन फालियोंके उत्कृष्ट स्थानसे विशेष अधिक होता है, क्योंकि साधिक उत्कृष्ट योगस्थान प्रक्षेप भागहारमात्र
1. प्रा०प्रती 'एदाओ चरिमफालियो' इति पाठः । २. ता०प्रतौ 'उप्पजति एवं' इति पाठः।
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३४६
जयधबळासहिदे कसायपाहुडे
[ पसविहत्ती ५
भादो । पुणो एदाओ चरिमफालिपमाणेण कीरमाणाओ रूवूणअधापवत्त भागहारेणोदिसादिरेयउकस्सजोगड्डाणपक्खेत्र भागहारमेत्ताओ होंति तितिभागूणुक्कस्स'जोगट्टाणादो द्वा एगफालिक्खयगो एत्तियमेत्तमद्भाणमोदारेयव्वो । एवमोदारिदे एवं छप्फा लिखवगट्ठाणं तिणिफालिक्खवगस्स उक्कस्सहाणेण सरिसं होदि ।
$ ३८९. संपद्दि एगफालिक्खवगो अधापवत्तभागहारमेतजोगहाणाणि पुणरवि ओदारे दव्व, अण्णा णिरुद्धतिष्णिफालिखवगहाणेण सरिसत्ताणुववत्तोदो । एवं सरिसं करिय पणो दोफालिक्खवगे पक्खेवुत्तरजोगं णीदे दुचरिमफालिहरणमुप्पञ्जदि । पुणो एमेत्थेव हविय एगफालिक्खवगो पक्खेवुत्तरकमेण दुखवूणअधापवत्तभागहारमेत्तजोगद्वाणाणं परिवाडीए नेदव्वो । एवं णीदे तिष्णिकालिक्खवगस्स सव्वचरिमफालिहाणंतरेसु दचरिमफालिद्वाणाणि उप्पण्णाण होंति । पुणरवि एगफालिक्खवगो पक्खेवुत्तरकमेण वड्डावेदव्वो जाव उक्कस्सजोगहाणं पत्तो त्ति | संपहि दोफालिक्खवगं तिभागूणुकस्सजोगम्मि दुविय चरिमफालिद्वाणं कादूणेदम्हादो सवेदतिचरिम- दुचरिमसमएसु तिमागूणुकस्सजोगेण चरिमसमए उकस्साजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसम दिस्स छप्फालिद्वाणं विसेसाहियं चडिदद्वाणमेतचरिमतिचरिमफालीणम हियत्तवलंभादो ।
द्विचरम फालियों की अधिकता उपलब्ध होती हैं। पुनः इनको चरम फालिप्रमाणसे करने पर वे एक कम अधःप्रवृत्त भागहारसे भाजित साधिक उत्कृष्ट योगस्थानके प्रक्षेप भागहारमात्र होती हैं, इसलिए विभाग कम उत्कृष्ट योगस्थानसे नीचे एक फालिक्षपकको इतना मात्र उतारना चाहिए । इस प्रकार उतारनेपर यह छह फालिक्षपकस्थान तीन फालिक्षपक के उत्कृष्ट स्थानके समान होता है ।
अध्वान
$ ३८९. अब एक फालिक्षपकको अधःप्रवृत्तभागहारमात्र योगस्थानप्रमाण फिर भी उतारना चाहिए, अन्यथा रुके हुए तीन फालिक्षपकस्थानके साथ समानता नहीं बन सकती । इस प्रकार समान करके पुनः दो फालिक्षपकके प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त कराने पर द्विचरम फालिस्थान उत्पन्न होता है । पुनः इसे यहीं पर स्थापित करके एक फालिक्षपकको एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र योगस्थानों की परिपाटी से ले जाना चाहिए। इसप्रकार ले जाने पर तीन फालिक्षपकके सब चरम फालिस्थानोंके अन्तरालों में द्विचरमफालिस्थान उत्पन्न होते हैं। अब फिर भी एक फालिक्षपकको उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक एक एक प्रक्षेप अधिक के क्रमसे बढ़ाना चाहिए | अब दो फालिक्षपकको तृतीय भाग कम उत्कृष्ट योग में स्थापित कर नरम फालिस्थानको करके इससे सवेदभागके त्रिचरम और द्विचरम समयोंमें तृतीय भागकम उत्कृष्ट योगसे चरम समय में उत्कृष्ट योगसे बन्ध कराकर अधिकृत त्रिचरम समय में जो स्थित है उसकेछद फालिस्थान विशेष अधिक होता है, क्योंकि आगे गये हुए अध्वानमात्र द्विचरम और चरम त्रिफालियों की अधिकता उपलब्ध होती है ।
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
३४७ $ ३९०. संपहि एदाओ अहियफालीओ चरिमफालिपमाणेण कोरमाणीओ रूखूणअधापवत्तभागहारेणोवट्टिदसादिरेयदुगुणचडिदद्धाणमेत्ताओ होति ति पुणरवि एगफालिक्खवगो एत्तियमेत्तमद्धाणमोदारेदव्यो । एवमोदारिय दोफालिक्खवगे पक्खेवुत्तरजोगं णीदे पव्वं णियत्ताविददचरिमफालिट्ठाणे पुणरुत्तमुप्पजदि । संपहि इमं दोफालिखवगमेत्येव ढविय एगफालिखवगो पक्खेवुत्तरादिकमेण वड्ढावेदव्वो जावुक्कस्सजोगहाणं पत्तोत्ति। एवं वड्डाविय दोफालिखवगंणियत्ताविय चरिमफालिट्ठाणेण सरिसं कादण द्विदट्ठाणादो तिचरिमसमए तिभागूणुक्कस्सजोगेण चरिम-दुचरिमसमएसु उक्कस्सजोगेण बंधिसूण अधियारतिचरिमसमए अवडिदस्स पदेससंतकम्महाणं विसेसाहियं, चडिदद्धाणमेत्तदचरिमफालीणमहियत्तुवलंभादो । पुणो एदाओ दुचरिमफालियाओ चरिमफालिपमाणेण कीरमाणाओ रूवूणअधापवत्तभागहारेण खंडिदचडिदद्धाणमेत्ताओ होति त्ति एगफालिक्खवगो पुणरवि एत्तियमेत्तमद्धाणमोदारेदब्यो । एवमोदारिय रूवूणअधापवत्तभागहारमेत्तजोगहाणाणं दोफालिक्खवगे हेट्ठा ओदारिदे अधापवत्तभागहारमेत्ताणि चरिमफालिट्ठाणाणि विदंति ति सगट्ठाणादो रूवूणअधापवत्तमेत्तजोगट्ठाणाणि ओदारेदव्यो। एवमोदारिय दोफालिक्खवगे पक्खेवुत्तरं जोग णोदे दुचरिमफालिट्ठाणमुप्पजदि ।
$ ३९१. संपहि इमं एत्थेव दृविय पुणो एगफालिक्खवगो पक्खेवुत्तरादिकमेण
६३९० अब इन अधिक फालियोंको चरम फालिके प्रमाणसे करने पर वे एक कम अधःप्रवृत्त भागहारसे भाजित साधिक दूने आगे गये हुए अध्वानमात्र होती हैं, इसलिए फिर भी एक फालिक्षपकको इतनामात्र अध्वान उतारना चाहिए। इसप्रकार उतारकर दो फालिक्षपकके प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त कराने पर पहले निवृत्त कराया गया द्विचरम फालिस्थानमें पुनरुक्त उत्पन्न होता है। अब इस दो फालिक्षपकको यहीं पर स्थापित करके एक फालिक्षपकको उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाकर दो फालिक्षपकको निवृत्त कराकर चरम फालिस्थानके समान करके स्थित हुए स्थानसे त्रिचरम समयमें तृतीय भाग कम उत्कृष्ट योगसे तथा चरम और द्विचरम समयमें उत्कृष्ट योगसे बन्ध कराकर अधिकृत त्रिचरम समयमें जो अवस्थित है उसका प्रदेशसत्कर्मस्थान विशेष अधिक होता है, क्योंकि आगे गये हुए अधवानमात्र द्वि चरम फालियोंकी अधिकता उपलब्ध होती है। पुनः इन द्विचरम फालियोंको चरम फालिके प्रमाणसे करने पर वे एक कम अधःप्रवृत्त भागहारसे भाजित आगे गये हुए अध्वानमात्र होती हैं, इसलिए एक फालिक्षपकको फिर भी इतना मात्र अध्वान उतारना चाहिए। इसप्रकार उतारकर एक कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र योगस्थानोंके दो फालिक्षपकको नीचे उतारनेपर अधःप्रवृत्तभागहारमात्र चरम फालिस्थान पतित होते हैं इसलिए अपने स्थानसे एक कम अधःप्रवृत्तमात्र योगस्थान उतारना चाहिए। इसप्रकार उतारकर दो फालि क्षपकको प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त कराने पर विचरम फालिस्थान उत्पन्न होता है।
६ ३९१. अब इसे यहीं पर स्थापित करके पुनः एक फालिक्षपकको उत्कृष्ट योगके प्राप्त
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३४८
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ वडावेदव्वो जावुक्कस्सजोग पत्तो ति । एवं वडाविदे छप्फालिसामिणो उक्कस्सपदेससंतकम्मट्ठाणादो हेट्टा दुरूवूणअधापवत्तभागहारमेत्तचरिमफालिहाणाणि मोत्तूण अण्णत्थ सव्वत्थ दचरिमफालिट्ठाणाणि उप्पण्णाणि । संपहि छप्फालिखवगमस्सिदूण दुचरिमफालिट्ठाणाणमुप्पायणसंभवो पत्थि त्ति चदुब्भागूणउक्कस्सजोगडिददसफालिक्खवगं छफालीणमुक्कस्सजोगट्ठाणेण सरिसत्तविहाणटुं रूवणअधापवत्तभागहारेण खंडिददिवड्डजोगहाणमेत्तं सादिरेयं चदचरिमसमए हेढा ओदारिय हिदजोग अप्पिदट्ठाणेण सरिसत्त विहाणटं पुणरवि चदुचरिमसमए भोदिण्णअधापवत्तभागहारमेत्तजोगहाणं दुचरिमफालिपदेससंतकम्मुप्पायण तिचरिमममए पुणो संकंतपक्खेवुत्तरजोगमस्सिदूण दुचरिमफालिट्ठाणाणमुप्पायणं पुन्वं व कायव्वं । एवं पंच-छ-सत्तभागूणादिफालीओ इच्छिद-इच्छिदट्ठाणेण समयाविरोहण विहिदसरिसत्ताओ अस्सिद्ग दुचरिमफालिहाणाणि उप्पाएदव्वाणि जाव दुसमऊणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धाणमुक्कस्सट्ठाणादो हेहा दरूवूणअधापवत्तभागहारमेत्तचरिमफालिट्ठाणाणमंतराणि मोत्तण अवरासेसंतरेसु उप्पण्णाणि त्ति ।
६ ३९२. संपहि चरिमफालिहाणंतरेसु दोहि दुचरिमफालियाहि अहियाणं पदेससंतकम्मट्ठाणाणमुप्पत्तिं वत्तइस्सामो । तं जहा-सवेदचरिम-दचरिमसमएम घोलमाणजहण्णजोगेण बंधिय अधियारदुचरिमसमए हिदस्स तिण्णिफालिट्ठाणं पुणरुत्तं,
होने तक एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाने पर छह फालिस्वामीके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थानसे नीचे दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र चरम फालिस्थानोंको छोड़कर अन्यत्र सर्वत्र द्विचरम फालिस्थान उत्पन्न हुए हैं। अब छह फालि क्षपकका आश्भय लेकर द्विचरम फालिस्थानोंको उत्पन्न कराना सम्भव नहीं है, इसलिए चतुर्थ भाग कम उत्कृष्ट योगमें स्थित दस फालिक्षपकको छह फालियोंके उत्कृष्ट योगस्थानके समान बनानेके लिए एक कम अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित साधिक डेढ़ योगस्थानमात्र चतुश्चरम समयमें नीचे उतारकर स्थित हुए योगको विवक्षित स्थानके समान करनेके लिए फिर भी चतुश्चरम समयमें अवतीर्ण हुए अधःप्रवृत्तभागहारमात्र योगस्थानको द्विचरम फालिके प्रदेशसत्कर्मको उत्पन्न करनेके लिए त्रिचरम समयमें पुनः संक्रमणको प्राप्त हुए एक प्रक्षेप अधिक योगका आश्रय लेकर विचरम फालिस्थानों को उत्पन्न करनेके लिए पहलेके समान करना चाहिए । इस प्रकार इच्छित इच्छित स्थानके आश्रयसे समयके अवरोधपूर्वक सदृश की गई पाँच, छह और सात भाग कम आदि फालियोंका आश्रय लेकर दो समयकम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंके उत्कृष्ट स्थानसे नीचे दो रूपकम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र चरम फालिस्थानोंके अन्तरालोंको छोड़कर शेष समस्त अन्तरालोंमें उत्पन्न होने तक द्विचरम फालिस्थानोंको उत्पन्न कराना चाहिए ।
६३९२. अब चरम फालिस्थानोंके अन्तरालोंमें दो द्विचरम फालियोंसे अधिक प्रदेशसत्कर्मस्थानोंकी उत्पत्तिको बतलाते हैं । यथा-सवेद भागके चरम और द्वि चरम समयोंमें घोलमान जघन्य योगसे बन्धकर अधिकृत द्विचरम समयमें जो स्थित है उसका तीन
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं घोलमाणजहण्णजोगट्ठाणपक्खेवभागहारादो सादिरेयमेत्तद्धाणमुवरि चडिय ह्रिदजोगेण बद्धगफालिक्खवगट्ठाणेण समाणत्तादो । एदेण कारणेण सवेददुचरिमसमए घोलमाणजहण्णजोगेण चरिमसमए दुपक्खेउत्तरजोगेण बंधिय अधियारदुचरिमसमए द्विदस्स पदेससंतकम्ममपुणरुत्तं पुव्विल्लसरिसीभदसंतकम्मट्ठाणादो दोहि चरिम-दुचरिमफालियाहि अहियत्तुवलंभादो। दुचरिमफालिमस्सिऊण समुप्पण्णत्तादो पुघिल्लदचरिमफालिट्ठाणाणं अंतो णिवददि ति णासंकणिज्जं, चरिमफालिहाणादो एगदचरिमफालीए अहियसंतकम्मट्ठाणेण दोहि दुचरिमफालियाहि अहियसंतकम्मट्ठाणस्स समाणत्तविरोहादो। ___६ ३९३. संपहि एदं दोफालिक्खवगमेत्येव छविय पुणो एगफालिक्खवगो पक्खेउत्तरकमेण ताव वड्ढावेदव्यो जाव तप्पाओग्गमसंखेजगुणं जोग पत्तो त्ति । संपहि दचरिमसमए घोलमाणजहण्णजोगण चरिमसमए तप्पाओग्गअसंखेजगुणजोगण बंधिय अधियारदचरिमसमए द्विदस्स चडिद्धाणमेत्ताओ दचरिमफालीओ अधिया होंति, पुबिल्लहाणस्स चरिमकालिट्ठाणपमाणेण कदत्तादो । संपहि अधापवत्तभागहारेणोवट्टिदचडिदद्धाणमेत्तं दोफालिक्खवगमोदारिय पुणो दपक्खेउत्तरजोग णीदे पुणरुत्तट्ठाणं होदि, पुव्वं णियत्ताविदट्ठाणेण समाणत्तादो। संपहि इममेत्थेव दृविय एगफालिक्ख वगो पक्खेउत्तरकमेण ताव वड्ढावेदव्यो जाव असंखेजगुणजोग पावेदूण पुणो
फालिस्थान पुनरुक्त है, क्योंकि घोलमान जघन्य योगस्थानके प्रक्षेपभागहार से साधिक अध्वान ऊपर चढ़कर स्थित हुए योगसे बन्धको प्राप्त हुए एक फालि क्षपकस्थानके समान है। इस कारणसे सवेद भागके द्विचरम समयमें घोलमान जघन्य योगसे चरम समयमें दो प्रक्षेप अधिक योगसे बन्ध कर अधिकृत द्विचरम समयमें जो स्थित है उसका प्रदेशसत्कर्म अपुनरुक्त है, क्योंकि पहलेके समान हुए सत्कर्मस्थानसे दो चरम और द्विचरम फालियोंकी अपेक्षा अधिकता पाई जाती है। द्विचरम फालिका आश्रय कर उत्पन्न हुई है, इसलिए पहलेकी द्विचरम फालिस्थानोंके भीतर पतित होती है ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिए, क्योंकि चरम फालिस्थानसे एक द्विचरम फालिकी अपेक्षा अधिक सत्कर्मस्थ नसे दो द्विचरम फालियोंकी अपेक्षा अधिक सत्कर्मस्थानके समान होने में विरोध आता है।
६३९३. अब इस दो फालि क्षपकको यहीं पर स्थापित कर पुनः एक फालि क्षपकको तस्रायोग्य असंख्यातगुणे योगके प्राप्त होने तक एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढ़ाना चाहिए । अब द्विचरम समयमें घोलमान जघन्य योगद्वारा और चरम समयमें तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योगद्वारा बन्ध करके अधिकृत द्विचरम समयमें स्थित हुए जीवके आगे गये हुए अध्वानमात्र द्विचरम फालियाँ अधिक होती हैं, क्योंकि पहलेके स्थानको चरम फालिस्थानके प्रमाणरूपसे किया है। अब अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित आगे गये हुए अध्वानमात्र दो फालिक्ष पकको उतार कर पुनः दो प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त कराने पर पुनरुक्तस्थान होता है, क्योंकि पहले निवृत्त कराये गये स्थानके समान है। अब इसे यहीं पर स्थापित कर एक फालिक्षपकको, असंख्यातगुणे योगको प्राप्त कर पनः दो फालिक्षपकके योगसे असंख्यातगुणे
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३५० जयधवलासहिदे फसायपाहुडे
[पदेसविहत्ती दोफालिस्खवगजोगादो असंखेजगुणं जोग पत्तो त्ति । एवं ताव णेदव्चो जाव संखेजपरियट्टणवारेहि अद्धजोगं पत्तो त्ति । पुणो तत्थ चरिमसमयसवेदे दपक्खेउत्तराद्धजोगेण रूऊणधापवत्तभागहारेणोवट्टिदअद्धजोगपक्खेवभागहारं तिरूवाहियमेत्तं हेट्ठा ओदारिय द्विदजोगण दुचरिमसमयसवेदे बंधाविदे एगफालिसामिणो उकस्सट्ठाणादो हेडिमासेसट्ठाणंतरेसु दुचरिमफालिट्ठाणाणं विदियपरिवाडीए पदेससंतकम्मट्ठाणाणि उप्पण्णाणि । ___६३९४. संपहि इममेत्येव दृविय एगफालिक्खवगो पुणरवि वड्ढावेदव्वो जाव उक्कस्सजोग पत्तो त्ति । पुणो दोफालिक्खवगमद्धजोग णेदूण दृविय पुणो अण्णेगण सवेददचरिमसमए अद्धजोगण चरिमसमए उकस्सजोगण बंधिय तिगिफालीसु दरिदासु एदं द्वाणं पव्विल्लट्ठाणादो विसेसाहियं, चडिदद्धाणमेत्तदुचरिमफालोणमहियत्तुवलंभादो । पबिल्लट्ठाणेण समीकरणहं रूवूणधापवत्तभागहारेणोपट्टिदचडिदद्धाणमेत्तं पुणरवि एगफालिक्खवगो ओदारेदव्यो । एवमोदारिय पुणो दोफालिक्खवगो रूऊणधापवत्तभागहारमेत्तमोदारिय पुणो दुपक्खेउत्तरजोगं णेदव्यो । एवं णीदे पुणरुत्तट्ठाणं होदि, णियत्ताविदट्ठाणेण समाणत्तादो। एदमेत्थेव दृविय पुणो एगफालिक्खवगो पक्खेउत्तरकमेण वड्डावेदव्यो जावुकस्सजोगहाणं पत्तो ति । एवं तिण्णिफालिसामिणो उक्स्सहाणादो हेट्ठा तिरूवूणअधापवत्तभागहारमेत्तचरिमफालियोगके प्राप्त होने तक एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार संख्यात परिवर्तन बारोंके द्वारा अर्धयोगके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिये । पुनः वहाँ पर सवेद भागके चरम समयमें एक कम अधःप्रवृत्त भागहाररूप दो प्रक्षेप अधिक अध योगसे भाजित अर्धयोग प्रक्षेप भागहारको तीन रूप अधिक मात्र नीचे उतार कर स्थित हुए योग द्वारा सवेद भागके द्विचरम समयमें बन्ध कराने पर एक फालि स्वामीके उत्कृष्ट स्थानसे नीचेके समस्त स्थानोंके अन्तरालोंमें द्वितीय परिपाटीसे द्विचरम फालिस्थानोंके प्रदेशसत्कर्मस्थान उत्पन्न हुए।
६३९४. अब इसे यहीं पर स्थापित कर उत्कृष्ट योगके प्राप्त होने तक एक फालि क्षपकको फिर भी बढ़ाना चाहिए । पुनः दो फालि क्षपकको अर्ध योगको प्राप्त करा कर स्थापित करके पुनः सवेद भागके द्विचरम समयमें अन्य एक अर्ध योगके द्वारा और चरम समयमें उत्कृष्ट योगके द्वारा बन्ध करके तीन फालियोंके दारित होने पर यह स्थान पहलेके स्थानसे विशेष अधिक है, क्योंकि आगे गये हुए स्थानमात्र द्विचरम फालियाँ अधिक पाई जाती हैं। पहलेके स्थानके साथ समीमरण करनेके लिए एक कम अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित आगे गये हुए अधधानमात्र एक फालिक्षपकको फिर भी उतारना चाहिए। इस प्रकार उतार कर पुनः दो फालि क्षपकको एक कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र उतारकर पुनः दो प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त कराना चाहिए । इसप्रकार प्राप्त कराने पर पुनरुक्त स्थान होता है, क्योंकि यह निवृत्त कराये गये स्थानके समान है। इसे यहों पर स्थापित करके पुनः एक फालि क्ष पकको उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक एक एक प्रक्षप अधिकके क्रमसे बढ़ाना चाहिए । इसप्रकार तीन फालियोंके स्वामीके उत्कृष्ट योगसे नीचे तीन रूप कम अधःप्रवृत्त भागहारमात्र चरम
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३५१
गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं हाणंतराणि मोसूण सेसासेसट्ठाणंतरेसु विदियपरिवाडीए दुचरिमफालिट्ठाणाणि समुप्पण्णाणि । एवमुवरि छद्दसादिफालिक्खवगे अस्सिदृण विदियपरिवाडीए दुचरिमफालिट्ठाणाणि उप्पादेदव्वाणि । णवरि दुसमयूणदोआवलियमेत्तसममपबद्धाणमुकस्सहाणादो हेट्ठा तिरूवूणअधापवत्तभागहारमेत्तचरिमफालिट्ठाणंतरेसु ण उप्पण्णाणि, तिभागूण-चदुब्भागूणादिजोगहाणेसु हविय अणंतरादीदहाणेण संधाणक्कम्मो जाणिय कायव्वो। पुव्विल दुचरिमफालिहाणेहितो विदियपरिवाडीए समुप्पण्णट्ठाणाणि समाणाणि, हेहदो ऊणेगट्ठाणस्स उवरिमेगहाणपवेसदसणादो । एदमत्थपदमुवरि भण्णमाणतदियादिपरिवाडीसु सव्वत्थ वत्तव्वं । एवं दुचरिमफालिढाणाणं विदियपरिवाडी समत्ता।
३९५. संपहि तीहि दुचरिमफालीहि अधियहाणाणं परूवणं कस्सामो । तं जहा—सवेदचरिम-दुचरिमसमएसु घोलमाणजहण्णजोगण बंधिय पुणो अधियारदुचरिमसमयम्मि हिदस्स तिण्णिफालीओ जहण्णजोगादो सादिरेयदुगुणमेत्तमद्धाणं गंतूण हिदएगफालिक्खवगजोगेण सरिसाओ होति त्ति पुणरुत्तमिदं द्वाणं । संपहि एगफालिक्खवगं घोलमाणजहण्णजोगम्मि दृविय दोफालिक्खवग तिपक्खेउत्तरजोग णोदे दुचरिमफालिहाणाणं तदियपरिवाडीए पढममपुणरुत्तट्ठाणं । पुणो एदमेत्येव द्वविय एगफालिखवगो पक्खेउत्तरकमेण वढावेदव्वो जाव जहण्णजोगट्ठाणादो असंखेजगुणं
