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________________ २७२ . जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ तेरसणामकम्माणि थीणगिद्धितियं च खविय पुणो बारसकम्माणमणुभागस्स देसघादिबंधं करिय पुणो अंतरकरणं समाणिय णवंसयव दस्स खवणं पारभिय पुणो अंतोमुहुत्ते बोलीणे णवसयवदचरिमफालिं सव्वसंकमेण पुरिसव दस्सुवरि संछुहिय एगणिसेगे एगसमयकालडिदिगे सेसे जहण्णदव्व होदि ति भावत्थो । ६ २७५. संपहि एत्थ उ वसंहारम्मि संचयाणुगमो वुचदे । तं जहाकम्महिदिआदिसमयप्पहुडि उक्कस्सणिल्लेवण-तिण्णिपलिदोवम-बछावद्विसागरोवमपुवकोडिमेत्ताणं कम्महिदिपढमसमयप्पहुडि समयपबद्धाणं जहण्णपदम्मि एगो वि परमाणू णत्थि, कम्मट्ठिदीदो उवरि सव्वसमयपबद्धाणमवहाणामावादो । अवसेससमयपबद्धाणं एगो वा दो वा एवमणंता वा परमाणु अत्थि । ६ २७६. संपहि एत्थ पगदि-विगिदिगोवुच्छाणं गवसणाकीरमाणाए जहा मिच्छत्तस्स परूवणा कदा तहा कायव्वा । उक्कड्डणाए विज्झादेण च आयव्वयणिरूवणाए मिच्छत्तभंगो । तेण दिवड्डगुणहाणिगुणिदेगेइंदियसमयपबद्धे अंतोमुहुत्तेणोवट्टिदओकडुक्कड्डणभागहारेण तिणिपलिदोवमणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासिणा व छावट्ठिणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासिणा दिवड्डगुणहाणीए च खंडिदे पयडिगोवुच्छा होदि । ओकड्डणभागहारो पलिदो. असंखे०भागमेत्तो। तेण भागहारेण खंडिदेगखंडमेत्तदव्वे सव्वगोवच्छाहिंतो समयं नामकर्मकी तेरह प्रकृतियां और तीन स्त्यानगृद्धि इन सबकी क्षपणा की। फिर बारह कर्मोके अनुभागका देशघातिबन्ध किया। फिर अन्तरकरण करके नपुंसकवेदकी क्षपणाका प्रारम्भ किया। फिर अन्तर्मुहूर्त कालको बिताकर नपुसकवेदकी अन्तिम फालिको सर्वसंक्रमणके द्वारा पुरुषवेदके ऊपर निक्षिप्त किया। अनन्तर एक समयकी स्थितिवाले एक निषेकके शेष रहने पर जघन्य द्रव्य होता है यह इसका भाव है। .६ २७५. अब यहां उपसंहारका प्रकरण है। उसमें पहले संचयानुगमका कथन करते हैं जो इस प्रकार है-कर्मस्थितिके पहले समयसे लेकर उत्कृष्ट निर्लेपनरूप तीन पल्य, दो छयासठ सागर और एक पर्वकोटि प्रमाण समयबद्धोंका एक भी परमाणु जघन्य द्रव्यमें नहीं है, क्योंकि कर्मस्थितिके ऊपर सब समयप्रबद्धोंको अवस्थान नहीं पाया जाता है । अवशेष समयप्रबद्धोंके एक परमाणु अथवा दो परमाणु इसी प्रकार अथवा अनन्त परमाणु जघन्य द्रव्यमें हैं। ६२७६. अब यहां प्रकृतिगोपुच्छा और वकृतिगोपुच्छाका विचार करने पर जिस प्रकार मिथ्यात्वका कथन किया है उसप्रकार करना चाहिये, क्योंकि उत्कर्षण और विध्यातके निमित्तसे होनेवाले आय और व्ययका कथन मिथ्यात्वके समान है। इसलिये डेढ़ गुणहानिसे गुणा किये गये एकेन्द्रियके एक समयप्रबद्ध में अन्तमुहूर्तसे भाजित अपकण-उत्कर्षणभागहार, तीन पल्यकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि दो छयासठ सागरकी नाना गुणहानिशलाकाओंकी अन्योन्याभ्यस्त राशि और डेढ़ गुणहानि इन सब भागहारोंका भाग देने पर प्रकृतिगोपच्छा प्राप्त होती है। शंका-अपकर्षण भागहार पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण है । इस भागहारका Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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