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________________ १५० जयधवलासहिदे कसायपाहुडे पदेसविहत्ती ५ संखे०गुणहीणकमेण' गच्छती कत्थ पगदिगोवुच्छाए समाणा होदि त्ति वुत्ते वुच्चदेजाए द्विदीए धादिदावसेसाए एगा चेव गुणहाणो अत्थि तत्थ सरिसा; पढमगुणहाणिं मोत्तूण सेसगुणहाणिदव्वे पढमगुणहाणीए पदिदे विगिदिगोवुच्छाए' पगदिगोवुच्छाए सह सरिसत्तुवलंभादो । ण चेदमसिद्धं, सव्वदव्वहे गुणहाणिचदुब्भागेणोवट्टिदे' पयडिगोवुच्छपमाणुवलंभादो । एसो थूलत्थो। $ १४६. सुहुमाए हिदीए णिहालिजमाणे विगिदिगोवुच्छा पगदिगोवुच्छाए सह ण सरिसा; पढमगुणहाणिदव्वं पेक्खिदूण विदियादिगुणहाणिदव्वस्स कम्मट्ठिदिचरिमगुणहाणिदव्वेण ऊणत्तुवलंभादो। ६१४७ संपहि पढमगुणहाणीए उत्ररिमतिभागेण सह सेसासेसगुणहाणीसु घादिदासु पगदिगोवुच्छादो विगिदिगोवुच्छा किंचूणदुगुणमेत्ता होदि, दोसु गुणहाणितिभागखंडेसु उड्डपंतियागारेण समयाविरोहेण रइदेसु एगपगदिगोवुच्छपमाणुवलंभादो। कहाँपर प्रकृतिगोपुच्छाके समान होती है ? समाधान-घातनेसे शेष बची जिस स्थितिमें एक ही गुणहानि होती है वहाँ विकृतिगोपच्छा प्रकृतिगोपुच्छाके समान होती है, क्योंकि प्रथम गुणहानिको छोड़कर शेष गुणहानिके द्रव्यके प्रथम गुणहानिमें मिल जाने पर विकृतिगोपुच्छाकी प्रकृतिगोपच्छाके साथ समानता पाई जाती है और यह बात असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि सर्व द्रव्यमें गुणहानिके एक चौथाईसे भाग देने पर प्रकृतिगोपुच्छाका प्रमाण पाया जाता है। यह स्थूल अर्थ हुआ। उदाहरण-सब द्रव्य ६३००, गुणहानिका चौथा भाग २, ६३००+२=३२०० प्रकृतिगोपुच्छा ६१४६. सूक्ष्म स्थितिके देखने पर विकृतिगोपुच्छा प्रकृतिगोपुच्छाके समान नहीं है; क्योंकि प्रथम गुणहानिके द्रव्यसे दूसरी आदि गणहानियोंका द्रव्य कर्मस्थितिकी अन्तिम गुणहानिका जितना द्रव्य है उतना कम पाया जाता है। उदाहरण-सब द्रव्य ६३००, गुणहानिका प्रमाण ८, ६३००४% ६३००x४%D३२०० प्रकृतिगोपुच्छा। यहाँ यद्यपि विकृतिगोपुच्छाको इस प्रकृतिगोपुच्छाके बराबर बतलाया है तब भी द्वितीयादि शेष गुणहानियोंका द्रव्य प्रथम गुणहानिसे न्यून है। न्यूनका प्रमाण अन्तिम गुणहानिका द्रव्य है। ६१४७. अब प्रथम गुणहानिके उपरिम त्रिभागके साथ बाकीकी सब गुणहानियोंके (स्थितिकाण्डकघातके द्वारा) घाते जाने पर प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपच्छा कुछ कम दूनी होती है, क्योंकि गुणहानिके दो त्रिभागोंके आगमानुसार ऊर्ध्वपंक्तिरूपसे रचे जाने पर एक प्रकृतिगोपुच्छाका प्रमाण पाया जाता है। १. ताःप्रतौ 'हीणा कमेण' इति पाठः । २. ता०पा प्रत्योः 'विगिदिपढमगोपुच्छाएं' इति पाठः। ३. ता०आ० प्रत्योः गुणहाणितिण्णिचदुब्भागेणोवहिदें इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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