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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामित्तं २३३ गंतूण दंसणमोहणीयक्खवणमाढविय मिच्छचं सम्मामिच्छशिम्मि संछुहिय द्विदो सरिसो, दिवड्डगुणहाणिगुणिदेगेइंदियसमयपबद्धे गुणसंकमभागहारेण सव्वजहण्णुव्वेल्लणकालभंतरणाणागुणहाणिसलागाणमण्णोण्णभत्थरासिणा च ओबट्टिदे दोहं दव्वाणं पमाणागमणुवलंभादो । संपहि इमं दसणमोहक्खवगदव्वं घेत्तूण परमाणुत्तरादिकमेण अणंतभागवडि-असंखेजभागवड्डीहि वड्ढावेदव्वं जाव एगगोवुच्छमेत्तमेगसमएण विज्झादसंकमेणागददव्वेणूणं वहिदं ति । एदेण खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण पढमछावहि. कालभंतरे पुव्विल्लं कालं समयूणं भमिय मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तम्मि पक्खिविय द्विदो सरिसो। संपहि इमं घेत्तूण विज्झादसंकमेणागददव्वेणूणएगेगगोवुच्छमेत्तं वड्डाविय सरिसं कादूण समयूणादिकमेणोदारेदव्वं जाव गुणसंकमच्छेदणयमेत्ताओ उव्वेल्लणणाणागुणहाणिसलागमेत्ताओ च गुणहाणीओ ओदरिदूण द्विदो ति । एदेण खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण मणुस्सेसुववज्जिय गम्भादिअट्ठवस्साणि अंतोमुहुत्तन्महियाणि गमिय दंसणमोहक्खवणमाढविय मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तम्मि संछुहिय द्विदो सरिसो। संपहि एवं दव्वं पंचहि वड्डीहि चत्तारि पुरिसे अस्सिदण वड्ढावेदव्वं जाव सम्मामिच्छत्तस्स ओघुक्कस्सदव्वं जादं ति । एवं खविदकम्मंसियमस्सिदण कालपरिहाणीए हाणपरूवणा कदा । क्षपणाका आरम्भ कर मिथ्यात्वको सम्यग्मिथ्यात्वमें क्षेपण कर स्थित है, क्योंकि डेढ़ गुणहानिसे गुणा किये गये एकेन्द्रियोंके एक समयप्रबद्धमें गुणसंक्रम भागहारका और सबसे जघन्य उदलनाकालके भीतर प्राप्त हुई नाना गुणहानिशलाकाओंको अन्योन्याभ्यस्त राशिका भाग देने पर दोनों द्रव्योंका प्रमाण प्राप्त होता है। अब दर्शनमीहनीयके क्षपकके इस द्रव्यके ऊपर एक-एक परमाणु अधिकके क्रमसे अनन्तभागवृद्धि और असंख्यातभागवृद्धिके द्वारा एक समयमें विध्यातसंक्रमणके द्वारा आये हुए द्रव्यसे कम एक गोपुच्छप्रमाण द्रव्यके बढ़ने तक बढ़ाते जाना चाहिये । इस प्रकार बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो क्षपितकर्माशकी विधिसे आकर और प्रथम छयासठ सागर कालके भीतर एक समय कम पूर्वोक्त कालतक भ्रमण करके और मिथ्यात्वके द्रव्यको सम्यग्मिथ्यात्वमें निक्षिप्त करके स्थित है । अब इस द्रव्यके ऊपर विध्यातसंक्रमण द्वारा आये हुए द्रव्यसे कम एक गोपुच्छाप्रमाण द्रव्यको बढ़ाकर और समान करके एक समय कम आदि क्रमसे तब तक उतारना चाहिये जब तक गुणसंक्रमके अर्धच्छेदप्रमाण और उद्वेलनाकी नाना गुणहानिशलाकाप्रमाण गुणहानियोंको उतार कर स्थित होवे । इस प्रकार उतार कर स्थित हुए इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर और मनुष्योंमें उत्पन्न होकर गर्भसे अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्ष कालको बिताकर दर्शनमोहनीयकी क्षपणाका प्रारम्भ करके मिथ्यात्वको सम्यग्मिथ्यात्वमें निक्षिप्त करके स्थित है। अब इस द्रव्यको पांच वृद्धियोंके द्वारा चार पुरुषोंका आश्रय लेकर सम्यग्मिथ्यात्वके उत्कृष्ट द्रव्यके प्राप्त होने तक बढ़ाते जाना चाहिये । इस प्रकार क्षपितकर्मा शकी अपेक्षा कालकी हानि द्वारा स्थानोंका कथन किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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