फालिस्थानोंके अन्तरालोंको छोड़कर शेष समस्त स्थानोंके अन्तरालोंमें द्वितीय परिपाटीसे द्विचरम फालिस्थान उत्पन्न हुए। इस प्रकार ऊपर छह और दस आदि फालिक्षपकोंका आश्रय लेकर द्वितीय परिपाटीसे द्विचरम फालिस्थान उत्पन्न करने चाहिए । इतनी विशेषता है कि दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंके उत्कृष्ट स्थानसे नीचे तीन रूप कम अधःप्रवृत्त भागहार मात्र चरम फालिस्थानोंके अन्तरालोंमें नहीं उत्पन्न हुए, अतः तीन भाग कम और चार भाग कम आदि योगस्थानोंमें स्थापित कर अनन्तर अतीत स्थानके साथ सन्धानका क्रम जानकर करना चाहिए। पहलेके द्विचरम फालिस्थानोंसे द्वितीय परिपाटीके अनुसार उत्पन्न हुए स्थान समान हैं, क्योंकि नीचेसे कम एक स्थानका उपरिम एक स्थानमें प्रवेश देखा जाता है। यह अर्थपद ऊपर कही जानेवाली तृतीय ओदि परिपाटियोंमें सर्वत्र कहना चाहिए। इस प्रकार द्विचरम फालिस्थानोंकी द्वितीय परिपाटी समाप्त हुई।
६३९५. अब तीन द्विचरम फालियोंके आश्रयसे अधिक स्थानोंका कथन करते हैं। यथासवेद भागके चरम और द्विचरम समयोंमें घोलमान जघन्य योगसे बन्ध करके पुनः अधिकृत द्विचरम समयमें स्थित हुए जीवके तीन फालियाँ जघन्य योगसे साधिक दूनामात्र अध्वान जाकर स्थित एक फालिक्षपकस्थानके समान होती हैं, इसलिए यह स्थान पुनरुक्त है। अब एक फालिक्षपकको घोलमान जघन्य योगमें स्थापित करके दो फालिक्षपकको तीन प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त कराने पर विचरम फालिस्थानोंका तृतीय परिपाटीके अनुसार प्रथम अपुनरुक्त स्थान होता है। पुनः इसे यहीं पर स्थापित करके एक फालिक्षपकको जघन्य योगस्थानसे असंख्यातगुणे योगके प्राप्त होने तक एक-एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढ़ाना चाहिए । इस
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३५२
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ जोग पत्तो त्ति । एवमुवरिमासेसकिरियं जाणिदण घेयव्वं जाव दुसमयूणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धा वड्डिदा ति । एवं वड्डाविदे दुसमयूणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धाणमुक्कस्सहाणादो हेहा चदुरूऊणअधापवत्तभागहारमेत्त चरिमफालिहाणाणमंतराणि मोत्तण सेसासेसहाणंतरेसु तदियपरिवाडीए दुचरिमफालिट्ठाणाणि समुप्पण्णाणि । ____३९६. संपहि चउत्थपरिवाडीए दुचरिमफालिहाणाणं परूवणं कस्सामो । तं जहा-दोसु समएसु घोलमाणजहण्णजोगेण बंधिय अधियारदुचरिमसमयम्मि हिदखवगहाणघोलमाणजहण्णजोगादो सादिरेयदुगुणजोगहाणं गंतूण हिदेगफालिट्ठाणेग सह सरिसं होदि ति पुणरुतं । संपहि अपुणरुत्तहाशुप्पायण दोफालिक्खवगो एगवारेण चदुपक्खेउत्तरजोगं णेदव्यो । एवं णीदे चउत्थपरिवाडीए पढमपुणरु त्तहाणं, चरिमफालिहाणं पेक्खिदण चदुहि दुचरिमफालिहाणेहि अहियत्तवलंभादो। संपहि एदमेत्थेव दृविय एगफालिक्खवगो पक्खेउत्तरकमेण वड्ढावेदव्यो जाव जहण्णजोगहाणादो असंखेजगुणं जोगं पत्तोत्ति । एवं सव्वसंधीओ जाणिदूण णेदवंजाव दुसमयणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धा वडिदा ति । एवं वड्डाविदे दुसमयूणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धाणमुक्कस्सएगफालिहाणादो हेट्ठा पंचरूऊणअधापवत्तभागहारमेत्तहाणंतराणि मोत्तण सेसासेसहाणंतरेसु चउत्थपरिवाडीए दुचरिमफालिहाणाणि समुप्पण्णाणि ।
प्रकार उपरिम समस्त क्रियाको जानकर दो समयकम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंकी वृद्धि होने तक ले जाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाने पर दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंके उत्कृष्ट स्थानसे नीचे चार रूपकम अधःप्रवृत्त भागहारमात्र चरम फालिस्थानोंके अन्तरालोंको छोड़कर शेष समस्त स्थानोंके अन्तरालोंमें तृतीय परिपाटीके अनुसार विचरम फाळिस्थान उत्पन्न हुए।
६३९६. अब चतुर्थ परिपाटीके अनुसार द्विचरम फालिस्थानोंका कथन करते हैं। यथा-दो समयोंमें घोलमान जघन्य योगसे बन्ध कर अधिकृत द्विचरम समयमें स्थित क्षपकस्थानके घोलमान जघन्य योगसे साधिक दूने योगस्थान जाकर स्थित हुए एक फालिस्थानके समान होता है, इसलिए पुनरुक्त है। अब अपनरुक्त स्थानके उत्पन्न करनेके लिये दो फालिक्षपकको एक बारमें चार प्रश्लेप अधिक योग तक ले जाना चाहिये। इस प्रकार ले जाने पर चतुर्थ परिपाटीके अनुसार पहला अपुनरुक्त स्थान होता है, क्योंकि चरम फालिस्थानको देखते हुए इसमें चार द्विचरम फालिस्थान रूपसे अधिकता उपलब्ध होती है। अब इसे यहीं पर स्थापित करके एक फालिक्षपकको जघन्य योगस्थानसे असंख्यातगुणे योगके प्राप्त होने तक एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार सब सन्धियोंको जान कर दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंकी वृद्धि होने तक बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाने पर दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंके उत्कृष्ट एक फालिस्थानसे नीचे पाँच रूप कम अधःप्रवृत्त भागहारमात्र स्थानोंके अन्तरालोंको छोड़कर शेष समस्त स्थानोंके अन्त
परिपाटीके अनुसार द्विचरम फालिस्थान उत्पन्न हए। इस प्रकार एक एक दिचरम
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रालोग
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
६५३
एव मे गेदु चरिमफालिमधियं काऊण दुचरिमफालिट्टाणाणं पंचमादिपरिवाडीओ जाव तिरूऊणअधापवत्तभागहारमेत्ताओ जाणिदूण परूवेदव्वाओ ।
९ ३९७. संपहि सव्वपच्छिमं दुचरिमफालिद्वाणपरूवणं कस्सामो । तं जहाचरम - दुरिमसमयम्मि घोलमाणजहण्णजोगेण बंधिय अधियारदुचरिमसमयम्मि डिदस्स पदेस संतकम्मट्ठाणं जहण्णजोगादो सादिरेयद्गुणमद्धाणं गंतूण दिएगफालिक्खवगसंतकम्मट्ठाणेण समाणत्तादो पुणरुत्तं । संपहि अपुणरुत्तदु चरिमफालिपदेस संत कम्मडाणामुप्पाण दोफा लिक्खवगो अकमेण दुरूऊणअधापवत्तभागहारमेत्तपक्खेउत्तरजोगं णेदव्वो । एवं णोदे दुरूऊणधापवत्तभागहार मे त्तचरिमफालिद्वाणाणि बोलेदूण उवरिमचरिमफालिडाणमपावेण दोन्हं पि विच्चाले अणरुत्तं होदूण एवं डाणमुपदि । रूऊणधापवत्तभागहारमेत्तपक्खे उत्तरजोगस्स दोफालिक्खवगो किंण ढोइदो ! ण, रूऊणधापवत्तभागहार मे तदुचरिमफालीहिंतो एगचरिमफालीए समुप्पत्तीए । णच एवं दुश्चरिमफालिट्ठाणं मोत्तूण चरिमफालिट्ठाणस्स उत्पत्तिप्पसंगादो | ण च एवं, पुणरुत्तहाणुप्पत्ती । तम्हा दुरूवूणधापवत्तभागहारमेत्तपक्खेवाहियजोगं चेव णेदव्वो । संपहि एदमेत्थेव हविय एगफालिक्खवगो पक्खेउत्तरकमेण वढावेदव्वो जाव तप्पाओग्गमसंखेजगुणं जोगं पत्तोति ।
फालिको अधिक करके द्विचरम फालिस्थानोंकी पञ्चम आदि परिपाटियोंको तीन रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र जानकर प्ररूपणा करनी चाहिए ।
६ ३९७. अब सबसे अन्तिम द्विचरम फालिस्थानका कथन करते हैं । यथा चरम और द्विचरम समय में घोलमान जघन्य योगसे बन्ध कर अधिकृत द्विचरम समय में स्थित हुए जीवके प्रदेशसत्कर्मस्थान पुनरुक्त है, क्योंकि वह जघन्य योगसे साधिक दुगुना अध्वान जाकर स्थित एक फोलि क्षपकके सत्कर्मस्थानके समान है। अब अपुनरुक्त द्विचरम फालि प्रदेशसत्कर्म - स्थानोंके उत्पन्न करने के लिये दो फालि क्षपकको युगपत् दो रूप कम अधःप्रवृत्त भागहारमात्र प्रक्षेप अधिक योग तक ले जाना चाहिये । इस प्रकार ले जाने पर दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र चरम फालिस्थानोंको बिताकर उपरिम चरम फालिस्थानको नहीं प्राप्त होकर दोनोंके ही मध्य में अपुनरुक्त होकर यह स्थान उत्पन्न होता है ।
शंका -- एक कम अधःप्रवृत्त भागहारमात्र प्रक्षेप अधिक योगका दो फालिक्षपक क्यों नहीं ढोया गया ?
समाधान- नहीं, क्योंकि एक कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र द्विचरम फालियोंसे एक चरम फालिकी उत्पत्ति होती है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा होने पर द्विचरम फालिके स्थानको छोड़कर चरम फालिस्थानकी उत्पत्तिका प्रसङ्ग आता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि ऐसा होने पर पुनरुक्त स्थानकी उत्पत्ति होती है । इसलिये दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र प्रक्षेप अधिक योगको ही प्राप्त कराना चाहिये ।
अब इसे यहीं पर स्थापित करके एक फालिक्षपकको तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योग के प्राप्त होने तक एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढ़ाना चाहिए ।
४५
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जयधवलास हिदे कसाय पाहुडे
[ पसविहत्ती ५
दोफालिक्खवगं
६ ३९८. संपहि चरिमफालिहाणेण समाणत्तविहाणढं जहण्णजोगम्मि हविय समीकरणं कस्सामो । तं जहा - सवेददुचरिमसमए जहण्णजोगेण चरिमसमए असंखेज्जगुणजोगेण बंधिय अधियार चरिमसमए द्विदखवगहाणं पुव्विल्लहाणादो विसेसाहियं चडिदद्वाणमेतदुचरिमफालीणम हियत्तवलंभादो । संपहि अघापवत्तभागहारेण खंडिदचडिदद्वाणमेतं दोफा लिक्खगमोदारिय पुणो दुरूवूणअधाप्रवत्तभागहारमेत्त पक्खेवाहियजोगट्टाणं णीदे पुणरुतदु चरिमफालिट्ठाणं होदि । पहि इमं त्वयि पुणो एगफालिखवगो पक्खेउत्तरादिकमेण वढावेदव्वो जाव दोफोलिक्खवगजोगाणादो असंखेजगुणं जोगं पत्तोति ।
३५४
९ ३९९. संपहि एत्थ ट्ठविय पुव्वं च समीकरणं कायव्वं । एवं एदेण कमेण ताव वड्ढावेदव्वं जाव संखेजपरियट्टणवाराओ गंतूण अद्धजोगं पत्तोति । एवं वड्डाविजमाणे एगफालिखव कम्मि उह से संते एगफालिखवगस्स उकस्सहाणादो हेड्डा दुचरिमफालिडाणाणि समुपाणित्ति भणिदे जाधे दोफालिख वगो अद्धजोगादो उवरि दुरूवूणधापवत्तभागहार मे स पव खेवाहियजोगं गदो, एगफालिखवगो वि रूदृणधापवत्तभागहारेण अद्धजोगपक्खेव भागहारं खंडिदेयखंडमेतं पुणो रूऊणधापवत्तभागहारमेत्तं च अद्धजोगादो हेडा ओदरिय हिदो ताधे एगफालिक्खवगस्स सच्चफालिट्ठाणंतरेसु दुचरिमफालिट्ठाणाणि समुप्पण्णाणि । संपहि एगफालिक्खवगो परखेउत्तरकमेण ताव
९ ३९८. अब चरम फालिस्थान के साथ समानताका विधान करनेके लिये दो फालि क्षपकको जघन्य योग में स्थापित करके समीकरण करते हैं । यथा - सवेद भागके द्विचरम समय में जघन्य योगसे और चरम समय में असंख्यातगुणे योगसे बन्ध कर अधिकृत द्विचरम समय में स्थित हुआ क्षपकस्थान पहले के स्थान से विशेष अधिक है, क्योंकि आगे गये हुए अध्वानमात्र द्विचरम फालियोंकी अधिकता उपलब्ध होती है। अब अधःप्रवृत्तभागहार से भाजित आगे गये हुए अध्वानमात्र दो फालिक्षपकको उतारकर पुनः दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहार मात्र प्रक्षेप अधिक योगस्थान तक ले जाने पर पुनरुक्त द्विचरम फालिस्थान होता है । अब इसे यहीं पर स्थापित कर पुनः एक फालिक्षपकको दो फालिक्षपकके योगस्थानसे असंख्यात - गुणेयोग प्राप्त होने तक एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढ़ाना चाहिए ।
६ ३९९. अब यहीं पर स्थापित कर पहले के समान समीकरण करना चाहिए । इस प्रकार इस क्रम संख्यात परिवर्तन बार जाकर अर्धयोगके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए । इस प्रकार बढ़ाने पर एक फालिक्षपकके किस स्थान में रहते हुए एक फालिक्षपकके उत्कृष्ट स्थान से नीचे द्विचरम फालिस्थान उत्पन्न हुए हैं ऐसा पूछने पर जहाँ पर दो फालि क्षपक अर्धयोगसे ऊपर दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त हुआ तथा एक फालिक्षपक भी एक कम अधःप्रवृत्तभागहारसे अर्धयोग प्रक्षेपभागहारको भाजित कर प्राप्त हुए एक भागमात्रको पुनः एक कम अधःप्रवृत्त भागहारमात्रको अर्धयोगसे नीचे उतारकर स्थित है तब जाकर एक फालिक्षपकके सब फालिस्थानोंके अन्तरालों में द्विचरम फालिस्थान उत्पन्न हुए | अब एक फालिक्षपकको उत्कृष्ट योगके प्राप्त होने तक एक-एक प्रक्षेप अधिकके
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
३५५ वड्ढावेदव्यो जावुकस्सजोग पत्तो ति । पुणो दोफालिखवगमद्धजोगम्मि छविय संपहि किरियंतरं परूवेमो। तं जहा-सवेदचरिमसमए उक्कस्सजोगेण दुचरिमसमए अद्धजोगेण बंधिय अधियारदुचरिमसमए अवडिदखवगहाणं पुचिल्लहाणादो विसेसाहियं, चडिदद्धाणमत्तदुचरिमफालीणमहियत्तुवलंभादो। पुणो रूबूणधापवत्तभागहारेणोवट्टिदचडिदद्धाणमेत्तमेगफालिक्खवगमद्धजोगादो हेट्ठा ओदारिय पुणो उकस्सजोगादो हेढा दोफालिखवगे रूऊणधापवत्तभागहारमेत्तजोगहाणाणि ओदारिय दरूऊणअधापवत्तभागहारमेत्तजोगट्ठाणस्स पुणो उवरि चडाविदे दुचरिमफालिहाणं पुणरुत्तमुप्पजदि ।
४००. संपहि इममेत्थेव हविय एगफालिवखवगो ताप वड्ढावेदव्वो जाव उक्कस्सजोगद्वाण एत्तोति । एवं वडाविदे तिण्णिफालिक्खवगस्स उक्कस्सहाणादो हेडिमचरिमफालिट्ठाणंतरं मोत्तण अवसेसासेसट्ठाणंतरेसु दचरिमकालिट्ठामाणि समुप्पण्णाणि । एवं उवरिं वि तिभागूण-चभागूणादिकमेण बंधाविय पुणो सरिसं कादूण णेदव्वं जाव दुसमयूणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धा उक्कस्सजोग पत्ता त्ति । एवं वड्डाविदे दुसमयणदोआवलियमेत्तस:यपबद्धाणमुक्कस्सहाणादो हेहिमाणंतरहाणंतरं मोत्तूण सेसहाणंतरेसु सम्बत्थ दुचरिमफालिहाणाणि समुप्पण्णाणि । संपहि दचरिमफालीओ अस्सिदूण एकेकचरिमफालिडाणंतरेसु दुरूऊणअधापवत्तमागहारमेत्ताणि चेव दचरिमफालिहाणाणि उपजंति, रूऊणअधापवत्तभागहारमेत्तदचरिमफालीहि
क्रमसे बढ़ाना चाहिए । पुनः दो फालिक्षपकको अर्धयोगमें स्थापित कर अब क्रियान्तरका कथन करते हैं । यथा-सवेद भागके चरम समयमें उत्कृष्ट योगसे तथा द्वि चरम समयमें अर्धयोगसे बन्ध कर अधिकृत द्विचरम समय में अवस्थित क्षपकस्थान पहलेके स्थानसे विशेष अधिक है, क्योंकि आगे गये हुए अध्यानमात्र द्वि चरम फालियोंकी अधिकता उपलब्ध होती है। पुनः एक कम अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित आगे गये हुए अध्वानमात्र एक फालिक्षपकको अधयोगसे नीचे उतारकर पुनः उत्कृष्ट योगसे नीचे दो फालिक्षपकको एक कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र योगस्थानोंको उतार कर दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र योगस्थानके ऊपर पुनः चढ़ाने पर द्विचरम फालिस्थान पुनरुक्त उत्पन्न होता है।
६४००. अब इसे यहीं पर स्थापित कर एक फालिक्षपकको उत्कृष्ट योगस्थानके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए । इस प्रकार बढ़ाने पर तीन फालिमपकके उत्कृष्ट स्थानसे नीचेके चरमफालि स्थानान्तरको छोड़कर बाकीके समस्त फालिस्थानोंके अन्तरालोंमें द्विचरम फालिस्थान उत्पन्न हुए। इस प्रकार ऊपर भी विभाग कम और चार भाग कम आदिके क्रमसे बन्ध कराकर पुनः समान करके दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंके उत्कृष्ट योगको प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाने पर दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंके उत्कृष्ट स्थानसे अधस्तन अनन्तर स्थानके अन्तरालको छोड़कर शेष स्थानोंके अन्तरालों में सर्वत्र द्विचरम फालिस्थान उत्पन्न हुए। अब द्विचरम फालियोंका आश्रय लेकर एक एक चरम फालिस्थानोंके अन्तरालोंमें दो कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र ही द्विचरम फालिस्थान उत्पन्न होते हैं, क्योंकि एक कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र द्वि चरम फालियोंसे
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ एगचरिमफालोए समुप्पत्तोदो। णवरि सव्वचरिमफालिहाणंतरेसु दुरूऊणअधापवत्तभागहारमेत्ताणि चेव दचरिमफालिद्वाणंतराणि होति ति णत्थि णियमो, हेहिम-उवरिमरूऊणधापवत्तभागहारमेत्तचरिमफालिट्ठाणंतरेसु एगादिएगुत्तरकमेण दुचरिमफालिट्ठाणाणं अवहाणुवलंभादो। एवं दचरिमफालीओ अस्सिदूण पुरिसवेदस्स पदेससंतकम्महाणाणं परूवणा कदा।
___४०१. संपहि तिचरिमफालिविसेसमस्सियूण पदेससंतकम्मट्ठाणाणं परूवणं कस्सामो । तं जहा-सवेदचरिम-दुचरिम-तिचरिमसमएसु घोलमाणजहण्णजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमए हिदस्स छप्फालीओ घोलमाणजहण्णजोगादो उवरि सादिरेयतिगुणमेत्तजोगट्ठाणेण परिणदएगफालिखवगदव्वेण सह सरिसाओ होति त्ति पुणरुत्ताओ। संपहि केत्तियमेतेण एवं तिगुणमद्धाणं सादिरेयं ? रूऊणअधापवत्तभागहारेणोवट्टिदतिगुणघोलमाणजहण्णजोगपक्खेवभागहारमेत्तं होदूण पुणो रूऊणधापवत्तभागहारवग्गेणोवट्टिदघोलमाणजहण्णजोगभागहारमेत्तेण समहियं । संपहि एग-दोफालिक्खवगेसु पक्खेउत्तरादिकमेण वड्डमाणेसु पुणरुत्त हाणाणि चैव उप्पजंति त्ति तेहि विणा तिण्णिफालिक्खवगो चेव पक्खेउत्तरजोगणेदव्यो । एवं णीदे अपुणरुत्तट्ठाणं होदि। एगचरिमफालीए दोहि दुचरिमफालीहि एगेण तिचरिमफालिविसेसेण च अहियत्तादो। णेदं चरिमफालिट्ठाणं, दोहं चरिमफालिट्ठाणाणमंतरे समुप्पण्णत्तादो । ण एक चरम फालि उत्पन्न हुई है। इतनी विशेषता है कि सब चरम फालिस्थानोंके अन्तरालोंमें दो कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र ही द्विचरम फालिस्थानोंके अन्तराल होते हैं ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि अधस्तन और उपरिम एक कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र चरम फालिस्थानोंके अन्तरालोंमें एकसे लेकर एक एक अधिकके क्रमसे द्विचरम फालिस्थानोंका अवस्थान उपलब्ध होता है। इस प्रकार द्विचरम फालियोंका आश्रय लेकर पुरुषवेदके प्रदेशसत्कर्मस्थानोंकी प्ररूपणा की।
६४०१. अब त्रिचरमफालि विशेषका आश्रय लेकर प्रदेशसत्कर्मस्थानोंका कथन करते हैं । यथा-सवेद भागके चरम, द्विचरम और त्रिचरम समयोंमें घोलमान जघन्य योगसे बन्ध कर अधिकृत त्रिचरम समयमें स्थित हुए जीवके छह फालियाँ घोलमान जघन्य योगसे ऊपर साधिक तिगुणे योगस्थानके द्वारा परिणत हुए एक फालिक्षपक द्रव्यके साथ समान होती हैं, इसलिए पुनरुक्त हैं।
शंका-अब कितने मात्रसे यह त्रिगुणा अध्वान साधिक होता है ?
