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________________ मा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहन्तीए सामित्तं ९४०५. संपहि एगफालिक्खवगे पक्खेउत्तरजोगं णोदे एगफालिसामिणो उक्करसङ्काणं, तदुवरिमदोण्णि दुचरिमफालिडाणाणि च बोलेण तदियदुचरिमफालिहाणपावेण अंतराले समुप्पण्णत्तादो अपुणरुत्तद्वाणं होदि । एवं णेदव्वं जाव उक्कस्सजोगड्डाणादो हा विभागूनजोगं पत्तोत्ति । पुणो तत्थ सवेदचरिमसमए पक्खेवु त्तरतिभागूणुकस्सजोगेण दुचरिमसमए तिभागूणुकस्सजोगेण तिचरिमसमए रूऊणधापवत्तभागहा रेणोवट्टिदतिभागूणुकस्सजोगपक्खेव भागहारं तिगुणं सादिरेयं दुरूवाहियमोदरियण द्विदजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमए faraara छप्फा लिद्वाणं तिष्णिप्फालिसामिणो उक्कस्सचरिमफालिड्डाणादो हेट्ठिमअंतरे उप्पण्णं ति तिण्णिफालिसा मिगो सव्वचरिमफालिद्वाणंतरेस तिच रिमविसेसह । णाणं समुप्पत्ती दट्ठव्वा । संपहि एगफा लिक्खवगे पक्खेउत्तरजोगं णीदेतिणिफालिसामिणो उक्कस्तचरिमफालिट्ठाणादो उवरिमदोण्णिदु चरिमफालिडाणाणि बोलेदुण तदियदुचरिमाणमपावेण अंतराले अपुणरुत्तट्ठाणं उप्पज्जदि, अकमेण एगचरिमफालीए वडिदत्तादो | एवं एगफालिक्खवगो पक्खेउत्तरकमेण वड्ढावेदव्वो जाव उकस्सजोगं पत्तोति । ४०६. संपहि तिणिफालिक्खवगं तिभागूणुकस्सजोगं णेदुण चरिमफालिट्ठाणेण समाणं करिय पुणो एत्थ किरियाविसेसं वत्तइस्सामो । तं जहा - सवेददुचरिमसमए उकस्सजोगेण चरिम-तिचरिमसमएस तिभागूणुकस्सजोगेण बंधिय अधियारतिचरिमसमए ३५९ ९ ४०५. अब एक फालिक्षपकके प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त कराने पर एक फालिस्वामी के उत्कृष्ट स्थान अपुनरुक्त होता है, क्योंकि उससे उपरिम दो द्विचरम फालिस्थानोंको उल्लंघन कर तृतीय द्विचरम फालिस्थानको नहीं प्राप्त कर अन्तरालमें वह उत्पन्न हुआ है । इस प्रकार उत्कृष्ट योगस्थानसे नीचे तृतीय भाग कम योगके प्राप्त होने तक ले जाना चाहिए । पुनः वहाँ पर सवेद भाग के त्रिचरम समय में प्रक्षेप अधिक त्रिभाग कम उत्कृष्ट योगसे, द्विचरम समयमें त्रिभाग कम उत्कृष्ट योगसे तथा त्रिचरम समय में एक कम अधःप्रवृत्त भागहार से भाजित त्रिभाग कम उत्कृष्ट योगप्रक्षेपभागहार तिगुना साधिक दो रूप अधिक उतर कर स्थित हुए योग से बन्ध करके अधिकृत त्रिचरम समयमें स्थित हुए क्षपकका छह फालिस्थान तीन फालियों के स्वामी के उत्कृष्ट चरम फालिस्थानसे अधस्तन अन्तरालमें उत्पन्न हुआ है, इसलिए तीन फालियोंके स्वामी के सब चरम फालिस्थनोंके अन्तरालोंमें त्रिचरम विशेष स्थानोंकी उत्पत्ति जाननी चाहिए | अब एक फालि क्षपकके प्रक्षेप अधिक योगको प्राप्त कराने पर तीन फालियोंके स्वामी के उत्कृष्ट चरम फालिस्थानसे उपरिम दो द्विचरम फालिस्थानोंको उल्लंघन कर तृतीय द्विचरमस्थानको नहीं प्राप्त होकर अन्तरालमें अपुनरुक्त स्थान उत्पन्न होता है, क्योंकि युगपत् एक चरम फालिकी वृद्धि हुई है। इस प्रकार एक फालिक्षपकको उत्कृष्ट योगके प्राप्त होने तक एक एक प्रक्षेप अधिकके क्रमसे बढ़ाना चाहिए । ९ ४०६. अब तीन फालियोंके क्षपकको तृतीय भाग कम उत्कृष्ट योगको प्राप्त करा कर चरम फालिस्थानके समान कर पुनः यहाँ पर क्रियाविशेषको बतलाते हैं । यथा - सवेद भागके द्विचरम समय में उत्कृष्ट योगसे तथा चरम और त्रिचरम समयों में त्रिभाग कम उत्कृष्ट योग से बन्ध कर अधिकृत त्रिचरम समय में अवस्थित क्षपकस्थान पहलेके स्थानसे विशेष अधिक है, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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