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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्त ३०१ दोहि चीजपदेहि पुरिसवेदस्स संतकम्मट्ठाणाणि परूबदव्वाणि । तत्थ पढममत्थपदमस्सिदूण हाणपरूवणद्वमुत्तरसुत्तकलावो आगओ। ॐ जहा-जो चरिमसमयसवेदेण बद्धो समयपबद्धो तम्हि चरिमसमयअणिल्लेविदे घोलमाणजहणजोगहाणमादि कादूण जत्तियाणि जोगहाणाणि तत्तियमेत्ताणि संतकम्महापाणि । ६ ३२८. 'जहा' तं जहा त्ति अंतेवासिपुच्छा जइवसहाइरियाणमासंका वा । चरिमसमयसवेदेण जीवेण जो बद्धो समयपबद्धो तम्हि ताव सांतरहाणाणं पनाणं परूवेमि त्ति जइवसहाइरियाणमेसा पइन्जा) केरिसे तम्हि त्ति वुत्ते चरिमसमयअपिल्लेविदे चरिमफालिमेत्तावसेसे भणामि त्ति भावत्थो । एदिस्से जहण्णदव्वचरिमफालीए पमाणाणुगमं कस्सामो। तं जहा-घोलमाणजहण्णजोगेण चरिमसमयसवेदेण बद्धेगसमयपबद्धे बंधावलियादिकंते अधापवत्तभागहारेण खंडिदे तत्थ एगखंडं परसरूपेण संकामेदि । पुणो विदियसमए सेसदव्यमधापवत्तभागहारेण खंडिदूण तत्थ एगखंडं परसरूवेण संकामेदि । णवरि पढमसमयम्मि संकंतदव्वादो विदियसमयम्हि संकेतदव्वमसंखे०भागूणं, पढमसमयम्मि संकंतदव्वे अधापवत्तभागहारेण खंडिदे तत्य एगखंडमेत्तेण तत्तो विदियसमयसंकंत क्योंकि यह मूल अर्थके अनुसार बनाई गई है। इन दोनों बीज पदोंकी अपेक्षा पुरुषवेदके सत्कर्मस्थानोंका कथन करना चाहिये। उनमें से पहले अर्थकी अपेक्षा स्थानोंका कथन करनेके लिये आगेका सूत्रसमुच्चय आया है 8 यथा--अन्तिम समयवर्ती सवेदीने जो समयप्रबद्ध बाँधा उसके अन्तिम फालि मात्र शेष रहने पर घोलमान जघन्य योगस्थानसे लेकर जितने योगस्थान होते हैं उतने ही सत्कर्मस्थान होते हैं। ६३२८. सूत्रमें 'जहा' पद 'तं जहा' के अर्थमें आया है । इसके द्वारा अन्तेवासीकी पृच्छा या स्वयं यतिवृषभ आचार्यने अपनी आशंका प्रकट की है । अन्तिम समयवर्ती सवेदी जीवने जो समयप्रबद्ध बाँधा उसमें सर्व प्रथम सान्तर स्थानोंके प्रमाणका कथन करते हैं यह यतिवृषभ आचार्यकी प्रतिज्ञा है। वह कैसा ऐसा पूछने पर चरम समय अनिर्लेपित रहने पर अर्थात् अन्तिम फोलिमात्र शेष रहने पर यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब इस जघन्य द्रव्यरूप अन्तिम फालिके प्रमाणका विचार करते हैं । यथा-अन्तिम समयवर्ती सवेदी जीव जघन्य परिणामयोगके द्वारा जिस एक समयप्रबद्धका बन्ध करता है उसमें अधःप्रवृत्त भागहारका भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त हो उसका बन्धावलिके बाद प्रथम समयमें पर प्रकृतिरूपसे संक्रमण होता है। फिर शेष द्रव्यमें अधःप्रवृत्तभागहारका भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त हो उसका दूसरे समयमें पर प्रकृतिरूपसे संक्रमण होता है। किन्तु इतनी विशेषता है कि प्रथम समयमें जितने द्रव्यका संक्रमण होता है उससे दूसरे समयमें संक्रमणको प्राप्त हुआ द्रव्य असंख्यातवें भागप्रमाण कम होता है, क्योंकि प्रथम समयमें जो द्रव्य संक्रमणको प्राप्त हुआ है उसमें अधःप्रवृत्तभागहारका भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त हो, दूसरे समयमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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