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जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ ६१०५. संपहि एत्थ णqसयवेदुक्कस्सदव्वस्स उपसंहारे भण्णमाणे संचयाणुगमो भागहारपमाणाणुगमो लद्धपमाणाणुगमो चेदि तिण्णि अणियोगदाराणि होति । तत्थ संचयाणुगमो वुच्चदे । तं जहा-कम्मट्टिदिपढमसमयप्पहुडि जाव अंतोमुहुत्तकालं ताव तत्थ पबद्धणqसयवेददव्वमत्थि । पुणो तदुवरि अंतोमुहुत्तमेत्तकालसंचिददव्वं णत्थि, तत्थाणप्पिदवेदेसु बज्झमाणेसु णqसयवेदस्स बंधाभावादो। पुणो वि उवरि अंतोमुहुत्तमेत्तकालसंचओ अत्थि, तत्थ णवंसयवेदस्स बंधुवलंभादो। तदुवरिमअंतोमुहुत्तमेत्तकालसंचओ णत्थि, तत्थ पडिवक्खपयडिबंधसंभवादो। एवं णेदव्वं जाव कम्मद्विदिचरिमसमओ त्ति । णवरि एत्थ कम्मद्विदिकालभंतरे पडिवक्खपयडिबंध
सेन स्वामीने जो समाधान किया है उसका भाव यह है कि उत्कर्षणसे जितना संचय होगा उससे बन्धकी अपेक्षा होनेवाला संचय ज्यादह लाभकर है, अतः ऐसे जीवको अधिकतर ईशान स्वर्गके देवोंमें ही उत्पन्न कराना चाहिये । यहाँ पर प्रकरणवश एक करणगाथांश उद्धृत किया गया है जो पूरी इस प्रकार है
प्रपेक्षकसंक्षेपेण विभक्त यद्धनं समुपलब्धम् ।
प्रक्षेपास्तेन गुणाः प्रक्षेपसमानि खण्डानि ।। इसलिए नपुंसकवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसंचय ईशान स्वर्गमें उत्पन्न होनेवाले गुणितकर्माश जीवके देवपर्यायके अन्तिम समयमें बतलाया है, क्योंकि ईशान स्वर्गका देव मरकर एकेन्द्रिय हो जाता है, अतः वहाँ स्थावर प्रकृतियोंका बन्धकाल संभव है और स्थावर प्रकृतियोंके बन्धके समय केवल नपुसकवेदका ही बन्ध होता है, क्योंकि स्थावर नपुंसक ही होते हैं, अतः ईशान स्वर्गके देवके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट संचय संभव है। सातवें नरककी स्थिति यद्यपि तेतीस सागर है, किन्तु वहाँ स्थावर पर्यायका बन्धकाल नहीं है, क्योंकि सातवें नरकसे निकलकर जीव संज्ञी पञ्चन्द्रिय पर्याप्तक तियश्च ही होता है। अतः गणितकर्माश जीवके सातवें नरकके अन्तमें नपुंप्तकवेदका उत्कृष्ट संचय नहीं बतलाया । 'अथवा' करके आगे जो भावार्थ बतलाया है वह स्पष्ट ही है। तथा यद्यपि सातवें नरकमें अतितीव्रसंक्लेश परिणाम होनेसे उत्कर्षण अर्थात् स्थिति और अनुभागमें वृद्धि होनेकी अधिक संभावना है किन्तु किसी प्रकृतिके उत्कृष्ट द्रव्य संचयके लिये उत्कर्षणकी अपेक्षा उस प्रकृतिका बन्ध होना अधिक लाभकारी है, क्योंकि बन्ध होनेसे अधिक प्रदेशों का संचय होता है।
६१०५. अब यहाँ नपुंसकवेदके उत्कृष्ट द्रव्यके उपसंहारका कथन करने पर संचयानुगम, भागहारप्रमाणानुगम और लब्धप्रमाणानुगम ये तीन अनुयोगद्वार होते हैं। उनमें से संचयानुगमको कहते हैं। वह इस प्रकार है-कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त बन्धको प्राप्त नपुसकवेदका द्रव्य है। उसके बादके अन्तर्मुहूर्त कालमें नपुसकवेदका संचित होनेवाला द्रव्य नहीं है। अर्थात् उस अन्तमुहूर्तमें नपुंसकवेदका संचय नहीं होता, क्योंकि उसमें अविवक्षित स्त्रीवेद और पुरुषवेदका बन्ध होनेसे नपुसकवेदके बन्धका अभाव है। उससे ऊपरके अन्तर्मुहूर्त कालमें भी नपुसकवेदका संचय होता है, क्योंकि उसमें नपुसक वेदका बन्ध पाया जाता है। उससे ऊपरके अन्तर्मुहूर्त कालमें नपुंसकवेदका संचय नहीं होता, क्योंकि उसमें नपुसकवेदके प्रतिपक्षी स्त्रीवेद और पुरुषवेदका बन्ध सम्भव है। इसी प्रकार कर्मस्थितिके अन्तिम समय पर्यन्त ले जाना चाहिये । किन्तु इतना विशेष है कि इस
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