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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं २०५ उवसमसम्मत्तं घेत्तूण तत्थ अपुव्वकरणगुणसेढिणिज्जरमुक्कस्सं काऊण जहण्णगुणसंकमकालेण सव्वबहुएण गुणसंकमभागहारेण सुट्ट थोवं मिच्छत्तदव्यं सम्मामिच्छत्तसरूवेण परिणमाविय वेदगसम्मत्तं पडिवन्जिय तप्पाओग्गव छावट्ठीओ भमिय मिच्छत्तं गंतूण दोहुव्वेल्लणकालेणुव्वेलिय सम्मामिच्छत्तचरिमफालिं मिच्छत्तसरूवण परणमाविय एगणिसेगं दुसमयकालं धरेदृण द्विदस्स जहण्णदव्यं होदि त्ति एस भावत्थो। $ १९३. संपहि एत्थ उवसंहारो उच्चदे-कम्महिदिपढमसमयप्पहुडि उक्कस्सणिल्लेवणकालवेछावहिसागरोवमउक्कस्सुम्बेल्लणकालमेत्तमुवरिं चडिदूण बद्धसमयपबद्धाणं सामित्तचरिमसमए एगो वि परमाणू णत्थि, सगुक्कस्सवाड्डिहिदीदो अहियकालमवट्ठाणाभावादो। अवसेसकम्मद्विदीए बद्धसमयपबद्धाणं कम्मपरमाणू सिया अस्थि, पर अपूर्वकरणसम्बन्धी उत्कृष्ट परिणामोंके द्वारा उपशम सम्यक्त्वको प्राप्त किया। फिर वहाँ पर अपूर्वकरणकी उत्कृष्ट गुणश्रोणिकी निर्जरा की । गुणसंक्रमके सबसे छोटे काल और उसीके सबसे बड़े भागहार द्वारा मिथ्यात्वके बहुत थोड़े द्रव्यको सम्यग्मिथ्यात्वरूप परिणमाया । फिर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त करके उसके योग्य दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण करके मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। फिर वहां उत्कृष्ट उद्वेलन काल द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वको उद्वलना करके जब सम्यग्मिथ्यात्वकी अन्तिम फालिको मिथ्यात्वरूपसे परिणमा कर दो समय कालकी स्थितिवाले एक निषेकको धारण करके स्थित हुआ तब उसके सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य द्रव्य होता है। यह उक्त सूत्रका भावार्थ है। विशेषार्थ—यहां सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृतिके जघन्य द्रव्यका स्वामी कौन है यह बतलाया गया है। यह बतलाते हुए अन्य सब विधि तो क्षपितकाशिककी ही बतलाई गई है। केवल अन्तमें दो छयासठ सागर काल तक सम्यक्त्वके साथ रखकर मिथ्यात्वमें ले जाना चाहिए और वहां मिथ्यात्वमें उद्वेलनाके सबसे बड़े काल तक सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करानी चाहिए। ऐसा करने पर जब सम्यग्मिथ्यात्वकी दो समय कालवाली एक निषेकस्थिति शेष रहे तब वह जीव सम्यग्मिथ्यात्वके सबसे जघन्य द्रव्यका स्वामी होता है। यहां उद्वेलनाका यह उत्कृष्ट काल प्राप्त करने के लिए संयमासंयम, संयम और सम्यक्त्वको प्राप्त करनेके बार थोड़े कहने चाहिए। तथा वेदकसम्यक्त्वका दो छयासठ सागर काल भी कुछ न्यून लेना चाहिए। ऐसा करनेसे अन्तमें उद्वेलनाका बड़ा काल प्राप्त हो जाता है । क्षपणसे सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य द्रव्य नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टिके मिथ्यात्वका द्रव्य सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रान्त होता रहता है पर मिथ्यादृष्टिके यह क्रिया न होकर उद्वलना संक्रमण होने लगता है, अतः मिथ्यादृष्टिके ही सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य द्रव्य प्राप्त किया जा सकता है। यही कारण है कि यहां सबके अन्तमें सम्यग्मिथ्यात्वको उद्घलना कराते हुए एक निषेकके शेष रहने पर उसका जघन्य द्रव्य प्राप्त किया गया है। ६ १९३ अब यहां उपसंहारका कथन करते हैं-उत्कृष्ट निर्लेपनकाल दो छयासठ सागर है और उत्कृष्ट उद्वेलनाकाल पल्यके असंख्यातवें भागप्रमाण है । सो कर्मस्थितिके पहले समयसे लेकर इतना काल ऊपर चढ़कर बन्धको प्राप्त हुए समयप्रबद्धोंका एक भी परमाणु स्वामित्वके अन्तिम समयमें नहीं पाया जाता, क्योंकि जिस कर्मकी जितनी उत्कृष्ट बढ़ी हुई स्थिति है उससे और अधिक काल तक उस कर्मका अवस्थान नहीं पाया जाता। शेष बची हुई कर्मस्थितिके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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