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________________ ६८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ मणुसपज्जत्ता एवं चेव । णवरि णवूस भागस्सुवरि इत्थिवेदभागो असंखे गुणो कायव्वो। मणुसिणीसु सम्मत्तमादि कादण पुव्वविहाणेण भणिदण तदो कोहसंज०भागस्सुवरि माणसंज०भागो विसे० । मायासंज०भागो विसे० । इत्थिवेदभागो असंखे गुणो । णस०भागो असंखे०गुणो । पुरिस०भागो असंखे गुणो। हस्सभागो संखे०गुणो । उवरि णस्थि विसेसो। ८४. आदेसेण णेरइय० मोह. २८ पयडीणं सव्वजह० पदेसपिंडं घेत्तूण एवमणंतखंडं कादूण तत्थेयखंडमेत्तसव्वघाइदव्वस्स भागाभागे कीरमाणे ओधभंगो। पुणो सेसबहुभागमेत्तदेसघादिदव्वं घेत्तूण एवं संखे०खंड कादूण तत्थेयखंडं पुध दृविय पुणो संखेज्जाभागमेत्तसेसदव्व म्मि समयाविरोहेण भागाभागे कदे सोगभागो थोवो । अरदिभागो विसे० पयडिवि० । दुगुंछाभागो विसे० रदिबंधगद्धासंचिददव्वमेत्तेण । भयभागो विसे० पयडि विसे । माणसंज०भागो विसे० चउब्भागमेत्तेण । कोहसंज०भागो विसे० पयडि विसे०। मायासंज०भागो विसे० पयडिविसे० । लोभसंज०भागो विसे० पयडिविसे० । ६ ८५. संपहि पव्वमवणिदसंखे०भागमेत्तं पणो वि संखे०खंडं कादण तत्थेयखंडं पुध हविय सेससंखेजे भागे घेत्तूणावलि० असंखे भागेण खंडेयूणेगखंडं घेत्तूण सेससव्वऔर लोभसंज्वलनका भाग विशेष अधिक है । इसी प्रकार सामान्य मनुष्यों में जानना चाहिये । मनुष्य पर्याप्तकोंमें भी इसी प्रकार जानना चाहिये। इतना विशेष है कि इनमें नपुंसकवेदके आगे स्त्रीवेदका भाग असंख्यातगुणा करना चाहिये । मनुष्यिनियोंमें सम्यक्त्वसे लेकर पूर्वोक्त विधानके अनुसार कहकर उसके बाद इस प्रकार कहना चाहिये-क्रोधसंज्वलनके भागसे आगे मान संज्वलनका भाग विशेष अधिक है । माया संज्वलनका भाग विशष अधिक है। स्त्रीवेदका भाग असंख्यातगुणा है। नपुंसकवेदका भाग असंख्यातगुणा है । पुरुषवेदका भाग असंख्यातगुणा है। हास्यका भाग संख्यातगुणा है। इसके आगे कोई अन्तर नहीं है। ८४. आदेशसे नारकियोंमें मोहनीयकी २८ प्रकृतियोंके सबसे जघन्य प्रदेशसमूहको लेकर उसके अनन्त खण्ड करो। उनमेंसे एक खंण्डप्रमाण सर्वघाती द्रव्य है । उसका भागाभाग ओघके समान जानना चाहिए। शेष बहुभागमात्र देशघाती द्रव्य है। उसे लेकर उसके संख्यात खण्ड करो । उनमेंसे एक खण्डको पृथक स्थापित करके शेष बचे संख्यात खण्डप्रमाण द्रव्यमें आगमसे विरोध न आये इस तरह भागाभाग करने पर शोकका भाग थोड़ा होता है। अरतिका भाग विशेष अधिक होता है। विशेषका प्रमाण प्रकृतिमात्र है । जुगुप्साका भाग विशेष अधिक है । विशेषका प्रमाण रतिके बन्धक कालमें संचित हुआ द्रव्यमात्र है । भयका भाग विशेष अधिक है। विशेषका प्रमाण प्रकृतिमात्र है। मानसंज्वलनका भाग विशेष अधिक है। विशेषका प्रमाण चतर्थभागमात्र है। क्रोधसंज्वलनका भाग विशेष अधिक है। का प्रमाण प्रकृतिमात्र है । मायासंज्वलनका भाग विशेष अधिक है। विशेषका प्रमाण प्रकृतिमात्र है। लोभ संज्वलनका भाग विशेष अधिक है । विशेषका प्रमाण प्रकृतिमात्र है। ६८५. अब पहले घटाये हुए संख्यातवें भागमात्र द्रव्यके फिर भी संख्यात खण्ड करो। उनमेंसे एक खण्डको पृथक् स्थापित करके शेष संख्यात खण्डोंको लेकर उनमें आवलीके Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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