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________________ २४२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ पदेसविहती ५ अगो खविदकम्मंसियो पडिवण्णवेदगसम्मत्तो पढमछावद्विअन्तरे गुणसंकम भागहारछेदणय मे त्तगुणहाणीओ गालिय दंसणमोहणीयक्खवणमाढविय मिच्छत्तं सम्मामिच्छरो पक्खिविय हिंदो सरिसो । ६ २४० संपहि इमं घेत्तूण एगगोबुच्छमेतं वड्डाविय सरिसं कादूणोदारेदब्धं जावतोमुहुत्त वेदसम्मादिडी दंसणमोहक्खवणमाढविय मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तम्मि संयि हिंदो त्ति | संपहि एसो खविदकम्मं सियलक्खणेणागंतूण मणुसेसुववजिय सव्वलहुँ जोणिणिक्खमणजम्मणेण अट्ठवस्सिओ होण सम्मत्तं घेत्तूण अणंताणुबंधिचउकं विसंजोय दंसणमोहक्खवणमाढविय मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं पक्खिविय जो अवद्विदो सो परमाणुत्तरादिकमेण चत्तारि पुरिसे अस्सिदूण पंचहि वड्डीहि वढावेदव्वो जाव गुणिदकम्मंसियलक्खणेण सत्तमा पुढवीए मिच्छत्त मुकस्सं करिय पुणो दो-तिण्णिभवग्गहणाणि पंचिदिएस एइंदिएसु च उपजिय पुणो मणुस्सेसुववज्जिय सव्वलहुं जोणिणिकमणजम्मणेण अंतोमुहुत्तन्भहियअडवस्सिओ होदूण पुणो सम्मत्तं पडिवजिय अणंताणुबंधिचउकं विसंजोइय पुणो अंतोमुहुत्तं गमिय दंसणमोहणीयक्खवणमाढविय मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तम्मि संछुहिय द्विदो । एवमोदारिदे अनंताणं द्वाणाणमेगं फद्दयं, विरहाभावाद । एवं तदियपयारेण सम्मामिच्छत्तद्वाणपरूवणा कदा | तक उतारते जाना चाहिये । अब इस जीवके समान अन्य एक जीव है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर और वेदक सम्यक्त्वको प्राप्त होकर प्रथम छयासठ सागर कालके भीतर गुणसंक्रम भागहार के अर्धच्छेदप्रमाण गुग्गाहानियोंको गलाकर और दर्शनमोहनीयको क्षपणाका आरम्भ करके मिथ्यात्वके द्रव्यको सम्यग्मिथ्यात्वमें प्रक्षिप्त करके स्थित है । ९ २४०. अब इस जीवको लो और इसके एक गोपुच्छाप्रमाण द्रव्यको उत्तरोत्तर ढ़ाते हुए और समान करते हुए तब तक उतारते जाना चाहिये जब तक छयासठ सागर के भीतर अन्तर्मुहूर्त के लिए वेदकसम्यग्दृष्टि होकर और दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका आरम्भ करके मिथ्यात्व के द्रव्यको सम्यग्मिथ्यात्व में क्षेपण करके स्थित होवे । अब यह जीव क्षपितकर्माशिक लक्षणके साथ आकर मनुष्यों में उत्पन्न हो सर्व जघन्य कालके द्वारा योनिसे बाहर निकलनेरूप जन्म से लेकर आठ वर्षका होकर सम्यक्त्वको प्राप्त हो अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका आरम्भ करके मिथ्यात्वके द्रव्यको सम्यग्मिथ्यात्व में प्रक्षिप्त करके स्थित है । फिर चार पुरुषोंका आश्रय लेकर एक-एक परमाणु अधिकके क्रमसे पांच वृद्धियोंके द्वारा तब तक बढ़ावे जब तक गुणितकर्माशिकलक्षणके साथ सातवीं पृथिवीमें मिथ्यात्वको उत्कृष्ट करके फिर दो तीन भव ग्रहण कर पंचेन्द्रिय और एकेन्द्रियों में उत्पन्न हो फिर मनुष्यों में उत्पन्न होकर सर्वलघु कालके द्वारा योनिसे निकलनेरूप जन्म से अन्तर्मुहूर्त सहित आठ वर्षका होकर पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त कर अनन्ताबन्धी चतुष्ककी विसंयोजना कर फिर अन्तर्मुहूर्त जाकर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका आरम्भ करके मिथ्यात्व के द्रव्यको सम्यग्मिथ्यात्वमें क्षेपण करके स्थित होवे । इस प्रकार उतारने पर अनन्त स्थानोंका एक स्पर्धक होता है, क्योंकि मध्य में विरह ( अन्तर ) का अभाव है । . इस प्रकार तीसरे प्रकारसे सम्यग्मिथ्यात्वको स्थानप्ररूपणा की । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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