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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं २०७ अब्भंतरणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासिणा रूवणेणोवट्टिदो भागहारो ठवेदव्यो, वेछावहिसागरोवमेसु विरइदगोवुच्छाणं सम्माइट्ठिचरिमसमए अभावादो। पुणो उव्वेल्लणकालभंतरणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णब्भत्थरासो सादिरेओ भागहारो ठवेदव्यो, उव्वेल्लणकालभंतरे विरइदगोवुच्छाणं' णिस्सेसगलणुवलंभादो । संपहि एदस्स गलिदावसिझदव्वस्स दिवड्डगुणहाणिभागहारो ठवेदव्यो, गलिदावसिठ्ठदव्ये पयडिगोवुच्छपमाणेण कीरमाणे दिवगुणहाणिमेत्तपगदिगोवुच्छाणं तत्थुवलंभादो । एवमेसा पयडिगोवुच्छा परूविदा । ___१९५. संपहि विगदिगोवुच्छाए पमाणाणुगमं कस्सामो। तं जहा-दिवड्डगुणिदसमयपबद्धस्स पयडिगोवुच्छाए ठविदासेसभागहारे पच्छिमदिवड्डगुणहाणिभागहारवजिदे ठविय चरिमुव्वेल्लणफालीए ओवट्टिदे विगिदिगोवुच्छा आगच्छदि । पयडिगोवुच्छा एगसमयपबद्धस्स असंखे०भागो, समयपबद्धगुणगारभूददिवड्डगुणहाणीदो हेट्टिमासेसभागहाराणमसंखे गुणत्तुवलंभादो । विगिदिगोवुच्छा पुण असंखेजसमयपबद्धमेत्ता, हेहिमासेसभागहारेहितो गुणगारभूददिवडगुणहाणीए असंखेजगुणत्तुवलंभादो । तदो पयडिगोवुच्छादो बिगिदिगोवुच्छा असंखेजगुणा ति गहेयव्वं । कम अन्तःकोड़ाकोड़ी सागरके भीतर प्राप्त हुई नाना गुणहानिशलाकाओंकी एक कम अन्योन्याभ्यस्तराशिका भाग देने पर जो प्राप्त हो उसे भागहाररूपसे स्थापित करना चाहिये। क्योंकि दो छयासठ सागर कालके भीतर विरचित गोपुच्छाओंका सम्यग्दृष्टिके अन्तिम समयमें अभाव होता है । फिर उद्वलन कालके भीतर नानागुणहानिशलाकाओंकी साधिक अन्योन्याभ्यस्त राशिको भागहाररूपसे स्थापित करना चाहिये; क्योंकि उद्बलना कालके भीतर विरचित गोपुच्छाओंका पूरी तरहसे गल कर पतन होता हुआ देखा जाता है। अब गल कर शेष बचे हुए इस द्रव्यका डेढ़ गुणहातिप्रमाण भागहार स्थापित करना चाहिये, क्योंकि गल कर शेष बचे हुए द्रव्यकी प्रकृतिगोपुच्छाएँ बनाने पर वहां डेढ़ गुणहानिप्रमाण प्रकृतिगोपुच्छाएँ पाई जाती हैं। इस प्रकार यह प्रकृतिगोपुच्छा कही। १९५. अब विकृतिगोपुच्छाके प्रमाणका विचार करते हैं। वह इस प्रकार हैप्रकृतिगोपुच्छाके लानेके लिये डेढ़ गुणहानिसे गुणित समयप्रबद्धका पहले जो भागहार स्थापित कर आये हैं उसमेंसे अन्तमें कहे गये डेड गुणहानिप्रमाण भागहारके सिबा बाकीके सब भागहारको स्थापित करो और उसमें उद्वलनाकाण्डककी अन्तिम फालिका भाग दो तो विकृतिगोपुच्छा प्राप्त होती है। इनमेंसे प्रकृतिगोपुच्छा एक समयप्रबद्धके असंख्यातवें भागप्रमाण है; क्योंकि पहले प्रकृतिगोपुच्छाके लानेके लिये एक सममप्रबद्धका जो डेढ़ गुणहानिप्रमाण गुणकार बतला आये हैं उससे नीचेका सब भागहार असंख्यातगुणा पाया जाता है। किन्तु विकृतिगोपुच्छा असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण पाई जाती है, क्योंकि पहले विकृतिगोपुच्छाके लानेके लिये नीचे जो भागहार बतलाये हैं उन सबसे गुणकाररूप डेढ़ गुणहानि असंख्यातगुणी पाई जाती है। अतः प्रकृतिगोपुच्छासे विकृतिगोपुच्छा असंख्यात गुणी है ऐसा ग्रहण १. ता०प्रतौ 'विगइदगोवुच्छाणं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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