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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहीए सामित्तं ११३ हेट्टिमासेसट्ठिदिपदेसग्गं घेत्तूण अप्पिदह्रिदीए उवरि पक्खिविय ईसाणादिसु थोवीभूदगोवच्छागालणण तिणि वि वेदे आवरेंतस्स आयदो गुणिदकम्मंसियम्मि थोवव्वओवलंभादो। किं च जदि वि गुणिदकम्मंसियलक्खणेण तिण्णि वि वेदे ईसाणादिसु आवरंतस्स कोधसंजलण-छण्णोकसायाणं सत्तमपुढविलाहादो थोवो लाहो तो वि तिण्णिवेदेहितो णिकाचणादिवसेण उवलद्धलाहो तत्तो बहुओ, तेणेवे त्ति सुत्तणिद्देसण्णहाणुववत्तीदो। तेण पुचिल्लत्थो चेत्र भद्दओ त्ति दट्टव्वो । णवरि कोधसंजलणपदेसग्गस्स उक्कस्ससामित्ते भण्णमाणे माणादिउदएण खवगसेटिं चढाव दव्वो पढमहिदिपदेसग्गणिजरापरिरक्खणहूँ। अधवा तेणेवे ति वयणेण सामण्णगुणिदकम्मंसियलक्षणमेवावहारेयां, बिरोहाभावादो। ___एसेव कोधो जाधे माणे पक्खित्तो ताधे माणस्स उकस्सयं पदेससंतकम्म। __$ १२०. एदस्स सुत्तस्स अत्थो सुगमो । णवरि माया-लोहोदएहि खवगसेटिं चढाव दव्यो । ण च तेणेव त्ति वयणेण सह विरोहो वि, तस्स पूरिदकोहसंजलणावहारणे वावदस्स माणोदयावहारणे वावाराभावादो । ण च माणोदए णेव चडिदस्स कोधमुक्कस्सं ईशानादिकमें आयसे व्यय बहुत हो है ऐसा कोई नियम नहीं है, क्योंकि स्वामित्वकी स्थितिसे नीचेकी स्थितिके सब प्रदेशोंको लेकर उनको विवक्षित स्थितिसे ऊपर स्थापित करके ईशानादिकमें स्तोक गोपुच्छकी निर्जरा होनेसे तीनों ही वेदोंका संचय करते हुए गुणितकर्मा शवाले जीवमें आयसे व्यय थोड़ा पाया जाता है। दूसरे, यद्यपि गुणितकर्माशकी विधिके साथ ईशानादिकमें तीनों वेदोंकी पूर्ति करनेवाले जीवके क्रोधसंज्वलन और छह नोकषायोंका सातवें नरकमें जो लाभ होता है उसकी अपेक्षा थोड़ो लाभ होता है, फिर भी निकाचना आदिके द्वारा तीनों वेदोंमेंसे जो लाभ प्राप्त होता है वह उस क्रोधसंज्वलनके लाभ की अपेक्षासे बहुत है, क्योंकि यदि ऐसा न होता तो सूत्र में वही जीव' ऐसा निर्देश नहीं हो सकता था, इसलिये पहले कहा हुआ अर्थ ही ठीक है ऐसा जानना चाहिये । इतना विशेष है कि क्रोध संज्वलनके प्रदेशसमूहके उत्कृष्ट स्वामित्वका कथन करते हुए मान आदि कषायके उदयसे क्षपकश्रेणि पर चढ़ाना चाहिये, जिससे प्रथम स्थितिके प्रदेशसमूहकी निर्जरासे रक्षा हो सके। अथवा 'वही जीव' ऐसा कहनेसे गुणितकर्मा शका जो सामान्य लक्षण कहा है वही लेना चाहिये, उसमें कोई विरोध नहीं है। * वही जीव जब क्रोधको मानमें प्रक्षिप्त करता है तब मानका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है। ६१२०. इस सूत्रका अर्थ सुगम है। इतना विशेष है कि माया या लोभ कषायके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ाना चाहिये । शायद कहा जाय कि ऐसा होनेसे 'वही जीव' इस वचनके साथ विरोध आता है, सो भी नहीं है, क्योंकि यहां पर 'तेणेव'का अर्थ है जिसने क्रोध संज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय किया है वह जीव, अतः उसका अर्थ मान कषायके उद्यवाला जीव नहीं हो सकता। तथा मान कषायके उदयसे ही क्षपकश्रेणिपर चढ़नेवाले जीवके क्रोधका उत्कृष्ट संचय होता है ऐसी भी बात नहीं है क्योंकि माया और लोभ कषायके १५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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