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________________ गा०२२] उत्तरपयडिपदेसमिहत्तीए सामित्तं परूवणाए फलाभावादो । ण विस्सरणालु असीससंभालणफला, अणंतरं चेव परूवियूण गदत्रामणवहारयंतस्स अज्झप्पसुणणे अहियाराभावादो। ण तस्स वक्खाणेयव्वं पि, तव्वक्खाणाए अज्झप्पविजवोच्छेदहेदुत्तादो। ण चावगयअन्झप्पविजो करण-चरणविसुद्ध-विणीद-मेहाविसोदारेसुसंतेसुरागेण भएण मोहेणालसेण वाअवरेसु वक्खाणतो सम्माइट्ठी, तिरयणसंताणविणासयस्स तदणुववत्तीए। १५१. संपहि असंखेजगुणवहीए चरिमवियप्पो वुच्चदे । तं जहा–चरिमफालीअद्धेणोवट्टिदगुणहाणीए पढमगुणहाणीए खंडिदाए तत्थ दोखंडे मोत्तण सेसखंडेहि सह विदियादिगुणहाणीसु घादिदासु पगदिगोवुच्छादो असंखेजगुणा अपच्छिमविगिदिगोवुच्छा उप्पजदि । को गुणगारो ? गुणहाणिभागहारो रूवेणो। अथवा चरिमफालीए कहा; क्योंकि कहे हुएको कहने में कुछ फल नहीं है। शायद कहा जाय कि विस्मरणशील शिष्यको सँभालना हो उसका फल है, सो भी ठीक नहीं है, क्योंकि अनन्तर ही कहे हुए अर्थको स्मरण रखनेमें जो असमर्थ है उसको अध्यात्मशास्त्रके सुननेका अधिकार नहीं है। ऐसे शिष्यके लिए व्याख्यान भी नहीं करना चाहिये; क्योंकि उसे व्याख्यान करने पर वह अध्यात्मविद्याके बिनाशका कारण होता है। तथा अध्यात्मविद्याको जानकर जो परिणाम और चारित्रसे शुद्ध, बिनयी और मेधावी श्रोताओंके रहते हुए रागसे, भयसे, मोहसे या आलस्यसे अन्य लोगोंको व्याख्यान करता है वह सम्यग्दृष्टि नहीं हो सकता, क्योंकि उससे रत्नत्रयकी परंपराका विनाश होना संभव है। विशेषार्थ-यदि जघन्य परीतासंख्यातका प्रमाण १६ मान लिया जाय और उत्कृष्ट संख्यातका प्रमाण १५ तो प्रथम गुणहानिके द्रव्य ३२०० के १६ खण्ड करने पर उनमेंसे नीचेके दो खण्डप्रमाण ४०० द्रव्यको छोड़कर शेष खण्डोंके द्रव्य २८०० के साथ शेष सब गुणहानियों के द्रव्य ६१०० के घाते जाने पर प्रकृतिगोपुच्छा ४०० से विकृतिगोपुच्छा ५९०० कुछ कम उत्कृष्ठ संख्यातगणी प्राप्त होती है। यहां विकृतिगोपच्छाका पन्द्रहवाँ भाग कुछ कम चार सौ है और प्रकृतिगोपुच्छाका प्रमाण पूरा चार सौ है जो कि प्रथम गुणहानिके सोलह खण्डोंमें से दो खण्डोंके बराबर है। इससे स्पष्ट है कि प्रकृतिगोपच्छासे विकृतिगोपच्छा कुछ कम पन्द्रहगुणी अथात् उत्कृष्ट संख्यातगणीहै। अब यदि प्रथम गणहानिके जघन्य परीतासंख्यात १६ से एक अधिक १७ खण्ड किये जाते हैं और उनमेंसे नीचेके दो खण्डोंको छोड़कर शेष खण्डोंके द्रव्य २८२४ के साथ शेष गुणहानियोंके द्रव्य ३१०० का स्थितिकाण्डक घात होता है तो प्रकृतिगोपुच्छाके द्रव्य ३७६ से विकृतिगोपुच्छाका द्रव्य ५९२४ कुछ कम सोलहगणा अर्थात् कुछ कम जघन्य परीतासंख्यातगुणा प्राप्त होता है। कारणका निर्देश पहले किया ही है। इसके आगे सर्वत्र विकृतिगोपुच्छा असंख्यातगुणी ही प्राप्त होती है यह स्पष्ट ही है। १५१ ६ अय असंख्यात गुणवृद्धिका अन्तिम विकल्प कहते हैं। यथा-अन्तिम फालीके आधेसे भाजित गुणहानिके द्वारा प्रथम गुणहानिके खण्ड करके उनमेंसे दो खण्डोंको छोड़कर शेष खण्डोंके साथ दूसरी आदि गुणहानियोंके घाते जानेपर प्रकृतिगोपुच्छासे असंख्यातगणी अन्तिम विकृतिगोपुच्छा उत्पन्न होती है। यहां गुणकारका प्रमाण कितना है ? गुणहानिका रूपोन भागहार गुणकार है। अथवा अन्तिम फालीसे २० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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