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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं एवमोदारदव्वं जाव पढमसमयसम्मामिच्छादिहि त्ति । २३९. पुणो पढमसमयसम्मामिच्छादिट्ठिम्मि वड्डाविजमाणे गुणसंकमभागहारस्स संकलणम त्तगोवच्छविसेसेहि अब्भहियएगसम्मामिच्छत्तगोवच्छदव्वं दुरूवाहियगुणसंकमभागहारमेत्तकालम्मि सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्तगददव्वणब्भहियं सम्मत्तस्थिवुक्कगोवुच्छाए दुरूवाहियगुणसंकममेत्तकालमि मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्तस्स संकंतदव्वेण च ऊणं वड्ढावेदव्वं । एवं वड्डिदूण विदेण अण्णेगस्स सम्मत्तचरिमसमयादो हेहा दुरूवाहियगुणसंकमभागहारमेत्तमोदरिदृण हिदसम्मादिहिस्स सम्मामिच्छत्तदव्वं सरिसं। कुदो ? गुणसंकमभागहारमेत्तसम्मामिच्छत्तगोवुच्छासु अवणिदगोवुच्छविसेसासु मेलिदासु एगमिच्छत्तगोवुच्छुप्पत्तीदो गोवुच्छविसेससंकलणसहिदेगसम्मामिच्छत्तगोवुच्छाए सम्मामिच्छत्तादो सम्मत्तस्स आगददव्वेणन्भहियाए सम्मत्तगोवुच्छाए. मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्तं गददव्वेण च ऊणाए वड्डाविदत्तादो । संपहिं एतो हेढा ओदारिजमाणे तस्समयम्मि मिच्छत्तादो सम्मामिच्छत्तमागददव्वेणूणसम्मामिच्छत्तत्थिवुक्कगोवुच्छासम्मामिच्छत्तादो विज्झादसंकमेण सम्मत्तं गददव्वं च वड्ढावेदव्वं । एवं वड्विदेण अण्णेगो हेट्ठिमसमयम्मि द्विदसम्मादिही सरिसो। एदेण कमेणोदारेदव्वं जाव पढमछावट्ठीओ आवलियवेदगसम्मादिहि त्ति । संपहि एदेण इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो विचरमसमयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टि है । इस प्रकार प्रथम समयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टि के प्राप्त होने तक उतारते जाना चाहिए । ६२३९. फिर प्रथम समयवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टिके द्रव्यके बढ़ाने पर गुणसंक्रमणभागहारके संकलनका जो प्रमाण हो उतने गोपुच्छाविशेषोंसे अधिक सम्याग्मिथ्यात्वके एक गोपुच्छाके द्रव्यको और दो अधिक गुणसंक्रमण भागहारप्रमाण कालके भीतर सम्यग्मिथ्यात्वसे सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे अधिक स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा सम्यक्त्वको प्राप्त हुई गोपुच्छाको एक-एक परमाणुकर बढ़ाता जावे । किन्तु इसमेंसे दो अधिक गुणसंक्रमणके कालके भीतर मिथ्यात्वके द्रव्यमेंसे सम्यग्मिथ्यात्वमें संक्रान्त हुए द्रव्यको घटा दे। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके द्रव्यके साथ सम्यक्त्वके अन्तिम समयसे दो अधिक गुणसंक्रमण भागहारका जितना काल है उतना नीचे उतरकर स्थित हुए सम्यग्मिथ्यादृष्टिके सम्यग्मिथ्यात्वका द्रव्य समान है, क्योंकि गुणसंक्रमण भागहारप्रमाण सम्यग्मिथ्यात्वकी गोपुच्छाओं मेंसे गोपुच्छविशेषोंको घटाकर जोड़ने पर मिथ्यात्वकी एक गोपुच्छाकी उत्पत्ति हुई है। तथा गोपुच्छाविशेषोंके जोड़ने पर जो प्रमाण हो उसके साथ सम्यग्मिथ्यात्वकी एक गोपुच्छाकी भौर मिथ्यात्वके द्रव्यमेंसे सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त होनेवाले द्रव्यको कम करके सम्यग्मिध्यात्वके द्रव्यमेंसे सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे अधिक सम्यक्त्वकी गोपुच्छाकी वृद्धि हुई है। अब इससे नीचे उतारने पर उसी समय मिध्यात्वके द्रव्यमेंसे साग्मग्यात्वको प्राप्त होनेवाले द्रव्यसे कम स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा अन्य प्रकृतिको प्राप्त होनेवाली सम्यग्मिथ्यात्वकी गोपच्छाको और विध्यातसंक्रमणके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वके द्रव्यमेंसे सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले द्रव्यको बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान अन्य एक जीव है जो नीचेके समयमें सम्यग्दृष्टि होकर स्थित है। इस प्रकार इस क्रमसे पहले छयासठ सागरके भीतर वेदक सम्यग्दृष्टिके एक भावलिकालके प्राप्त होने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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