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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं 8 णवू सयवेदस्स उकस्सयं पदेससंतकम्मं कस्स ? ६१०३. सुगमं। 83 गुणिदकम्मंसिओ ईसाणं गदो तस्स चरिमसमयदेवस्स उकस्सयं पदेससंतकम्म। १०४. गुणिदकम्मंसिओ किमट्ठमीसाणदेवेसु उप्पाइदो ? तसबंधगद्धादो संखेजगुणथावरबंधगद्धाए पुरिसित्थिवेदबंधसंभवविरहिदाए णqसयवेदस्स बहुदव्वसंचयह । ण च सत्तमपुढवीए थावरबंधगद्धा अस्थि जेण तत्थ णवूसयवेदस्स उकस्सपदेससंतकम्भं होज्ज । तसबंधगद्धादो थावरचंधगद्धा संखेजगुणा त्ति कुदो णव्वदे ? 'सव्वत्थोवा तसबंधगद्धा । थावरबंधगद्धा संखेजगुणा' ति एदम्हादो महाबंधसुत्तादो णव्वदे। सत्तमाए है। यहां अधःस्थिति गलनाके द्वारा जितना द्रव्य गल गया उसकी विवक्षा नहीं की, क्योंकि वह गुणश्रेणिके द्रव्यके भी असंख्यातवें भागप्रमाण है। यहाँ अकर्षण-उत्कर्षण भागहारको जो असंख्यातसे गुणित किया गया और फिर उसका जो मिथ्यात्वके उत्कृष्ट द्रव्यमें भाग दिया गया सो इसका कारण यह है कि अपकर्षण-उत्कर्षण भागहारकी क्रिया बहुत काल तक चलती रहती है जिसका प्रमाण असंख्यात समय होता है। तथा दूसरी बातके समर्थनमें यह हेतु दिया है कि सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट द्रव्य प्राप्त होने पर उसमेंसे गुणश्रेणिको जितना द्रव्य मिलता है उससे भी असंख्यातगुणा द्रव्य सम्यक्त्वको मिलता है और इस प्रकार सम्यक्त्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मके समय उसका कुल संचित द्रव्य सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट संचयसे अधिक हो जाता है । तात्पर्य यह है कि सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट संचयके समय सम्यक्त्वका जितना संचय है वह गुणश्रेणिरूपसे सम्यग्मिथ्यात्वके गलनेवाले द्रव्यसे बहुत अधिक है और फिर इसमें गुणश्रेणीके द्वारा जितना द्रव्य गलता है उसके सिवा सम्यग्मिथ्यात्वका शेष सब द्रव्य आ मिलता है । अब यदि सम्यक्त्वके इन दोनों द्रव्योंको जोड़ा जाता है तो उसका सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट द्रव्यसे विशेष अधिक होना स्वाभाविक है। यही कारण है कि वीरसेन स्वामीने सम्यक्त्वके उत्कृष्ट द्रव्यको सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट द्रव्यसे विशेष अधिक बतलाया। * नपुंसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? ६ १०३. यह सूत्र सुगम है। . * गुणितकर्माशवाला जो जीव ईशान स्वर्गमें उत्पन्न हुआ उसके देवपर्यायके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है। १०. शंका-गुणितकाशवाले जीवको ईशान स्वर्गके देवोंमें क्यों उत्पन्न कराया है ? समाधान-त्रसबन्धकके कालसे स्थावरबन्धकका काल संख्यातगुणा है और उस स्थावरबन्धक कालमें पुरुषवेद और स्त्रोवेदका बन्ध संभव नहीं है, अतः नपुसकवेदका बहत द्रव्य संचय करने के लिये ईशान स्वर्गके देवोंमें उत्पन्न कराया है। और सातवें नरकमें स्थावरबन्धक काल है नहीं, जिससे वहाँ नपुंसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म हो। शंका-सबन्धकके कालसे स्थावरबन्धकका काल संख्यागुणा है यह किस प्रमाणसे जाना ? समाधान-त्रसबन्धकका काल सबसे थोड़ा है । स्थावरबन्धकका काल उससे संख्यातगुणा है' इस महाबन्धके सूत्रसे जाना। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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