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________________ २०६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ओकडकड्डणवसेण हेडिल्लुवरिल्लणिसेगेसु संकमंतसमयपबद्धेगादिपरमाणूणं तत्थावहाणविरोहाभावादो। ___६ १९४. संपहि एदम्मि जहण्णदव्वे पयडिगोवुच्छपमाणाणुगमं कस्सामो । तं जहा-एगमेइंदियसमयपबद्धं दिवढगुणहाणिगुणिदं ठविय पुणो एदस्स हेट्ठा अंतोमुहुत्तोवट्टिद ओकडुक्कड्डगभागहारो ठवेदव्यो, देवेसुववन्जिय अंतोमुहुत्तं कालं पबद्ध अंतोकोडाकोडिसागरोवममेत्तद्विदीसु उक्कड्डिददव्वस्सेव अवहाणुवलंभादो । पुणो गुणसंकमभागहारो पुविल्लभागहारस्स गुणगारभावेण ठवेयव्वो, उक्कड्डिददव्वे किंचूणचरिमगुणसंकमभागहारेण खंडिदेगखंडस्सेव मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्तसरूवेण गमणुवलंभादो । पुणो सकलंतोकोडाकोडिअब्भंतरणाणागुणहाणिसलागाओ विरलिय विगुणिय अण्णोण्णेण गुणिय रूवूणीकयरासी वेछावहिसागरोवमूणतोकोडाकोडि भीतर बंधे हुए समयप्रवद्धोंके कर्मपरमाणु स्वामित्वके अन्तिम समयमें कदाचित् रहते हैं, क्योंकि अपकर्षण और उत्कर्षणके कारण नीचे और ऊपरके निषेकों में संक्रमणको प्राप्त होनेवाले समयप्रबद्धोंके एक आदि परमाणुओंका स्वामित्वके अन्तिम समयमें सद्भाव माननेमें कोई विरोध नहीं है। विशेषार्थ-बन्धके समय जिस कर्मकी जितनी स्थिति पड़ती है उस कर्मका अधिकसे अधिक उतने काल तक ही सत्त्व पाया जाता है । यद्यपि बँधे हुये कर्म परमाणुओंका उत्कर्षण होना सम्भव है पर यह क्रिया भी अपने-अपने कर्मकी शक्तिस्थितिके भीतर ही होती है, इसलिये किसी भी कर्मके परमाणुओंका अपनी कर्मस्थितिसे अधिक काल तक सद्भाव पाया जाना सम्भव नहीं है । इसी नियमको ध्यानमें रखकर यहां कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर दो छयासठ सागर काल और उद्वेलना कालका जितना योग हो उतने काल तकके परमाणु सम्यग्मिथ्यात्वके जघन्य सत्कर्मके समयमें नहीं पाये जाते यह निर्देश किया है, क्योंकि दो छयासठ सागर और दीर्घ उद्वेलना इन दोनोंका काल कर्मस्थितिके कालके बाहर है। ६१९४. अब इस जघन्य द्रव्यमें प्रकृतिगोपुच्छाके प्रमाणका विचार करते हैं । वह इस प्रकार है-एकेन्द्रियके एक समयप्रबद्धको डेढ़ गुणहानिसे गुणा करके स्थापित करो। फिर इसके नीचे अन्तर्मुहूर्तसे भाजित अपकर्षण-उत्कर्षण भागहार स्थापित करो, क्योंकि देवोंमें उत्पन्न होनेके बाद अन्तर्मुहूर्त काल तक बन्धको प्राप्त हुई अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरप्रमाण स्थितियोंमें उत्कर्षणको प्राप्त हुए द्रव्यका ही अवस्थान पाया जाता है। फिर गुणसंक्रम भागहारको पूर्वोक्त भागहारके गुणकाररूपसे स्थापित करना चाहिये, क्योंकि उत्कर्षणको प्राप्त हुए द्रव्यमें कुछ कम अन्तिम गुणसंक्रम भागहारका भाग देने पर जो एक भाग प्राप्त हो उसीका मिथ्यात्वके द्रव्यमेंसे सम्यग्मिथ्यात्वरूपसे संक्रमण पाया जाता है। फिर अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरके भीतर प्राप्त हुई सब माना गुणहानिशलाकाओंका विरलन कर और विरलित प्रत्येक एकको दूना कर परस्पर गुणा करनेसे जो राशि उत्पन्न हो एक कम उसमें दो छयासठ सागर . .. ता०मा०प्रत्योः 'तत्थावहाणामावादो इति पाठः । २. ता.या०प्रत्योः 'अंतोमुहुत्सोवडिद' इति पा । १. ता०प्रती 'अंतोमुहु(त)कालं (म) पबद्ध" इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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