समाधान-एक कम अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित तिगुना घोलमान जघन्य योगप्रक्षेपभागहारमात्र होकर पुनः एक कम अधःप्रवृत्तभागहारके वर्गसे भाजित घोलमान जघन्य योगभागहारमात्रसे अधिक होता है।
अब एक और दो फालिक्षपकोंके एक एक प्रक्षेप अधिक आदिके क्रमसे बढ़ने पर पुनरुक्त स्थान ही उत्पन्न होते हैं, इसलिए उनके विना तीन फालिक्षपकको ही प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त कराना चाहिए । इस प्रकार ले जाने पर अपुनरुक्त स्थान होता है। इसमें एक चरम फालि, दो द्विचरम फालियाँ और एक त्रिचरम फालिविशेष अधिक है। इसलिए यह चरम फालिस्थान नहीं है, क्योंकि दो चरम फालिस्थानोंके अन्तरालमें उत्पन्न हुआ है।
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उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
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गा० २२ ] दचरिमफालिहाणं पि, दोदुचरिमफालीओ बोलेदृण तदियदु चरिमफालीए हेडिमअंतरे समुप्पण्णत्तादो । तम्हा एदं द्वाणमपुणरुत्तं चेवे त्ति दव्वं । संपहि हममेत्थेव विय एगफालिक्लवगे पक्खे उत्तरजोग णीदे अपुणरुत्तं द्वाणं होदि, उवरिमचरिमफालिट्ठाणं बोलेण विदिय-तदियदुचरिमफालिडाणाणमंतरे समुप्पण्णत्तादो । एवं एगफा लिक्खवगो चैव पक्खेवुत्तरादिकमेण वढावेदव्वं जाय तप्पा ओग्गमसंखेखगुणं जोग' पत्तोति ।
$ ४०२. संपहि तिष्णिफालिक्खवगमणंतरहे डिमजोग' दूण चरिमफालिहाणेण समाणं करिय पुणो एत्थुववजंतं किरियाकप्पं वत्तइस्साम । तं जहा - अ - अण्णेगो तिचरिम- चरिमसमएस जहण्णजोगेण दुचरिमसमए तप्पा ओग्गअसंखेजगुणजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमए अवहिदो । एदस्स द्वाणं पुव्विल्ल हाणादो विसेसाहियं, चडिदद्वाणमेतदुचरिमफालीण महिय तुवलंभादो । पुणो अधापवत्त भागहारेणोत्रविदचडिदद्धाणमेतं दोफालिक्खवगमोदारिय तिण्णिफा लिक्खवगे पक्खेवु तरजोग णीदे पुणरुतं तिचरिमफालिविसेसद्वाणं होदि । संपहि इममत्थेव इविय पुणो एगफालिक्खवगो पक्खेवुत्तरकमण वढावेदव्वो जात्र तप्पा ओग्गमसंखेजगुणं जोग पत्तोति ।
९४०३. संपहि इममत्थेव दविय तिण्णिफालिक्खवगं जहण्णजोगं दूण चरिमफालिडाणेण समाणं करिय पुणो एत्थुववजंतं किरियाकप्पं वत्तइस्लामो | तं जहा - सवेदतिचरिमसमए घोलमाणजहण्ण जोगेण चरम दुरिमसमएस
यह द्विचरम फालिस्थान भी नहीं है, क्योंकि दो द्विचरम फालियोंको उल्लंघन कर तृतीय द्विचरमफालिके अधःस्तन अन्तरालमें उसन्न हुआ है, इसलिए यह स्थान अपुनरुक्त ही है ऐसा जानना चाहिए । अब इसे यहीं पर स्थापित कर एक फालिक्षपकके प्रक्षेप अधिक योग तक ले जाने पर अपुनरुक्त स्थान होता है, क्योंकि उपरिम चरम फालिस्थानको उल्लंघनकर दूसरे और तीसरे द्विरम फालिस्थानोंके अन्तराल में उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार एक फालिक्षपकको ही तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योगको प्राप्त होने तक एक एक प्रक्षेप अधिक आदिके क्रमसे बढ़ाना चाहिए ।
९४०२. अब तीन फालिक्षपकको अनन्तर अधस्तन योगको ले जाकर चरम फालिस्थानके समान करके पुनः यहाँ पर उत्पन्न होनेवाले क्रियाकलापको बतलाते हैं । यथा - अन्य एक जीव त्रिचरम और चरम समयोंमें जघन्य योगसे तथा द्विचरम समय में तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योग बन्ध कर अधिकृत चरम समय में अवस्थित है । इसका स्थान पहलेके स्थानसे विशेष अधिक है, क्योंकि आगे गये हुए अध्वानमात्र द्विचरम फालियोंकी अधिकता उपलब्ध होती है । पुनः अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित आगे गये हुए अध्वानमात्र दो फालिक्षपकको उतार कर तीन फालिक्षपकके प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त कराने पर पुनरुक्त त्रिचरम फालिविशेषरूप स्थान होता है । अब इसे यहीं पर स्थापित कर पुनः एक फालिक्षपकको तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योग प्राप्त होने तक एक एक प्रक्षेप अधिक के क्रमसे बढ़ाना चाहिए ।
९४०३. अब इसे यहीं पर स्थापित कर तीन फालिक्षपकको जघन्य योगको प्राप्त कराकर चरम फालिस्थानके समान कर पुनः यहाँ पर उत्पन्न हुए क्रियाकलापको बतलाते हैं । यथा - सवेद भाग के त्रिचरम समयमें घोलमान जघन्य योगसे तथा चरम और द्विचरम समयों में तत्प्रायोग्य
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ तप्पाओग्गअसंखेजगुणजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमए विदखवगहाणं पुग्विल्लट्ठाणादो विसेसाहियं, चडिदद्धाणमेत्तदुचरिम-तिचरिमफालीणमहियत्तवलंभादो। संपहि अधापवत्तभागहारेणोपट्टिदं दुगुणंचडिदद्धाणं सादिरेयमत्तंदोफालिक्खवगमोदारिय पुणो तिण्णिफालिक्खवगे पक्खेवुत्तरजोग णोदे तिचरिमफालिविसेसट्ठाणं पुनरुत्तं होदि, पुव्वं णियत्ताविदट्ठाणस्सेव समुप्पण्णत्तादो । संपहि इममेत्थेव ढविय पुणो एगफालिक्खवगपक्खेवुत्तरजोगं णीदे हाणमपुणरुतं होदि, एगचरिमफालिट्ठाणं दुचरिमफालिहाणाणि च बोलिय समुप्पण्णत्तादो। एवं जाणिदूण णेदव्वं जावुक्कस्सजोगादो हेट्ठा तिभागजोगं पत्तो त्ति ।
___६४०४. पुणो एत्थेगो अधिक तत्थो उच्चदे । तं जहा-एदाणि तिचरिमफालिविसेसहाणाणि समुप्पजमाणाणि एगफालिसामिणो उक्कस्सट्ठाणादो हेद्विममंतरं कत्थ द्विदस्स पत्ताणि त्ति जो सवेदतिचरिमसमए पक्खेउत्तरतिभागजोगेण दुचरिमसमए उक्कस्सजोगस्स तिभागजोगेण तिचरिमसमए रूऊणधापवत्तभागहारेणोवट्टिदतिभागजोगपक्खेवभागहारं तिगुणमेत्तं पुणो रूऊणधापवत्तभागहारवग्गेणोवट्टिदतिभागजोगपश्खेवभागहारमेत्तं चदुरूवाहियं हेट्ठा ओदरिदूण द्विदजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमए हिदक्खवगहाणं तत्थंतरे समुप्पजदि, छण्णं फालीणं सव्वदव्वे मेलाविदे एगफालिसामिणो चरिम-दुचरिमफालिट्ठाणागमंतरे अवहाणुवलंभादो ।
असंख्यातगुणे योगसे बन्ध कर अधिकृत त्रिचरम समयमें स्थित हुआ क्षपकस्थान पहलेके स्थानसे विशेष अधिक है, क्योंकि आगे गये हुए अध्वानमात्र द्विचरम और त्रिचरम फालियांकी अधिकता उपलब्ध होती है । अब अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित दुगुने साधिक आगे गये हुए अध्वानमात्र दो फालिक्षपकको उतार कर पुनः तीन फालिक्षपकके प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त कराने पर विचरम फालिविशेषरूप स्थान पुनरुक्त होता है, क्योंकि पहले प्राप्त कराया गया स्थान ही उत्पन्न हुआ है। अब इसे यहीं पर स्थापित कर पुनः एक फालिक्षपकके प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त कराने पर स्थान अपुनरुक्त होता है, क्योंकि एक चरम फालिस्थानको और द्विचरम फालिस्थानोंको उल्लंघन कर यह उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार जान कर उत्कृष्ट योगसे नीचे त्रिभाग योगके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए।
६४०४. पुनः यहाँ पर एक अधिकृत अर्थ का कथन करते हैं। यथा--ये विचरम फालिविशेषस्थान उत्पन्न होते हुए फालिस्वामीके उत्कृष्ट स्थानसे अधस्तन अन्तरालमें कहां पर स्थित हुए जीवके प्राप्त होते हैं-ये सवेद भागके त्रिचरम समयमें प्रक्षेप अधिक त्रिभागयोगसे, द्विचरम समयमें उत्कृष्ट योगके त्रिभाग योगसे तथा त्रिचरम समयमें एक कम अधःप्रवृत्त भागहारसे भाजित त्रिभाग योगके प्रक्षेप भागहार तिगुणामात्र पुनः एक कम अधःप्रवृत्त भागहारके वर्गसे भाजित त्रिभाग योग प्रक्षेप भागहारमात्र चार रूप अधिक नीचे उतार कर स्थित हुए योगसे बन्ध करा कर अधिकृत त्रिचरम समयमें स्थित क्षपकस्थान वहां अन्तराल में उत्पन्न होता है, क्योंकि छह फालियोंके सब द्रव्यके मिलाने पर एक फालिके स्वामीका चरम और द्विचरम फालिस्थानोंके अन्तरालमें अवस्थान उपलब्ध होता है।
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मा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहन्तीए सामित्तं
९४०५. संपहि एगफालिक्खवगे पक्खेउत्तरजोगं णोदे एगफालिसामिणो उक्करसङ्काणं, तदुवरिमदोण्णि दुचरिमफालिडाणाणि च बोलेण तदियदुचरिमफालिहाणपावेण अंतराले समुप्पण्णत्तादो अपुणरुत्तद्वाणं होदि । एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सजोगड्डाणादो हा विभागूनजोगं पत्तोत्ति । पुणो तत्थ सवेदचरिमसमए पक्खेवु त्तरतिभागूणुकस्सजोगेण दुचरिमसमए तिभागूणुकस्सजोगेण तिचरिमसमए रूऊणधापवत्तभागहा रेणोवट्टिदतिभागूणुकस्सजोगपक्खेव भागहारं तिगुणं सादिरेयं दुरूवाहियमोदरियण द्विदजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमए faraara छप्फा लिद्वाणं तिष्णिप्फालिसामिणो उक्कस्सचरिमफालिड्डाणादो हेट्ठिमअंतरे उप्पण्णं ति तिण्णिफालिसा मिगो सव्वचरिमफालिद्वाणंतरेस तिच रिमविसेसह । णाणं समुप्पत्ती दट्ठव्वा । संपहि एगफा लिक्खवगे पक्खेउत्तरजोगं णीदेतिणिफालिसामिणो उक्कस्तचरिमफालिट्ठाणादो उवरिमदोण्णिदु चरिमफालिडाणाणि बोलेदुण तदियदुचरिमाणमपावेण अंतराले अपुणरुत्तट्ठाणं उप्पज्जदि, अकमेण एगचरिमफालीए वडिदत्तादो | एवं एगफालिक्खवगो पक्खेउत्तरकमेण वड्ढावेदव्वो जाव उकस्सजोगं पत्तोति ।
४०६. संपहि तिणिफालिक्खवगं तिभागूणुकस्सजोगं णेदुण चरिमफालिट्ठाणेण समाणं करिय पुणो एत्थ किरियाविसेसं वत्तइस्सामो । तं जहा - सवेददुचरिमसमए उकस्सजोगेण चरिम-तिचरिमसमएस तिभागूणुकस्सजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमए
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९ ४०५. अब एक फालिक्षपकके प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त कराने पर एक फालिस्वामी के उत्कृष्ट स्थान अपुनरुक्त होता है, क्योंकि उससे उपरिम दो द्विचरम फालिस्थानोंको उल्लंघन कर तृतीय द्विचरम फालिस्थानको नहीं प्राप्त कर अन्तरालमें वह उत्पन्न हुआ है । इस प्रकार उत्कृष्ट योगस्थानसे नीचे तृतीय भाग कम योगके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए । पुनः वहाँ पर सवेद भाग के त्रिचरम समय में प्रक्षेप अधिक त्रिभाग कम उत्कृष्ट योगसे, द्विचरम समयमें त्रिभाग कम उत्कृष्ट योगसे तथा त्रिचरम समय में एक कम अधःप्रवृत्त भागहार से भाजित त्रिभाग कम उत्कृष्ट योगप्रक्षेपभागहार तिगुना साधिक दो रूप अधिक उतर कर स्थित हुए योग से बन्ध करके अधिकृत त्रिचरम समयमें स्थित हुए क्षपकका छह फालिस्थान तीन फालियों के स्वामी के उत्कृष्ट चरम फालिस्थानसे अधस्तन अन्तरालमें उत्पन्न हुआ है, इसलिए तीन फालियोंके स्वामी के सब चरम फालिस्थनोंके अन्तरालोंमें त्रिचरम विशेष स्थानोंकी उत्पत्ति जाननी चाहिए | अब एक फालि क्षपकके प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त कराने पर तीन फालियोंके स्वामी के उत्कृष्ट चरम फालिस्थानसे उपरिम दो द्विचरम फालिस्थानोंको उल्लंघन कर तृतीय द्विचरमस्थानको नहीं प्राप्त होकर अन्तरालमें अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि युगपत् एक चरम फालिकी वृद्धि हुई है। इस प्रकार एक फालिक्षपकको उत्कृष्ट योगके प्राप्त होने तक एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढ़ाना चाहिए ।
९ ४०६. अब तीन फालियोंके क्षपकको तृतीय भाग कम उत्कृष्ट योगको प्राप्त करा कर चरम फालिस्थानके समान कर पुनः यहाँ पर क्रियाविशेषको बतलाते हैं । यथा - सवेद भागके द्विचरम समय में उत्कृष्ट योगसे तथा चरम और त्रिचरम समयों में त्रिभाग कम उत्कृष्ट योग से बन्ध कर अधिकृत त्रिचरम समय में अवस्थित क्षपकस्थान पहलेके स्थानसे विशेष अधिक है,
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जयधवला सहिदे कसायपाहुडे
[ पदेस विहती ५
अवदिक्खवगट्ठाणं पुव्विल्लहाणादो विसेसाहियं चडिदद्वाणमेत्तदुचरिमफालीणं श्रयित्वभादो | तेण रूऊणधापवत्तभागहारेणोव विदच डिदद्वाणमेत्त मेगफालिक्खवगमोदरिय तिष्णफा लिक्खवगे पक्खेवुत्तरतिभागूणुक्कस्सजोगं णीदे तिचरिमफालि विसेसद्वाणं पुणरुत्तं होदि, पुव्वं नियत्ताविदट्ठाणस्सेव समुप्पण्णत्तादो । संपहि इममेत्थेव विय पुणो एगफालिक्खवग पक्खेवुत्तरकमेण वढावेदव्यो जावुक्कस्सजोगं पत्तो त्ति ।
$ ४०७, संपहि तिणिफा लिक्खवगं तिभागूणुकस्सजोगं दूण चरिमफालिट्ठाणेण समाणं करिय पुणो एत्थ किरियाविसेसो उच्चदे । तं जहा - सवेदचरिमसमए दुचरिमसमए च उकस्सजोगेण तिचरिमसमए विभागूणुकस्सजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमए अवदिक्खवगडाणं पुब्बिल्लहाणादो विसेसाहियं चडिदडाण मे चदुचरिम-तिचरिमफालीण महियत्तुवलंभादो | संपहि रूवूणधापत्र त्तभागहारेणोवदिचडिदद्वाणं दुगुणमेत्तं रूऊणधापवत्तभागहारवग्गेणोवष्टिदचडिदद्वाणमेत्तं च एगफालिक्खवगमोदारिय पुणो उकस्सजो गहाणादो तिष्णिफालिक्खवगो रूवूणधापवत्तभागहारमेत्तजोगडाणाणि दोफालिक्खवगो वि दुरूऊणधापवत्तभागहारमे तजोगट्ठाणाणि ओदारेदव्वो । एवमोदारिदे चरिमफालिहा होदि, अकमेण दुगुणिदअधापवत्तभागहारमेत्तचरिमका लिहागाणं पडिणियत्तत्तादो । पुणो तिण्णिफा लिक्खवगे पक्खेउत्तरजोगं णोदे तिचरिमफालि विसेसद्वाणं होदि, अकमेणेगचरिम- दुचरिम- तिचरिमफालीणं वडिदत्तादो । संपहि इममेत्थेव विय
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क्योंकि आगे गये हुए अध्वानमात्र द्विचरम फालियोंकी अधिकता उपलब्ध होती है, इसलिए एक कम अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित आगे गये हुए अध्वानमात्र एक फालि क्षपकको उतार कर तीन फाक्षिक प्रक्षेप अधिक त्रिभाग कम उत्कृष्ट योगको प्राप्त होने पर त्रिचरम फालिविशेष स्थान पुनरुक्त होता है, क्यों कि पहले प्राप्त कराया गया स्थान ही उत्पन्न हुआ है । अब इसे यहीं पर स्थापित करके पुनः एक फालिक्षपकको उत्कृष्ट योगके प्राप्त होने तक एक एक प्रक्षेप अधिक क्रमसे ले जाना चाहिए।
९४०७. अब तीन फालिक्षपकको त्रिभाग कम उत्कृष्ट योगको प्राप्त करा कर चरम फालिस्थानके समान करके पुनः यहाँ पर क्रियाविशेषको बतलाते हैं । यथा - सवेद भागके चरम समय में और द्विचरम समयमें तथा उत्कृष्ट योगसे त्रिचरम समय में त्रिभागकम उत्कृष्ट योगसे बन्धकर अधिकृत त्रिचरम समय में अवस्थित क्षपकस्थान पहलेके स्थानसे विशेष अधिक है, क्योंकि आगे गये हुए अध्वानमात्र द्विचरम और त्रिचरम फालियाँ अधिक पाई जाती हैं । अब एक कम अधःप्रवृत्तभागहार से भाजित आगे गये हुए अध्वानको दूनामात्र और एक कम अधःप्रवृत्तभागहारके वर्गसे भाजित आगे गये हुए अध्वानमात्र एग फालिक्षपकको उतारकर पुनः उत्कृष्ट योगस्थानसे तीन फालिक्षपकको एक कम अधःप्रवृत्तभागद्दारमात्र योगस्थान दो फालिक्षपकको भी दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र योगस्थान उतारना चाहिए । इस प्रकार उतारने पर चरम फालिस्थान होता है, क्योंकि अक्रमसे द्विगुणित अधःप्रवृत्तभागहारमात्र चरम फालिस्थानोंकी निवृत्ति हुई है । पुनः तीन फालिक्षपकके एक प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त कराने पर त्रिचरम फालि विशेष स्थान होता है, क्योंकि अक्रम से एक चरम, द्विचरम और त्रिचरम फालियोंको वृद्धि हुई है । अब इसे यहीं पर स्थापित कर
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
३६१ पुणो एगफालिक्खवगो वड्ढावेदव्वो जाव उक्कस्सजोगहाणं पत्तो ति । एवं वड्डाविदे छ'फालिसामिणो उक्स्सचरिमफालिट्ठाणादो हेट्ठा दुगुणरूऊणधापवत्तभागहारमेत्तचरिमफालिट्ठाणाणमंतराणि मोत्तण अण्णत्थ सव्वत्थ वि तिचरिमफालिविसेसट्ठाणाणि समुप्पणाणि ।
४०८. संपहि छप्फालीओ अस्सिदूण एत्तियाणि चेव उप्पजंति ण वड्डिमाणि । तेण दसफालीओ घेत्तूण तिचरिमविसेसट्टाणाणं परूवणं कस्सामो। तं जहासवेदचरिम-दुचरिम-तिचरिम-चदुचरिमसमएसु चदुभागूणुक्कस्सजोगेण बंधिय अधियारचदुचरिमसमए अवविदक्खवगस्स दसफालिहाणं उकस्सछप्फालिहाणादो विसेसाहियं । पुणो एत्थ समकरणविधाणं जाणिण कायव्वं । एवं पंचभागूण-छब्भागूणादिफालोओ घेत्तण सरिसं करिय जाणिदूण वत्तव्वं जाव दुसमयूणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धाणमुक्कस्सचरिमफालिट्ठाणादो हेवा दुगुणदुरूवूणअधापवत्तभागहारमेत्तचरिमफालिहाणंतराणि मोत्तूण अण्णत्थ सव्वत्थ वि तिचरिमफालिविसेसटाणाणि समुप्पण्णाणि त्ति । एवं तिचरिमविसेसहाणेसु पढमपरिवाडी समत्ता ।
६४०९. संपहि तेसिं चेव विदियपरिवाडी उच्चदे । तं जहा-चरिम-दचरिम-तिचरिमसमएसु घोलमाणजहण्णजोगण पंधिय अधियारतिचरिमसमए हिदखवगछप्फालिहाणं घोलमाणजहण्णजोगादो तिगुणं सादिरेयमेत्तद्धाणं गतूण द्विदएगफालिक्खवगहाणेण
पुनः एक फालिक्षपकको उत्कृष्ट योगस्थानको प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए । इस प्रकार बढ़ाने पर छह फालिस्वामीके उत्कृष्ट चरम फालिस्थानसे नीचे दूने एक कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र चरम फालस्थानोंके अन्तरालोंको छोड़कर अन्यत्र सर्वत्र ही त्रिचरम फालि विशेषस्थान उत्पन्न हुए।
४०८. अब छह फालियोंका आश्रय कर इतने ही उत्पन्न होते हैं वृद्धिरूप नहीं, इसलिए दस फालियोंको ग्रहण कर त्रिचरम विशेषस्थानोंका कथन करते हैं। यथा-सवेद भागके चरम, द्विचरम, त्रिचरम और चतुश्चरम समयों में चतुर्थ भाग कम उत्कृष्ट योगसे बन्धकर अधिकृत चतुश्चरम समयमें अवस्थित हुए क्षपकका दस फालिस्थान उत्कृष्ट छह फालिस्थानसे विशेष अधिक है । पुनः यहां पर समीकरण विधानको जानकर करना चाहिए। इस प्रकार पाँच भाग कम और छह भाग कम आदि फालियोंको ग्रहणकर तथा सदृशकर दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंके उत्कृष्ट चरम फालिस्थानोंसे नीचे दूने दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र चरम फालिस्थानोंके अन्तरालोंको छोड़कर अन्यत्र सर्वत्र ही त्रिचरम फालिविशेषस्थानोंके उत्पन्न होने तक जानकर कहना चाहिए। इस प्रकार विचरम विशेषस्थानों में प्रथम परिपाटी समाप्त हुई ।
६४०९. अब उन्हींकी दूसरी परिपाटोका कथन करते हैं। यथा-चरम, द्विचरम और त्रिचरम समयोंमें घोलमान जघन्य योगसे बन्धकर अधिकृत त्रिचरम समयमें स्थित हुए क्षपकका छह फालिस्थान घोलमान जघन्य योगसे साधिक तिगुणे मात्र अध्वान जाकर स्थित हुए एक फालिक्षपक स्थानके समान होता है, इसलिए पुनरुक्त है। अब दो फालिक्षपकके
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ सरिसं होदि त्ति पुणरुत्तं । संपहि दोफालिक्खवग तिण्णिफालिक्खवग च एगवारेण पक्खेउत्तरजोग णीदे अपुणरुत्तट्ठाणं होदि, पुबिल्लचरिमफालिट्ठाणादो दोहि चरिमफालीहि तिहि दुचरिमफालीहि एगण तिचरिमफालिविसेसेण च अहियत्तुवलंभादो। पुव्वं सरसोकदचरिमफालिट्ठाणादो उवरि दोधरिमफालिहाणाणि तिण्णिदुचरिमफालिट्ठाणाणि च बोलिय चउत्थदुचरिमफालिहाणं अपावेदूण अंतराले उप्पण्णमिदि भणिदं होदि ।
६४१०. संपहि इममेत्येव हविय एगफालिक्खवगे पक्खेउत्तरजोगं गीदे उवरिमगंथट्ठाणस्सुवरिमतिण्णिअत्थट्ठाणाणि बोलेदूण चउत्थमत्थट्ठाणमपाविय दोण्हं पि विच्चाले विदियपरिवाडीए अण्णमत्थहाणमुप्पजदि । गंथत्थट्टाणाणं को विसेसो ? ग्रंथः सूत्रं तेन साक्षादुक्तस्थानानि ग्रंथस्थानानि । अर्थस्थानानि अर्थात्सामर्थ्यादुत्पन्नानि । सूत्रेण सूचितस्थानानि अर्थस्थानानोति यावत् । एवं पक्खेउत्तरकमेण एगफालिक्खवगं वह्वाविय अत्थहाणाणि उप्पादेदूण णेदव्वं जाव उक्कस्सजोगस्स हेहा तिभागजोगं पत्तो त्ति।
६ ४११. पुणो तत्थ सवेददुचरिम-चरिम समएसु पक्खेवुत्तरतिभागजोगेण तिचरिमसमए तिभागजोगपक्खेवभागहारं रूऊणधापवत्तभागहारेण खंडेदण तत्थ एगखंडं तिगुणं सादिरेयं तिरूवाहियं हेढा ओदरिदूण हिदजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमए
भौर तीन फालिक्षपकके एक बार में प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त करने पर अपुनरुक्त स्थान होता है; क्योंकि पहलेके चरम फालिस्थानसे दो चरम फालि, तीन द्विचरम फालि और एक त्रिचरम फालिविशेषरूपसे अधिकता उपलब्ध होती है। पहले समान किये गये चरम फालिस्थानसे ऊपर दो चरम फालिरथानोंको और तीन द्विचरम फालिस्थानोंको बिताकर चतुर्थ द्विचरम फालिस्थानको नहीं प्राप्तकर अन्तरालमें उत्पन्न हुआ है यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
$ ४१०. अब इसे यहीं पर स्थापित कर एक फालिक्षपकके प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त करने पर उपरिम ग्रन्थस्थानके उपरिम तीन अर्थस्थानोंको बिताकर चतुर्थ अर्थस्थानको नहीं प्राप्त कर दोनोंके ही मध्यमें द्वितीय परिपाटीके अनुसार अन्य अर्थस्थान उत्पन्न होता है ।
शंका-ग्रन्थस्थान और अर्थस्थानमें क्या विशेष है ? .समाधान-ग्रन्थ सूत्रको कहते हैं। उसके आश्रयसे साक्षात् कहे गये स्थान ग्रन्थस्थान कहलाते हैं। तथा अर्थसे अर्थात् सामर्थ्यसे उत्पन्न हुए स्थान अर्थस्थान कहलाते हैं। सूत्रसे सूचित हुए स्थान अर्थस्थान हैं यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
इस प्रकार एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे एक फालिक्षपकको बढ़ाकर अर्थस्थानोंको उत्पन्न कराकर उत्कृष्ट योगके नीचे त्रिभाग योगके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए। .
