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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं १०५ णिरुद्ध पत्तधुवबंधभावस्स वेदस्स समयपबद्धाणं पयडिअंतरगमणाभावादो । तम्हा पादेक वेदावूरणं मोत्तूण जहा कसायाणं सत्तमपढवीए उक्कस्ससामित्तं दिणं तहा वेदसामण्णस्स उक्कस्ससामित्तं दादूण मणुस्सेसुप्पाइय सव्वलहुँ खवगसेढिं चढाविय तिवेददव्वं पुरिसवेदसरूवेण काऊण पुरिसवेदस्स उकस्ससामित्तं दादव्वमिदि। किं च सोहम्मकप्पम्मि पुरिसवेदे पूरिजमाणे सम्मत्तं पडिवजावेदव्यो, अण्णहा पुरिसवेदस्स धुवबंधित्ताणुववत्तीदो। एवं संते गुणसेढीए तिवेददव्वं णस्सदि ति ण भल्लयमिदं सामित्तं । ण बंधगद्धाणं माहप्पेण दव्वबहुत्तमुवलब्भइ, वेदसामण्णे णिरुद्धे बंधगद्धाजणिदविसेसस्स अणुवलंभादो त्ति । एत्थ परिहारो उच्चदे-ण कसायाणं व सत्तमपुढवीए तिवेदावूरणं जुत्तं, तत्थ तेसिं बहुदव्वुक्कड्डणाभावादो। णqसयवेदो ईसाणदेवेसु चेव इत्थिवेदो असंखेजवासाउएसु चेव पुरिसवेदो सोहम्मदेवेसु चेव बहुओ उक्कडिजदि उवसामणा-णिधत्त-णिकाचणाभावेण परिणामिजदि, खेत्त-भव-भावावटुंभवलेण कम्मक्खंधाणं परिणामंतरावत्तिं पडि विरोहाभावादो । एदेसिमेदे भावा एत्थेव बहुवा होति ण अण्णत्थे त्ति कुदो णव्वदे ? एदम्हादो चेव जिणवयणविणिग्गयसुत्तादो। उक्कडणाए प्राप्त वेदके समयप्रबद्ध अन्य प्रकृति रूप नहीं हो सकते। अतः प्रत्येक वेदकी पूर्ति न कराकर जैसे सातवें नरकमें कषायोंका उत्कृष्ट स्वामित्व दिया है वैसे ही वेदसामान्यका उत्कृष्ट स्वामित्व देकर उसे मनुष्योंमें उत्पन्न कराकर, जल्दीसे जल्दी क्षपक श्रेणीपर चढ़ाकर और तीनों वेदोंके द्रव्यको पुरुषवेदरूपसे करके पुरुषवेदका उत्कृष्ट स्वामित्व देना चाहिए। दूसरे, सौधर्मकल्पमें पुरुषवेदका संचय करानेपर उस जीवको सम्यक्त्व प्राप्त कराना चाहिये, अन्यथा पुरुषवेद ध्रुवबन्धी नहीं हो सकता और ऐसा होनेपर गुणश्रेणी निर्जराके द्वारा तीनों वेदोंका द्रव्य नाशको प्राप्त होगा, अतः यहाँ जो स्वामित्व बतलाया गया है वह भला नहीं है। यदि कहा जाय कि बन्धक कालके बड़ा होनेसे पुरुषवेदका बहुत द्रव्य प्राप्त हो जायगा सो भी बात नहीं है, क्योंकि वेद सामान्यकी विवक्षा होनेपर बन्धक कालसे उत्पन्न हुई विशेषता नहीं पाई जाती है, अर्थात् बन्धककालकी यही विशेषता है कि उस कालमें उसी वेदका बन्ध होता है जिसका वह बन्धककाल है, किन्तु जब किसी न किसी वेदका बन्ध बराबर होता है और वह सब आगे जाकर पुरुषवेद रूपसे संक्रान्त हो जाता है तो बन्धककालसे भी कोई लाभ नहीं है ? समाधानयहाँ इस शंकाका समाधान कहते हैं-कषायोंकी तरह सातवें नरकमें तीनों वेदोंका संचय कराना युक्त नहीं है, क्योंकि वहाँ उनके बहुत द्रव्यका उत्कर्षण नहीं होता। नपुसकवेदका ईशान देवोंमें ही, स्त्रीवेदका असंख्यात वर्षकी आयुवाले मनुष्य और तिर्यश्चोंमें ही तथा पुरुषवेदका सौधर्म स्वर्गके देवोंमें ही बहुत द्रव्य उत्कर्षणको प्राप्त होता है तथा उपशामना, निधत्ति और निकाचनारूपसे परिणमित होता है, क्योंकि क्षेत्र, भव और भावके आश्रयका बल पाकर कर्मस्कन्धोंके पर्यायान्तरको प्राप्त होने में कोई विरोध नहीं है। शंका-इन वेदोंके ये भाव इन्हीं स्थानों में अधिक होते हैं, अन्यत्र नहीं होते यह कैसे जाना? समाधान-जिन भगवानके मुखसे निकले हुए इसी चूर्णिसूत्रसे जाना १४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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