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________________ गा० २२] उत्तरपयडिपदेसविहत्तीए सामिर्स सोहिय सुद्धसेसं वड्डावे दूण ओदारेदव्व जाव आवलियअपुन्वकरणो त्ति । पुणो तत्तो हेट्ठा ओदारिजमाणे दोगोवुच्छविसेससहिदगुणसेढिगोवुच्छं गुणसंकमदव्व च वड्डावेदव्वं । एवमोदारेदव्वं जाव अधापवत्तकरणचरिमसमओ त्ति । ३०२. संपहि एवं दव्वं परमाणुत्तरकमण वड्डाव दव्व जाव तम्मि गदविल्झादसंकमदव्वमेत्तं उदयगदगुणसेढिगोवच्छदव्वं दोगोवुच्छविसेससहिदं वड्डिदं ति । एवं वड्डिदूण द्विदेण अण्णेगो दुचरिमसमयअधापवत्तो सरिसो । एवमोदारेदव्वं जाव आवलियसंजदो त्ति । पुणो तत्थ विज्झादसंकमेण गददव्वं दोगोवच्छविसेसाहियगोवच्छदव्व च वड्ढाव दव्व । एवं वड्डाविदण ओदारेदव्व जाव मिच्छादिहिचरिमसमओ ति। तत्तो हेहा ओदारदुंण सकिजदे', उदयविसेसं पेक्खिण णवकबंधदव्वस्स असंखे गुणत्तादो । सव्वमेदं थूलकमेण परूविद। ___३०३ सुहुमदिट्ठीए' पुण णिहालिजमाणे एयंताणुवड्डिसंजदचरिमगुणसैढिसीसयप्पहुडि हेहा सव्वत्थेवमोदारदुं ण सक्कदे, हेडिल्लदव्व पेक्खिद्ण उवरिमसमयडियणवसयव ददव्वस्स बहुत्तुवलंभादो । तं पि कुदो ? हेट्ठिमथिवक्कगुणसेढिगोवुच्छलाभादो उवरिमतल्लाभस्स असंखेजगुणत्तदसणादो। ण च रहे उसे बढ़ाकर अपूर्वकरणको एक आवलि काल तक उतारते जाना चाहिये। फिर इससे नीचे उतारने पर दो गोपुच्छाविशेषांके साथ गुणश्रेणिकी गोपुच्छाको और गुणसंक्रमके द्रव्यको बढ़ाना चाहिये और इस प्रकार अधःप्रवृत्तकरणके अन्तिम समयके प्राप्त होने तक उतारते जाना चाहिये। ६३०२. अब इस द्रव्यको उत्तरोत्तर एक एक परमाणुके क्रमसे तब तक बढ़ाना चाहिये जब जाकर इसी समय विध्यातसंक्रमणके द्वारा जितना द्रव्य अन्य प्रकृतिको प्राप्त हो उतना द्रव्य तथा दो गोपुच्छविशेषोंके साथ उदयको प्राप्त हुआ गुणश्रेणिगोपुच्छाका द्रव्य बढ़ जाय । इसप्रकर बढ़ाकर स्थित हुए इस जीवके समान एक अन्य जीव है जो अधःप्रवृत्त. करणके उपान्त्य समयरें स्थित है। इस प्रकार संयतके एक आवलि काल तक उतारते जाना चाहिये । फिर वहाँ विध्यातसंक्रमणके द्वारा पर प्रकृतिको प्राप्त हए द्रव्यको और दो गोपुच्छाविशेषोंके साथ गोपुच्छाके द्रव्यको बढ़ाना चाहिये। इस प्रकार बढ़ाकर मिथ्यादृष्टिके अन्तिम समय तक उतारना चाहिये । अब इससे और नीचे उतारना शक्य नहीं है, क्योंकि उदयविशेषकी अपेक्षा नवकबन्धका द्रव्य असंख्यातगुणा है । यह सब स्थूल क्रमसे कहा है। ६३०३. सूक्ष्मदृष्टिसे विचार करने पर एकान्तानुवृद्धिसंयतको अन्तिम गुणश्रेणिके शीर्षसे लेकर नीचे सर्वत्र इस प्रकार उतारना शक्य नहीं है, क्योंकि नीचेके द्रव्यकी अपेक्षा ऊपरके समयमें स्थित नपुंसकवेदका द्रव्य बहुत पाया जाता है। शंका- ऐसा क्यों होता है। समाधान-क्योंकि नीचे स्तिवुकसंक्रमणके द्वारा जो गुणश्रेणि गोपुच्छाका लाभ होता है उससे ऊपर स्तिवुक संक्रमणके द्वारा प्राप्त होनेवाली गुणश्रोणि गोपुच्छाका लाभ १. मा०प्रतौ सिक्किदे' इति पाठः । २. ता. प्रती 'मुहुमद्विदोए' इति पाठः । ३७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001412
Book TitleKasaypahudam Part 06
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Digambar Sangh
Publication Year1958
Total Pages404
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size11 MB
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