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________________ गा० २२] मूलपयडिपदेसविहत्तीए कालो त्ति वत्तव्वं । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । ४०. कालाणु० दुविहो णि०-ओघेण आदेसेण । ओघेण मोह० भुज-अप्पद० ज० एगस०, उक्क० पलिदो० असंखे०भागो। अवहि० ज० एगसमओ, उक्क० संखेजा समया । एवं सव्वणेरइय-सव्वतिरिक्ख-सव्वमणुस्स-सव्वदेवे त्ति । णवरि पंचिं०तिरि०अपज. मोह० भुज-अप्प० ज० एगस०, उक्क० अंतोमु० । एवं मणुसअपज० । एवं णेदव्वं जाव अणाहारि त्ति । सम्यग्दृष्टिके कहना चाहिये । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। विशेषार्थ-यह प्रदेशसत्कर्मविभक्तिका प्रकरण है, अतः यहाँ सत्तामें स्थिति मोहनीयके कर्मप्रदेशोंके बढ़ानेको भुजगारविभक्ति कहते हैं, घटानेको अल्पतर विभक्ति कहते हैं और उतनेके उतने ही रहनेको अवस्थितविभक्ति कहते हैं। ओघसे और आदेशसे ये तीनों ही विभक्तियाँ मिथ्यादृष्टिके भी होती हैं और सम्यग्दृष्टि के भी होती हैं, क्योंकि बन्ध और निर्जरावश दोनों ही के सत्कर्मप्रदेशोंमें वृद्धि भी होती है, हानि भी होती है और वृद्धि-हानिके बिना तदवस्थता भी रहती है। किन्तु पञ्चेन्द्रिय तिर्यश्च अपर्याप्त तथा मनुष्य अपर्याप्त सम्यग्दृष्टि नहीं होते, अतः उनमें तीनों विभक्तियोंका स्वामी मिथ्यादृष्टि जीव ही होता है। इसी प्रकार अनुदिशसे लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके सब देव सम्यग्दृष्टि ही होते हैं, अतः उनमें सब विभक्तियोंका स्वामी सम्बग्दृष्टि ही होता है। अन्य मार्गणाओंमें इसी प्रकार अपनी अपनी विशेषता जानकर घटित कर लेना चाहिये। ४०. कालानुगमकी अपेक्षा निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मोहनीयकी भुजगार और अल्पतरविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल पल्य के असंख्यातवें भागप्रमाण है । अवस्थितविभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल संख्यात समय है । इस प्रकार सब नारकी, सब तिर्यश्च, सब मनुष्य और सब देवोंमें जानना चाहिये । इतना विशेष है कि पश्चेन्द्रिय तिर्यञ्च अपर्याप्तकोंमें मोहनीयकी भुजगार और अल्पतर विभक्तिका जघन्य काल एक समय है और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त है। इसी प्रकार मनुष्य अपर्याप्तकोंमें जानना चाहिये । इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना चाहिये। विशेषार्थ-ओघसे और आदेशसे भी तीनों विभक्तियोंका जघन्य काल एक समय है, क्योंकि विवक्षित समयमें किसी जीवने भुजगार, अल्पतर या अवस्थित विभक्ति की तो दूसरे समयमें उससे भिन्न दूसरी विभक्ति उसके हो सकती है तथा ओघसे और आदेशसे भुजगार और अल्पतर विभक्तिका उत्कृष्ट काल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है, क्योंकि भुजगार और अल्पतर विभक्तियाँ अधिकसे अधिक पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण काल तक पाई जाती हैं आगे नहीं । अवस्थित विभक्तिका जघन्य काल एक समय तो पूर्ववत् ही है । तथा उत्कृष्ट काल जो संख्यात समय कहा है सो अवस्थितके कालको देखकर यह प्ररूपणा की है। नार आदि अन्य मार्गणाओंमें भी यह व्यवस्था बन जाती है, इसलिये इनके कथनको ओघके समान कहा है। पञ्चन्द्रिय तियश्च लब्ध्यपर्याप्त तथा मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तकी उत्कृष्ट स्थिति अन्तर्मुहूर्त है, अतः इनके भुजगार और अल्पतर प्रदेशविभक्तिका जघन्य काल एक समय और उत्कृष्ट काल अन्तर्मुहूर्त कहा है। अन्य मार्गणाओंमें अपनी अपनी विशेषता जानकर यह काल घटित करना चाहिए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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