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________________ २९२ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ कमेण विणासो चिराणसंतकम्मस्सेव किण्ण होदि १ ण, दोहि आवलियाहि विणा जहणेण वि बद्धकम्मस्स विणासाभावादो । अवेदो पुरिसवदं किण्ण बंध ? साहावियादो । जेसि जोगहाणाणं वड्डी हाणी अवद्वाणं च संभवइ ताणि घोलमाणजोगद्वाणाणि णाम । परिणामजोगट्टाणाणि ति भणिदं होदि । एदेण उववाद- एयंताणुवढिजोगट्ठाणाणं पडिसेहो कदो, तत्थ घोलमाणत्ताभावादो । एयंतेण वडणं ण घोलमाणत्तं, हाणि - अवढाणेहि विणा वडीए चेव तदणुववत्तीदो | तेण ण वडजोगडाणाणं घोलमाणतं । घोलमाणजोगो जहण्णओ अजहण्णओ वि अत्थि, तत्थ अजहण्णपडिसेह जहण्णणिद्देसो कदो । किमहं जहण्णजोगट्टाणस्स गहणं कीरदे ? थोवपदेसग्गहणहं । चरिमसमय पुरिसव दोदयक्खवगेण घोलमाणजहण्णजोगहाणे वट्टमाणेण जं बद्धं कम्म तमावलियसमयअवेदो संकामेदि, बंधावलियादिकंतत्तादो । traforare four संकामेदि । साहावियादो । जत्तो पाए संकाम दि तत्तो पाए सो समाधान नहीं, क्योंकि इससे नीचेके समयप्रबद्धों के ग्रहण करने पर बहुत द्रव्यका प्रसंग प्राप्त होता है । शंका- इन न्यूतन बंधे हुए समयप्रबद्धोंका प्राचीन सत्कर्मके समान युगपत् विनाश क्यों नहीं होता ? समाधान — नहीं क्योंकि जघन्यरूपसे भी बँधे हुए कर्मका दो आवलियोंके बिना विनाश नहीं होता । शंका- अपगतवेदी जीव पुरुषवेदको क्यों नहीं बाँधता है ? समाधान — क्योंकि ऐसा स्वभाव है । जिन योगस्थानोंको वृद्धि, हानि और अवस्थान सम्भव है वे घोलमान योगस्थान कहलाते हैं । ये ही परिणामयोगस्थान हैं यह इस कथनका तात्पर्य है । इससे उपपाद और एकान्तानुवृद्धि योगस्थानोंका निषेध किया है, क्योंकि वहां घोलमानता नहीं पाई जाती । एकान्त से बढ़ना घोलमानपना नहीं है, क्योंकि घोलमान में हानि और अवस्थानके बिना केवल वृद्धि नहीं बनती। इसलिये एकान्तानुवृद्धिरूप योगस्थानोंको घोलमान नहीं माना जा सकता । घोलमान योगस्थान जघन्य भी है और अजघन्य भी है, अतः वहाँ अजघन्यका निषेध करनेके लिये जघन्य पदका निर्देश किया है । शंका- जघन्य योगस्थानका ग्रहण किसलिये किया है ? समाधान-थोड़े प्रदेशोंका ग्रहण करनेके लिये पुरुषवेदके अन्तिम समय में घोलमान जघन्य योगस्थानमें विद्यमान क्षपकने जो कर्म बाँधा उसका अपगतवेद होनेके एक आवलि बाद संक्रमण करता है, क्योंकि इसकी बन्धावलि व्यतीत हो चुकी है । शंका - बन्धावलिके भीतर क्यों नहीं संक्रमण होता ? समाधान—क्योंकि ऐसा स्वभाव है । जिस समय से लेकर संक्रमण करता है उस १. श्रा० प्रती - मक्कमेणाविणासो' इति पाठः । २. ता०प्रतौ ' -जो गद्वाणाणि (गं ) पडिले हो' प्रा० प्रती 'जोगद्वाणाथि पडिसेहो' इति पाठ: । ३. ता०प्रतौ 'वट्टयां' इति पाठः । ४. आ०प्रतौ 'जहण्णओ वि' इति पाठः । ५. ता०प्रती 'सकमदि' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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