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________________ गा० २२] . उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं १०९ कड्डणभागहारादो असंखेजगुणहीणेण भागहारेण खंडिदे तत्थ एयखंडपमाणत्तादो। पढमगुणहाणिप्पहुडि सव्वगुणहाणिदव्वेसु सगअणंतरहेट्ठिमगुणहाणिदव्वं पेक्खिदूण दुगुणहीणकमेण अवट्ठिदेसु इत्थि-णसयवेददव्वाणमण्णोण्णब्भत्थरासी कधं ण भागहारो जायदे ? ण, अहियारहिदीदो हेट्टिमट्टिदीणं दव्वमसंखेजखंडं कादूण तत्थ बहुखंडे तत्थेव ठविय उवरि पक्खित्तदव्वभागहारस्स ओकडकड्डणभागहारादो असंखे०गुणहोणत्तवलंभादो। ण च बंधं मोत्तण संतस्स गोवच्छागारेणावट्ठाणणियमो अत्थि, ओकड्डुक्कड्डणवसेण अणुलोम-विलोमेणावट्टिदगोवुच्छाणं तदुभएण विणा अवद्विदाणं च उवलंभादो । एदं कुदो णव्वदे ? एदम्हादो चेव सुत्तादो। तम्हा खवगसेढीए चेव उक्कस्ससामित्तं दादव्वमिदि । ६११७. थोवपदेसग्गालणट्ठमित्थि-णqसयवेदोदएण खवगसेढिं चढावेदव्बो त्ति के वि भणंति, तण्ण घडदे, थोवबहुअदव्वेहिंतो गुणसेढिसरूवेण णिक्खिप्पमाणपदेसाणं परिणामसमाणतणेण समाणत्तादो। ण च पुरिसवेदपगदिगोवुच्छाहिंतो इत्थि-णqसयवेदाणं पगदिगोवुच्छाओ सण्णाओ, पच्चग्गुक्कड्डिदपुरिसवेदगोवुच्छाहिंतो उक्कड्डणाए विणा बहुकालमच्छिदइत्थि-णqसयवेदपगदिगोवुच्छाणं थोवत्तविरोहादो। किं च, ण वह उत्कर्षण-अपकर्षण भागहारकी अपेक्षा असंख्यातगुणे हीन भागहारसे भाग देनेपर लब्ध एक भागप्रमाण है। शंका-जब प्रथम गुणहानिसे लेकर सब गुणहानियोंका द्रव्य अपने अनन्तरवर्ती नीचेकी गुणहानिके द्रव्यसे दुगुणा हीन दुगुणा हीन होता है तो स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके द्रव्यकी अन्यायोभ्यस्त राशि ही यहाँ भागहार क्या न समाधान-नहीं, क्योंकि विवक्षित स्थितिसे नीचेकी स्थितिके द्रव्यके असंख्यात खण्ड करके उनमेंसे बहुतसे खण्डोंको वहीं स्थापित करके ऊपर प्रक्षिप्त द्रव्यका भागहार उत्कर्षणअपकर्षण भागहारसे असंख्यातगुणा हीन पाया जाता है। तथा बन्धको छोड़ कर सत्तामें स्थित द्रव्यके गोपुच्छाकर रूपसे रहनेका नियम नहीं है, क्योंकि उत्कर्षण अपकर्षणके निमित्तसे अनुलोम और विलोमरूपसे स्थित गोपुच्छोंका और उन दोनोंके बिना स्थित गोपुच्छोंका अवस्थान पाया जाता है। शंका-यह कहाँसे जाना। समाधान-इसी सूत्रसे जाना। अतः क्षपकश्रेणिमें ही पुरुषवेदका उत्कृष्ट स्वामित्व देना चाहिए । ६ ११७. थोड़े प्रदेशोंकी निर्जरा करानेके लिए स्त्रीवेद और नपुंसकवेदके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़ाना चाहिए ऐसा कुछ आचार्य कहते हैं। किन्तु वह कहना नहीं बनता, क्योंकि पुरुषवेद और इतरवेदके उदयसे श्रेणिपर चढ़नेवाले जीवोंके परिणाम समान होनेसे थोड़े या बहुत द्रव्यमेंसे जो प्रदेश गुणश्रेणिरूपसे स्थापित किये जाते हैं वे समान होते हैं । शायद कहा जाय कि पुरुषवेदकी प्रकृति गोपुच्छाओंसे स्त्रीवेद और नपुसकवेदकी प्रकृति गोपुच्छाएँ सूक्ष्म हैं सो भी नहीं है, क्योंकि नवीन उत्कर्ष प्राप्त पुरुषवेदकी गोपुच्छाओंसे उत्कर्षणके बिना बहुत कालतक स्थित स्त्रीवेद और नपुसकवेदकी प्रकृति गोपुच्छाओंके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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