SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 377
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 3 जयधवलासहिदे फसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ हेट्ठा उप्पण्णमिदि भावत्थो। संपहि एदे एत्थेव ढविय पुणो एगफालिखवगो वेव पुषविहाणेण सव्वसंधीओ जाणिय वड्ढावेदव्वो जाव दुसमयूणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धा उक्कस्सजोगं पत्ता त्ति । एवं वड्डाविदे दुसमयूणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धाणमुक्कस्सगंथहाणादो हेट्ठा चदुरूऊणदगुणधापवत्तभागहारमेत्तगंथहाणविच्चालाणि मोत्तण सेसासेस विच्चालेसुतदियपरिवाडीए हाणाणि समुप्पण्णाणि । एवं तदियपरिवाडी समत्ता। ४१६. संपहि चउत्थपरिवाडी उच्चदे-सवेदचरिम-दचरिम-तिचरिमसमएसु समयाविरुद्धघोलमाणजहण्णजोगेण बद्धछप्फालिपखवगहाणं सादिरेयतिगुणजोगहाणेण बद्धगफालिखवगगंथहाणेण समाणत्तादो पुणरुतं । संपहि एगफालिक्खवगं तत्थेव हविय तिण्णिफालिक्खवग पक्खेउत्तरजोग णेदूण दोफालिक्खवगे तिपक्खेउत्तरजोग णीदे अपुणरुत्तहाणं होदि, चत्तारिचरिमफालिढाणाणि पंचदुचरिमफालिट्ठाणाणि च बोलेदूण छट्ठदुचरिमफालिढाणस्स हेट्ठा समुप्पण्णत्तादो। संपहि एदे एत्थेव हविय एगफालिक्खवगो पक्खेउत्तरकमेण बढावेदव्वो जाव जहण्णजोगहाणादो असंखेजगुणं जोग पत्तो त्ति । एवं सव्वसंधीओ जाणिदूण णेदव्वं जाव दुसमयणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धा उक्कस्सजोगं पत्ता त्ति । एवं णीदे दुसमयूणदोआवलियमेत्तसमयपबद्धाणमुक्कस्सगंथहाणादो हेट्टा पंचरूऊणदगुणअधापवत्तभागहारमत्तगंथहाणाणं विच्चालाणि मोत्तण अण्णत्थ सव्वत्थ वि अपुणरुत्तहाणाणि समुप्पण्णाणि । एवं चउत्थपरिवाडी समत्ता । एवमेगफालिखवगं तात्पर्य है। अब इन्हें यहीं पर स्थापित कर पुनः एक फालिक्षपकको ही पूर्व विधिसे सब सन्धियोंको जानकर दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंके उत्कृष्ट योगको प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार बढ़ाने पर दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धों के उत्कृष्ट ग्रन्थस्थानसे नीचे चार रूप कम दुगुणे अधःप्रवृत्तभागहारमात्र ग्रन्थस्थानोंके अन्तरालोंको छोड़कर शेष समस्त अन्तरालोंमें तृतीय परिपाटीके स्थान हुए। इस प्रकार तृतीय परिपाटी समाप्त हुई। ४१६. अव चतुर्थ परिपाटीका कथन करते हैं-सवेद भागके चरम, द्विचरम और त्रिचरम समयोंमें यथाशास्त्र घोलमान जघन्य योगसे बाँधा गया छह फालि क्षपक्रस्थान साधिक तिगुने योगस्थानसे बाँधे गये एक फालिक्षपक ग्रन्थस्थानके समान होनेसे पुनरुक्त है। अब एक फालिक्षपर को वहीं पर स्थापित कर तीन फालिक्षपकको प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त कराकर दो फालिक्षपकके तीन प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त करने पर अपुनरुक्त स्थान होता है, क्योंकि चार चरम फालिस्थानोंको और पाँच द्विचरम फालिस्थानोंको बिताकर छह द्विचरम फालिस्थानके नीचे उत्पन्न हुआ है। अब इन्हें यहीं पर स्थापित कर एक फालिक्षपकको एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे जघन्य योगस्थानसे असंख्यातगुणे योगके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। इस प्रकार सब सन्धियोंको जानकर दो समयकम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंके उत्कृष्ट योगको प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए। इस प्रकार ले जाने पर दो समय कम दो आवलिमात्र समयप्रबद्धोंके उत्कृष्ट ग्रन्थस्थानसे नीचे पाँच रूप कम दुगुणे अधःप्रवृत्तभागहारमात्र ग्रन्थस्थानों के अन्तरालोंको छोड़कर अन्यत्र सर्वत्र ही अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न हुए। इस प्रकार चतुर्थ परिपाटी समाप्त हुई। इस प्रकार एक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy