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________________ २०४ जयधवला सहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ 'चत्तारि वारे० ' एत्थ कसायउवसामणाओ' चत्तारि वि ण विरुद्धाओ, चदुक्खुत्तोवसामिदकसायस्स वि वेछावट्टिसागरोवमपरिब्भमणे विरोहाभावादो । 'वेछावडी ०' एसा वेछावडी पुव्विल्लवेछावडीदो ऊणा । कुदो ? मिच्छत्तगमणण्णहाणुववत्तोदो । दि ऊणा तो वेछावट्टिणिद्देसो कथं कीरदे ? ण, 'समुदाए पउत्ता सहा तदवयवेसु वि वति' त्ति णायावलंबणाए तदविरोहादो । 'दोहाए' उब्वेल्लणद्धा जहण्णिया वि अस्थि त्ति जाणावणदुवारेण तप्पडिसेहविहाणां दीहाए ति णिद्देसो । ण च एसो निष्फलो, उवरि चडिदूण ट्ठिदसहिणगोवुच्छग्गहणडमुवहट्ठस्स णिष्फलत्त विरोहादो। अद्भु ब्वेल्लिदे वि उव्वेल्लिद होइ, पञ्जवडियणयावलंबणाए तप्पडिसेहढं 'जाधे सव्वमुव्वेल्लिदं' ति गिद्देसो कदो । पजवट्ठियणयावलंबणाए 'उदयावलिया गलिद' ति णिद्दिहं, अण्णहा दुसमऊणाए उद्यावलियववएसाणुववत्तीदो । सेससुत्तावयवा सुगमा । $ १९२. खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण असणिपंचिदिएस उववजिय देवाउ बंधिय देवेसुप्पजिय छप्पजतीओ समाणिय तोमुहुत्ते गदे उकस्सअपुव्वकरणपरिणामे हि सूत्र में 'चत्तारि वारे' इत्यादि पाठ देनेका यह प्रयोजन है कि यहां अर्थात् सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य सत्कर्म प्राप्त करते समय कषायोंकी चार बार उपशामना करना विरुद्ध नहीं है, क्योंकि जिसने चार बार कषायोंका उपशम किया है उसका भी दो छयासठ सागर काल तक परिभ्रमण माननेमें कोई बाधा नहीं आती । सूत्रमें 'वेछावट्ठो' से जो दो छयासठ सागर काल लिया है सो यह पहले के दो छयासठ सागर कालसे कम है, क्योंकि ऐसा माने बिना इसका मिथ्यात्व में जाना नहीं बन सकता । शंका- यदि कम है तो 'वेछाहट्ठी' पदका निर्देश कैसे किया ? समाधान — नहीं, क्योंकि 'समुदाय में प्रवृत्त हुए शब्द उसके अवयवों में भी रहते हैं' इस न्यायका अवलम्बन करने पर उस बातके मान लेने में कोई विरोध नहीं रहता । 'दोहाए' उद्वेलनाकाल जघन्य भी है इस प्रकारका ज्ञान करानेके अभिप्राय से उसका निषेध करने के लिये सूत्र में 'दीहाए' इस पदका निर्देश किया है। यदि कहा जाय कि तब भी 'दीर्घ' पदका निर्देश करना निष्फल है सो भी बात नहीं है, क्योंकि ऊपर चढ़कर स्थित सूक्ष्म गोपुच्छाके ग्रहण करने के लिये इसका उपदेश दिया है। अर्थात् जितना बड़ा उद्वेलनाकाल होगा अन्तमें उतनी छोटी गोपुच्छा प्राप्त होगी, इसलिये इसे निष्फल माननेमें विरोध आता है । यद्यपि आधी उद्वेलना कर देने पर भी उद्व ेलना कर दी ऐसा कहा जाता है, अतः पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षा इस कथनका विरोध करनेके लिये 'जब सबकी उद्वेलना की' इस प्रकारका निर्देश किया है । इसी प्रकार 'उदयावलि गल गई' यह निर्देश पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे किया है । अन्यथा उदयावलिमें दो समय शेष रहे. इस प्रकारका कथन नहीं बन सकता । सूत्रके शेष अवयव सुगम है । १९२ जो क्षपितकर्मांशकी विधिसे आकर असंज्ञी पचेन्द्रियोंमें पैदा होकर और देवायुका बन्ध करके देवोंमें उत्पन्न हुआ । फिर छह पर्याप्तियों को पूरा करके अन्तर्मुहूर्त जाने १. ता०प्रतौ 'कसानो (य) उवसामणाओ' श्रा० प्रतौ 'कसोभो उवसामणानो' इति पाठः । २. ता०प्रतौ 'द्विदल हि (ही), ण गोवुच्छ इति पाठः ।' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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