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________________ गा० २२ ] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं गाओ तब्बंध परियणवारा च सव्वत्थोवा कायव्वा, अण्णहा णवुंसयवेदस्सुकस्सदव्वसंचयाणुववत्तीदो । णिरंतरबंधीणं कसायाणं दव्वे णवुंसयवेदम्मि णिरंतरं संकते वुंसयवेदस्स कम्मट्ठदिमेत्तकालसंचओ किण्ण लब्भदि १ ण, बंधुवरमे संते अंतोमुहुतमेतका कसा हिंतो णवुंसयवेदस्स कम्मपदेसागमाभाबादो । एदं कत्तो गव्वदे ! 'बंधे उकडुदि' ति सुत्तादो । मा होदु उकडणा, संकमेण पुण होदव्वं, तस्स पडिसेहाभावादति । संकमो वि णत्थि, बंधाभावेणापडिग्गहे णत्थि संकमो ति सुत्ताविरुद्धाहरियणादो । किं च एत्थ बज्झमाणदव्वं पहाणं ण संकमिददव्वं, तत्थायाणुसारिवयसादो । जदि बज्झमाणपयडी चेव पडिग्गहो तो मिच्छत्तदव्वं सम्मत्तपयडी ण पडिच्छदि, बंधाभावादो ति १ ण एस दोसो, बंधपयडीओ अस्सिदूण एदस्स लक्खणस्स पत्तदो । ण च अण्णत्थ पउत्तं लक्खणमण्णत्थ पयहृदि, विरोहादो । एवं संचयाणुगमो गदो । $ १०६. संपहि भागहारपमाणाणुगमो कीरदे । तं जहा — कम्मट्ठिदिपढमसमए जं बद्धं दव्वं तस्स अंगुलस्स असंखे ० भागो भागहारो । विदियसमए बद्धस्स किंचूर्ण कर्मस्थिति कालके अन्दर प्रतिपक्ष प्रकृतियोंके बन्धका काल और उनके बन्धके बदलनेके बार सबसे थोड़े करने चाहिये अन्यथा नपुंसक वेदका उत्कृष्ट संचय नहीं बन सकता । शंका — निरन्तर बंधनेवालीं कषायोंके द्रव्यका नपुंसक वेदमें निरन्तर संक्रमण होने पर नपुंसक वेदका संचय कर्मस्थिति कालप्रमाण क्यों नहीं पाया जाता ? समाधान नहीं, क्योंकि नपुंसकवेदका बन्ध रुक जानेपर अन्तर्मुहूर्त कालतक कषायों मेंसे नपुंसक वेद में कर्मप्रदेशोंका आगमन नहीं होता । शंका- यह किस प्रमाणसे जाना ? ९५ समाधान —' बन्धके समय उत्कर्षण होता है' इति सूत्र से जाना । शंका-बन्ध के न होने पर यदि उत्कर्षण नहीं होता तो न होवे, संक्रमण तो होना चाहिए, क्योंकि उसका निषेध नहीं है ? समाधान-बन्धके अभाव में संक्रम भी नहीं होता, क्योंकि 'बन्धका अभाव होने से अपतदुग्रह प्रकृति में संक्रमण नहीं होता' इस प्रकार सूत्रके अविरुद्ध आचार्य वचन हैं । दूसरे, यहाँ बँधने वाले द्रव्यकी प्रधानता है, संक्रमित द्रव्यकी नहीं, क्योंकि संक्रमित द्रव्यमें आयके अनुसार व्यय देखा जाता है । शंका- यदि बध्यमान प्रकृति ही पतद्ग्रह है तो मिथ्यात्वके द्रव्यको सम्यक्त्वप्रकृति नहीं ग्रहण कर सकती, क्योंकि उसका बन्ध नहीं होता ? समाधान- यह दोष ठीक नहीं है, क्योंकि यह लक्षण बन्ध प्रकृतियोंकी अपेक्षा से ही लागू होता है । जो लक्षण अन्यत्र लागू होता है वह उससे भिन्न स्थलमें लागू नहीं हो सकता, क्योंकि ऐसा होने में विरोध आता है । इस प्रकार संचयानुगम समाप्त हुआ । $ १०६. अब भागहारके प्रमाणका अनुगम करते हैं । वह इस प्रकार है - कर्मस्थिति के प्रथम समयमें जो द्रव्य बांधा उसका भागहार अंगुळका असंख्यातवां भाग है । दूसरे समय में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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