६४११. पुनः वहां पर सवेदभागके द्विचरम और चरम समयमें तथा प्रक्षेप अधिक त्रिभाग योगसे त्रिचरम समयमें त्रिभाग योगके प्रक्षेप भागहारको एक कम अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजितकर वहां तिगुणे साधिक एक खण्डको तीन रूप अधिक नीचे उतरकर स्थित हुए योगसे बन्धकर अधिकृत त्रिचरम समयमें स्थित हुआ क्षपकस्थान एक फालिस्वामीके
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गा २२
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं हिदखवगहाणं एगफालिसामिणो उक्कस्सगत्थट्ठाणादोहेडिमदरूऊणअधापवत्तभागहारमेत्तदुचरिमफालिहाणेसु तदियादो उवरि चउत्थादो हेहा उप्पञ्जदि ति एगफालिक्खवगस्स हेहिमसव्वगथहाणंतरेसु विदियपरिवाडीए तिचरिमफालिविसेसहाणाणि उप्पण्णाणि त्ति घेत्तव्वं । एवं उवरि वि जाणिदूण णेदव्वं जाव तिभागूणुकस्सजोगो त्ति । एत्यंतरे तिण्णिफालिसामिणो उकस्सगत्थडाणादो हेहा सव्वत्थ विदियपरिवाडीए तिचरिमफालिविसेसहाणाणि उप्पजंति, सवेदचरिम-दुचरिमसमएसु पक्खेउत्तरतिभ गूणजोगे तिचरिमसमए उकस्सजोगपक्खेवभागहारं रूऊणधापवत्तभागहारेण खंडिय तत्थेगखंडं विसेसाहियं हेहा ओदरिदूण द्विदजोगट्टाणेण बंधाविय अधियारतिचरिमसमए अवडिदक्खवगहाणस्स तिण्णिफालिक्खवगुकस्सगत्थट्ठाणस्स हेडिमअंतरे समुप्पत्तिदंसणादो।
४१२. पुणो गफालिक्खवगो पक्खेउत्तरकमेण वढावेदव्वो जावुक्कस्सजोग पसो त्ति । एवं वड्डाविय पुणो गत्यहाणेण सह सरिसं कादण एत्थतणकिरियाकप्पो उच्चदे । तं जहा-सवेददुचरिमसमए उकस्सजोगेण चरिम-तिचरिमसमएसु तिभागूणुक्कस्सजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमए अवटिदखवगहाणं पुग्विल्लगंथहाणादो विसेसाहियं, चडिदद्धाणमेत्तदुचरिमफालीणं अहियत्तुवलंभादो। संपहि समीकरणटुं रूऊणधापवत्तभागहारेणोवट्टिदचडिदद्धाणमेगफालिक्खवगो ओदारेदव्यो । एवमोदारिय
उत्कृष्ट ग्रन्थस्थानसे नीचे दो रूप कम अधप्रवृत्तभागहारमात्र द्वि चरम फालिस्थानों में तृतीयसे ऊपर और चतुर्थसे नीचे उत्पन्न होता है, इसलिए एक फालिक्षपकके अधस्तन सब प्रन्थस्थानोंके अन्तरालोंमें द्वितीय परिपाटीके अनुसार त्रिनरिम फालिविशेषस्थान उत्पन्न हुए हैं ऐसा यहाँ पर ग्रहण करना चाहिए। तथा इसी प्रकार ऊपर भी त्रिभाग कम उत्कृष्ट योगके प्राप्त होने तक जानकर ले जाना चाहिए। यहां अन्तरालमें तीन फालिस्वामीके उत्कृष्ट प्रन्थस्थानसे नीचे सर्वत्र द्वितीय परिपाटीके अनुसार त्रिचरम फालिविशेषस्थान उत्पन्न होते हैं, क्योंकि सवेदभागके चरम और द्विचरम समयमें प्रक्षेप अधिक त्रिभाग योगरूप त्रिचरम समयमें उत्कृष्ट योग प्रक्षेपभागहारको एक कम अधःप्रवृत्त भागहारसे भाजितकर वहां विशेष अधिक एक खण्ड नीचे उतरकर स्थित हुए योगस्थानके द्वारा बन्ध कराकर अधिकृत त्रिचरम समयमें अवस्थित हुए क्षपकस्थानकी तीन फालिक्षपकसम्बन्धी उत्कृष्ट ग्रन्थस्थानके नीचे अन्तरालमें उत्पत्ति देखी जाती है।
६४१२. पुनः एक फालिक्षपकको एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे उत्कृष्ट योगके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाकर पुनः मन्थस्थानके साथ सहश करके यहों के क्रियाकल्पका कथन करते हैं। यथा-सवेद भागके द्विचरम समयमें उत्कृष्ट योगसे तथा चरम और त्रिचरम समयमें त्रिभाग कम उत्कृष्ट योगसे बन्धकर अधिकृत त्रिचरम समयमें अवस्थित क्षपकस्थान पहलेके ग्रन्थस्थानसे विशेष अधिक है, क्योंकि आगे गये हुए अध्वानमात्र द्विचरम फालियोंकी अधिकता उपलब्ध होती है। अब समीकरण करनेके लिए एक कम अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित आगे गये हुए अध्वानमात्र एक फालिक्षपकको उतारना चाहिए।
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जयधबलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ पुणो उक्कस्सजोगट्ठाणादो दोफालिक्खवगे दुरूऊणधापवत्तभागहारमेत्तमोदिण्णे तिण्णिफालिक्खवगे च तिभागूणुकस्सजोगादो रूऊणधापवत्तभागहारमेत्तमोदिण्णे दगुणअधापवत्तभागहारमेत्तगंथहाणाणि पल्लट्ठति । एवं पल्लट्टाविय पुणो दोफालिक्खवगे तिण्णिफालिक्खवगे च एगवारेण पक्खेउत्तरजोगणीदे दोगत्यहाणाणि तिणि दुचरिमफालिहाणाणि च बोलेदूण चउत्थमपाविय दोहं अंतराले तिचरिमफालिविसेसट्ठाणमुप्पादि।
४१३. संपहि इमे दो वि क्खवगे एत्थेव हविय पुणो एगफालिक्खवगो पक्खेउत्तरकमेण वड्ढावेदव्यो जाउक्कस्सजोगं पत्तो त्ति । एवं वड्डाविय पुणो गंत्थट्ठाणेण सरिसं करिय द्विदट्ठाणादो सवेदचरिमसमए उक्कस्सजोगेण तिचरिमसमए तिभागूणुक्कस्सजोगेण दुचरिमसमए वि उक्कस्सजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमए अवहिदखवगट्ठाणं विसेसाहियं,चडिदद्धाणमेत्तदचरिम-तिचरिमफालीहि अहियत्तुवलंभादो। पुणो एदाओ चरिमफालिपमाणेण करिय चरिमफालिसलागमेत्तजोगहाणाणि एगफालिक्खवग हेढा ओदारिय तिण्णिफालिक्खवग उक्कस्सजोगहाणादो रूऊणधापवत्तभागहारमेत्तं दोफालिक्खवगे दरूऊणअधापवत्तभागहारं हेहा ओदिण्णे पुव्वं णियत्ताविदगत्थट्टाणमुप्पजदि । पुणो दुचरिम-तिचरिमसमयसवेदेसु पक्खेउत्तरजोग णीदेसु पुव्वं णियत्ताविदमत्थट्ठाणमुप्पञ्जदि।
४१४. संपहि इमे एत्थेव दृविय पुणो एगफालिक्खवगो पक्खेउत्तरादिकमेण इस प्रकार उतारकर पुनः उत्कृष्ट योगस्थानसे दो फालिक्षपकके दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र उतारने पर और तीन फालिक्षपकके त्रिभाग कम उत्कृष्ट योगसे रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र उतारने पर द्विगुणे अधःप्रवृत्तभागहारमात्र ग्रन्थस्थान बदलते हैं। इस प्रकार बदलवाकर पुनः दो फालिक्षपकके और तीन फालिक्षपकके एक बारमें प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त कराने पर दो ग्रन्थस्थानोंको और तीन द्विचरम फालिस्थानोंको बिताकर चतुर्थको नहीं प्राप्तकर दोनोंके अन्तरालमें विचरम फालिविशेषस्थान उत्पन्न होता है।
४१३, अब इन दोनों क्षपकोंको यहीं पर स्थापितकर पुनः एक फालिक्षपकको प्रक्षेप अधिकके क्रमसे उत्कृष्ट योगके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाकर पुनः ग्रन्थस्थानके समान करके स्थित हुए स्थानसे सवेद भागके चरम समयमें उत्कृष्ट योगसे त्रिचरम समयमें त्रिभाग कम उत्कृष्ट योगसे और द्विचरम समयमें भी उत्कृष्ट योगसे बन्ध करके अधिकृत त्रिचरम समयमें अवस्थित क्षपकस्थान विशेष अधिक है, क्योंकि आगे गये हुए अध्वानमात्र द्विचरम और त्रिचरम फालियोंके द्वारा अधिकता उपलब्ध होती है। पुनः इनको चरमफालिके प्रमाणसे करके चरम फालिशलाकामात्र योगस्थानोंको एक फालिक्षपक नीचे उतारकर तीन फालिक्षपकके उत्कृष्ट योगस्थानसे एक कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र दो फालिक्षपकके दो रूपकम अधःप्रवृत्तभागहार नीचे उतारने पर पहले निवृत्त कराया गया ग्रन्थस्थान उत्पन्न होता है। पुनः द्विचरम और त्रिचरमसमयवर्ती सवेदीके प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त कराने पर पहले निवृत्त कराया गया अर्थस्थान उत्पन्न होता है।
६४१४. अब इन्हें यहीं पर स्थापित कर पुनः एक फालि क्षपकको एक एक प्रक्षेप
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मा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
वावेदव्व जाव उक्क सजोगं पत्तो त्ति । एवं वड्डाविदे छप्फालिक्खवगुकस्सगंथहाणादो तिरूऊणद्गुण अधापव सभागहारमेतगंत्थद्वाणाणं विच्चालाणि मोत्तण सेसासेस' त्थद्वाणविश्वासु अत्थट्ठाणाणि समुप्पण्णाणि । संपहि दसफा लिक्खवगहाण देण ठाणेण समाणं घेत्तूण पुव्यविहाणेण वड्डावेदव्वं जावप्पणो उक्करसोग पत्तं ति । णवरि एत्थतणउक्कस्सजोगहाणादो हेडा तिरूऊणद्गुणधापवत्तभागहारमे त्तगंत्थद्वाणविश्वालाणि मोतून सेसासेसर्गत्थङ्काणविचालेसु अत्थहाणाणि समुप्पण्णाणि । एवमुवरि वि जाणिदूण बड्ढावेदव्वं जाव दुसमयूणदो आवलियमेत्तसमयपबद्धा उक्कस्सजोगं पत्ता त्ति । एवं वड्ढा विदे दसमयूणदो आवलियमे च समयपबद्धाणमुकस्सगंत्थद्वाणादो तिरूऊणदुगुणधापवत्त भागहारमेत गंथठाणविच्चालाणि मोत्तूण सेसासेसविच्चाले तिचरिमफालि विसेसद्वाणाणि समुप्पण्णाणि त्ति दट्ठव्वं । एवं विदियपरिवाडी समत्ता । ६४१५. संपहि तिस्से चैव तदियपरिवाडी उच्चदे - सवेदच रिम- दुचरिम - तिचरिमसमएसु समयाविरुद्धघोलमाणजहण्णजोगेण बद्धछप्फा लिखवगगंत्थद्वाणं तिगुणं सादिरेयं गंतूण दिगंथट्ठाणेण समाणत्तादो पुणरुत्तं । पुणो तिणिफालिक्खवगे पक्खेउत्तरजोगं दोफालिखवगे च दुपक्खेउत्तरजोगं णोदे अपुणरुत्तद्वाणं होदि, तिण्हं चरिमफालीणं चदुहं दुचरिमफालीणं एकस्स तिचरिमफालिविसेसस्स च अहियत्तुवलंभादो | तिण्णिगंथट्ठाणाणि चत्तारिदुचरिमफालिट्ठाणाणि च बोलेदूण पंचमदुचरिमप्फालिद्वाणस्स
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अधिक क्रमसे उत्कृष्ट योगके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए । इस प्रकार बढ़ाने पर छह फाक्षिपक उत्कृष्ट ग्रन्थस्थानसे नीचे तीन रूपकम द्विगुणे अधःप्रवृत्तभागहारमात्र ग्रन्थस्थानों के अन्तरालोंको छोड़कर शेष समस्त ग्रन्थस्थानोंके अन्तरालोंमें अर्थस्थान उत्पन्न हुए | अब दस फालिक्षपकस्थानको इस स्थानके समान ग्रहणकर पूर्व विधिसे अपने उत्कृष्ट योगके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। इतनी विशेषता है कि यहां के उत्कृष्ट योगस्थान से नीचे तीन रूपकम दुगुणे अधःप्रवृत्तभागहारमात्र ग्रन्थस्थानोंके अन्तरालोंको छोड़कर शेष समस्त ग्रन्थस्थानोंके अन्तरालों में अर्थस्थान उत्पन्न हुए हैं । इसी प्रकार ऊपर भी जानकर तब तक बढ़ाना चाहिए जब जाकर दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्ध उत्कृष्ट योगको प्राप्त हुए । इस प्रकार बढ़ाने पर दो समयक्रम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धों के उत्कृष्ट ग्रन्थस्थानसे नीचे तीन रूप कम दूने अधः प्रवृत्तभागहारमात्र ग्रन्थस्थानोंके अन्तरालोंको छोड़कर शेष समस्त अन्तरालों में त्रिचरम फालिविशेषस्थान उत्पन्न हुए हैं ऐसा जानना चाहिए। इस प्रकार दूसरी परिपाटी समाप्त हुई ।
$ ४१५. अब उसीकी तृतीय परिपाटीका कथन करते हैं - सवेद भागके चरम, द्विचरम और त्रिचरम समयों में यथाशास्त्र घोलमान जघन्य योगसे बाँधा गया छह फालिक्षपक ग्रन्थस्थान तिगुणासाधिक जाकर स्थित हुए ग्रन्थस्थानके समान होने से पुनरुक्त है । पुनः तीन फालिक्षपकके प्रक्षेप अधिक योगको और दो फालिक्षपकके दो प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त करने पर अपुनरुक्त स्थान होता है, क्योंकि तीन चरम फालि, चार द्विचरम फालि और एक त्रिचरम फालि विशेष अधिक उपलब्ध होते हैं। तीन ग्रन्थस्थानोंको और चार द्विचरम फालस्थानोंको बिताकर पाँचवें द्विचरम फालिस्थानके नीचे उत्पन्न हुआ है यह उक्त कथनका
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जयधवलासहिदे फसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ हेट्ठा उप्पण्णमिदि भावत्थो। संपहि एदे एत्थेव ढविय पुणो एगफालिखवगो वेव पुषविहाणेण सव्वसंधीओ जाणिय वड्ढावेदव्वो जाव दुसमयूणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धा उक्कस्सजोगं पत्ता त्ति । एवं वड्डाविदे दुसमयूणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धाणमुक्कस्सगंथहाणादो हेट्ठा चदुरूऊणदगुणधापवत्तभागहारमेत्तगंथहाणविच्चालाणि मोत्तण सेसासेस विच्चालेसुतदियपरिवाडीए हाणाणि समुप्पण्णाणि । एवं तदियपरिवाडी समत्ता।
४१६. संपहि चउत्थपरिवाडी उच्चदे-सवेदचरिम-दचरिम-तिचरिमसमएसु समयाविरुद्धघोलमाणजहण्णजोगेण बद्धछप्फालिपखवगहाणं सादिरेयतिगुणजोगहाणेण बद्धगफालिखवगगंथहाणेण समाणत्तादो पुणरुतं । संपहि एगफालिक्खवगं तत्थेव हविय तिण्णिफालिक्खवग पक्खेउत्तरजोग णेदूण दोफालिक्खवगे तिपक्खेउत्तरजोग णीदे अपुणरुत्तहाणं होदि, चत्तारिचरिमफालिढाणाणि पंचदुचरिमफालिट्ठाणाणि च बोलेदूण छट्ठदुचरिमफालिढाणस्स हेट्ठा समुप्पण्णत्तादो। संपहि एदे एत्थेव हविय एगफालिक्खवगो पक्खेउत्तरकमेण बढावेदव्वो जाव जहण्णजोगहाणादो असंखेजगुणं जोग पत्तो त्ति । एवं सव्वसंधीओ जाणिदूण णेदव्वं जाव दुसमयणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धा उक्कस्सजोगं पत्ता त्ति । एवं णीदे दुसमयूणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धाणमुक्कस्सगंथहाणादो हेट्टा पंचरूऊणदगुणअधापवत्तभागहारमत्तगंथहाणाणं विच्चालाणि मोत्तण अण्णत्थ सव्वत्थ वि अपुणरुत्तहाणाणि समुप्पण्णाणि । एवं चउत्थपरिवाडी समत्ता । एवमेगफालिखवगं
तात्पर्य है। अब इन्हें यहीं पर स्थापित कर पुनः एक फालिक्षपकको ही पूर्व विधिसे सब सन्धियोंको जानकर दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंके उत्कृष्ट योगको प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाने पर दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धों के उत्कृष्ट ग्रन्थस्थानसे नीचे चार रूप कम दुगुणे अधःप्रवृत्तभागहारमात्र ग्रन्थस्थानोंके अन्तरालोंको छोड़कर शेष समस्त अन्तरालोंमें तृतीय परिपाटीके स्थान हुए। इस प्रकार तृतीय परिपाटी समाप्त हुई।
४१६. अव चतुर्थ परिपाटीका कथन करते हैं-सवेद भागके चरम, द्विचरम और त्रिचरम समयोंमें यथाशास्त्र घोलमान जघन्य योगसे बाँधा गया छह फालि क्षपक्रस्थान साधिक तिगुने योगस्थानसे बाँधे गये एक फालिक्षपक ग्रन्थस्थानके समान होनेसे पुनरुक्त है। अब एक फालिक्षपर को वहीं पर स्थापित कर तीन फालिक्षपकको प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त कराकर दो फालिक्षपकके तीन प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त करने पर अपुनरुक्त स्थान होता है, क्योंकि चार चरम फालिस्थानोंको और पाँच द्विचरम फालिस्थानोंको बिताकर छह द्विचरम फालिस्थानके नीचे उत्पन्न हुआ है। अब इन्हें यहीं पर स्थापित कर एक फालिक्षपकको एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे जघन्य योगस्थानसे असंख्यातगुणे योगके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार सब सन्धियोंको जानकर दो समयकम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंके उत्कृष्ट योगको प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए। इस प्रकार ले जाने पर दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंके उत्कृष्ट ग्रन्थस्थानसे नीचे पाँच रूप कम दुगुणे अधःप्रवृत्तभागहारमात्र ग्रन्थस्थानों के अन्तरालोंको छोड़कर अन्यत्र सर्वत्र ही अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न हुए। इस प्रकार चतुर्थ परिपाटी समाप्त हुई। इस प्रकार एक
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्त तिण्णिफालिक्खवगं च परिवाडीए जहण्णजोगपक्खेवउत्तरजहण्णजोगेसु हविय पुणो दोफालिक्खवग एगेगपरिवाडि पडि चदपक्खेउत्तरादिजोगणेदूण पंचमादिपरिवाडीओ उप्पादेदव्वाओ जाव दुरूऊणधापवत्तभागहारमेत्तपरिवाडीओ समत्ताओ त्ति । ____४१७. संपहि सव्वपच्छिमपरिवाडी उच्चदे। तं जहा—सवेदचरिम दुचरिमतिचरिमसमएसु घोलमाणजहण्णजोगेण बद्धछप्फालीओ सादिरेयतिगुणमेत्तजोगट्ठाणेण बद्धएगफालिक्खवगट्ठाणेण समाणाओ त्ति पुणरुत्ताओ। पुणो तिण्णिफालिक्खवगं पक्खेउत्तरजोग णेदूण दोफालिक्खवगमेगवारेण दुरूऊणधापवत्तभागहारमेत्तजोगहाणं णीदे अपुणरुत्तहाणं होदि, अधापवत्तभागहारमत्तचरिमफालीहि एगतिचरिमफालीए च अहियत्तुवलंभादो । संपहि इमे एत्थेव दृविय एगफालिक्खवगो चेव पक्खेउत्तरादिकमेण वड्डाविय णेदव्वो जाव तप्पाओग्गमसंखेजगुणं जोग पत्तो त्ति । एवमुवरि सव्वसंधीओ जाणिदण णेदव्वं जाव दुसमयूणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धा उक्कस्सजोग पत्ता त्ति । एवं वड्डाविदे दुसमयूणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धाणं उक्कस्सगंथहाणादो हेट्ठा रूऊणधापवत्तभागहारमेत्तगंथहाणाणमंतराणि मोत्तूण पुणो हेडिमासेसहाणंतरेसु तिचरिमफालिविसेसटाणाणि समुप्पण्णाणि । एवमेसा पढमपरूवणा समत्ता।।
६४१८. संपहि दोणितिचरिमविसेसे अस्सिदूण द्वाणपरूवणं कस्सम्मो । तं जहा-छप्फालिक्खवगट्टाणमेगफालिक्खवगट्ठाणेण सरिसं काऊण पुणोतिण्णिफालिक्खवगे फालिक्षपकको और तीन फालिक्षपकको परिपाटीक्रमसे जघन्य योग प्रक्षेप अधिक जघन्य योगोंके ऊपर स्थापित कर पुनः दो फालिक्षपकको एक एक परिपाटीके प्रति चार प्रक्षेप अधिक आदि योगको ले जाकर पञ्चम आदि परिपाटियोंको दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र परिपाटियोंके समाप्त होने तक उत्पन्न कराना चाहिए।
६४१७. अब सबसे अन्तिम परिपाटी का कथन करते हैं। यथा-सवेद भागके चरम, द्विचरम और त्रिचरम समयोंमें घोलमान जघन्य योगसे बद्ध छह फालियाँ साधिक तिगुणेमात्र योगस्थानसे बद्ध एक फालिक्षपकस्थानके समान हैं, इसलिए पुनरुक्त हैं। पुनः तीन फालिक्षपकको प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त करा कर दो फालिक्षपकको एक बारमें दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र योगस्थानको प्राप्त कराने पर अपुनरुक्त स्थान होता है, क्योंकि अधःप्रवृत्तभागहारमात्र चरम फालियाँ और एक त्रिचरम फालि अधिक पाई जाती हैं। अब इन्हें यहीं पर स्थापित कर एक फालिक्षपकको ही एक एक प्रक्षेप अधिक आदिके क्रमसे तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योगके प्राप्त होने तक बढ़ा कर ले जाना चाहिए । इस प्रकार ऊपर सब सन्धियोंको जानकर दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंके उत्कृष्ट योगको प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाने पर दो समयकम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंके उत्कृष्ट ग्रन्थस्थानसे नीचे एक कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र ग्रन्थस्थानोंके अन्तरालोंको छोड़कर पुनः नीचेके अशेष स्थानोंके अन्तरालोंमें त्रिचरम फालिविशेषस्थान उत्पन्न हुए। इस प्रकार यह प्रथम प्ररूपणा समाप्त हुई।
६४१८. अब दो त्रिचरम विशेषोंका आश्रय कर स्थानोंका कथन करते हैं। यथा-छह फालिक्षपकस्थानको एक फालिक्षपकस्थानके साथ समान करके पुनः तीन फालिक्षपकके अक्रमसे
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यिपाहुडे
३६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे
[पदेसविहत्ती ५ अकमेण दुपक्खेउत्तरजोग' गीदे अपुणरुत्तट्ठाणं होदि, दोण्णिचरिमफालियाहि चत्तारिदुचरिमकालियाहि दोतिचरिमफालिविसेसेहि अहियत्तुवलंभादो । संपहि इमं तिण्णिफालिक्खवगमेत्येव दृविय एगफालिक्खवगो पक्खेउत्तरादिकमेण वड्डावेदव्यो । एवं सव्वसंधीओ जाणिय सरिसं करिय ताव वत्तव्वं जाव दुसमयणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धा उकस्सजोग पत्ता ति । एवं दोण्हं तिचरिमविसेसहाणाणं परूवणाए पढमपरिवाडी समत्ता।
