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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहन्ती ५ $ ४१. अंतराणु ० दुविहो णि० - ओघेण आदेसेण । ओघेण मोह० भुज ० - अप्प ० अंतरं ज़० एस ०, उक्क० पलिदो ० असंखे ०भागो । अवट्ठि० ज० एगस०, उक्क० असंखेज्जा लोगा । एवं तिरिक्खोघे । आदेसेण णेरइएस भुज ० - अप्पद० अंतरमोघं । अवट्ठिद० ज० एगस०, उक्क० तेत्तीस सागरो० देसूणाणि । एवं सव्वणेरइयपंचिं० तिरि० तिय- मणुसतिय देव भवणादि जाव सव्वहसिद्धि त्ति । णवरि अवदिस्स सगसगी देणा । पंचिं० तिरि० अपज • मोह० तिन्हं पदाणं ज० एगस०, उक्क० अंतोyo | एवं मणुसअपञ्ज० । एवं दव्वं जाव अणाहारिति । ३० $ ४१. अन्तरानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनी की भुजगार और अल्पतर विभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर असंख्यात लोकप्रमाण है । इसी प्रकार सामान्य तिर्यों में जानना चाहिए | आदेशसे नारकियों में भुजगार और अल्पतरविभक्तिका अन्तर ओघकी तरह है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर है। इसी प्रकार सब नारकी, तीन प्रकारके पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च, तीन प्रकार के मनुष्य, सामान्य देव और भवनवासीसे लेकर सर्वार्थसिद्धितक के देवों में जानना चाहिये । इतना विशेष है कि अवस्थितका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम अपनी अपनी स्थितिप्रमाण है । पचेन्द्रिय तिर्यश्व अपर्याप्तकों में मोहनीयकी तीनों विभक्तियों का जघन्य अन्तर एक समय है और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिए । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये । विशेषार्थ — ओघसे भुजगार और अल्पतर प्रदेशविभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय है, क्योंकि एक समय तक विवक्षित विभक्ति रहकर दूसरे समय में अन्य विभक्तिके हो जानेसे जघन्य अन्तरकाल एक समय प्राप्त होता है । तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि, भुजगार या अल्पतर प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्टकाल पल्के असंख्यातवें भागप्रमाण है, इसलिये उक्तप्रमाण अन्तरकाल प्राप्त हो जाता है । अवस्थित विभक्तिका जघन्य अन्तरकाल एक समय पूर्ववत् ही है । तथा उत्कृष्ट अन्तरकाल असंख्यात लोकप्रमाण है, क्योंकि क्षपित कर्मांशरूप परिणाम असंख्यात लोकप्रमाण हैं, इललिये इतने काल तक अवस्थित प्रदेशविभक्ति न हो यह सम्भव है । समान्य तिर्यों में यह अन्तरकाल बन जाता है, इसलिये इसके कथनको ओघके समान कहा है । नारकियोंमें अवस्थित विभक्तिके उत्कृष्ट अन्तरको छोड़कर शेष सब अन्तरकाल ओघ के समान है, इसलिये यह सब अन्तरकाल ओघके समान कहा है । नरककी ओघस्थिति तेतीस लागर है, इसलिये अवस्थितका उत्कृष्ट अन्तर तेतीस सागरसे कुछ कम प्राप्त होता है, क्योंकि नरकमें उत्पन्न होने के प्रारम्भ में और अन्त में जिसने अवस्थितविभक्ति की और मध्यमें अल्पतर या भुजगार करता रहा उसके अवस्थित प्रदेशविभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तेतीस सागर बन जाता है । मूलमें जो अन्य मार्गणाएँ गिनाई हैं उनमें भी अवस्थित विभक्ति के उत्कृष्ट अन्तरकालको छोड़कर पूर्वोक्त व्यवस्था बन जाती है । तथा जिस मार्गणाका जितना उत्कृष्ट काल है उसमें से कुछ कम कर देने पर उस उस मार्गणा में अवस्थित विभक्तिका उत्कृष्ट अन्तर काल बन जाता है । पंचेन्द्रिय तिर्यन लब्ध्यपर्याप्त व मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तकी उत्कृष्ट कार्यस्थिति अन्तर्मुहूर्त है, इसलिये इनमें सब Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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