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________________ गा० २२.] उत्तरपयडिपदेस विद्दत्तीए सामित्तं उव्वेल्लपद्धाए उच्वेल्लिद तस्स जाधे सव्व उवल्लिदं उदयावलिया गलिदा जाधे दुसमय कालडिदियं एक्कम्मि ट्ठिदिविसेसे सेसं ताधे सम्मामिच्छत्तस्स जहां पदेस संतकम्मं । $ १९१. ' तथा चेव०' जहामिच्छत्तजहण्णदव्वे कीरमाणे सुहुमणिगोदेसु खविदकम्म' सियलक्खणेण कम्मद्विदिमच्छिदो तथा एसो वि तत्थच्छिदूण 'तदो तसेसु' तसेसुव्वजिय बहुसो संजमासंजम -संजम सम्मत्ताणि पडिवण्णो । पलिदो ० असंखे ० भागमेत्ताणित्ति एत्थ मिच्छत्तजहण्णसामित्ते च णिद्देसो किण्ण कदो १ ण, ओघखविदकम्मं सिय संजमासंजम -संजम सम्मत्तकंड एहिंतो एदेसिं कंडयाणं थोवतपदुष्पायणफलत्तादो । तत्तो श्रोवतं कुदो णव्वदे ! पलिदो० असंखे० भागेण भहियवे छावद्विसागरोवमपरियदृण्ण हाणुववत्ती दो । मिच्छत्त खविदकम्म सियस्स सम्मत्त - देस विरहसंजमवारे हिंतो एत्थतणा थोवा' मिच्छत्तं गंतूणुव्व ल्लणकालपरियदृणण्णहाणुववत्तीदो । मिध्यात्वको प्राप्त हुआ। वहां उद्वेलनाके सबसे उत्कृष्ट काल द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना करते हुए जब सबकी उद्वेलना कर लो और उदयावली गल गई किन्तु दो समय कालकी स्थिति एक स्थितिविशेषमें शेष रही तब उसके सम्यग्मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है । 1 १९१. सूत्रमें आये हुए ' तथा चेव' का भाव यह है कि जिस प्रकार मिथ्यात्व के जघन्य द्रव्यको करते समय यह जीव क्षपितकर्माशकी विधिके साथ सूक्ष्म निगोदियों में कर्मस्थितिप्रमाण काल तक रहा उसी प्रकार यह भी वहां रहा । सूत्रमें आये हुए 'तदो तसेसु' का भाव है कि तदनन्तर त्रसोंमें उत्पन्न होकर वहां बहुत बार संयमासंयम, संयम और सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । शंका- यहां और मिथ्यात्व के जघन्य स्वामित्व के कथन के समय यह जीव 'पल्यके असंख्यातवें भाग बार संयमासंयम और सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ' इस प्रकार स्पष्ट निर्देश क्यों नहीं किया ? समाधान — नहीं, क्योंकि ओघसे क्षपितकर्मांश जितनी बार संयमासंयम, संयम और सम्यक्त्व प्राप्त होता है उससे इसके संयमासंयम आदिको प्राप्त होने के बार थोड़े हैं, इस बात का कथन करना इसका फल है । शंका- ओघसे इसके संयमासंयम आदिको प्राप्त करनेके बार थोड़े हैं यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान — अन्यथा पल्यके असंख्यातवें भागसे अधिक दो छ्यासठ सागर काल तक इसका परिभ्रमण करना बन नहीं सकता है । इससे जाना जाता है कि यह ओघसे कम बार संयमासंयम आदि को प्राप्त होता है । उसमें भी मिध्यात्वका जघन्य सत्कर्म प्राप्त करते समय क्षपितकर्माश जीव जितनी बार सम्यक्त्व, देशविरति और संयमको प्राप्त होता है उससे यह जीव कमबार सम्यक्त्व आदिको प्राप्त होता है, क्योंकि यदि ऐसा न माना जाय तो इसका उद्वेलनकाल तक मिथ्यात्व में जाकर परिभ्रमण करना नहीं बन सकता है । १. प्रतौ 'एत्थतणथोवा' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only २०३ www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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