___४१९. संपहि विदियपरिवाडी उच्चदे । तं जहा—तिण्णिफालिक्खवर्ग दुपक्खेउत्तरजोगणेदण दोफालिक्खवगे पक्खेउत्तरं जोगणीदे अण्णमपुणरुत्तहाणं होदि । एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव विदियपरिवाडी समत्ता त्ति । संपहि तदियपरिवाडी उच्चदे । तं जहा-एगफालिट्ठाणेण छप्फालिट्ठाणं सरिसं करिय अकमेण तिण्णिफालिक्खवगे दोफालिक्खवगे च दुपक्खेउत्तरजोग णीदे अण्णमपुणरुत्तट्ठाणं होदि । पुणो एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव दुरूऊणधापवत्तभागहारमेत्ततिचरिमविसेसहाणाणं परिवाडीओ गदाओ त्ति ।
४२०. संपहि तत्थ सव्वपच्छिमतिचरिमफालिविसेसट्टाणपरिवाडी उच्चदे । तं जहा-सवेदतिचरिमसमए दुचरिमसमए च घोलमाणजहण्णजोगेण बंधिय चरिमसमए दुरूवूणधापवत्तभागहारमेत्तमुवरि चडिदूण हिदजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमए
दो प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त करने पर अपुनरुक्तस्थान होता है, क्योंकि दो चरम फालियाँ, चार द्विचरम फालियाँ और दो त्रिचरम फालिविशेष अधिक पाये जाते हैं। अब इस तीन फालिक्षपकको यहीं पर स्थापित कर एक फालिक्षपकको प्रक्षेप अधिक आदिके क्रमसे बढाना चाहिए। इस प्रकार सब सन्धियोंको जानकर और समान करके दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंके उत्कृष्ट योगको प्राप्त होने तक कथन करना चाहिए। इस प्रकार दो त्रिचरम विशेषस्थानोंकी प्ररूपणा करने पर प्रथम परिपाटी समाप्त हुई।
६४१९. अब द्वितीय परिपाटीका कथन करते हैं। यथा--तीन फालिक्षपकको दो प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त कराकर दो फालिलपकके प्रश्लेप अधिक योगको ; अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। इस प्रकार द्वितीय परिपाटीके समाप्त होने तक जानकर ले जाना चाहिए। अब तृतीय परिपाटीका कथन करते हैं। यथा-एक फालिस्थानके साथ छह फालिस्थानको समान करके अक्रमसे तीन फालिक्षपकके और दो फालिक्षपकके दो प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त करने पर अन्य अपुनरुक्त स्थान होता है। पुनः इस प्रकार जानकर दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र त्रिचरम विशेषस्थानांकी परिपाटि योंके जाने तक ले जाना चाहिए।
६४२०. अब वहाँ सबसे अन्तिम त्रिचरम फालिविशेषस्थानपरिपाटीका कथन करते हैं। यथा-सवेदभागके त्रिचरम समयमें और द्विचरम समयमें घोलमान जघन्य योगसे बन्ध करके चरम समयमें दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र ऊपर चढ़कर स्थित हुए योगसे बन्ध कर अधिकृत त्रिचरम समयमें स्थित हुआ छह फालिक्षपकस्थान अपुनरुक्त है,
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामितं
अपुणरुत्तं,
छिप्फा लिक्खवगड्डाणं दुरूवूणअधापवत्तभागहारमेतचरिम-दचरिमतिचरिमेहि अहियत्वभादो । संपहि दुरूऊणधापवत्तभागहारमेत्त तिच रिमफालिविसेसेसु अवणेदृण बुध दृविदेसु अवसेसाओ दुचरिमँफालीओ दुरूऊणद्गुण अधापव सभागहारमेताओ त्ति । तत्थ रूऊणअधापवत्तभागहारमेत्तदुचरिमफालियाहि एग चरिमफालिपमाणं होदि त्ति दुरूऊण अधापवत्तभागहारमेतचरिमफालियासु पक्खित्तासु सरिसीकदर्गथट्ठाणादो उवरि तावदिमं गंथट्ठाणमुप्पञ्जदि । पुणो सेसतिरूऊणअधापवत्त भागहारमेत्तदुचरिमफालियासु संपहि उप्पण्णगंथद्वाणस्सुवरि पक्खित्तासु तत्तियाणि चैव दचरिमफालिडाणाणि उप्पजंति । पुणो तत्थ अवणेण विददुरूवूणधापवत्तभागहारमे ततिचरिमफालि विसेसेसु परिवाडीए पक्खिते तावदियाणि चैव तिचरिमफालिविसेस द्वाणाणि उप्पअंति । तम्हा एवं द्वाणमपुणरुतं ।
$ ४२१. संपहि तिणिफालिक्खवगमेत्थेव हविय पुणो एगफालिक्खवगो पक्खे उत्तर- दुपक्खे उत्तरकमेण वढावेदव्वो जाव तप्पा ओग्गमसंखेअगुणं जोगं पत्तोति । संपहि उवरि वढावे सक्किजदे, विदियादिसमएसु जहण्णजोगेण परिणमणोवायाभावादो । संपहिएदम्मि गंथद्वाणसमाणे कदे रूऊणअधापव त्तभागहारमेत्तगंथ द्वाणाणि णियत्तंति । एवं णियत्ताविदद्वाणेण सरिसङ्काणपरूवणवमिदमुवक्कमदे । तं जहा - स - सवेददुचरिमसमए तप्पा ओग्गअसंखेजगुण जोगेण चरिम - तिचरिमसमएसु घोलमाणजहण्णजोगेण बंधिय
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क्योंकि दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र चरम, द्विचरम और त्रिचरमकी अपेक्षा अधिकता उपलब्ध होती है । अब दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र त्रिचरम फालिविशेषको निकाल कर पृथक् स्थापित करने पर अवशेष द्विचरम फालियाँ दो रूप कम दुगुनी अधःप्रवृत्तभागहारमात्र हैं। वहाँ एक कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र द्विचरम फालियोंका अवलम्बन लेकर एक चरम फालिका प्रमाण होता है, इसलिए दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र चरम फाज़ियोंके प्रक्षिप्त करने पर सदृश किये गये ग्रन्थस्थान से ऊपर तावत्प्रमाण ग्रन्थस्थान उत्पन्न होता है । पुनः शेष तीन रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र द्विचरम फालियोंके इस समय उत्पन्न
ग्रन्थस्थानके ऊपर प्रक्षिप्त करने पर उतने ही द्विचरम फालिस्थान उत्पन्न होते हैं । पुनः निकाल कर स्थापित किए गये दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र त्रिचरम फालिविशेषों को परिपाटी के क्रमसे प्रक्षिप्त करने पर उतने ही त्रिचरम फालिविशेषस्थान उत्पन्न होते हैं, इसलिए यह स्थान अपुनरुक्त है ।
९४२२. अब तीन फालिक्षपकको यहीं पर स्थापित करके पुनः एक फालिक्षपकको प्रक्षेप अधिक और दो प्रक्षेप अधिकके कमसे तत्रायोग्य असंख्यातगुणे योगके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। अब ऊपर बढ़ाना शक्य नहीं है, क्योंकि द्वितीय आदि समयों में जघन्य योग से परिणमनका उपाय नहीं पाया जाता। अब इसे ग्रन्थस्थानके समान करने पर एक कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र ग्रन्थस्थान निवृत्त होते हैं । इस प्रकार निवृत्त कराये गये स्थानके समान स्थानका कथन करनेके लिए इसका उपक्रम करते हैं । यथा - सवेद भागके द्विचरम समय में वत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योगसे चरम और त्रिचरम समयों में
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जयपवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ अधियारतिचरिमहिदक्खवगहाणं पुव्विल्लट्ठाणादो विसेसाहियं, चडिदद्धाणमेत्तदुचरिमफालीणमहियत्तवलंभादो। पुणो अधापवत्तभागहारेणोपट्टिदचडिदद्धाणमेत्तं दोफालिक्खवगे ओदारिदे गंथट्ठाणसमाणं होदि । एवं सरिसं कादूण तिण्णिफालिक्खवगे दुरूऊणअधापवत्तभागहारमेत्तजोगणीदे पुव्वं णियत्ताविदहाणमुप्पादि।। __ ४२२. संपहि एदमेत्थेव दुविय पुणो एगफालिक्खवगो चेव जाणिदण वड्ढावेदव्वो जावुक्कस्सजोगट्ठाणादो हेडिमतिभागजोग पत्तो त्ति । एवं वड्डाविजमाणे एग-दो-तिण्णिफालिक्खवगेसु कम्हि कम्हि जोगहाणे अवद्विदेसु एगफालिसामिणो उकस्सहाणादो हेडिमसव्वअंतरेसु अपयदअत्यहाणाणि उप्पअंति तिचे तिण्णिफालिक्खवमे तिभागजोगट्ठाणादो उवरि दुरूऊणअधापवत्तभागहारमेत्तपक्खेवाहियजोगहाणे एगफालिक्खवगे रूऊणअधापवत्तभागहारेणोवट्टिदतिभागजोगपक्खेवभागहारं तिगुणं सादिरेयं। पुणो अधापवत्तभागहारमेत्तं च हेढा ओदरिय द्विदजोगट्ठाणे दोफालिक्खवगे तिभागजोगम्मि वट्टमाणे एगफालिसामिणो उक्कस्सगंथट्ठाणादो हेट्ठिमसव्वट्ठाणंतरेसु पच्छिमतिचरिमफालिविसेसट्ठाणाणि उप्पजंति । एवमुवरि सव्वसंधीओ जाणिय सरिसं करिय णेदव्वं जाव दुसमयणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धा उक्कस्सजोग पत्ता त्ति । एवं वड्डाविदे दुसमयूणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धाणमुक्कस्सगंथट्ठाणादो हेडिमरूऊणअधापवत्तभागहारमेत्तगंथट्ठाणविच्चालाणि मोत्तूण सेसासेसविच्चालेसु पयदअत्थट्ठाणाणि घोलमान जघन्य योगसे बन्ध कराकर अधिकृत त्रिचरम समयमें स्थित हुआ क्षपकस्थान पहलेके स्थानसे विशेष अधिक है, क्योंकि आगे गये हुए अध्वानमात्र द्विचरम फालियोंकी अधिकता उपलब्ध होती है। पुनः अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित आगे
: अध्वानमात्र दो फालिक्षपकके उतारने पर ग्रन्थस्थानके समान होता है। इस प्रकार सदृश करके तीन फालिक्षपकके दो रूप कम अधःप्रवृत्त भागहारमात्र योगको प्राप्त कराने पर पहले निवृत्त कराया गया स्थान उत्पन्न होता है।
६ ४२२. अब इसे यहीं पर स्थापित कर पुनः एक फालिक्षपकको ही जानकर उत्कृष्ट योगस्थानसे अधस्तन त्रिभाग योगको प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए । इस प्रकार बढ़ाने पर एक, दो
और तीन फालिक्षपकोंके किस किस योगस्थानमें अवस्थित होने पर एक फालिस्वामीके उत्कृष्ट स्थानसे अधस्तन सब अन्तरालोंमें अप्रकृत अर्थस्थान उत्पन्न होते हैं, इसलिए तीन फालिक्षपकके त्रिभाग योगस्थानसे ऊपर दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र प्रक्षेप अधिक योगस्थानरूप एक फालिक्षपकके रहते हुए एक कम अधःप्रवृत्तभागहारसे भाजित त्रिभाग योग प्रक्षेपभागहार साधिक तिगुणा होता है। पुनः अधःप्रवृत्तभागहारमात्र नीचे उतरकर स्थित हुए योगस्थानमें दो फालिक्षपकके त्रिभाग योगमें वर्तमान रहते हुए एक फालिस्वामीके उत्कृष्ट ग्रन्थस्थानसे अधस्तन सर्व स्थानोंके अन्तरालमें अन्तिम त्रिचरम फालिविशेषस्थान उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार ऊपर सब सन्धियोंको जानकर और सदृश करके दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंके उत्कृष्ट योगको प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाने पर दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंके उत्कृष्ट ग्रन्थस्थानसे अधस्तन एक कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र ग्रन्थस्थानोंके अन्तरालोंको छोड़कर शेष समस्त अन्तरालोंमें
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
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समुपणाणि । एवं तिचरिमफालि विसेसद्वाणाणं सव्वपच्छिमपत्थारे पढमपरिवाडी समत्ता । $ ४२३. संपहि विदियपरिवाडी उच्चदे । तं जहा - सवेदचरिमसमए घोलमाणजहण्णजोगादो दुरूऊगअधापवत्तभागहारमे तपक्खेवाहियजोगेण दुरिमसमए एगपक्खेउत्तरजोगेण तिचरिमसमए घोलमाण जहण्णजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमए दिक्खवगट्ठाणमपुणरुत्तं । पुणो एगफालिक्खवगमेगेग पक्खे उत्तरकमेण वड्डाविय अपुणरुत्तद्वाणाणि सव्वसंधीओ जाणिय उप्पादेदव्वाणि जाव दुसमयूणदोआवलियमेत्तसमयबद्धा उक्कस्सजोगं पत्ता त्ति । एवं विदियपरिवाडी समत्ता |
$ ४२४. संपहि तदियपरिवाडी उच्चदे । तं जहा - सवेदचरिमसमए घोलमाणजहण्णजोगादो दुरूऊणअधापवत्तभागहारमेत पक्खेवुत्त रजोगेण दुचरिमसमए दुपक्खेउत्तरजोगेण तिचरिमसमए घोलमाणजहण्णजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमए दिखवगहाणमपुणरुचं होण तदियपरिवाडीए आदिमं होदि । पुणो एगफा लिक्खवगमेगेगपक्खे उत्तरकमेण वड्डाविय सव्वसंधीओ अवहारिय णेदव्वं जाव दुसमयूणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धा उकस्सजोग' पत्ता त्ति । एवं वड्डाविदे तदियपरिवाडी समप्पदि । संपहि चउत्थ-पंचमादिपरिवाडीसु भण्णमाणासु तिण्णिफालिक्खवगं दुरूऊणअधापवत्तभागहारमेत पक्खे उत्तरजहण्णजोगम्मि चैव दुविय दोफालिक्खवर्ग परिवार्डि पडि
प्रकृत अर्थस्थान उत्पन्न हुए । इस प्रकार त्रिचरम फालिविशेषस्थानोंके सबसे अन्तिम प्रस्तार में प्रथम परिपाटी समाप्त हुई ।
$ ४२३. अब द्वितीय परिपाटीका कथन करते हैं । यथा - सवेदभागके चरम समय में घोलमान जघन्य योगसे और दो रूप कम अधःप्रवृत्त भागहारमात्र प्रक्षेप अधिक योगसे, द्विचरम समय में एक प्रक्षेप अधिक योगसे तथा त्रिचरम समयमें घोलमान जघन्य योगसे बन्ध कर अधिकृत त्रिचरम समय में स्थित हुआ क्षपकस्थान अपुनरुक्त है । पुनः एक फालिक्षपकको एक एक प्रक्षेप अधिक क्रमसे बढ़ाकर अपुनरुक्त स्थान सब सन्धियोंको जानकर दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धों के उत्कृष्ट योगको प्राप्त होने तक उत्पन्न कराना चाहिए। इस प्रकार दूसरी परिपाटी समाप्त हुई ।
४२४. अब तृतीय परिपाटीका कथन करते हैं । यथा - सवेद भाग के चरम समय में घोलमान जघन्य योगसे और दो रूप कम अधः प्रवृत्त भागहारमात्र प्रक्षेप अधिक योगसे, द्विचरम समय में दो प्रक्षेप अधिक योगसे तथा त्रिचरम समय में घोलमान जघन्य योगसे बन्धकर अधिकृत त्रिचरम समय में स्थित हुआ क्षपकस्थान अपुनरुक्त होकर तृतीय परिपाटीके अनुसार प्रथम होता है । पुनः एक फालिक्षपकको एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढ़ाकर सब सन्धियोंका अवधारण कर दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धों के उत्कृष्ट योगको प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए | इस प्रकार बढ़ाने पर तृतीय परिपाटी समाप्त होती है । अब चतुर्थ और पञ्चम आदि परिपाटियोंका कथन करने पर तीन फालिक्षपकको दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र प्रक्षेप अधिक जघन्य योग में ही स्थापित कर तथा दो फालिक्षपकको परिपाटीके प्रति एक एक
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ एगेगपक्खेवाहियजोगट्ठाणम्मि द्वविय णेयव्वं जाव दुरूऊणअधापवत्तभागहारमेत्तपरिवाडीओ समत्ताओ ति ।
४२५. संपहि तत्थ सव्वपच्छिमपरिवाडी उच्चदे। तं जहासवेदतिचरिमसमए घोलमाणजहण्णजोगेण चरिम-दुचरिमसमएसु दुरूऊणअधापवत्तभागहारमेत्तपक्खेवाहियजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमए द्विदखवगट्ठाणं अपुणरुत्तं होदूण सव्वपच्छिमअत्थट्टाणपरिवाडीए आदिमं होदि । एवमुवरि सव्वसंधीओ जाणिय णेदव्यं जाव दुसमयणदोआवलियमेत्तसमयपवद्धा उकस्सजोग पत्ता त्ति । एवं वड्डाविय तिचरिमफालिविसेसमस्सिदूण गंथट्ठाणाणमंतरेसु दुरूऊणधापवत्तभागहारमेत्ताणि अत्थट्टाणाणि समुप्पण्णाणि ण वडिमाणि, रूऊणअधापवत्तभागहारमेत्ततिचरिमफालिविसेसेहि एगदुचरिमफालीए समुप्पत्तीदो। एवं तिचरिमफालिविसेसे अस्सिदण अत्थहाणपरूवणा कदा । चदुचरिमादिफालिविसेसे वि अस्सिदूण अत्थट्ठाणपरूवणा कायव्वा । एगफालिक्खवगस्स गथट्ठाणाणि जोगट्ठाणमेत्ताणि । ताणि पडिरासिय दुरूऊणअधापवत्तभागहारेण गुणिदेसु एगफालिखवगस्स गंथट्ठाणंतरेसुप्पण्णदुचरिमफालिहाणाणि होति । एदाणि पडिरासिय दुरूऊणअधापवत्तभागहारेण गुणिदेसु तत्थुप्पण्णतिचरिमफालिविसेसहाणाणि होति । एवमणंतराणंतरुप्पण्णढाणाणि पडिरासिय दुरूऊणअधापवत्तभागहारेण गुणिय णेदव्वं जाव समयूणआवलियमेत्तं ति । एवमेदेसु
प्रक्षेप अधिक योगस्थानमें स्थापित कर दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र परिपाटियोंके समाप्त होने तक ले जाना चाहिए ।
६ ४२५. अब वहाँ पर सबसे अन्तिम परिपाटीका कथन करते हैं। यथा-सवेद भागके त्रिचरम समयमें घोलमान जघन्य योगसे तथा चरम और द्विचरम समयमें दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र प्रक्षेप अधिक योगसे बन्धकर अधिकृत त्रिचरम समयमें स्थित हुआ क्षपकस्थान अपुनरुक्त होकर सबसे अन्तिम अर्थस्थान परिपाटीमें प्रथम होता है। इस प्रकार ऊपर सब सन्धियोंको जानकर दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंके उत्कृष्ट योगको प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाने पर विचरमफालिविशेषका आश्रय कर ग्रन्थस्थानोंके अन्तरालोंमें दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारमात्र अर्थस्थान उत्पन्न हए, बढ़े हुए नहीं, क्योंकि एक कम अधःप्रवृत्तमागहारम फालिविशेषोंसे एक द्विचरम फालि उत्पन्न हुई है। इस प्रकार त्रिचरम फालिविशेषोंका आश्रय कर अर्थस्थान प्ररूपणा की। चतुश्चरम आदि फालिविशेषोंका भी आश्रय कर अर्थस्थानोंकी प्ररूपणा करनी चाहिए। एक फालिक्षपकके ग्रन्थस्थान योगस्थानप्रमाण हैं। उन्हें प्रतिराशि करके दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारसे गुणित करने पर एक फालिक्षपकके ग्रन्थस्थानोंके अन्तरालोंमें उत्पन्न हुए द्विचरम फालिस्थान होते हैं। इन्हें प्रतिराशि करके दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारसे गुणित करने पर वहाँ पर उत्पन्न हुए त्रिचरम फालिविशेष स्थान होते हैं । इस प्रकार अनन्तर अनन्तर उत्पन्न हुए अनन्त स्थानोंको प्रतिराशि करके दो रूप कम अधःप्रवृत्तभागहारसे गुणित कर एक समय कम आवलिमात्र तक ले जाना चाहिये। इस
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गा० २२] उत्तरपडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
३७३ सव्वट्ठाणेसु मेलाविदेसु एगफालिविसए समुप्पण्णट्ठाणाणि होति । एदेसि जोगहाणाणि त्ति सण्णा, कजे कारणोवयारादो । एदेसु जोगहाणेसु दुसमयूणदोआवलियाहि गुणिदेसु अवगदवेदम्मि समुप्पण्णसांतरट्ठाणाणि होति ।।
* चरिमसमयसवेदस्स एगं फदयं ।
$ ४२६. खविदकम्मंसियलक्खणेणातूण पुणो पलिदोवमस्स असंखेजदिभागमेत्तसंजमासंजमकंडयाणि तत्तियमेत्ताणि चेव सम्मत्त कंडयाणि अणंताणुबंधिविसंजोयणाए सहियाणि अट्ठसंजमकंडयाणि चदुक्खुत्तो कसायउपसामणाओ च फरिय चरिमभवम्मि पुव्वकोडाउएसु मणुस्सेसुवव जिय पुणो तत्थ संजमं घेत्तण देसूणपुव्वकोडीए संजमगुणसेढिणिजरं करिय पुणो चारित्तमोहक्खवणाए अब्भुडिय जद्दण्णपरिणामेहि चेव अपुव्वगुणसेटिं करिय पुणो पुरिसवेदचरिमफालिमवणिय सवेदचरिमसमए हिदस्स पुरिसवेदहाणमंतरिदूण समुप्पण्णत्तादो अण्णमेगौं फद्दयं । किं पमाणमत्थंतरं ? दुसमयणदोआवलियमत्त उकस्ससमयपबद्धहिंतो असंखेजगुणं । कुदो? दुसमयणदोआवलियमेत्तकस्ससमयपबद्धेसु समयूणदोआवलियमेत्तजहण्णसमयपबद्धसहिदअसंखेजसमयपबद्धमत्तपयडि-विगिदिगोउच्छाहितो तत्तो असंखेजगुणअपुव्वअणियट्टिगुणसेढिगोउच्छाहितो च सोहिदेसु सुद्धसेसम्मि असंखेजाणं समयपबद्ध ाणं उपलंभादो।
प्रकार इन सब स्थानोंके मिलाने पर एक फालिके विषयमें उत्पन्न हुए स्थान होते हैं। कार्य में कारणका उपचार करनेसे इनकी योगस्थान ऐसी संज्ञा है। इन योगस्थानोंके दो समय कम दो आवलियोंसे गुणित करने पर अपगतवेदमें उत्पन्न हुए सान्तर स्थान होते हैं।
चरम समयवतों सवंदी जीवका एक स्पर्धक है। $ ४२६. क्षपित कर्माशिकलक्षणसे आकर पुनः पल्यके असंख्यातवें भागमात्र संयमासंयमकाण्डकोको और उतने ही सम्यक्त्वकाण्डकोंको तथा अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजनाके साथ आठ संयमकाण्डकोंको और चार बार कषायोंकी उपशमना करके अन्तिम भवमें पूर्वकोटिकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न होकर पुनः वहाँ पर संयमको ग्रहण कर कुछ कम पूर्वकोटि के द्वारा संयमगुणश्रेणिकी निर्जरा करके पुनः चारित्रमोहनीयकी क्षपणाके लिये उद्यत होकर जघन्य परिणामोंके द्वारा ही अपूर्व गुणश्रेणि करके पुनः पुरुषवेदकी अन्तिम फालिका अपनयन करके जो सवेद भागके अन्तिम समयमें स्थित है उसके पुरुषवेदके स्थानका अन्तर देकर उत्पन्न होनेसे अन्य एक स्पर्धक होता है।
शंका-यहाँ पर अन्तरका क्या प्रमाण है ?
