SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्त २४३ २४१. संपहि सम्मामिच्छत्तस्स गुणिदकम्मंसियसंतकम्ममस्सिदूण हाणपरूवणं कस्सामो । तं जहा-खविदकम्मंसियलक्खणेणागतूण सम्मत्तं पडिवन्जिय वेछावठीओ भमिय दीहुव्वल्लणकालेण सम्मामिच्छत्तमुव्वल्लिय चरिमफालिं धरेदण हिदो परमाणुत्तरकमेण चत्तारि पुरिसे अस्सिद्ण पंचहि वड्डीहि वड्ढाव दव्वो जाव गुणिदकम्मंसिओ सत्तमाए पुढवीए मिच्छत्तमुक्कस्सं कादण तत्तो णिस्सरिदूण सम्मत्तं पडिवजिदूण वेछावडीओ भमिय दीहुव्वल्लणकालेण सम्मामिच्छत्तमुव्वल्लिय चरिमफालिं धरेदूण ट्ठिदो ति । एवं वड्डिदेण अण्णेगो सत्तमाए पुढवीए मिच्छत्तमुक्कस्सं करेमाणो जो सम्मामिच्छत्तदुचरिमगुणसंकमफालिदव्वण तस्सेव त्थिव कसंकमेण गदगोवुच्छदव्वेण च ऊणं करियाग तूण सम्मामिच्छत्तमुव्वल्लिय तचरिमदुचरिमफालीओ धरिय हिदो सरिसो । संपहि' एसो दोफालिधारगो परमाणुत्तरकमेण वड्ढाव दव्वो जावप्पणो ऊणीकददव्व वड्डिदं ति । एवमुव्वल्लणवेछावहिकालेसुओदारिजमाणेसु जधा खविदकम्मंसियस्स संतमोदारिदं तधाओदारेदव्वं । णवरि एत्थ इच्छिददव्वमृणं करिय आगतूण पुणो वड्डाविय ओदारेदव्वं । संधिजमाणे वि जहा खविदस्स संधिदं तहा एत्थ वि संधेदव्व । एवं सम्मामिच्छत्तस्स चदुहि पयारेहि हाणपरूवणा कदा । ____६२४१. अब गुणितकाशकी अपेक्षा सम्यग्मिथ्यात्वके सत्कर्मस्थानोंका कथन करते है। वे इस प्रकार हैं-भपितकाशके लक्षणसे आकर सम्यक्त्वको प्राप्त कर दो र काल तक भ्रमण कर उत्कृष्ट उद्रेलना काल द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना कर अन्तिम फालिको धारण कर स्थित हुआ जीव एक अन्य जीवके समान है जो चार पुरुषोंके आश्रयसे एक एक परमाणु अधिकके क्रमसे पाँच वृद्धियोंके द्वारा तब तक बढ़ावे जब तक गुणितकर्माशवाला सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्वको उत्कृष्ट करके वहाँसे निकलकर सम्यक्त्वको प्राप्त कर दो छयासठ सागर काल तक भ्रमण कर उत्कृष्ट उद्वेलना काल द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वको उद्वेलना कर अन्तिम फालिको धारण कर स्थित होवे। इस प्रकार बढ़े हुए इस जीवके समान एक अन्य जीव समान है जो सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्वको उत्कृष्ट करके सम्यग्मिथ्यात्वकी द्विचरमगुणसंक्रमफालिके द्रव्यको और स्तिवुकसंक्रमणको प्राप्त हुए उसीके गोपुच्छाके द्रव्यको घटाकर सम्यग्मिथ्यात्वको उद्वेलना करके उसको अन्तिम और द्विचरमफालिको धारण कर स्थित है। अब उस दो फालिके धारक जीवने जितना अपना द्रव्य कम किया हो उतना द्रव्य उत्तरोत्तर एक एक परमाणके क्रमसे बढ़ावे | इस प्रकार उद्वेलना व दो छयासठ सागर कालके उतारने पर जिस प्रकार क्षपितकर्माश जीवके सत्कर्मको उतारा है उस प्रकार उतारते जाना चाहिये । किंतु इतनी विशेषता है कि यहाँ पर इच्छित द्रव्यको कम करते हुए आकर पुनः बढ़ाकर उतारना चाहिये । तथा जोड़ने पर भी जिस प्रकार क्षपितकर्माशका जोड़ा है उसी प्रकार यहाँ भी जोड़ना चाहिए। इस प्रकार चारों प्रकारसे सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थानप्ररूपणा की। १. प्रा०प्रतौ 'द्विदो । संपहि, इति पाठः । २. प्रा०ततौ 'बड्ड'ति' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy