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________________ ११२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ संकमाविय पारद्धाणुपुव्वीसंकमत्तादो सेसकसायाणमुवरि णवंसगित्थिवेदाणं संकममोसारिय णवंसयवेदं खवेमाणो ताव गच्छदि जाव तस्सेव दुचरिमफालि त्ति । तदो चरिमफालिं पुरिसवेदस्सुवरि संछुहिय पुणो इत्थिवेदक्खवणं पारमिय तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण तक्खवणद्धाए चरिमसमए इत्थिवेदचरिमफालीए पुरिसवेदस्सुवरि संकंताए पुरिसवेदस्सुकस्सयं पदेसग्गं । एदेणेव पुरिसवेदेण सह छण्णोकसाएसु सव्वसंकमेण कोधसंजलणस्सुवरि संकामिदेसु कोधसंजलणस्स उक्कस्सयं पदेसग्गं होदि त्ति एसो एदस्स सुत्तस्स भावत्थो । सत्तमपढवीए कोधसंजलणस्स पदेसग्गमुक्कस्सं कादण तत्तो णिप्पिडिय ईसाणादिदेवेसु तिवेदावूरणे कीरमाणे संजलणदव्वक्खओ बहुओ होदि, तत्थ बहुसंकिलेसाभावेण बहुगीए उक्कड्डणाए अभावादो सम्मत्तमुवर्णयतस्स दुविहकरणपरिणामेहि गुणसेढीए कम्मक्खंधाणं खयदंसणादो च। तेण पव्वं तिवेदावरणं करिय पच्छा सत्तमपुढविम्हि संजलणपदेसग्गमुक्कस्सं करिय मणुस्सेसुप्पाइय खवगसेढिं चडाविय कोधसंजलणस्स उक्कस्ससामित्तं दिजदि त्ति ? ण, पुव्वं तत्थ हिंडाविजमाणे वि तद्दोसाणइवुत्तीए गुणिदकम्मंसियकालभंतरे सव्वत्थ णवणोकसाएहि सह कोधसंजलणपदेसग्गं रक्खणिज्जं । तदो तेणेवे ति सुत्तणिदेसण्णहाणुववत्तीदो पुविल्लवुत्तकमेणेव उक्कस्ससामित्तं दादव्वं । ण च तत्थ आयदो वओ बहुओ चेवे ति णियमो सामित्तद्विदीदो नौवें गुणस्थानमें अन्तरकरणके बाद जो संक्रमण होता है वह आनुपूर्वीक्रमसे होता है, अतः शेष कषायोंमें नपुसकवेद और स्त्रीवेदका संक्रमण न करके नपुसकवेदका क्षपण करता हुआ नपुसकवेदकी द्विचरिमफालीके प्राप्त होने तक जाता है, उसके बाद अन्तिम फालीको पुरुषवेदमें संक्रमण कर नष्ट कर देता है। फिर स्त्रीवेदके क्षपणका प्रारम्भ करके अन्तर्मुहूर्त कालको बिताकर उसके क्षपणाकालके अन्तिम समयमें स्त्रीवेदकी आन्तम फालीके पुरुषवेदमें संक्रान्त होनेपर पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय होता है । पुनः इसी पुरुषवेदके साथ छह नोकषायोंके सर्वसंक्रमणके द्वारा क्रोधसंज्वलनमें संक्रान्त होनेपर क्रोधसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय होता है यह इस सूत्र का भावार्थ है।। __ शंका-सातवें नरकमें क्रोधसंज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय करके वहाँसे निकलकर ईशान आदिके देवोंमें तीनों वेदोंका प्रदेशसंचय करते समय संज्वलन कषायका बहुत द्रव्य क्षय हो जाता है, क्योंकि वहाँ बहुत संक्लेशके न होनेसे बहुत उत्कर्षण भी नहीं होता । तथा सम्यक्त्वको प्राप्त करते समय अपूर्बकरण और अनिवृत्तिकरण परिणामोंके द्वारा गुणश्रोणिरूपसे कर्मस्कम्धोंका क्षय भी देखा जाता है । अतः पहले तीनों वेदोंका संचय करके और पीछे सातवें नरकमें संज्वलनकषायका उत्कृष्ट प्रदेश संचय करके मनुष्योंमें उत्पन्न कराकर क्षपकणिपर चढ़ाकर क्रोधसंज्वलनका उत्कृष्ट स्वामीपना कहना चाहिये। समाधान--उक्त कथन ठीक नहीं है, क्योंकि पहले ईशानादिकमें भ्रमण कराने पर भी वह दोष बना ही रहेगा, अतः सर्वत्र गुणितकर्मा शके कालके अन्दर ही नव नोकषार्योके साथ क्रोधसंज्वलनके प्रदेशसमूहकी रक्षा करनी चाहिये । यतः सूत्रमें 'वही जीव' ऐसा निर्देश अन्यथा बन नहीं सकता अतः पहले कहे हुए क्रमके अनुसार ही संज्वलनक्रोधका उत्कृष्ट स्वामित्व कहना चाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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