समाधान-उसका प्रमाण दो समय कम दो आवलिमात्र उत्कृष्ट समयप्रबद्धोंसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि दो समय कम दो आवलिमात्र उत्कृष्ट समयप्रबद्धोंके एक समय कम दो भावलिमात्र जघन्य समयप्रबद्ध सहित असंख्यात समयप्रबद्धमात्र प्रकृति और विकृति गोपुच्छाओंमेंसे तथा उनसे असंख्यातगुणी अपूर्व और अनिवृत्ति गुणश्रेणि गोपुच्छाओंमेंसे घटा देने पर जो शेष रहे उसमें असंख्यात समयप्रबद्ध उपलब्ध होते हैं।
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जयबवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ४२७. संपहि एत्थ पयडि-विगिदिगोउच्छाओ जहण्णजोगेण बद्धसमयूणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धे च अपुव्वगुणसेढिगोउच्छं च अस्सिदूण द्वाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा- पयडिगोउच्छाए उवरिपरमाणुत्तर-दुपरमाणुत्तरादिकमेण एगचरिमफालिपक्खेवमेत्तं वड्डावेदव्वं । एवं वड्डिदूण ट्ठिदेण अण्णेगो सवेददुचरिमावलियाए विदियसमयम्मि पक्खेउत्तरघोलमाणजहण्णजोगेण वंधिय पुणो चरिमसमयसवेदो होदूण हिदो सरिसो। णवरि पयडिगोउच्छा विगिदिगोउच्छा अपुव्व-अणियट्टिगुणसेढिगोवुच्छाओ च जहण्णाओ चेव, तत्थ वड्डीए अभावादो । संपहि एदेण कमेण चरिमफाली वड्ढावेदव्वा जाव जहण्णजोगादो तप्पाओग्गमसंखेजगुणं जोग पत्ता त्ति । एवं वड्डाविय पुणो पयडिगोउच्छाए उवरि चरिम-दुचरिमफालिपक्खेवमेत्तं वड्ढावेदव्वं । एवं वड्डिदूण द्विदेण अण्णगो दुचरिमावलियाए विदियसमयम्मि असंखेजगुणजोगेण तदियसमयम्मि पक्खेउत्तरजहण्णजोगेण बंधिय चरिमसमयसवेदो होदूण हिदो सरिसो । एवं वड्ढावेदव्वो जाव दुचरिमावलियाए तदियसमयपबद्धो वि तप्पाओग्गमसंखेजगुणत्तं पत्तो ति ।
___ ४२८. संपहि एदेण कमेण समयूणदोआवलियमत्तसव्वसमयपबद्धा ताव वड्ढावेदव्या जाव तप्पाओग्गमसंखेजगुणं जोग पत्तो त्ति । एवं संखेजवारं सव्वसमयपबद्धा वड्ढावेदव्या जाव उक्कस्सजोगं पत्ता त्ति । पुणो पयडिगोउच्छमस्सियूणपरमाणुत्तरकमेण अपुन्वगुणसेढिगोउच्छा विगिदिगोवुच्छा च षड्ढावेदव्वाजाव सगुक्कस्सत्तं
६४२७. अब यहाँ पर प्रकृति तथा विकृतिगोपुच्छाओंका, जघन्य योगसे बद्ध एक समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंका और अपूर्वगुणश्रेणिगोपुच्छाका आश्रय कर स्थानका कथन करते हैं । यथा-प्रकृतिगोपुच्छाके ऊपर परमाणु अधिक और दो परमाणु अधिक आदिके क्रमसे एक चरम फालिप्रक्षेपमात्र बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ एक अन्य जीव समान है जो सवेद भागकी द्विचरमावलिके द्वितीय समयमें प्रक्षेप अधिक घोलमान जघन्य योगसे बन्ध कर पुनः अन्तिम समयवर्ती सवेदी होकर स्थित है । इतनी विशेषता है कि प्रकृतिगोपुच्छा, विकृतिगोपुच्छा, अपूर्वकरणगुणश्रणिगोपुच्छा और अनिवृत्तिकरणगुणश्रोणिगोपुच्छा जघन्य ही हैं, क्योंकि उनमें वृद्धिका अभाव है। अब इस क्रमसे चरम फालिको जघन्य योगसे तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योगको प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाकर पुनः प्रकृतिगोपुच्छाके ऊपर चरम और द्विचरम फालिप्रक्षेप मात्र बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके साथ अन्य एक जीव समान है जो द्विचरमावलिके द्वितीय समयमें असंख्यातगुणे योगसे तथा तृतीय समयमें प्रक्षेप अधिक जघन्य योगसे बन्ध कर चरम समयवर्ती सवेदी होकर स्थित है। इस प्रकार द्विचरमावलिका तृतीय समयप्रबद्ध भी तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योगको प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए।
४२८. अब इस क्रमसे एक समय कम दो आवलिमात्र सब समयप्रबद्ध तत्प्रायोग्य असंख्यातगुणे योगको प्राप्त होने तक बढ़ाने चाहिए। इस प्रकार उत्कृष्ट योगके प्राप्त होने तक सब समयप्रबद्धोंको संख्यात बार बढ़ाना चाहिए । पुनः प्रकृतिगोपुच्छाका आश्रय कर परमाणु अधिकके क्रमसे अपूर्वकरणगुणोणिगोपुच्छा और विकृतिगोपुच्छाको अपने उत्कृष्ट
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं पत्ताओ त्ति । पुणो पयडिगोउच्छा वि परमाणुत्तरकमेण पंचहि वड्डीहि चत्तारि पुरिसे अस्सिदूण वड्डावेदव्वा जावप्पणो उक्कस्सदव्वं पत्ता त्ति । एवं वड्डाविदे अणंत हाणसहियमेगं फदयं जादं।
छ दुचरिमसमयसवेदस्स चरिमट्टिदिक्खंडगं चरिमसमय विणहूँ । ___६४२९. जो दुचरिमसमयसवेदो तत्थ पुरिसवेदस्स चरिमट्ठिदिक्खंडयं चरिमसमयविणहं होदि। द्विदिखंडयाणं सव्वेसि पि एकत्येव विणासो होदि त्ति द्विदिक्खंडयविणासो चरिमसद्दण ण विसेसियव्वो। सचमेदं जदि दव्वहियगओ अवलंबिओ होज, किंतु एदं णेगमणएण णिद्दिदं तेण चरिमट्ठिदिखंडयपढमफालियाए विणहाए ट्ठिदखंडयं पढमसमयविणहं । कधं फालियाए हिदखंडयववएसो ? ण, अंतोमुहुत्तमत्तफालियाहिंतो वदिरित्तहिदिखंडयाभावादो। तोक्खहि एकम्मि द्विदिखंडए बहुए [हि] द्विदक्खंडएहि होदव्वमिदि ण, द्विदिखंडयविहाणस्स दव्वहिदणयमवलंबिय अवद्विदत्तादो । दव्व-पज्जवहियणए अवलंबिय द्विदणेगमणयमस्सिदूण जेणेसा देसणा तेण द्विदिखंडयस चरिमसमयविणहत्तं ण विरुज्झदि त्ति भावत्थो । सवेददचरिमसमए
पनेको प्राप्त होने तक बढ़ानी चाहिये । पुनः प्रकृतिगोपुच्छाको भी परमाणु अधिकके क्रमसे पाँच वृद्धियोंके द्वारा चार पुरुषोंका आश्रय लेकर अपने उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाने पर अनन्त स्थानोंसे युक्त एक स्पर्धक हो गया।
द्विचरम समयवर्ती सवेदी जीवके चरम स्थितिकाण्डक चरम समयमें विनष्ट हो गया।
४२९. जो द्विचरम समयवर्ती सवेदी जीव है उसके पुरुषवेदका चरम स्थितिकाण्डक चरम समयमें विनष्ट होता है।
शंका-सभी स्थितिकाण्डकों का एक स्थानमें ही विनाश होता है, इसलिये स्थितिकाण्डकविनाशको चरम शब्दसे विशेषित नहीं करना चाहिए ?
समाधान-यह सत्य है यदि द्रव्यार्थिकनयका अवलम्बन होवे किन्तु यह नैगमनयकी अपेक्षा निर्दिष्ट किया है, इसलिये चरमस्थितिकाण्डककी प्रथम फालिके विनिष्ट होने पर स्थितिकाण्डक प्रथम समयमें विनष्ट हुआ ऐसा कहा है।
शंका-फालिकी स्थितिकाण्डक संज्ञा कैसे है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि अन्तर्मुहूर्तप्रमाण फालियोंको छोड़कर स्थितिकाण्डकका अभाव है।
शंका-तो एक स्थितिकाण्डकमें बहुत स्थितिकाण्डक होने चाहिए ?
समाधान-नहीं, क्योंकि स्थितिकाण्डकविधान द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन लेकर अवस्थित है। द्रव्य-पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन लेकर स्थित हुए नैगमनयके आश्रयसे चूंकि यह देशना है, इसलिए स्थितिकाण्डकका चरम समयोंमें विनष्ट होना विरोधको प्राप्त नहीं होता यह उक्त कथनका भावार्थ है।
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३७६ .
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ संतस्स चरिमहिदिखंडयस्स कुदो चरिमसमयविणहत्तं ? ण, दव्वटियणयावलंबणाए संतस्सेव विणहत्तदंसणादो।
8 तस्स दुचरिमसमयसवेदस्स जहणणगं संतकम्ममादि कादूण जाव पुरिसदस्स मोघुक्कस्सपदेससंतकम्म ति एदमेगं फयं ।
४३०. पुव्वं वड्डाविदसव्वदव्वं पेक्खिदण असंखेजगुणत्तादो । ण च असंखेजगुणत्तमसिद्धं, तिण्हं वेदाणं दिवड्डगुणहाणिमेत्तएइंदियसमयपबद्धेहि चरिमफालीए णिप्पण्णत्तादो। एदं जहण्णसंतकम्ममादि कादण जाव ओघकस्ससंतकम्म ति एर्ग फद्दयमिदि णेदं घडदे । अधापवत्तकरणचरिमसमयहिदिसंतकम्ममादि कादूण जाव पुरिसवेदस्स ओघकस्ससंतकम्मं ति एगं फद्दयमिदि वत्तव्वं, दुचरिमसमयसवेदस्स जहण्णसंतकम्मं पेक्खिदण अधापवत्तकरणचरिमसमयपुरिसवेददव्वस्स संखेजगुणहीणत्तवलंभादो। जं जहण्णं दव्व तं फद्दयस्स आदी होदि ण महल्लं, अव्ववत्थापसंगादो त्ति ? एत्थ परिहारो उच्चदे। तं जहा-चरिमसमयसवेदो त्ति उत्ते अधापवत्तकरणचरिमसमयसवेदस्स ग्गहणं, एगजीवदव्वं पडि भेदाभावादो। एदस्सेव गहणं होदि त्ति कुदो णव्वदे १ तस्स जहण्णगं संतकम्ममादि कादूण त्ति सुत्तवयणादो।
शंका-सवेद भागके द्विचरम समयमें सद्रप चरम स्थितिकाण्डकका चरम समयमें विनाश होना कैसे है ?
समाधान नहीं, क्योंकि द्रव्यार्थिक नयका अवलन्बन लेने पर सद्रूपका ही विनाश होना देखा जाता है।
* इस द्विचरम समयवर्ती सवेदी जीवके जघन्य सत्कर्मसे लेकर पुरुषवेदके ओघ उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मके प्राप्त होने तक यह एक स्पर्धक है।
६४३०. क्योंकि पहले बढ़ाये गये सब द्रव्यकी अपेक्षा यह असंख्यातगुणा है। इसका असंख्यातगुणा होना असिद्ध है यह बात नहीं है, क्योंकि तीनों वेदोंके डेढ़ गुणहानिमात्र एकेन्द्रि यसम्बन्धी समयप बद्धोंसे चरम फालि निष्पन्न हुई है।
__ शंका-इस जघन्य सत्कर्मसे लेकर ओघ उत्कृष्ट सत्कर्म तक एक स्पर्धक है यह घटित नहीं होता, इसलिए अधःप्रवृत्त करणके चरम समयवर्ती स्थितिसत्कर्मसे लेकर पुरुषवेदके ओघ उत्कृष्ट सत्कर्मके प्राप्त होने तक एक स्पर्धक है ऐसा कहना चाहिए, क्योंकि द्विचरम समयवर्ती सवेदी जीवके जघन्य सत्कर्मको देखते हुए अधःप्रवृत्तकरणके चरम समयवर्ती पुरुषवेदका द्रव्य संख्यातगुणा हीन उपलब्ध होता है । जो जघन्य द्रव्य है वह स्पर्धकको आदि होता है। बड़ा द्रव्य नहीं, क्योंकि अन्यथा अव्यवस्थाका प्रसंग आता है ?
समाधान-यहां पर इस शंकाका परिहार करते हैं । यथा-चरम समयवर्ती सवेदी ऐसा कहने से अधःप्रवृत्तकरणके चरमसमयवर्ती सवेदी जीवका ग्रहण किया है, क्योंकि एक जीव द्रव्यके प्रति इनमें कोई भेद नहीं है।
शंका-इसीका ग्रहण होता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान—'उसके जघन्य सत्कर्मसे लेकर' इस सूत्रवचन से जाना जाता है।
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गा० २२]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं ण च उवरि संतकम्मं जहण्णं होदि, पडिच्छिदइत्थि-णउसयवेददव्वपुरिसवेदस्स जहण्णत्तविरोहादो । तम्हा अधापवत्तकरणस्स चरिमसमए जं जहण्णं संतकम्मं तमादि करिय जाव पुरिसवेदओघुक्कस्सदव्व' ति णिरंतरसरूवेण हाणपरूवणा कायव्वा । तं जहाएवं परिसवेदजहण्णदव्वं परमाणुत्तरादिकमेण अणंतभागवड्डि-असंखेजभागपड्डि-संखेजभागवड्वि-संखेजगुणवड्डीहि ताव वड्ढावेदव्वं जाव पज्जवडियणयविसयदुचरिमसमयसवेदस्स पुरिसवेदजहण्णचरिमफालोए सरिसं जादं ति । पुणो चरिमफालिदव्व घेत्तूण परमाणुत्तरकमेण वड्ढावेद जाव णवकबंधेणणतिचरिमगुणसेढिगोउच्छाअधापवत्तसंकमेण गददुचरिमफालिदव्वेणब्भहिया वड्डिदा ति । एवं वड्डिदूण हिददुचरिमसमयसवेदेण क्खविदकम्मंसियलक्खणेणागदतिचरिमसमयसवेदो सरिसो । एदेण कमेण ओदारियं वदावेदव्व जावित्थिवेदचरिमफालिं पडिच्छिद्ण हिदपढमसमओ त्ति । पणो एत्थ दृविय परमाणुत्तरकमेण पंचवड्डीहि वढावेदव्व जाव परिसवेदोघुकस्सदन ति ।
* कोधसंजलणस्स जहणणयं पदेससंतकम्मं कस्स । $ ४३१. सुगमं ।
ॐ चरिमसमयकोधवेदगेण खवगेण जहएणजोगहाणे जं पद्धतं जं वलं चरिमसमयअपिल्लेविदं तस्स जहणणयं संतकम्मं ।
और ऊपर सत्कर्म जघन्य नहीं है, क्योंकि जिसमें स्त्रीवेद और नपुंसकवेद निक्षिप्त हुआ है ऐसे पुरुषवेदको जघन्य होनेमें विरोध आता है, इसलिए अधःप्रवृत्तकरणके चरम समयमें जो जघन्य सत्कर्म है उससे लेकर पुरुषवेदके ओघ उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक निरन्तररूपसे स्थानप्ररूपणा करनी चाहिए। यथा--यह पुरुषवेदका जघन्य एक एक परमाणु अधिक आदिके क्रमसे अनन्तभागवृद्धि, असंख्यातभागवृद्धि संख्यातभागवृद्धि और संख्यातगुणवृद्धिके द्वारा पर्यायार्थिकनयके विषयभूत द्विचरम समयवर्ती सवेदी जीवके पुरुषवेदकी जघन्य अन्तिम फालिके समान होने तक बढ़ाना चाहिए । पुनः चरम फालिके द्रव्यको ग्रहण कर एक एक परमाणु अधिकके क्रममे नवक बन्धसे न्यून त्रिचरम गुणश्रेणिगोपुच्छाके अधःप्रवृत्त संक्रमके द्वारा गये हुए द्विचरम फालिके द्रव्यसे अधिक वृद्धि होने तक बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ा कर स्थित हुए द्वि चरम समयवर्ती सवेदी जीवके साथ क्षपित कौशलक्षणसे आकर स्थित हुआ त्रिचरम समयवर्ती सवेदी जीव समान है। इस क्रमसे उतारकर स्त्रीवेदकी चरम फालिको संक्रामित कर स्थित हुए प्रथम समयके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए । पुनः यहां पर स्थापित कर एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे पांच वृद्धियोंके द्वारा पुरुषवेदके ओघ उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए ।
* क्रोधसंज्वलनका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है। $ ४३१. यह सूत्र सुगम है।
चरम समयवर्ती क्रोधका वेदन करनेवाले क्षपक जीवने जघन्य योगस्थानमें जो कर्म बाँधा वह निर्जीणं होता हुआ चरम समयमें जब अनिर्लेपित रहता है तब उसके क्रोध संज्वलनका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे (पदेसविहत्ती ५ ६४३२. कोधवेदगणिद्द सो किमहूं कदो ? परोदएण बद्धणयगसमयपबद्धो चिराणसंतकम्मेण सह विणस्सदि त्ति जाणावणटं । चरिमसमयणिद्द सो किं फलो ? अहियारसमए दुचरिमादिसमयपबद्धाणं अभावपदुप्पायणफलो। जहण्णजोगणिद्द सो किं फलो ? जहण्णदव्वगहणट्ठ । दुचरिमादिफालीणं गालणफलो चरिमसमयअगिल्लेविदणि सो। सेसं सुगमं। ___जहा पुरिसवेदस्स दोभावलियाहि दुसमयूणाहि जोगहाणाणि पदुप्पण्णाणि एवदियाणि संतकम्महापाणि सांतराणि । एवमावलियाए समऊणाए जोगडाणाणि पदुप्पण्णाणि एत्तियोणि कोधसंजलणस्स सांतराणि संतकम्माणाणि ।
६४३३. दोहि आवलियाहि दुसमयूणाहि जोगट्ठाणाणि पदुप्पण्णाणि संताणि जावदियाणि होति एवदियाणि पुरिसवेदसांतराणि संतकम्महाणाणि होति । जहा एदेसिं हाणाणं पर्व परूवणा कदा एवं कोधसंजलणस्स हाणाणं पि परूवणा कायव्वा, विसेसाभावादो। णवरि समयूणाए आवलियाए जोगहाणेसु पदुप्पण्णेसु जं पमाणमेत्तियाणि कोधसंजलणस्स सांतराणि पदेससंतकम्महाणाणि।
६ ४३२. शंका-सूत्र में 'क्रोधवेदक' पदका निर्देश किसलिए किया है ?
समाधान-परोदयसे बाँधा गया नवक समयप्रबद्ध प्राचीन सत्कर्मके साथ विनाशको प्राप्त होता है इस बातका ज्ञान करानेके लिए किया है।
शंका-सूत्र'चरम समय' पदके निर्देशका क्या फल है।
समाधान-अधिकृत समयमें द्विचरम आदि समयप्रबद्धोंके अभावका कथन करना इसका फल है।
शंका-सूत्र में 'जघन्य योग' पदका निर्देश किसलिए किया है ? समाधान-जघन्य द्रव्यका ग्रहण करनेके लिए इसका निर्देश किया है।
द्विचरम आदि फालियोंका गालन हो जाता है यह दिखलानेके लिए सूत्रमें 'चरम समय अनिर्लेपित' पदका निर्देश किया है । शेष कथन सुगम है।
* जिस प्रकार पुरुषवेदके दो समय कम दो आवलियोंसे योगरथान उत्पन्न होकर उतने ही सान्तर सत्कर्मस्थान होते हैं उसी प्रकार एक समय कम आवलिके द्वारा योगस्थान उत्पन्न होकर उतने ही क्रोधसंज्वलनके सान्तर सत्कर्मस्थान होते हैं ।
६४३३. दो समय कम दो आवलियोंके द्वारा योगस्थान उत्पन्न होकर जितने होते हैं उतने ही पुरुषवेदके सान्तर सत्कर्मस्थान होते हैं। जिस प्रकार इनके स्थानोंकी पहले प्ररूपणा की है उसी प्रकार क्रोधसंज्वलनके स्थानों की भी प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि उक्त प्ररूपणासे इस प्ररूपणामें कोई विशेषता नहीं है। इतनी विशेषता है कि एक समय कम आवलिके आलम्बनसे योगस्थानोंके उत्पन्न होने पर जो प्रमाण हो उतने क्रोधसंज्वलनके सान्तर प्रदेशसत्कर्मस्थान होते हैं ।
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गा० २२]
उत्तरपय डिपदेसविहत्तीए सामित्तं
समयूण दो आवलियम तो जोगडाणाणमेत्थ गुणयारो किं ण होदि १ण, उच्छिहावलियाए तो समयूणावलियमेत्त गुणसेढिगो उच्छासु असंखेअसमयपबद्धमेतासु संतीसु णवकबंधस्स पाहण्णियाभावादो ।
* कोधसंजलणस्स उदए बोच्छिणे जा पढमावलिया तत्थ गुण से ढी पविछल्लिया ।
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$ ४३४. को संजणस्स उदयवोच्छिण्णे संते जा पढमावलिया तत्थ गुणसेढी किम पविट्ठा ? ण, सगोदयकालादो आवलियन्भहियपढमट्ठिदीए करणादो । किमहमेव कीरदे ? साहावियादो ।
* तिस्से आवलियाए चरिमसमए एगं फद्दयं ।
$ ४३५. कुदो ? पुव्विल्लसमयूणावलियमेत्त उकस्ससमयपबद्धेहिंतो एत्थ असंखेज्जगुणसमयपबद्धाणं उवलंभादो | पगदि - विगिदि अपुव्वगुण सेढिगोउच्छाओ एत्थ अणियष्टिगुणसेडिगो उच्छा एक्कल्लिया चैव विदियहि दिपदेस संतकम्मं ओकडिदूण अंतर गुणसेढिकरणादो । तेण तत्तो असंखेज्जगुणं ण जुञ्जदित्ति ण पञ्चवट्ठेयं, पद - विगिदि - अपुव्वगुणसे ढिगोउच्छाहिंतो अणियट्टिगुणसेढीए असंखेखगुणभावेण तासिं
शंका- यहां पर योगस्थानोंका गुणकार एक समय कम दो आवलिप्रमाण क्यों नहीं है ? समाधान- नहीं, क्योंकि उच्छिष्टावलिके भीतर एक समय कम आवलिमात्र गुणश्र ेणि गोपुच्छाओंके असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण होते हुए नवकबन्धकी प्रधानता नहीं है ।
* क्रोधसंज्वलन के उदयके व्युच्छिन्न होने पर जो प्रथम आवलि है उसमें गुणश्र ेणि प्रविष्ट होती है ।
$ ४३४. शंका — क्रोधसंज्वलनके उदयके व्युच्छिन्न होने पर जो प्रथम आवलि है उसमें किसलिए प्रविष्ट हुई है ?
समाधान नहीं, अपने उदयकालसे प्रथम स्थितिको एक आवलिप्रमाण अधिक किया है ।
शंका- ऐसा किसलिए करते हैं ?
समाधान —— स्वाभाविकरूपसे ऐसा करते हैं ?
* उस आवलिके चरम समय में एक स्पर्धक होता है ।
९ ४३५. क्योंकि पहले के एक समय कम आवलिमात्र उत्कृष्ट समयप्रबद्धोंसे यहां पर असंख्यातगुणे समयप्रबद्ध उपलब्ध होते हैं ।
शंका- यहां पर प्रकृति, विकृति और अपूर्वकरण गुणश्रेणि गोपुच्छाऐं नहीं हैं, एक मात्र अनिवृत्तिकरण गुणश्रेणिगोपुच्छा ही है, क्योंकि द्वितीय स्थितिके प्रदेशसत्कर्मका अपकर्षण करके अन्तर में गुणश्रेणि की गई है, इसलिए यह उनसे असंख्यातगुणी नहीं बनती ? समाधान —— ऐसा निश्चय करना ठीक नहीं है, क्योंकि प्रकृति, विकृति और अपूर्वकरण गुणश्र णि गोपुच्छाओंसे अनिवृत्तिकरण गुणश्र ेणि असंख्यातगुणी होनेसे यहां उनकी प्रधानता नहीं है ।
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ पाहणियाभावादो। एदस्स फद्दयस्स जहण्णट्ठाणमादि कादूण जाव एदस्सेव फद्दयस्स उक्कस्सहाणं ति ताव असंखेजाणं सांतरहाणाणं परूवणा कायव्वा । अणंताणि हाणाणि एत्थ किंण होति ?ण,पगदिगोउच्छाए अभावेण परमाणुत्तरकमेण पदेसउड्डीए अभावादो।ण च अणियट्टिगुणसेढीए उड्डी अस्थि, खविदगुणिदकम्मंसियअणियट्टीसु परिणा मेदाभावादो। तम्हा एत्थ आवलियमेत्तजहण्णजोगेण बद्धसमयपबद्धे घेत्तूण जोगहाणाणि चरिमादिफालीओ च अस्सिदण जोगहाणेहिंतो असंखेजगुणमेत्तपदेससंतकम्महाणाणि उप्पादेदव्वाणि ।
* दुचरिमसमए अण्णं फद्दयं । ___४३६. पुव्विल्लउक्कस्सफद्दयादो एदस्स जहण्णफद्दयस्स अणंत णि हाणाणि अंतरिय अवडिदत्तादो । केत्तियमेत्तमेत्थ अंतरं? असंखेजसमयपबद्धमेतं । अणियट्टिचरिमगुणसेढिसीसयादो पुव्विल्लादो एत्थतणअणियट्टिगुणसेढिसीसयं सरिसं ति अवणिय समयाहियावलियमेत्तजहण्णसमयपबद्धभहियअणियट्टिदुचरिमगुणसेढिगोउच्छादो आवलियमेत्तकस्ससमयपबद्धसु सोहिदेसु सुद्धसेसम्मि असंखेजसमयपबद्धाणमुवलंभादो । पुणो एवं जहण्ण हाणमादि कादूण असंखेजजोगडाणगेत्ताणं पदेससंतकम्महाणाणं परवणा कायव्वा ।
इस स्पर्धकके जघन्य स्थानसे लेकर इसी स्पर्धकके उत्कृष्ट स्थानके प्राप्त होने तक असंख्यात सान्तर स्थानोंका कथन करना चाहिए।
शंका-यहां पर अनन्त स्थान क्यों नहीं होते ?
