SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे पदेसविहत्ती ५ १५०. एवं गंतूण जहण्णपरित्तासंखेज्जेण पढमगुणहाणीए खंडिदाए तत्थ दोखंडे मोत्तूण सेसखंडेहि सह विदियादिगुणहाणीसु धादिदासु पगदिगोवुच्छादो विगिदिगोवुच्छा किंचूणुक्कस्ससंखे गुणा। कुदो ? विगिदिगोवुच्छाए संबंधिदोदोखंडेहि . एगपयडिगोवुच्छाए समुप्पत्तिदंसणादो। संपहि पयडिगोवुच्छादो विगिदिगोवुच्छा कत्थ असंखे०गुणा ? पढमगुणहाणिआयामे . रूवाहियजहण्णपरित्तासंखेजेण तत्थ दोखंडे मोत्तूण सेसखंडेहि सह विदियादिगुणहाणीसु घादिदासु होदि, दोदोखंडेहि एग पगदिगोवुच्छाए समुप्पत्तिदंसणादो। एत्तो प्पहुडि उवरि सव्वत्थ पगदिगोवृच्छादो विगिदिगोवुच्छा असंखेजगुणा चेव । असंखेजगुणत्तस्स कारणं पुवं परूविदमिदि णेह परूविजदे, परूविय विशेषार्थ-प्रथम गुणहानिके ३२०० प्रमाण द्रव्यके पाँच हिस्से करने पर प्रत्येक हिस्सा ६४० होता है। ऐसे तीन हिस्सों १९२० को शेष गुणहानियोंके ३१०० द्रव्यमें मिला देने पर कुल प्रमाण ५०२० होता है। यह प्रथम गुणहानिके दो बटे पाँच १२८० प्रमाण द्रव्यसे कुछ कम चौगुना है। इससे स्पष्ट है कि यदि स्थितिकाण्डकघातके द्वारा प्रथम गुणहानिके पांच हिस्सोंमेंसे ऊपरके तीन हिस्सोंके साथ शेष गणहानियोंका द्रव्य घाता जाता है तो प्रकृतिगोपुच्छा १२८० से विकृतिगोपुच्छा ५०२० कुछ कम चौगुनी होती है। इसी प्रकार आगे प्रकृतिगोपुच्छासे कुछ कम जितनी गुणी विकृतिगोपुच्छा लानी हो वहाँ गुणकारके प्रमाणमें एक मिला दो और जो लब्ध आवे, प्रथम गुणहानिके उतने हिस्से करो। बादमें नीचेके दो हिस्से छोड़कर शेष हिस्सोंके साथ उपरिम गुणहानियोंका घात कराओ तो विवक्षित विकृतिगोपुच्छा आ जाती है। उदाहरणार्थ-प्रकृतिगोपुच्छासे कुछ कम सात गनी विक्रतिगोपच्छा लानी है, इसलिए प्रथम गणहानिके दव्यके आठ हिस्से करो। प्रत्येक हिस्से का प्रमाण ४०० हुआ। अब नीचेके दो हिस्से ८०० को छोड़कर शेष द्रव्य २४०० के साथ शेष गुणहानियोंके द्रव्य ३१०० का घात कराओ तो विकृतिगोपच्छाका प्रमाण ५५०० आता है। यहाँ प्रकृति गोपुच्छाका प्रमाण ८०० है । इस प्रकार यहाँ प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपच्छा कुछ कम सातगुनी प्राप्त हुई। ६१५०. इस प्रकार जाकर जघन्य परीतासंख्यातके द्वारा प्रथम गुणहानिको भाजित करके उनमें से दो भागोंको छोड़कर शेष भागोंके साथ दूसरी आदि गुणहानियोंका घात करने पर प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपच्छा कुछ कम उत्कृष्ट संख्यातगुणी होती है; क्योंकि विकृतिगोपुच्छासम्बन्धी दो दो भागोंसे एक प्रकृतिगोपुच्छा की उत्पत्ति देखी जाती है । अब प्रकृति गोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा असंख्यातगुणी कहाँ होती है यह बतलाते हैं-प्रथम गुणहानिके आयाममें रूपाधिक जघन्य परीतासंख्यातसे भाग देने पर उनमेंसे दो भागोंको छोड़कर शेष भागोंके साथ दूसरी आदि गुणहानियोंके घाते जाने पर प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा असंख्यातगणी होती है, क्योंकि सर्वत्र दो दो खण्डोंसे एक प्रकृतिगोपुच्छाकी उत्पत्ति देखी जाती है। यहाँसे लेकर आगे सर्वत्र प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा असंख्यातगुणी ही होती है। असंख्यातगुणी होनेका कारण पहले कह आये हैं , इसलिये यहाँ नहीं १. आप्रप्रतौ ' संखेनेण तस्थ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy