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________________ गा० २२ ] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं ३८५ अस्सिदूण परमाणुत्तरकमेण पंचहि वड्डीहि वड्ढावेदव्य जाव अप्पणो उक्कस्सदव्व पत्तं ति । अधवा अधापवत्तकरणचरिमसमयदव्व परमाणुत्तरादिकमेण वड्ढावेदव्य जाव अहगुणं जादं ति । ताधे एवं दब पडिच्छिदमायासंजलणलोभदव्वेण सरिसं ति पुव्विल्लदव्वं मोत्तण एदं घेत्तूण पंचहि वड्डीहि ढाणपरूवणा कायव्वा । अधवा अधापवत्तचरिमसमयजहण्णदव्वं किंचूणमट्ठगुणं वड्डाविय पुणोचरिमसमयसुहुमसांपरायियदव्वेण सरिसं जादं ति एदं मोत्तण चरिमसमयसुहुमसापरायियदव्वं घेत्तूण खविदगुणिदे अस्सिदण देसूणपुव्वकोडिविसयकालपरिहाणीए कीरमाणाए जहा वेयणाए मोहणीयस्स कदा तहा कायव्वा । णवरि संतकम्मे ओदारिजमाणे सुहुमसांपर।इयचरिमसमयप्पहुडि ओदारेदव्वं जाव मायासंजलणं पडिच्छिदपढमसमओ ति । पुणो तत्थ दृविय परमाणुत्तरकमेण वड्ढावेदव्वं जाव लोभसंजलणस्स उक्कस्सदव्वं ति । 8 छण्णोकसायाणं जहएणयं पदेससंतकम्मं कस्स । ६४४४. सुगमं । * अभवसिद्धियपाओग्गेण जहएणएण कम्मेण तसेसु ागदो। तत्थ संजमासंजमं संजमं च बहुलो लद्धो । चत्तारि वारं कसाये उवसामेण तदो कमेण मणुसो जादो। तत्थ दीहं संजमद्ध' कादूण खवणाए अन्भुटिदो एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे पाँच वृद्धियोंके द्वारा अपने उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए । अथवा अधःप्रवृत्तकरणके चरम समयके द्रव्यको एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे आठगणे होने तक बढ़ाना चाहिए। उस समय यह द्रव्य मायासंज्ललनके संक्रमणके बाद प्राप्त हुए लोभ संज्वलनके द्रव्यके समान होता है, इसलिए पहलेके द्रव्यको छोड़कर और इस द्रव्यको ग्रहण कर पाँच वृद्धियोंके द्वारा स्थानोंकी प्ररूपणा करनी चाहिए । अथवा अधःप्रवृत्तकरणके चरम समयके जघन्य द्रव्यको कुछ कम आठ गुणा बढ़ाकर चरम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके द्रव्यके समान हो गया इसलिए इसे छोड़कर चरम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिकके द्रव्यको ग्रहण कर क्षपित और गुणित विधिका आश्रय कर कुछ कम पूर्वकोटिके विषयरूप कालसे हीन करने पर जिस प्रकार वेदना अनुयोगद्वारमें मोहनीयका किया है उस प्रकार करना चाहिए। इतनी विशेषता है कि सत्कर्मके उतारने पर सूक्ष्मसाम्परायिकके अन्तिम समयसे लेकर मायासंज्वलनको संक्रमित कर प्राप्त हुए प्रथम समय तक उतारना चाहिये । पुनः वहाँ पर स्थापित कर एक एक परमाण अधिकके क्रमसे लोभसंज्य ळनके उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाना चाहिए। 8 छह नोकषायोंका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है। ६४४४. यह सूत्र सुगम है। * अभव्योंके योग्य जघन्य सत्कर्मके साथ त्रसोंमें आया । वहां पर संयमासंयम और संयमको अनेक बार प्राप्त किया । चार बार कषायोंका उपशम कर अनन्तर क्रमसे मनुष्य हुआ। वहां पर दीर्घ संयमकालको करके क्षपणाके लिए उद्यत हुआ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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