समाधान-नहीं, क्योंकि प्रकृतिगोपुच्छाका अभाव होनेके कारण एक एक परमाणु अधिक क्रमसे यहाँ पर प्रदेशवृद्धिका अभाव है, इसलिए यहां पर आवलिमात्र जघन्य योगसे बन्धको प्राप्त हुए समयप्रबद्धोंको ग्रहण कर योगस्थानों और अन्तिम फालिका आश्रय कर योगस्थानोंसे असंख्यातगुणे प्रदेशसत्कर्मस्थान उत्पन्न करने चाहिए ।
ॐ द्विचरम समयमें अन्य स्पर्धक होता है।
$ ४३६. क्योंकि पहलेके उत्कृष्ट स्पर्धकसे इस जघन्य स्पर्धकके अनन्त स्थानोंका अन्तर देकर अवस्थित है।
शंका-यहां पर कितनामात्र अन्तर है।
समाधान-असंख्यात समयमात्र अन्तर है, क्योंकि अनिवृत्तिकरणके पहलेके गुणश्रेणिशीर्षकसे यहां का अनिवृत्ति करण गुणश्रोणिशीर्षक समान है, इसलिए इसे अलग करके एक समय अधिक आवलिमात्र जघन्य समयप्रबद्ध अधिक अनिवृत्तिकरण द्विचरम गुणश्रेणिगोपुच्छामेंसे आवलिमात्र उत्कृष्ट समयप्रबद्धोंके घटाने पर जो शेष रहे उसमें असंख्यात समयप्रबद्ध उपलब्ध होते हैं।
पुनः इस जघन्य स्थानसे लेकर असंख्यात योगस्थानमात्र प्रदेशसत्कर्मस्थानोंका कथन करना चाहिए।
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गा० २२ ]
उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं * एवमावलियसमयूणमेत्ताणिं फद्दयाणि ।
६४३७. उच्छिट्ठावलियाए अंतो समयूणावलियमेत्ताणि चेव फद्दयाणि होति, पढमगुणसेढिगोउच्छाए थिउक्कसंकीण माणागारेण परिणयत्तादो। एदेसिं फहयाणं जहण्णफद्दयमादि कादण जाउकस्सफद्दयं ति ताव जोगहाणेहितो असंखेजगुणसांतरहाणाणं परूवणा पुव्व व कायव्वा, विसेसाभावादो।
___ * चरिमसमयकोधवेदयस्स खवयस्स चरिमसमयअणिल्लेविदं खंडयं होदि।
६४३८. जहा सवेददुचरिमसमए पुरिसवेदस्स चरिमठिदिखंडयं चरिमसमयअणिल्लेविदं जादं तहा एत्थ ण होदि। किं तु चरिमसमयकोधवेदयस्स खवगस्स चरिमसमयअणिल्लेविदं चरिमद्विदिखंडयं होदि । कुदो ? साहावियादो।
* तस्स जहणणसंतकम्ममादि कादूण जाव ओघुक्कस्सं कोधसंजलणस्त संतकम्मं ति एदमेगं फद्दयं ।।
६४३९. तस्त चरिमसमयकोषेण विसेसिदजीवस्स जं कोधजहण्णसंतकम्म तमादि कादूण जाच ओघकस्सदव्वं ति एदमेगं फद्दयं ति उत्ते खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण अधापवत्तकरणचरिमसमयावहिदखवगस्स जहण्णदव्वमादि कादणे त्ति घेत्तव्वं, हेटोवरि जहण्णत्ताणुवलंभादो । एदस्स गहणं होदि त्ति कुदो णव्वदे ? तस्से त्ति
इस प्रकार एक समय कम आवलिमात्र स्पधक होते हैं। ६४३७. उच्छिष्टावलिके भीतर एक समय कम आवलिमात्र ही स्पर्धक होते हैं, क्योंकि प्रथम गुणश्रेणिगोपुच्छा स्तिवुक संकमण के द्वारा मानरूपसे परिणत हुई है। इन स्पर्धकोंके जघन्य स्पर्धकसे लेकर उत्कृष्ट स्पर्धक तक योगस्थानोंसे असंख्यातगुणे सान्तर स्थानोंकी प्ररुपणा पहलेके समान करनी चाहिए, क्योंकि कोई विशेषता नहीं है।
चरम समयवर्ती क्रोधवेदक क्षपकके चरम समयमें अनिर्लेपित काण्डक होता है।
३४८. जिस प्रकार सवेदभागके द्विचरम समयमें पुरुषवेदका चरम स्थितिकाण्डक चम्म समयमें अनिर्लेपित हुआ उस प्रकार यहाँ पर नहीं होता है, किन्तु चरम समयवर्ती क्रोधवेदक क्षपकके चरम समयमें अनिर्लेपित चरम स्थितिकाण्डक होता है, क्योंकि ऐसा होना स्वाभाविक है।
ॐ उसके जघन्य सत्कर्मसे लेकर क्रोधसंज्वलनके ओघ उत्कृष्ट सत्कर्म तक यह एक स्पर्धक होता है।
६४३९. उसके अर्थात् चरम समय में क्रोधसे युक्त जीवके जो क्रोधका जघन्य सकर्म है उससे लेकर ओघ उत्कृष्ट द्रव्य के प्राप्त होने तक यह एक स्पर्धक है ऐसा कहने पर क्षपित कौशिक लक्षगोंसे आकर अधःप्रवृत्तकरणके चरम समयमें स्थित क्षपकके जघन्य द्रव्यसे लेकर ऐसा ग्रहण करना चाहिए, क्योंकि नीचे और ऊपर जघन्यपना उपलब्ध नहीं होता है।
शंका-इसका ग्रहण होता है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ वयणेण खवगजीवदव्वगहणादो । समयूणावलियमेत्तउक्कस्सफदएहिंतो जदि वि चरिमफालिदव्व असं०गुणं तो वि चरिमफालिजहण्णदव्वादो चरिमसमयअधापवत्तकरणजहण्णदव्व संखे गुणहीणं ति कट्ट एदं फद्दयस्सादीए कायव्व। पुणो एदं परमाणुत्तरकमेण वढावेदव्व जाव पंचगुणं होदूण कोधसंजलणचरिमफालिदव्वेण सह सरिसं जादं ति । पुणो पुग्विल्लं दव्वं मोतूण इम चरिमफालिदव्य घेत्तूण परमाणुत्तरकमेणवड्डाविय ओदारेदव्व जाव पुरिसवेद-च्छण्णोकसायाणं चरिमफालीओ पडिच्छिदूण द्विदपढमसमओ त्ति । पुणो तत्थ हविय चत्तारि पुरिसे अस्सिदूण परमाणुत्तरकमेण पंचहि वड्डीहि वड्डावेदव्व जाव ओघुक्कस्सं कोधसंजलणस्स संतकम्मति ।
* जहा कोधरजलणस्स तहा माण-मायासंजलणाणं । ६४४०. जहा कोधसंजलणस्स जहण्णडाणप्पहुडि जाव उक्कस्सपदेससंतकम्महाणं ति सव्वसंतकम्मट्ठाणाणं सामित्तपरूवणा कदा तहा माण-मायासंजलणाणं सव्वसंतकम्महाणाणं सामित्तपरूवणा कायव्वा, विसेसाभावादो। णवरि अधापवत्तचरिमसमए सगसगजहण्णदव्व जहाकोण छग्गुणं सत्तगुणं बड्डाविय अप्पप्पणो जहण्णचरिमफालियाहि सरिसं करिय पुणो पुबिल्लदव्व मोत्तूण सगसगजहण्णचरिमफालिदव्यं घेत्तूण ओदारेदव्य जाव परिवाडीए कोध-माणसंजलपाण चरिमफालीओ पडिच्छिद
समाधान-क्योंकि 'तस्स' इस वचनसे क्षपक जीवके द्रव्यका ग्रहण हुआ है।
एक समय आवलिमात्र उत्कृष्ट स्पर्धकोंसे यद्यपि चरम फालिका द्रव्य असंख्यातगुणा है तो भी चरम फालिके जघन्य द्रव्यसे चरम समयवर्ती अधःप्रवृत्तकरणका जघन्य द्रव्य संख्यातगुणा हीन है ऐसा मानकर स्पर्धकके आदिमें करना चाहिए । पुनः इसे एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे पाँच गुणा होकर क्रोध संज्वलनके चरम फालि द्रव्यके साथ समान होने तक बढ़ाना चाहिए। पुनः पहलेके द्रव्यको छोड़कर इस चरम फालिके द्रव्यको ग्रहणकर एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे बढ़ाकर पुरुषबेद और छह नोकषायोंकी चरम फालियोंको संक्रमित कर स्थित हुए प्रथम समय तक उतारना चाहिए। पुनः वहां पर स्थापित कर चार पुरुषोंका आश्रय कर एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे पाँच वृद्धियोंके द्वारा क्रोधसंज्वलनके ओघ उत्कृष्ट सत्कर्मके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए।
* जिस प्रकार क्रोधसंज्वलनके सत्कर्मस्थानोंका स्वामित्व कहा है उस प्रकार मान और मायासंज्वलनके सत्कर्मस्थानोंका स्वामित्व कहना चाहिए।
६४४०. जिस प्रकार क्रोधसंज्वलनके जघन्य स्थानोंसे लेकर उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मस्थानके प्राप्त होने तक सत्कर्मस्थानोंके स्वामित्वकी प्ररूपणा की है उस प्रकार मान संज्वलन और माया संज्वलनके सब सत्कर्मस्थानोंके स्वामित्वकी प्ररूपणा करनी चाहिए, क्योंकि उससे इस प्ररूपणामें कोई विशेषता नहीं है। इतनी विशेषता है कि अधःप्रवृत्तकरणके चरम समयमें अपने अपने जघन्य द्रव्यको यथाक्रमसे छहगुना और सातगुना बढ़ाकर अपनी अपनी जघन्य फालियोंके द्वारा सदृश करके पुनः पहलेके द्रव्यको छोड़कर अपने अपने जघन्य फालिके द्रव्यको ग्रहणकर परिपाटी क्रमसे क्रोध और मानसंज्वलनकी चरम फालियोंके
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गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
३८३ पढमसमओ त्ति । पुणो तत्थ हविय चत्तारि पुरिसे अस्सिदूण परमाणुत्तरकमेण वड्ढावेदव्व जाव माण-मायासंजलणाणमोघुक्कस्सदव्वति ।
ॐ लोभसंजलणस्सा जहण्णगं पदेससंतकम्मं कस्स ? - $ ४४१. सुगम।
ॐ प्रभवसिद्धियपाओग्गेण जहएणगेण कम्मेण तसकार्य गदो। तम्मि संजमासंजमं संजमं च बहुवारं लद्धाउओ। कसाए ण उवसामिदाउो । तदो कमेण मणुस्सेसुववरणो । दीह संजमद्ध अणुपालेदूण कसायक्खवणाए अब्भुटिदो तस्स चरिमसमयअधापवत्तकरणे जहएणगं लोभसंजलपस्स पदेससंतकम्म ।
६.४४२. सम्मत्त-संजमासंजम-संजमकंडए हि विणा जं खविदकम्मसियलक्खणेहि त्थोवीभूदं पदेससंतकम्म तमभवसिद्धियपाओग्गं णाम, भव्वाभव्वाणं साहारणत्तादो । तेण संतकम्मेण तसकायं गदो। थावरपाओग्गं जहण्णसंतकम्म कादण तसकायं गदो त्ति भणिदं होदि । किमटुं तसकायिएसु पच्छा हिंडाविदो ? ण, सम्मत्तसंजमासंजम-संजमगुणसेढिणिजराहि तद्दव्वक्खवणडं तत्थुप्पाइयत्तादो। जदि एवं तो
संक्रमित होनेके प्रथम समयतक उतारना चाहिए । पुनः वहां पर स्थापितकर चार पुरुषोंका आश्रय कर एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे मानसंज्वलन और मायासंज्वलनके ओघ उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए।
8 लोभसंज्वलनका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है। ६४४१. यह सूत्र सुगम है।
* जो अभव्योंके योग्य जघन्य कर्मके साथ उसकायको प्राप्त हुआ। वहां पर संयमासंयम और संयमको बहुत बार प्राप्त किया। किन्तु कषायोंको उपशमित नहीं किया। उसके बाद क्रमसे मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। वहां पर दीर्घ कालतक संयमका पालन कर कषायोंकी क्षपणाके लिये उद्यत हुआ उसके अधःप्रवृत्तकरणके चरम समयमें लोभसंज्वलनका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है।
६४४२. सम्यक्त्वकाण्डक, संयमासंयमकाण्डक और संयमकाण्डकोंके बिना जो क्षपितकर्माशिकलक्षणसे प्रदेशसत्कर्म स्तोक हो जाता है उस प्रदेशसत्कर्मकी अभव्यप्रायोग्य संज्ञा है, क्योंकि यह भव्य और अभव्य दोनोंमें साधारण है । उस सत्कर्मके साथ त्रसकाय को प्राप्त हुआ। स्थावरोंके योग्य जघन्य सत्कर्म करके त्रसकायको प्राप्त हुआ यह उक्त कथनका तात्पर्य है।
शंका-त्रसकायिक जीवोंमें बादमें किसलिए घुमाया ?
समाधान नहीं, क्योंकि सम्यक्स्व, संयमासंयम और संयम गुणश्रेणिनिर्जराओंके द्वारा उस द्रव्यका क्षपण करनेके लिए वहां पर उत्पन्न कराया है।
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जयधवलासहीदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ कसाया तेण किं ण उवसामिदा ? ण, तत्थ गुणसेढीए णिजरिजमाणदव्वादो लोभसंजलणस्स आगच्छमाणदव्वस्स बहुत्तुवलंभादो। ओकड्डणभागहारादो अधापवत्तभागहारो असं गुणो त्ति आयादो वओ तत्थ असं०गुणो किं ण जायदे ? ण, ओकड्डिददव्वस्स असं०भागमेत्तदव्वस्सेव गुणसेढिसरूवेण रयणुवलंभादो। किं च वयादो आओ असं०गुणो, अपुवकरणपढमसमयप्पहुडि जावाणुपुव्विसंकमपढमसमओ त्ति इत्थि-णउंसयवेद-छण्णोकसायदव्वस्स गुणसंकीण लोभसंजलणम्मि संकतिदसणादो। जेणेवमुवसमसेटिं चडमाणजीवलोभसंजलणदव्वस्स वही चेव तेण कसाया सकिं पि ण उवसामिदा त्ति मुहासियं । एवं सेससुत्तावयवाणं पि जाणिदण अत्थपरूवणा कायव्वा ।
* एदमादि कादूण जावुकस्सयं संतकम्मं णिरंतराणि हाणाणि ।
६४४३. एदस्स जहण्णदव्वस्सुवरि परमाणुत्तरादिकमेण वड्ढावेदव्वं जाव णिजराए ऊणपढमसमयअपुव्वकरण म्मि संचिददव्वति । ण तत्थ संचओ असिद्धो, अधापवत्तसंजदगुणसेढिणिजरादो गुणसंकीण अपुव्वकरणपढमसमए आगयदव्वस्स असं०गुणत्तुवलंभादो। एवं पड्डिदूण हिदेण सह पढमसमयापुवकरणस्स लोभसंजलणदव्व सरिसं। संपहि एदेण कमेण वड्डाविय उवरि चडावेदव्व जाव मायादव पडिच्छिद्रण हिदपढमसमओ त्ति । पुणो तत्थ हविय चत्तारि परिसे
शंका-यदि ऐसा है तो उसके द्वारा कषायोंका उपशम क्यों नहीं कराया गया।
समाधान-नहीं, क्योंकि वहां पर गुणश्रेणिके द्वारा निर्जराको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे लोभसंज्वलनको प्राप्त होनेवाला द्रव्य बहुत होता है।
शंका-अपकर्षणभागहारसे अधःप्रवृत्तभागहार असंख्यातगुणा है, इसलिए वहाँ पर आयसे व्यय असंख्यातगुणा क्यों नहीं हो जाता है।
समाधान-नहीं, क्योंकि अपकर्षणको प्राप्त हुए द्रव्यका असंख्यातवां भागमात्र द्रव्य ही गुणश्रेणिरूपसे रचनाको प्राप्त होता है। दूसरे व्ययसे आय असंख्यातगुणी होती है, क्योंकि अपूर्वकरणके प्रथम समयसे लेकर आनुपूर्वीसंक्रमके प्रथम समय तक स्त्रीवेद, नपुंसकवेद और छह नोकषायोंके द्रव्यका गुणसंक्रमण देखा जाता है। चूंकि इस प्रकार उपशमणि पर चढ़नेवाले जीवके लोभ संज्वलनके द्रव्यकी वृद्धि ही होती है, इसलिए कषायोंका उपशम नहीं कराया है ऐसा जो कहा है वह ठीक हो कहा है।
इस प्रकार सूत्रके शेष पदोंकी भी जानकर प्ररूपणा करनी चाहिए। ॐ इससे लेकर उत्कृष्ट सत्कर्मके प्राप्त होने तक निरन्तर स्थान होते हैं ।
$ ४४३. इस जघन्य द्रव्यके ऊपर एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे निर्जरासे रहित अपूर्वकरणके प्रथम समयमें सश्चित हुए द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। और वहां पर सवय असिद्ध नहीं है, क्योंकि अधःप्रवृत्तसंयत गुणश्रेणि निर्जरासे गुणसंक्रमके द्वारा अपूर्वकरणके प्रथम समयमें आया हुआ द्रव्य असंख्यातगुणा उपलब्ध होता है। इस प्रकार बढ़ कर स्थित हुए द्रव्यके साथ प्रथम समयवर्ती अपूर्वकरण लोभसंज्वलनसम्बन्धी द्रव्य समान है। अब इस क्रमसे बढ़ाकर मायाके द्रव्यको संक्रमित कर स्थित हुए प्रथम समयके प्राप्त होने तक ऊपर चढ़ाना चाहिए। पुनः वहाँ पर स्थापित कर चार पुरुषोंका भाश्नय कर
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गा० २२ ] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
३८५ अस्सिदूण परमाणुत्तरकमेण पंचहि वड्डीहि वड्ढावेदव्य जाव अप्पणो उक्कस्सदव्व पत्तं ति । अधवा अधापवत्तकरणचरिमसमयदव्व परमाणुत्तरादिकमेण वड्ढावेदव्य जाव अहगुणं जादं ति । ताधे एवं दब पडिच्छिदमायासंजलणलोभदव्वेण सरिसं ति पुव्विल्लदव्वं मोत्तण एदं घेत्तूण पंचहि वड्डीहि ढाणपरूवणा कायव्वा । अधवा अधापवत्तचरिमसमयजहण्णदव्वं किंचूणमट्ठगुणं वड्डाविय पुणोचरिमसमयसुहुमसांपरायियदव्वेण सरिसं जादं ति एदं मोत्तण चरिमसमयसुहुमसापरायियदव्वं घेत्तूण खविदगुणिदे अस्सिदण देसूणपुव्वकोडिविसयकालपरिहाणीए कीरमाणाए जहा वेयणाए मोहणीयस्स कदा तहा कायव्वा । णवरि संतकम्मे ओदारिजमाणे सुहुमसांपर।इयचरिमसमयप्पहुडि ओदारेदव्वं जाव मायासंजलणं पडिच्छिदपढमसमओ ति । पुणो तत्थ दृविय परमाणुत्तरकमेण वड्ढावेदव्वं जाव लोभसंजलणस्स उक्कस्सदव्वं ति ।
8 छण्णोकसायाणं जहएणयं पदेससंतकम्मं कस्स । ६४४४. सुगमं ।
* अभवसिद्धियपाओग्गेण जहएणएण कम्मेण तसेसु ागदो। तत्थ संजमासंजमं संजमं च बहुलो लद्धो । चत्तारि वारं कसाये उवसामेण तदो कमेण मणुसो जादो। तत्थ दीहं संजमद्ध' कादूण खवणाए अन्भुटिदो
एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे पाँच वृद्धियोंके द्वारा अपने उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए । अथवा अधःप्रवृत्तकरणके चरम समयके द्रव्यको एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे आठगणे होने तक बढ़ाना चाहिए। उस समय यह द्रव्य मायासंज्ललनके संक्रमणके बाद प्राप्त हुए लोभ संज्वलनके द्रव्यके समान होता है, इसलिए पहलेके द्रव्यको छोड़कर
और इस द्रव्यको ग्रहण कर पाँच वृद्धियोंके द्वारा स्थानोंकी प्ररूपणा करनी चाहिए । अथवा अधःप्रवृत्तकरणके चरम समयके जघन्य द्रव्यको कुछ कम आठ गुणा बढ़ाकर चरम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके द्रव्यके समान हो गया इसलिए इसे छोड़कर चरम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके द्रव्यको ग्रहण कर क्षपित और गुणित विधिका आश्रय कर कुछ कम पूर्वकोटिके विषयरूप कालसे हीन करने पर जिस प्रकार वेदना अनुयोगद्वारमें मोहनीयका किया है उस प्रकार करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सत्कर्मके उतारने पर सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समयसे लेकर मायासंज्वलनको संक्रमित कर प्राप्त हुए प्रथम समय तक उतारना चाहिये । पुनः वहाँ पर स्थापित कर एक एक परमाण अधिकके क्रमसे लोभसंज्य ळनके उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए।
8 छह नोकषायोंका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है। ६४४४. यह सूत्र सुगम है।
* अभव्योंके योग्य जघन्य सत्कर्मके साथ त्रसोंमें आया । वहां पर संयमासंयम और संयमको अनेक बार प्राप्त किया । चार बार कषायोंका उपशम कर अनन्तर क्रमसे मनुष्य हुआ। वहां पर दीर्घ संयमकालको करके क्षपणाके लिए उद्यत हुआ
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ तस्स चरिमसमयहिदिक्खंडए चरिमसमयअणिल्लेविदे छण्णं कम्मसाणं जहएणय पदेससंतकम्म।।
४४५. एइंदियपाओग्गसव्वजहण्णसंतकम्मग्गहणटुं अभवसिद्धियपाओग्गणिद्देसो कदो । तस्स जहण्णदव्वस्स असं०गुणाए सेढीए समयं पडि पदेसगालणटुं संजमासंजमं संजमं च बहुसो लद्धो त्ति णिद्द सो कदो। संजमासंजम-संजमगुणसेढिणिज्जराहितो पडिसमयमसंखेजगुणाए सेढीए कम्मणिज्जरणटुं गुणसंकमेण सगपदेसे परसरूवेण संकामणटुं च चत्तारिवारं कसाया उवसामिदा। पुवित्लासेसगुणसेढिहि दीहेण वि कालेण णिजरिददव्वादो असं०गुणदव्वणिजरणहं खवणाए अब्भुट्ठाविदो । चरिमष्टिदिखंडगस्स दुचरिमादिफालीओ गालिय चरिमफालिगहण चरिमडिदिखंडगे चरिमसमयअणिल्लेविदे त्ति भणिदं । एवमेदीए किरियाए णिप्पण्णछण्णोकसायाणं जहण्णयं पदेससंतकम्मं होदि ।
* तदादियं जाव उक्कस्सियादो एगमेव फद्दयं ।।
४४६. एत्थ एगं चेव फद्दयं, जहण्णदबे परमाणुत्तरकमेण जाव चरिमसमयणेरयियउक्कस्सदव्वं ति वड्डमाणे विरहाभावादो। एवमोघजहण्णर्ग समत्तं ।
६४४७. संपहि चुण्णिसुत्तसामित्तपरूवणं करिय उच्चारणाइरियसामित्तपरूवणं कस्सामो । जहण्णए पयदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओधे० मिच्छत्त० जह० पदेस० उसके चरम समयवर्ती स्थितिकाण्डकके चरमसमयमें अनिर्लेपित रहते हुए छह नोकषायोंका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है।
६४४५. एकेन्द्रियोंके योग्य सबसे जघन्य सत्कर्मका ग्रहण करनेके लिए अभव्यसिद्धप्रायोग्य पदका निर्देश किया है। उस जघन्य द्रव्यके असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे प्रत्येक समयमें प्रदेशोंको गलानेके लिए संयमासंयम और संयमको अनेक बार प्राप्त किया ऐसा निर्देश किया है। संयमासंयम और संयम गुणश्रेणिनिर्जराओंसे प्रत्येक समयमें असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे कर्मोकी निर्जरा करनेके लिए और गुणसंक्रमणके द्वारा अपने प्रदेशोंका पररूपसे संक्रमण करानेके लिए चार बार कषायोंका उपशम कराया है। पहलेकी समस्त गुणश्रेणियोंके द्वारा बहुत बड़े कालमें भी होनेवाली निर्जराके द्रव्यसे असंख्यातगुणे द्रव्यकी निर्जरा करानेके लिए क्षपणाके लिए उद्यत कराया है। चरम स्थितिकाण्डककी द्विचरम आदि फालियोंको गला कर चरम फालिका ग्रहण करनेके लिए चरम स्थितिकाण्डकके चरम समय में अनिर्लेपित रहने पर ऐसा कहा है। इस प्रकार इस क्रिया द्वारा उत्पन्न हुआ छह नोकषायोंको जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है।
ॐ उससे लेकर उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मके प्राप्त होने तक एक ही स्पर्धक होता है।
$ ४४६. यहाँ पर एक ही स्पर्धक है, क्योंकि जघन्य द्रव्यके एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे चरम समयवर्ती नारकीके उत्कृष्ट द्रव्य तक बढ़ने पर बीचमें अन्तरालका अभाव है।
इस प्रकार ओघ जघन्य स्वामित्व समाप्त हुआ। ६४४७. अब चूर्णिसूत्रसम्बन्धी स्वामित्वका कथन करके उच्चारणाचार्यके अनुसार स्वामित्वका कथन करते हैं। जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? जो अन्यतर क्षपित
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गा० २२ उत्तरपडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
