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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहत्ती ५ तस्स चरिमसमयहिदिक्खंडए चरिमसमयअणिल्लेविदे छण्णं कम्मसाणं जहएणय पदेससंतकम्म।। ४४५. एइंदियपाओग्गसव्वजहण्णसंतकम्मग्गहणटुं अभवसिद्धियपाओग्गणिद्देसो कदो । तस्स जहण्णदव्वस्स असं०गुणाए सेढीए समयं पडि पदेसगालणटुं संजमासंजमं संजमं च बहुसो लद्धो त्ति णिद्द सो कदो। संजमासंजम-संजमगुणसेढिणिज्जराहितो पडिसमयमसंखेजगुणाए सेढीए कम्मणिज्जरणटुं गुणसंकमेण सगपदेसे परसरूवेण संकामणटुं च चत्तारिवारं कसाया उवसामिदा। पुवित्लासेसगुणसेढिहि दीहेण वि कालेण णिजरिददव्वादो असं०गुणदव्वणिजरणहं खवणाए अब्भुट्ठाविदो । चरिमष्टिदिखंडगस्स दुचरिमादिफालीओ गालिय चरिमफालिगहण चरिमडिदिखंडगे चरिमसमयअणिल्लेविदे त्ति भणिदं । एवमेदीए किरियाए णिप्पण्णछण्णोकसायाणं जहण्णयं पदेससंतकम्मं होदि । * तदादियं जाव उक्कस्सियादो एगमेव फद्दयं ।। ४४६. एत्थ एगं चेव फद्दयं, जहण्णदबे परमाणुत्तरकमेण जाव चरिमसमयणेरयियउक्कस्सदव्वं ति वड्डमाणे विरहाभावादो। एवमोघजहण्णर्ग समत्तं । ६४४७. संपहि चुण्णिसुत्तसामित्तपरूवणं करिय उच्चारणाइरियसामित्तपरूवणं कस्सामो । जहण्णए पयदं । दुवि०-ओघे० आदे० । ओधे० मिच्छत्त० जह० पदेस० उसके चरम समयवर्ती स्थितिकाण्डकके चरमसमयमें अनिर्लेपित रहते हुए छह नोकषायोंका जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। ६४४५. एकेन्द्रियोंके योग्य सबसे जघन्य सत्कर्मका ग्रहण करनेके लिए अभव्यसिद्धप्रायोग्य पदका निर्देश किया है। उस जघन्य द्रव्यके असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे प्रत्येक समयमें प्रदेशोंको गलानेके लिए संयमासंयम और संयमको अनेक बार प्राप्त किया ऐसा निर्देश किया है। संयमासंयम और संयम गुणश्रेणिनिर्जराओंसे प्रत्येक समयमें असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे कर्मोकी निर्जरा करनेके लिए और गुणसंक्रमणके द्वारा अपने प्रदेशोंका पररूपसे संक्रमण करानेके लिए चार बार कषायोंका उपशम कराया है। पहलेकी समस्त गुणश्रेणियोंके द्वारा बहुत बड़े कालमें भी होनेवाली निर्जराके द्रव्यसे असंख्यातगुणे द्रव्यकी निर्जरा करानेके लिए क्षपणाके लिए उद्यत कराया है। चरम स्थितिकाण्डककी द्विचरम आदि फालियोंको गला कर चरम फालिका ग्रहण करनेके लिए चरम स्थितिकाण्डकके चरम समय में अनिर्लेपित रहने पर ऐसा कहा है। इस प्रकार इस क्रिया द्वारा उत्पन्न हुआ छह नोकषायोंको जघन्य प्रदेशसत्कर्म होता है। ॐ उससे लेकर उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्मके प्राप्त होने तक एक ही स्पर्धक होता है। $ ४४६. यहाँ पर एक ही स्पर्धक है, क्योंकि जघन्य द्रव्यके एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे चरम समयवर्ती नारकीके उत्कृष्ट द्रव्य तक बढ़ने पर बीचमें अन्तरालका अभाव है। इस प्रकार ओघ जघन्य स्वामित्व समाप्त हुआ। ६४४७. अब चूर्णिसूत्रसम्बन्धी स्वामित्वका कथन करके उच्चारणाचार्यके अनुसार स्वामित्वका कथन करते हैं। जघन्यका प्रकरण है। निर्देश दो प्रकारका है-ओघ और आदेश। ओघसे मिथ्यात्वका जघन्य प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? जो अन्यतर क्षपित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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