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________________ ११४ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ होदि, माय-लोहोदएणावि चडिदस्स उ कस्सभावावत्तिं पडि विरोहाभावादो। एसेव माणो जाधे मायाए पकिसत्तो ताध मायासंजलणस्स उकस्सयं पदेससंतकम्मं । १२१. सुगममेदं । णवरि लोहोदएण खवगसेढिं चडिदस्स उक्कस्सं पदेससंतकम्मं वत्तव्वं । एसेव माया जाधे लोभसंजलणे पक्खित्ता ताधे लोभस जलणस्स उपस्सयं पदेससंतकम्मं । $ १२२. सुगममेदं । णवरि लोभसंजलणस्स माणोदएण खवगसेढिं चढावेदव्वो, लोभगोवुच्छाओ आवलियाए असंखे० भागेण खंडेदूण तत्थ एयखंडमेत्तेण माणगोवुच्छाणं लोभगोवुच्छाहितो ऊणत्तुवलंभादो। एवं चुण्णिसुत्तपरूवणं काऊण संपहि उच्चारणा वुच्चदे। १२३सामित्तं दुविहं-जहण्णमुक्कस्सयं च । उकस्से पयदं। दुविहो जिद्द सोओघेण आदेसे० । ओघेण मिच्छत्त-बारसक०-छण्णोक० उक्क० पदेस० कस्स? अण्णदरस्स बादरपुढविकाइएसु वेहि' सागरोवमसहस्सेहि सदिरेगेहि ऊणियं कम्मद्विदिमच्छिदो। एवं गंतूण तेत्तीसं सागरोवमिएसु णेरइएमु उववण्णो तस्स णेरइयस्स चरिमसमए उकस्सयं पदेसग्गं । कार विर उच्चारणाए णेरइयचरिमसमयादो हेट्ठा उदयसे भी चढ़नेवाले जीवके उत्कृष्ट संचय होनेमें कोई विरोध नहीं है। ॐ वही जीव जब मानको माया संज्वलनमें प्रक्षिप्त करता है तब माया संज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है। ६१२१. यह सूत्र सुगम है। इतना विशेष है कि लोभ कषायके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़नेवाले जीवके उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म कहना चाहिये। ॐ वही जीव जब मायाको लोभ संज्वलनमें प्रक्षिप्त करता है तब लोभ संज्वलनका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है। .६ १२२ यह सूत्र सुगम है। इतना विशेष है कि लोभ संज्वलनका उत्कृष्ट संचय प्राप्त करनेके लिये मान कषायके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ाना चाहिये, क्योंकि लोभकी गोपुच्छाओंको आवलिके असंख्यातवें भागसे भाजित करके लब्ध एक भागप्रमाण मानकी गोपुच्छाएँ लोभकी गोपुच्छाओंसे कम पाई जाती हैं। इस प्रकार चूर्णिसूत्रों का कथन करके अब उच्चारणाकोकहते हैं १२३. स्वामित्व दो प्रकारका है-जघन्य और उत्कृष्ट । उत्कृष्टका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश । ओघसे मिथ्यात्व, बारह कषाय और छ नोकषायोंकी उत्कृष्ट प्रदेशविभक्ति किसके होती है ? जो बादर पृथिवीकायिकोंमें कुछ अधिक दो हजार सागर कम कर्मस्थिति काल तक रहा। और अन्तमें जाकर पहले कही हुई विधिके अनुसार तेतीस सागरकी स्थितिवाले नारकियोंमें उत्पन्न हुआ। उस नारकीके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है। किसी उच्चारणामें नारकीके अन्तिम समयसे नीचे अन्तर्मुहूर्त काल उतरकर १. आ०प्रती 'विह' इति पाठः । २. आ०प्रतौ 'कम वि' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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