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गा २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं
१५१ कुदो देसूणत्तं ? गुणहाणीए दो-तदियतिभागगोवुच्छाहि पढम-विदियतिभागाणं पमाणुप्पत्तीदो।
१४८. पढमगुणहाणीए अद्धण सह उवरिमासेसगुणहाणीसु णिवदिदासु पगदिगोवुच्छादो विगिदिगोवुच्छा किंचूणतिगुणा होदि, गुणहाणिअद्धमेत्तगोवुच्छासु एगपगदिगोवुच्छवलंभादो । एत्थ वि पुव्वं व किंचूणत्तं परूवेदव्वं ।
६१४९ पढमगुणहाणिआयाम पंच-खंडाणि करिय तत्थ उवरिमतीहि खंडेहि सह विदियादिसेसगुणहाणीसु घादिदासु पगदिगोवच्छादो विगिदिगोवच्छा किंचूणचदुग्गुणमेत्ता होदि, गुणहाणिए वेपंचभागमेत्तगोवुच्छासु एगपगदिगोवुच्छुवलंभादो । एवं जत्तिय-जत्तियमेत्तं गुणगारमिच्छदि तेण गुणगारेण रूवाहिएण गुणिहाणिं खंडिय तत्थ दो खंडे मोत्तूण सेसखंडेहि सह विदियादिगुणहाणीओ धादिय इच्छिद-इच्छिदगुणगारो साहेयव्वो।
शंका-यहाँ विकृतिगोपुच्छा दूनेसे कुछ कम क्यों है ?
समाधान-क्योंकि गुणहानिके तीसरे त्रिभागरूप गोपुच्छाओंको दो बार लेने पर प्रथम और द्वितीय विभागोंका प्रमाण उत्पन्न होता है।
विशेषार्थ-प्रथम गुणहानिका प्रमाण ३२०० है। इसका तीसरा भाग १०६६ होता है। इसे द्वितीयादि शेष पांच गुणहानियोंके द्रव्यमें मिला देने पर कुल द्रव्य ४१६६ हुआ। यह द्रव्य प्रथम गुणहानिके दो बटे तीन भागोंसे कुछ कम दूना है। इससे स्पष्ट है कि स्थितिकाण्डकघातके द्वारा प्रथम गुणहानिके ऊपरके तीसरे भागके साथ शेष गुणहानियोंके द्रव्यके मिल जाने पर प्रकृतिगोपुच्छा २१३४ से विकृतिगोपुच्छा ४१६६ कुछ कम दूनी होती है।।
.. आधी प्रथमगणहानिके साथ ऊपरकी सब गुणहानियोंका पतन होने पर प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा कुछ कम तिगुनी होती है, क्योंकि यहाँ आधी गुणहानिप्रमाण गोपुच्छाओंमें एक प्रकृतिगोपुच्छा पाई जाती है। यहां पर भी विकृतिगोपुच्छाके तिगुनेसे कुछ कमका कथन पहलेके समान करना चाहिये ।
विशेषार्थ-प्रथम गुणहानिका आधा द्रव्य १६०० हुआ । इसमें शेष गुणहानियोंका द्रव्य मिला देने पर ४७०० होते हैं। यह प्रथमगुणहानिके आधे द्रव्यसे कुछ कम तिगुना है। इससे स्पष्ट है कि यदि स्थितिकाण्डक घातके द्वारा प्रथम गुणहानिके ऊपरके आधे द्रव्यके साथ शेष गुणहानियोंका द्रव्य घाता जाता है तो प्रकृतिगोपुच्छा १६०० से विकृतिगोपुच्छा ४७०० कुछ कम तिगुनी होती है।
$ १४९. प्रथम गुणहानि आयामके पाँच खण्ड करके उनमेंसे ऊपरके तीन खण्डोंके साथ दूसरी आदि शेष गुणहानियोंका घात करने पर प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा कुछ कम चौगुनी होती है, क्योंकि यहां पर पहली गुणहानिके दो बटे पाँच भागमात्र गोपुच्छाओंमें एक प्रकृतिगोपुच्छा पाई जाती है। इस प्रकार जितने जिवने मात्र गुणकारकी इच्छा हो अर्थात् प्रकृतिगोपुच्छासे जितनी गुणी विकृतिगोपुच्छा लानी हो, रूपाधिक उस गुणकारके द्वारा प्रथम गुणहानिके खण्ड करके उनमेंसे दो खण्डोंको छोड़कर शेष खण्डोंके साथ दूसरी आदि गुणहानियोंका घात करके इच्छित इच्छित गुणकार साधना चाहिए ।
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