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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ विशेषार्थ-क्रम यह है कि जिस समय मिथ्यात्वका पूरा संक्रमण होता है उस समय सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी बची हुई स्थितिके बहुभागका घात करता है और इस प्रकार संख्यात स्थितिकाण्डकोंका पतन करके जब सम्यग्मिथ्यात्वका सम्यक्त्वमें संक्रमण करता है तब सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है। इससे एक बात तो यह ज्ञात होती है कि जिस समय मिथ्यात्वका सम्यग्मिथ्यात्वमें पूरा संक्रमण होता है उससे सम्यग्मिथ्यात्वका सम्यक्त्वमें संक्रमण होनेके लिये अन्तर्मुहूर्त काल और लगता है, इसलिये सूत्रमें आये हुए 'तेणेव' पदका अर्थ 'सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मवालेके ही सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है' ऐसा न करके जो यह सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मवाला जीव है वही आगे चलकर सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मवाला होता है ऐसा करना चाहिये। अब इस योग्यतावाला आगे चलकर कब होता है इसका खुलासा मूल सूत्रमें ही किया है कि जब सम्यग्मिथ्यात्वका सम्यक्त्वमें पूरा संक्रमण करता है तब इस योग्यतावाला होता है। इतने कालके भीतर यद्यपि इस जीवके सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तर्मुहूर्त कालवाली गुणश्रेणीका और (उदयावलिप्रमाण) गोपुच्छाका गलन हो जानेसे सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेश नहीं रहते तब भी उस समय सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होने में कोई बाधा नहीं आती, क्योंकि उक्त गलित द्रव्यको छोड़कर सम्यग्मिथ्यात्वका शेष सब द्रव्य तब तक सम्यक्त्वको मिल जाता है, इसलिये उसका प्रदेशसत्कर्म बहुत अधिक बढ़ जाता है। यही कारण है कि गुणित कर्माशवाले जीवके जब सम्यग्मिथ्यात्वका सम्यक्त्वमें पूरा संक्रमण होता है तब सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म कहा है। यद्यपि इस प्रकार सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म प्राप्त होता है तो भी उसका प्रमाण कितना है यह एक प्रश्न है जिसका खलासा करते हए वीरसेन स्वामीने दो बातें कहीं हैं। प्रथम तो यह कि सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे असंख्यातवां भाग कम है और दूसरी यह कि सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे विशेष अधिक है। पहली बातके समर्थनमें वीरसेन स्वामीने यह हेतु दिया है कि गुणश्रेणीके द्वारा जितना द्रव्य गल जाता है वही अकेला मिथ्यात्वके प्रदेशसत्कर्मके असंख्यातवें भाग है और अधस्तन गलनाके द्वारा जो और द्रव्य गला है वह अतिरिक्त है। इससे स्पष्ट है कि मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मसे सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म असंख्यातवां भाग कम होता है। विशेष खुलासा इस प्रकार है कि मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म गुणितकर्मा शवाले जीवके सातवें नरकके अन्तिम समयमें होता है। तब इसके सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी सत्ता नहीं पाई जाती । अब यही जीव : वहाँसे निकलकर और तिर्यश्चके दो तीन भव लेकर मनुष्य होता है और आठ वर्षका होकर अन्तर्मुहूर्तमें उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त करके मिथ्यात्वके तीन टुकड़े कर देता है और इस प्रकार मिथ्यात्व तीन भागोंमें बट जाता है। अनन्तर अन्तर्मुहूर्तमें दर्शनमोहनीयकी क्षपणा करता है और तब मिथ्यात्वको सम्यग्मिथ्यात्वमें और सम्यग्मिथ्यात्वको सम्यक्त्वमें संक्रमित करता है और इस प्रकार सम्यक्त्वका उत्कृष्ट द्रव्य प्राप्त किया जाता है। अब यहाँ विचारणीय बात यह है कि एक मिथ्यात्वका द्रव्य ही जो कि सातवें नरकके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट था वही आगे चलकर तीन भागोंमें बटता है, सम्यक्त्व प्राप्तिके समय मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्वकी गुणश्रेणी निर्जरा उसीमेंसे होती है और अन्तमें वही गलितसे शेष बचकर सबका सब सम्यक्त्वरूप परिणमता है तो वह मिथ्यात्वके उत्कृष्ट द्रव्यसे कम होना ही चाहिए। अब कितना कम है सो इस प्रश्नका यह खुलासा किया कि अ कि अपकषण-उत्कषण भागहारके द्वारा सब द्रव्यका असंख्यातवा भाग ही गुणश्रेणी में प्राप्त होता है अतः इतना कम Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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