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________________ गा० २२] उत्तरपयडि पदेसविहत्तीए भागाभागो दव्वं सरिसवेपुंजे कादूण तत्थेगपुंजम्मि अणंतरगहिददव्वे पक्खित्ते रदिभागो होदि । इयरो वि हस्सभागो। पणो पव्वमवणिदसंखे०भागमेत्तदव्वमसंखे० खंडे कादण तत्थ बहुखंडेसु गहिदेसु पुरिस भागो होदि । पुणो सेसेगमागमेत्तदव्वं संखे०खंडं कादूण तत्थ बहुखंडा णवूस भागो होदि । इदरेगभागो वि इत्थिवेदस्स होदि । ___$८६. संपहि एत्थ सव्वसमासालावे भण्णमाणे सम्मत्तभागो थोवो । सम्मामि० भागा असंखे गुणा । अणंताणु०माणभा० असंखेगुणा । कोहभा० विसे० । मायामा० विसे० । लोभभा० विसे० । मिच्छत्तभा० असंखे गुणा । अपञ्चक्खाणमाणभा० असंखे०गुणा । कोधभा० विसे० । मायामा० विसे० । लोभभा० विसे० । पच्चक्खाणमाणभा० विसे । कोधभा० विसे । मायाभा० विसे० । लोभमा० विसे० ! इत्थिवेदभा० अणंतगुणा । णqसभा० संखे गुणा । पुरिसभा० असंखे गुणा । हस्सभा० संखेगुणा । रदिभा० विसे० । सोगमा० असंखे गुणा । अरदिभा० विसे । दुगुंछामा० विसे । भयभा० विसे० । माणसंज०भागा विसे । कोहसंज०भागा विसे । मायासंजभागा विसे । लोभसंज०भागा विसे । एवं पढमादि जाव सत्तमपुढवि-सव्वतिरिक्ख-मणुसअपज. देवा भवणादि जाव सव्वट्ठा त्ति । एवं जाव अणाहारि त्ति । एवमुत्तरपयडिपदेसभागाभागो समत्तो। असंख्यातवें भागसे भाग देकर लब्ध एक भाग प्रमाण द्रव्यको लेकर शेष सब द्रव्यके दो समान पुंज करो। उनमेंसे एक पुंज में पहले घटाकर ग्रहण किये गये एक भागप्रमाण द्रव्यको जोड़ दो तो रतिका भाग होता है और दूसरा पुंज हास्यका भाग होता है । फिर पहले घटाये हुए संख्यातवें भागमात्र द्रव्यके असंख्यात खण्ड करो। उनमें से बहुत खण्डोंको लो। यह पुरुषवेदका भाग होता है। फिर बाकी बचे एक भागमात्र द्रव्यके संख्यात खण्ड करो। उनमें से बहुखण्डप्रमाण द्रव्य नपुंसकवेदका भाग होता है। बाकी बचा एक भागमात्र द्रव्य स्त्रीवेदका होता है। ८६. अब यहां पर सबका जोड़ करके आलापको संक्षेपसे कहते हैं-सम्यक्त्वका भाग थोड़ा है। सम्यग्मिथ्यात्वका भाग असंख्यातगुणा है। अनन्तानुबन्धीमानका भाग असंख्यातगुणा है । क्रोधका भाग विशेष अधिक है। मायाका भाग विशेष अधिक है। लोभका भाग विशेष अधिक है। मिथ्यात्वका भाग असंख्यातगुणा है । अप्रत्याख्यानावरण मानका भाग असंख्यातगणा है। क्रोधका भाग विशेष अधिक है। मायाका भाग विशेष अधिक है। लोभका भाग विशेष अधिक है। प्रत्याख्यानावरण मानका भाग विशेष अधिक है। क्रोधका भाग विशेष अधिक है । मायाका भाग विशेष अधिक है । लोभका भाग विशेष अधिक है। स्त्रीवेदका भाग अनन्तगुणा है । नपुंसकवेदका भाग संख्यातगुणा है। पुरुषवेदका भाग असंख्टातगुणा है । हास्यका भाग संख्यातगुणा है। रतिका भाग विशेष अधिक है। शोकका भाग संख्यातगुणा है। अरतिका भाग विशेष अधिक है । जुगुप्साका भाग विशेष अधिक है । भयका भाग विशेष अधिक है। मानसंज्वलनका भाग विशेष अधिक है। क्रोध संज्वलनका भाग विशेष अधिक है। माया संज्वलनका भाग विशेष अधिक है और लोभ संज्वलनका भाग विशेष अधिक है। इसप्रकार पहली से लेकर सातवीं पृथिवीमें सब तिर्यश्च, मनुष्य अपर्याप्त, सामान्य देव और भवनवासी से लेकर सर्वार्थसिद्धि तकके देवोंमें जानना चाहिए। इस प्रकार अनाहारी पर्यन्त ले जाना च इस प्रकार उत्तर प्रकृतिप्रदेशविभक्तिमें भागाभाग समाप्त हुआ। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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