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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेविहत्तीए भागाभागो ६७ भागेण भागलद्धं तत्तो पुध दृविय सेससव्वदव्वं चत्तारि समपुजे कादूण तदो आवलि. असंखे०भागं विरलिय पुध ढविददव्वमेदिस्से विरलणाए उवरि समखंडं करिय दादण तत्थेयखंडपरिच्चारण सेसबहुखंडेसु पढमपुंजे पक्खित्तेसु अणंताणु०लोभमागो होदि । एवं पुणो पुणो वि कीरमाणे माय-कोध-माणभागा जहाकमं भवंति । पुणो पव्वमवणिदसंखे भागमेत्तदव्वं पलिदो० असंखे०भागमेत्तखंडाणि कादूण तत्थेयखंडमेत्तो सम्मत्तभागो होदि । सेससव्वखंडाणि घेत्तूण सम्मामि०भागो होदि । ६८३. संपहि एत्थालावे भण्णमाणे सम्मत्तभागो थोवो । सम्मामि०भागो असंखे गुणो। अणंताणु०माणभागो असंखे गुणो। कोधभागो विसेसाहिओ। मायाभागो विसे० । लोभभागो विसे० । मिच्छत्तभागो असंखे गुणो । अपच्चक्खाणमाणभागो असंखे०गुणो । कोधभागो विसे० । मायाभागो विसे० । लोभभागो विसे० । पञ्चक्खाणमाणभागो विसे । कोधभागो विसे । मायाभागो विसे०। लोभमागो विसे०। कोहसंजल०भागो अणंतगुणो। माणसंजल भागो विसेसा० । परिस०भागो विसे । मायासंजल०भागो विसे० । णउंस०भागो असंखे गुणो। इत्थिवेदभागो विसे० । हस्सभागो असंखे०गुणो । रदिभागो विसेसा० । सोगभागो संखे गुणो। अरदिभागो विसे० । दुगुंछभागो विसे० । भयभागो विसे० । लोभसंज. विसे० । एवं मणुसा । लब्ध एक भागको पृथक् स्थापित करके शेष सब द्रव्यके चार समान भाग करो। फिर आवलिके असंख्यातवें भागका विरलन करके पृथक् स्थापित किये गये द्रव्यको समभाग करके विरलन राशि पर दो। उनमेंसे एक भागको छोड़कर शेष सब भागोंको चार समान भागोंमेंसे पहले भागमें मिला देने पर अनन्तानुबन्धी लोभका भाग होता है। इसी प्रकार पुनः पुनः करने पर माया, क्रोध और मानके भाग यथाक्रमसे होते हैं। उसके बाद पहले घटाये हुए असंख्यातवें भागमात्र द्रव्यके पल्यके असंख्यातवें भागमात्र खण्ड करके उनमेंसे एक खण्ड मात्र द्रव्य सम्यक्त्वका भोग होता है। शेष सब खण्डोंको लेकर सम्यग्मिथ्यात्वका भाग होता है। ६८३. अब यहां आलापको कहते हैं-सम्यक्त्वका भाग थोड़ा है। सम्यग्मिथ्यात्वका भाग असंख्यातगुणा है। अनन्तानुबन्धी मानका भाग असंख्यातगुणा है। क्रोधका भाग विशेष अधिक है। मायाका भाग विशेष अधिक है। लोभका भाग विशेष अधिक है। मिथ्यात्वका भाग असंख्यातगुणा है। अप्रत्याख्यानावरण मानका भाग असंख्यातगुणा है। क्रोधका भाग विशेष अधिक है। मायाका भाग विशेष अधिक है। लोभका भाग विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मानका भाग विशेष अधिक है। क्रोधका भाग विशेष अधिक है। मायाका भाग विशेष अधिक है। लोभका भाग विशेष अधिक है। क्रोधसंज्वलनका भाग अनन्तगुणा है। मानसंज्वलनका भाग विशेष अधिक है। पुरुषवेदका भाग विशेष अधिक है। मायासंज्वलनका भाग विशेष अधिक है। नपुसकवेदका भाग असंख्यातगुणा है । स्त्रीवेदका भाग विशेष अधिक है। हास्यका भाग असंख्यातगुणा है। रतिका भाग विशेष अधिक है। शोकका भाग संख्यातगुणा है। अरति का भाग विशेष अधिक है। जुगुप्साका भाग विशेष अधिक है। भयका भाग विशेष अधिक है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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