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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं २७३ पडि गलमाणे पलिदो० असंखे०भागमेत्तकालेण णव सयवेदेण णिस्संतेण होदव्वं, णिरायत्तादो। ण च णिकाचिदत्तादो ण ओकड्डिजदि, सव्वगोवुच्छाणं सबप्पणा णिकाचणाणुववत्तीदो। ओकडणाभागहारस्स पलिदो० असंखे०भागपमाणत्तं फिट्टिदूण असंखेजलोगाणं तत्तप्पसंगादो च । तम्हा ण एस भागहारो' वेछावद्विसागरोवमपरिभमणं च जुजदे ? एत्थ परिहारो वुच्चदे-आएण विणा बहुअं कालमच्छमाणाण' पयडीणमोकणभागहारेण विज्झादभागहारेणेव अंगुलस्स असंखे०भागेण तत्तो पहुएण ना होदव्वं, अण्णहा पुन्वुत्तदोसप्पसंगादो । ओकड्डणभागहारो पलिदो० असंखे०भागो घेव त्ति वक्खाणप्पाबहुएण विरोहो होदि त्ति णासंकणिशं उक्कड्डणाविणाभाविओकड्डणाए तत्थ पलिदो० असंखे०भागपमाणत्तप्परूवणादो। सुत्तेण वक्खाणेण वा विणा कधमेदं णातुं सकिजदे ? ण, वेछावहिसागरोवमेसु सादिरेगेसु हिंडिदेसु वि णवंसयव दसंतकम्म ण णिश्लेविञ्जदि त्ति सुत्तण्णहाणुववत्तीए तस्स सिद्धीदो । तम्हा पयडिगोवुच्छभागहारो पुव्वत्तो चेव णिरवजो त्ति घेत्तव्व। भाग देने पर एक भागप्रमाण द्रव्य सब गोपुच्छाओं में से प्रतिसमय गलता है, इसलिये पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कालके द्वारा नपुसकवेद निःसत्त्व हो जाना चाहिए, क्योंकि नपुंसकवेदकी आय नहीं पाई जाती। यदि कहा जाय कि निकाचित होनेसे अपकर्षण नहीं होता सो भी बात नहीं है, क्योंकि सब गोपुच्छाओंकी पूरी तरहसे निकाचना नहीं बन सकती और अपकर्षण भागहार पल्यके असंख्यातवें भाग प्रमाण न रहकर या तो असंख्यात लोकप्रमाण प्राप्त होता है या अनन्तप्रमाण प्राप्त होता है। इसलिए जो प्रकृतिगोपुच्छाको प्राप्त करनेके लिए भागहार कहा है वह नहीं बनता और न दो छयासठ सागर कालतक परिभ्रमण करना बनता है ? समाधान-अब इस शंकाका समाधान करते हैं-आयके बिना बहुत कालतक विद्यमान रहनेवाली प्रकृतियोंका अपकर्षण भागहार या तो विध्यातभागहारके समान अंगुलके असंख्यातवें भागप्रमाण होना चाहिये या उससे भी बड़ा होना चाहिये, अन्यथा पूवोंक्त दोष आता है। यदि कहा जाय कि अपकर्षग भागहार पल्यके असंख्यातव भागप्रम इस प्रकारका व्याख्यान करनेवाले अल्पबहुत्व के साथ पूर्वोक्त कथनका विरोध आता है सो ऐसी आशंका भी नहीं करनी चाहिये, क्योंकि वहाँ पर उत्कर्षणका अविनाभावी अपकर्षणको ही पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण कहा है। शंका-सूत्र या व्याख्यानके बिना यह बात कैसे जानी जा सकती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि साधिक दो छयासठ सागर काल तक घूमने पर मा नपुंसकवेदका सत्कम निःशेष नहीं होता, इस प्रकार सूत्रका कथन अन्यथा बन नहीं सकता, इससे उक्त कथनकी सिद्धि होती है। इसलिये प्रकृतिगोपुच्छाका भागहार जो पहले कहा है वही निर्दोष है यह यहां स्वीकार करना चाहिये। १.पा. प्रतौ 'एसो भागहारो' इति पाठः । २. आ प्रतौ 'काल गच्छमाणाणं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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