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________________ २३२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पदेसविहची ५ पुध्वं व ओदारेदव्वं, विसेसाभावादो। णवरि एगगोवुच्छदव विज्झादसकमेणागददव्वेणणं सव्वत्थ वड्ढावेदव्वं । एगवारेण ओदारिजमाणे वि णस्थि विसेसो । गवरि एगवारेण एत्थ अंतोमुहुत्तमेत्तगोवुच्छाओ अंतोमुहुत्तकालम्मि विज्झादसंकमणागददव्वेणूणाओ वड्ढावेदव्याओ । एत्तो पहुडि समय णादिकमण ताव ओदारेदव्व जाव अंतोमुहुत्तूणपढमछावहिमोदिण्णो त्ति । पुणो तत्थ हविय एगगोवुच्छदव्वमुवेल्लणसंक्रमण परपयडीए संकेतदव्वं च वड्डाविय समय ण-दुसमयणादिकमण उव्वेल्लणकालो वि ओदारेदव्वो जाव सव्वजहण्णुव्वेल्लणकालो चेहिदो ति । पुणो तत्थ एगवारण अंतोमुहुत्तमेत्तगोवु च्छाओ तत्थ विज्झादसंकमेणागददव्वेणूणाओ वड्ढावेदव्वाओ। एवं वड्डिदूण हिदेण अण्णेगो खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण देवेसुप्पन्जिय उवसमसम्मत्तं पडिवजिय मिच्छत्तं गंतूण सव्वजहण्णुव्वेल्लणकालेण सम्मामिच्छत्तमुव्वेल्लिय तश्चरिमफालिं धरेदूण हिदो सरिसो। ६२२८. संपहि एदेण दव्वेण जं सरिसं दंसणमोहणीयक्खवगस्स सम्मामिच्छत्तदव्वं मेत्तूण तं कालपरिहाणिं कस्सामो। को दंसणमोहक्खवगो एदेण सरिसो १ जो खविदकम्म सियलक्खणेणागंतूण सम्मत्तं पडिवज्जिय पढमछावट्ठीए गुणसंकमभागहारम्सद्धच्छेदणयमेत्ताओ सव्वजहण्णुव्वेल्लणकालस्स गुणहाणिसलागमेत्ताओ च गुणहाणीओ पर पहलेके समोन उतारना चाहिये, क्योंकि इससे उसमें कोई विशेषता नहीं है। किन्त इतनी विशेषता है कि सर्वत्र विध्यातसंक्रमणसे आये हुए द्रव्यसे कम एक गोपुच्छप्रमाण द्रव्यको बढ़ाना चाहिये । किन्तु एक साथ उतारा जाय तो भी कोई विशेषता नहीं है। किन्तु इतनी विशेषता है कि यहां एक साथ अन्तर्मुहूर्त काल में विध्यातसंक्रमणके द्वारा आये हुए द्रव्यसे कम अन्तमुहूर्तप्रमाण गोपुच्छाओंको बढ़ाना चाहिये। फिर यहांसे लेकर अन्तर्मुहूर्तकम प्रथम छयासठ सागर काल उतरने तक उतारते जाना चाहिये । फिर वहां ठहराकर एक गोपच्छप्रमाण द्रव्यको और उद्वेलना संक्रमणके द्वारा अन्य प्रतिमें संक्रान्त हुए द्रव्यको बढ़ाकर एक समय कम और दो समय कम आदि क्रमसे उद्वेलना कालको भी सबसे जघन्य उद्वेलना कालके प्राप्त होनेतक उतारते जाना चहिए । फिर वहां पर विध्यातसंक्रमणके द्वारा आये हुए द्रव्यसे कम अन्तर्मुहूर्तप्रमाण गोपुच्छाओंको बढ़ाना चाहिये । इसप्रकार बढ़ाकर स्थित हुए जीवके समान एक अन्य जीव है जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर और देवों में उत्पन्न होकर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। अनन्तर मिथ्यात्वमें जाकर सबसे जघन्य उद्वेलनाकालके द्वारा सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलनाकर उसकी अन्तिम फालिको धारण करके स्थित है। ६२२८. अब इस द्रव्यके साथ दर्शनमोहनीयके क्षपकके सम्यग्मिथ्यात्वका जो द्रव्य समान है उसकी अपेक्षा कालकी हानिका कथन करते हैं शंका-दर्शनमोहनीयका क्षपक कौनसा जीव इसके समान है ? समाधान-जो क्षपितकर्मा शकी विधिसे आकर और सम्यक्त्वको प्राप्त होकर प्रथम छयासठ सागर कालके भीतर गुणसंक्रम भागहारके अर्धच्छेदप्रमाण और सबसे जघन्य उदलना कालकी गुणहानिशलाकाप्रमाण गुणहानियोंको बिताकर फिर दर्शनमोहनीयकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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