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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्तो५ * सम्मत्तस्स वि तेणेव जम्मि सम्मामिच्छत्तसम्म पक्लित्त तस्स सम्मत्तस्स उक्कस्सपदेससंतकम्मं । __१०१. तेणे त्ति वुत्ते सम्मामिच्छत्तकस्सपदेससंतकम्मिएण जीवेणे ति वुत्तं होदि । सम्मामिच्छत्तुक्कस्सपदेससंतकम्मिओ सगुदयावलियबाहिरासेसपदेसग्गं ण सम्मत्ते संकामेदि, अंतोमुहुत्तेण विणा तस्संकमणाणुववत्तीदो । जम्हि उद्देसे उदयावलियबाहिरासेससम्मामिच्छत्तदव्वं सम्मत्ते संकामेदि ण तत्थ सम्मामिच्छत्तस्स पदेसग्गमुक्कस्सं, गालिदअंतोमुहुत्तमेत्तगुणसेढीगोवुच्छत्तादो । तम्हा तेणेवे ति ण घडदे १ ण एस दोसो, जीवदुवारेण दोण्हं डाणाणमेयत्तं पडि विरोहाभावेण तदुववत्तीदो । सम्मामिच्छत्तुक्कस्सपदेससंतकम्मं काऊण पुणो अंतोमुहुत्तकालं संखेजडिदिखंडयसहस्सेहि गमिय सम्मामिच्छत्तस्स उदयावलियबाहिरासेसदव्वे सम्मत्तस्सुवरि संकामिदे सम्मत्तुक्कस्सदव्वं होदि ति भावत्थो। इसके बाद दूरापकृष्टि नामकी स्थितिके असंख्यात खण्ड करके उनमेंसे बहुतसे स्थिति खण्डोंका घात अन्तर्मुहुर्तमें करता है तब तक मिथ्यात्वका द्विचरिमस्थितिकाण्डक हो जाता है। इसके बाद मिथ्यात्वके अन्तिम स्थितिकाण्डकका आगाल करते हुए अर्थात् उसके ऊपरकी स्थितिमें स्थित निषेकोंको प्रथम स्थितिमें स्थापित करते हुए उदयावलिसे बाहर ही स्थापित करता है और ऐसा करके अन्तिम स्थितिकाण्डककी फालियोंका सम्यक्त्व और सभ्यग्मिथ्यात्व रूपसे संक्रमण करता है। ऐसा करते हुए जब मिथ्यात्वके उस अन्तिम स्थितिकाण्डककी अन्तिम फाली सम्यग्मिथ्यात्वरूपसे हो जाती है तब सम्यग्मिथ्यात्वको उत्कृष्ट प्रदेशविभक्तिहोती है। वही जीव जब सम्यग्मिथ्यात्वको सम्यक्त्वमें प्रक्षिप्त कर देता है तो उसके सम्यक्त्वप्रकृतिका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है। ६ १०१. 'वही जीव' ऐसा कहनेसे सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मवाले जीवका ग्रहण होता है। शंका-सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मवाला जीव अपने उदयाचली बाह्य समस्त प्रदेशसमूहको सम्यक्त्व प्रकृतिमें संक्रान्त नहीं करता, क्योंकि अन्तर्मुहूर्त कालके विना उसका संक्रमण नहीं बन सकता । और जब उदयावली बाह्य सम्यग्मिथ्यात्वके सब द्रव्यको सम्यक्त्वमें संक्रान्त करता है तब उसके सम्यग्मिथ्यात्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म नहीं रहता, क्योंकि उस समय अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण गुणश्रेणी और गोपुच्छका गलन हो जाता है, अतः सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मवाले जीवके ही सम्यक्त्वका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है यह बात घटित नहीं होती ? समाधानयह दोष ठीक नहीं है, क्योंकि एक जीवकी अपेक्षा दोनों स्थानोंके एक होनेमें कोई विरोध नहीं है, अतः उक्त कथन बन जाता है। भावार्थ यह है कि सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मको करके फिर संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंके द्वारा अन्तर्मुहूर्त कालको बिताकर जब सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके उदयावली बाह्य समस्त द्रव्यको सम्यक्त्व प्रकृतिमें संक्रमित करता है तब सम्यक्त्वका उत्कृष्ट द्रव्य होता है। १. आ.प्रती 'दोण्हमवट्ठाणमेयत्तं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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