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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहत्ती ५ उच्चदे । तं जहा-सव्वत्थोवा हस्स-रदिबंधगद्धा । पुरिसवेदबंधगद्धा विसेसाहिया । इत्थिवेदबंधगद्धा संखेगुणा । अरदि-सोगबंधगद्धा विसेसा०। * पुरिसवेदस्स उकस्सयं पदेससंतकम्मं कस्स ? ६११४. सुगमं। * गुणिदकम्मंसिओ ईसाणेसु एव॑सयवेदं पूरेदूण तदो कमेण असंखेजवस्साउएसु उववरणो। तत्थ पलिदोवमस्स असंखेजदिमागेण इत्थिवेदो पूरिदो। तदो सम्मत्तं लम्भिदूण मदो पलिदोवमहिदीमो देवो जादो। तत्थ तेणेव पुरिसवेदो पूरिदो। तदो चुदो मणुसो जादो सव्वलहुँ कसाए खवेदि । तदोणव॑सयवेदं पक्खिविदूण जम्हि इत्थिवेदो पक्वित्तो तस्समए पुरिसवेदस्स उकस्सयं पदेससंतकम्मं । ___ ११५. गुणिदकम्मंसिओ त्ति वुत्ते वेहि सागरोवमसहस्सेहि सादिरेगेहि यूणियं कसायकम्मट्ठिदि गुणिदकिरियाए बोदरपुढविकाइएसु जो अच्छिदो तस्स गहणं कायव्वं । ईसाणं गदो त्ति किमटुं वुच्चदे ? णवंसयवेददव्वावूरणहूँ । तिण्हं वेदाणं दव्वमेग8 कादूण पुरिसवेदस्स उकस्सदव्वं भण्णमाणे पादेक्कं वेदावूरणमणत्थयं, वेदसामण्णे थोड़ा है। उससे पुरुषवेदका बन्धककाल विशेष अधिक है। उससे स्त्रीवेदका बन्धककाल संख्यातगुणा है । उससे अरति और शोकका बन्धककाल विशेष अधिक है। ॐ पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म किसके होता है ? ६११४. यह सूत्र सुगम है। * गुणितकर्मा शवाला जीव ईशान स्वर्गमें नपुंसकवेदकी पूर्ति करके फिर क्रमसे असंख्यातवर्षकी आयुवालोंमें उत्पन्न हुआ। वहां पल्यके असंख्यातवें भागमात्र कालके द्वारा उसने स्त्रीवेदकी पूर्ति की। फिर सम्यक्त्वको प्राप्त करके मरा और पल्योपमकी स्थितिवाला देव हुआ। वहाँ उसने पुरुषवेदकी पूर्ति की। फिर मरकर मनुष्य हुआ और सबसे कम कालके द्वारा कषायोंका क्षपण किया । फिर नपुंसक वेदका प्रक्षेप करके जिस समय स्त्रीवेदको प्रक्षिप्त किया है उस समय उसके पुरुषवेदका उत्कृष्ट प्रदेशसत्कर्म होता है। ६११५. गणितकांशवाला कहनेसे कुछ अधिक दो हजार सागर कम कषायकी कर्मस्थितिप्रमाण जो जीव बादर पृथिवीकायिकोंमें उत्कृष्ट संचयकी सामग्रीके साथ रहा उसका ग्रहण करना चाहिये। शंका-ईशान स्वर्गमें गया ऐसा क्यों कहते हो ? समाधान-नपुंसकवेदके द्रव्यको पूरा करनेके लिये उसे ईशान स्वर्गमें उत्पन्न कराया है। शंका–तीनों वेदोंके द्रव्यको एकत्र करके पुरुषवेदका उत्कृष्ट द्रव्य कहनेके लिये प्रत्येक वेदकी पूर्ति कराना व्यर्थ है, क्योंकि वेद सामान्यके विवक्षित रहने पर ध्रुवबन्धीपनेको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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