३८७ कस्स ? अण्णदरो जो खविदकम्मंसिओ तसेसु आगदो । संजमासंजमं संजमच बहुसो लद्धो । चत्तारिवारे कसाए उवसामेदण एईदिए गदो । तत्थ पलिदोवमस्स असं०भागेण कालेण उवसामगसमयपबद्धे णिजरिदूण पुणो तसेसु आगंतूण बेच्छावडीओ सम्मत्तमणपालेदूण तदो दसणमोहणीयं खवेदि । अपच्छिमं द्विदिखंडयं अवणिजमाणमवणियं उदयावलियाए जं तं गलमाणं गलिदं । जाधे एकिस्से द्विदीए दुसमयकालहिदिग सेसं ताधे मिच्छत्तस्स जहण्णय पदेससंतफम्मं । सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणमेसेव जीवो मिच्छत्तं गदो। दीहाए उव्वेल्लणद्धाए उव्वल्लिदण एया द्विदी दुसमयकालद्विदी जस्स सेसा तस्स जहणिया पदेसविहत्ती। अट्टण्हं कसायाणं जहणिया पदेसविहिती कस्स ? अण्णदर० अभवसिद्धियपाओग्ग जहण्णसंत काऊण तसेसु आगदो । संजमासंजमं संजमं च बहुमो लद्रूण चत्तारिवारे कसाए उवसामेदूण एइंदियौं गदो। तत्थ पलि० असं०भागमच्छिदूण तसेसु आगदो। कसाए खवेदि । तस्स पच्छिमे हिदिखंडए अवगदे आवलियपविट्ठ गलमाणं गलिदं । एया द्विदी दुसमयकालट्ठिदी सेसं तस्स जहण्णय पदेससंतकम्मं । अणंताणु०चउक्क० एवं चेव । णपरि चत्तारिवारे कसाए उवसामेदूण अणंताणु० विसंजोएदूग पुणो संजोएदो सव्वलहुं पुणो वि सम्मत्तं पडिवण्णो। बेच्छावहीओ सम्मत्तमणुपालेदूण अणंताणुबंधिविसंजोएंतस्स जस्स एया हिदी दुसमयकालहिदी सेसा तस्म जहण्णयं पदेससंतकम्मं । णवंस० जह० कौशिक जीव त्रसोंमें आया। वहाँ संयमासंयम और संयमको बहुत बार प्राप्त किया। चार बार कषायोंका उपशम कर एकेन्द्रियोंमें चला गया। वहाँ पल्यके असंख्यातवें भागप्रमोण कालके द्वारा उपशामकसम्बन्धी समयप्रबद्धोंकी निर्जरा कर पुनः त्रसोंमें आकर दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वका पालन कर अनन्तर दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करता हुआ अपनीयमान अन्तिम स्थितिकाण्डकका अपनयन कर उदयावलिमें जो गलमान है उसका गालन कर दिया। किन्तु जब एक स्थितिमें दो समय काल स्थितिवाला प्रदेशसत्कर्म शेष है तब मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। इसी जीवके मिथ्यात्वको प्राप्त होकर दीर्घ उद्वेलना कर जब सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी दो समय कालवाली एक स्थिति शेष रहती है तब उसके उनकी जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है। आठ कषायोंकी जघन्य प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो अन्यतर जीव अभव्योंके योग्य जघन्य सत्कर्म करके त्रसोंमें आया। वहां संयमासंयम और संयमको बहुत बार प्राप्त कर और चार बार कषायोंको उपशमा कर एकेन्द्रियोंमें गया। वहां पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक रहकर त्रसोंमें आया और कषायोंका क्षय किया। उसके अन्तिम स्थितिकाण्डकके चले जाने पर आवलिके भीतर प्रविष्ट हुआ द्रव्य गलता हुआ गला, जब दो समय कालप्रमाण स्थितिवाली एक स्थिति शेष रही तब उसके उक्त आठ कर्मोका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। अनन्तानुबन्धोचतुष्कके जघन्य प्रदेशसत्कर्मका स्वामित्व इसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि चार बार कषायोंको उपशमा कर और अनन्तानुबन्धीचतुष्कका बन्ध कर पुनः संयुक्त होकर अतिशीघ्र फिर भी सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वका पालन कर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवाले जिसके दो समय कालवाली एक स्थिति शेष है उसके अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य
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૨૮૮
जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ कस्स ? अण्ण खविदकम्मंसिओ अभवसिद्धियपाओग्गेण जहण्णेण संतकम्मेण तसेसु आगदो। सम्मत्तं संजमं संजमासंजमं च बहुसो लद्धण चत्तारिवारं कसाए उवसामेदण बेच्छाहीओ सम्मत्तमणुपालेदूण खवेदुमाढत्तो । णउंसयवेदस्स अपच्छिमं विदिखंडयं संच्छुहमाणं संच्छुद्धं । उदओ णवरि सेसो। तस्स चरिमसमयणउंसयस्स जहण्णयं पदेससंतकम्मं । एवं चेव इत्थिवेदस्स । पुरिसवेद० जह० पदेस० चरिमसमयपुरिसेण घोलमाणजहण्णजोगट्ठाणे वट्टमाणेण जं बद्धं चरिमसमयअसंकामिदं तस्स जहण्णयं पदेससंतकम्मं । कोधसंज. जह० पदेसवि० कस्स ? चरिमसमयकोधवेदगे खवगेण जहण्णण जोगहाणेण बद्धं तं जं वेलं चरिमसमयअणिल्लेविदं तस्स जहण्णवं पदेससंतकम्मं । एवं माण-मायाणं । लोभसंज० जह० कस्स ? अण्ण. अभवसिद्धियपाओग्गेण जहण्णएण कम्मेण तसकायं गदो। तम्मि सम्मत्तं संजमं संजमासंजमंच बहुसो लहिदाउओ। सकि पि कसाए ण उवसामिदाओ। कसायक्खवणाए अब्भुडिदो तस्स अधापवत्तकरणचरिमसमए जहण्णयं लोभसंजलणस्स संतकम्मं । छण्णोकसायाणं जह० पदे०वि० कस्स ? अण्ण. खविदकम्मंसिओ तसेसु आगदो। तत्थ संजमासंजमं संजमं सम्मत्तं च बहुसो लद्धाउओ। चत्तारिवारे कसाए उवसामेदण कसायक्खवणाए अन्भुट्टिदो तस्स चरिमे द्विदिखंडए चरिमसमयअगिल्लेविदे छण्णं
प्रदेशसत्कर्म होता है। नपुंसकवेदका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? जो अन्यतर क्षपितकौशिक जीव अभव्योंके योग्य जघन्य प्रदेशसत्कर्मके साथ त्रसोंमें आया । सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयमको बहुत बार प्राप्त कर तथा चार बार कषायोंको उपशमाकर दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वको पाल कर क्षय करनेके लिए उद्यत हुआ । अन्तिम स्थितिकाण्डकका संक्रमण करते हुए संक्रमण किया। जब उदय शेष रहा तब उसके चरम समयमें नपुंसकवेदका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। इसी प्रकार स्त्रीवेदके जघन्य प्रदेशसत्कर्मका स्वामी जानना चाहिए । पुरुषवेदका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? जघन्य योगस्थानमें
न चरम समयवर्ती परुषने जो बन्ध किया तथा चरम समयमें संक्रमित नहीं किया उसके पुरुषवेदका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है । क्रोधसंज्वलनका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? चरम समयमें क्रोधका वेदन करनेवाले क्षपकने जघन्य योगस्थानका अवलम्बन लेकर बन्ध किया। फिर उसका संक्रमण करते हुए अन्तिम समयमें जब अनिर्लेपित रहता है तब उसके क्रोधसंज्वलनका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। इसी प्रकार मानसंज्वला और मायासंज्वलनका जघन्य स्वामी जानना चाहिए। लोभसंज्वलनका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? जो अन्यतर जीव अभव्योंके योग्य जघन्य प्रदेशसत्कर्मके साथ त्रसकायको प्राप्त हुआ। वहाँ पर सम्यक्त्व, संयम और संयमासंयमको बहुत बार प्राप्त किया। एक बार भी कषायोंका उपशम नहीं किया। कषायोंके क्षयके लिए उद्यत हुआ उसके अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमे लोभसंज्वलनका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है । छह नोकषायोंका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? जो अन्यतर क्षपितकर्माशिक जीव त्रसोंमें आया। वहां पर संयमासंयम, संयम और सम्यक्त्वको बहुत बार प्राप्त हुआ। चार बार कषायोंको उपशमा कर कषायों का क्षय करनेके लिए उद्यत हुआ उसके अन्तिम
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गा० २१ उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
३८९ कम्मंसाणं जहणणयं पदेससंतकम्मं ।
. ४४८. आदेसेणणेर० मिच्छ० जह० पदेस०वि० कस्स । जो खविदकम्मंसिओ विवरीयं गंतूण दीहाउढिदिएसु उववण्णो । सव्वलहुं सव्वाहि पजत्तीहि पजत्तयदो सव्वविसुद्धो सम्मत्तं पडिवण्णो । पुणो अणंताणुबंधिं विसंजोइत्ता दीहाउडिदि सम्मत्तमणुपालिय से काले मिच्छत्तं गाहदि ति तस्स जहण्णपदेसविहित्ती । एवमित्थिणउंसयवेदाणं । णवरि मिच्छत्तं गंतूण अंतोमुहुत्ते गदे अप्पप्पणो पडिवक्खबंधगद्धा. चरिमसमए जहण्णसंतकम्म । सम्मत्त-सम्मामि० जह० पदे०वि० कस्स ? अण्ण० जो खविदकम्मंसिओ मिच्छत्तं गदो। दीहाए उव्वेल्लणद्धाए उव्वेल्लमाणओ णेरइएसु उववण्णो तस्स एया हिंदी दुसमयकाल ट्ठिदिसेसे जहण्णयं संतकम्म। अणंताणु० ज० कस्स ? अण्ण० जो खविदकम्मंसिओ विवरीयं गतूण दीहाउटिदिएसु
रइएसुववण्णो। पुणो अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं पडिवज्जिय अणंताणुबंधि० विसंजोइय पुणो संजुत्तो होदण सव्वलहुं पुणो वि सम्मत्तं पडिवण्णो। तत्थ दीहं भवहिदि सम्मत्तमणुपालेदूण थोवावसेसे जीविदव्वए ति अणंताणुबंधि० विसंजोइदुं आढत्तो । अपच्छिमहिदिखंडयं संच्छुहमाणं सच्छद्धं । उदयावलियाए गलमाणं गलिदं । जाधे एया हिदी दुसमयकालडिदिसेसंतस्स जहण्णयं पदेससंतकम्म। बारसकसाय-भय-दुगुच्छाणं स्थितिकाण्डकके अन्तिम समयमें अनिर्लेपित रहने पर छह नोकषायोंका जघन्य प्रदेशसफर्म
होता है।
६४४८. आदेरासे नारकियों में मिथ्यात्यकी जघन्य प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो क्षपितकर्माशिक जीव विपरीत जाकर दीर्घ आयुवाले नारकियोंमें उत्पन्न हुआ। अतिशीघ्र सब पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हुआ। सर्वविशुद्ध होकर सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पुनः अनन्तानुबन्धीको विसंयोजनाकर दीर्घ आयुस्थिति काल तक सम्यक्त्वका पालन कर अनन्तर समयमें मिध्यात्वको प्राप्त होगा उसके मिथ्यात्त्रकी जघन्य प्रदेशविभक्ति होती है। इसी प्रकार स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका जघन्य स्वामित्व जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मिथ्योत्वमें जाकर अन्तर्मुहूर्त जाने पर अपने अपने प्रतिपक्ष बन्धक कालके अन्तिम समयमें जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? जो अन्यतर क्षपितकर्माशिक जीव मिश्र त्वमें गया । दीर्घ उद्वेलनाके द्वारा उद्वेलना करता हुआ नारकियोंमें उत्पन्न हुआ उसके दो समय कालप्रमाण स्थितिवाली एक स्थितिके शेष रहने पर जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? जो अन्यतर क्षपितकौशिक जीव विपरीत जाकर दीर्घ आयुस्थितिवाले नारकियोंमें उत्पन्न हुआ। पुनः अन्तमुहूतेके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त कर अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना कर तथा पुनः संयुक्त होकर अतिशीघ्र फिर भी सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। वहां दीर्घ भवस्थिति तक सम्यक्त्वका पालनकर स्तोक जीवितव्यके शेष रहने पर अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करनेके लिये उद्यत हुआ। अन्तिम स्थितिकाण्डकका संक्रमण द्वारा संक्रमण किया। उदयावलिका क्रमसे गलन हुआ। जब दो समय कालप्रमाण स्थिति शेष रही तब उसके अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। बारह
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ जह० पदे० कस्स ? अण्ण० जो खविदकम्मंसिओ विवरीयं गंतूण णेरइएसुववण्णो तस्स पढमसमय उववण्णल्लयस्स । एवं पुरिसवेद-हस्स-रदि-अरदि-सोगाणं । णवरि अंतोमुहुत्तमुववण्णस्स पडिवक्खबंधगद्धाचरिमसमए जहण्णयं पदेससंतकम्मं । एवं सत्तमाए पुढवीए । पढमादि जाव छहि त्ति एवं चेव । णवरि मिच्छत्तित्थि-णउंसयवेदाणं चरिमसमयणिप्पिदमाणस्स ।
४४९. तिरिवखगदीए तिरिक्खेसु मिच्छत्तस्स जह० पदे०वि० कस्स ? अण्ण. जो खविदकम्मंसिओ विवरीयं गंतूण तिपलिदोवमिएसु तिरिक्खेसुववण्णो। सव्वलहुं सम्मत्तं पडिवण्णो। अंतोमुहुत्तेण अणंताणुबंधिचउक विसंजोएदूण तत्थ भवहिदि तिपलिदोवममणुपालेदूण चरिमसमयणिप्पिदमाणस्स जहण्णय संतकम्मं । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्त-बारसकसाय-सत्तणोकसायाणं जरइयभंगो। अणंताणुबंधिचउक्क० जह० कस्स ? अण्ण. जो खविदकम्मंसिओ विवरोदं गंतूण दीहाउहिदिएसु तिरिक्खेसुबवण्णो । अंतोमुहुत्तेण सम्मत्तं पडिवण्णो । पुणो अणंताणुबंधिचउकं विसंजोइय संजुत्तो होदूण सबलहुं सम्मत्तं पडिवण्णो । तत्थ य भवहिदिआउअमणुपालिदूण थोवावसेसे जीविदव्वए ति अणंताणुबंधिचउक्क विसंजोइदं आढत्तो। तत्थ चरिमे हिदिखंडए अवगदे एया हिदी दुसमयकालढिदिया जस्स सेसा तस्स जहण्णयं संतकम्म। कषाय, भय और जुगुप्साका जघन्य प्रदेशसत्कम किसके होता है ? जो अन्यतर क्षपितकौशिक जीव विपरीत जाकर नारकियों में उत्पन्न हआ उसके उत्पन्न होने के प्रथम समयमें उक्त प्रकृतियोंका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। इसी प्रकार पुरुषवेद, हास्य, रति, अरति
और शोकके जघन्य प्रदेशसत्कर्मका स्वामी जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त बाद प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धक कालके अन्तिम समयमें इनका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। इसी प्रकार सातवीं पृथिवीमें जानना चाहिए। पहलीसे लेकर छठी पृथिवी तक इसी प्रकार जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि मिथ्यात्व, स्त्रीवेद और नपुंसक्वेद का जघन्य स्वामित्व वहाँसे निकलनेके अन्तिम समयमें कहना चाहिए।
६४४९. तियश्चगतिमें तिर्यश्चोंमें मिथ्यात्वकी जघन्य प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो अन्यतर क्षपितकांशिक जीव विपरीत जाकर तीन पल्यकी आयुवाले तिर्यश्चोंमें उत्पन्न हुआ । अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । अन्तर्मुहूर्तके द्वारा अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करके वहाँ पर तीन पल्यप्रमाण भवस्थितिका पालनकर वहाँसे निकलनेके अन्तिम समयमें उसके मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और सात नोकषायोंका भङ्ग नारकियोंके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है? जो अन्यतर क्षपितकांशिक जीव विपरीत जाकर दीर्घ आय स्थिति वाले तिर्यश्चोंमें उत्पन्न हुआ। अन्तमुहूर्तके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पुनः अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजनाकर और संयुक्त होकर अतिशीघ्र सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। पुनः भवस्थिति काल तक आयुका पालन कर स्तोक जीवितव्यके शेष रहने पर अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजनाके लिए उद्यत हुआ। वहाँ अन्तिम स्थितिकाण्डकके व्यतीत हो जाने पर जिसके दो समय कालप्रमाण स्थितवाली एक स्थिति शेष है उसके अनन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। स्त्रीवेद और नपुसकवेदका जघन्य प्रदेशसत्कर्म
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गा०२२]
उत्तरपयरिपठेसविसीय मामिन इत्थि-णउंसयवेदाणं जह० पदे० कस्स ? जो खविदकम्मंसिओ खइयसम्मादिट्ठी विवरीयं गंतूण तिपलिदोवमिएसु तिरिक्खेसु उववजिदूण चरिमसमए णिप्पिदमाणो तस्स जहण्णयं संतकम्मं । एवं पंचिंदियतिरिक्खपज०-पंचि०तिरिक्खजोणिणीणं । णवरि जोणिणीसु इंत्थि-णउंसयवेदाणं मिच्छत्तभंगो। पंचिंदियतिरिक्खअपज० मिच्छत्त-सोलसकसायभय-दुगुच्छाणं जह० पदे०वि० कस्स ? अण्ण० जो खविदकम्मंसिओ विवरीय गंतूण पंचिंदियतिरिक्खअपजत्तएसु उववण्णो तस्स पढमसमयउववण्णस्स जहण्णय पदेससंतकम्म। सत्तणोकसायाणमेवं येव । णवरि अंतोमुहु त्तवण्णल्लयस्स सगसगपडिवक्खबंधगद्धाचरिमसमए वट्टमाणस्स । सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं पंचिंदियतिरिक्खभंगो।
६४५०. मणुसाणमोघं । एवं चेव मणुसपजत्ताणं । णवरि इत्थिवे० चरिमहिदिखंडयचरिमसमयसंकामगस्स । मणुसिणीसु मणुसोपं । णवरि णउंसयवेदस्स चरिमहिदिखंडए चरिमसमयवट्टमाणस्स । पुरिसवेदस्स अधापवत्तकरणचरिमसमए वट्टमाणस्स । मणुसअपज्जत्ताणं. पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्तमंगो।
६४५१. देवगदीए देवेसु मिच्छ० जह० पदेस० कस्स ? जो खविदकम्मंसिओ चउवीससंतकम्मिओ दीहाउटिदिएसु देवेसु उववजिदूण तत्थ भवहिदिमणुपालेदण चरिमसमयणिप्पिदमाणयस्स जहण्णयं संतकम्मं । सम्मत-सम्मामिच्छत्त-बारसक०किसके होता है ? जो क्षपितकर्मा शिक क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव विपरीत जाकर तीन पल्यकी आयुवाले तिर्यञ्चोंमें उत्पन्न होकर निकलनेके अन्तिम समयमें स्थित है उसके उक्त कर्मो का जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। इसी प्रकार पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च पर्याप्त और पञ्चेन्द्रिय तिर्यञ्च योनिनी जीवों में जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि योनिनी जीवोंमें सोवेद और नपुसकवेदका भङ्ग मिथ्यात्वके समान है। पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त कोंमें मिथ्यात्व, सोलह कषाय, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो अन्यतर क्षपितकर्माशिक जीव विपरीत जाकर पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकों में उत्पन्न हुआ उसके उत्पन्न होनेके प्रथम समयमें उक्त कर्मोंका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। सात नोकषायोंका जघन्य स्वामित्व इसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि उत्पन्न होनेके अन्तर्मुहूर्त बाद अपनी अपनी प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धककालके अन्तिम समयमें होता है । सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका भङ्ग पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्चोंके समान है।
६ ४५०. मनुष्योंमें ओघके समान भङ्ग है। इसी प्रकार मनुष्य पर्याप्तकोंमें जानना चाहिए। इतनी विशेषता है कि स्त्रीवेदके जघन्य प्रदेशसत्कमका स्वामित्व अन्तिम स्थितिकाण्डकका संक्रमण होनेके अन्तिम समयमें होता है। मनुष्यिनियोंमें सामान्य मनुष्योंके समान भङ्ग है। इतनी विशेषता है कि नपुंसकवेदका जघन्य स्वामित्व अन्तिम स्थितिकाण्डकके अन्तिम समयमें विद्यमान मनुष्यिनीके होता है। तथा पुरुषवेदका जघन्य स्वामित्व अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयमें विद्यमान मनु यिनीके होता है। मनुष्य अपर्याप्त कोंमें पश्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्तकोंके समान भङ्ग है।
४५१. देवगतिमें देवोंमें मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? जो क्षपितकर्माशिक चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला जीव दीर्घ आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न होकर तथा वहां भवस्थितिका पालनकर वहांसे निकलता है तब निकलनेके अन्तिम समयमें उसके मिथ्यात्वका
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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्तो५ णवणोकसायाणं तिरिक्खोघं । अणंताणु० चउक्क० जह० पदे०वि० कस्स । जो खविदकम्मंसिओ वेदयसम्मादिही अट्ठावीससंतकम्मिओ दीहाउहिदिएसु देवेसु उववजिदूण तत्थ भवहिदिमणुपालेदूण त्थोवाबसेसे जीविदव्वए ति अणंताणुबंधि० विसंजोइदुमाढत्तो। तत्थ अपच्छिमे द्विदिखंडए अवगदे जस्स आवलियपविहं एवं विदिदुसमयकालट्ठिदियं सेसं तस्स जहण्णं संतकम्मं । भवण०-वाण-जोदिसि० विदियपुढविभंगो। सोहम्मीसाणप्पहुडि जाव णवगेवजा ति देवोघं । अणुदिसादि जाव सव्वह तिमिच्छससम्मत्त सम्मामि० ज० पदे० कस्स ? जो खविदकम्मंसिओ चदुवीससंतकम्मिओ दीहाउहिदिए सु उववजिदूण तत्थ य दोहं भवहिदिमणुपालेदृण चरिमसमयणिप्पिदमाणयस्स जहण्णयं संतकम्म । अणंताणु०चउ०-इत्थि-णउंसयवेदाणं देवोघं । बारसक०-पुरिसवेदभय-दुगुच्छाणं ज० पदेसवि० कस्स ? जो खविदकम्मंसिओ खइयसम्मादिट्ठी विवरीयं गंतूण अप्पप्पणो देवेसुववण्णो तस्स पढमसमयदेवस्स जहण्णयं संतकम्म। हस्स-रदिअरदि-सोगाणमेवं चेव । णवरि अंतोमुहुत्तववण्णल्लयस्स । एवं णेदव्वं जाव अणाहार ति।
एवं सामित्तं समत्तं ।
जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। सम्यक्त्व, सम्यग्मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषायोंका भङ्ग सामान्य तियनोंके समान है। अनन्तानुबन्धीचतुष्कको जघन्य प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो क्षपितकर्माशिक अट्ठाईस प्रकृतियोंका सत्कर्मवाला वेदकसम्यग्दृष्टि जीव दीर्घ आयुस्थिति वाले देवोंमें उत्पन्न होकर और वहां भवस्थितिका पालन कर स्तोक जीवितव्यके शेष रहने पर अनन्तानुबन्धीचतुष्ककी विसंयोजना करनेके लिए उद्यत हुआ । वहाँ अन्तिम स्थितिकाण्डकके अपगत होने पर जिसका आवलि प्रविष्ट कम दो समय स्थितिवाला एक स्थितिमात्र शेष रहा उसके अतन्तानुबन्धीचतुष्कका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। भवनवासी, व्यन्तर और ज्योतिषी देवोंमें दूसरी पृथ्वीके समान भङ्ग है। सौधर्म और ऐशान कल्पसे लेकर नौ अवेयक तकके देवोंमें सामान्य देवोंके समान भङ्ग है । अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? जो चौबीस प्रकृतियोंकी सत्तावाला क्षपितकाशिक जीव दीर्घ आयु स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न होकर और वहां पर दीर्घ भवस्थितिका पालन कर वहां से निकलनेवाला है उसके वहांसे निकलनेके अन्तिम समयमें उक्त कर्मोका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है । अनन्तानुबन्धीचतुष्क, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदका भङ्ग सामान्य देवोंके समान है। बारह कषाय, पुरुषवेद, भय और जुगुप्साकी जघन्य प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो क्षायिक सम्यग्दृष्टि क्षपितकर्माशिक जीव विपरीत जाकर अपने अपने देवोंमें उत्पन्न हुआ उस देवके उत्पन्न होने के प्रथम समयमें उक्त कोका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। हास्य, रति, अरति, और शोकके जघन्य प्रदेशसत्कर्म का स्वामित्व इसी प्रकार है। इतनी विशेषता है कि उत्पन्न होनेके बाद अन्तर्मुहूर्त होने पर इनके जघन्य प्रदेशसत्कर्मका स्वामी कहना चाहिए। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक जानना चाहिए ।
इस प्रकार स्वामित्व समाप्त हुआ।
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