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________________ - नहीं गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं ६१०२ एदं पिसम्मत्तुक्कस्सपदेसग्गं मिच्छत्तुक्कस्सपदेसग्गादोअसंखेजदिभागहोणं, गुणसेडीए गलिदासेसदव्वस्स तदसंखे०भागत्तादो। एगसमयपबद्धं ठविय दिवड्डगुणहाणीए गुणिदे मिच्छत्तुक्कस्सदव्वं होदि । तम्हि तप्पाओग्गोकडकड्डणभागहारेण तप्पाओग्गासंखेजरूवगुणिदेण भागे हिदे सम्मत्तादो एगसमएण गुणसेढीए गलिदुक्कस्सदव्वं होदि । एदस्स असंखे०भागो हेट्ठा गट्ठासेसदव्वं, एत्थोकड्डिददव्वस्स पहाणत्तुवलंभादो । जेणेदं णट्ठदव्वस्स पमाणं तेण सेसासेसमिच्छत्तदव्वं सम्मत्तसरूवेण अस्थि त्ति घेत्तव्वं । एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो । णवरि सम्मामिच्छत्तकस्सदव्वादो सम्मत्तकस्सदव्वं विसेसाहियं, गुणसेढीए उदएण गलिददव्वं पेक्खिय गुणसंकमेण सम्मत्तागारेण परिणयदव्वस्स असंखे०गुणत्तादो। तदसंखे गुणतं कत्तो णव्वदे ? उवरि भण्णमाणपदेसप्पा बहुअसुत्तादो। विशेषार्थ-सूत्र में कहा गया है कि सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मवाले जीवके ही सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है । इस पर शंकाकारका कहना है कि यह बात नहीं बन सकती, क्योंकि जब उस जीवके सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट द्रव्य रहता है तब सम्यक्त्वका उत्कृष्ट द्रव्य नहीं प्राप्त होता । और जब सम्यग्मिथ्यात्वका उदयावलिके बिना शेष सब द्रव्य सम्यक्त्वमें संक्रान्त होता है तब वह सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म रहता, क्योंकि तब तक सम्यग्मिथ्यात्वके गुणश्रेणी और गोपुच्छाकी निर्जरा हो लेती है । इसका यह समाधान किया गया है कि उक्त कथन एक जीवकी अपेक्षासे किया है। अर्थात् जो जीव सम्यग्मिमिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मवाला होता है वही जीव सम्यक्त्वका भी उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मवाला होता है। इसका यह मतलब नहीं है कि एक ही समयमें दोनों कर्मों के उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होते हैं किन्तु कालभेदसे सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मवाला जीव ही सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मका भी स्वामी होता है। १०२. सम्यक्त्वका यह उत्कृष्ट प्रदेशसंचय भी मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसंचयसे असंख्यातवें भागप्रमाण हीन होता है, क्योंकि गुणश्रेणिके द्वारा जो द्रव्य निर्जीर्ण हो जाता है वह सब द्रव्य मिथ्यात्वके उत्कृष्ट संचयके असंख्यातवें भागप्रमाण होता है। एक समयप्रबद्धकी स्थापना करके डेढ़ गुणहानिसे गुणा करने पर मिथ्यात्वका उत्कृष्ट द्रव्य होता है। उस उत्कृष्ट द्रव्यमें उसके योग्य असंख्यातगुणे तत्प्रायोग्य उत्कर्षण-अपकर्षण भागहारके द्वारा भाग देने पर जो लब्ध आवे वह सम्यक्त्व प्रकृतिका एक समयमें गणश्रेणिके द्वारा गलनेवाला उत्कृष्ट दव है और उसके असंख्यातवें भागप्रमाण नीचे नष्ट हुए कुल द्रव्यका प्रमाण है, क्योंकि यहाँ अपकर्षित द्रव्यकी प्रधानता पाई जाती है। यतः नष्ट द्रव्यका प्रमाण इतना है अतः बाकीका सब मिथ्यात्वका द्रव्य सम्यक्त्वरूपसे अवस्थित रहता है ऐसा इस सूत्रका भावार्थ लेना चाहिये । किन्तु सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट द्रव्यसे सम्यक्त्वका उत्कृष्ट द्रव्य विशेष अधिक है, क्योंकि गुणश्रेणिके उदयसे निर्जीर्ण होनेवाले द्रव्यकी अपेक्षा गुणसंक्रमके द्वारा सम्यक्त्वरूपसे परिणत हुआ द्रव्य असंख्यातगुणा होता है। शंका-वह द्रव्य असंख्यातगुणा है यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-आगे कहे जानेवाले प्रदेशविषयक अल्पबहुत्वका कथन करनेवाले सूत्रसे जाना जाता है। १२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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