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________________ ७६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ * एवं बारसकसाय छण्णोकसायाण । ६९५. जहा मिच्छत्तस्स उक्कस्ससामित्तं परविदं तहा एदेसिमद्वारसकम्माणं परूवेदव्वं, विसेसाभावादो । एदेसि कम्माणं मिच्छत्तस्सेव सत्तरिसागरोवमकोडाकोडिद्विदीए विणा कधं मिच्छत्तसंचयविहाणमेदेसि जुञ्जदे ? ण, कम्मट्ठिदि मोत्तूण अण्णेहिं पयारेहिं' सरिसत्तं पेक्खिय एवं 'बारसकसाय-छण्णोकसायाणं' इदि णिद्दिट्टतादो । तेण मिच्छत्तस्स गुणिदकिरियापारद्धपढमसमयादो उवरि तीसंसागरोवमकोडाकोडीओ गंतूण बारसक०-छण्णोकसायाणं गुणिदकिरियाए पारंभो होदि। जदि उकड्डिदृण कम्मक्खंधा धरिज्जंति, तो कम्मट्टिदीए विणा बहुअंकालं किण्ण धरिज्जति ? स्वामित्व बतलाया है । किन्तु किसी किसी उच्चारणामें उक्त अन्तिम समयसे नीचे अन्तर्मुहूर्त काल उतरकर उत्कृष्ट स्वामित्व बतलाया है । उसका कहना है कि जिस कालमें आयुका वंध होता है उस कालमें मोहनीयकर्मके बहतसे निषेकोंका क्षय हो जाता है। इसीको लेकर शंकाकारने शंका की है कि अन्तिम समयके बदलेमें आयुबन्ध कालके नीचेके समयमें उत्कृष्ट स्वामित्व क्यों नहीं कहा ? इस शंका का समाधान यह किया गया है कि यद्यपि आयुबन्धकालमें मोहनीयके बहुतसे समयप्रबद्धोंका नाश हो जाता है फिर भी उससे ऊपरके विश्राम कालमें उसके अधिक समयप्रबद्धोंका संचय हो जाता है, क्योंकि आयुबन्धकाल से विश्रामकाल संख्यातगुणा है, अतः अन्तिम समयवर्ती नारकोके ही उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है यह उक्त कथनका अभिप्राय है। इसी प्रकार बारह कषाय और छ नोकषायोंके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मका स्वामित्व होता है। ६९५. जिस प्रकार मिथ्यात्वके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन किया है उसी प्रकार इन अठारह कर्मोंका भी कहना चाहिये, दोनोंमें कोई अन्तर नहीं है। __ शंका-मिथ्यात्वकी तरह इन अठारह कर्मोकी सत्तर कोड़ाकोडि सागरप्रमाण स्थिति नहीं है, अतः उसके बिना मिथ्यात्वकर्मके सञ्चयका विधान इन कर्मोको कैसे युक्त हो सकता है? समाधान नहीं, क्योंकि कर्मस्थितिके सिवाय अन्य बातोंमें समानता देखकर 'बारह कषाय और छ नोकषायों के उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मका स्वामित्व मिथ्यात्वकी तरह होता है' ऐसा कहा है। श्रतः मिथ्यात्वको गुणितक्रियाके प्रारम्भ होनेके समयसे लेकर तीस कोड़ाकोड़ी सागर बीत जाने पर बारह कषाय और छ नोकषायोंकी गुणितक्रियाका प्रारम्भ होता है। . शंका-यदि उत्कर्षण करके कर्मस्कन्धोंको रोका जा सकता है तो कर्मस्थितिके बिना बहुत काल तक उनको क्यों नहीं रोका जा सकता है ? १. ता०प्रतौ 'अण्णेसिं(हिं) पयारेहि' आ०प्रतौ 'अण्णे िपयारेहि' इति पाठः । २. प्रा०प्रतौ 'छण्णोकसायाणं व गुणिदकिरिथाए' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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