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________________ १९१ गा० २२] - उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्त 8 एवं णवुसयवेदस्स दोफहयाणि । ६३०५. कुदो ? तिप्पहुडिफयाणमत्थ संभवाभावादो। * एवमित्थिवेदस्स । णवरि तिपलिदोवमिएसु णो उववरणो । ६३०६. जहा णव सयव दस्स सामित्तपरूवणा कदा तहा इत्थिव दस्स वि कायव्वा, विसेसाभावादो। णव रि तिपलिदोवमिएसु णो उप्पादेदव्वो, कुरवसु वि इत्थिवदस्स बंधुवलंभादो। ॐ पुरिसवेदस्स जहणणयं पदेससंतकम्मं कस्स ? ६३०७. सुगमं? ॐ चरिमसमयपुरिसवेदोदयक्खवगेण घोलमाणजहएणजोगहाणे वट्टमाणेण जं कम्मं पद्धतं कम्ममावलियसमयअवेदो संकामेदि । जत्तो पाए संकामेदि तत्तो पाए सो समयपबद्धो आवलियाए अकम्मं होदि । तदो एगसमयमोसकिदण जहणणयं पदेससंतकम्मट्ठाणं ।। ३०८. चरिमसमयपुरिसव दोदयक्खवगेण बद्धसमयपबद्धो चेव एत्थ किमहं घेप्पदे ? ण, हेहिम सु घेप्पमाणेसु बहुदव्यप्पसंगादो । एदेसि पञ्चग्गबद्धसमयपबद्धाण 8 इस प्रकार नपुंसकवेदके दो स्पर्धक होते हैं। ६३०५. शंका-नपुंसकवेदके दो ही स्पर्धक क्यों सम्भव है। समाधान-क्योंकि नपुसकवेदमें तीन आदि स्पर्धक सम्भव नहीं है। * इसी प्रकार स्त्रीवेदके जघन्य स्वामित्वका कथन करना चाहिये । किन्तु इतनी विशेषता है कि इसे तीन पल्यकी आयुवाले जीवोंमें नहीं उत्पन्न कराना चाहिये ।। ६३०६. जिस प्रकार नपुंसकवेदके स्वामित्वका कथन किया उसी प्रकार स्त्रीवेदके स्वामित्वका भी कथन करना चाहिये, क्योंकि उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है। किन्तु इतनी विशेषता है कि तीन पल्यकी आयुवालोंमें नहीं उत्पन्न कराना चाहिये, क्योंकि कुरुओंमें भी स्त्रीवेदका बन्ध पाया जाता है। * पुरुषवेदका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? ६३०७. यह सूत्र सुगम है। . ॐ जघन्य परिणाम योगस्थानमें विद्यमान क्षपकने पुरुषवेदके उदयके अन्तिम सययमें जिस कर्मका बन्ध किया वह कर्म अपगतवेदके एक आवलि काल जाने पर तदनन्तर समयसे संक्रमणको प्राप्त होता है और जबसे संक्रमणको प्राप्त होता है तबसे वह समयप्रबद्ध एक आवलिके भीतर अकर्मभावको प्राप्त होता है, इसलिए इससे एक समय पोछे जाकर विद्यमान जीवके पुरुषवेदका जघन्य प्रदेशसत्कर्मस्थान होता है। ६३०८. शंका-पुरुषवेदके उदयके अन्तिम समयमें क्षपकके द्वारा बांधे गये समयप्रबद्धको ही यहाँ किसलिये ग्रहण किया गया है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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