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________________ गा० २२] मूलपयडिपदेसविहत्तीए णाणाजीवेहि भंगविचओ ४२. णाणाजीवेहि भंगविचयाणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसे० । ओघेण भुज०-अप्पद०-अवढि० णियमा अस्थि । एवं तिरिक्खोघे । आदेसेण णेरइएसु मोह० भुज०-अप्पद० णियमा अस्थि । सिया एदे च अवहिदविहत्तिओ च १। सिया एदे च अवद्विदविहत्तिया च २। धुवेण' सह तिण्णि ३ । एवं सव्वणेरइय-सव्वपंचिंदियतिरिक्ख-मणुसतिय-देव-भवणादि जाव सव्वसिद्धि त्ति । मणुसअपज. मोह० तिण्णि पदा भयणिज्जा । भंगा २६ । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । पदोंका जघन्य अन्तरकाल एक समय व उत्कृष्ट अन्तरकाल अन्तर्मुहूर्त कहा है। इसी प्रकार अनाहारक मार्गणा तक अपनी अपनी स्थितिका विचार करके तीनों पदोंका अन्तरकाल जान लेना चाहिये। ४२. नाना जीवोंकी अपेक्षा भंगविचय अनुगमसे निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे भुजगार, अल्पतर और अवस्थितविभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। इसी प्रकार सामान्य तिर्यञ्चोंमें जानना चाहिए । आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी भुजगार और अल्पतर विभक्तिवाले जीव नियमसे हैं। कदाचित् अनेक जीव भुजगार और अल्पतरविभक्तिवाले हैं और एक जीव अवस्थित विभक्तिवाला है १ । कदाचित् अनेक जीव भुजगार और अल्पतरविभक्तिवाले हैं और अनेक जीव अवस्थितविभक्तिवाले हैं २ । ध्रुव भंगके मिलानेसे ये तीन भंग होते हैं । इसी प्रकार सब नारकी, सब पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च, तीन प्रकारके मनुष्य, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर सर्वार्थसिद्धितकके देवोंमें जानना चाहिए। मनुष्य अपर्याप्तकोंमें मोहनीयके तीनों पद भजनीय हैं। भंग छब्बीस होते हैं। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। विशेषार्थ-ओघसे तीनों विभक्तिवाले नाना जीव सदा पाये जाते हैं, इसलिये अन्य किसी भंगको स्थान ही नहीं है । सामान्य तिर्यश्चोंमें भी तीनों विभक्तिवाले सदा पाये जाते हैं, इसलिये इनकी प्ररूपणा ओघके समान है। नारकियोंमें मोहनीयकी भुजगार और अल्पतर विभक्तिवाले जीव निययसे होते हैं और अवस्थित विभक्तिवाले विकल्पसे होते हैं, अतः मोहनीयकी भुजगार और अल्पतर विभक्तिवाले नियमसे हैं यह एक ध्रुव भंग होता है जो कि सदा रहता है। इसके सिवा दो भंग होते हैं जो मूलमें बतलाये हैं। सब गतियोंमें ये ही तीन भंग होते हैं । केवल मनुष्य अपर्याप्तकोंमें अपवाद है। चूंकि मनुष्य अपर्याप्त सान्तर मार्गणा है अतः उसमें तीनों विभक्तियाँ विकल्पसे होती हैं और इस तरह २६ भंग होते हैं । वे इस प्रकार है-कदाचित भुजकार विभक्तिवाला एक जीव होता है १ । कदाचित् अनेक जीव होते हैं २। कदाचित् अल्पतर विभक्तिवाला एक जीव होता है ३। कदाचित् अनेक जीव होते हैं ४ । कदाचित् अवस्थितविभक्तिवाला एक जीव होता है ५। कदाचित् अनेक जीव होते हैं ६ । कदाचित् भुजगारवाला एक जीव और अल्पतरवाला एक जीव होता है । कदाचित् भुजगारवाले अनेक जीव और अल्पतरवाला एक जीव होता है ८। कदाचित् भुजगारवाला एक जीव और अल्पतरवाले अनेक जीव होते हैं ९। कदाचित् भुजगारवाले अनेक जीव और अल्पतरवाले अनेक जीव होते हैं १० । कदाचित् भुजगारवाला एक जीब और अवस्थितवाला एक जीव होता है ११ । कदाचित् भुजगारवाले अनेक जीव और अवस्थित १. ता०प्रतौ 'दुवेण' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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